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वर्ष १४
किरण, १
विषय-सूची
अगस्त १९५६
मन्पादक-मण्डन जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैन
एडवोकेट
परमानन्द शास्त्री १.-श्रीवर्धमान-जिनस्तुति २-समन्तभद्र स्तोत्र ( कविता )-[युगवीर ३-समन्तभद्रका समय निर्णय-जुगलकिशोर मुख्तार ४--कसाय पाहुड और गुणधराचार्य -[परमानन्द शास्त्री ५-कवि ठकुरसी और उनकी रचनाएँ परमानन्द शास्त्री १० ६-६० भागचन्द जी ७-श्री सन्तराम बी० ए० की सुमागधा-मुनीन्द्र कुमार जैन ८-सन्त विचार (कविता)-[पं० भागचन्द्र जी .. सम्पादकीय नोट-परमानन्द जैन है-कोप्पल के शिलालेख-[पं० बलभद्र जैन १०-पुराने साहित्य की खोज-[श्री जुगलकिशोर मुख्तार ११-हमारा प्राचीन विस्मृत वैभव-[पं० दरवारीलाल जी १२-जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह
नीर सेवा मन्दिर,देहली ........ मूल्यः
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वीर-शासन-संघ, कलकत्ताके दो नवीन प्रकाशन
कसाय पाहुड सुत्त
जिम ३० गाथा-मामल पायका रचना आजम दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुमधाचार्य की. जिस पर श्री विनावाजामीनार बांक प्रमाण चणिमत्र निम्बार जिन रांगों पर भी वारमनानानि धारण मोमट हवामान टांका निवाआज नांगीम जयवान नामक नाय मित्रपक नाम प्रांग:सार.. म मरूपम न पठन पाठन कांकहिलय जिजान विदार्ग आज पृ. यात मी पोग लागनीमनमानक अप्रायगक ये चान और जिनमन जेमं महान भावामान ना। प्रथमिक.नाम..ma'पापा 'ज प्रथम घर अपने पम्पम हिनी अनुयानक पार गकाग .
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इप या मनमामा प्रधान यानों पर प्रकाश टाना गया ..मरियामागंज और पादानमा नाम्निा प्रम्नाना अनेक उपांगा पलिंगाट गोर हि अनुपमा मात्र मनग्य ... कपाल में मम्प गया है। गुष्ट कागज रान्दा नपाई यो परका पजन' दामना सन्यग्ल) ग्याना प्राधान। मानगानगा पनौकन म.न्डर पात्र महापराकाना यमयाबरावना या पानगान वाना की 376 में . गागमय मनि प्राईम पेशगी मेजन वानीको वह क्यल०) में ही मिल जायगा ।
जैनसाहित्य और इतिहाम पर विशाद प्रकाश 6.
प्रथम भाग साजरं य जन्तीन नगर र जनपिका मापान कर जन मम जाना मानन कलाका गिग किया नियमान न समाजात किया. जिन नाव.. समजा भार a isin.niजनजाधाप मनाम नाबायोर मामन में नानक लेवान ममा हर्न
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न गरमागमात्र) मानवार्टर गे मन्द अग्रिम भंजनं बायो को). हारपक. १.गा।
मनन्तभद्र मांत्र कीट शुगर श्री जगणिनी का नई गुना मगमें जो 'ममनमा मात्र हम किरणमें अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है। उसकी मां ग्राम का गन्दा ग्यमे अलग छपाई गई है । जो मजन इस म्नोन की कांच जगपन मान मनी निम्ध ना. गिाजयो राय पुकाना ग्रादि में अन्न स्थान पर स्थापित करन' या उन्हें मारी गया हो-दो नार-चार या भंटम्याप फ्री हो जायगा ।
मिलनका पना-बीरसेवामन्दिर. २१ दरियागंज. दिल्ली
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अनेकान्त
जैनधर्मके अन्तिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर
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जिनकी २५१३वीं शासन-जयन्ती वीरसेवामन्दिरके नूतनभवन २१ दरियागंज में ता०२३ जलाई मन १६५६को
समारोहके माथ सानन्द मनाई गई
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वार्षिक मूल्य ६ )
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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वर्ष १४ किरण, १
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नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥
वस्तुतत्त्व- संद्योतक
वीरसेामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली श्रावण शुक्ला वीरनिर्वाण-संवत २४८३, विक्रम संवत २०१३
{
अगम्न, १६५६
श्रीवर्धमान जिन स्तुति
श्रियः पतिः श्रीवर मंगलालये सुखं निपराणो हरिविष्टरेऽनिशम् । निषेव्यते योऽखिललोकनायकः स मंगलं नोऽस्तु परंपरो जिनः || १ || सिद्धार्थसिद्धिकर शुद्ध समृद्ध बुद्ध, मध्यस्थ सुस्थिर शिवस्थित सुव्यवस्थ । वाग्मिन्नुदार भगवन् सुगृहीतनामनानन्दरूप पुरुषोत्तम मां पुनीहि ॥ २ ॥ देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्ध महानुभाव । त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव व मान स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ते ||३| कल्पद्रुमामृत रसायन कामधेनो चिन्तामणे गुणसमुद्र मुनीन्द्रचन्द्र । सिद्धौषधे सुखनिधे सुविधे विधेया धीस्ते स्तुतौ मम यथाऽस्ति तथा विधेया ||४|| टपर्यन्त सुखप्रदायिनें विमूढ - सच्च प्रतिबोध - हेतवे ।
जन्मने जन्मनिबन्धनच्छिदे निरावृत्तिज्ञानमयाय ते नमः ॥५॥ चतुर्णिकायामरवंदिताय घातिक्षयात्राप्तचतुष्टयाय । कुतीर्थतर्काजितशासनाय देवाधिदेवाय नमोजिनाय || = ||
एक किरण का मूल्य 11)
( अजमेर बदामन्दिर शास्त्र भण्डार के एक प्राचीन गुटके से)
::::::*:22:54::::⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀331: 928228: 686258465 868
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वाग्मी रविर्गमरवृशिरोऽवतप्तः। समन्तभद्र-स्तोत्र
__ [स्तोता-'युगवीर'] (१) श्रीवर्धमान-वरभक्त-सुकर्मयोगी देवागमादि-कृतयः प्रभवन्ति यस्य सद्बोध-चारुचरिताऽनघवाक्स्वरूपी। यासां समाश्रयणतः प्रतिबोधमाप्ताः । स्याद्वाद-तीर्थजल-पूत-समस्तगात्रः पात्रादिकेसरि-समा बहवो बुधाश्च जीयात्स मान्य-गुरुदेव-समन्तभद्रः॥ चेतः पुनातु वचनर्द्धि-समन्तभद्रः॥ (२)
(७) दैवज्ञ-मान्त्रिक-भिषग्वर-तान्त्रिको यः यद्भारती सकल-सौख्य-विधायिनो च
सारस्वतं सकल-सिद्धि-गतं च यस्य । तत्त्व-प्ररूपण-परा नय-शालिनी च । २ महाकविर्गमक-वाग्मि-शिरोऽवतंसो युक्त्याऽऽगमेन च सदाऽप्यविरोधरूपा वादीश्वरो जयति धीर-समन्तभद्रः॥ सद्वर्त्म दर्शयतु शास्त-समन्तभद्रः ॥ सर्वज्ञ-शासन-परीक्षण-लब्धकीतिर्- यस्य प्रभाववशतः प्रतिमापरस्य एकान्त-गाढ-तिमिराशन-तिग्मरश्मिः । मुकंगताः सुनिपुणाः प्रतिवादिनोऽपि । तेजोनिधिः प्रवरयोग-युतो यतियः वाचाट-धूर्जटि-समाः शरणं प्रयाताः सोऽज्ञानमाशु विधुनोतु समन्तभद्रः ।। प्रामाविको जयतु नेह-समन्तभद्रः॥
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(४)
आज्ञा-सुसिद्ध-गुणरत्न-महोदधिर्यो बन्धुः सदा त्रिभुवनैकहितेऽनुरक्तः । प्राचार्यवर्य-सुकृती स्ववशी वरेण्यः श्रेयस्तनोतु सुखधाम-समन्तभद्रः॥
श्रीवीर-शासन-वितान-धिया स्वतंत्रो देशान्तराणि विजहार पदर्द्धिको यः । तीर्थ सहस्रगुणितं प्रभुणा तु येन भावी स तीर्थकर एष समन्तभद्रः॥
।
येन प्रणीतमखिलं जिनशासन च काले कलौ प्रकटितं जिनचन्द्रबिम्बम् । साभावि भूपशिवकोटि-शिवायनं स । "स्वामी प्रपातु यतिराज-समन्तभद्रः॥
यद्ध्यानतः स्फुरति शक्तिरनेकरूपा विघ्नाःप्रयान्ति विलयं सफलाश्च कामाः मोहं त्यजन्ति मनुजाः स्वहितेऽनुरक्ताः भद्रं प्रयच्छतु मुनीन्द्र-समन्तभद्रः॥
यद्भक्तिभाव निरता मुनयोऽकलंक-विद्यादिनन्द-जिनसेन-सुवादिराजाः। भायन्ति युक्तवचः सुयशांसि यस्य भूयाच्छ्यैि स युगवीर-समन्तभद्रः॥
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समन्तभद्रका समय-निर्णय
दिगम्बर जैनसमाजमें स्वामी समन्तभद्रका में मान्य किया है। और भी अनेक ऐतिहासिक समय आम तौरपर विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना विद्वानोंने समन्तभद्रके इस समयको मान्यता प्रदान जाता है। एक 'पद्रावली'+ में शक सं०६०(वि० की है। अब देखना यह है कि इस समयका समर्थन सं० १६५ ) का जो उनके विषयमें उल्लेख है वह शिलालेखादि दूसरे कुछ साधनों या आधारोंसे भी किसी घटना-विशेषकी दृष्टिको लिये हुए जान पड़ता होता है या कि नहीं और ठीक समय क्या कुछ है। उनका जीवन-काल अधिकांशमें उससे पहले निश्चित होता है। नीचे इसी विषयको प्रदर्शित एवं तथा कुछ बादको भी रहा हो सकता है। श्वेताम्बर विवेचित किया जाता है। जैनसमाजने भी समन्तभद्रको अपनाया है और मिस्टर लेविस राइसने, समन्तभद्रको ईसाकी अपनी पट्टावलियोंमें उन्हें 'सामन्तभद्र' नामसे उल्ले- पहली या दूसरी शताब्दीका विद्वान अनुमान करते खित करते हुए उनके समयका पट्टाचार्य-रूपमें हुए जहाँ उसकी पुष्टि में उक्त पट्टावलीको देखनेकी प्रारम्भ वीरनिर्वाण-संवत् ६४३ (वि० सं० १७३) से प्रेरणा की है वहाँ श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ हुआ बतलाया है। साथ ही, यह भी उल्लेखित किया (६७)को भी प्रमाणमें उपस्थित किया है, जिसमें है कि उनके पट्टशिष्यने वीरनि० सं०६६५(वि० सं० मल्लिषेण-प्रशस्तिको उत्कीर्ण करते हुए, समन्तभद्रका २२५) ४ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके स्मरण सिंहनन्दीसे पहले किया गया है । शिलालेखसमयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दीके की स्थितिको देखते हुए उन्होंने इस पूर्व-स्मरणको प्रथम चरण तक पहुंच जाती है। इससे समय- इस बातके लिये अत्यन्त स्वाभाविक अनुमान माना सम्बन्धी दोनों सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है है कि समन्तभद्र सिंहनन्दीसे अधिक या कम समय और प्रायः एक ही ठहरता है।
पहले हुए हैं। चूँकि उक्त सिंहनन्दी मुनि गंगराज्य ___ इस दिगम्बर पट्टावली-मान्य शक सं०६० (ई० (गंगवाड़ि) की स्थापनामें सविशेषरूपसे कारणीभूत सं० १३८) वाले समयको डाक्टर आर० जी० एवं सहायक थे, गंगवंशके प्रथम राजा कोंगणिवर्मा भाण्डारकरने अपनी 'अर्ली हिस्टरी आफ डेक्कन के गुरु थे, और इसलिए कोंगुदेशराजाक्कल में, मिस्टर लेविस राइसने, अपनी 'इंस्क्रिपशंस ऐट (तामिल क्रानिकल ) आदिसे कोंगणिवर्माका जो श्रवणवल्गोल' नामक पुस्तककी प्रस्तावना तथा समय ईसाकी दूसरी शताब्दीका अन्तिम भाग 'कर्णाटक-शब्दानुशासन' की भूमिकामें, मेसर्स (A. D. 188) पाया जाता है वही सिंहनन्दीका
आर० एण्ड एस. जी० नरसिंहाचार्यने अपने 'कर्ना- अस्तित्व-समय है ऐसा मानकर उनके द्वारा समन्तटक कविचरिते' ग्रन्थमें और मिस्टर एडवर्ड पी. भद्रका अस्तित्व-काल ईसाकी पहली या दूसरी राइसने अपनी 'हिस्टरी श्राफ कनडोज लिटरेचर शताब्दी अनुमान किया गया है। श्रवणबेल्गोलके
शिलालेखोंकी उक्त पुस्तकको सन् १८८६ में प्रकाशित + यह पहाबली हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों के अनुसं- करनेके बाद राइस साहबको कोंगुणिवर्माका एक धान-विषयक स० भण्डारकरको सन् १८८३-८४ की अंग्रेजी शिलालेख मिला, जो शक संवत् २५ ( वि. सं. रिपोर्टके पृष्ठ ३१० पर प्रकाशित हुई है।
१६०, ई० सन् १०३ ) का लिखा हुआ है और जिसे xकुछ पहाजियोंमें यह वीर नि.सं.१५ अर्थात् उन्होंने सन् १८६४ में, नंजनगुड़ ताल्लुके ( मैसूर वि०सं० १२५ दिया है जो किसी ग़लतीका परिणाम है और के शिलालेखोंमें नं०११. पर प्रकाशित कराया है। मुनिकल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छ- इस शिलालेखका साथ अंश निम्न प्रकार हैपहावकी' में उसके सुधारकी सूचना भी की है। 'स्वस्ति श्रीमत्कोंगुणिवर्मधर्ममहाधिराजप्रथमगंगस्य दर्स
देखो, मुनिकल्याणविजय-द्वारा सम्पादित 'तपागच्छ सकवर्षगतेषु पचविंशति २५ नेय शुभक्रितुसंवत्सरसु फागुनपहावनी पृ. 1-51
रादपंचमी शनि रोहणि.........
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अनेकान्त
४]
(E. C. III)। उससे कोंगुणिवर्माका स्पष्ट समय साकी दूसरी शताब्दी का प्रारम्भिक अथवा पूर्वभाग पाया जाता है, और इसलिए उनके मतानुसार यही समय सिंहनन्दीका होनेसे समन्तभद्रका समय निश्चित रूपसे ईसाकी पहली शताब्दी ठहरता हैदूसरी नहीं ।
श्रवणबेल्गोलके उक्त शिलालेख में, जो शक सं० १०५० का लिखा हुआ है, यद्यपि 'तत': या 'तद्वय' जैसे शब्दों के प्रयोग द्वारा ऐसी कोई सूचना नहीं की गई जिससे यह निश्चित रूप में कहा जासके कि उसमें पूर्ववर्ती आचार्यों अथवा गुरुओंका स्मरण कालक्रम की दृष्टिसे किया गया है परंतु उससे पूर्व वर्ती शक संवत ६६६ के लिखे हुए दो शिलालेखों और उत्तरवर्ती शक सं० २०६६ के लिखे एक शिलालेख में समन्तभद्रके बाद जो उन सिंहनन्दी आचार्य - का उल्लेख है वह स्पष्टरूपसे यह बतला रहा है कि गंगराज्यके संस्थापक आचार्य सिहनन्दी स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं । ये तीनों शिलालेख शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुके में हुमच स्थानसे प्राप्त हुए हैं, क्रमशः नं० ३५, ३६, ३७ को लिये हुए हैं और एपिफिका कर्णाटकाकी आठवीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं । यहाँ उनके प्रस्तुत विषयसे सम्बन्ध रखने वाले अंशोंको उदधृत किया जाता है, जो कनडी भाषामें हैं। इनमें से ३६ व ३७ नम्बरके शिला लेखोंके प्रस्तुत अंश प्रायः समान हैं इसीसे ३६ वे शिलालेखसे ३७वेंमें जहाँ कहीं कुछ भेद है उसे कट नम्बर ३७ के साथ दे दिया गया है
.... भद्रबाहुस्वामीगलिन्दू इतकलिकाल वर्तनेथिं गयाभेंद पुट्टिदुद् अवर श्रन्वयक्रमदिं कलिकालगणधरु शास्त्रतु लुम् एनिसिद् समन्तभद्रस्वामीगल् श्रवर शिष्य संतानं शिवकोव्याचार अवरिं वरदत्ताचाय्यर् अवरिं तत्त्वार्थ सूत्रतुगल एनिसिद् आर्यदेवर अवरिं गंगराराज्यमं मादिद सिंहनन्याचार अवरिंन्दू एकसंधि सुमतिभट्टारकर अवरिं.........।' (नं० ३५ )
• श्रुतकेवल्लिगल निसि ( एनिय ३७) भद्रबाहुस्वामीगल (गलंग३७) मोदलागि पलम्बर ( इलम्बर ३७ ) आचार पोदिम्बतियं समन्तभद्रस्वामिगल उदयसिदर श्रवरश्रन्वय दोल ( अनन्तरं ३७ ) गंगराज्यमं माडिद सिंहनन्द्याचार्य प्रि ..।' (नं० ३६, ३७)
[ वर्ष १४
३५वें शिलालेखमें यह उल्लेख है कि भद्रबाहुस्वामीके बाद यहाँ कलिकालका प्रवेश हुआ - उसका वर्तना आरम्भ हुआ, गणभेद उत्पन्न हुआ और उनके वंश क्रम में समन्तभद्रस्वामी उदयको प्राप्त हुए, जो 'कलिकालगणधर' और 'शास्त्रकार' थे, समन्तभद्रकी शिष्य-सन्तान में सबसे पहले 'शिवकोटि' आचार्य हुए, उनके बाद वरदत्ताचार्य, फिर तत्त्वार्थसूत्र X के कर्त्ता 'आर्यदेव', आर्यदेवके पश्चात् गंगराजका निर्माण करनेवाले 'सिंहनन्दी' आचार्य और सिहनन्दीके पश्चात् एकसन्धि-सुमति-भट्टारक हुए। और ३६ वें ३७वें शिलालेखों में समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दीका उल्लेख करते हुए सिंह नन्दीका समन्तभद्रकी वंशपरम्परा में होना लिखा है, जो वंशपरम्परा वही है जिसका ३२ वें शिलालेख में शिवकोटि, वरदत्त और आर्यदेव नामक आचार्योंके रूपमें उल्लेख हैं ।
इन तीनों या चारों शिलालेखोंसे भिन्न दूसरा कोई भी शिलालेख ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें समन्तभद्र और सिंहनन्दी दोनोंका नाम देते हुए उक्त सिंहनन्दीको समन्तभद्र से पहलेका विद्वान् सूचित किया हो, या कम-से-कम समन्तभद्रसे पहले सिंहनन्दीके नामका ही उल्लेख किया हो। ऐसी हालत में मिस्टर लेविस राइस साहबके उस अनुमानका समर्थन होता है जिसे उन्होंने केवल 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख (नं० ४५, में इन विद्वानोंके आगे पीछे नामोल्लेखको देखकर हो लगाया था। इन बादको मिले हुए शिलालेखों में 'श्रवरि', 'अवरथन्वयदान' और 'अवर अनन्तरं' शब्दों के प्रयोगद्वारा इस बातकी स्पष्ट घोषणा की गई है कि
X महिला- प्रशस्ति में श्रार्यदेवको 'शब्दान्त कर्त्ता' लखा है और हाँ 'तस्वार्थसूत्र कहीं।' इससे 'रादान्त' और 'तत्वार्थ सूत्र' दोनों एक ही प्रन्थके नाम मालूम होते हैं और वह गृपाचार्य उमास्वामी के तस्थासूत्र से भिन्न जान पड़ता है।
* श्रवणबेलगोलका उक्त २४वाँ शिक्षालेख सन् १८८६ में प्रकाशित हुआ था और नगरताल्लुकके उक् तीनों शिलालेख सन् १९०४ में प्रकाशित हुए हैं, वे सन् १८८६ में लेविस राहूस साहबके सामने मौजूद नहीं थे ।
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वर्ष १४
समन्तभद्रका समय-निर्णय सिंहनन्दी आचार्य समन्तभद्राचार्यके बाद हुए हैं। 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक और 'जैनहितैषी' भाग ,
अस्तु; ये सिंहनन्दी गंगवंशके प्रथम राजा कोंगुणि- अंक ६, पृ.४३९-४४० को देखनेकी प्रेरणा की गई वर्माके समकालीन थे, इन्होंने गंगवंशकी स्थापनामें थी, क्योंकि उस समय प्रायः इन्हीं आधारोंपर खास भाग लिया है, जिसका उल्लेख तीनों शिला- समाजमें दोनोंका व्यक्तित्व एक माना जाता था, जो लेखोंमें 'गंगराज्यम मादिद" इस विशेषण-पदके द्वारा कि एक भारी भ्रम था। परन्तु बादलो मैंने 'स्वामी किया गया है, जिसका अर्थ लेविस राइसने who पात्रकेसरी और विद्यानन्द' नामक अपने खोजपूर्ण made the Gang kingdom दिया है-अर्थात् निबन्धके दो लेखोंद्वारा इस फैले हुए भ्रमको दूर यह बतलाया है कि जिन्होंने गंगराज्यका निर्माण करते हुए यह स्पष्ट करके बतला दिया है कि स्वामी किया' (वे सिंहनन्दी आचार्य)। सिंहनन्दीने गंग- पात्रकेसरी और विद्यानन्दसे कई शताब्दी पहले
राज्यकी स्थापनामें क्या सहायता की थी इसका हुए हैं, अकलंकदेवसे भी कोई दो शताब्दी पहलेके कितना ही उल्लेख अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता विद्वान् हैं, और इसलिये उनका अस्तित्व श्रीवर्द्धहै, जिसे यहाँ पर उधृत करनेकी जरूरत मालूम
देवसे भी पहलेका है। और इसीसे अब, जब कि
दवस भा पहलका ह। अ नहीं होती-श्रवणबेल्गोलका वह ५४वा शिलालेख सम्यक्त्वप्रकाश-जैसे ग्रन्थकी पोल खुल चुकी हैं, मैंने भी सिंहनन्दी और उनके छात्र (कांगणिवर्मा के उक्त तीनों शिलालेखोंकी मौजूदगीको लेकर यह साथ घटित-घटनाकी कुछ सूचनाको लिये हुए है। प्रतिपादन किया है कि उनसे श्री राइस साहबके
अनुमानका समर्थन होता है, वह ठीक पाया गया ___ यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सन १६२५ (वि० सं० १६८२ ) में
और इसीसे उसपर की गई अपनी आपत्तिको मैने
कभीका वापिस ले लिया है। माणिकचन्द जैनग्रन्थमालासे प्रकाशित रत्नकरण्ड
जब स्वयं कोंगुणिवर्माका एक प्राचीन शिलालेख श्रावकाचारकी प्रस्तावनाके 'समय-निर्णय' प्रकरणमें
शक संवत् २५ का उपलब्ध है (पृ. ११७) मैंने श्री लविस राइस साहबके उक्त
और उससे मालूम
होता है कि कोंगुणिवर्मा वि. स. १६० (ई० सन् अनुमान पर इस प्राशयकी आपत्ति की थी कि उक्त शिलालेखमें 'तत:' या 'तदन्वय' आदि शब्दोंके द्वारा
१०३) में राज्यासन पर आरूढ़ थे तब प्रायः यही
समय उनके गुरु एवं राज्यके प्रतिष्ठापक सिंहनन्दी सिंहनन्दीका समन्तभद्रके बादमें होना ही नहीं
आचार्यका समझना चाहिये, और इसीलिये कहना सूचित किया बल्कि कुछ गुरुओका स्मरण भी क्रम- चाहिये कि सिंहनन्दीकी गह-परम्परामें स्थित स्वामी रहित आगे पीछे पाया जाता है, जिससे शिलालेख समन्तभद्राचार्य अवश्य ही वि० संवत् १६० से कालक्रमसे स्मरण या क्रमोल्लेखकी प्रकृतिका मालूम पहले हुए हैं। परन्तु कितने पहले, यह अभी अप्रकट नहीं होता, और इसके लिए उदाहरणरूपमें पात्र- है फिर भी पर्ववर्ती होने पर कम-से कम ३० वर्ष केसरीका श्रीअकलंकदेव और श्रीवद्ध देवसे भी पूर्व पहले तो समन्तभद्रका होना मान ही लिया जा स्मरण किया जाना सूचित किया था। मेरी यह सकता है. क्योंकि ३५वें शिलालेखमें सिंहनन्दीसे
आपत्ति स्वामी पात्रकेसरी और उन श्रीविद्यानन्दको पहले प्रार्यदेव, वरदत्त और शिवकोटि नामके तीन एक मानकर की गई थी जो कि अष्टसहस्री आदि प्राचार्योका और भी उल्लेख पाया जाता है. जो ग्रन्थोंके कर्ता हैं, और उनके इस एक व्यक्तित्वके
समन्तभद्रकी शिष्यसन्तानमें हुए हैं और जिनके लिये 'सम्यक्त्वप्रकाश' ग्रन्थ तथा वादिचन्द्रसूति
लिये १०.१० वर्षका औसत समय मान लेना कुछ * योऽसो घातिमल-द्विषबज-शिला-स्तम्भावली-खण्डन
अधिक नहीं है। इससे समन्तभद्र निश्चितरूपसे ध्यानासि: पटुरईतो भगवतस्सोऽस्य प्रसादीकृतः ।
विक्रमकी प्रायः दूसरी शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान् छात्रम्मापि स सिंहनन्दि-मुनिना नो क्षेत्कथं वा शिला- ये दोनों लेख इस निबन्धसंग्रहमें अन्य पृ०५२७ स्तम्भोराज्य-रमागमाध्व-परिघस्तेना सखण्डो बनः ॥ से ३.तक प्रकाशित हो रहे हैं।
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अनेकान्त
[वर्ष १४ ठहरते हैं। और यह भी हो सकता है कि उनका बड़े प्रचारक और प्रसारक हुए हैं, उन्होंने अपने अस्तित्वकाल उत्तरार्धमें भी वि. सं.१६५ (शकस. समयमें श्री वीरजिनके शासनकी हजार गुणी वृद्धि ६०)तक चलता रहा हो; क्योंकि उस समयकी स्थिति- की है, ऐसा एक शिलालेखमें उल्लेख है, अपने का ऐसा बोध होता है कि जब कोई मुनि आचार्य- मिशनको सफल बनानेके लिये उनके द्वारा अनेक पदके योग्य होता था तभी उसको आचार्य-पद दे शिष्योंको अनेक विषयों में खास तौरसे सुशिक्षित दिया जाता था और इसतरह एक आचार्यके समयमें करके उन्हें अपने जीवन-कालमें ही शासन-प्रचारके उनके कई शिष्य भी प्राचार्य हो जाते थे और पृथक्- कार्यमें लगाया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, और रूपसे अनेक मुनि-संघोंका शासन करते थे; अथवा इससे सिंहनन्दी जैसे धर्म-प्रचारकी मनोवृत्तिके कोई-कोई आचाये अपने जीवनकाल में ही आचार्य- उदारमना प्राचार्यके अस्तित्वकी सम्भावना समन्तपदको छोड़ देते थे और संघका शासन अपने किसी भद्रके जीवन-कालमें ही अधिक जान पड़ती है। अस्तु । योग्य शिष्यके सुपुर्द करके स्वयं उपाध्याय या साध ऊपरके इन सब प्रमाणों एवं विवेचनकी रोशनीपरमेष्ठीका जीवन व्यतीत करते थे । ऐसी स्थितिमें में यह बात असंदिग्धरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि उक्त तीनों प्राचार्य समन्तभद्रके जीवन-कालमें भी स्वामी समन्तभद्र विक्रमकी दूसरी शताब्दीके विद्वान उनकी सन्तानके रूप में हो सकते हैं। शिलालेखोंमें थे-भले ही वे इस शताब्दीके उत्तराधे में भी रहे प्रयुक्त 'अवरि' शब्द 'ततः' वा 'तदनन्तर जैसे अर्थ- हों या न रहे हों। और इसलिये जिन विद्वानोंने का वाचक है और उसके द्वारा एकको दूसरेसे बाद- उनका समय विक्रम या ईसाकी तीसरी शताब्दीसे का जो विद्वान् सूचित किया गया है उसका अभि- भी बादका अनुमान किया है वह सब भ्रम-मूलक प्राय केवल एकके मरण दसरेके जन्मसे नहीं, बल्कि है। डा. के. बी. पाठकने अपने एक लेखमें शिष्यत्व-ग्रहण तथा प्राचार्य-पदकी प्राप्ति आदिकी समन्तभद्रके समयका अनुमान ईसाकी आठवीं दृष्टिको लिये हुए भी होता है। और इसलिये उस शताब्दीका पूर्वार्ध किया था, जिसका युक्ति पुरस्सर शब्द-प्रयोगसे उक्त तीनों प्राचार्योंका समन्तभद्रके निराकरण 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी० जीवन-काल में होना बाधित नहीं ठहरता । प्रत्युत पाठक' नामक निबन्ध (नं०१८ ) में विस्तारके इसके समन्तभद्रके समयका जो एक उल्लेख शक साथ किया जा चुका है और उसमें उनके सभी सम्वत् ६० (वि० सं० १६५) का-सम्भवतः उनके हेतुओंको असिद्धादि दोषोंसे दृषित सिद्ध करके निधनका-मिलता है उसकी संगति भी ठीक बैठ निःसार ठहराया गया है (पृ. २६७-३.२।। जाती है। स्वामी समन्तभद्र जिनशासनके एक बहुत धर्मका आराधक' समझता था; जैसा कि पट्टावलीके
"श्रीवर्द्धमानस्वामिप्ररूपितशुद्धधर्माराधकानां पट्टानुजिस पहावली में यह समय दिया हुआ है, उस पर
क्रमः" इस वाक्यसे स्पष्ट है। पट्टावलीमें सत्तरह। सरसरी नजर बनेसे मालूम हुमा कि उसमें जो दूसरे
पहपर समन्तभद्रका नामोल्लेख करते हुए उन्हें प्राचार्यादिका समय दिया हुधा हे वह सब उनके जीवन- दिगम्बराचार्य लिखा है। पट्टावलीका वह उह खवाक्य काखकी समाप्तिका सूचक है, और इससे समन्तभद्रका उक्त
इस प्रकार हैसमय भी उनके जीवनकालकी समाप्तिका सूचक जान।
