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कार्य भी कर्म कहलाते है, परन्तु यहाँ पूर्वकृत कर्म और उनके द्वारा बने हुए प्रारब्ध के अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग हुया है ।
उद्यम - हमे यहां 'उद्यम' शब्द को पुरुषार्थ के अर्थ मे लेना है । उद्यमवादी केवल उद्यम को ही सब कार्यो का कारण मानते है । वे क्या कहते है सो भी सुन ले -
"काल, स्वभाव, नियतिया कर्म असमर्थ है, एक मात्र उद्यम ही समर्थ है । उद्यम से श्री रामचन्द्रजी ने सागर पार किया, उद्यम से ही उन्होने लका का राज्य जीत कर विभीषण को दिया, पुरुषार्थ से ही पाडवो ने कौरवो को हराया ।"
"उद्यम के विना न खेत मे अनाज उत्पन्न होता है, न तिल मे से तेल निकलता है । उद्यम किये बिना एकेन्द्रिय लता भी वृक्ष पर नहीं चढ सकती, उद्यम करके बीज वोये विना फसल नही होती, तैयार भोजन का कोर भी उद्यम के विना मुँह मे नही आ गिरता, एक वार यदि उद्यम से कार्य सिद्ध न हो तो दूसरी वार, तीसरी बार पुनः पुन उद्यम करते रहने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है ।"
ये लोग इसके आगे और भी कहते है कि, 'कर्म तो पुत्र है, उद्यम का फल है, उद्यम उसका पिता है । उद्यम ने ही कर्म किये है और उद्यम से ही वे दूर होते है । दृढप्रहारो ने हत्याएँ करके घोर कर्म उपार्जन किये थे, फिर भी छ महीने के उद्यम से उसने सभी कर्म समाप्त कर दिये ।'
उनकी मान्यतानुसार 'उद्यम की शक्ति अपूर्व है, बूँद से सरोवर भरता है, एक एक ककड से मेड बंधती है, ईट ईट से गिरि जैसे गढ बनते है, यह सव उद्यम की शक्ति का ही प्रभाव है । उद्यम से ही अर्थ, उद्यम से ही काम, उद्यम से ही