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होनी चाहिए । बुद्धिपूर्वक प्राप्त समझ के द्वारा अधिकृत या प्रतिष्ठित श्रद्धा ही फलदायक होती है । उससे रहित श्रद्धा फल नही देती । जो श्रद्धा 'आगे से चली आई है' ऐसे अर्थ वाली (मात्र परपरागत) होती है वह सच्ची श्रद्धा नहीं है। सच्ची इस अर्थ मे नही है कि इस प्रकार की श्रद्धा वाले मनुष्य परीक्षा के समय पानी के बुदबुदे की तरह विला जाते है। __मत्रसिद्धि मे दूसरी महत्त्व की वस्तु “एकाग्रता' है । चित्त की एकाग्रता (Concentration of mind) एक वडी भारी शक्ति है। इसके विना मनुष्य मत्र के विषय मे कोई प्रगति नही कर सकता। स्थिर हुए विना, अनेक प्रकार के मनोव्यापारो मे बिजली की सी गति करने वाला मन एकाग्रता प्राप्त नहीं कर सकता। इस विषय मे मन को तैयार करने के लिए मनुष्य को बडा भारी पुरुषार्थ करना पडता है, मन की एक निश्चित सुव्यवस्थित अवस्था का निर्माण करना होता है। यदि ऐसा न हो सके तो मत्रसिद्धि कभी प्राप्त नही हो सकती।
तीसरी शर्त दृढता है । यह भी एक महान शक्ति है। इस दृढता को अग्रेजी मे Power of Perseverance कहते है । मुसीवते श्रावे, आफते अावे, दु ख पडे और अपनी धारणा से अधिक समय लग जाय तो भी इन सबके सामने मनुष्य को दृढतापूर्वक डटे रहना चाहिए । वुद्धि सहित श्रद्धा से युक्त एकाग्रचित्त मे निश्चय-शक्ति तो अपने आप प्रकट होती है। परन्तु जिनमे उस पर दृढतापूर्वक डटे रहने की और कुछ भी हो जाय तो भी अपने प्रयत्न को न छोडने की गक्ति हो उन्ही को सिद्धि प्राप्त होती है।
चौथी शर्त 'विधि' से सम्बन्धित अर्थात् विधिपूर्वक