६. शाके राज्ये दिगम्बराचार्यः १७ श्रीसामन्तभद्रसूरिः
श्वेताम्बरों के द्वारा पहावलिसमुच्य'मादि जो पट्टावलियाँ यहाँ इस पट्टावलीके सम्बन्ध में इतना और भी प्रकट प्रकाशित हुई है, उनमें जहाँ श्रादि पट्टपर सामन्तभद्रकर देना उचित जान पड़ता है कि यह पहावली किसी का नाम दिया है वहाँ साथमें 'दिगम्बराचार्य' यह श्वेताम्बर प्राचार्य या विद्वानके द्वारा संकलित की गई है। विशेषण नहीं पाया जाता: इससे मालूम होता है कि इसमें उन्हीं प्राचार्यादिकोंके नाम पट्टकमके रूप में दिये हैं यह विशेषण बादको किसी रप्टिविशेषके यश पृथक् किया जिन्हें संकलनकर्ता 'श्रीषद्ध मानस्वामि-प्ररूपित शुद्ध गया है।
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वर्ष १४ ]
डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणने, अपनी 'हिस्टरी आदि मिडियावल स्कूल आफ इंडियन लॉजिक' में यह अनुमान प्रकट किया था कि समन्तभद्र ईसवी सन ६०० के लगभग हुए हैं । परन्तु आपके इस अनुमानका क्या आधार है अथवा किन युक्तियों के बल पर आप ऐसा अनुमान करनेके लिये बाध्य हुए हैं, यह कुछ भी सूचित नहीं किया । हाँ, इससे पहले इतना जरूर सूचित किया है कि समन्तभद्रका उल्लेख हिन्दू तत्त्ववेत्ता 'कुमारिल'ने भी किया है और उसके लिये डॉ० भाण्डारकरकी संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान-विषयक उस रिपोर्टके पृ० ११८ को देखने की प्रेरणा की है जिसका उल्लेख इस लेख के शुरू में एक फुटनोट-द्वारा किया जा चुका है। साथ ही, यह प्रकट किया है कि 'कुमारिल बद्ध तार्किक विद्वान् 'धर्मकीर्ति का समकालीन था और उसका जीवन काल आम तौर पर ईसाकी ७वीं शताब्दी ( ६३५ से ६५० ) माना गया है । शायद इतने परसे हो - कुमारिलके ग्रन्थ में समन्तभद्रका उल्लेख मिल जाने मात्रसे ही आपने समन्तभद्रको कुमारिलसे कुछ ही पहलेका अथवा प्रायः समकालीन विद्वान् मान लिया है, जो किसी तरह भी युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होता । कुमारिलने अपने श्लोकवार्तिक, कलंकदेवके 'अष्टशती' ग्रन्थपर उसके 'आज्ञाप्रधानाहि " ." इत्यादि वाक्योंको लेकर कुछ कटाक्ष किये हैं जिससे अकलंक के 'ती' प्रथका कुमारिलके सामने मौजूद होना पाया जाता है । और यह अष्टशती ग्रन्थ समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रका भाष्य है, जो समन्तभद्रसे कई शताब्दी बादका बना हुआ है। इससे विद्याभूपणजीक अनुमानकी निःसारता सहज ही व्यक्त हो जाती है।
इन दोनों विद्वानोंके अनुमानोंके सिवाय पं० सुखलालजीका 'ज्ञानबिन्दु' की परिचयात्मक प्रस्तावनामें समन्तभद्रको विना किसी हेतुके ही पूज्यपाद ( विक्रम छठी शताब्दी) का उत्तरवर्ती बतलाना और भी अधिक निःसारताको लिये हुए हैं-वे
समन्तभद्रका समय निर्णय
* देखा, प्रोफेसर के० बी० पाठकका 'दिगम्बर जैनसाहित्य में कुमारिलका स्थान' नामक निबन्ध |
७
पूज्यपादके 'जैनेन्द्र' व्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य और 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इन दो सूत्रोंके द्वारा समन्तभद्र और सिद्धसेनके उल्लेखको जानते- मानते हुए भी सिद्धसेनको तो एक सूत्रके आधार पर पूज्यपादका पूर्ववर्ती बतला देते हैं परन्तु दूसरे सूत्रके प्रति गज-निमीलन जैसा व्यवहार करके उसे देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं और समन्तभद्रको यों ही चलती क़लमसे पूज्यपादका उत्तरवर्ती कह डालते हैं। साथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावना में वे पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए हैं और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूपमें प्रसिद्ध इन दोनों श्रचायका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रोंमें किया है उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियों पर होना चाहिये' जो कि उनके उक्त उत्तरवर्ती कथनके विरुद्ध पड़ता है। उनके इस उत्तरवर्ती कथनका विशेष ऊहापोह एवं उसकी निःसारताका व्यक्तीकरण 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक २७वें निबन्ध के 'सिद्धसेनका समयादिक प्रकरण' ( पृ० ५४३-५६६ ) में किया गया है और उसमें तथा 'सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन' नामक प्रकरण ( पृ० ५६६ - ८५ ) में यह भी स्पष्ट करके बतलाया गया है कि समन्तभद्र न्यायावतार और सन्मति - सूत्रके कर्ता सिद्धसेनोंसे ही नहीं, किन्तु प्रथमादि द्वात्रिंशिकाओं के कर्त्ता सिद्धसेनोंस भी पहले हुए हैं। 'स्वयम्भू स्तुति' नाम की द्वात्रिंशिका में सिद्धसेनने 'अनेन सर्वज्ञपरीक्षणमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः जैसे वाक्योंके द्वारा सर्वज्ञपरीक्षकके रूपमें स्वयं समन्तभद्रका स्मरण किया है और अन्तिम पथमें तब गुणकथोरका वयमपि जैसे वाक्योंका साथमें प्रयोग करके वीरस्तुतिके रचनेमें समन्तभद्रके अनुकरणकी साफ सूचना भी की है-लिखा है कि इस सर्वज्ञद्वारकी परीक्षा करके हम भी आपकी गुणकथा करने में उत्सुक हुए हैं।
समयका अन्यथा प्रतिपादन करनेवाले विद्वानोंविक्रमकी दूसरी अथवा ईसाकी पहली शताब्दीका के अनुमानादिककी ऐसी स्थिति में समन्तभद्रका समय और भी अधिक निर्णीत और निर्विवाद जाता है। - जुगलकिशार मुख्तार
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कसाय पाहुड और गुणधराचार्य
(परमानन्द शास्त्री) प्रन्थ-परिचय
श्रात्माके शुद्ध, एवं सहज विमल अकषाय भावको भारतीय मुनि-पुगव आचार्योंमें श्रीगुणधरा- पेज दोसपाहड' या कसायपाहुड कहते हैं । मोह
प्राप्त करनेका जिसमें विवेचन किया गया हो, उसे चार्यका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है, क्योंकि वे कर्म आत्माका सबसे प्रबल शत्रु है। राग-द्वपादिक गोवद्धनाचायके शिष्य भद्रबाहु श्रुतकवलीको शिष्य दोष मोह कर्मकी ही पर्याय हैं। दृष्टिगत होने वाला परम्परामें होनेवाले पूर्वधर आचार्यों में से हैं।
यह संसारचक्र सब इसी मोहका विस्तृत परिणाम उन्होंने ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वके दशवें
। है। उसीके जीतनेका इस ग्रंथमें सुन्दर विधान किया वस्तु नामक अधिकारके तृतीय प्राभृतसे, जिस
गया है । विवेकी जनोंको उसका स्वरूप समझ का नाम 'पेज्जदोस पाहुड' है, 'कसाय पाहुडसुत्त'की
लेना कपायचक्रके तापसे छूटनेकी अनुपम औषधि
व रचना की थी। उन्होंने उस पूर्वका समस्त सार अथवा उसीसे मानव जीवनकी सफलता है। यह ग्रन्थ नवनीतामृत १८० मूल गाथाओं और ५३ विवरण : गाथाओं में उपसंहारित किया था। कसायपाहुडसुत्तके म
मुमुक्षुओंके बड़े कामकी चीज है। मूल पाठपरसे ऐसा प्रतिभासित होता है कि यह ग्रन्थकर्ता आचार्य गुणधर ग्रन्थ बीजपद रूप है और वे बीजपद गम्भीर अर्थ- इस महान आगम ग्रन्थके कर्ता आचार्य प्रवर के द्योतक और प्रमेय-बहुल हैं। इससे प्राचार्य गुणधर हैं, उनकी गुरुपरम्परा क्या है वे कब हुये गुणधरकी उक्त रचना कितने महत्व को है यह उसके हैं और उनका निश्चित समय क्या है ? इसके जानटीका-प्रन्थोंके अध्ययनसे स्पष्ट है जो छह हजार नेका कोई साधन प्राप्त नहीं है और न उनके यथार्थ
और ६० हजार श्लोक-प्रमाणको लिये हुए वर्त- समयकी द्योतक खास सामग्री ही अद्यावधि उपलब्ध मानमें उपलब्ध हैं। यद्यपि इस महान ग्रन्थ पर है जिससे उनकी गुरु-परम्परा पर यथेष्ट प्रकाश
और भी अनेक विशाल टीका-टिप्पण लिखे गये हैं। डाला जा सके। फिर भी अन्य साधनोंसे उनके परन्तु खेद है कि वे इस समय उपलब्ध नहीं हैं किन्तु समयके सम्बन्धमें विचार किया जाता है। आशा कसायपाहुडकी सरणी-जैसा बीज पदरूप संक्षिप्त- है कि विद्वान उस पर विचार करनेकी कृपा करेंगे। सार एक भी प्राचीन आगम दिगम्बर-श्वेताम्बर वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतावतारों और पट्टावसमाजमें अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। जैन-समाजका लियोंसे भी आचार्य गुणधरके समय-सम्बन्धी निर्णय सौभाग्य है कि जो यह प्राचीन आगम ग्रन्थ अपनी करनेमें कोई सहायता नहीं मिलती। किन्तु इन्द्रनचूर्णि और जयधवला टीकाके साथ उपलब्ध हैं। न्दीने तो अपने श्रुतावतार में यह बात साफ तौरसे ___ कसाय-पाहुडका दूसरा नाम 'पेज्जदोस-पाहुड' सूचित की है कि हमें गुणघर और धरसेनाचार्यकी है। 'पेज्ज' शब्दका अर्थ राग (प्रेम) और 'दोस' गुरु-परम्परा ज्ञात नहीं है; क्योंकि उसके बतलाने शब्दका अर्थ द्वाप होता है। अतः जिसमें राग-दूष, वाले मुनिजनोंका इस समय अभाव है । इससे क्रोध, मान. माया और लोभादिक दोषोंकी उत्पत्ति. इतना स्पष्ट हो जाता है कि गुणधराचार्यकी परस्थिति, तज्जनित कर्मबन्ध और उनके फलानुभवन
म्परा अत्यन्त प्राचीन थी, इसीसे लोग उसे भूल के साथ-साथ उन रागादि दोषोंको उपशम करने गये । प्राकृत पट्टावलीसे ज्ञात होता है कि पुण्डवर्धन दबाने. उनकी शक्ति घटाने. क्षीण करने अथवा नगरके आचार्य अहंदुबलीने जो अष्टांग महानिमि
आत्मामेंसे उनके अस्तित्वको सर्वथा मिटा देने, त्तके वेत्ता और शिष्योंके निग्रह-अनुग्रह करने में नृतन बन्ध रोकने और पूर्व में संचित 'कषाय-मल- ४ तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् चक्र' को क्षीण करने-उसका रस सुखाने और
-इन्द्रनन्दि श्रुतावतार
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वर्ष १४ ]
कसाय पाहुड और गुणधराचाय समर्थ थे। विद्वान और तपस्वी थे । उन्होंने युगप्रति- उनके बाद माघनन्दी और धरसेनाचार्य का पट्टक्रमणके समय विविध स्थानोंसे समागत साधु-संतों काल क्रमशः २१ और १६ वर्ष उद्घोपित किया है। से, जो उक्त सम्मेलनमें भाग लेनेके लिये ससंघ कसाय पाहडकी प्राचीनता आये हुए थे आचार्य-प्रवरने पूछा कि सकल- इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर अहबली संच आ गया, तब समागत साधुओंने उत्तर दिया माघनन्दी और धरसेनाचार्यसे पृववर्ती हैं, कितने कि हम सब अपने-अपने संघसहित आ गये हैं। पूर्ववर्ती हैं यह अभी विचारणीय है। इससे आचार्य अहंदुबलीको यह निश्चय हो गया दूसरे यह जान लेना भी आवश्यक है कि धरकि अब साधुगण संघकी एकताको छोड़कर विविध सेनाचार्य द्वारा पढ़ाये गए पुप्पदंत-भूतबली आचार्यों सघों और गण-गच्छोंमें विभक्त हो जावेंगे। अत
द्वारा विरचित पटखण्डागम नामक आगम ग्रन्थएव उन्होंने उन साधुओं में से किन्हींको 'नन्दि' सज्ञा में उपशम क्षायिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के जो सूत्र दिये किन्हींको देव' सज्ञा, और जो शाल्मलीद्रममूलसे
हैं उन पर कसायपाइडकी निम्न दो गाथाओंका आये हुए थे उनमेंसे किन्हींको 'गुणधर' संज्ञा और
स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है और इससे भी किन्हींको 'गुप्त' संज्ञासे विभूषित किया हैं।
गुणधराचार्यका समय पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। ___ इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य अर्हवली से पहले दसणमोइस्मुवसामगो दु चदुमु वि गदोसु बोद्धब्बो। क्षपणक जैन श्रमणसंघमें किसी तरहका कोई पचिदियो य सपणो णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥ १४ ॥ संघ-भेद न था; किन्तु युग-प्रति क्रमणके समय-से
-सायपाहुड ही संघ-भेद शुरु हुआ। और उस समय अर्हद्- "उवसातो कम्हि उवमामेदि ? चदुसु वि गदीसु बली जैसे बहुश्रुत आचार्योंके हृदयों में गुणधरा- उक्साभेदि । चदुसुवि गदीसु उवसातो पंचिंदिएम चार्य के प्रति बहुमान मौजूद था। यही कारण है कि उवसामेदि, णो एइदिय-विगलिंदिपसु । पंचि दिएसु उन्होंने 'गुणधर' संज्ञा के द्वारा उनके प्रति केवल उवसातो सण्णीसु-उवसामेदि, यो असरणी । सएणोसु बहुमान ही प्रदर्शित नहीं किया: किन्त उनके अन्वय उपसातो गब्भो वातिएमु उवसामेदि, यो सम्मुच्छिमेसु । का उज्जीवित करने का प्रयत्न किया है। अतः गभोवक्कतिएम उवतातो पज्जत्तएमु उवसामे द, यो 'गुणधर' यह संज्ञा आचार्य गुणधरके अन्वय की अपज्जत्तासु । पज्जत्तरसु उवसामें तो संखेज्ज वस्साउगेसु वि सूचक है। पर उस समयके साधु-सन्तोंके हृदयों में से उवसामेदि, असंखेज्जवस्ताउगेसु वि। गुणधराचार्य की गुरु-परम्परा विस्मृत हो चुकी थी,
-पखंडागम. सभ्मत्तचूलि. पु.६, फिर भी गुणधराचार्य के महान व्यक्तित्व की छाप दमण मोहाबवणा पटुवगो कम्मभूमि जादो दु। तात्कालिक श्रमण-संघके हृदय-पटल पर अंकित थी। णियमा मणुपगदीए णिवगो चावि सव्वन्थ ।। ११० प्राकृत पट्टावली के अनुसार अहंदुबलीका यह दमणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढवेतो कम्हि भादसमय वीर निर्वाण संवन ५६५ (वि. संवन ५) है। वेदि ? अड्ढाइज्जेमु दीवममुहेमु परणारस कम्मभूमीसु और उनका पट्टकाल २८ वर्ष बतलाया गया है जम्हि जिण। केवली तित्थयरा तम्हि पाढवेदि ॥१२॥ णि?ये शाल्मलोमहादममूलागतयोऽभ्युपगतास्तेपु ।
वो पुण चदुमु वि गदीमु णि?वेदि ||१३||
पटवण्डागम, सम्म चू० पु.६ कांश्चिद् गुणधरसंज्ञानकाश्चिद् गुप्ताहयानकरोत् ।। -इन्द्रनन्दि श्रुतावतार
___चूकि गुणधराचार्य पांचवं पूर्व-गत पेज्ज पंचसये पण पट्टे अतिम-जिन-समय-जादेसु ।
दोस पाहडके ज्ञाता थे, अतः उनकी यह रचना उवण्णा पंच जणा इयंगधारी मणेयवा ॥ सहा विक्रम संवत् से कमसे कम दो सी वर्षे पूर्व अहिवल्लि य माघणंदिय धरसेण पुफ्फ यंत भूयबली।
की तो होनी ही चाहिये। अतः यह ग्रन्थ विक्रम पूर्व अडवीसे इगिवीसे उगणीसे तीस वीप वास पुणो १६ द्वितीय शताब्दी के लगभगका होना चाहिये। यह
प्राकृत पहावली १५ उस समयकी पुरातन रचना है जब ग्रन्थ रचने का
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अनेकान्त
[ वर्ष १४ जैन परम्परा में कहीं कोई उल्लख नहीं मिलता। यही वजह है कि इस ग्रन्थका अपना विशिष्ट अतः यह ग्रन्थभारतीय आगम-ग्रन्थों में सबसे स्थान है। इम ग्रंथकी महत्ताका वे ही मूल्य आंक पुरातन लिग्बी जाने वाली प्रथम रचना है। जिसका सकेंगे, जो उसके मनन और चिन्तन द्वारा कसायभगवान महावीरकी वाणीसे साक्षात् सम्बन्ध है। शत्रु को विनष्ट करने में यत्नशील होंगे।
कविवर ठकरसी और उनकी कृतियाँ
( पं० परमानन्द शास्त्री) जीवन-परिचय और रचनाएँ
कृपणचरित्र विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान कवियों में सजीव है और कविने उसे ३५ पद्योंमें रखनेका कविवर ठकुरमीका नाम भी उल्लेखनीय है । कवि यत्न किया है रचना सरस और प्रामाद गुगसे युक्त ठकुरसी कविवर घेल्हके पुत्र थे । उनकी माता बड़ी है। और उसे वि० सं० १५८० के पोप महीनेकी ही धर्मिष्ठा थी । गोत्र पहाड्या था और जाति पंचमीके दिन पृर्ण किया गया है। उक्त घटनाका खण्डेलवाल तथा धर्म दिगम्बर जैन था। आप संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:उस समयके अच्छे कवि कहे जाते थे; और कविता एक प्रसिद्ध कृपण व्यक्ति उमी नगर में रहता था नक प्रकार से आपकी तक सम्पत्ति थी। जहाँ कविवर निवाम करते थे । वह जितना अधिक आपके पिता भी अच्छी कविता करते थे; परन्तु कृपण था उसकी धर्मपत्नी उतनी ही अधिक उदार अद्यावधि उनकी कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई। थी । वह दान-पूजा, शील आदिका पालन करती हो सकता है कि वह अन्वेषण करनेपर प्राप्त होजाय । थी, किन्तु उस कृपणने सम्पदाको बड़े भारी यत्न
कविवर ठकुरसीकी इस समय चार कृतियांका और अनेक कौशलोंसे प्राप्त किया था। धन संचयपता चला है । ये सभी कृतियाँ अभी तक की लालसा उसकी बहुत बढ़ी हुई थी, वह जोड़ना श्रप्रकाशित हैं। इनका अवलोकन करनसे जहाँ जानता था, खर्च करने में उसे भारी भय लगा कविको काव्य शक्तिका परिचय मिलना है वहाँ रहता था। वह रातदिन इमी चिन्तामें रहता था उनकी प्रतिभाका भी दर्शन हुए बिना नहीं रहता। कि किमी तरह से सम्पत्ति सचित होती रहे, परन्तु रचनाओं में स्वभावतः माधुर्य और प्रासाद है, उन्हें कभी दान, पूजा यात्रा आदि धर्मकार्यामें खर्च नहीं पढ़ते हुए जीमें अमचि नहीं होती; किन्तु शुरु करने किया था। माँगनेवालांको कभी भूलकर भी नहीं पर उसे पूरी किये बिना जी छोड़ने को नहीं देता था, और न किसी देवमन्दिर गोठ या सहचाहता। आपकी कृतियों के नाम हैं,-कृपण भोजम ही धनका व्यय करता था। भाई, बहिन, चरित्र, मेघमालावयकहा, पंचेन्द्रियवेल, यारनेमि- बुआ, भतीजा, और भाणिजी आदिके न्योता पाने राजमतीवेल । इनमेंसे पाठक प्रथम रचनाक नामसे पर कभी नहीं जाता था किन्तु रूखा सा बना रहता परिचित हैं क्योंकि उसका किंचित परिचय पं० था उसने कभी सिरमें तेल डालकर स्नान नहीं किया नाथूरामजी प्रेमी बम्बईने अपने हिन्दी साहित्यक था, धनके लिये झूठ बोलता था, भूठा लेख जन इतिहासमें कराया था।
जिखाता था, कभी पान नहीं खाता, न खिलाता था, प्रस्तुत 'कृपणचरित्र'की एक प्रतिलिपि मेरे पास और न कभी सरस भोजन ही करता था, और न कभी है जिसे मैने जयपुरके किसी गुटके परसे कुछ वर्ष चन्दनादि द्रव्यका लेप ही किया, न कभी नया कपड़ा हुए नोट की थी। कविन इसमे अपनी आंखों देखी पहिनता था, कभी खेल-तमाशे देखने भी न जाता एक घटनाका विस्तृत परिचय कराया है. घटना था और न गीतरस ही सुहाता था, कपड़ा फटजाने * जिसु कृपणु इकु दातु तिसो सुण तासु बखाण्यौं। के भयसे उन्हें कभी धाता भी न था, कभी किसी
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वष १४
कविवर ठकुरसी और उनकी कृतिया अभ्यागत या पाहुनेके आजाने पर भी उसे नहीं शत्रुजयकी यात्राके लिये जा रहे हैं । वहाँ नेमिखिलाता था, मुँह छिपाकर रह जाता था। इमीसे जिनेन्द्रकी वन्दना करेंग, जिन्होंने राजमतीको छोड़ पत्नीसे रोजाना कलह होती थी जैसा कि कविकी दिया था। वे कन्दना पूजा कर अपना जन्म सफल निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:
करेंगे। जिससे वे पशु और नरगतिमें न जायगे। झूठ कथन नित खाइ लम्बै लेखौ नित झूठौ, किन्तु अमर पद प्राप्त करेंगे । अतः आप भी झूठ सदा महु करै झूठ नहु होइ अपूछौ ।
चलिये । इस बातको सुनकर कृपणके मस्तकमें सिलमूठी बोले साखि ऋठे झगड़े नित्य उपावै,
वट पड़ गई वह बोला कि क्या तू बावली हुई है जहि तर्हि बात विस सि धूतिधनु धरमहि ल्यावै। जो धन ग्वरचनकी तेरी बुद्धि हुई । मैन धन चोरीसे लोभ कौल यौं चेते न चित्ति जो कहि जै सोई खव. नहीं लिया श्रीर न पड़ा हुया पाया, दिन-रात नींद, धनकाज झूठ बोलै कृपणु मनुख जनम लाधो गर्व ॥५ भूख प्यासकी वेदना सही, बड़े दुःखसे उसको प्राप्त कदे न खाइ तंबोलु मरसु भोजनु नहि भक्खै, किया है, अतः खरचनेकी बात अब मुंहसे न कदे न कापड नवा पहिरि काया सुखि रक्खें। निकालना। कदे न सिर में तेलु घालि मलि मूरख न्हावं,
तब पत्नी बोली हे नाथ ! लक्ष्मी तो बिजलीके कदे न चंदन चरचे अंगि वीरु लगा।
समान चंचला है। जिनके पास अटूट धन और पेषणो कदे देखै नहीं श्रवणु न मुहाई गीत रम, नवनिधि थी, उनके साथ भी धन नहीं गया, केवल घर घरिणि कहे इम कंत स्यों दई काइ दीन्हीं न यसु॥६ जिन्होंने संचय किया उन्होंने उसे पाषाण बनाया, वह देण खाण रखचै न कि दुवै करहिदिनिकाहअति जिन्होंने धर्म-कार्य में खर्च किया उनका जीवन सगी भतीजी भुवा वहिणि भाणिजी न ज्यावे, सफल हआ । इसलिये अवसर नहीं चूकना चाहिए, रहे रुसतो मांडि पापु पोतो जब श्राव। नहीं मालूम किन पुण्य परिणामोंसे अनन्त धन पाहुणो सगो आयो सुणे रहह छिप्पो मुँह राखिकर। मिल जाय। तब कृपण कहता है कि तू इसका भेद जिव जाइ तिवहि परिनीतर यों धनुसंच्या कृपण नर, नहीं जानती, पैसे बिना आज कोई अपना नहीं है।
कृपण की पत्नी, जब नगर की दूसरी स्त्रियों धनक बिना राजा हरिश्चन्द्रने अपनी पत्नीको बेचा को अच्छा खाते-पीते और अच्छे वस्त्र पहनते और था। तब पत्नी कहती है कि तुमने दाता और दानकी धर्म-कर्म का साधन करते देखती तो अपने पतिसे महत्ता नहीं समझी। देखो, संसारमें राजा कण भी वैसा ही करने को कहती. इस पर दोनों में और विक्रमादित्यसे दानी राजा हो गये हैं, सूमका कलह हो जाती थी। तब वह सोचती है कि मैने कोई नाम नहीं लेता जो नि.पृह और सन्तोषी है, पूर्वमें ऐसा क्या पाप किया है ? जिससे मुझे ऐसे वह निर्धन होकर भी मुवी है, किन्तु जो धनवान अत्यन्त कृपण पतिका समागम मिला। क्या मैंने होकर भी चाह-दाहमें जलता रहता है वह महा कभी कुदेवकी पूजा की, सुगुरु साधुयोंकी निन्दा दुःग्बी है। मै किसीकी होड़ नहीं करती, पर पुण्यका, कभी झूठ बोला, दया न पाली, रात्रि भोजन कर्ममें धनका लगाना अच्छा ही है। जिसने केवल किया, या नोंकी संख्याका अपलाप किया, मालूम धन मंचय किया, किन्तु म्व-परके उपकारमें नहीं नहीं मेरे किस पापका उदय हुआ मिससे मुझे लगाया वह चेतन होकर भी अचेतन जैसा है जैसे ऐसे कृपणपतिके पाले पड़ना पड़ा. जो न खावे न उसे सर्पने डस लिया हो। खर्च करने दे, निरन्तर लढ़ता ही रहता है।
इतना सुनकर कृपण गुम्सेसे भर गया और एक दिन पत्नीने सुना कि गिरनारकी यात्रा उठकर बाहर चला गया। तब रास्ते में उसे एक करनेके लिये संघ जा रहा है। तब उसने रात्रिमें पुराना मित्र मिला । उसने कृपणसे पूछा मित्र ! हाथ जोड़कर हँसते हुए संघयात्राका उल्लेख किया याज तेरा मन म्लान क्यों है ? क्या तुम्हारा धन और कहा कि सब लोग संघके साथ गिरनार और राजाने छीन लिया या घर में चोर आगये, या घरमें
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अनेकान्त
कोई पाहुना आ गया है. या पत्नीने सरस भोजन बनाया है। किम कारणसे तेरा मुख आज म्लान दीख रहा है। कृपणने कहा कि मित्र ! मुझे घरमें पत्नी सताती है, यात्रा चलनेके लिये धन खरचनेको कहती है, जो मुझे नहीं भाता, इसी कारणसे मैं दुर्बल हो रहा हूँ, रात-दिन भूख नहीं लगती । मित्र मेरा तो मरण आ गया है। तब मित्रने कहा कि हे कृपण ! सुन, तू मनमें दुःख न कर । पापिनी को पीहर पठाय दे, जिससे तुझे कुछ दिनों सुख मिले | यह सुनकर कृपणको अति हर्ष हुआ । एक आदमीको बुलाकर एक झूठा लेख लिख दिया कि तेरे जेठे भाईके घर पुत्र हुआ है, अतः तुझे बुलाया है । यद्यपि पत्नी पति के इस प्रपंचको जानती थी किन्तु फिर भी वह उस पुरुपके साथ पीहर चली गई ।
[ वर्ष १४
में रहती हूँ। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा दान और चतुविध संघ पोपणादिकार्य हैं । उनमें से तूने एक भी नहीं किया अत: मै तुम्हारे साथ नहीं जा सकती ।
इस तरह कृपण विचार कर ही रहा था कि जीभ थक गई, वह बोलने में असमर्थ हो गया। वह इस संसार से विदा हो गया और मर कर कुगति में गया, पश्चात् पत्नी आदिने उसे संचित द्रव्य को दान धर्मादि कार्यों में लगाया ।
जब संघ यात्रा से लौटकर आया, तब ठौर-ठौर ज्यौना की गई, महोत्सव किये गए। और माँगने वालों को दान दिया गया, अनेक वाजे बजे, और लोगोंने असंख्य धन कमाया । जब इस बातको कृपणने सुना तो अपने मन में बहुत पछताया, यदि मैं भी गया होता तो खूव ज्यांणार खाता, व्यापार करता और धन कमाकर लाता, पर हाय कुछ भी नहीं कर सका। दैवयोगसे कृपण बीमार हो गया, उसका अन्त समय समझ कर कुटुम्बियांने उसे समझाया और दान पुण्य करनेकी प्रेरणा की । तत्र कृपने गुम्सेसे भरकर कहा कि मेरे जीते या मरने पर कौन मेरा धन ले सकता है मैंने धनको बड़े यत्नसे रक्वा है । राजा, चार और श्रगसे उसकी रक्षा की है । अब मैं मृत्युके सम्मुख हू अतः हे लक्ष्मी तू मेरे साथ चल, मैंने तेरे कारण अनेक दुःख सहे हैं। तब लक्ष्मी कृपण से कहती है कि" लच्छि कहे रे कृपण मूड हौं कदे न बोलों, को चला दुइ देइ गैज लागी तासु चालों । प्रथम चलण कु एहु देव देहुरे ठचिज्जैं । दूजै जान पति दागु चसंघहिं दिज्जैं, चल दुबे मंजिया ताहिवियोक्यौ चतौं। ส मरि जाइतु हो रही बहुडि न संगि थारे चर्छौं ।” मेरीदो बातें हैं उनमें से प्रथम तो देव मन्दिरों
