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है । दूसरो को सलाह और शिक्षा ( ये ज्ञान के ही स्वरूप है ) देने को सब कोई तैयार और उत्सुक है, लेने को कोई राजी नही है |
और जो शिष्य प्राते है
उनमे से अधिकांश ‘शिप्य भाव से नही, ग्रपितु 'गुरुभाव' से प्राते है । ये लोग जो कुछ कहे अथवा माने उसे हम सही कहे Confim ( स्वीकार ) करे तो तब तक ये लोग हमे गुरु मानने की कृपा करते है । ज्योही हम उनसे कहे कि 'तुम्हारा खयाल गलत है उसी क्षण से हम उनके 'गुरु' मिट जाएँगे । मुँह पर भले कुछ न कहे, पीठ पीछे निंदा शुरु कर देगे । यह ग्रहभाव का प्रताप है ।
एक सज्जन स्वयं को अत्यन्त विनम्र और ग्रहभाव से युक्त मानते है । वे बात बात में ऐसा करते फिरते है, 'मुझमें अभाव नही है ।' जो भी कोई उनसे मिलते है, उन सबको वे प्रभाव छोड देने का उपदेश दिया करते है ।
एक बार इन साहब से कहा गया, "आप से ग्रहभाव कूटक्कूट कर भरा है ।" "क्या ?" एकदम ग्रॉखे फाडकर ये साहब प्रश्न पूछते है ।
यदि इनकी फैली हुई आँखो मे विस्मय दिखाई दे तो कोई बात नही । परन्तु इनमे तो क्रोध की भडक दिखाई देती है । ज्यो ही उनसे कहा जाता है कि 'आप स्वय को जैसा मानते है वैसे नही है' त्योही उन्हे क्रोध या जाता है और आखे लाल हो जाती है ।
आज जगह - जगह यही देखने को मिलता है । अव हम अपनी मूल बात पर वापस आते हैं ।
ज्ञान-प्राप्ति के हेतु निश्चित करने के बाद जब तक हम यह