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आत्मा और कर्म का सम्बन्ध एक 'सनातन सघर्ष' है । अग्रेजी मे जिसे "Tug of wai' - विपरीत दिशा मे रस्सा खीचने की स्पर्धा कहते है । उस प्रकार का एक खेल आत्मा और कर्म के बीच अनादि काल से खेला जा रहा है । जब आत्मा मोक्ष मार्ग के लिए पुरुषार्थ शुरु करता है, तब से इस खेल का असली प्रारम्भ ग्रमल मे आता है, तभी ध्यान मे आता है ।
आत्मा स्वय ही कर्म का कर्ता और भोक्ता है । कर्म से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा की अपनी ही शक्ति है । आत्मा स्वय ही सुख और दुख के सभी सवेदन अनुभव करता है । ग्रात्मा इनके कारण भी जान सकता है, परन्तु यह जानने की शक्ति श्रात्मा के अपने कर्मो के द्वारा कुठित हो जाती है । जिन्हे जैन तत्त्वज्ञानी 'प्रावरणीय कर्म' कहते है, उन कर्मों से आत्मा स्वयं ही अपने लिए कठिनाइयाँ उपस्थित करता है । ग्रात्मा खुद ही अपने विकास में, अपने शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकररण मे अन्तराय-भूत कर्म करता है, उसके अपने कर्म ही उसके लिए बाधक होते है ।
किसी बालक को या जानवर को सुई चुभोने पर दुख की जो चीख निकलती है वह केवल शरीर से नही अपितु श्रात्मा से सम्बन्ध रखती है । क्योकि यदि उसका सम्बन्ध आत्मा से न होकर केवल शरीर से ही हो तो निष्प्राण शरीर मे से भी ऐसे सवेदन उत्पन्न होने चाहिए, लेकिन नही उत्पन्न होते । साधारण दियासलाई लग जाने से मनुष्य चिल्ला उठता है, जब कि श्मशान मे सारा शरीर जल कर भस्म हो जाता है, तब वह जरा सा भी नही हिलता डुलता, मामूली