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है और उत्सपिणी का प्रारम्भ होता है तब से कद और प्रायु प्रमारण वटता जाता है। यह क्रम कालचक्र के प्रत्येक विभाग मे निश्चित रूप से होता है। इन सबके पीछे एक कारण के रूप मे भवितव्यता' मुस्य या महत्त्वपूर्ण कार्य करती है । यहाँ यह याद रखना चाहिए कि किसी भी कार्य के लिए जैन दार्गनिको ने भवितव्यता या नियति को एक मात्र तथा स्वतन्त्र कारण नहीं माना।
दूमरी एक ध्यान में रखने की बात यह है कि 'जहाँ चार कारण एकत्रित होकर कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते वही नियति पाती हो, ऐसा नहीं है। प्रत्येक कार्य मे सब मिलाकर पांचो कारण सामान्यतया काम करते हैं। प्रत्येक कार्य मे भिन्न भिन्न अपेक्षा से अमुक एक कारण मुस्य-प्रधान-भाग लेता हो तव अन्य चार कारण गौण रूप मे होते है । अत जहाँ नियति के मिवा अन्य कारण मुख्य या गौण रूप में होते है, वहाँ भी नियति एक पाँचवे कारण के रूप में अनिवार्यत होती ही है । जब ईश्वर कर्तृत्वादी लोग ईश्वर की इच्छा रूप भवितव्यता की बात करते है तव वे इस एक मात्र कारण को सर्व कार्य नियता मानते है, जब कि जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता को पाँचो कारणो मे से एक का स्थान देते है। यह वात वरावर समझ लेनी चाहिए । एक मात्र नियति को ही सर्व कार्यों के कारण के रूप मे मान ले तो कर्म (प्रारब्ध) और पुरुपार्थ की सारी बात ही खत्म हो जाती है।
पुन मूल बात पर आते हुए हम इतना स्पष्टतया समझ लें कि यहाँ भवितव्यता या नियति का जो उल्लेख हुआ है उसका अर्थ 'ईश्वर कृपा', या 'नसीब', या 'प्रारब्ध' नही है।