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व्यवहार मे इसे दो प्रकार से लागू किया गया है । एक तो परस्त्री के प्रति कुदृष्टि या कुविचार न करना, क्योकि विचारो से सेवन किया जाने वाला श्रब्रह्मचर्य भी हानिकारक तथा सर्वथा वर्ज्य है । दूसरा, स्वपत्नी के साथ अपने व्यवहार मे भी
ब्रह्मचर्य का सेवन सीमित रखना । इम कलियुग मे जो लोग परस्त्री को माता तुल्य गिनते हैं, और पत्नी के साथ ब्रह्मसेवन को सीमित रखते है, वे महानुभाव भी एक प्रकार के ब्रह्मचारी ही है । मन, वचन और काया- इन तीनो पर कुश श्रावश्यक माने गये हैं । मन से परस्त्री के विषय में अयोग्य विचार करना भी एक महा-अह्मचर्य है । यहाँ भी उपर्युक्त 'स्व' तथा 'पर' हिंसा की बात तो ग्राती है । यह वात ग्रासानी से समझी जा सकती है ।
पाचवा जो अपरिग्रह का याचार बताया गया है, वह तो बहुत बड़ी समझने योग्य और ग्रवत्र्य पालन करने योग्य वात है | इसका सीधा सावा अर्थ है- धानी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना ।' इसमे ग्रावश्यकता शब्द वडे महत्त्व का है । गुजराती मे एक लोकोक्ति है जिसका अर्थ है, - "चीटी को कन और हाथी को मन ।" (कीडीने करण ने हाथीने मरण ) मनुष्य को कितना अपने पास रखना चाहिये और कितना नहीं, इसका भी स्पष्ट मार्गदर्शन शास्त्रकारो ने किया है । फिर भी प्रत्येक मनुष्य को अपना ग्रावश्यकताओ की सीमा स्वय विवेकपूर्वक निर्धारित करके उससे अधिक जो कुछ मिले, सो या तो लेना ही नही चाहिये या उसका सदुपयोग करना चाहिये । दूसरो के लिये- जिन्हे उनकी आवश्यकता हो उनके लिये उसका उपयोग करना चाहिये । ऐसा करने से ग्रपरिग्रह के