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इसका अर्थ होता है - 'कथचित् घडा नही ही है और
चित् वक्तव्य है हो ।'
हमने प्रथम कसौटी वाले ' है ही' शब्दावलि से प्रकट होने वाले अस्तित्व को तथा चोथे भग के 'ग्रवक्तव्य' को साथ रख कर पाँचवे भग में पाँचवाँ कथन किया था। इस छ े भग मे हम दूसरे भग मे से 'प्रभाव - नास्तित्व' तथा चौथे भाग में से 'ग्रवक्तव्य' इन दो विधानो को एक साथ प्रस्तुत करते है । पांचवे भाग में हमारे सामने जिस तरह पहली घोर चौथी कसौटी के सयोजन से पाँचवाँ नया दृष्टिविन्दु प्रस्तुत हुआ था, उसी तरह इस छठे भाग मे हम दूसरे और चौथे भाग के सयोजन द्वारा एक नयी निश्चित परिस्थिति का दर्शन करते हैं ।
परचतुथ्र्य की ग्रपेक्षा से घड़ा नही है यह वात निश्चयपूर्वक सिद्ध होती है । परन्तु स्व-पर-चतुष्टयद्वय की अलगअलग अपेक्षात्रो से तथा 'स्यात्' शब्द के ग्राधार से उसमे एक दूसरा निश्चित कथन भी जुड जाता है कि 'घडा प्रवक्तव्य है ।' अर्थात् इस छठे भाग मे एक स्वतन्त्र बात कही गई है कि 'घडा नही है और अवक्तव्य है ।'
यहा पुन उपर्युक्त कुआँ खोदने का उदाहरण ले । किसीकिसी प्रदेश को 'जल-हीन प्रदेश' कहते है । वहुत गहराई तक खोदने पर भी वहाँ पानी नही निकलता । इसलिए कुआँ खोदने के बारे मे उक्त प्रदेश की जलहीनता की अपेक्षा से यह निश्चित हुआ कि 'इस जमीन के नीचे पानी है ही नही ।'
फिर भी जहाँ जमीन है वहाँ नीचे पानी है, यह तथ्य भी निश्चित है । इसलिये इस पर से हम दो तथ्य निकाल सकते हैं कि 'यहाँ पानी होते हुए भी खोदने से प्राप्त नही हुआ ।