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है । जब किसी वस्तु की अवस्था में परिवर्तन होता है तब उसका मूल ध्रुव स्वरूप तो उसमे ही मौजूद रहता है । ग्रग्नि से जो घुंग्रा निकलता है वह श्राकाश की ओर उड़ते-उडते ग्रहम्य होता प्रतीत होता है लेकिन उसका नाश नही होता । वह घुसा बहुत दूर ग्राकाश मे जाकर, बादल के रूप मे नई अवस्था वारण करता ही है। इस स्थिति को "श्रीव्य" नाम से पहचानना और स्वीकार करना, यह विलकुल तर्कशुद्ध है ।
ऊपर हमने देखा कि मूल वस्तु वह को वही होते हुए भी उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रलग-अलग नाम से पहचाने जाते हैं। ये भिन्न-भिन्न स्वरूप भी परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले होते हैं | लोहा एक चीज है, उसमे मे वनी हुई ढाल, तलवार, चाकू, केत्री गौर सुई यादि में लोहा होते हुए भी वे सभी अलग-अलग नाम से पहचाने जाते है योग परम्पर विरोधी कार्य भी करते हैं । तलवार काटने का काम करती है, फिर भी ढाल के आगे उसका कोई वस नही चलता । कैची चीरने का कार्य करती है तो मुई उम चीरे हुए को फिर से जोडने का काम करती है ।
जहर तो एक हो होता है । प्रमाण और अवस्थाभेद के कारण वह मनुष्य को मृत्यु की गोद से भी सुला सकता हे और जीवन भी प्रदान कर सकता है । मारते समय वह जहर कहलाता है जब कि जीवन प्रदान करते समय वह श्रपामृत कहलाता है । एक ही चीज का यह परस्पर विरोधी स्वभाव है |