________________
३५५
'मोहराभित' वैराग्य मे जो 'मोह' शब्द है वह सामारिक मोह के अर्थ में नहीं बल्कि ऐकातिक मूढ दृष्टि के अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । ऐसे एकातवादी तत्त्वज्ञान मे सम्पन्न सत्य वैराग्य भी भ्रातिजनक होने के कारण उसे छोड कर जानगर्भित वैराग्य ही स्वीकार करना चाहिये, ऐना जैनशास्त्रकारो ने माना है। ज्ञानगर्भ वैराग्य अर्थात् जिसमे अनेकातवादी तत्त्वों का अनुसरण करने वाला निर्मल ज्ञान हो ऐसा वैराग्य ।
मोहगर्भित वैराग्य किये कहते है और ज्ञानगर्भित वैराग्य क्या है ? ये दोनो बातें श्री हरिभद्र नूरीव्वरजी महाराज ने नमकार्ड है। उन्होने फरमाया है कि,
"श्रात्मा एक ( ही ) है, ग्रात्मा नित्य ( ही ) है, आत्मा aas ( ही ) है, ग्रात्मा क्षरण-अयी ( ही ) है या ग्रात्मा असत् ( ही ) है -- इस प्रकार के एकान्तनिर्णय से समार की निर्गुता को बार बार जानने के बावजूद, और उसके त्याग के लिये उपगम तथा नदाचार का भावपूर्वक नेवन करने पर भी ऐसे लोगो का वैराग्य ज्ञानगभित नहीं, अपितु मोहगनित ही है ।
उन्ही का वैराग्य ज्ञानगभिन
2
होता है, जो स्याद्वाद की समझ का अवलन कर आत्मा को समष्टि चैतन्य रूप मे एक परतु व्यष्टि चैतन्य रूप में अनेक द्रव्य रूप में नित्य परन्तु पर्याय रूप मे क्षणिक, निश्चयनय ने श्रावद्ध पर व्यवहार नय ने वह, पर स्वरूप से श्रमत् परन्तु स्वरूप में सत् इस प्रकार दोनो वाने यथास्थित मानते हैं, तथा सनार-दा में बाह्य पौद्गलिक कर्मों के सम्बन्ध ने, इच्छा पादि पायो के प्रवीन - पराधीन बन कर भयंकर भवससार में भटकते हुए अपने श्रात्मा को उनमें से मुक्त करने के लिये जो विधिपूर्वक