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हैं, क्यो कि उनकी हिंसा करने से भी हमारा हृदय कठोर तथा क्रूर बनता है । ऐसे हृदय में सात्त्विक भावो का उदय नही हो सकता । श्रत आजकल 'परहिसा' के विषय मे विश्व के छोटे बडे जीवों में से केवल मानव तक सीमित श्रर्थ जो प्रचलित है वह तो अत्यन्त अपूर्ण है । जब कि 'स्वहिंसा' शब्द का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का कार्य तो अभी तक लगभग सारा बाकी है।
यहाँ 'हमारा हित' यह शब्दावलि भौतिक या स्वार्थी अर्थ में प्रयुक्त नही है । यह तो निश्चित ही है कि हमसे जो कुछ पर अहित होता है, उससे हमारा अपना भी ग्राखिर तो ग्रहित ही होता है । ध्यान से देखने पर मालूम होगा कि आजकल 'परहित' करने का जो व्यापक अर्थ है उसके पीछे 'स्वहित' का वास्तविक विचार नही होता । हमारे प्रत्येक कार्य से जो कर्मबंधन होता है, उसका सामान्यतया 'स्व' को अपेक्षा से बहुत कम विचार किया जाता है । इसका फल यह हुआ है कि 'स्व' और 'पर' अलग अलग विषय बन गये है । अपने हित के लिए चाहे जैसा आचरण करके उसके बाद यदि संभव हो तो 'पर' - हित का विचार कर लेने की मनोवृत्त व्यापक बन गई है । इसका कारण यह है कि हमने ग्रहिसा का 'पर' स्वरूप समझा है, स्व-स्वरूप नही समझा ।
हमारे जो जो कार्य दूसरो के लिए कष्टदायक हो वे सबउनसे हमे जो कर्मबन्धन होता है उसके कारण हमे भी आगे पीछे कभी न कभी दुखदायक होगे। इस बात का ज्ञान न होने के कारण ही हम अहिसा का स्वलक्षी स्वरूप नही समझ सके हैं । इस ज्ञान के प्रभाव के कारण हम 'विश्वकल्याण' की