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स्यादवाद यह मानने मे अब कोई हर्ज नही कि अनेकातवाद के विषय मे पिछले पृष्ठो मे जो कुछ लिखा गया है उसे पढकर विचार कर लेने के बाद इस अप्रतिम तत्त्वज्ञान विषयक प्रारभिक ज्ञान हमे ठीक ठीक प्रमाण मे हो चुका है ।
अब हम इतना तो अच्छी तरह समझ गये है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी अनत गुण धर्मों से युक्त है । साथ ही यह भी समझ मे आ गया है कि परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले इन तत्त्वो का ज्ञान अनेकान्त दृष्टि से देखने से ही होता है ।
हमे यह ज्ञान अच्छी तरह से हो और इसका स्पष्ट दर्शन हो सके, ऐसी कोई गणित-पद्धति यदि हमारे सामने हो तो वह हमे बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस हेतु से जैन दार्शनिको ने 'स्यावाद' के नाम से प्रसिद्ध पद्धति वतलाई है।
अनेकात दृष्टि से यह निश्चित हो चुका है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी गुण धर्मों से युक्त होती है । इस तथ्य को युक्तियुक्त एव तार्किक (Logically) ढग से प्रस्तुत करने के लिए जिस रीति की आवश्यकता है, वह रीति-वह पद्धति 'स्याद्वाद' हमे बतलाता है। , स्यावाद को अनेकातवाद अथवा अपेक्षावाद (सापेक्षवाद) के नाम से भी पहचाना जाता है। अनेकातवाद और स्याद्वाद, सामान्य दृष्टि से लगभग एक से मालूम होते है, परन्तु यदि हम दोनो को स्पष्टतया समझे तो प्रतीत होगा कि अनेकावाद के तत्त्वज्ञान को अभिव्यक्त करने की एक पद्धति 'स्याद्वाद' है।