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चोर काया के व्यापार से कर्म के पुद्गलो का आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् घनिष्ठ सम्बन्ध से जुड जाना वध कहलाता है । 'वध' के चार प्रकार है, जिनके नाम इस प्रकार है, (१) प्रकृति (२) स्थिति, (३) अनुभाग (रस) (४) प्रदेश |
कर्म-रूप में परिणत होने वाले 'कर्म पुद्गलों' में ग्रात्मा के ज्ञानादि गुरगो को ढकने की 'प्रकृति' अर्थात् स्वभाव का बन्धना -- निश्चित होना 'प्रकृति वन्ध' कहलाता है । अनेक प्रकार के परिणाम देने वाला यह स्वभाव आत्मा के गुणरूपी प्रकाश पर बिछाये जाने वाले काजल के समान गहरे काले रंग के परटो का काम करना है, और ग्रात्मा के स्वभाव को ढँक लेता है । इनके मुख्य या प्रकार होने के कारण कर्म के भी मुख्य प्रकार ग्राठ बताये गये हैं । श्रात्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी गुग्गी को अवरोध करने या उनके छात्ररग वनने का काम करने वाले कर्मों को 'आवरणीय' कर्म कहा जाता है । ये कर्म पनी कालावधि तक अथवा श्रात्मा के पुरुषार्थ से उसमें होने वाले परिवर्तन के अनुसार श्रात्मा से चिपके रहते हैं ।
जिन समय कर्म बँधता है, रहने की जो कालावधि निश्चित हो बन्ध' कहते हैं ।
जब कर्म वचता है तब उसका मन्द, नामान्य, तीव्र, मध्यम या प्रति तीव्र — आदि जना भी फल निश्चित हो जाता है उसे 'अनुभाग - वध' कहते है ।
कर्म के पुद्गलो का समूह जिस न्यूनाधिक प्रमाण मे वॅट कर आत्मा को चिपकता है उस प्रमाण को 'प्रदेशवध ' कहते हैं ।
उसी समय उनके बंधे जाती है, उसे 'स्थिति