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वाद में यह प्रश्न उठेगा कि किस तत्त्वज्ञान का आश्रय लिया जाय ?
यो देखा जाय तो, जगत् के सभी तत्वज्ञान मनुष्य को अच्छे विचार प्रदान करते है । सद्व्यवहार के लिये शुभ विचारो की जो आवश्यकता है उसकी पूर्ति सभी तत्त्ववेत्तायो
ने की है । स्वाभाविक तौर पर अव यह प्रश्न उपस्थित होगा कि ऐसी परिस्थिति मे हमे कौन सा तत्वज्ञान अपनाना चाहिये ?
एक धोती का जोडा या साडी खरीदने के लिये हम बाजार जाते है। वहाँ जाकर ट्यूब लाइटो की रोशनी से जगमगाती हुई एक दूकान के भीतर हम प्रविष्ट होते है । व्यापारी हमे धोती और साड़ी दिखाता है।
आँखो को चकाचौध कर देने वाली उस रोशनी मे, वह व्यापारी हमे जो कुछ भी बताता है, वह सब हमे अच्छा ही दिखाई देता है । लेकिन क्या यह सब कुछ सचमुच ही अच्छा होता है ? इस तरह प्राकर्पित होकर क्या हम खरीद लेते है ?
कदापि नहीं। हम कपडे की जात को देखेंगे। रग कच्चा है या पक्का, इसकी पहचान करेगे, जिन रेशो का वह बना हना है उनकी जाच करेगे, उसकी सफाई देखेगे, यह भी देखेंगे कि यह माल किस मिल मे बना हुआ है, उसके मूल्य पर विचार करेगे और आखिर मे, बेचनेवाला व्यापारी ईमानदार है या नही उस पर भी विचार करेगे। इस तरह सात प्रकार के विचार करने के पश्चात् कौन-सा माल खरीदना है उसका हम निर्णय करेगे।