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१०२ अनेकात तथा स्याद्वाद के बीच वाच्य-वाचक या साध्यसाधक का सा सम्बन्ध भी माना जाता है। यहाँ यदि हम उपमा देना चाहे तो अनेकान्त को सुवर्ण की तथा स्याद्वाद को कसौटी की उपमा दे सकते हैं अथवा अनेकात की एक किले से और स्यावाद की उस किले तक जाने वाले मार्गो को बताने वाले नकशे से तुलना कर सकते है।
परन्तु यहाँ एक बात स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि ये अनेकातवाद तथा स्याद्वाद एक ही तत्त्वज्ञान के अग होने के कारण वस्तुत दोनो एक ही है।
'स्याद्वाद' शब्द मे 'स्यात्' तथा 'वाद' ये दो शब्द मिले हुए है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ हम अच्छी तरह समझ ले । आगे चलकर जब सप्तभगी का निरूपण किया जायगा तत उसमे भी इस 'स्यात्' शब्द को हम वडी महत्वपूर्ण भूमिका मे देखेंगे। अतएव इस शब्द का अर्थ हमे पहले से ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। इसका अर्थ हमे स्पष्टतया समझ मे आजाना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एव आवश्यक है । ___ शब्दकोप के अनुसार 'स्यात्' शब्द का सक्षिप्त अर्थ 'कथचित्' होता है । इस शब्द का विस्तृत अर्थ होता है 'किसी एक प्रकार से ( In Some respect) यहाँ 'प्रकार' शब्द का तात्पर्य है 'कोई एक अवस्था, स्थिति, या सयोग' । ___स्यात्' शब्द का अर्थ समझने में बहुत से लोग धोखा खा जाते है । कोई इसका अर्थ 'सशय' करते है, तो कोई 'सभावना, करते है । कोई इसका अर्थ 'कदाचित्' करते है। ___ ये सव अर्थ गलत है। जैन दर्शन के विरोधी लोग ऐसे उल्टे अर्थ निकालकर इस महान् तत्त्वज्ञान को यथार्थता के