जु
कवि की दूसरी कृति 'मेघमाला व्रत कथा' है । इस कथा की उपलब्धि भट्टारक हर्पकीर्ति अजमेर के शास्त्रभंडार के एक गुटके परसे हुई है । यह कथा ११५ कडवक, और २११ श्लोकोंके प्रमाण को लिये हुए हैं। इस ग्रन्थ की आदि अन्त प्रशस्ति में इस कथा के बनाने में प्रेरक, तथा कथा कहां बनाई
वहाँ राजा और कथा के रचने का समय भी दिया हुआ है।
इस ग्रन्थ की आदि प्रशस्ति में बतलाया है कि दुढाहड देशके मध्य में चम्पावती (जयपुर राज्यका वर्तमान चाटसु) नामकी एक नगरी है, जो उस समय धन-धान्यादि से विभूषित थी, और जिसके शासक राजा रामचंद्र जी थे, वहां भगवान पार्श्वनाथका एक जिनमन्दिर भी बना हुआ था, जिसमें तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र गौतम गणधर के समान बैठे हुए थे, और जो नगर निवासी भव्यजनों को धर्मामृतका पान करा रहे थे । उनमें मल्लिदास नामक वणिक पुत्र ने कवि ठकुरसी से मेघमालाव्रत कथाके कहने की प्रेरणा की। उस समय चम्पावती नगरी में अन्य समाजांके साथ ग्वण्डेलवाल जाति के अनेक घर थे। जिनमें अजमेरा, और पहड्या गोत्रादि सज्जनों का निवास था, जो श्रावकोचित क्रियाओंका सदा अनुष्ठान करते रहते थे । वहाँ तोषक नामके एक विद्वान भीं रहते थे । श्रावकजनोंमें उस समय जीणा, ताल्हु, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, नाथूसि, और भुल्लर आदि श्रावकोंने मेघमाला
ग्रहण किये थे । यहाँ हाथुव शाह नामके एक महाजन भी रहते थे उनके और भट्टारक प्रभाचन्द के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत को कब और कैसे करना चाहिये आदि पूरी विधिका उल्लेख करते
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वर्ष १४]
कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ हुये इस ग्रन्थ को संवत् १५८० में प्रथम श्रावण गया। बेचारा अलि उसीमें मर गया ४ । इसी सुदि छठके दिन पूर्ण किया है |
तरह यह अज्ञप्राणी अपने घ्राण इंद्रियके विषयमें पंचेन्द्रिय बेल
मूढ़ हुआ अपने प्राण खो वैठता है। जब एक-एक कवि की तीसरी कृति पंचेन्द्रिय की बेल हैं यह
इन्द्रियका विपय प्राणोंका उच्छेदक है तब पाँचों
इन्द्रियोंके विपयोंमें आसक्त इस मानवकी क्या दशा खण्ड रचना भी कवि की बड़ी ही रसीली कृति है।
होगी सो विचार देख। जिसमें जीवको पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे छुड़ाने का यत्न
कविने अपनी इस रचनाको विक्रम संवत् १५८५ किया गया है। इस ग्रन्थमें एक एक इन्द्रियके विषयसे होने वाली हानि को दिखलाते हुये पाँचों इन्द्रियों
में कातिक सुदि तेरसके दिन समाप्त किया है जैसा के विपयों से विरक्त होने का अच्छा उपाय बतलाया
कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट है:
"कवि घेल्ह सुतनु गुणगाऊँ, जगि प्रगट ठकुरमी नाउँ । गया है। यहाँ पाठकों की जानकारी के लिये घ्राण इन्द्रिय का एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है
तिणि पणरह सेर पिच्यासी, कातिक सुदि तेरसि मासी । जिससे पाठक उक्त खण्ड रचना का आस्वाद कर
करि वेलि सरस गुण गाया, चित चतुर पुरिस समझाया।" सके।
नेमीसुरकी वेल "कमल पयट्टो भमर दिनि घाण गंध रस रूढ ।
___ कविकी चतुर्थ कृति 'नेमीसुरकी वेल' है, जिसमें रमणि पडीतो संवुड्यौ नीमरि सक्यौ न मृदु ।
जैनियोंके २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और सो नीमरि सक्यौ न मूतौ प्रतिघ्राण गंधरस रूढी।
राजुलके जीवनका परिचय और उनकी सुन्दर मनचित रयणि गवाई, रमलेस्सु आजि प्रवाई।
संक्षिप्त झांकीका दिग्दर्शन मिलता है जो बड़ा ही जब ऊगै लौ रवि विमनी, सरवर विगसै लो कमली। शिक्षाप्रद है । कविकी इम रचनामें कोई समय नहीं तव नीसरिस्यौं यह बोदै रसुलेस्यों भाइ बहोडे ।
पाया जाता, सम्भवतः वह भी उक्त समयके भीतर चितति ति गजु इकु अायौ दिनकरु उगिया न पायौ।
या बाद में रची गई होगी। जलु पैठि परोपर पीयौ नीमरत कमल पावडी लीयो ।
इस तरह कवि की इन चार रचनाओं का
संक्षिप्त परिचय है। कविने अन्य क्या रचनाएँ गहि सूरि पवितलि चाप्यो अलि मारयो थरहर कंप्यौ ।
रची, यह कुछ मालूम नहीं होता, पर ज्ञात होता यह गंध विष वसि हुयो अलि अहल अग्वटी मूवो। अलि मरण करण दिटि दीजै अनि गयुनोभु नहि काजै ।"
है कि कवि की अन्य कृतियाँ भी जरूर रहीं होगी।
आशा है विद्वज्जन कवि की अन्य कृतियों का पता इसमें बतलाया गया है कि गंधलालुपी एक लगाकर उन्हें प्रकाश में लाने का यत्न करेंगे। भंवर कमलकी परागका रम लेता हुआ उममें इतना
कवि की इन कृतियों की भाषा अपभ्रंश नहीं श्रासक्त हुआ कि कमल कलीसे समय पर निकलना ,
कही जा सकती; क्योंकि इनमें हिन्दी शब्दोंकी भूल गया, जब दिनास्त होनेसे कमलकली संपुट
बहुलता के साथ कहीं कही कोई शब्द अपभ्रंश और (बन्द ) हा गई तब वह साचता है कि रात्रि व्यतीत देसी भापा का पाया जाता है। यह रचना पुरानी होगी. सूर्यादय होगा, यह कमल पुनः खिल जायगा, हिन्दी का विकमित रूप कहा जा सकता है। रचना तब मैं रस लेकर इसमें से निकल जाऊँगा। इतना साधारण होते हुये भी भावपूर्ण हैं, और अपने विचार ही कर रहा था, कि इतने में एक हाथी सरो
सरा. विपय का स्पष्ट विवेचन करती है। वरमें जल पीने आया, और जल पीकर उस कमल
x इस कथा का संक्षिप्त रूप निम्न पद्यमें अंकित है:नालको जड़से उखाड़कर पाँव तले दाब कर उसे खा
रानिर्गमिप्यति भविष्यति सुप्रभातं । xहाथु व साह महत्ति महते, पहाचन्द गुरु उयएसंते। भावानु देश्यति हसिप्यति पंकजश्री। पणदह सइजि असीते अग्गल सावण मासि छठिखियगल | एतद् विचिंतयति कोष गते द्विरेके, मेघमालात कथा।
हा, हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥
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पं० भागचन्द्र जी
जीवन-परिचय
जैसो मुख देखो तेसो है भासत, पं० भागचन्द्रजी ईमागढ़ (ग्वालियर) के निवासी थे। जिम निर्मल दर्पन में। इनकी जात असताल और धर्म दिगम्बर जैन था । श्राप
तुम कपाय विन परम शान्त हो, 'दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अभ्यापी थे। कहा जाता है कि
तदपि दक्ष कर्मारि-इतनमें । आप श्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टमही अच्छे विद्वान थे।
जैसे अति शीतल तुषार पुनि, संस्कृत और हिन्दी भाषामें अच्छी कविता करते थे। जैन
जार देत द्रम भारि गहनमें। सिद्धान्तक मर्मज्ञ विद्वान थे। शास्त्र प्रवचन और तत्वचर्चा
अब तुम रूप जथारथ पायो, में आपको विशेष रस आता था । श्राप मोनागिर (दनिया)
अब इच्छा नहि अनकुमतनमें । क्षेत्र पर वार्षिक मेले समय यात्रार्थ जाते थे और वहां
भागचन्द्र अमृतरस पीकर,
फिरको चाहे विप निजमनमें। शास्त्र प्रवचन तत्वचर्चा और शंका समाधानादि द्वारा धर्मा
अर्थात हे वीतराग जिन! आपकी महिमाका तीन मृतकी वर्षा भी किया करते थे। श्राप पदसंग्रहका बारीकीसे
कास लोकमें कौन वर्णन कर सकता है क्योकि वह अनन्त है और अध्ययन करने पर आपके जीवनसम्बन्धमें अनेक बातोंके ,
दोषाभावक कारण अन्यन्त निर्मल है। हे स्वामिन् ' आपने जाननेका साधन प्राप्त हो जाता है और उससे अापके जीवन
अपने उपयोगको-ज्ञान दर्शनरूप चैतन्य परिणतिकोपर पड़नेवाले प्रभावका भी सहज ही परिज्ञान परिलनित
अपने ज्ञानानन्द निश्चल रूपमें गाल दिया है-उसीमें रमा होता है। आपको जैनधर्म में पूरी निष्ठा, भक्ति और जीवनमें
दिया है-तन्मय कर दिया है, अतः वह उपयोग अब आचार-विचारके प्रवाहका यत्किंचित् दिग्दर्शन होता है।
बाहर निकलनेमें सर्वथा असमर्थ है-वह प्रारम-प्रदेशों में जिनदर्शन
इस तरह घुल गया है जिस तरह नमक पानीमें घुल जाता एक समय आप जिनालयमें जिनतिक समक्ष अपनी है। हे भगवन् ! अापक भक्त अपनी निष्काम भक्ति द्वारा दृष्टि लगाये हुए स्तुति करनमें तल्लीन थे शरीरकी क्रिया परम सुखी होते हैं किन्तु अापक गुणं कि निन्दक श्रभवजन निस्तब्ध थी; परन्तु वचनोस जिनगुणोंका वर्णन करते हुए स्वयं ही अपने कर्तव्यों द्वारा अनन्त दुःपक पात्र बनने हैं, कह रहे थे कि हे नाथ! श्राप धीतरग है। सारमें या किन्तु आपकी परम उदासीनता-राग द्वेषका अभाव रूप कौन पुरुष है जो आपकी महिमाका गुणगान कर सके। हे समता-परम वीतरागलाको प्रकट करती है, जैसा मुख होगा जिन ! अापक दीप और प्रापरणक विनारास अनन्त चतुष्टय वैमा ही दर्पणमें झलकना। दर्पणकी यह स्वच्छना है कि उसी तरह प्रकट हुए हैं जिस तरह मेव-पटलके विधटनसे
उसमें रंगीन या विकृत यस्तु ज्यों की त्यों झलकती है। आकाश में सूर्यका प्रकाश प्रकट हो जाता है।
इसी तरह प्रान्म-दर्पणमें भी वस्तु ज्यों की त्यों प्रतात होती
है । हे जिनेन्द्र ! अापने कषाय मलको नष्ट कर दिया है। वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सकै को जन त्रिभुवनम् ।
अतः आपको आत्मा परम शान्त है, तो भी वह कशत्रुओं के विनाश करनेमें दक्ष है जिस तरह शोत ऋतुमें अति भीषण
शीतल तुषार वृक्ष समूहको जलानेमें समर्थ होता है। निज उपयोग आपनै स्वामी, हे नाथ ! अब मुझे अापक यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति हुई है गाल दिया निश्चल आपनमें ।
इस कारण अब मुझे अन्य देवोंक देखनेकी जरा भी इच्छा है असमर्थ बाह्य निकसनको, नहीं है और यह ठीक भी है, ऐसा कौन मनुष्य होगा जो लवन घुला जैसे जीवन में ।
श्रमतको पीकर विषपानकी इच्छा करेगा। तुमरे भक्त परम सुख पावत,
कामना परत अभक्त अनन्त दुखनमें ।
कविवर कहते हैं कि हे भगवन् ! मुझे श्रापकी भक्तिकी
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हेमरी॥
भावना यदि कि
स्खलित
वर्ष १४
पं० भागचन्द्र जी तब तक आवश्यकता है जब तक मैं कर्मबन्धनसे न छुट हो रही है, अब मेरे अन्तरमें समता रस रूप मेघझरी बरस जाऊँ । मैं चाहता हूँ कि मेरी दृष्टि दोषवादमें (दूसरों के दोष रही है जिससे परपदार्थोकी चाह -पी अग्नि जो मुझे कहने में) न जाय, किन्तु मैं मौन रहूं और सभी प्राणियोंके निरन्तर सम्तापित करती थी और जो मुझे कुपथगामी बनाने प्रति मेरा व्यवहार आत्मीय जैसा हो, सबसे हित मित प्रिय में सहायक होती थी, वह सहज ही शान्त हो गई, अब वचन बोलू पावन पुरुषों के गुणोंका गान करूँ, और वीत- स्वात्मोत्थ उप निरंजन निराकुल पदसे मेरी प्रीति बढ़ रही राग भावकी अभिवृद्धि करनेमें समर्थ हो म । बाह्य दृष्टिले है, और मुझे अब दृढ़ निश्चय हो गया है कि मैं निश्चयसे परे होकर में अन्तरिटमें लीन रहे और चिरकाल तक स्वर. संसार-बन्धनको काटनेमें समर्थ हो जाऊँगा । जैसा कि कविपानन्दका पान करता रहूँ। हे प्रभो! यह वरदान मुझे वरके निम्न पद्यले प्रकट है :दीजिये । और मेरी बुद्धिको निर्मल बनानेमें सहायक हजिये। धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिन धुनि श्रवन परी।
कविवर सोचते हैं कि वास्तवमें निष्काम भक्रि कर्म- त्त्व प्रतीति भई अब मेरे, मिथ्या दृष्टि टरी॥ बन्धनको ढीला करनेमें उसी तरह समर्थ है जिस तरह जड़ते भिन्न खी चिन्मरति, चेतन स्वरस भरी। चन्दनके वृक्ष पर मोरके आने पर कूपमणमोक बन्धन ढीले अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, पर में सब परि हरी ।। होकर नीच विसकने लगते हैं। भावद्भक्रिमें लीन हा पाप गुन्य विधि बंध अवस्था भासी अति दुख भरी। मानव पाषाणकी प्रतिकृतिरूप उस प्रशान्त पारमतिमें अन- वातराग विज्ञान भावमय परिणति अति विस्तरी॥ न्त गुणोंक पिण्ड उस मूर्तिमान परमात्माके दिव्यरूपको
चाह-दाह विनसी वरसी पुनि समता मेघ झरी । देखता है उन्हींक गुणोंका चिन्तन-याराधन और मनन करता बाढी प्रीति निगकुल पदसों भागचन्द्र हमरी।। है, वह उसीमें तन्मय हो भक्तिरमका पान करता हुआ हर्षा- कवि की यह अन्तर्भावना यदि किसी कारण वश मलिन, तिरेकसे पुलकित हो उठना है। वह उसी प्रकार प्रमुदित स्खलित और विनष्ट न हुई तो वह दिन दूर नहीं जब वे होता है जैसे कोई रंक-गरीब व्यकि अमूल्य चिन्तामणि स्वातम रस में रमेंगे ही नहीं किन्तु अानन्द विभोर होकर रत्नको पाकर खुश होता है । जिसने भकि गंगामें स्नान कर स्वरूपानन्दी बन जायगे, अस्तु । निर्मलता प्राप्त की है उसकी सब अभिलपित बांछाएं पूरी एक दिन पंडित जी मामायिक से उटे, तब उनकी हो जाती हैं। कविवर कहते हैं कि मुझे जिम अविचल दृष्टि यकायक एक ऐस भोगी व्यकि पर पड़ी, जो भोगों में शिवधामक पानकी उत्कट अभिलापा थी वह अब अनायाम मस्त हो रहा था। उन्हें ही अपना सर्वस्व मान रहा था, पूरी हो रही है।
दिन भर स्त्री के ही पास बैठे रहना और भागों में अपने जिन-गिरा-स्तुति और स्वरूपकी झलक को खपा दना ही जिमका काम था, और अन्य किसी भी
कविवर कंवल जिनभन ही न थे किन्तु अापने काम में अपना समय ही नहीं लगाता था। उसे देखते ही जिनवाणीकी स्तुति करते हुए उसे मोहनधूलिको दबाने पंडित जी सहसा कह उठे मोहके उदयमें इस अज्ञानी वाली तथा क्रोधानल (क्रोधाग्नि) को बुझाने वाली जीव की परिणति दुख-दायक होती है, परन्तु यह जीव प्रकट किया है । भगवानकी वह पावन ध्वनि मुझे भ्रमवश सांसारिक विषयों में इतना तन्मय हो जाता है, बड़े भारी भाग्योदयसे प्राप्त हुई है इतना ही नहीं किन्तु कि अपने स्वरूपको भूल जाता है और पर पदार्थोंको बुधजन रूप केकीकल जिसे देखकर चित्तमें हर्षित होते हैं। अपनाता चला जाता है। पर पदार्थो का परिणमन क्योंकि वह वाणी मेरी तत्त्व प्रतीतिका कारण है, और उससे अपने आश्रित नहीं है यह उनकी प्रतिकूल परिणति को मेरी मिथ्या दृष्टि दूर हुई है। और उसके द्वारा ही मैंने दम्वकर अत्यन्त आकुलित होता है और रागादि विभाव स्वरससे परिपूर्ण चैतन्य रूप निज मूर्तिको जड़स भिन्न दखा भावोंका सेवन करता हुआ कर्म-बंध की परम्पराको बढ़ाता है, अनुभव किया है इससे ही परमें होने वाले अहंकार हुआ चला जाता है। यात्माक हितके कारण सम्यग्दर्शन, ममकार रूप बुद्धिका विनाश होता है, और अब पाप-पुण्य ज्ञान, वैराग्यकी ओर दृष्टि प्रसार कर भी नहीं देखता, रूप कर्मबन्ध व्यवस्था अत्यन्त दुःख-जनक प्रतिभासित हो किन्तु इन्द्रिय-विषयों के संग्रह और उनके भोगने में तत्पर रही है और वीतराग विज्ञानरूप प्रारमपरिणति सुखद प्रतीत रहता है । भोगोंस उस जरा भी ग्लानि नहीं होती है।
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१६]
अनेकान्त
[वर्ग १४
और न यही विचार आता है कि बड़े बड़े महापुरुषों ने भावना है । ऐसा विचारते हुए कविवर स्वरूपमें निमग्न हो भव भोगों को भुगक समान जानकर उनका त्याग कर गए, उस समय उनकी मुद्रा बड़ी ही शान्त और निश्चल दिया और आत्म-पाधना द्वारा स्पद प्राप्त करने का प्रतीत होती थी। कुछ समयके बाद जब उनकी समाधि उद्यम किया है। परन्तु यह यह मोही जीव कितना अज्ञानी टूटी तब कविवर कहते हैं किहै, कि अपने स्वभावका परित्याग कर पर-पदार्थो में जो आत्मानुभवकी महत्ता इसकी जाति के नहीं है, इससे अत्यन्त भिन्न हैं उन्हें अपना मान रहा है । उनके वियोगमें दुःख और संयोग में सुग्व
जब निज आतम अनुभव श्रावै, और कछ न सुहावै ।
सब रस नीरस हो जाय ततच्छिन,अक्ष-विषय नहि भावे मान रहा है। मैं भी जब अपनी पूर्व अवस्थाका विचार करता हूँ तो मुझे यह भान होता है कि हे प्रात्मन् ! तूने
गोष्ठी कथा कौतूहल विघट, पुद्गल प्रोति नमाव ।।२। अपने ये दिन यों ही विना विवेक के खोये है। अनादि से
राग द्वेष द्वय चाल पक्ष जुत मन पक्षी मर जावे ||३|| ही मोह मदिरा का पानकर चिर कालसे पर-पद में सोना
ज्ञानान-द सुधारम उमगै, घट अन्तर न सभावै॥४॥ रहा है, किन्तु सुख कारक उस चिपिण्ड रूप आत्म पद
भागचन्द ऐसे नुभवके हाथ जोरि सिा नाय ।।। की ओर झांक कर भी नहीं देखा, जो अनन्त गुणों का
वास्तबमें स्वानुभवकी दशा विचित्र है वह किन्हीं पिण्ड है, बहिर्मुख होकर राग-द्वेषादि के द्वारा करूपी
ज्ञानी पुरुपोंको प्राप्त होती है। उसमें अान्तरिक सुधारसका बीजों का वपन किया है, और उसके परिण माप सुख-दुख
जो झरना बहता है वह आत्म-प्रदेशोंमें नहीं समाता । वह
वचनका विषय भी नहीं है-वचनातीत है, उसमें सुदृष्टि सामग्री को देखकर चित्तमें हंमता-रोजा रहा हूँ। किन्तु
को जो आनन्दानुभवन होता है वह कल्पनाके बाहिर की शुक्लध्यानके पवित्र जल-प्रवाहस कर्तरूप यात्रव-मल को
वस्तु है। यद्यपि उसमें अान्म-प्रदेशोंका साक्षात्कार नहीं धोनेका कभी यत्न नहीं किया, और न कर्मावबक कारण
होता किन्तु अन्तरमें जो विवेकरस शान्त और निश्चलभावों में परद्रव्योंकी चाहको ही रोकनेका प्रयत्न किया है, किन्तु :
किन्तु उदित होता है, उसमें अात्म तोपका अमिट आनन्द निमग्न मूळ परिणामकी वृद्धि करने और विविध वस्तुयोंके मंकज
है। क्योंकि उस समय मन वचन और शरीरकी क्रिया न करने में ही अमूल्य जीवनको गमा दिया है । यह कितने
तीनों ही स्थिर अथवा निर्जीव सी होरही है । केवल ज्ञायक खेद की बात है! अब भाग्योदय से अपने स्वरूपका भान
रस धीरे धीर थिरक रहा है । जो वचन अगोचर है। हुआ है, इस कारण अब मुझे यह संसार दुःखदायी और
इन्द्रियों का विषय नहीं है, इसलिये उसमें आकुलताका शरीर काराग्रहके समान प्रतिभासित हो रहा है इतना ही
भान नहीं होता, किन्तु उसके विघटते ही आत्माकी दशा नहीं किन्तु मुझे अपनी पूर्व अवस्थाका जब जब स्मरण
कुछ और ही होजाती है। ज्ञानीकी यह सूक्ष्मदशा ही पाता है तब तब हृदय पश्चात्तापसे भर जाता है। अज्ञान । अवस्थामें होनेवाले पाप मेरे हृदयमें ग्लानि उत्पन्न करते
उसकी यात्म जागृति अथवा स्वरूप-सावधानी की ओर
संकेत करती है। हैं। ऐसी स्थितिमें स्व-पदका कैसे अनुभव हो सकता है ? इसमें कर्मकी वरजोरी कारण है। कर्मोदयमें मेरा ज्ञानीपन सेवा कार्यकहां चला जाता है, जिससे मैं अपने चिदानन्द स्वभावको ० भागचन्द्र जीने अपने जीवन में जो संवा कार्य किये, भूलकर परमें अपनत्वकी कल्पना करने लगता है। उन्होंने उसकी कोई सूची बनाई हो ऐसा ज्ञात नहीं होता।
किन्तु अब भाग्योदयसे जो स्वरूप में सावधानता प्राप्त हां, साहित्यिक सेवा कार्य भी उन्होंने अपनी धार्मिक भावनाहुई है. अन्तःस्वरूपका जो झलकाब हुआ है, अथवा स्त्र पदकी के अनुसार कियह
र के अनुसार किये हैं । यद्यपि सत्तास्वरूपको पं० जीकी कृति पहिचान हुई है, वह स्थिर रहे, और कर्मकलंकसे उन्मुक
बतलाया जाता है, परन्तु वह उन्हींकी कृति है, इसका निर्णय
बतलाया जाता है, दोनेकी में अपनी hिim
भण्डारोंकी पुरातन प्रतियोंको देखे बिना करना सम्भव नहीं
है। 'महावीरा अष्टक' उनकी स्वतन्त्र संस्कृत रचना है। 2 देखो, पद संग्रहमें कविका निम्न पद
जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वे हिन्दीके समान संस्कृत जे दिन तुम विवेक विन खोये।
भाषा में सुन्दर पद्य रचना कर सकते थे। इसके अतिरिक
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वर्ष १४
श्री संतराम बी० ए० की सुमागधा
उनकी चार कृतियोंके नाम अन्य ग्रन्थ सूचियोंमें उपलब्ध वहां सहन शील भी थे, उन्होंने दारिद्रदेवका स्वागत किया। होते हैं-शिखर विलास, उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला, परन्तु किसीसे धन पानेकी आकांक्षा तक व्यक्त नहीं की, प्रमाणपरीक्षा भाषा और नेमिनाथ पुराण। इनमेंसे फिर भी प्रतापगढ़ (राजस्थान) के एक उदार सजनने प्रमाण परीक्षा टीका उन्होंने ग्वालियर लश्करके जिनमन्दिरमें जिनका नाम मुझे स्मरण नहीं रहा उन्हें दुकान आदि बैठ कर सं० १६१३ में बनाकर समाप्त की है। अन्य देकर उनकी आर्थिक कठनाईका हल कर दिया था। टीकाओंमें उन ग्रन्थोंका रचनाकाल नहीं मिला। फिर भी आर्थिक हल होजाने पर भी पण्डितजी में वही सन्तोषवृत्ति वे सं० १९१३ से पूर्व या पश्चात्वर्ती हो सकती हैं। आपके अपने उसी रूपमें दीख रही थी। जो सदृष्टि विवेकीजन टीका ग्रन्थोंकी भाषा पुरानी हिन्दी है। उसमें ब्रज भाषा होते है उनकी परवस्तुमें ममता नहीं होती, वे कर्मोदयसे का तो असर है ही।
प्राप्त वस्तुमें ही सन्तोष रखते हैं । पर पदार्थोमें कत व बुद्धि
हटने पर तज्जनित अहंकार ममकार भी उन पर अपना अन्तिम जीवन
प्रभाव अंकित करने में समर्थ नहीं हो पाते । प्रस्तु, मापने ____ कहा जाता है कि पण्डितजीको अपने अन्तिम जीवनमें कितनी अवस्थामें कब और कहां से देव-लोक प्राप्त किया, माथिक हीनताका कष्ट सहन करना पड़ा था, क्योंकि लक्ष्मी यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । पर संभवतः उनका अंतिम और विद्या का परस्पर वैर है, नीति भी ऐसी ही है कि जीवन प्रतापगढ़में ही समाप्त हुआ है । इसका कोई निश्चिा पण्डितजन निर्धन होते हैं । हां, इसके प्रतिकूल कुछ अप- कारण ज्ञात नहीं हो सका, होने पर उसे प्रकट किया वाद भी देखनेको मिलते हैं। पण्डित जी जहां विवेकी ये, जायगा।
श्री संतराम बी० ए० की 'सुमागधा'
(ले०-मुनीन्द्र कुमार जैन, ए० ए०, जे० डी०, दिल्ली) अवन्तिकाके मई १९५६ के अंकमें श्री सन्तराम बी० होकर धार्मिक उपदेशोंके लिये उनकी शरणमें आ जाते थे। ए. की 'सुमागधा' नामक कहानी प्रकाशित हुई है। कहानी किन्तु धर्म-द्वेषकी पट्टी अांखों पर बांधकर लेम्खकने जिस को पढ़कर मैं स्तब्ध-सा रह गया : मुझे इस बातका खेद प्रकार आगे जैन साधुओंका वर्णन किया है वह इस प्रकार हुआ कि इस कहानीके लेखक श्री सन्तराम बी. ए. जैसे है-'दिगम्बर-भिक्षुगणने धनवतीके भोज्य-सम्भारकार्यकी वयोवृद्ध व्यक्ति हैं और साथ ही यह अवन्तिका जैसी उच्च- व्यय कथा जानकर सदल-बल सुमागधाके श्वसुर-भवनमें कोटिकी साहित्यिक पत्रिकामें प्रकाशित हुई है। मैं समझता आगमन किया। नंगे साधु जटाजूटजारी, भस्म विभूषित हूँ कि श्री सुधांशुजीने कार्यमें अधिक व्यस्त रहनेके कारण एवं विकटवदन थे। दम्भके कारण, उनके बदन भयंकर बिना देखे ही इस प्रकारकी कट-वचनों और धार्मिक मत- प्रतीत हो रहे थे और मुख तथा चतुसे क्रोध-भाव सुस्पष्ट भेदोंसे भरी रचना अपनी पत्रिकामें प्रकाशित कर दी है। मैं प्रतिभासित हो रहा था..."। इस विषयमें अधिक न लिखकर इस कहानी और इसमें लेखककी जानकारीके लिये में यहां पर कुछ मोटी-मोटी वर्णित खेदजनक और धर्मान्ध पापोंका ही उत्तर यहां बातें बता देना चाहता हूँ। पहली तो यह कि दिगम्बर देना चाहता हूँ।
साधु न्यौता देने पर किसीके घर जाकर भोजन नहीं करते। श्री सन्तराम लिखते हैं-'जगत पूज्य भगवान जिन दूसरी बात यह है कि नग्न वेषधारी होने पर भी वह जटा(जैनधर्म प्रवर्तक) मेरे गृहमें प्रागमन करेंगे-लेखकका जूट धारण नहीं करते, न ही वह शरीर पर भस्म या राख प्राशय 'जिन' शब्दको लिखनेसे और साथ ही कोष्टकमें मलते हैं, साथ ही जैन साधुओंसे अधिक शान्ति किसी में जैन धर्म प्रवर्तक दोहरानेसे भगवान महावीरकी मुद्रा अन्य मतके साधुओंके मुख पर नहीं दिखाई दे सकती । की ओर है। भगवान महावीरकी मुद्रा और वेष जहां इसलिये उनको दम्भी और भयंकर बदनवाला कह कर तक सब लोग जानते है बहुत ही सौम्य और लेखकने अपनी विशेष बुद्धिका ही परिचय दिया है। चिन्ताकर्षक थी। उनके दर्शनोंसे प्राणी मात्र आकर्षित शायद इस कहानीको लिखनेसे पहले ही लेखकके
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.१८]
अनेकान्त
[वर्ष १४ हृदयमें जैनोंके प्रति ईषकी भावना प्रज्वलित हो चुकी थी सिनी महिलाए इनको देखकर लज्जित नहीं होती । इन क्योंकि आगे चलकर वह फिर निन्दनीय शब्दोंमें लिखने जैसे दुर्जनोंके प्रति यदि भक्ति रखते हैं, तो कहना पड़ेगा हैं-'इन सब निर्लज्ल, नग्न, मांस-भक्षणके अभ्यास से भैसे कि हमने अयोग्य पान को भक्ति समर्पित की है। यह वैसा की भांति स्थूलकाय हुए सन्यासियोंको देखने ही सुमागधा नियम है ? जो व्यक्ति भोजनका त्याग नहीं कर सकता, तुरन्त वस्त्रसे अपने मुखको आच्छादित कर विमर्शभावसे वह वस्त्रका त्याग कैसे करता है। इन पशुओंकी जिस देश लौट गई...'
