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नीच, मध्यम आदि कुलो मे जन्म लेने की क्रिया इस कर्म के कारण होती है।
कर्म का आठवा मुख्य भेद 'वेदनीय कर्म' कहलाता है। यह कर्म आत्मा को सुख दुख आदि दिलवाता है । इसके दो भेद है-शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय । यह कर्म भी अपने अश तथा प्रमाण के अनुसार आत्मा को सवेदन पहुँचाता है । सुख के लिए 'माता' और दुख, रोग, वेदना के लिए 'प्रगाता', ये दोनो जैन तत्त्वज्ञान के परिभापक शब्द है । जिसे हम भूख, तृषा आदि कहते है वह भी आत्मा की एक अगाता वेदना ही है। ___इन अतिम चार कर्मो को 'अघाती कर्म' कहते हैं । ये कर्म आत्मा के मुख्य गुणो का घात नही करते, उमको गति का नियमन करते है। आत्मा कौन से क्षेत्र मे जाएगा, मर्कट देह धारी वनेगा या मानव देह धारी, कगाल वा चडाल के यहाँ जन्म लेगा या धनवान वा विद्वान् के यहाँ, ओर यात्मा को सुख दुख के कैसे कैसे अनुभव होगे, कब शाता मे रहेगा ओर कव अशाता मे, यादि आदि वाते इन चार कर्मों द्वारा नियत्रित होती है । इन कर्मों का आत्मा के मुख्य गुणो या रवभाव के साथ विरोध नहीं है, ये कर्म उन गुणो के वाधक या घातक नहीं है । अत इन्हे 'अघाती कर्म' कहते है, यद्यपि इन कर्मों से घाती कर्मों का उत्तेजन देने का कार्य परोक्षत होता है।
जैन दार्गनिको ने कर्म के ये आठ प्रकार बताये है । कोई भी प्रात्मा जब कर्म के वधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है, जन्म-मरण के फेरे मे से मुक्ति पाता हे तव इन आठो कर्मो