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का भी विचार कर लेना चाहिए । इसके लिए जैन तत्वज्ञानियो का एक वाक्य हम यहाँ उद्धृत करते है।
' प्रमाणनयैरधिगम ।' इस वाक्य का अर्थ है, किमी भी वस्तु का ज्ञान दो प्रकार से होता है एक तो प्रमारग से, दूसरा नय से । इस वाक्य मे प्रमाण और नय अलग-अलग बताये गये हैं, परन्तु 'नय' का विषय 'प्रमाण' का भी विषय है ।
शास्त्रकारो ने नय को प्रमाण का एक अंग माना है । प्रमाण में भी यह ग्रागाम अथवा श्रुत ( शास्त्र ) प्रमाण का है | यहाँ चूँकि हम प्रमाण को वान बीच मे करने लगे है, तो प्रमाण को भी ठीक तरह समझ ले ।
प्रमाण का अर्थ हैं 'सवत' ( Proof) । जिसके द्वारा वस्तु नि सन्देह, ठीक-ठीक जानी जा सके और समझ मे आावे, उमे प्रमारग कहते है |
'मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यव और केवल - इस प्रकार जैन तत्त्ववेत्ताओ ने जो पांच ज्ञान कहे है उन्हें - ज्ञान स्वय एक प्रमाण होने के कारण - प्रमाण के तौर पर भी माना है । पाँच ज्ञान विषयक एक स्वतन्त्र प्रकरण श्राने वाला है, इसलिए यहा उनका केवल उल्लेख करके हम ग्रागे वढते हैं ।
न्यायदर्शन मे चार प्रमाण बनाये गये हैं । इनमे दो प्रमाण मुख्य हैं, 'प्रत्यक्ष और परोक्ष' । परोक्ष प्रमाण के तीन विभाग बताये गये है । 'प्रत्यक्ष' तथा 'परोक्ष' शब्दो का अर्थ तो शीघ्र समझ में ग्राने जैसा सर्व सामान्य है । परोक्ष प्रमाण मे - ( १ ) अनुमान ( २ ) उपमान ( ३ ) श्रागम ( श्रुत) ये तीन