में पूजा होती है वह देश परित्याज्य है।' ऐसा मालूम होता है कि वृन्दावस्थाके कारण श्री इस विषयमें तो इतना ही कहना उचित है कि संतराम सन्तरामकी बुद्धिमें विकार उत्पन्न हो गया है । क्योंकि जैसे लेखकों को जो अन्य सम्प्रदायके साधुओंके प्रति श्रृंगहीन उन्होंने जैन साधुओंके लिये निर्लज और मांस-भक्षणके
पशुओं जैसे विशेषणोंका प्रयोग करते हैं। अपनी विषैली अभ्यासी आदि शब्दोंका प्रयोग किया है। इस विषयों में
रचनात्रोंसे हिन्दी साहित्यको गंदा करनेसे अच्छा तो यह उनसे पूछता हूँ कि यदि निर्लजताका उदाहरण देखना है
है कि या तो वह किसी धर्म विशेषके प्रचारक बनकर स्टेज तो शैव मन्दिरों और महन्त तथा पुजारियोंकी रास-लीलामें
पर जाकर अपनी बेसुरी आवाज सुनायें या अवंतिका जैसी देखो। जो साधू संसार छोड़ चुके हैं वे यदि वस्त्रका त्याग
पत्रिका का प्राश्रय छोड़कर किसी बाजारू पत्रिकामें ऐसे लेख करते हैं तो क्या बुरा है। क्या हिन्दू धर्ममें बाबाजीकी
लिखे । मेरी समझमें नहीं पाता कि किस प्रकार एक विद्वान् लंगोटी वाली कहावत प्रसिद्ध नहीं है ? जब लंगोटीको
लेखक दूसरे धर्मको बिना जाने इतनी निम्न भाषामें उसका चूहोंसे बचानेके लिये बाबाजीको सारी गृहस्थी पालनी पड़ी
अपमान कर सकता है । उन्हें जानना चाहिए कि:थी। लेखकके मार्ग-दर्शनके लिये में यहां पर जैन मुनियोंक
पृथ्वीशिलातृणमये शयनं प्रकुर्वन विषयमें दो संस्कृत श्लोकोंका वर्णन करता हूँ: -
यः स्वात्मसौख्यपटिते स्वपदे सदा व ॥ तनोविरको झुपवासपूर्व लोचं द्वितीयादिकमास एव ।
जाग्रंस्तथा सुखकरेऽखिलविश्वकार्ये ।
गुप्तोऽस्ति शान्तिनिलये स तिः प्रपूज्यः ॥ कुर्वन्सदा याचनदोषमुक्तस्तिष्ठेन्निजे यः स च वद्य साधुः ॥
-जो मुनिराज पृथ्वीपर, वा घास फूपकी शय्या पर
शयन करते है आमाको मोक्षरूप सुख देने वाले समस्त -जो मुनिराज याचनादोषसे रहित होकर और शरीरसे
कार्यों में सदाकाल जगते हुए और शांतिक परमस्थान ऐसे विरक्त होकर उपवासपूर्वक दुसरे तीसरे वा चौथे महीने में
अपने श्रात्मामें लीन हुए जो मुनिराज अपने प्रात्माके अनंत सदा केशलौंच करते हैं और सदा काल अपने आत्मामें लीन रहते हैं ऐसे साधु वंदनीय साधु कहलाते हैं ।
सुग्वस्वरूप शुद्ध श्रा-मामें सदा काल शयन करते रहते हैं
ऐसे वे मुनिराज सदा काल पूज्य माने जाते हैं। प्रादाय वस्त्ररहित जिनशुद्धलिगं
यावदलं मम तनौ प्रविहाय लोभ कुर्वन रति निजपदे वसुखे सदा वः।
स्थित्वा करोमि निजपाणिपुटेऽल्पभुक्ति। लोके शशोव विमलश्चलतोह शान्त्यै ।
स्थानत्रिकेऽतिविमले निजशुद्धभावं साधुनमामि सकलेन्द्रियान्न विकारम् ॥ -जो मुनिराज सब प्रकारक वस्त्रोंका न्यागकर भगवान्
ध्यायन् स एष कथितः स्थितमुक्तसाधुः॥ जिनेन्द्र देवके शुद्ध, लिंगको धारण कर अपनी प्रामामें वा
-मेरे शरीरमें जबतक बल है तब तक मैं लोभको पात्मजन्य सुखमें लीन रहते हैं और समस्त मंमारमें शांति छोड़कर तथा खड़े होकर अपने करपात्रमें थोड़ा सा भोजन स्थापना करते हुए चन्द्रमाके समान निर्मल श्रवस्था धारण
करूंगा, तथा वह भी तीनों स्थानों की शुद्धि होने पर कर विहार करते हैं ऐसे समस्त इन्द्रियोंके विकारों रहित उन
करूँगा और उस समय भी अपने प्रान्माके शुद्ध स्वरूपका साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
चिंतन करता रहूंगा । इस प्रकार प्रतिज्ञा करनेवाले साधुओं के आगे चलकर सन्तराम लिखते हैं-'यदि ये लोग साधु
स्थितिभोजन नामका उत्तम गुण होता है। हैं तो फिर असाधु कौन है ? ये सकल शृंगहीन पशु अपने दृग्बोधवृत्तममतादिविवर्द्धनार्थ । हमें भोजन करते हैं। ये मनुष्य नहीं है। इसलिए पुरवा- कृर्वन् यथोक्तसमये च किलैकमुक्ति ।
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लखन
वर्ष १४] सम्पादकीय नोट
[१६. लीनोऽस्थि यो हयनुसमः स मुनिश्च वंद्यः॥ ऐसा वर्णन केवल तिलस्मी उपन्यासों में ही शोभा देता वे मुनिराज अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है। क्योंकि बौद्ध साहित्य में तो प्रामाणिक रूपसे किसी भी और समता श्रादि गुणोंकी वृद्धिके लिये शास्त्रोंमें कहे साधूने शून्य मार्गसे विचरण किया नहीं। हां यदि लेखक हए नियत समय पर एक ही बार आहार लेते हैं। वे की बुद्धि इस कार्यको सम्भव बना दे तो ऐसा हो सकता है। मुनिराज सूर्योदय से तीन घड़ी तक ग्राहार नहीं लेने, सूर्य इसीप्रकार"दिव्य-शक्रि संपन्न भिक्षुगण कोई कनकअस्त होने के तीन घड़ी पहले तक प्राहारसे निबट लेते पद्म पर पारोहण कर सौरभ विस्तार करते-करते आगमन हैं और मध्यकालमें सामायिकका समय छोड़ देते हैं। करने लगे। शेष किसी एक ही समयमें आहार लेने हैं। तथा परम पवित्र
लेखक ने ऐसा बौद्ध साधुनोंके सम्बन्ध में लिखा है, ऐसे अपने पारमाके शुद्ध स्वरूपमें लीन रहते हैं। ऐसे वे
मुझे इस पर और भी अधिक तरस आता है। निस्पृह और
मुर उपमारहित मुनि वंदनीय गिने जाते हैं।
निर्विकार बौद्ध साधुओंको भी सम्पदाशाली और जावूकी यदि इतने में भी सन्तरामजी की यह समझमें नहीं
शक्रि वाले बताकर लेखकने अपनी बुद्धिका ही चमत्कार आता कि क्यों भारतकी २० लाख जनता जैनधर्मक प्रति
दिखाया है। श्रद्धा रखती है और क्यों बुद्धधर्मसे हजारों वर्ष पहले
मेरी समझ में नहीं पाता यदि लेखकका उद्देश्य केवल प्रारम्भ होनेसे आज हजारों वर्ष बाद तक जैनधर्म और
एक कहानी ही लिखना था तो पृष्ट ४६६ पर बौद्धधर्मके उपके सिद्धांत भारतमें जीवित हैं तो हम उनकी बुद्धि पर सम्बधर्म व्याख्यान दनका क्या अर्थ हैं। इससे पूर्णतया केवल खेद प्रकट कर सकते हैं। साथ ही हम उन्हें मित्रवत् प्रकट होता है कि लेखकने कहानीको कहानीकारके दृष्टिकोण सलाह देते हैं कि जिस देश में चारित्रचक्रवर्ती श्राचार्य शांति- से नहीं बल्कि धर्मद्वेष फैलाने और अपने मनकी निम्न हवस
यानमा हो वह देश परित्याज्य को शब्दों में व्यक्त करनेकी इच्छास ही यह त्रुटिपूर्ण भ्रामक नहीं है बल्कि पूजने योग्य है।
और अपवादी लेख लिखा है। धर्मद्वेषकी दृष्टि से ही नहीं किन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे मैं अवतिकाके पाठकोंके साथ-साथ सम्पादक-मंडलका भी मैं मंतरामजी को यह बताना चाहता है कि उन्होंने ध्यान भी इस श्रोर दिलाना चाहता हूं कि यदि वास्तव में वह जैसा लिखा है...जो सफल भिक्षुगण प्रभावशाली हैं और एक विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का ही संचालन करना चाहते शून्य मार्गस विचरण कर सकते हैं केवल उन्हींको निमंत्रण हैं तो इस प्रकारके लेखांको जिनसे किसी धर्म पर आक्षेप -श्लाका-पत्र प्रदान करा ।
फैलानेका अवसर मिले कदापि अपनी पत्रिकामें स्थान न दें। सम्पादकीय नोट
इस लेखक लेखकने सन्तरामजीकी जिस भारी भूलका दिग्दर्शन कराया है वह निस्सन्देह अक्षम्य भूल है। कहानीके शब्दोंको पढ़नस स्पष्ट ज्ञात होता है कि सन्तरामजीने जैनधर्म और उसके माधुओं पर घृणित, निन्द्य एवं असत्य पाक्षेप कर अपनी कुत्सित मनोवृत्तिका परिचय दिया है। उक्त टिप्पणी लिखनक पश्चात् हाल ही के जैन गजट अंक ३५ में श्रापका प्रकाशित क्षमायाचना पत्र देखने में पाया । जो इस प्रकार है:
'सुमागधा' कहानीके लेखकका क्षमा याचना पत्र प्रिय श्री पाटनीजी,
आपके वकील 'श्रीशिवनारायन शंकर द्वारा भेजा हुआ श्रापका नोटिम मिला, पटनाकी मासिक पत्रिका 'अवंतिका' के मई अंक में प्रकाशित 'सुमागवा' शीर्षक मेरे लेग्व से अापको और कई अन्य दिगम्बर जैन सम्प्रदायके भाइयों को दुःख हुआ, इसका मुझे बड़ा खेद है । मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैंने यह लेख किसी दुर्भावनासे प्रेरित होकर नहीं लिखा । इसमें मेरा उद्देश्य किसी महापुरुषको बदनाम करना या उसके अनुयाइयोंकी भावनाओंको ठेस पहुंचाना बिल्कुल नहीं था। उनके प्रति स्वभावतः वही मेरे मन में सन्मान और श्रादर बुद्धि है।
आप लोगों को मेरे लेख से जो कष्ट हुअा है उसका मुझे बड़ा खेद है । भगवान महावीर क्षमा के अवतार थे, आप अपने को उनका अनुयायी मानते हैं इसलिये मुझे पूर्ण आशा है कि आप भी इस भूलके लिये क्षमा करदेंगे। मैंने
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२.]
अनेकान्त
[ वर्ष १४ 'अवंतिका' के सम्पादकको भी इस अनजानेसे होनेवाली भूल के लिये खेद प्रकाशित कर देने के लिये लिख दिया है।
आपका सन्तराम उक्त क्षमा पत्रमें लेखकने कहीं भी अपनी भूलको स्पष्ट स्वीकार नहीं किया है। और न यही बतलाया गया है कि मुझसे कहां और किन किन शब्दोंकी भूल हई है। पत्र में उनका कोई संकेत नहीं किया गया। और न उनका यथा स्थान परिमार्जन करनेका ही प्रयत्न किया गया है। ऐसी स्थितिमें क्षमा याचना पत्रका कोई महत्व नहीं है जब तक कि लेखक की बुद्धिका सुधार नहीं हो जाता, और कहानी में प्रयुक्त हुए अशिष्ट एवं अभद्र शब्दोंको जो जैन मुनियोंकी घोर निन्दाके सूचक हैं और जो जैन समाजके हृदयको उत्पीड़ित करते हैं वे, अनजानेमें नहीं लिखे गये। किन्तु जान बूझ कर प्रयुक्त किये गए हैं। ऐसी स्थितिमें लेखक जब तक उनका उचित प्रतीकार अपनी कहानी में नहीं करता,
और न उनकी जगह पर दूसरे सुन्दर शब्दोंको अंकित करनेकी योजना ही प्रस्तुत करता है । तब तक लेखकका क्षमा. याचना पत्र कुछ अर्थ नहीं रखता। वह तो गोलमाल करने जैसी बात है। प्राशा है सुमागधा कहानीके लेखक अपनी भूल
कार करते हुए कहानीमें प्रयुक्त अशिष्ट एवं अभद्र अंशोंका परिमार्जन करते हुए उनका सुधार प्रकट करेंगे। अन्यथा हमें उचित प्रतिकारके लिये बाध्य होना पड़ेगा।
सन्त-विचार
[पं० भागचन्द्रजी] सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसे, आतमरूप अवाधित ज्ञानी ॥ रोगादिक तो देहाश्रित हैं, इनत होत न मेरी हानी ।
दहन दहत ज्यों दहन न तदगत, गगन दहन ताकी विधि ठानी ॥१॥ वरणदिक विकार पुद्गल के, इनमें नहिं चैतन्य निशानी ।
यद्यपि एक क्षेत्र अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी ॥१॥ मैं सर्वांग पूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवत लीला ठानी ।
मिलौ निराकुल स्वाद न यावत, तावत परपरनति हित मानी ॥३॥ भागचन्द्र निरद्वन्द्व निरामय, मूरति निश्चल सिद्ध समानी ।
नित अकलंक अवंक शंक विन, निर्मल पंकविना जिमि पानी ॥४॥ सन्त निरन्तर चि..........
कोप्पलके शिलालेख
(श्री पं० बलभद्र जी जैन) भारतीय साहित्यमें कोप्पम् या कोपणका अनेक स्थलों पुरसे आग्नेयकोण में ३०मील दूर है और कृष्णानदीके तट पर पर उल्लेख मिलता है । यह नगर स्वीं शताब्दीमें सुप्रसिद्ध स्थित है । उन्होंने अपना यह मत एक तामिल शिलालेखके तीर्थ था और एक महानगरके रूपमें इसकी चारों ओर आधार पर बनाया है। उस शिलालेखमें दो पद पाये हैंख्याति थी। शताब्दियों तक यह जैनधर्मका प्रसिद्ध केन्द्र नोट-इस लेख के लिखनेमें मुझे The Kannad रहा। इस नगरके सम्बन्धमें आधुनिक विद्वानोंमें काफी मत- inscsptins of Kopbal by Mr. C. R. Kai भेद पाये जाते हैं। डॉ. फ्लीट आदि पुरातत्ववेत्ता विद्वानोंके SmaMa Cearta से बहुत सहायता मिली है। इसके मतसे यह स्थान खिद्रापुर या खेदापुर होना चाहिये, जो कोल्हा- 'लिये मैं उनका आभारी हूँ।
--Kristam Chartu
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वर्ष १५] कोप्पलके शिलालेख
[२१ (१) सेप्य म-तीर्थ (बड़ा तीर्थ) और (२) पेरनि- किसी समयमें एक समृद्ध नगर था और इसके महत्वने गरई (महानदीका तट)। इन दो पदोंकी दृप्टिसे डॉ. मौर्य सम्राट अशोकका भी ध्यान इसकी ओर आकर्षित पर्ल टके मतानुसार विद्रापुर ही कोप्पम् हो सकता है। क्योंकि किया था। इसके आस-पासमें कुछ ऐसे समाधिस्थल तथा यहां कोपेश्वरका प्राचीन मन्दिर भी है और यह कृष्णानदी. दूसरी पुरातन चीजें मिलती हैं, जिनका सम्बन्ध उनके के तट पर भी अवस्थित है।
नामोंके कारण मौर्यकाल या मौर्य शासकोंसे जोड़ा जाता किन्तु आधुनिक पुरातत्ववेत्ता विद्वानोंकी सम्मतिमें यह है। यदि ऐतिहासिक तथ्यका इस मान्यतामें थोड़ाकोप्पम् खिद्रापुर न होकर कोप्पल या कोपवल हो सकता सा भी लेश हो तो निश्चय ही कोपप्लका पुरातत्व पाजसे है। उनकी यह सम्मति कुछ अधिक ठोस प्रमाणों पर २२ सौ वर्ष पहले तक पहुँच जाता है और इस प्रकार यह आधारित प्रतीत होती है। एक तो यह कि कोप्पमके मान लिया जा सकता है कि कोप्पल प्रागैतिहासिक कालसे सम्बन्धमें एक जो यह पद पाया है पेरारु अर्थात् यह नगर दक्षिणका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह निश्चित महानदीके तट पर अवस्थित था । किन्तु यह महानदी रूपसे एक महानगर और महातीर्थ या आदि तीर्थ था। कृष्णा या तुगभद्रा न होकर हिरेहल्ल होनी चाहिये, जिसका यहां कछ शिलालेख दिये जा रहे हैं, जो मूलतः कनड़ी स्वयं अर्थ है महानदी, जिसके दायें तट पर यह कोप्पल में हैं। इनसे जैन इतिहास की कई महत्वपूर्ण बातों पर नगर बमा हुआ है। दूसरे कोप्पम्के साथ एक ऐतिहासिक प्रकाश पड़ता है। घटनाका भी सम्बन्ध रहा है। वहां पर चोल और चालुक्योंका
शिलालेख नं. १ प्रसिद्ध युद्ध हुआ था। इस दृष्टिसे भी कोप्पल ही वह
यह लेख चन्द्रवण्डो शिलापर खुदा हुआ है। इसमें स्थान हो सकता है। यहां पुरातत्वकी सामग्री चारों ओर
समृद्ध कोपणके चन्द्रसेनदेवके शिष्य गुरुगल भण्डय्यकी बिखरी पड़ी है, जिससे उसकी प्राचीनता असंदिग्ध हो जाती
निषधिकाका उल्लेख है। संभवतः यह शिलालेख ईसाकी है । कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी इस सम्बन्धमें मिले हैं जो अत्यन्त रोचक है । 'चामुण्डरायपुराण' और कवि रक्षके
१३वीं शताब्दीका है । शिलालेख इस प्रकार है'अजित पुराण में कोपणका उल्लेख पाया है। उस उल्लेखके
(१) श्री कोप्यनड अनुसार कोपण किसी पहाड़ीके निकट बसा हुअा था और
(२) चन्द्रसेन देव नगरमें ७७२ वसतियां (मन्दिर) थीं। यह बात भी
(३) र गुड गुरु गल कोप्पल या कोपवलक ही पक्षमें अधिक संगत जान पड़ती है।
(४) भण्ड (य्य) न निक्योंकि कोपवलक निकट इन्द्रफिला या अर्जुनशिला नामक
(१) विद्धि एक छोटी सी पहाड़ी है। यहां कुछ शिलालेख भी मिले
शिलालेख नं. २ हैं जिनमें कोपवलक विभिन्न मन्दिरोंके लिये भूमि-दानका
यह शिलालेख भी पूर्व शिलालेखकी तरह चन्द्रवण्डी निर्देश है। इन सब प्रमाणोंसे यह माननेमें कोई आपत्ति शिलापर उत्कीर्ण है। इस पर शक सं० ८०३ पड़ा हुआ नहीं होनी चाहिये कि कोपज या कोपवल ही वास्तवमें है। इसमें लिखा हुआ है कि कुन्दकुन्द शाखाके एक चट्ट गढ ऐतिहासिक कोपण है।
भट्टारकके शिष्य सुप्रसिद्ध सर्वनन्दी भट्टारक यहाँ पाकर कोप्पल हिरेतल्लके बायें तट पर बसा हुआ है । यह विराजे, इस ग्रामका उन्होंने बड़ा उपकार किया। इस पवित्र तुझमदा नदीकी एक सहायक नदी है । इसके भासपास भूमि पर उन्होंने बहुत समय तक तपस्या की और अन्तमें सम्राट अशोकके कई शिलालेख मिलते हैं, जिससे इस यहीं उन्होंने समाधिमरण किया । नगरका ऐतिहासिक महत्व बहुत बढ़ जाता है। स्वयं कोप्पल• हम शिलालेग्बकी उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें के उपनगर विमठ और पल्किगुण्डु में ऐसे दो शिलालेख पर्वकी चार पंनियाँ कनडी गद्य में हैं और अन्तिम दो पंक्रियाँ मिले हैं। इसी तरह कोप्पलसे १४ मील दूर मस्कीमें और संस्कृतके प्रार्याछन्द में हैं। शिलालेख इस प्रकार हैपूर्वकी ओर १४ मील दूर इर्रागुडीमें भी अशोकके शिला. -स्वस्ति श्रीशक वर्ष ऐण्टु-नुर मुरानेय वर्षलेख मिलते हैं । इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोप्पल २-दण्ड कुन्दकुन्दान्त्रयड इक चहुगड-भट्टारर शिष्यर
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अनेकान्त .
[ वर्ष १४
३-श्री सर्वनन्दि भट्टारर-इल्ल इलडु (उ) एगन खड्गासन प्रतिमा है. जिनके सिरके उपर तीन छत्र हैं । उस तीर्थक्कम उपका
थालेके दोनों ओर उड़ती हुई मोरपिच्छी है। शिलालेखकी ४-पल-कलन-तपंगेयदु सन्यासनन नोन्तु मुडिपिडर नकल इस प्रकार है५-अनवरत शास्त्र दान प्रविमल-चरित्र-जल
१-श्रीमच्छाया-चन्द्रनाथ स्वामी"ना (थ) धारैश्चित्रम्
२-श्रीमहे वेन्द्रकीर्ति भट्टारकरा६-दुरित निदाघ विघटम् कुर्यात् श्री सर्वनन्दीन्द्रः ३-वर प्रिय शिप्य रह वर्धमानदेवक निड्डिसिधरू मंगलम्
शिलालेख नं०६ अर्थ-समृद्ध शक संवत् ८०३ में कुन्दकुन्दान्वयी एक
यह शिलालेख पल्किगुड्डु पहाड़ी पर अशोकके शिलाबहुगड भष्टारकके विख्यात शिप्य सर्वनन्दि भट्टारकने यहाँ बल
लेखके बिल्कुल निकट खुदा हुना है। इसमें यह बताया है पधारकर, इस नगर और इस पवित्र भूमि (तीर्थ)का महान्
य)का महान् कि परसा ने यहां पर पज्य जटासिंहनन्दी प्राचार्यके चरण उपकारकर, बहुत कालतक यहाँ तपश्चरणकर संन्यास मरण स्थापित किये थे । शिलालेखके ऊपर दाई ओर प्राचार्य किया।
महाराजके चरण अंकित हैं। इनका समय लगभग ७वीं श्री सर्वनन्दीन्द्र अपने अनवरत शास्त्रदान और विशुद्ध शताब्दी है। शिलालेखका बाई ओरका भाग इस प्रकार चारित्रके द्वारा पापोंके आतापको दूर करें और मंगल करें। पढ़ा गया हैशिलालेख नं. ३
१-जटासिंहनन्दि प्राचार्य पादव यह शिलालेख पूर्वके दो लेखों की तरह चन्द्रवण्डी पर २-च (म्) वय्यम् पिडोम खुदा हुआ है । इसमें श्री अप्यएसन अजल । इससे आगे
शिलालेख नं०७ का भाग स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता । इसमें जिस व्यक्निकी चर्चा
यह शिलालेख पल्किगुड्डु पहाडी की दक्षिण गुफाकी है, उसका सम्बन्ध ६वीं शताब्दी से है।
छतमें खुदा हुआ है। इसका सम्बन्ध (पश्चिमी चालुक्य. शिलालेख नं०४
वंशी) विक्रमादित्य नरेशसे है । शिलालेखसं प्रतीत होता है यह लेख भी चन्द्रबण्डी चट्टान पर है। इसमें मूलसंघके
कि यह विक्रमादित्य पंचम था (मन् १००६ से १०१७)। सेनगणान्वयी भहारकके भक्त, चोक वोडेयनकि सेट्रिके पुत्र ।
इसमें इस बातका उल्लेख है कि सुपसिद्ध श्राचार्य सिंहनंदि
तम्माडिगलने एक मास पर्यन्त इंगिनीमरण धारण किया पदनस्वामी पायफलकी निषधिका का उल्लेख है। यह तेरहवीं शताब्दी का है। शिलालेख इस प्रकार है
और इस समयमें श्री सिंहनन्दी अन्न, मतिमागर अन्न,
नरलोकमित्र और ब्रह्मचारी अत्नने उनकी वैयावृत्य की। १-श्रीमत् मूल संघड
स्वामी कुमारने इस अवधिमें जिन-विम्बकी पूजा की। २-सेनगण"(द) व भट्टार
सिंहनन्याचार्यके समाधिकरणके पश्चात् कल्याणकीर्तिने जैन ३-- वर (गुड) (चो)क-वो
शासन चलाया । इनका सम्बन्ध बिच्छुकुण्डेकी नागदेव४-डेयनकि सेटिय मग
यसदि से था और यह देशिक गण और कुन्दकुन्दान्वयके थे ५-पहन स्वामी पाय (क)
और इन्होंने चान्द्रायण जेसे व्रत किये थे। उनकी देशनासे ६-(स)न निषधि
अनेकोंने कर्म क्षय किये (1) उनके पश्चात् इण्डोलीके रविशिलालेख नं. ५
चन्द्राचार्य प्राचार्य-पदपर श्रामीन हुए। उनके शिष्योंमें यह शिलालेख परिकगुण्डुके पश्चिममें चंदोबेदार एक गुणसागर मुनिपति, गुणचन्द्र-मुनीन्द्र, अभयनन्दी मुनीन्द्र चहानके नीचे उत्कीर्ण है। इससे मालूम पड़ता है कि यहाँ माघनन्दी, जिनकी ख्याति गणदीपकके रूपमें थी, थे। पर देवेन्द्रकीर्ति भरकके प्रिय शिष्य वर्धमानदेवने छाया- इस लेखसे यह भी पता चलता है कि मुनि कल्याण चन्द्रनाथ स्वामी की एक प्रतिमा उत्कीर्ण कराई थी यह लेख कीर्तिने उसी स्थान पर एक जिन चैत्यका निर्माण कराया प्रहारहवीं शताब्दीका प्रतीत होता है। इस शिलालेखके था, जहां सिंहनन्धाचार्यने कठोर तप किया और निधनको बिल्कुल निकट बाई ओर एक मालेमें एक जैनसाधुकी प्राश हुए थे। उन्होंने विग्यकुण्डी प्राममें शान्तिनाथ भगवान्
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वष १४
कोप्पलके शिलालेख
महा
की प्रतिमा विराजमान कराई। इस लेखका जो भाग कनड़ी शिलालेख इस प्रकार हैमें है, वह छन्दोबबू है । प्रथम दो और अन्तिम तीन पाद - शुभ मस्तु स्वस्ति श्री जयाभ्युदय-शा. काण्ड छन्द में हैं और तीसरा शार्दूलविक्रीड़ितमें है। २-लिवाहन शक वर्ष ११४३ नेय वृष शिलालेख इस प्रकार है
३-संवत्सरड वैशाख सु १ लु श्रीमन्म१-स्वस्ति श्री विक्रमादित्यन प्रथम-राज्यडण्डु श्री ४-हाराजाधिराज राज-परमेश्वर श्री वीर कृष्णमिहनन्दी-तम्माडिगल इंगिनीमर (न)म्।
५-राय-महारायरु पृथ्वी-राज्यम् गेयुत्तम यिरकुनु २-ओंडु टिंगलिम् साधिसिडोर श्री सिंहनन्दी-अमानु ६.-भण्डारड अन्यारसय्यनवर मक्कलु भण्डारड तिम्म(म्) मतिसागर अमानुम् नरलो
७-(प्या) नवस कोपनड चेन-केशवदेवरिगे समर्प३-कामित्रानुम ब्रह्मचारि-अमानुम् नलवारुम विनयम् सिडड प्रा. (गे) यडोर स्वा (मि) कुमारानु
८-मड धर्म-शासनड क्रमवेन्तेण्डरे नामगे कृष्णराय ४-पोसटु जिनविम्बमम पूजिसे डिदिजर्व-विच्छुकुण्डेयोल निरिसि जागक-इसेलिडानागदेवन वसदिय क
-रायरु नायकतनके पालिसिड कोपनड सीमे-अोलग५-ल्याणकीर्ति कीर्तिसे नोन्तम् इम गहनमो निरि
१०-ण हिरिय (सिण्डो) गी ग्रामवणु देवर अमृतयादि सिदान
अंगउत्तंग अद्रियमेगे सिंहनन्द्याचार्यम वण्ड-इंगिनिमर
११-रंग-वैभोग मासोत्सव मुन्तड देवर सेवगे हिरिय-णम् गेयडोडा संगडे कल्याणकीति जिनशासनमम
१२-सिण्डोगिय-ग्रामवणु समर्पि सिदेवगि असिएडोमोडल-इन्दिन्तअलवट्ट देसिग-गण-श्रीकौण्ड
गाय-ग्राकुण्डान्वया
१३-मके अवर ओवरु तप्पिड वरु तम्म मातृ पितृ -स्पदम्-आचार्यर वर्य-चीमर अनघ चान्द्रायणाधीउरो
गलन्नु वाराणपोडव-इलदन्त-अबरि (म्) वालिक्के पलरूम् १४-सियल्लिवधेय मडिड पटकक्के होहारु सहस्र ८-कर्म-क्षयंगेडार-अरुदाने म्बयेम्बालि किट सन्डा
कपिलेयरविचन्द्रा-चार्यर इण्डोलियोल गुण
१५-नु वधेय मडिड पट (क) के होहारु इम् () -सागर मुनिपतिगल गुणचन्द्र मुनीन्द्रर, अभयन्दि
को सिण्डोगिय. मुनीन्द्र-गणदीपकर-इनिसिड माधनन्दिगल १६-ग्रामड धर्म शासन नेगाल डार इरवरुम् क्र
१७-से २१ पक्रि तकके अक्षर पढ़े नहीं जासके हैं। १०-मडिण्डम् कडु-तापम् इंगिनी-मरणडोल- प्रोडालम्
शिलेख नं. १ तवे नोण्टु सिंहनन्द्याचार्यर मूडि पिडेडे (योल)
यह शिलालेख एकन मूर्तिके सिंहासनके नीचे खुदा वे दाम् पादेदिरे माडिखी जिनेन्द्र चैत्यालयमम्
हमा है। यह मूर्ति कोप्पलमें मिली थी और अब नवाब११-अतिशयडे शान्तिनाथन प्रतिष्ठेयम् विच्छ कुण्डी
सालारगंजके संग्रहालयमें सुरुर नगरमें है श्री नरसिंहाचार्यके योल मडि महोन्नम धर्म कार्यडिम् वसुमति योल
मतसे यह मूर्ति कोप्पलके चतुर्विशति तीर्थकर वसतिमें कल्याणकीर्ति-मुनिपर नेगालडार
मिली है। शिलालेख नं०८
इस शिलालेखके अनुसार वोपन, जो इम्मेभर पृथ्वी यह शिलालेख प्रामके वेंकटेश-गुडीमें खड़े शिलाखण्ड गौड़ से उत्पन्न हुआ था और समृद्धकोपणतीर्थकी उसकी पर उत्कीर्ण है। इसका सम्बन्ध विजयनगर-नरेश कृष्णदेव. प्रियभली मालव्वे, जो सुप्रसिद्ध रायराजगुरु मण्डलाचार्य रायसे है। इसमें भण्डरड अप्यार सय्यके पुत्र भण्डारड माघनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीकी प्रिय शिप्या थी, इन दोनोंने तिम्मप्पय्य द्वारा दिये हिरिय सिन्डोगी ग्राम (जो कोपण कई धार्मिक अनुष्ठानोंके सम्पन्न होनेके अवसरपर चौबीस की मोमामें स्थित है)के दानका उल्लेख है।
तीर्थकरोंकी प्रतिमा मदनदण्ड नामक द्वारा निर्मित वसतिके इस लेखमें शक सं० १४४३ वृष वैशाख शु. है। लिए समर्पित की। यह वसति मूलसंघके देशियगणसे
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२४] अनेकान्त
[वर्ण १४ सम्बन्धित थी।
उन पंचमेष्ठियोंका रूप है। इसमें केवल अर्हन्त परमेष्ठीके इस चौवीसीमें मूल नायक प्रतिमा भ. पार्श्वनाथकी सिर पर छत्र सुशोभित है किन्तु यहां चतुविशति तीर्थकर है और प्रभामण्डल नेईस तीर्थंकरोंके चारों ओर बहुत साधा- प्रतिमाकी तरह छत्रमय नहीं है। रण ही है। नीचे की ओर धरणेन्द्र और पद्मावतीकी वेदीमें सिद्धचक्र भी प्राप्त हुआ है, जो वर्गाकार पीतल मूर्तियां हैं।
का है । इसमें भागेकी ओर जल निकलनेके लिए एक शिलालेख इस प्रकार हैं
नलिका है। इसका मध्य भाग पटेका पुष्पकी भांति मुड़ा स्वस्ति श्री मूलमंघ देशीय गणड मदन-दण्ड नायक हुआ है और अष्टकोणका है। मध्यमें और एका रवर्ती मडिसिडा व (मदि) गे-रा
चार कोणों पर लघु प्रतिमाएं अंकित हैं । मध्यमें अर्हन्तदेव २-य-राजगुरु मण्डलाचार्यरप्पा श्रीमद् माघनन्दी. विराजमान हैं पृष्टकोण पर सिद्ध दांई ओर आचार्य, बांई ओर सिद्धान्त चक्रवर्ति गलपि (य गुडगलु) श्री कोपण। साधु और सामनेकी पोर उपाध्याय परमेष्ठी आसीन हैं। ___ तीथंड इम्मेयर (प्रिथ्वी) गौदान प्रियांगने मालवेगे इस गोलाकारमें बीच-बीचके बचे हुए चार कोणोंमें सिद्ध पुटिद सुपुत्रारु वोपन-तम"ज.
