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जाता है। फिर भी, चूकि इस शब्द से हमारा सपर्क हुआ है, इसलिये इसकी सक्षिप्त जानकारी हमे प्राप्त कर लेनी चाहिए।
'जैन तत्वज्ञान के अनुसार एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक के जितने जीव इस संसार मे है, वे सब निगोद मे से प्राये हुए हैं | 'निगोद' अर्थात् अनन्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवो का एक शरीर ।' इस लोक मे ऐसी प्रसस्य निगोदे है । एक एक मे अनन्त जीव भरे हुए है, और ऐसी ग्रसख्य निगोदो मे अनन्तानन्त जीव विद्यमान है |
'निगोद में रहे हुए जीव अत्यल्प चैतन्ययुक्त, तथा किसी भी प्रकार की विशेष सामग्री या विशेष पुरुषार्थ की अनुकूलता से रहित 'समान कर्मी' होते है ।
""जितने जीव सव कर्मों को क्षय करके इस संसार मे से मोक्ष मे जाते है, उतने जीव निगोद मे से बाहर निकलते है-संसारचक्र का यह नियम है । तीनो कालो में मोक्ष जाने वाले जीवो की सख्या से अनन्तगुने जीव एक एक निगोद मे रहे हुए है । इस कारण, मोक्ष का मार्ग सतत चालू रहते हुए भी यह ससार कभी, किसी भी समय पूर्णतया रिक्त नही होता ।'
'यद्यपि निगोद के सभी जीव अत्यल्प चैतन्य वाले तथा किसी प्रकार की विशेष सामग्री या विशेष पुरुषार्थ की सुविधा से वचित है, तो भी उनका वहाँ से बाहर निकलने का कार्य नियति या भवितव्यता का वशवर्ती है- प्रर्थात् भवितव्यता के कारण वे निगोद से बाहर निकलते हैं ।'
जैन तत्त्ववेत्ताओ ने जीव विषयक जो निरूपण किया है, उसके समान सूक्ष्म विवरण अन्य किसी तत्त्वज्ञान मे नही मिलता । विशेषत निगोद के जीवो के विषय मे जैन दार्शनिको