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वाद 'अट्ठारह पजे नब्बे' ऐसा हिसाव गिनने के लिए हमे पांच वार अट्ठारह लिखकर उनका योग करने की या कागज-कलम की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह एक वार यह स्याद्वादपद्धति हमारे मन में बैठ गई कि फिर तेजी से निर्णय करने मे हमे कोई कठिनाई नहीं होगी। कभी कभी उतावली मे निर्णय करके 'गाडी पकडने' की अपेक्षा उस 'गाडी को छूटने देना' अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।
यह सब होते हुए भी ऐसे प्रसगो मे हमे अपनी विवेकबुद्धि का उपयोग करके निर्णय करने की छूट तो इसके अन्तर्गत है ही। इस प्रकार अनपेक्षित शीघ्रता से हमे यदि कोई निर्णय लेना भी पड़ा हो तो उसके बाद भी नय दृष्टि तथा स्याद्वाद-पद्धति से विचार करना हमे नही छोडना चाहिए, विचार तो कर ही लेना चाहिए।
निर्णय लेने के पश्चात् भी उस निर्णय की सारासारता का विचार करने का यदि हम अभ्याम रखे तो उससे हमे लाभ हो होगा। यदि कभी हमे अपना निर्णय गलत मालूम हो तो गीघ्रतापूर्वक उस निर्णय से पीछे लौटना प्रारभिक अवस्था मे बडा सरल होता है । यदि विचार न करे तो हमे अपनी भूल समझ मे नही आती, और बाद मे चलकर वह समझ मे आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और इसलिए उसमे से लौटना और उसके परिणामो से वचना कठिन हो जाता है। इसलिए निर्णय करने से पहिले और निर्णय लेनेके बाद भी दोनो वार-हमे प्राप्त हुई नई दृष्टि से लाभ उठाने की और इस पद्धति से विचार करने की आदत तो डालनी ही चाहिए।