भगवान बाई पोर तप, दाई ओर दर्शन, उपाध्यायकी -लि-मुक्यवनी इ (ज) नोंपिंगेयु चौबीस तीर्थकर बांई ओर चारित्र और दांई ओर ज्ञान है । इन पंचपरमेमडिसी कोटरु मंगल महा श्री श्री श्री
प्ठियोंके श्रादि अदरोंसे बनता है। कारमें जिस प्रकार शिलालेख नं० १०
पांच प्रतिमाओंका प्रतिनिधित्व है। उसी प्रकार पंचतीर्थ
नामक जैन पजामें भी इन्हीं पंचपरमेष्ठियोंका प्रतिनिधित्व यह शिला लेख भी कोप्पलमें प्राप्त एक जैन प्रतिमाके होता है । जैनोंकी पजामें एक और बात सामान्यतम पाई सिंहासनमें खुदा हुआ है। यह प्रनिमा भी नवाब मालार जाती है कि चौबीस तीर्थकरोंका प्रतिनिधित्व संगमर्मरके जंगके संग्रहालयमें है।
चनुर्विशपट्ट या चौविस्त्रतमें मान लेते हैं। इस शिलालेखमें बताया गया है कि यह पंचपरमेष्ठियों
शिलालेख इस प्रकार हैकी प्रतिमा अचन्नमके पुत्र देवना द्वारा निर्मित हुई थी।
१-स्वस्ति श्री मूलसंघ देशियगण पुस्तक गच्छ इंगले यह परम्बरंग नामक राजधानीके कुलगिरि सेनावो थे और
२--श्वरड बालिम माधवचन्द्र भट्टारकर गुड्डु श्रीमजो मूलमंघके दशियगणसे सम्बन्धित पुस्तक गच्छकी ३-द-राजधानी पत्तनम इरंबरोय कुल (गिर) सेनावो इंगलेश्वर शाखाक माधवचन्द्र भट्टारकके प्रिय शिष्य थे,
४-व अचन्न (यवर) माग देवननु सिद्धचक्रड नौनोंपि धार्मिक अनुष्ठानोंके कारण यह सिद्धचक्रड नौम्पी और
श्रु. श्र तपंचमी नौम्पी कहलाते थे। इन अनुष्ठानोंका विवरण ५-तपंचमी-नोम्पिगे मडिसिडा पंच परमेष्ठिगल प्रविमे श्री नरसिंहाचार्यने अपनी रिपोर्ट में इस प्रकार दिया है:- ६-मंगलम् सिद्धचक्र नौम्पी सिद्धोंके स्मरण रक्खा जाने वाला एक व्रत इस प्रकार कोप्पल के इन शिला लेखों से कोप्पल या है और अ तपंचमी नौम्पी एक व्रत है .. जो जैन शास्त्रोंके कोपवाल की महत्ता का स्वयं अन्दाज लगा सकते हैं। प्राशा उपलक्षमें ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको रक्खा जाता है। है विद्वान अपनी नवीन खोजोंसे उक्त विषय पर प्रकाश
इस मूर्तिमें अर्हन्त, सिद्ध-प्राचार्य उपाध्याय और साधु डालनेका यत्न करेंगे।
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अनेकान्त:
श्रीमान बाबु रघुवरदयालजी जैन एम० ए०. एलएल• बी.
___ करौलबाग, न्यू देहली ५. जिन्होंने अपने पूज्य पिता श्री रामदयाल जी. तथा पूज्य मातेश्वरी श्री चमेलीबाई जैन की पुण्य स्मृति में वीरसंवामन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली के नृतन भवन की तीसरी मंजिल में पूर्व की ओर के तीनों कमरे बनवाये हैं।
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अजमेरके शास्त्र-मएडारसे
पुराने साहित्यकी खोज
१.
__ (जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर' )
रिचय-पद्यका क्रमशः एक साथ दिये हैं और अजमेरवाले गुटकेमें पहले अन्यत्र दर्शन
दो पद्योंको देकर बीचमें दो पद्य अन्य दिये हैं और फिर
नं. ५ पर उक्त तृतीय पधं दिया है। बीचके दो पद्य समन्तस्वामी समन्तभद्रके प्रात्म-परिचय विषयक पहले दो
भद्रके श्रात्म-परिचयसे सम्बन्ध नहीं रखने । उनमेंसे एक तो ही पद्य मिलने थे-एक 'पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया
समन्तभद्रकी स्तुतिको लिए हुए अकलंकदेवकी अष्टशतीका ताडिता' और दूसरा 'कांच्या नग्नाटकोऽह' । तीसरा पद्य
'श्रीवर्धमानमकलंकमनिन्द्यवंद्य' नामका पद्य है और दूसरा आजसे कोई बारह वर्ष पहले स्वयम्भूस्तोत्रकी प्राचीन
जिनेन्द्रकी स्तुतिको लिए हुए 'ये संस्तुता विविधभकप्रतियोंका अनुसन्धान करते समय मुझे दिल्ली पंचायतो
समन्तभद्रः' नामका पद्य है । मध्यके ये दोनों मन्दिरके एक अतिजीर्ण-शीर्ण गुटके परसे उपलब्ध हुआ था,
पद्य उक्र तृतीय श्लोकके अनन्तर लिखे जाने चाहिये जिसपर मैंने २ दिसम्बर सन् १६४४ को 'समन्तभद्रका एक
थे किन्तु लेखकादिकी किसी भलसे वे मध्यमें संकलित हो और परिचय पद्य' नामक लेख लिखकर उसे अनेकान्त
गये हैं। दो एक भलें इस तृतीय पद्यके लिखने में भी हुई हैं। के ७३ वर्षकी संयुक्त किरण ३-४में प्रकाशित किया था।
जैसे कि 'भिषगहमह' के स्थान पर भिषगमहमहं', 'मांत्रिका' उस पद्यस स्वामीजीक परिचय-विषयक दस विशेषण खास
के स्थान पर 'मंत्रिकाः' और 'मिद्धमारस्वतोह' की जगह तौरसे प्रकाश में आये थे और जो इस प्रकार हैं-आचार्य,
'सिद्धमारस्वतोयं' का लिम्वा जाना । ये सब अशुद्धियां साधा२ कवि, ३ वादिराट्, पण्डित(गमक), ५ दैवज्ञ (ज्योतिर्विद्),
रणतया लेखककी असावधानीका परिणाम जान पड़ती हैं और ६ भिषक् (वंद्य), ७ मान्त्रिक (मन्त्र विशेषज्ञ), तान्त्रिक
इसलिए इन्हें कोई विशेष महत्व नहीं दिया जा सकता(तंत्र विशेषज्ञ), ६ अाज्ञासिद्ध और १० सिद्धसारस्वत ।
दोनों प्रतियों में तीनों पद्य एक ही हैं। वह तृतीय पद्य इस प्रकार है:आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराद पण्डितोऽहं
अन्तमें पाठकोंसे निवेदन है कि यदि उन्हें प्राचीन
गुटकों श्रादिका स्वाध्याय तथा अवलोकनादि करते दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् ।
समय समन्तभद्रके श्रामपरिचय-विषयक उक्त तृतीय पद्य राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायामाज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ।।
या इन तीनोंके अतिरिक्त अन्य कोई पद्य दृष्टिगोचर हो तो यह पद्य भी पूर्वतः उपलब्ध दो पद्योंकी तरह किसी '
वे उससे मुझे सूचित करनेकी जरूर कृपा करें। नगर-विशेषकी राजसभामें राजाको लक्ष्य करके कहा गया है। २. समन्तभद्रका भावी तीर्थकरत्व इस पद्यकी उपलब्धि अभी तक दिल्ली के उन शास्त्र-भंडारके माणिकचन्द-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाअतिरिक्त अन्य कहींक भी भण्डार आदिसे नहीं हो रही थी। चारकी प्रस्तावनाक साथ स्वामी समन्तभद्का इतिहास लिखते अन्यत्र उसकी खोजके लिए मेरा प्रयत्न बराबर चालू था। समय मैंने 'भावी तीर्थकरत्व' नामक एक प्रकरण लिखा था हर्षकी बात है कि गत भादों मासमें अजमेरके बड़ाधड़ा और उसमें समन्तभद्रके भविष्यमै तीर्थकर होनेके सूचक पंचायती मन्दिरके शास्त्र-भण्डारका निरीक्षण करते हुए एक प्रमाणोंको संकलित किया था । उन प्रमाणों में एक प्राचीन प्राचीन गुटके परसे मुझे उक्त पद्यका दूसरी बार दर्शन हुअा गाथा भी निम्न प्रकारसे थी:है । यह गुटका वि० सं० १६०७के भाद्रपदमासकी सुदि अहहरी णवपडिहरि चक्किचउक्कं च एय बलभहो। नवमीको लिखा गया है और इसमें भी उन पद्य स्वयम्भः सेरिणय समन्तभद्दो तित्थायरा हुंति णियमेण ॥ स्तोत्रके अन्तमें दिया हुआ है। दोनों गुटकोंकी इस विषयमें गत भादों मासमें उपलब्ध हुए अजमेरके पंचायती मंदिरइतनी ही विशेषता है कि दिल्लीवाले गुटकेमें तीनों पद्य स्थित शारे भण्डारके एक गुटकेका निरीक्षण करते हुए हाल
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२६ ] अनेकान्त
[ वर्ष १४ में मुझे एक दृसरी गाथा इसी विषयकी और मिली है। मूलसंघके मुख्य भेद चार हैं-१ नंदि, २देव, ३सेन और उममें भी समन्तभद्रको भावी तीर्थंकरोंमें परिगणित किया ४ सिंह । नंदिसंघमें 'सरस्वती' और 'पारिजात' नामके दो है। वह गाया इस प्रकार है
गच्छ रहे हैं और गणका नाम 'बलात्कार' है । इस गणमें अट्टहरी तह पडिहरि चउकी पमंजरणो सेणी। नंदि, चन्द्र, कीर्ति और भूषण नामके अथवा नामान्त मुनि हलिणो समन्तमझो होइसी भन्यं (?) तित्थयरा॥ जन हुए हैं। देवसंघमें 'पुस्तक' गच्छ और 'देशी' गण रहे
यह गाथा साहित्यिक भेदको छोड़कर पूर्वगाथाके साथ हैं और इस गणमें होने वाले मुनि देव, दत्त, नाग और दो खास भेदांको लिय हए हैं। इसमें प्रथम तो नौ प्रतिहरिके तुग नामक या नामान्त हुए हैं। सेनसंघके गच्छका नाम स्थान पर 'सह' पदके द्वारा पाठ प्रतिहरियोंकी सूचना की गई 'पुष्कर' और गणका नाम 'सूरस्थ' है और इस गणमें सेन
भद्र, राज और धीर नामधारी या नामान्त मुनि हुए हैं। पुरुषकी भी नई सूचना की गई है। प्रस्तु, इस नई उपलब्ध
सिंहगंधके 'चन्द्रकपाट' गच्छमें 'कारपूर' नामका एक गण गाथास भी समन्तभद्रक भावी तीर्थकरत्वका समर्थन होता है हुश्रा है, जिसमें सिंह, कुम्भ, प्रास्त्रव और सागर नामके या और ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन समयमें इस विषयकी नामान्त मुनि हुए हैं। अनेक गाथाएँ रही हैं, उन्हीं परस संस्कृ ादिक ग्रन्यों में इस प्रमाणरूपसे उद्धन की हई गाथायों में प्रत्येक सघमें विषयको चर्चित किया गया है। यह गाथा जिस गुटकमें मिली होनेवाले चार-चार प्रकारके नामोंका तो उल्लेख है परन्तु है वह वि० सं० १६७२ का लिखा हुआ है।
गण गच्छक नामोंका साथमें कोई उल्लेख नहीं है, और ३. मूलसंवके भेद
इससे रोमा जान पड़ता है कि चारों शाखा-मघों में अजमेरक भट्टारकीय प्राचीन शास्त्र भण्डारकी दान बीन गण गच्छाका कल्पना बादका हुइ ह । अस्तु, उक्त दाना करते समय गत वर्ष एक अतीव जीर्ण-शीर्ण पुराना गुटका गाथाएँ अन्यत्र कहींसे उपलब्ध नहीं है, वे प्रमाणवाक्यके मिला है, जिसमें मूलसंधक भेदोंका निम्न प्रकारसे उल्लेख अनुपार स्वामी समन्तभद्के शिप्य शिवकोटि प्राचार्यकी होनेसे
बहुत प्रचीन-विक्रमकी दूसरी शताब्दीकी-होनी चाहिये । "श्रीमलमंघम्य भेदाः ॥ नदिएंघे सरस्वतीगच्छे बला- प्रमाणवाक्यका थानाम अश(स
प्रमाणवाक्यका अन्तिम अंश(मुच्यत)गद्यपि कुछ अशुद्ध होरहा कारगणं नामानि ४ नंदि १ चन्द्र २ कीर्ति ३ भृपण ।
है फिर भी उनके पूर्ववर्ती श्रशसे यह मा. सूचना मिलती है तथा नंदिसंधे पारिजानगच्छो द्वितीयः॥छ॥ देवमंघे पुस्तकगच्छे
कि उन दोनों गाथाएँ 'वोधिदुर्लभ' प्रकरणकी है और दसीगण नाम ४ दंग । दत्त २ नाग ३ तुग ॥छ॥ सनसंधे
शिवकोटिक द्वारा प्राकृत-भाषामें इस नामका कोई प्रकरण पुष्करगाछे सूरथगणे नाम ४ सन १ भद्र राज ३ वीर॥४ ।
लिखा गया है हो सकता है कि अणुपेक्षा (अनुप्रता)छ॥ सिहासंघे कपाटगच्छे कारगुरगणे नाम १ सिह जसे उनके किसी अन्य विशेषका वह एक प्रकरण हो। कुभ २ पाश्रव ३ सागर ॥॥"
कुछ भी हो, इस उल्लेखसे स्वामी समन्तभद्रके शिष्य शिव उन गद्य के पश्चात् दो गाथाएँ भी प्रमाणरूपमें दी हैं, कोटि द्वारा एक अज्ञात अथके लिखे जानेका पना ज़रूर चलता जो इस प्रकार है :--
है और वह भी प्राकन-मापा । शास्त्र-भण्डारोंमें 'गंदी चंदा वित्ती भूमणरणहि दिसंघास ।
न मालम किननी ऐसी महन्धकी सूचनाएँ दबी-छुपी पडी हैं । सेणो रज्जो वीरो भदो तह सेगसंघस्त । १॥
साहित्यका प्रामाणिक इतिहास तय्यार करनेके लिए सारे सिंघा हंगी पासव सायरणमा हु सिंहसंघाल।
उपलब्ध साहिल्गकी परी छान-बीन होनी चाहिये। देवो दत्तो जागो तुंगो तह देवरांघम्स ।।२।।"
४. गोम्मटसारकी प्राकृत-टीका और इन दोनों गावाबोके अनन्तर इनके प्रमाण स्थान- 'गोम्मटसार' जैन समाजका एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ है, जो की सूचनारूपमें निम्न वाक्य दिया है:
जीवकांड और कर्मकांडके भेदसे दो भागोंमें विभक्त है। “इति श्रीसमन्तभद्दम्बामिशिष्यशिवकाव्याचार्यविरचित इन दोनों भागों पर संस्कृतादि-भाषानोंके अनेक टीका टि पण योधिभन्दमुच्यने ।”
पाये जाते हैं। परन्तु प्राकृतकी कोई टीका अभी तक उपलब्ध इस सब उल्लेम्बक द्वारा यह सूचित किया गया है कि नहीं थी। हां, कुछ समय पहले एक पंजिकाकी उपलब्धि
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वर्ष १४ परिण १
पुराने साहित्यकी खोज
[२७ जहर हुई है, जिसे गणधरकीर्ति आचार्यने प्रायः प्राकृत ही दे दिया है। साथ ही, कहीं-कहीं षट्म्खंडागमके भाषामें लिखा है और जिसका उल्लेख अभयचन्द्राचार्यकी सूत्र तथा कसायपाहुडके चूर्णिसूत्र भी दिये हए हैं और सस्कृर-टीकामें मिल रहा था । प्राकृटीकाका कोई उल्लेख कितने ही स्थलों पर समन्तभद्रके नामोल्लेखके साथ उनके भी अभी तक कहींस दबनेको नहीं मिल रहा था। गत ग्रन्थोंकी अनेक कारिकाए भी 'उक'च' रूपमें उद्धत सितम्बर मासमें अजमेर के उस बड़े भट्टारकीय भंडारसे की गई है। श्रादि अन्तके भाग त्रुटित होनेसे प्रयत्न करने तीन संस्कृत टिप्पणादिक अतिरिक्त एक प्राकृतटीका भी उप- पर भी टीकाकारका नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। लब्ध हुई है, यह बड़े हर्षकी बात है। यह टीका दोनों कांडों
इस प्राकृत टीकामें कहीं कहीं कोई वाक्य संस्कृतमें भी पर लिखी गई है, परन्तु उपलब्ध प्रतिका श्रादि और अन्तिम
पाये जाते हैं, जैसा कि धवलादिक-टीकाओं तथा इस ग्रन्थकी भाग खंडित होनेसे एक भी काण्डकी टीका पूरी नहीं है।
हा ह। पंजिकामें भी उपलब्ध होते हैं। इस टीकाके दो एक स्थलोंप्रारम्भके १.१ पत्र न होनसे जीवकांडकी टीका १ से १८०
का पजिकाके साथ मिलान करनेसे ऐसा मालूम होता है कि गाथायों तककी नहीं है शेष ५८१ (एयदवियम्मि०) से
पंजिकाकारक सामने यह टीका रही है, इसांस इसके कुछ ७३३ (अज्जज्जसण०) तक गाथाओंकी टीका उपलब्ध है।
वाक्योंका पंजिका अनुसरण पाया जाता है। पजिकाका रचनाऔर अन्तके १०-१२ पत्र न होनेसे कर्मकांडके अन्तिम भाग
काल शक मं० १०१६ (वि० सं० ११५१) है और (गाथा ११४ १९७२ तक) की टीका त्रुटित हो रही है।
इससे यह टीका उससे कोई ५० ६० वर्ष पूर्वकी होनी चाहिये। इस प्रतिमें कर्मकांडका प्रारम्भ पत्र नं. १२४ से होता है
ऐमी प्राचीन महन्यकी टीकाका इस प्रकारसे म्वडित होना और १६५वे पत्र तक एक रूपमें चला गया है। उसके बाद
बड़े ही दुर्भाग्यकी बात है। अतः इस टीकाकी दुसरे पत्र संख्या एकसे प्रारम्भ होकर १०१ तक चली है । हाशिये भंडारों में शीघ्र खोज होनी चाहिये और अजमेरके उक्त पर कहीं भी ग्रन्थका नाम नहीं दिया है और इमामे पत्रों
शास्त्रभडारको भी पूरी तौरसे टटोला जाना चाहिएका क्रम गड़बडमें होरहा था, जिसे परिश्रम-पूर्वक ठीक किया
खासकर उन खण्डित पत्रोंकी पूरी छानबीन होनी चाहिये गया है। और इस तरह ग्रंथकी पत्रसंग्ख्या २७५ के लगभग जान
जो अपने-अपने यूथसे बिछड़कर कृडे-कचरेक ढेर रूप पड़ती है। प्रतिपत्र ४० श्लोकोंके औसतसे ग्रंथकी कुल
बस्तोंमें बँधे पड़े हैं और बेकारीका जीवन बिता रहे हैं। संख्या ११००० श्लोकके करीब होनी चाहिये, जबकि
ऐमा होने पर दूसरे भी अनेक खंडिन अन्योंके पूर्ण हो जानेकी उक्त पंजिकाकी श्लोकसंख्या ५००० ही है । अस्तु।
पूरी सम्भावना है । इसके लिये अजमेरके भाइयोंको शीघ्र अथकी स्थितिको देखते हुए यह मालूम नहीं होता कि
ही प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करके वे अनेक ग्रन्थोंके आदि-अंतके पत्र यों ही टूट-टाट कर नष्ट भ्रष्ट होगये हों। बल्कि
उद्दारका श्रेय प्राप्त करेंगे। ऐसा जान पड़ता है कि वे पत्र कहीं बाहर चले गये, किमीअन्य प्रथके साथ बँध गये, रल मिल गये और या खंडित पड़े
५. वृषभनन्दीका जीतसारसमुच्चय हुए पत्रों में शामिल होगये हैं। ऐसे खंडित पत्र हजारोंकी गत सितम्बर अक्तूबर माममें सवा महीना संख्यामें वैप्टनोंमें बँधे हुए उक्त भंडारमें पड़े हुए हैं। यदि अजमेर ठहरकर साहित्यिक अनुमन्धानका जो कार्य उन खंडित पत्रोंकी छानबीन की जाये तो बहुत संभव है किया गया है और उसमें जिन अनेक अश्रुतपूर्व प्राचीन कि उक्त प्रतिके वटित अंशकी पूर्ति होजाय ।।
प्रन्थोंकी नई उपलब्धि हुई है उनमें वृपभनन्दीका ___इस प्राकृत-टीकावाली प्रतिमें उपलब्ध गोम्मटसारकी 'जीतसार-समुच्चय' भी एक खास ग्रन्थ है । ग्रन्थ कुछ गाथाए नहीं है, कुछ नवीन है और कुछ भिन्न क्रमको संस्कृत भापामें निबद्ध है, मुनियों तथा श्रावकांके लिए हुए आगे पीछे पाई जाती हैं।
अथवा चतुःसंघके प्रायश्चित्त-विपयसे सम्बन्ध टीकाकारने कुछ गाथानों पर तो विस्तृत-टीका लिखी रखता है लमें 'प्रमाणं पट शतानि' वाक्यके है, कुछ पर बिलकुल ही नहीं लिखी है उन्हें 'सुगम' द्वारा इसकी श्लोकसंख्या ६०. बतज्ञाई है । ग्रंथकह कर छोड़ दिया है । टीकामें कहीं कहीं मृल माथाओं को प्रति अति जीणे है, भुवनकाति-द्वारा लगभग ४.. पूरा लिखा है और कहीं कहीं गाथाके प्रारम्भिक चरणको वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है श्रीर इसकी पत्र संख्या
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२८] अनेकान्त
[ वर्ष १४ ३२ है; परन्तु आठवाँ पत्र नहीं है।
समात चैतज्जीतसारसमुच्चयमिति।" इस ग्रन्थके प्रायश्चित्त-विपयका अधिकांश संबंध प्रशस्तिके ये पद्य कहीं कहीं पर कुछ अशुद्ध उस अति जीर्ण-शीर्ण पुस्तिकासे है जो 'जीतोपदेश. प्रतीत होते हैं, पर इनमें जिस गुरु-परम्पराका दीपिका के रूपमें श्रीकोंडकुदाचार्यके नामाङ्कित थी, उल्लेख है वह इतना ही जान पड़ता है कि रुक्षाचार्यजिसे मान्यखेट में सिद्भभूषण नामके सैद्धान्तिक के शिष्य रत्नी रामनन्दी, रामनन्दीके शिष्य नन्दनन्दी मुनिराजने एक मंजूषामें देखा था, प्रार्थना करके और नन्दनन्दीके शिष्योंमें प्रस्तुत ग्रन्थकार प्राप्त किया था और जो उसे प्राप्त करके संभरी- वृपभनन्दी हुए हैं। यहां नन्दनन्दीके शिष्यों में अपने स्थानको चले गये थे। उन्हीं मुनिराजने वृपभनन्दी- पूर्ववर्ती दो गुरुभाईयों श्रीकीर्ति और श्रीनन्दीका के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका इस ग्रन्थ- नामोल्लेख किया गया है, जो पूर्वदीक्षित में अनुसरण किया गया है, ऐसा ग्रन्थके निम्न होनेसे गुरुकोटि में स्थित हैं, और अपने उत्तरवर्ती प्रशस्ति-वाक्योंसे जाना जाता है:
एक गुरुभाई 'हर्पनन्दी'का अनुज-रूपमें उल्लेख "मान्याखेटे मंजूषेक्षी सैद्धान्तः सिद्धभूषणः ।
किया है, जिसने इस ग्रन्थकी सुन्दर प्रतिलिपि लिख सुजीर्णा पुस्तिका जैनां प्रार्थ्याप्य संभरी गतः ॥३॥ कर तय्यार की थी। इस तरह प्रशम्तिमें श्रीनंदनंदी श्रीकोंडकुदनामांकां जीतोपदेशदीपिकां । मुनिराजके, जिन्हें शास्त्रार्थज्ञ, पंकधारी, तपांक, व्याख्याता मदुहितार्थेन मयाप्युक्ता यथार्थतः ॥३॥ सिद्धांतज्ञ, सेव्य और गणेश जैसे विशेषणोंके साथ सद्गुरोः सदुपदेशेन कृता वृपभनन्दिना ।
स्मृत किया है, चार शिष्योंका उल्लेख मिलता है; जीतादिमारसंक्षेपो नंद्यादाचंदुतारकं ॥३६॥" परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य 'गुरुदासाचार्य' भी इन पद्योंके बाद ग्रन्थकारने एक पदामें, अपनी रहे हैं, जिन्हें ग्रंथकी आदिमें निम्नवाक्यके द्वारा मन्दबुद्धिादिका उल्लेख करते हुए, रचनामें जो स्मृत किया गया है:दोष रह गया हो उसके संशोधनकी प्रार्थना की है
"श्रीनंदनंदिवसः श्रीनंदिगुरुपदाब्ज-षट्चरणः।। और तदनन्नर अपनी गुरुपरम्परादिका जो उल्लेख
श्रीगुरुदासो नंद्यातीचणमतिः श्रीसरस्वतीसूनुः ॥२॥" किया है वह इस प्रकार है:
इस वाक्यमें गुरुदासको स्पष्टरूपसे श्रीनंद: पुरतः । चर्याधुर्यों रुक्षाचार्यों रुक्षयात्कर्मभी। नन्दीका 'वत्स' (शिष्य) बतलाया है, साथ ही यह शिप्यो रत्नी रामनंदी लक्षणासूणचक्षुः ।
भी सूचित किया है कि वे श्रीनन्दिगुरुके चरणअंतेवासी शास्त्रार्थज्ञः पंकधारी तपांकः
