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________________ हाँ, तो अब हम यह परिचय प्राप्त कर ले । (१) 'जैन' का शाब्दिक अर्थ है 'जिन' के 'अनुयारी'। 'जिन' का अर्थ है मन, वाणी और शरीर पर विजय प्राप्त करके जिन्होने तीर्थकर पद प्राप्त किया हो वे, तीर्थकर का अर्थ है साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका-इन चारो के तीर्थ (समूह अर्थात् सघ) की जिन्होने स्थापना की हो वे । तीर्थकर के लिये अर्हत्, अरिहत, सर्वन अथवा केवलज्ञानी ऐसे अन्य भी नाम हैं। अपने समग्र पापो का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति से पहले, केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् जो लोग जगत को सद्धर्भ की पहचान करवाते है वे 'जिन' भगवान के नाम से पहचाने जाते हैं और उनके बतलाये हुए मार्ग पर चलने वाले लोग 'जैन' कहलाते हैं। (२) 'जन' शब्द किसी जाति या कौम का सूचक नही। वह तो धर्म का सूचक है । जैनधर्म का पालन करने के लिये किसी कौम या जाति का भेद नही रखा गया। जैनधर्म के याचारो का पालन करने वाला तथा उसके सिद्धान्तो को मानने वाला कोई भी व्यक्ति, फिर वह किसी भी कीम या जाति का हो, किसी भी देश का निवासी हो, 'जैन' नाम से पहचाना जाता है। (३) जैनधर्म पूर्ण रूप से लोकशासनवादी धर्म इसलिये माना जाता है कि तीर्थंकरो ने जिसकी स्थापना की है वह 'सघ' एक सामूहिक सत्ता है, श्रावक-श्राविका, साधु और साध्वी इन चार विभागो के सुन्दर मिलन से बने हुए 'सघ' की गान और सत्ता इतनी विशाल है कि वह सर्वोपरि मानो
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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