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प्रवृत्ति से कर्म के पुद्गल खिंच कर प्राते है और उससे चिपकते है । कर्मवगंगा के पुद्गल लोकाकाश में ग्रर्थात् विश्व मे सर्वत्र भरे पडे है | जब ये पुद्गल ग्रात्मा से चिपकते है तव उनका यो चिपकना 'कर्मवधन' कहलाता है ।
तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान की दृष्टि से "क्रिया के द्वारा निष्पन्न होने वाला पुद्गल - विशेष की रचना का कार्य ही कर्म है ।" इस क्रिया मे मन, वचन और काया से होने वाली क्रिया के अतिरिक्त श्रात्मा के मिथ्यात्व, अविरति, कपाय आदि की क्रिया का भी समावेश होता है ।
मन, वाणी और शरीर की क्रियाग्रो के प्रकार के अनुसार कर्म के पुद्गल खिच कर आते है, बँधते है, और आत्मा जीव से चिपकते है । इस तरह "कार्य अथवा क्रिया के द्वारा खिंच कर आने वाले और ग्रात्मा से चिपकने वाले पुद्गलो के समूह को शास्त्रीय परिभाषा मे 'कर्म' कहते है । इनके भी दो प्रकार है - द्रव्य कर्म और भाव कर्म । जीववद्ध कार्मिक पुद्गलो क 'द्रव्यकर्म' कहते है और जीव के राग-द्वेष, इत्यादि विभावात्मक परिणाम को 'भावकर्म' कहते है । इन दो प्रकार के कर्मो से परस्पर कार्य-कारण-भाव का सम्बन्ध है | भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की प्रवृत्ति होती है ।
यह कर्म-रूप क्रिया श्रनादिकाल से चली आ रही है । अनन्तकाल तक चला करेगी। जिसे हम जीवन कहते है, वह भी एक क्रिया ही है । इस दृष्टि से जीवन भी एक कर्म है ।
तत्त्वज्ञानियों ने आत्मा के जो दो स्वरूप बताये है वे है, 'मुक्त ग्रात्मा' और 'कर्मवद्ध ग्रात्मा ।' यहाँ जो 'मुक्त' शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ 'कर्ममुक्त' समझिये ।