कमलोंके भ्रमर थे, और इससे यह जाना जाता है सिद्धांतज्ञः सेग्योस्य स्यात् नंदनंदी गणेशः॥३८॥ कि नन्दनन्दीके शिष्यों में जिन श्रीनन्दीका प्रशस्तिमें श्रीकीर्तिः स शिप्यो दक्षः दुःख (स)मे विदी (१) उल्लेख है और जिन्हें जोत(प्रायश्चित्त)शास्त्रमें तस्य भ्राता श्रीनंदी ध्यानजीताविदग्धः
विदग्ध तथा सिद्धान्तज्ञ लिखा है वे गुरुदाससे पूर्वसिद्धांतज्ञस्तस्य भ्राता वृषभनंदी समीर्य
वर्ती बड़े गुरुभाईके रूप में हुए हैं, वृपभनन्दी गुरुदासजीताद्यर्थ श्रीकोंडकुदीयं जीतसारांबुपायी ॥३॥ से भी उत्तरवर्ती शिष्य हैं। यहाँ गुरुदासको अनुजहर्षनंदिना सुलिख्य जीत
'तीक्ष्णमति' तथा सरस्वतीसुनु' लिखा है और इससारशास्त्रमुज्वलोतं ध्वाजापते ।
से पूर्ववर्ती पद्यमें उनके लिये विशिष्ट गुणरलभू जैसे वृषभनंदि कोंडकुद-वंश-कोटि
विशेषणपदका प्रयोग किया गया है। साथही, ग्रन्थवासिभानुभवनिस्तमसायते ।
कर्तृत्वका उल्लेख करते हुए प्रायश्चित्त-विषयक ग्रंथजगति भव्यजीवलग्नघातिकर्म
कर्ताओंकी परम्पराको उस वक्त उनतक ही सीमित वादिदर्पभंजिशुप्कपंडितायते।
किया है; जैसाकि ग्रंथके निम्न वाक्यसे प्रकट हैविमलबोधवीरवाक्यदुग्धवाधि
तीर्थकृद्गणभृत्कर्ता तच्छिप्याचयतः क्रमात् । निर्जरद्धिमस्य सूरिहंसायते ॥४०॥
यावच्द्रीगुरुदासोथ विशिष्टगुणरत्नभूः ॥४॥
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वर्ष १४ ] पुराने साहित्यकी खोज
[२६ इस सब कथनसे गुरुदासाचार्यका विशिष्ट जान पड़ते हैं और 'छंदपिण्ड ग्रन्थ वही मालूम महत्व ख्यापित होता है और यह जान पड़ता है होता है जो इन्द्रनन्दी आचार्यकी कृति है और कि वे एक महान विद्वान् हुए हैं। उनका बनाया माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो चुका है। हुआ चूलिकासहित 'प्रायश्चित्तसमुच्चय' ग्रन्थ एक इस उल्लेखसे उसके समयादि-सम्बन्धमें अच्छा बड़ी ही श्रेष्ठ और अपूर्व रचना है। बहुत वर्ष हुए प्रकाश पड़ता है और वह उन इन्द्रनन्दी आचार्यको जब वह मुझे पहलीबार मिली थी तभी मैंने स्वयं कृति जान पड़ता है जिनका उल्लेख ज्वालामलिनीअपने हाथसे उसकी प्रतिलिपि अपने अध्ययनार्थ, कल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने अपने गुरु बप्पनन्दीके टीका परसे टिप्पणी करते हुए, उतारी थी,जो अभी दादागुरुके रूपमें किया है-अर्थात् बासवनन्दी तक मेरे संग्रहमें सुरक्षित है।
जिनके शिष्य और बप्पनन्दी प्रशिष्य थे-और वृषभनन्दीने उक्त ५वें पद्यमें गुरुदासका परि- इसलिये जिनका समय विक्रमकी हवीं शताब्दीका चय देनेके अनन्तर, 'तद्ववृपभनन्दीति' इस छठे प्रायः मध्यवर्ती होना चाहिए, क्योंकि ज्वालामालिनी पद्यके द्वारा अपनेको गुरुदासकी तरह नन्दनन्दीका कल्पकी रचना शक सं. ८६१ (वि.६६६) में हुई वत्स और श्रीनन्दीके चरणकमलका भ्रमर सचित है और नन्दनन्दा के शिष्य श्रीनन्दी, गुरुदास तथा किया है। साथही, यह भी व्यक्त किया है कि वह वृषभनन्दी ये सब हवींशताब्दीके उत्तरार्धके विद्वानहैं। स्वल्पश्र त होते हुए भी दोनों गुरुओंको भक्तिपूर्वक अब मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता नमस्कार करके उनके उपदेशको प्रकाशित करने में हूँ कि मूल में ग्रन्थकी श्लोकसंख्या यद्यपि ६०० बतप्रवृत्त हुआ है, और प्रशस्ति पद्य ३६,) में यह प्रकट लाई है परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रतिमें वह ७०० से ऊपर किया है कि वह श्रीकोंडकुदीय जोतार्थको सम्यक पाई जाती हैं, और इससे ऐसा मालूम होता है कि प्रकार अवधारण करके 'जीतसाराम्बुपायी' ( जीत- ग्रन्थ-प्रतिमें कुछ पद्य बाहरसे शामिल होरहे हैं। साररूप अमृतका पान करनेवाला ) बना है। इससे अनेक स्थानों पर 'उक्त च' रूपसे कुछ प्राकृत-गाथासाफ मालूम होता है कि वृपभनन्दीको श्रीकोंड- ए तथा संस्कृतक पद्य दिए हुए हैं। और उन पर कुन्दाचार्यकी उस मंजूषास्थित अतीव शीर्ण-क्षीर्ण- क्रमांक डाले गए हैं। साथ ही, ऐसे भी कुछ पद्य हो पुस्तिकासे प्रायश्चित्त-विषयक ग्रन्थों के अध्ययनादिकी सकते हैं जिन पर उक्त च' न लिखा गया हो और खास ग्रेरणा मिली है और इस ग्रन्थमें श्रीकोण्ड- वे वैसे ही लेखकोंकी कृपासे ग्रन्थ में प्रविष्ट हो गए कुन्दाचार्यके प्रायश्चित्त-विपयको प्रमुखतासे अप- हों। ऐसे सब पद्योंकी ठीक जांच विशेष अध्ययन नाया गया है। दूसरे जिन ग्रन्थादिका आधार इस तथा दूसरी ग्रन्थ-प्रतियोंके सामने होनेसे सम्बन्ध ग्रन्थमें लिया गया है उनके नामकी सचना निम्नः रखती है। इसके लिए दूसरी ग्रन्थ-प्रतियांकी खोज प्रकारसे की गई हैं :
होनी चाहिये। द्वात्रिंशदद्वितयाचारे चाप्टोतयां प्रकीर्णके,
हाँ, ग्रन्थ-प्रतिके २८वें पत्रसे चलकर ३१वें छेदपिंडे यदुक च तत्किंचिन्मात्रमुच्यते ॥६॥ पत्रकी दूसरी पंक्ति तक 'हेमनाभ नामका एक जीतादिभ्यः समुच्चिन्य सारं सूरिमतादपि
प्रकरण भी इस प्रतिमें, द्वितीय चलिकाकी समाप्तित्रयोदशाधिकारोक्त जीतसारसमुच्चयं ॥१०॥ के अनन्तर, पाया जाता है, जिसमें संज्ञिव्रतोंके अति
इस रचनामें १ द्वात्रिंशद्वितयाचार २ अष्टोत्तरी चारोंकी शुद्धिका विषय है और उसका पूर्व सम्बन्ध ३ प्रकीर्णक, ४ छेदपिण्ड और ५ जीत नामक ग्रन्थों- 'हेमनाभ' (नाभैयऋषभदेव) से जोड़ कर-दोनों का उल्लेख तो स्पष्ट है, शेपमेंसे कुछको 'आदि' के प्रश्नोत्तर-वाक्योंको साथमें देते हुए यह कहा शब्दके द्वारा ग्रहण किया गया है और साथही अपने गया है कि भरतचक्रीने प्रश्नका जो उत्तर अपने
आचार्यके मतको भी समाविष्ट करनेकी बात कही पिता (हेमनाभ)से सुना वही उत्तर श्रेणिकने 'वीर' गई है। सूचित ग्रन्थों में पहले दो नाम अश्र तपूर्व भगवानके मुखसे सुना और उसीको गौतम (गणधर)
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अनेकान्त
[ वर्ष १४ ने अंग-पूर्व तथा बाह्यांगमें गूंथा वही आचार्यक्रम- समाप्ता' इस अधिकार-समाप्ति-वाक्यसे पहले से चला आया शुद्धिविधान मैने संज्ञीके लिये कहा प्रशस्तिके वे प्रथम दो पद्य दिये हुए हैं जो 'मान्याहै ।इसके बाद वह प्रकरण दिया है जो श्रावकोंके खेटे मंजूषेती' और 'श्रीकोंडकुन्दनामांकां' से प्रारम्भ भेदोंसे प्रारंभ होकर चतुर्थ शिक्षाव्रतकी शुद्धि तक है होते हैं, जिनसे ऐसा भान होता है कि वहाँ प्रशस्ति और उसके अन्तमें लिखा है-"हेमनाभं समाप्त" दी जानेको थी जिसका दिया जाना रोका गया है इस प्रकरण का सम्बन्ध व्यक्त करने वाले प्रारम्भके और द्वितीया चूलिकाकी ममाप्ति करके 'हेमनाभ' चार पद्य इस प्रकार हैं :
प्रकरण दिया गया है, जिसका अधिकारोंकी सूची"भगवान् हेमनाभाथ्यो नन्वा पृष्ठोऽथ चक्रिणा में खास तौर से कोई नाम भी नहीं है। संशिवतातिचाराणां शुद्धिं हि ममांचितां ॥१॥ ___ अन्तमें मैं इतना और भी बतला देना चाहता भरतमाह नाभेयः प्रथमं चक्रवर्तिनं ।
हूँ कि ग्रन्थके विषय पर सामान्यतः सरसरी नज़र शृणु चक्रेश वचयेऽहं श्रावकी शुद्विमुत्तमाम् ॥२॥ डालनेसे यह मालूम होता है कि ग्रंथ अच्छा महत्व कालानुरूपतः सवं यच्छु तं चक्रिणा पितुः । का है, सरल है और उसमें अनेक ऐसे विषय चर्चित तथैव श्रेणिकोऽश्रीषीवीराह :षमशोधनम् ॥३॥ हैं जो दूसरे प्रायश्चित्त-ग्रन्थों में नहीं पाये जाते, तदंगपूर्वबाह्यांगै ग्रंथयामास गौतमः ।
अथवा उनमें कोई सूत्ररूपसे संकेत मात्र को लिए तदाचार्यक्रमायातं संज्ञिने कथितं मया ॥३॥
हुए हैं जो इसमें अच्छी स्पष्टताके साथ दिये गये इन प्रास्ताविक पद्यों की स्थितिको देखते हुए हैं। इस प्रथका दूसरे प्रायश्चित्त ग्रंथोंके साथ यह बहुत संभव जान पड़ता है कि यह सारा ही तुलनात्मक अध्ययन होनेकी बड़ी जरूरत है, उमसे प्रकरण, जो ७२ (५४+१३) श्लोक-जितना है, अनेक विपयों पर अच्छा प्रकाश पड़ सकगा। ग्रन्थमें बादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त किया गया है। इसके लिए किसी विद्वानको खास तौरसे प्रयत्न करना क्योंकि इन पद्योंका सम्बन्ध साहित्यादिकी दृष्टिसे चाहिए। यह ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशमें लानेके योग्य है। ग्रन्थके साथ कुछ ठीक बैठता हुआ मालूम नहीं श्रावण कृष्णा ५ सं० २०१३ होता । इनसे पूर्व और 'गद्यपद्योक्तद्वितीया चूलिका २१, दरियागंज, दिल्ली
हमारा प्राचीन विस्मृत वैभव
(श्री पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य) श्री अतिशय क्षेत्र पटनागंज
नन्दीश्वर द्वीपकी रचना, सहस्रकूट चैत्यालय, बावन जिनागत ग्रीष्मावकाशमें हमें कुछ दिनोंके लिये सागर लय तथा छोटी-छोटी अनेकों टोंके और सैकड़ों मनोज्ञ (मध्यप्रदेश) जानेका अवसर मिला था। मित्रवर श्रीयुत वेदियां इस बातके प्रमाण हैं कि यहां कितना सांस्कृतिक पं.चन्द्रमौलिजीकी प्रेरणासे श्री अतिशय क्षेत्र पटनागंज वैभव विद्या पड़ा है और हमारे पूर्वज किस तरह इन धार्मिक भी, जो सागर रहलीके निकट है, जानेका सौभाग्य मिला। कार्यो में तत्पर रहते थे। किन्तु एक हम हैं, जो उनका वहां १३वीं शताब्दीसे लेकर १८वीं शताब्दी तकके निमित जीर्णोद्वार भी करने में असमर्थ हैं। मन्दिर, मति और शास्त्र अनेक जीर्ण-शोर्ण विशाल शिखरबन्द जिनालयोंको देखकर ये संस्कृतिकी स्मारक वस्तुएँ हैं। इनसे संस्कृतिके सम्बन्धमें हमारा मस्तक नत होगया। लगभग सात-आठसौ वर्ष हमें जानकारी मिलती है और ज्ञात होता है संस्कृतिका पूर्व इस प्रान्तके धर्मप्राण श्रद्धालु बन्धुओंने जिस उत्कट प्रतीत गौरव । विश्व-विख्यात श्रवणवेल्गोलकी गोमटेश्वर भक्ति और हार्दिक धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर अपने सद् बाहुबलीकी उत्तुंग मूर्ति आज भी जैन संस्कृतिका गौरव द्रव्यका सदुपयोग किया है स्तुत्य है। श्री पंचमेरु-मन्दिर, प्रदर्शित करती है । खजुराहो, देवगढ़ आदिके मनोज्ञ एवं -
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वर्ष १४]
हमारी प्राचीन विस्मृत वैभव
कलापूर्ण प्रतिविम्ब अाज भी कला प्रेमी और संस्कृति है और किसीका लिङ्गस्थान नष्ट कर दिया गया है। इतनी प्रेमियोंको आकर्षित करते हैं तथा भारतके गौरवपूर्ण सांस्कृ- सुन्दर मूर्तियोंकी इस खण्डिनावस्थाको देखकर जहां दुख तिक इतिहासके निर्माणमें असाधारण मूक सहायता होता है वहां धार्मिक उन्मादके भी दर्शन होते हैं।
पता नहीं, ये विशाल मन्दिर व उनकी मूर्तियां कब, किनके पटनागंजका भव्य स्थान भी ऐसा ही है जो सोन नदी द्वारा खण्डित की गई हैं और कबसे अरक्षित दशामें पड़ी के निकट वसा हुश्रा अपने अतीतके हर्षपूर्ण दिवसोंकी स्मृति हुई है। दिला रहा है। पाश्चर्य नहीं कि हम भव्य स्थानके चारों इनका यहां कुछ परिचय दिया जाता है :श्रोर हजारोंकी संख्यामें जनोंका निवास रहा हो और वे सब मन्दिर नं०१ (पहाड़ पर) तरह धन-धान्यसे भरपूर हों। यहां जो लेख हैं उनके
___ इसमें शान्ति, कुन्थु और अर इन तीन नीर्थकरोंकी बदगाप्रकाशमें आने से व्यक्तियों, जातियों और अनेक गोत्रोंके
सन भूर्तियां हैं । शान्तिनाथकी मूनि १० फुट, कुन्थुनायकी सम्बन्धमें अच्छा प्रकाश पड़ सकता है। सिर्फ अावश्यकता
5 फुट और अरनाथकी मूर्नि ७ फुट है। सिर्फ नासिका व उस ओर ध्यान देने की हैं।
लिङ्ग भङ्ग है और सब सर्वाङ्ग मुन्दर है। एक शिलालेग्व श्री अतिशय क्षेत्र मदनपुर
है, जो साधन न होने से पढा नहीं गया। सिर्फ संवत् पढ़ा ____ इन्हीं दिनों हमें एक दूसरा अतिशय क्षेत्र मदनपुर भी, गया जो १११० है । जो सागर व ललितपुर मध्यमें सागर-मदनपुर-महावरा मन्दिर नं. २ (पहाड़ पर) रोडपर अवस्थित है, दग्बनेका सुअवसर मिला। इसका श्रेय यह मन्दिर उक्र मन्दिर नं.१ के पास ही है। इसमें सौरई (ललितपुर) के जैन बन्धुओंको है, जो पिछले कई
लालतपुर) के जन बन्धुबाका है, जो पिछले कई भी उन तीनों तीर्थकरोंकी बड़गायन मूर्तियां विरानमान हैं वर्षसे प्रेरणा कर रहे थे और हमने तथा सुहृवर पं० जो क्रमशः ८, ६, ६ फुट हैं। यहां भी शिलालेख है। परमानन्दजी शास्त्रीने उद्धार करनेका एक-दो बार निश्चय
ने उद्धार करनेका एक-दो बार निश्चय सिर्फ संवत् पढ़ा गया जो १२०४ है। मूर्तियोंमें सिर्फ भी किया था, पर जानेका योग्य नहीं मिल सका था। इस
शान्तिनाथकी मूर्तिका हाथ टूटा हुआ है। शंप दोनों टीक मनोज्ञ स्थान पर भी जो एक छोटी एवं थोडी ऊंची पहाड़ी मतियां बहत मनोज हैं. इन दोनों मन्दिरक पर है, हमाग धार्मिक वैभव दीन हीन अवस्थामें पड़ा हुधा अोर परकोटा बना हृया है जो नोड़ दिया गया है। बहुत है। हम 'दीन-हीन अवस्था' इसलिये कह रहे है कि वस्तुनः
सुंदर बना मालूम होता है। इस सुन्दर एवं प्राचीन गौरवपूर्ण स्थानकी ओर समाजका
" मन्दिर नं. ३ (पहाड़ पर) शताब्दियोस लक्ष्य नहीं गया। सं० १११०से लेकर मं० १६१८ तकके तीन विशाल मन्दिर पहाडपर विद्यमान हैं यह मंदिर उक्त दोनों मंदिरों से कुछ दूर सामने बना और पांच मदियां (मन्दिर), जो पंचमढ़ियोंके नामसे विश्र त हुआ है। बीचमें जगलके वृक्षोंसे व्यवधान होगया है। हैं, पहाडके नीचे हैं, पर दहलाने तोड़ डाली गई हैं, जिनका इसमें भी उन तीनों तीर्थंकरोंकी मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं और कलापूर्ण एवं सुन्दर पत्थर पास-पास चारों ओर विश्वरा पड़ा खड्गापन ही हैं। शांतिनाथकी मूर्ति फुट, कुन्थुनाथको है और बहुत कुछ आस-पासके लोग अपने मकानोंके ७ फुट और अरनाथकी ७ फुट ऊँची है। इनमें सबके हाथ दिये उठा ले गये हैं। इन पत्थरोंकी कला एवं बनावट वगैरह ठीक है सिर्फ नासिका खंडित है । यहां भी शिलालेख देवकर १०वी, ११वी व १२वीं शताब्दीकी मति एवं मंदिर है जो नहीं पढ़ा जासका । संवत् १६८८ की ये प्रतिष्ठित निर्माण कलाका स्मरण हो पाता है।
हैं। इस मन्दिरके चारों ओर चार दहलाने हैं और चारों में
कोटों पर मूर्तियां विराजमान हैं । हो, एकमें लुप्त है। मालूम इन मन्दिरों तथा पंचमड़ियों में सब जगह शान्ति, कुन्थु और इन तीन तीर्थंकरोंकी विशाल उत्तग खड़गासन
होता है कि किमीन उसे तोड फोड़कर अन्यत्र फेंक दी है। मूर्तियां प्रनिष्ठत हैं, जो अधिकांश खण्डितावस्थामें हैं। मन्दिर नं. ४ (पहाड़ोंके नीचे पंचमढ़ी) .किसीकी नासिका भंग कर दीगई है, किसीका हाथ टूटा हुआ इसमें पांच मढ़ियां बनी हुई हैं । और चारों ओर चार
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३२]
अनेकान्त
[वष १४
तथा बीचमें एक मढ़िया (मन्दिर) बनी है बीचकी मढ़ियामें ध्यान नहीं है। हां, सोरईकी जैन समाज तथा मदनपुर पांच मूर्तियां खड्गासन हैं। वे निम्न क्रमशः १ चन्द्रप्रभ, के धर्मानुरागी जमींदार लोदी ठाकुर अजैन बन्धु श्री गज२ नेमिनाथ, ३ धर्मनाथ, ४ श्रेयांसनाथ और ५ कुथुनाथ राजसिंह वी० ए० तथा उनके छोटे भाई श्री रघुनाथसिंहका की है।
कुछ अवश्य प्रयत्न है कि यह स्थान रक्षित हो जाये और इसमें शिलालेख है जो पढ़ा नहीं गया । सिर्फ संवत् सरकारसे रक्षित घोषित करवा दिया जाय । लेकिन यह पढ़ा गया जो आषाढ़ सुदी ५ गुरौ सं० १६२२ है। इसी महान कार्य समग्र जैन समाजके सहयोग पर ही वे कुछ कर मन्दिरकी सीढ़ियों पर एक महत्वपूर्ण शिलालेखका विशाल सकते हैं । समाजसे हमारा अनुरोध है कि वे अपने प्राचीन पत्थर और पड़ा है जो बिल्कुल अरक्षित है। अन्य चार सांस्कृतिक वैभवकी सम्हाल करें और अपनी लक्ष्मीका मढ़ियोंमेंसे सिर्फ सामनेकी एक मढ़ियामें कुछ खड्गापन उसके संरक्षणमें सुन्दर उपयोग करें । तीर्थक्षेत्र कमेटीको भी मूर्तियां विराजमान हैं जिनका विशेष परिचय मालूम नहीं इस ओर पूरा ध्यान देना चाहिये। ये ऐसे स्थान हैं जो हो सका । ये सब एक पत्थर पर उत्कीर्ण हैं।
पुरातत्वकी दृष्टिसे बड़े महत्वक हैं और हमारे इतिहासकी कहना न होगा कि ये विशाल मन्दिर और मूर्तियां हमारे एक कड़ी हैं । अतएव हमें इनकी अवश्य रक्षा करनी चाहिए प्राचीन सांस्कृतिक गौरव पूर्ण वैभवको प्रकट कर रहो हैं। और शिलालेखोंको सुरक्षित करके उनमें क्या लिखा है, पर अत्यन्त दुःख है कि इनकी ओर समाजका बिलकुल प्रकाशमें लाना चाहिये।
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४-५, और वर्ष से १३ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं, जिनमें समाजके लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकी दृष्टिसे अनेकान्त हाल की ११वें १२वें १३वें वर्षकी फाइलें दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें अर्ध मूल्यमें दी जायेगी और शेष वर्षोंकी फाइलें लागत मूल्यमें दी जायेगी । पोस्टेज खर्च अलग होगा ।
मैनेजर-'अनेकान्त', समाज से निवेदन अनेकान्त जैन समाज का एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें अनेक खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं । पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनाकर तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं। हमें दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्रेणी में नाम लिखानेवाले केवल दो सौ सज्जनों को आवश्यकता है। आशा है समाज के महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदान कर सहायक श्रेणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बटाएंगे।
मैनेजर 'अनेकान्त
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जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह
(आद्यन्तादिभागस चयात्मक)
१- पउमचरिय [ पद्मचरित्र ] महाकवि स्वयंभु श्रादिभागः
मह एव-कमल-कोमल मणहर वर- बहल कंति मोहिल्लं । उसइस्स पायमकमलं ससुरासुरवंदियं सिरमा ॥१॥ दीहर- समास णालं सहदलं श्रत्थकेसरुग्घविय
1
बुह महुयर पीयरसं सयंभु-कव्युप्पलं जयउ ॥२॥
धत्ता - जे काय - त्राय-मणे खिच्छिरिय, जे काम कोह- दुरणय तिरिय ते एक्क-मणेण सयंभुषण, वंद्रिय गुरु परमायरिय ॥
वड्ढमाण-मुह - कुहर - विणिग्गय,
रामकहा- यह एह कमागय । अक्खर वास जलोह-मणोहर, सु- अलंकार-छन्द मच्छोहर | दीह समास-पवाहावकिय, सक्कय-पायय- पुलिणालंकिय । देसी भासा उभय-तडुज्जल, क विदुक्कर - घण सह- मिलायल ॥ श्रथ बहल कल्लोलाणिट्ठिय, सासय-सम-तूह परिट्ठिय । एह राम कह- सरि सोहंती,
हर-देवहिं दि बहंती ॥
पच्छ इंदभूइ श्ररिए, पु धम्मेण गुणालंकरिए । एहिं संसारा.
...
कित्तिहरेश गुत्तरवाए || रविसेायरि पसाए',
बुद्धिए श्रवगाहिय कइराए । पण जराणि गन्भ सभूए,
म. रुयएव रू- अणुराए । तलुए पईहरगत,
छिन्वर - णा में पविरल दंते । घत्ता - णिम्मल- पुण्ण पवित्त-कह- कित्तगु श्राढम्प | जेण समाज्जितपूर्ण थिरकित्ति विढप्पइ ॥२॥
हयण सयंभु प विण्णवद्द, म सरिस सन्धि कुकइ ।
व यर कयाविण जाणियउ, उ वित्तिसुत्त वक्खाणियउ ॥ एउ पच्चाहारहो तत्ति किय,
उ संधि उपरि बुद्धि थिय । उ सुिणिउ सत्त विहत्तियाउ, छव्विहउ समास पउत्तियाउ ॥
छक्कारय दस लयार ण सुय, वीसोवसग्ग पच्चय बहुय ।
ण बलाबल घाउशिवायगणु, उ लिंग उखाइ चक्कु वयगु ॥ एउ शिसुखिउ पंच महाय कन्बु,
उ भरहु ण लक्खणु छन्दु सन्चु । उ बुज्झिड पिंगल पत्थारु,
उ भम्मह इंडियलंकारु ।
वसा तो विउ परिहरमि, वर रडावुत्त क. करमि ॥
...
