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आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध भी अनादि है । दुनिया के अनादि-अनन्त अस्तित्व की अपेक्षा से कहा जा सकता है कि कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध भी अनादि-अनन्त है परन्तु जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, कर्म के साथ उसका सम्बन्ध अनन्त नहीं है, मान्त है । समस्त कर्मों का क्षय करके जव आत्मा 'मुक्त' बनता है तब कर्म के साथ उस यात्मा का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है । इसका दूसरा तर्क-सगत (Logical) अर्थ यह हुआ कि जब तक सर्व कर्मों का क्षय नहीं होता तब तक प्रात्मा 'मुक्त' नही होता । ____ तात्पर्य यह है कि किसी भी गरीर मे जब तक आत्मा कर्म से अशुद्ध अथवा वद्ध वन कर परिभ्रमण करता है तब तक वह कर्म करता रहता है । इन कर्मो के फल स्वरूप ही उसे जन्म लेना, जीना, मरना, फिर जन्म लेना और भाँति-भांति के शरीरो मे बद्ध होकर स्वर्ग, पृथ्वी और नरक के बीच चौरासी लाख योनि मे परिभ्रमण करना पडता है।।
पिछले 'पाँच कारण' वाले प्रकरण में हमने 'कर्म' को कार्य के एक कारण के रूप मे देखा है । जहाँ तक प्रात्मा के सासारिक पर्यायो का-शरीर, राग-द्वेप और मुख दु ख का, सम्बन्ध है, उसमे कर्म एक प्रधान कारण है।
हम अपनी आँखो से 'कर्म' को देख नहीं सकते, फिर भी जैसा कि पहले कहा गया है, कर्म एक पुद्गल है । पुद्गल अर्थात् रूपी-साकार । परन्तु यह रूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियगम्य नहीं है। ___जैन तत्त्वज्ञानियो ने समग्र विश्व-रचना के आधार स्वरूप जो छह द्रव्य बताये हैं उनमे पुद्गल भी एक द्रव्य (पदार्थ