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जैन तत्त्ववेत्तानो के अनुसार भवितव्यता अर्थात् नियति का अर्थ है, 'जो निश्चित हो चुका है। वे मानते है कि 'उत्सपिणी और अवसर्पिणी-काल के इन दो विभागो मे से प्रत्येक मे वारह चक्रवर्ती और चौबीस तीर्थकर ही होते हैऐसा जो निश्चित क्रम है उसके लिए भवितव्यता एक कारण है । यह कारण अन्य चार कारणो से मिलकर कार्य करवाता है, ऐसा उनका मत है। सभी कार्यों के पीछे यही एक ही कारण होता है, ऐसा वे नहीं मानते। __ जैन दार्गनिको का यह मत समझ लेना आवश्यक है । उनके मतानुसार प्रत्येक कार्य के पीछे पाँचवे अनिवार्य कारण के रूप मे नियति है ही।
इस विश्वरचना मे तथा ससार की घटनायो मे ऐसे कितने ही कार्य होते है, जिनके पीछे काल, स्वभाव, कर्म और उद्यम रूप चार कारणो के अतिरिक्त कोई अगम्य कारण भी रहा हुआ होता है । जब ये चारो कारण कम पडते हैं, तब इन चारो को साथ रखकर पाँचवाँ कोई कारण भी काम करता है । उदाहरणार्थ जैन शास्त्र मे काल के जो दो विभाग वताये गये है (जिनका पहले और यहाँ भी अभी अभी उल्लेख हो चुका है) उनमे कुछ कार्य क्रमश और निश्चित ढग से होता है । उत्सपिरणी काल रूप, रस, गध, शरीर, आयुष्य, वल आदि वैभवो की क्रमश उन्नति का काल है जब कि अवसर्पिणी काल उन वैभवो को क्रमश अवनति का काल है । अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ मे मनुष्य के शरीर का जो प्रमाण या कद होता है वह क्रमग कम होता जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का आयुष्य भी क्रमश. कम होता जाता है । अवसर्पिणी काल पूरा होता