इय एत्य पउमचरिए धणं जामिय-सयंभुएवकए । जि- जम्मुप्पत्ति इमं पढमं चिय साहियं पव्वं ॥ अन्तिमभाग
तिहुचरण- सयंभु- गवरं एक्को कद्दराय चक्किणुप्पण्णो । पउमचरियस्प चूडामणि ब्व सेमं कथं जेण ॥१॥ कइरायस्म विजय- सेसियस्स वित्धारियो जसो भुवणे । तिहुयण-सयंभुणा पउमचरिय सेसेण हिस्सेसो ॥२॥ तिहुयण- सयभु-धवलस्स को गुणो वरिणउ जए तरह । बाले विजेण सयंभु- कव्वभारो समुन्बूढो ॥३॥ वायरण दढध श्रागम- श्रगोपमाण-वियडपथो । तिहुया सयंभु- धवलो जिए- तिथे वहउ कब्वभरं ॥४॥
-
मुह - मयंभुवाण वरिणयत्थं अचक्खमाणेण । तियण-सयभु रइयं पंचमि चरियं महच्छरियं ॥ ५ सच्चे वि सुया पंजर सुयय्व पढिश्रक्खराहूँ सिक्खति । कइरायस्स सुश्रो सुयय्व सुइगम्भ संभूश्रो ॥६॥
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३४]
अनेकान्त
[वर्ष १४
तिहुयण-सयंभु जइ ण हुंतु णंदणो सिरि सयंभुदेवस्स ।
करि कव्वु दिएणु मइ विमलमह । कम्व कुलं कवित्त तो पच्छा को समुद्धरइ ॥७॥
इंदेण समप्पिड वायरणु, जहण हुउ छौंदचूडामणिस्स तिहुयणसयंभु लहु तणउ ।
रसु भरहें वासे वित्थरणु । तो पद्धडिया कन्वं सिरिपंचाम को समारेउ ॥८॥ पिंगलेण छन्द-पय-पत्थारु, सम्वो वि जणो गेण्हइंणियताय-विढत्त दव्व-संताणं ।
भम्मह-दक्षिणहि अलंकार । तिहुयण-सयंभुगा पुण गहियं ण सुकइत्त-पंताणं ॥६॥
वाणेण समपिउ घण घणउ, तिहुयण-सयभुमेक मोत्त ण सयंभुकम्व-मयरहरो ।
तं अक्खर-डंबरु अप्पणउ । को तरइ गतुमंतं मग्मे हिस्सेस-सीसाणं ॥१०॥
सिरिहरिसे णिय णिउत्तणउ, इय चार पोमचरियं सयभरवेण रइय सम्मत्त ।
अवेरहि मि कहहिं कइत्तणउ । तिहुयण-सयंभुणा तं समाणियं परिसमत्तमिणं ॥११॥
छड्डणिय-दुवइ-धुवएहिं जडिय, मारुय-सुय-सिरिकहराय तणय-कय-पोमचरिय अवसेसं ।
चउमहेण ममप्पिय पद्धडिय । संपुण्णं संपुण्णं वंदइरो लहउ संपुगणं ॥१२॥
जण णयणाणंद जणे रियए, गोइंद-मयण सुयणंत विरइयं (१) वंदइय-पढमतणयस्स ।
श्रासीसए सव्वहु केरियए। वच्छलदाए तिहुयण सयंभुणा रइयं महप्पयं ॥
पारंभिय पुणु हरिवंस-कहा, वंदइय-णाग-सिरिपाल-पहुइ-भव्ययण-समूहस्स ।
स-समय-पर-समय वियार-सहा । भारोगत्त समिद्धी संति सुहं होउ सच्चस्स ॥
घत्ता--पुच्छइ मागहणाहु, भव जर-मरण-वियारा । सत्त महा संसग्गी तिरयणभूसा सु रामकह-करणा।
विउ जिण सामणु केम,कहि हरिवंस भडारा ॥२॥ तिहुयण-सयंभु-जणिया परिणउ वंदइय मणतणउ॥ इय रामायण पुराण समत्तं
इय रिठणेमिचरिण धवलइयामिय मयंभुण्वकए सिरि विज्जाहर-कंडे संघीयो हुंति धीम परिमाणं ।
पढमो समुहविजयाहिलेयणामो इमो मग्गो ॥१॥ उज्माकंडंमि तहा बावीस मुणेह गणणाए ॥
अन्तिमभाग:चउदह सुंदरकंडे एक्काहिय वीसजुज्मकंडेण |
इह भारह-पुराणु सुपमिदउ, उत्तरकंडे तेरह सन्धीयो णवइ सन्चाउ ॥छ॥
मिचरिय-हरिबंगाइद्धउ । लिपिकार प्रशस्ति
वीर-जिणे भवियहो अक्विउ, संवत् १५५४ वर्षे वैशाख सुदि १५ सोमवार ग्रन्थ
पच्छइ गोयमसामिण रविवउ । संख्या १२००० ।
सोहम्में पुणु जबूसामें, २-रिटणेमिचरिउ [हरिवंश पुराण]-महाकविस्वयंभू, विण्हुकुमारे दिग्गयगामें । आदिभागः
दिमित्त अवरजिजय णाहें, सिरि परमागम-णालु मयल-कला-कोमल-दलु ।
गोवद्धणेण सुभद्दहवाहें। करहु विहसणु करणे जयव कुरुव-कुलुप्पलु ॥
एम परंपराई अणुजन्गउ,
श्रायरियह मुहाउ श्रावग्गउ । चितवइ सयम्भु काई करमि,
सुणु संखेव सुत्त अवहारिउ, हरिवंस-महण्णउ के तरम्मि ।
विउमें सय में गहि वित्थारउ, गुरु - वयण - तरंडउ लधु णवि,
पद्धडिया छन्दै सुमणोहरु । जम्महो विण जोइउ कोवि कवि।।
वियण-जण-मण-सरण-सुहकरु, एउ णाइड वाइत्तरि कलाउ,
जस परिससि कहिं जं सुएउ । एक्कु विण गंधु परिमोक्फजाउ।
तं तिहुय-सयंभु किउ पुग्णर, तहिं अवसरि सरसह धीरवइ,
तासु पुत्त पिउ-भर-णिवाहिउ ।
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वर्ष १४
जैनथ-प्रशस्तिसंग्रह
पिय-जसु णिय-जसु भुवणे पसाहिउ,
इन्थ सुदंसण-चरिए पंचणमोकार फल-पयासरे गय तिहुयण-सयम्भु सुरटाणहो ।
माणिकरणंदि-तइविज्ज-सीसु-गायणंदिणा रइए असेस जं उबरिउ किंपि सुणियाणहो।
सुर संयुयं णवेवि वढमाणं जिणं तउवि पट्टणं गरयतं जबित्ति मुणिहि उद्धरियउ,
परिछयो पव्वयं समोसरण संगय महापुराण-प्राउन्थणं इमाण शिए वि मुत्तु हरिवंसच्छरियउ ।
कय पढमो संधि मम्मत्तयो । संधि , णिय गुरु-मिरि-गुणकित्ति-पमाए,
अन्तिमभाग:-- कि परिपुण्णु मणहो अगुराए।
जिणंदस्स वीरस्स तित्थे महंते । सरह सणेदं (सहससंण) सेठि-आएसें,
महा कुंदकुंदण्णए एत संते । कुमर-णयरि प्राविउ-सविसेसें ।
ससिक्वाहिहाणो तहा पोमणंगी। गावगिरिहे समीवे विसालए,
पुणो विण्हुणंदी तवो गंदणंदी पणियारहे जिणवर-चेयालए ।
जिणुदिट्ठ-धम्म धुराणं विसुद्धो। सावयजणहो परउ वक्वाणउ,
कयाणेय गंथो जयंते पसिद्धो। दिद मिच्छत्त मोहु अवमाणिउ ।
भवांबोहि पोत्रो महाविस्सणंदी ज अमुणते इह मइ साहिउ,
खमाजुत सिद्ध तउ विसहणंदी ॥१॥ तं सुयंदवि खमउ अवराहउ ।
जिणिंदागमाहासणो एय-चित्तो । णदउ परवइ पय-पालन्तहो,
तवायारणिट्ठाय लद्धीय जुत्तो। एंदउ भवियण-कय उच्छाहतो।
रिंदामरिंदेहि सो गंदवंदी। यंदउ परवइ पय-पालंतहो,
हुश्रो तस्स सीसो गणी रामणंदी ॥२॥ णंदर दय-धम्मु वि अरहतहो।
असेसाण गंथम्मि पारम्मि पत्तो, कालं वि य णिच्च परिसक्कर,
तवे यंग बीभव्व राईव मित्तो। कासुवि धणु कगु दिनु ण थक्कउ ।
गुणावाम-भूश्रो सु-तेलोक्कणंदी। भवमासि विणामिय-भवकलि,
महापडिऊ तस्स माणिक्कएंदी । हुउ परिपुण्ण चउद्दमि हिम्मलि
(तइविज्ज-सीमो कई णयणंदी,) पत्ता-इय चउविह सप्पह, विहुणिय-विग्घहं,
भुयगप्पहाऊ इमो णाम छंदी ॥२॥ पिण्णासिय-भव-जर-मरणु ।
पत्ताजमवित्ति-पयासणु, श्रखलिय-सासणु
पढम मीसु तहो जायउ जगविक्वायड मुणि एयणंदीअर्णिदट पयडउ मंतिसयंभु जिणु ॥१७॥ इय रिठणमिचरिए धयलइयासिय-सयंभुएच-उव्वरिए।
चरिउ सुदंसण शाह हो तेरण प्रवाहहो विरइउ बुह अहिणंदिउ
चा तिहुवण-सयंभु-रइए समाणियं कण्हकित्ति हरिवंसं ॥१॥
अाराम गाम-पुरवर-णिवेस। गुरु-पच्च-वासभयं सुयणाणाणुक्कसं जहां जाय।
सुपसिद्ध इ.वंतीणाम देस ॥४॥ सयमिक्क-दुदह-अहियं सन्धीयो परिममत्तायो ॥२॥
सुरवइ-पुरिम्ब विबुहयण इह । इति हरिवंशपुराणं समाप्त । सन्धि ११२
तहिं अस्यि धारणयी गरिछ । ३-सुदंसणचरिउ(सुदर्शनचरित)नयनंदी रचनासं०१५००
रण दुद्धरु अरिवर सेलवज्ज । आदिभाग:--
रिद्धिए देवा सुर-जणिय-चोज्ज ॥१॥ णमो अरिहंताणं णमो सिवाणं णमो श्राइरियाणं ।
विहुवण णारायण सिरिणिकेउ । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव साहुणं ॥१॥
तहिं णरवर पुंगमु भोयदेउ । इह पंच णमोकारह लहेवि गोवहु वउ-सुदमणु ।
मणि-गण पह-दूसिय-रवि-गभस्थि । गउमोक्खहो अक्खमि तहो चरिउ वचउ वग्गपयासणु ॥
तहिं जिणहरु बबू-विहार अस्थि ॥६॥ xxxx
थिव विक्कम कालहो क्वगएसु ।
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अनेकान्त
[ वर्ष १४
एयारह संवच्छर-सएसु।
घत्ता-रिसि गुरुदेव पसाए कहिउ असेसुवि चरित्त मई। तहि केवलि चरिउ अमयच्छरेण ।
पउमकित्ति मुणि-पुंगवहो देउ जिणेसह विमलमई ॥ णयणंदी-विरयउ विन्थरेण ।
जइवि विरुद्ध एयं णियाणबंध जिणेद-उवसमए । जो पढइ सुणइ भावइ लिहेइ ।
तहं वि तहय चलण कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ॥ सो सामय-सुहु अइरे लहेइ ।
रइयं पासपुराणं भमियापुहमी जिणालया दिट्ठा । पत्ता-णयणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहोणर-देवा मर वंदहो। एहिय जीविय-मरणे हरिम-विसामो ण पउमस्सा देउ दिणमइ णिम्मलु भवियह मंगल वाया जिणवर इंदहो। सावय-कुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कहत्त' च ।
पुत्थ सदसणचरिए पंचणमोक्कार-फल पयासयरे ण्याइ तिगिण जिणवर भवि भवि (महु) होउ पउमस्स ।। माणिक्कथंदि-तविज्जसीमु-णयदिणा रइए गइंद,
णव-मय-णउवाणुइए कत्तियमासे अमावसी दिवसे । परि वित्थरो सुरवरिंद थोत्त' तहा मुर्णिद सहमंडवंत-मुविमोक्व
लिहियं पासपुराण कईण णामं पउमस्स ॥ वासे ठामे गमणमो पयफलं पुणो सयल साहूणामावली इमाण १
, सधिः अष्टादश ॥१८॥ इति पार्श्वनाथचरित्र समाप्त कय वण्णणो संधि दो दहमो सम्मत्तो ॥छ। सधि १२ ५-धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) बुध हरिषेण ४-पासपुराण (पार्श्वनाथपुराणं) पद्मकीर्ति
रचनाकाल सम्बत् १०४४ रचनाकाल स० ६६९
अादि भागः
आदि भागः
मिद्वि-पुरंधिहि कंतु सुद्ध तणु मण-वयणें । चउवीस वि जिणवर सामिय,
भत्तिए जिणु पणवेवि चिंतउ बुह-हरिसेणें ॥ सिव-सुह गामिय पविवि अणुदिणु भावें ।
मणुय-जम्मि बुद्धी किं किज्जइ, पुणकहं भुवण पयास हो,
मणहरु जाइ कव्वु ण रइजइ । पयडमि पास हो जणहो मज्म सहावें ॥3॥
त करत अवियाणिय अारिस, अन्तिम भागः
हामु लहर्हि भड रणि गय-पोरिस ।। अट्ठारह संधिउ इय पुराणु, तेपट्ठिपुराणे महापुराणु ।
च मुह कम्व-विरयणि सयंभुबि, सय तिणि दहोत्तर कडवयाई, णाणाविह छह मुदावयाई ॥
पुष्फयंतु अण्णाणु णिसुभिवि । तेवीसमयई तेवीसयाई, अक्वरई कहमि सविसंमयाई।
निरिण वि जोग्ग जेण तं सीसइ, इउ पत्थु सत्थु गंथह पमाणु फुडु पयडु असमु वि कय पमाणु॥
चउमुह-मुहेथिय ताव सरासइ ।। सुपसिद्ध महापहु णियमधरु ।।
जो सयंभू सो देउ पहाणउ, माथुरहं गच्छिउ पुहमिभरू ।
श्रह कयलोयालोय-वियाणउ । तहो चन्दसेणु णामेण रिसी,
पुफियंतु णवि माणुसु वुखद, वय-संजम णियमइ जाउ किसी ॥
जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ॥ तहो सीसु महामइ णियमधारि,
ते एवंविह हउं जडु माणउ, एयवन्तु महामइबम्भचारि ।
तह छन्दालंकार विहूणउ । रिसि माइउसेणु महाणुभाउ,
पार्श्वपुराणकी अन्तिम प्रशस्तिके ये चार पथ कारंजा जिणसेण सीसु सुणु तासु जाउ ॥
भण्डारकी सं० १४७३ की लिखितमें नहीं पाये जाते, प्रतः तहो पुव्व सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णु सीसु जिणु जासु चित्ति । रचनादि सम्बत्को लिए हुए होनेके कारण इस प्रशस्तिको ते जिणवर-सासण-भाविएण,कइ-विरइय जिणसेणहोमएण॥ यहां स्थान दिया गया है। गारवमय-दोस-विवज्जएण, अक्खर-पय-जोडिय लज्जिएण। -लेखकने भूलसे आमेर भण्डारकी प्रतिमें सन्धिकुकहत्तु वि जणे सुकइत्तु होइ, जई सुवणइंभावइ एत्थ लोइ॥ वाक्योंको उक्त चार गाथाओंके उपर दे दिया है जो किसी 'अम्हई कुकइहिं किंपि वुत्तु, खमिएव्वउ सुयणहो तं णिरुत्त ॥ गल्तीका परिणाम जान पड़ता है।
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वर्ष १४]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३७
कन्वु करंतु केम णवि लजमि,
ते दहि जे लिहइ लिहावइ, तह विसेस पिय जणु किह रंजमि ॥
ते दहि जे भत्तिह भावहि । तो वि जिणिंद-धम्म-अगुराएँ,
जे पुणु के बिहु पढहि पढावहि, बुहमिरि-सिद्धसेण-सुपसाएँ।
ते णिय-पर-दुहु दूरे लुटावहि ॥ करमि सयं जि लिणि-दल थिउ जलु,
एयहो अत्थु के वि जे पयडहिं, अणुहरेइ णिरुवमु मुत्ताहलु ॥
ताण णिरंतर सोक्खहि सुहडहिं । पत्ता-जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबन्धि ।
जे णिसुणेवि परिक्खए भत्तिए, साहम्मि धम्मपरिक्ख सा पद्धड़िया-बन्धि ॥१॥
ते जुज्जहि हिम्मल मह सत्तिए ।
सयल पाणिवग्गहो दुहु हिज्जइ, इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्टियाए वित्ताए बुहहरिषेण
सोम समिढिए महि सोहिज्जइ। कए पढमो सन्धी परिसमत्तो ॥ संधि ।
परहिय करणि विहंडिय-ग्रंहहो, अन्तिम भाग:
होउ जिणत्तणु चउविह संघहो ॥ इह मेवाड-देसि-जण-संकुलि,
पयडिय बहु पयाव अरिवारें, सिरिउजहर-णिग्गय-धक्कड-कुलि ।
यंदउभूवइ सहु परिवारें। पाव-करिंद-कुम्भ-दारण हरि,
धम्म पवत्तणेण दुह-हारें, जाउ कलाहिं कुसलु णामें हरि ।।
दउ पय बहुविह ववहारें। तामु पुत्त पर-णारि-सहोयरु,
पत्ता-सखए दुसहसुसाहिउ सदरिया हिउ इउकह रयणु अगव्वह।। गुणगण-णिहि कुल-गयण-दिवायरु ।
जो हरिसेण धराधर उयहि गयणधर ताम जणउसु-भव्वहं॥ गोवढणु णामें उप्पएणउ ।
इय धम्म परिक्खाए चउवग्गाहिट्टियाए बुह-हरिसेण जो सम्मत्त-रयण-संपुण्णउ ।
कयाए एयरसमो संधि समत्तो ॥ सन्धि ११॥ तहो गोवड्ढणासु पिय गुणवइ, जो जिणवर-पय णिच्च वि पणवह ।
६-जंबूसामिचरिउ [जंबूस्वामीचरित] कविवर वीर ताए जणिउ हरिसेणे णाम सुउ,
रचनाकाल संवत १०७६ जो संजाउ विबुह-कइ-विस्सुउ ।
आदिभाग:मिरि-चित्तन्डु चइ वि अवलउरहो, विजयंतु वीर-चरणग्गि-चंपए मंदिरंमि थरहरए । गय उ-णिय-कज्जे जिणहर-पउरहो। कलम चलंतं तोए सुतरगि-लग्गंत-बिंदु-छंकारा ॥१॥ तहिं छंदालंकार-पसाहिय,
सो जयउ जस्स जम्माहिसेय-पय-पूर-पडुरिज्जतो। धम्मपरिक्ख एह ते माहिय ।
जणियहि मसि हरिसको कणयगिरि राइओ तया ॥२ जे मज्मन्य-मण्य प्रायएणहिं,
जयउ जियो जस्मारुण-णह-मणि-पडिलग्ग-चक्खु सह सक्यो। ते मिच्छत्त भाउ अवगएणहिं ।
अणिइच्छिय सब्वावदुयवस्थ-परिकलिय-लोयणो जाओ ॥२॥ ते सम्मत्त जेण मलु विज्जइ,
समिरसु अवेय भामिय जोइमगण-जणिय-रयणि-दिणि-संके। केवलणाणु ताण उप्पजइ ॥
इय जयउ जस्स पुरो पणच्चियं चारु मुरवइणा ॥४॥ घसा-तहो पुणु केवलणाणहोणेय-पमाणहो जीव पएमर्हि सुहडिउ, सो जयउ महावीरो माणाणल-हुणिय-रइ सुहो जस्स । बाहारहिउ अणंनउ अइपयवंतउ मोक्ख-सुक्खु-फलुपयडियउ॥ णामि फुरद भुषणं एक्कं एक्खत्तमिव गयणे ॥२॥ विक्कम-णिव-परिवत्तिय कालए,
जयउ जियो पासटिठय शमि-विणमि-किवाण-फुरियपडिवियो। गयए वरिस सहस चउतालए।
गहियाणं रूव-जुयलोव्व ति-जय-मगु सामित्रो रिमहो ॥६॥ इउ उप्पएणु भवियजण सुहयरु,
जयउ सिरिपासणाहो रहा जम्संग णीलमाभिएको । हंभ-रहिय धम्मासय-सायरु ।।
फलियो तडि बिडिय णव-घणोच्च मणि-गम्भिणो फणकडप्पो
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३८]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
:
इह अत्थि परम-जिण-पय-सरणु,
अचिय:गुडखेड विणिग्गउ सुहचरणु ॥१॥
सेटिठ सिरि तक्म्वडेण भणियं च नमो समन्थमाणेण । सिरिलाडवग्गु तहि विमल जसु,
वड्ढइ वीरस्स मणे कइत्त-करणुज्जमो जेण ॥१॥ कइदेवयत्तु निवुड्ढ कसु ।
मा होंतु ते कईदा गरुय पबंधे वि जाण निम्बूढा । बहु भावहिं जे वरंगचरिउ,
रमभाव मुग्गिरंसी विथरई न भारई भुवणे ॥२॥ पद्धडिया बंधे उद्धरित।
संतिबाई वाईविहु वगणुक्करि सेमु फुरिय-विण्णाणो कवि गुण-रस-रंजिय-विउस सह,
रस-सिद्धि संठियत्थो पिरलो वाई कई एक्को ॥३॥ विस्थारिय सुद्धय वीरकह।
विजयंतु जग कइणो जाण वाणी अइट पुश्वत्थे । भब्बरिय-बंधि विरइड सरसु,
उज्जोइय धरणियलो साहइ वहिव्व णिब्बई ॥४॥ गाज्जइ मतिउ तारु जसु ।
जाणं समग्ग सहो हमे हुउ रमइ मइ फडक्कम्मि । नच्चिज्जइ जिण-पय सेवाह,
ताणं पिहु उवरिल्ला करस व बुद्धी परिप्फुरई ॥५॥ किउ रासउ अचादेवि यहि ।
इय जबुस्वामिचरिए मिगार वीर-महाकवे महाका सम्मत्त-महा-भर-धुर-धरहो,
देवयन-सुअ-वीर-विरइए सणिय-समवसरणागमो णाम तहो सरसइ-देवि लद्ध-वरही।
पढमो संधि ॥१॥ नामेण वारु हुड विणयजुत्रो,
अन्तिम प्रशस्ति:संतुव गभब्भ पढमसुत्रो ।
नरिसाण सय-चउक्के सत्तरि-जुत्ते जिणिंद-वीरस्स । पत्ता-अलिय-सर-पक्कय, कइकलिवि श्रापुसिउ सुउ पियरें।
शिवाण उच्चण्णे विक्कमकालस्म उप्पत्ती ॥१॥ पायय पर वल्लहु जणहो, विरइज्जउ किं इयरें ॥४॥
विक्कम णिव कालायो छाहत्तरि दस-सएसु वरिमाणं । अह माग्वाम्म धण-कण दरसी,
माहम्मि मुद्ध-पक्वे दसमी-दिवमम्मि संतम्मि ॥२॥ नयरी नामेण सिंधु-बरिसी।
सुणियं पायरिय - परंपराए वीरेण वीर णिहिठं । तहिं धक्कड़-वग्गे वंस-तिलउ,
बहुलल्थ-पसन्थ-पयं पवरमिणं चरियमुद्वरिय ॥३॥ मह सूयण णंदणु गुणणिलउ॥
इच्छे (इटे)व दिण मेहवण- रट्टणे वड्ढमाण जिण-पडिमा णामेण संहि तक्खडु वसई,
तेणा वि महा कइणा वरिण पर्या-या पवरा ॥॥ जम पडहु जामु निहुयणि रसई ।
बहुराय-कज्ज-धम्मन्थ-काम गोट्ठी-विहत्त समयम्य । मह कइ देवदत्ता परम सुही,
वीरस्म चरिय - करणे इक्को सवच्छरो लग्गो ॥२॥ तें भणिउ वीरु-वय सुवण-दिही ॥
जस्स कय-देघयत्तो जणणो सच्चरिय-लद्धमाहप्पो । चिरु कइहि बहुलगंधुद्धरिउ,
सुह-सील सुद्धमो जणणी सिरिसंतुआ भणिया ॥६॥ संकिल्लाहि जंबुसामिचरित।
जस्स य पमण्ण वयणा लहुणो सुमह स सहोयरा निषिण । पडिहाइ न वित्थर अज्जु जणे,
सीहन्नलकणंका जसइ-णानेति विक्वापा ॥७॥ पडि भणइ वीरु सकियउ मणे ।।
जाया जस्म मणिट्ठा जिवइ पोमाव: पुणा बीया । भो भन्वबंधु किय तुच्छ कहा,
लीलावइत्ति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ रंजेसह केमवि सिट्ठ सहा ।
पढम कलत्त गरुहो संत्ताण कइत्त विउवि बारोहो। एत्यंतरे पि सुणसीह सरहो,
विणय-गुण-मणि-णिहाणो तणउ तह णेमिचंदोत्ति । तक्खडु कणिठु बोल्लइ भरहो।।
सो जयउ कह वीरो वोरजिणंदस्स कारियं जेण । विस्थर संखेवहु दिव्व झुणी,
पाहाणमयं भवणं पियरुद्द संण मेहवणे ॥६॥ गुरु पारउ अंतरु वीरु सुणी।
अह जयउ जस्म णिब्वासो जसणाउ पंडिउत्ति विक्खायो। पत्ता-सरि-सर-निवाणु-ठिउ बहु विजलु,सर सुन तिह मणिपज्जइ वीर जिणालय सरिसं चरियमिणं कारियं जेण ॥१०॥ पोवढं करयत्थु विमलु जणेण,अहिलासें जिह पिज्जइ ॥२॥
इति जंबूसामिचरियं समत्त ।
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S
वप१४ ] जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३६ ७-कहा कोसु (कथाकोप )श्रीचन्द
गणियंति णियंत प्रयाणमणा, आदि भाग--
पर पुरिसु पलोयइ सवणियणा ॥ ओनम पणवेवि चित्त थवेवि णटुट्ठादम दोसु ।
पत्ता- इय बुथि विपत्त पुण्ण पवित्त, लोयत्तय वंदु देउ जिणेंदु श्राहासमि कहकोसु ॥
दिज्जइ मई विलमिज्जा।
पत्तिउ फलु अत्थे जणिमाणल्थे, पणप्पिणु जिणु सुविसुद्धमई,
जं दुत्थिमणि वइज्जइ ॥. चिंतइ मणि मुणि सिरिचंदुकई । संसार असार सव्वु अथिरु,
अन्तिम प्रशस्तिः पिय-पुत्त -मित्तु माया तिमिरू ॥ संपय पुणु संपहे अणुहरइ,
सर्वज्ञ-शासने रम्ये धोरायौध-विनाशने । खणि दीसइ खणि पुणु अपरइ ।
धर्मानेक-गुणाधारे सृस्थे सुरसंस्तुते ॥ १ ॥ सुविणय समु पेम्मु विलासविही,
श्रण हिल्लपुरे रम्ये सज्जनः सज्जनोऽभवत् । देहु वि खणिभंगुर दुक्वतिही॥
प्राग्वाटवंश-निष्पन्नो मुकारन-शतामणीः ॥२॥ जोवणु गिरि वाहिणि वेयगड,
मूलराज-नृपेन्द्रस्य धर्मस्थानस्य गोष्ठिकः । लायएणु वएणु कर सलिल सउ ।
धर्ममार- धराधारः कूर्मराज-समः पुरा ॥३॥ जीविउ जल-त्रुध्वय फेण णिहु,
वृष्णनामा मुतस्तस्य गुणरत्न महोदधेः ।
बभूव धर्म-कर्मण्ये जनानां मौलिमंडनं ॥४॥ हरिजालु वरन्तु अवज गिहु ।। अवरुवि जंकिंपिवि अन्थि जणे,
निद्रान्वय-महामुक्का-मा ज्ञायां नायकोपमः । तं तं घाहिव्व पलाइ खणे।
चतुर्विधस्य संघस्य दान-पीयूष वारिदः ॥५॥ इंदिय सुह सोक्वाभासु फुडु,
श्वम्मकाजयनी तस्य कृष्णस्येव सुमंद्रिका । जइ णं तो संवइ किरण पदु॥
राणूनाम प्रिया साध्वी हिमांशोरिव चन्द्रिका ॥ ६ ॥
तस्यां पुत्रभयं जातं विश्व-सर्वस्व-भूषणं । घत्ता- इय जाणि वि णिच्चु सच्चु अणिच्चु, मणु विमानु ण विचिड ।
बीजासाहणपालाग्यो सोढदेवही स्तृतीयकः ॥ ७॥ जे दागुण दिनु णउ तउ चिराणु,
चतवश्व मुतास्तस्या धर्म-कम्मैककोविदाः । नेणप्पा एउचि॥
श्री शृगारदयां च सूमोग्बूरिति कमात् १ ॥८॥ बहु दुबखेणजिउ बलि भिज्जणु,
कलिकाल-महाव्याल-विष व्यालुप्त चेतसः । मुय मणुय हो पउवि ण जाइ घणु ।
जैनधर्मस्य संपना जीवास्तु स्तन मुंदका ॥१॥ बंधव-यगु लज्जइ णो सरइ,
महाश्रावक-कृष्णस्व संतानेन शुभात्मना । सुहु सन्थभूउनामग्गुमग्इ ॥
व्याख्यायितः कथाकोशः स्वकर्म-दायहेतवे ॥१०॥ सह भूउ साया जो पोम्पियउ,
कुन्देंदु-निर्मले कुंकुंदाचार्यान्वयेऽभवत् । सो देहुवि दुग्जण विनमियउ ।
धर्मो मृत्तः स्वयं वा श्रीकीर्तिनामा मुनीश्वरः ॥११॥ एउ जाइ मम ना फेम वरू,
तस्मात्तमोपहः श्रीमान्स प्रभावोऽति निर्मलः । वसु-पुत्त-कलत्त बंधु-रिण्यरू ॥
श्रतकोनिः समुत्पना रनं रत्नाकरादिव ॥१२॥ अणुगमइ मुहासुहु केवलउ,
विद्वान्समस्तशारत्रार्थ-विचारचतुराननः । परभव पाहुणयही संबलउ ।
शरच्चन्द्रकराकार-कीर्तिव्याप्त-जगत्त्रयः ॥१३ वाचार करइ पवाण कए,
व्याख्यातृत्व-कविन्वादि-गुणहंसकमानमः । श्रणुहवइ दुवखु पर एक्कु जए ।
सर्वज्ञ-शामनाकाश-शरन्पारण-चन्द्रमाः ॥१४॥ पच्छा साइज्जइ भाइयहि,
गांगेय भोजंदवादि-ममम्त-नृप-पुंगवै । धणु पुत्त-कलित्तहिं दाइयहिं ।
पूजितोत्कृष्ट पादार विदा विध्वस्त कल्मषः ॥१५
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४० ]
[ वर्ष १४
भव्य पद्माकरानन्दी सहस्रांशुरिवापरः । घत्ता - सो सिरिचंद सुरिंद फणि रिंद वंदिय पयउ । art गुणाकरः कीर्ति सहस्त्रोय पदोऽजनि ॥ १६ ॥ star सुक्ख वासु होइ देव परमप्पड ॥ ३३ ॥ कपूर- रोज्ज्वल-चारुकीर्तिः सर्वोपकारोयत-चित्तवृत्तं । इय पंडिय सिरिचंदकए पयडियकोऊहलसए सोहणभावशिप्यः समार|धित वीरचन्द्रस्तस्य प्रसिद्धो भुवि वीर्यचन्द्रः १७ पव्वत्तए परितोसिय-बुह चित्त दं कह यरण करंडए
सूरेश्चारित्र सूर्यस्य तस्य तत्त्वार्थवेदिनः ।
मिच्छत्त-पउहिं तिरंडिए कोहाइ- कसाय-विहंडए सत्थम्मि महागुण- मंडप देव-गुरु-धम्मायण- गुणदाम-पयासणे णाम पढमपरिच्छेश्रो समत्तो ॥ संधि १ ॥
अन्तिम भाग:
विवेक वसति विद्वान् सोऽस्य श्री चन्द्रोऽभवत् ॥१८॥ भव्य प्रार्थनया ज्ञात्वा पूर्वाचार्यकृतां कृतिः । तेनायं रचितः सम्यक् कथाकोशोऽति सुन्दरः ॥१३ यत्र स्वलितं किंचित् प्रमाद वशतो मम । तत्क्षमंतु क्षमाशीलाः सुधियः सोधयंतु च ॥२०॥ यावन्मही मरम्मी मरुतो मदरोरगाः । परमेष्ठी पावनो धर्मः परमार्थ- परमागमः २१ ॥ यावत्सुराः सुराधीशः स्वर्गचन्द्रार्क- तारकाः । तात्काव्यमिदं स्थेयाच्छ्रीचन्द्रोज्वल कीर्तिमत् ॥२२॥ (सनकरण्ड श्रादकाचार)
पण्डित श्रीचन्द्र, रचना काल सं० ११२३
८ - रयणकरंडसावयायार
आदिभाग:
सो जयउ जम्मि जिणो पढमो पढमं पयासिउं जेण । ईसु पडता दिणंकर - लंवा धम्मो ॥१॥ सो जयउ संतिणाहो विग्धं सहस्साइं णाममित्तेण । जस्सावहन्थिऊणं पाविज्जइ ईहिया सिद्धी ॥२॥ जयउ सिरि वीरइंदो अकलंको अक्खो शिरावरणो । म्मिल - केवलणाणो उज्जोइय पयल- भुवणयलो ॥ ३ ॥ सिद्धि विजय बुद्धि तुट्ठ पुट्ठि पीयंकर । सिद्ध सरूव जयंतु दिंतु चडवीस वि तित्थंकर ॥४॥ धत्ता- श्रवरवि जे जिइंदा सिद्ध-सूरि पाठ्य वर | संजय साहु जयतु दिंतु बुद्धि महु सुदर ॥१॥
अनेकान्त
पण वेष्पिणु जिण वयगुग्गया विमलई पयाइं सुयदेवया । दंसण-कह-रयर करंडुणाभु श्राहासमि कन्वु मणोहिरामु । एक्केक पहाणु महा मइल्ल इत्थन्थि प्रणेय कई छइल्ल | हरिमंदि मुणिंदु समंतभद्द, अकलंक पयो परमय- विम । मुकुलभूसर पायपुज्ज, तहा विज्जागं दुखणं तविज्ज वध ? रसेगु महामइ बोरसेगु जिरण सेणु कुबोहि· विहंजसेगु गुणभवकुह उच्छमल्लु सिरि सोमर । उ परमय- स-सल्लु
मुह चउमुहु व पसिद्ध भाई कहराइ संयंभु सयंभुणाई । तह पुष्यंतु म्मुकोमु वणिज्जद्द किं सुयएवि कोसु । सिरिहरिस - कालिया साईं सार, अवरुवि को गणह कइधकार | ही हि मइ संपद्द श्रारिसेहि किं कीरइ तहिं अम्हारिसेहिं ।
परमार वंस-मह गुण उरई । कुंदकुंदाइरियो इं । देसीगण पहाणु गुण गणहरु, अवइणउ णावइ सइ गणहरु || तत्र पहा वि भाविथ वामउ, धम्माण विणिय पावासउ । भव्वमणो लिखाण दिणेमरु, सिरिकित्ति तिसु चित्त मुणासरु ॥ तासु सीस पंडिय - चूडामणि, सिरि-गंगेय- पमुह पउरावणि । पोलत मिय सुहया सरोरु कुमुखि, हुलि मय गया सहासकुसल ॥ वरस - पम्परय - साहिय महियलु, यि महत्त-परिशिज्जिय- साहयलु । विसंघ महाधुर-धारण, दुम्ह काम सर- घोर - शिवारण ॥ धम्मु व रिसि जस रूचउ, सिरि- सुर्याकित्ति - णाम संभूयउ । तासु वि परवाइय-मय-भंजणु, गाणा बुयर्माणि श्रणुरंजणु ॥ चारु-गुणोहर-मण-रयखायरु, चाउरंग-गण वच्छल्लय यरु । इंदिय चंचल मयहं मयाहिउ, चउकसायसार गमिगाहिउ || सिरिचंदुज्जल-जस संजाय, शामें सहसकित्ति विक्खायउ । धत्ता-तहो देव इंदुगुरु सीसु हुउ,
बीउ वासव मुणि वोरिंदु ॥ उदयकित्तीवितहा तुरिय, सुहइंदु वि पंचमउ भणि उ ।
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सम्पादकीय
गत वर्षकी १२वी किरणमें पत्रके प्रधान सम्पादक गतवर्ष इसी कार्यको सुन्दर बनाने के निमित्तसे श्रीमान् श्रीमान् प्राचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने सम्पादकीय बाछोटेलालजो अध्यक्ष पोरसेवामन्दिर कलकत्तासे दिल्ली वक्तव्यमें 'अनेकान्तकी वर्ष समाप्ति और कुछ निवेदन' आकर पूरे पांच माह ठहरे थे। अनेकान्तके अ.प दूसरे शीर्षकके अन्तर्गत यह प्रकट किया था कि-'इस नये सम्पादक है। एक तो आप शरीरसे जन्मजातही कृष एवं भयंकर रोगके धक्केसे मेरी शक्रियाँ और भी जीर्ण-शीर्ण हो दुवंश हैं: फिर दिल्लीको भयंकर गर्मी में रात-दिन भवनगई हैं। इसीसे शरीरमें शक्रिके पुनः संचार एवं स्वास्थ्य निर्माणके कार्यमें व्यस्त और मार्थिक समस्याको हल करने के लाभकी दृष्टिसे मैं कम-से-कम एक वर्ष के लिये सम्पादकाद- लिये व्यग्र रहने के कारण पाप रोग-प्रस्त हो गए, और पम्तमें से अवकाश ग्रहण कर रहा है। अतः इस किरणके साथ भवन-निर्माण के कार्यको अधूरा छोड़कर ही पापको कलकत्ते अपने पाठकोंसे विदाई ले रहा हूँ । यदि जीवन शेप जाना पड़ा। वहां पहुंचकर भी प्रथम तो एक लम्बे समय रहा, तो फिर किसी-न-किसी रूपसे उनकी सेवामें उपस्थित तक अस्वस्थ ही रहे, और स्वस्थ होते ही अन्यकार्यों में व्यस्त हो सकूगा । पुन: इसके अनन्तर 'अनेकान्तका हिसाब और हो गए। पुनः ऐतिहासिक खोज-शोधके कार्यके लिये मद्रास घाटा' शीर्षकमें अनेकान्तके प्रकाशनमें होने वाले घाटेका चले गए। इत्यादि कारणोंसे वे भी अनेकान्तके लिये कोई जिक करके अगले वर्षकी समस्या' शीर्षकके भीतर यह लेखादि लिखकर नहीं भेज सके। प्रकट किया था कि इस घाटेको स्थितिमें पत्रको धागे कैसे तीसरे मम्पादक श्रीमान् बाबू जयभगवानजी एडवोकेट प्रकाशित किया जाय। इसके सम्बन्ध में उन्होंने अपने और पानीपत है। आप वीर सेवामन्दिरके मंत्री भी है। साहिअन्य लोगोंके कुछ सुझाव भी प्रस्तुत किये थे-जिनमेंसे त्यिक और ऐतिहासिक शोध-खोजके कार्यो अत्यन्त रुचि पहला तो यह था कि 'पत्रको त्रैमासिक करके एकमात्र होने पर भी वकालतका पेश होने के कारण उन्हें अदालतसे माहित्य और इतिहासके कामोंके लिये ही सीमितकर दिया ही अवकाश कम मिलता है। फिर इधर कुछ वर्षोंसे दमेका जाय ।' और दूसरा यह भी था कि 'पृष्ठसंख्या कमकरके दौरा भी चल रहा है । गाईस्थिक चिन्तायें तो उन्हें प्रारम्भपत्रको जैसे तैसे चालू रखा जाय । इस प्रकारके वक्तव्यके से ही घेरे हये रहीं हैं ? इन सब कारणोंसे चाहते हुए भी साथ १३ वर्षको १२वीं किरणको प्रकाशित किया गया था। न तो पत्रके सम्पादन में ही इन पिछले दिनों कोई योग
दे सके और कोई लेखादि भी लिख सके। इस प्रकार मुख्तार साहबने इस प्रकार उक्त वक्तव्य प्रकट करके .
