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के साथ कर्म का जो सगम होता है, वह दूध और पानी के संगम के समान है। अर्थात् दूध और पानी मिल जाने से दोनो मे जैसा एकत्व प्रकट होता है वैसा ही एकत्व 'वध' होने के बाद आत्मा और कर्म का भी होता है।
यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है । आत्मा मूल द्रव्य के रूप मे शुद्ध है। कर्म का सयोग होने से वह अशुद्ध वना है । अब यहाँ शुद्धि और अशुद्धि का अलग अस्तित्व नही रहा। ये दोनो मिल कर एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट करते है । अर्थात स्वतन्त्र आत्मा तथा स्वतन्त्र कर्म पुद्गलो का सयोग होने से जो तीसरा स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट होता है उसे तत्त्वज्ञानियो की भाषा मे 'कर्म वद्ध ससारी आत्मा' कहते है। हम उसे 'शरीर-जीवित शरीर' के अर्थ मे पहचानते है ।
यह प्रात्मा जब अपने शरीर को 'मेरा' कहता है, तब वह स्वय उसमे व्याप्त होने के कारण सापेक्ष दृष्टि या हम जोवित शरीर को भी 'यात्मा' कह सकते है। इससे यह ज्ञात होता है कि यह कर्म-वद्ध आत्मा अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को पहचानता है, और इसीलिए वह स्वय को 'म और उसके अतिरिक्त अपने शरीर को तथा शरीर के अंगो को 'मेरा' कह कर पुकारता है । इस दृष्टि से आत्मा को अनादिकाल से लगे हुए जड पुद्गल भी 'मै' नाम से पुकारे जाने के कारण वे पुद्गल भी 'आत्मा' वनजाते है। याद रखिये कि यह बात भी सापेक्ष दृष्टि से होती है।
अब हम 'मै' और 'मेरा' का क्रमश. विस्तार करेगे, तो समझने मे बडा आनन्द प्राप्त होगा ।
सब से पहले तो आत्मा के साथ जो गरीर सोधा-प्रत्यक्ष