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गायव हो गया ? उसमे ही विलीन हो गया । अँधेरा होते ही उजाला कहाँ खो गया ? उसमे ही विलीन हो गया समझ मे नाता है न ?
उदाहरण के तौर पर ही यह बात कही गई है । तत्व - दृष्टि से भी जैन शास्त्रकारो ने अधकार और प्रकाश के पुद्गलो को एक ही माना है । ग्रवस्थाभेद के कारण ही वह अधकार और प्रकाश रूप मे श्राते है ।
इससे यह बात स्पष्ट होगी कि परस्पर विरोधी गुण धर्म वाले ये तत्त्व, वास्तव में एक ही तत्त्व के अन्तर्गत है । अनेकात दृष्टि से इस बात को समझने मे हमे कोई कठिनाई न होगी ।
वेदात के ग्रनुयायी जब इस वान का विरोध करते है तव हमे वडा आश्चर्य होता है । उनके मतानुसार, प्रथम जो था वह, शुद्ध, विशुद्ध, निर्गुण ब्रह्म था । वह ब्रह्म परम चेतन स्वरूप था । उनका कहना है कि इसी ब्रह्म से माया का सर्जन हुया है । यह 'ब्रह्म' र 'माया' ये दोनो परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले तत्व है । ब्रह्म शुद्ध है और माया 'शुद्ध' है । यदि इस माया की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई तो उसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि श्रागमन से पहले यह माया ब्रह्म मे ही बसी हुई थी । और यदि थी तो फिर उस शुद्ध ब्रह्म के भीतर ही एक
शुद्ध तत्व मोजूद था । इस तरह, वेदान्त की कल्पना के अनुमार, शुद्ध और अशुद्ध- दो परस्पर विरोधी तत्व एक साथ ही थे । ऐसा होते हुए भी, वे लोग इस बात को स्वीकार नही करते और यदि करे तो फिर, 'प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी