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________________ "क्या यह बुद्धि सम्पूर्ण एव अपरिमित है ?" मेने उससे प्रश्न पूछा । “भला मे ऐसा कैसे कह सकता हूँ ?: "तो फिर पूर्ण बुद्धि द्वारा स्वीकृत बात को मान्य रखना तथा इस पूर्ण बुद्धि मे जिम बात को समझने की भी शक्ति न हो उस बात का इन्कार करना, इसे ही तुम बुद्धिवाद समझते हो तो फिर मुझे कहना होगा कि जिसे तुम बुद्धिवाद समझते हो वह सिर्फ ग्रहवाद और उससे उत्पन्न हुआ 'नकारवाद' ही है । " यह सुनकर वह विद्यार्थी कुछ उलझन में पड गया । उसे उलझन में पड़ा हुआ देख कर स्पष्टीकरण करने के उद्देश से मैने फिर से कहा "कृपया मेरी बातो से यह न समझ लेना कि बुद्धि मे मेरा विश्वास ही नही तथा विज्ञान के क्षेत्र मे ग्राज जो एक महान क्रान्ति ग्रा रही है उसे मे निरर्थक समझता हू | मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि विज्ञान ने आज दिन तक इतनी प्रगति तो नही की जिससे वह जैन आगमो मे सर्वज भगवतो के जो विधान संग्रहीत पडे हुए है उनको चुनौती दे सके, इसके विपरीत विज्ञान ने जो ग्राविष्कार किये है, उनके मूल तो उन सर्वज्ञ भगवतो के कथन मे ही समाये हुए है । मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि ग्राज मनुष्य के पास जो बुद्धि है उसका उपयोग यदि बुद्धि का अधिक विकास करने के उद्देग से किया जाय तो कालान्तर में एक न एक
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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