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उन सबको हम एकत्रित कर दे, अन्यथा एकान्त निर्णय के कारण हम दोषी ठहरेगे।
ये सातो निर्णय अपने अपने चतुष्टय मे स्वतन्त्र होते हुए भी 'स्व' तथा 'पर' चतुष्टय की अपेक्षा से एक दूसरे के साथ सम्बन्धित तथा जुडे हुए थे ही। इस महत्त्व की बात को हम भूल न जाय, सतत स्मरण रखे, इसी हेतु से इस फारमुला मे 'स्यात्' शब्द प्रत्येक भग मे रखा गया है।
जब हम इन सातो स्वरूपो को समन रूप में देखेगे तभी एक सपूर्ण चित्र तैयार होगा। परन्तु इस तरह सपूर्ण चित्र बनाने के वाद भी हम 'स्यात्' शब्द को विदा नहीं कर सकते। इसमे से यदि हम 'स्यात्' शब्द निकाल दे तो हम ऐसी भ्राति मे पड़ जाएंगे कि इस तरह वना हुना सम्पूर्ण चित्र अन्य अगउपागो से रहित है । इस प्रकार पुन हम 'ऐकान्तिक निर्णय' के दोष मे पडेगे, क्योकि स्यात्-पद के विना तो यह अर्थ भी निकल सकता है एक समय 'अस्ति' हे और भिन्न समय मे 'नास्ति' है । स्यात्-पद की सहायता से, जिस समय 'अस्ति' है उसी समय 'नास्ति' है, यह बात समझाने वाले वास्तविक अनेकात से महान् लाभ प्राप्त होता है।
इस दृष्टि से यहाँ जो 'स्यात्' शब्द लगा है वह हर हालत मे अनिवार्य-Indispensable है। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एव सर्वदेशीय बात है । इसी कारण जैन तत्त्वज्ञान को 'स्यावाद' नाम दिया गया है । इसमे से यदि 'स्यात्' शब्द हटा दिया जाय तो शेष कुछ नहीं रहता है, यह बात सप्तभगी से बिल्कुल स्पष्ट एव निश्चित हो जाती है । ' यह बात भी अब अच्छी तरह समझ में आ गई होगी कि