अपने सम्पादक मण्डल के तीनों प्रधान सहयोगके बिना मैं केवल 'अनेकान्त से ही विदाई नहीं ली, अपितु अपनी एकदमही अपंग होगया । लेखकोंको बार-बार लिखने पर अस्वस्थता और प्रशक्तिनाके का ण वीरसेवामन्दिरके अधि
भी कहींसे कोई लेखादि तो पहलेहा दुर्लभ होरहे थे। रठाता पदकी जिम्मेदारियोंसे भी प्रकाश ग्रहण कर लिया।
फलस्वरूप एक वर्षके लिए पत्रका प्रकाशन स्थिगित करना पाठकोंको यह ज्ञातही होगा कि दिल्ली में वीरसेवामन्दिर ही सचित समझा गया और इस प्रकार पूरे एक वर्ष तक के निजी भवन निर्माणका कार्य विगत वर्षसे हो रहा है। 'अनेकान्त' बन्द रहा।
इत्यादि।
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४२]
अनेकान्त
[वष १४
इस वर्ष जून मासमें वीर सेवामन्दिरको कार्य-कारिणीकी कार्तिक (नवम्बर) मासकी तीसरी-चौथी किरण संयुक्त बैठकहां और उसमें वोर शासनजयन्तीसे अनेकान्तके पुनः रूपसे प्रकाशित करनेका निश्चय किया गया है, जिससे प्रकाशनका निश्चय किया गया। समाचार पत्रों में इसकी प्रकाशनमें जो विलम्बजन्य गरबड़ी उत्पन्न हो गई है, उसे सूचना भी कर दी गई और मैटर प्रेसमें दे दिया गया।
असम व दिया गया। दूर किया जा सके। परन्तु बार बार लिखापढ़ी करने पर भी पोस्ट मास्टर जनरल
टर जनरल अनेकान्तकी भावी रूप-रेखा तो वीरसेवा-मन्दिरके के आफिससे रजिस्ट्रेशन नम्बर नहीं प्राप्त हो सका और इस
___ उद्देशानुसार यथापूर्व ही रहेगी, किन्तु पत्रको ऊँचा उठाने प्रकार पत्र तैयार होने परभी वीर शासनजयन्ती पर सूचनाके
यानेका ममचित प्रयत्न किया जा रहा है। अनुसार पाठकोंकी सेवामें 1वें वर्षकी प्रथम किरण नहीं
उपके लिये पाठकों और लेखक महानुभावोंका उचित भेजी जा सकी।
सहयोग प्राप्त करनेका पूरा प्रयत्न किया जायगा । पोस्ट मास्टर जनरलके यहाँ से रजिस्ट्रेशन नम्बर चालू वर्षकी इस प्रथम किरण यह विशेष योजना प्रारम्भ सितम्बरके दूसरे सप्ताहके मध्य में प्राप्त हा। साथ ही की गई है कि अनेकान्तकी प्रत्येक किरणके अन्तमें एक पत्रके प्रकाशनको तारीख १५ सितम्बरको स्वीकृत होनेकी फार्मका मैटर प्रशस्ति-संग्रहका रहे। वीरसेवा-मन्दिरके सूचना मिली। उस वक्त पयूषण पर्वका समय होनेसे तत्वावधानमें अभी तक जितने ग्रन्थोंको प्रशस्तियाँ संगृहीत श्री मुख्तार साहब भी व्यावर गए हुए थे और मैं भी की गई हैं, उनमेंसे बहुत सी प्रशस्तियोंका एक संग्रह तो स्थानीय पर्युषण पर्वके प्रोग्राममें व्यस्त था। फलस्वरूप वीरसेवा-मन्दिर ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुका है। अगस्त माम वाली पहली किरणको १५ सितम्बरको भी अवशिष्ट अपभ्रंश आदिके अन्योंकी प्रशस्तियोंके प्रकाशनार्थ पाठकोंकी सेवामें नहीं भेजी जा सकी। अब श्रावण उक्त व्यवस्था की गई है। इस योजनासे पाठकोंको कसनी (अगस्त) और भाद्रपद (सितम्बर) मासकी दोनों ही नवीन बातोंकी जानकारी प्राप्त होगी और इस प्रकार किरण एक माथ १५ अक्टूबरको रवाना की जा रही हैं। उनके पास महज में ही एक 'प्रशस्ति-संग्रह' हो जायगा। इस अव्यवस्थाके कारण ही अश्विन (अक्टूबर और
-परमानन्द जैन
अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन
अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन है कि वे अनेकान्तको प्रतिवर्ष होने वाले घाटेसे मुक्त करनेके लिये अपना सहयोग प्रदान करनेकी कृपा करें। सहयोगके प्रकार निम्न हैं:) वीर सेवामन्दिरके स्थायी सदस्य बनिये, या अनेकान्तके संरक्षक तथा सहायक स्वयं बनिये और दूसरों को बनाइये । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनिये और और दूसरोंको बनानेकी प्रेरणा कीजिये। (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भिजवाइये। (४) अपनी श्रोरसे अनेकान्त भेंट स्वरूप कालेजों, लाइब्रेरियों, सभा, सोसाइटियों और जैन अजैन विद्वानोंको
भिजावाइये। (५ अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें स्वयं दीजिये और दिलाइये। (६) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजिये तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ भिजवाइये। (७) जैन पुरातत्त्व या प्राचीन हस्तलिखित सचित्र ग्रन्थोंके चित्रोंके फोटो प्रादि मेजिये।
इन सब मार्गासे ग्राहक महानुभाव अनेकान्तकी सहायता कर संचालकोंको निराकुल करनेमें समर्थ हो सकते हैं। और उस समय संचालकगण पत्रको समुन्नत बनाते हए पाठकोंकी विशेष सेवा कर सकेंगे।
प्रकाशक
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वीरसेवामन्दिरके सुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतकं प्राचीन ४६मूल-ग्रन्यांका पचानुक्रमणा, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ
उद्धृत दृसर पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाफर २५३५३ पद्य-वाक्यांकी सूची । संयोजक श्री सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वको ७० पृष्ठ को प्रस्तावनासं अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट के प्राकथन (Foreiword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए डी.लिट की भूमिका (Introduction से भूपित है, शोध-बोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
पजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगम पांच रुपये है) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यको स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति,प्राप्ताकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सु दर
परम और मजीव विवेचनको लिए हए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिस
युक्त, मजिन्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विधाको सुन्दर पांथा, न्यायाचार्य ६० दरबारीलाल जी साटायग, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांस अलंकृत, जिल्ल। " (४) स्वयम्भूम्तात्र-समन्तभद्गभारतीका अपूर्य ग्रन्थ, मुन्तार श्रीजुगलकिशारजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपार
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्पण करती हुई महत्वकी गपणापूर्ण
१०६ पृष्ठकी प्रस्तावनाम मुशोभित ।। (५) स्तुतिविवा-म्वामी समन्तभद्को अनाग्यी कृति, पापांक जीतने की कला, मटाक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशार
मुख्तारसी महत्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्ह-हिन । (३) अध्यात्म कमलमानण्टु-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी मन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित
पोर मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी ग्वाजपूर्ण ७८ पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावनास भूपित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानसे परिपूर्ण ममन्तभद्रकी अमाधारण कृति, निमफा अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था । मुस्तारधीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले यति, मजिल्द । (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तात्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महन्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित । " ॥) (६) शामनचतुस्त्रिशिता-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३ वः शताब्दीको मुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-हिन । (१५)म.चीन धर्मशा:- सार्म सनन्तमा क. गृ.म्या चार-विषयक प्रत्युरम लाबान ग्रन्थ, पुमार श्री जुगलकिशोर
जल बिधामक हिन्दी भाय और गवेषणामक प्रा . शुक, जिल्द । (११) मनाधितंत्र और इष्टापदेश-श्रीज्यपाढाचार्य की अध्यात्म-विषयक । अनूठी कलियां, ५० परमानन्द शास्त्रं
हिन्दा अनुवाद पोर मुसार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनास भृषि मजल्द (१०) गया थप्रशरि संग्र:-संस्कृत और प्राकृतिक १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंक। प्रशाम्तयों का मंगलाचरण महिन अर्व
संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों और परमानन्दशास्त्री की इतिहास-याहिन्य-विषयक परिचयामक प्रस्तावनास
अनंका, मजिल्द । (१३) अनित्यभावना-या. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तार श्रीकं हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद नया व्याख्याय युक्त। (५५, श्रवणबंगाल आर दाक्षणक अन्य जनताथ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जेन
समाधिनत्र और इष्ट.पदेश सटक सजिल्द ३), जन प्रन्थ प्रशस्त मंग्रह महावीर का सर्वोदय ता ), ममन्तभद्र विचार-दीपिका)।
ज्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर ०१ दरियागंज, दिल्ली।
"
)
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Regd. No D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
गा
संरक्षक
१०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी
११) बा. शान्तिनाथजी कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१.१) बा. निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेच ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता
१०१ बाबद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी ,
१०१) बा. काशीनाथजी, .. २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन ,
१०१ बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१.१) बा. धनंजयकुमारजो *२५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी ,
१०१) बा• जीतमल जी जैन
१.१) बा.चिरंजीलाल जीसरावगी २५१) सेठ गजरानजी गंगवाल 4 २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रांची २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी ,
१०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली
१०१)ला. रतनलालजी मादीपरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१०) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली * २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता ई २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १.१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जेन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १.१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला० बलवन्तसिंहजा, हासी जि० हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता % २५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजा चाँद औषधालय कानपुर सहायक
१०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहला R१.१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवेर कारंजा १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' । १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
सरसावा, जि० सहारनपुर
प्रकाशक-परमानजी बैन शास्त्री वीर सेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । मुबक-पवाणी प्रेस, २३. दरियागंज देवली
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सितम्बर १९५६
वर्ष १४ किरण, २
सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैनएडवोकेट परमानन्द शास्त्री
विषय-सूची १-चतुर्विशतितीर्थकर स्तुति २-अनुसन्धानका स्वरूप-[प्रो० गोकुलप्रसादजी जैन एम० ए० ४६ ३-श्रीबाबालालमनदासजी और उनकी तपश्चर्या का महात्म्य
[परमानन्द जैन ४७ ४-महाकवि स्वयंभू और उसका तुलसीदासजीकी रामायण पर
प्रभाव-[पं० परमानन्द शास्त्री ५-अतिथि संविभाग और दान [पं० हीरलालजी
सिद्धान्त शास्त्री ५६ ६-पश्चाताप-(कहानी)-५० जयन्तीप्रसादजी शास्त्री
-पुराने साहित्यकी खोज-[जुगलकिशोरजी मुख्तार ८-केकड़ी जैनसभाका स्तुत्य कार्य 1-जैनग्रंथप्रशस्ति संग्रह
चीर सेवा मन्दिर,देहली,
मल्यः ॥
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दशलक्षण-पर्वमें वीर-सेवा मंदिरके विद्वानों द्वारा धर्म-प्रभावना
पर्यषण-पर्वमें वीर सेवा मन्दिरके विद्वानोंको बुलानेकी नहीं पाया। केकड़ीसे श्रीयुत पं. रतनलालजी कटारियाने वावत कितनेही स्थानोंसे तार पर तार पाए। न्यावरसे, तो सानुरोध वेकड़ी पानेके लिए लिखा । श्री मुख्तार सा. लगातार तीन तार विशेष प्रेरणाको लिए हुए थे। उसी और श्री पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्री केकड़ी गये। वहां बीचमें पं० श्रीहीरालालजी सिद्धान्त शास्त्रीकी स्वीकृति खुरई श्री पुज्य चुल्लक सिद्धसागरजीके पधारनेसे अच्छी धार्मिक
और श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी स्थानीय नया जागृति होरही है। आप बहुत ही सरल स्वभावी मिलनसार, मन्दिर और लालमन्दिरको दी जा चुकी थी। श्रीमान् और प्रकाण्ड विद्वान् एवं त्यागी हैं, उनके दर्शन किये।
आदरणीय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार सा. विशेष कारण रातको श्री मुख्तार सा०का सार गर्मित भाषण हुआ जिससे वश फिरोजाबाद तथा कानपुर गए हुए थे। आप फिरोजा- प्रभावित होकर केकड़ीकी जैनसमाजने २५१) रुपये देकर वाद तथा कानपुरसे शनिवार ता. ६.५६को प्रातः देहली वीरसेवामन्दिरका आजीवन सदस्य बनना स्वीकार किया। पाए, संस्थांके समाचार ज्ञात किये, साथ ही ध्यावरसे आये साथ ही एक बहुत ही महत्त्वका 'प्रस्ताव, जिसमें यह हुए तारों की बात मालूम कर आपके एकदम विचार हुए, निर्णय किया गया कि विवाहादि कार्योंमें मन्दिरको दिये" कि व्यावरकी विशेष प्रेरणा है, जरूर चलना चाहिए। जिस जानेवाले दानमेंसे २१ प्रतिशत साहित्य प्रचारके लिए समय मैं अजमेरमें शास्त्र भण्डारकी खोज कर रहा था उस निकाला जाय" पास हुआ। जो इसी किरण में अन्यत्र समयसे उनका बुलानेका आग्रह बराबर बना हुआ है। हम दिया जारहा है वह सभी स्थानोंकी समाजके लिये अनुश्री मुख्तार सा के इस अदम्य उत्साह एवं लगनको देखकर -करणीय है। बादमें अजमेर आये वहां की समाजने श्री दंग रह गये और हृदयमें हर्ष एवं विशेष श्रद्धा पैदा हुई। मुख्तार सा को रोकनेका बहुत आग्रह किया, परन्तु समयाश्री मुख्तार सा०की प्रबल भावना देखकर व्याघरको तार दे भावके कारण न रुक सके । श्रीमात् पं० हीरालाजी सिद्धान्त दिया गया कि पा रहे हैं । श्रीमान् श्रादरणीय मुख्तार सा. शास्त्रीके प्रवचन और भाषण खुरईकी जैन समाजमे बहुत
और श्री०६० जयन्ती प्रसादजी शास्त्रीको साथ लेकर व्यावर पसन्द किये और उनका अभिनन्दन किया । और २०१)रु. गये, इससे वहांकी जैन समाजमें अपार हर्ष हा. लोगोंने सौ. सहायताके प्रदान किये । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीसे भाग्य माना । दिनमें प्रातः बजेसे १२बजे तक और शामको स्थानीय जैन समाजमें विशेष जागृति बनी रही। और नये ६॥ बजेसे १ बजे तक शास्त्र-प्रवचन श्री पं० जयन्ती मन्दिरको शास्त्रसभाकी ओरसे १०१)रु० भेंट स्वरूप प्राप्त प्रसादजी शास्त्रीका और भाषण श्री मुख्तार सा०का होता हए। तथा समस्त दि. जैन समाज कलकत्ताकी श्रोरसे था, व्यावरमें श्रीमान रा० ब० सेठ मोतीलाल तोतालालजी २१०) रु०की सहायता बाबू मिश्रलालजी कालाकी मारफत रानी वालोंके कारण सारे समाजमें धार्मिक-निष्ठा प्रशंसनीय प्राप्त हुई, इसके लिये वहांकी समाज विशेष धन्यवादकी है। सभी स्त्री-पुरुष, बड़े उत्साहके साथ पूजन तथा पात्र है । इस तरह वीरसेवामन्दिरको पयूषण पर्वमें ढाई शास्त्र-प्रवचनमें भाग लेते थे। श्री मुख्तार सा. तथा श्री
हजारके लगभग सहायता प्राप्त होगई। पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्रीके भाषणोंसे प्रभावित होकर
प्रेमचन्द जैन श्रीमान रा० ब० सेठ मोतीलालजी रानीवाले, श्रीमती सौ० ,
संयुक्त मंत्री-चीर सेवामन्दिर नर्वदादेवीजी ध. प. श्री रा. ब. सेठ तोतालालजी रानी
दिल्ली वाले, श्रीमान सेठ धर्मचन्द्रजी सौगानी, श्रीमान सेठ
शोक समाचार गुमानमलजी वाकलीवाल, श्रीमान सेठ मूलचन्दजी पहाव्या, तथा दि. जैन पंचायत,ने सहर्ष वीरसेवामन्दिरके
रायसाहब बाबूज्योतिप्रसादजी म्युनिस्पल कमिश्नरकी आजीवन सदस्य २५१), २५१)रु०दे देकर बनाना स्वीकार
पूजनीया माताजीका ८५ वर्षकी वृद्ध अवस्थामें ता.२. किया। इस बीचमें ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती.
अक्टूबर सन् १९५६को दिनके १२बजे स्वर्गवास होगया। भवन व्यावरका निरीक्षण किया, वहां का शास्त्र संग्रह
वीरसेवामन्दिर परिवार आपके इस इष्ट वियोग जन्य देखकर चित्त प्रसन्न हुआ । वहां का क्षमा-वाणी-पर्व तो
दुखमें सम्वेदना प्रकट करता हुआ दिवंगत प्रात्माको देखते ही बनता था ऐसा दृश्य अब तक देखनेमें ।
परलोकमें सुख और शान्तिको कामना करता है।
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अहम
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य ॥)
RA+
नीतिविरोषवसीलोकव्यवहारवर्तक सम्पत्। फरमागमस्य वीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः
वर्ष १४ । वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली
[सितम्बर, किरण, २ । भाद्रपद, शुक्ला वीरनिर्वाण-संवत २४८३, विक्रम संवत २०१३ । १९५६
चतुर्विशति-तीर्थकर-स्तुतिः
(चतुर्विंशतिसन्धानात्मिका) यह स्तुतिपय सबसे पहले जयपुरके लश्कर मन्दिर-शास्त्र-भंगर का अवलोकन करते हुए मुझे मार्च सन् १९५० को संस्कृत टीका-सहित उपलब्ध हुआ था । उसके बाद गत वर्षके भादों मासमें अजमेरके पंचायती मन्दिरशास्त्र-भंडारका अवलोकन करते हुए भी उसी संस्कृत टीकाके साथ प्राप्त हुआ है, जिसके प्रमन्तर 'एषा पंचवटी' प्रावि चार पद्य और भी सटीक है जो श्री रामचन्द्रजी आदिकी स्तुतिसे संबन्ध रखते हैं। इस स्तुतिपद्यके चौवीस तीर्थंकरों की स्तुतिको लेकर २४ अर्थ होते हैं। संस्कृत टीकामें वृषम जिनकी स्तुतिको स्पष्ट किया गया है और शेष जिवादि तीर्थकोंकी स्तुतिको उसी प्रकारसे सट कर लेनेकी प्रेरणा की गई है। इस स्तुतिमें २५ तीर्थकोंके नामोंका समावेश है । एक तीर्थकरकी स्तुतिमें शेष तीर्थंकरों के नाम उसके विशेषण रूपमें प्रयुक्त हुए हैं और वे स्तुति पदका काम देते हैं। प्रत्येक तीर्थकरका नाम किस किस अर्थको लिये हुए है यह टोकामें स्पष्ट किया गया है। इसीसे प्रस्तुत स्तुतिको उपयोगी समझ कर यहां टीका सहित दिया जाता है । साथ में पं० हीरालालजी शास्त्रीका वह अर्थ भी दिवा जाता है जो उन्होंने टीका परसे फलित करके लिखा है, जिससे हिन्दी पाठक भी इस स्तुतिके महत्वको समझ सकें।
-जुगलकिशोर श्रीधर्मो वृषभोऽभिनन्दन परः पद्मप्रमः शीतला,
शान्तिः संभव-वासुपूज्य-अजितश्चन्द्रप्रमः सुव्रतः। श्रेयान् कुन्थुरनन्त-वीर-विमलः श्रीपुष्पदन्तो नमिः
श्रीनेमिः सुमतिः सुपार्श्व जिनराट् पार्यो मलिः पातु वः॥
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४४ ] अनेकान्त
[ वर्ष १४ टोका-वृषभः प्रथम-तीर्थकरदेक वो युष्मान् पातु रक्षतु । किंविशिष्टो वृषभः श्रीधर्म:-संसारसमुद्र निमजन्तं जन्तुमुद्धस्य इन्द्र-नरेन्द्र-मुनीन्द्र-वन्दिते (पदे) धरतीति धर्मः । श्रिया अभ्युदय-निःश्रेयसलक्षणया उपलक्षितो धर्मो यस्य स श्रीधर्मः । किविशिष्टो वृषभः अभिनन्दनः-अभि समन्तात् नन्दयति निजरूपाद्यतिशयेन प्रजानामानन्दमुत्पादयती. त्यभिनन्दनः । अथवा न विद्यतें भीयं यत्र, तानि अभीनि । 'स्वरो इस्वो नपुसके । अभीनि भयरहितानि नन्दनानि अशोक-सप्तपर्ण-चम्पकादीनां समवसरणे यस्य, सोऽभिनन्दनः । पुनः किंवि०१ अरः-'ऋ गतौ' अरति गच्छति केवलज्ञानेन लोकालोकं जानास्परः। 'सवें गत्यार्थाः धातवो ज्ञानार्था' इति वचनात् । अथवा 'ऋ सू गतौ' इति धातुरदादौ क्सते, तत्र इयति गच्छति त्रैलोक्यशिखरमारोहतीत्यरः, एकेन समयेन मुक्ति प्राप्नोतीत्यरः । अथवा अर्यते मोक्षार्थिभिर्गम्यतेज्ञानिमिर्ज्ञायते इत्यरः । अथवा संसारमोक्षणे भरः शीघ्रगो वा । अथवा धर्मरथप्रवृत्तिहेतुत्वादरश्चक्रांगभूतः । अथवा अं शिवं राति ददातीति भन्यानां अरः । अथवा न विद्यते : कामो भयं वा यस्य (स) परः । पुनः किंवि०१ पद्मप्रभःपदोश्चरायोःमा लक्ष्मीः यस्य स पद्मः । प्रकृप्टा भा दीप्तिर्यस्य स प्रभः । पदमश्चासौ प्रभश्च पद्मप्रभः । अथवा पदमैनिधिविशेषैः प्रभाति प्रकर्षण शोभत इति पत्नप्रभः । अथवा पन्नः योजनैकप्रमाणसपादद्विशतहेममयकमलैः प्रभाति शोभते यः स पनप्रभः । उक्त च-हस्तिबिन्दौ मतं पद्म पद्मोऽपि जलजे मतः । संख्याऽहि-निधि-वृन्देषु पद्मध्वनिरयं स्मृतः ॥ पुनः किंवि०१शीतलः-शीतं लाति सहते छमस्थावस्थायां शीतलः । तदुपलक्षणं उष्णस्य वर्षाणां च त्रिकालयोगवान्नित्यर्थः । अथवा शीतलः-शान्तिमूर्तिः । पुनः किंवि० शान्तिः-शाम्यति सर्वकर्मक्षयं करोतीति शान्तिः । 'तिक्वतो संज्ञायामाशिषि' संज्ञायां पुल्लिगे तिप्रत्ययः । पुनः किंवि० संभवः-सं समीचीनो भवो यस्य स संभवः । वा शंभव इति पाठे शं सुखं भवति यस्मादितिः शंभवः । पुनः किंवि.? वासुपूज्यः-वासुः शक्रस्तस्य पूज्यः वासुपूज्यः। अथवा वेन वरुणेन पवनेन वा इन्द्रादीनां वृन्देन वा गन्धेन वा, या समन्तात् सुप्छु अतिशयेन पूज्यः वासुपूज्यः । अथवा वा इति शब्दः स्त्रीलिंगेषु वर्तमानः मत्रवाची वर्तते, अमृतात्मकत्वात् । तेनायमर्थः-वया ही श्रीवासुपूज्याय नमः' इति मंत्रण सुष्टु अतिशयेन पूज्यः वासुपूज्यः । पुनः किंवि०१ अजित:- केनापि काम-क्रोधादिना शत्रुणा जितः अजितः । अथवा अः सूर्यस्त निजप्रभामण्डलतेजसा जयतीत्यजितः । पुनः किंवि०१ चन्द्रप्रभः-चन्द्रा आल्हादकारिणी प्रभा यस्य स चन्द्रप्रभः । पुनः किंवि०१ सुवतः-सुष्टु शोभनानि व्रतानि अहिंसादीनि यस्य स सुव्रतः । पुनः किंवि० श्रेयान्-अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयान् । पुनः किंवि.? कुन्थुः–'कुन्थु हिंसा संक्लेशनयोः' कुन्यति समीचीनं तपःक्लेशं करोति कुन्थुः । पुनः किंवि०? अनन्तः-न विद्यते अन्तो यस्य सोऽनन्तः । पुनः किंवि०१ वीरः-शूरः। अथवा विशिष्टां ई लक्ष्मी मोक्षलक्ष्मी राति ददाति निजभकानां वीरः । पुनः किवि. विमलः-विगतो विनष्टो मलः कर्ममलकलंको यस्य स विमलः । अथवा विशिष्टा मा लक्ष्मीर्येषां ते विमा इन्द्रादयो देवास्तान् लाति निजपादाक्रान्तान् करोतीति विमलः । अथवा विगता दूरीकृता मा लक्ष्मीयस्ते विमाः । विमाः निर्ग्रन्थाः मुनयस्तान् लाति स्वीकरोतीति विमलः । अथवा विगतं मलमुच्चारः प्रस्रावश्च यस्य स विमलः । अथवा विशेषेण मं मलं लुनातीति विमलः । पुनः किंवि०१ श्रीपुप्पदन्त:-पुष्पवत् कुन्दकुसुमवत् उज्ज्वला दन्ताः यस्य स पुष्पदन्त । श्रियोपलक्षितश्चासौ पुष्पदन्तश्च श्रीपुष्पदन्तः । पुनः किंवि० ? नमिः-नम्यते इन्द्र-चन्द्रमुनीन्द्रादिभिर्नमिः । पुनः किंवि० श्रीनेमिः-नयति स्वधर्म नेमिः । श्रियोपलक्षितो नेमिः श्रीनेमिः । पुनः किंवि.सुमति:सुष्टु शोभना लोकालोकप्रकाशिका मतिर्यस्य स सुमतिः । पुनः किंवि० १ सुपावः-सुष्टु शोभने पावें वामदक्षिणप्रर्दशौ यस्य स सुपार्श्वः । पुनः किंवि०१ जिनराट-जिनानां गणधरदेवादीनां राट् स्वामी जिनराट् । पुनः किंवि० १ पार्श्वःनिजभक्कस्य पाश्व अश्यरूपेण तिष्ठतीति पावः । यत्र कुन प्रदेशे स्मृतः सन् स्वामी समीपे वयैव वर्तते पार्श्व : । पुनः किंवि०१मलि:-'मल-मल्ल धारणे' मल्यते निजशिरस्सु देवादिभिर्मलिः । अथवा मलते धारयति भन्यजीवान मोक्षपदे स्थापयति इति मलिः। ईग्विधो वृषभो देवः कः युष्मान् पातु रक्षतु । अथवा अजितः-द्वितीयतीर्थकरदेवो वो युप्मान् पातु । कथंभूतोऽजितः १ वृषभः-वृषेण अहिसानक्षयोपलक्षितेन धर्मेण भाति शोभते इति वृषभः। पुनः किंविशिष्टोऽजितः । संभवः । पूर्ववत् । एवं शेषाणां द्वाविंशतितमानां तीर्थकराणामपि स्तुतिाया।
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वर्ष १४ ] चतुर्विशति-तीर्थकर-स्तुति
[४५ अर्थ-प्रथम तीर्थकर श्री वृषभदेव आप सबकी रक्षा करें। कैसे हैं, वृषभदेव ? श्री धर्म हैंसंसार-समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करके उन्हें इन्द्र, नरेन्द्र और मुनीन्द्रों से वन्दित अभ्युदय तथा निःश्रेयस-लक्ष्मी रूप उत्तम पदमें स्थापित करते हैं। पुनः कैसे हैं. वृषभदेव ? अभिनन्दन हैंअपने अतिशय युक्त रूप-गुणादिके द्वारा प्रजाको आनन्द उत्पन्न करते हैं; अथवा जिनके समवसरणमें अशोक, सप्तच्छद और चम्पक आदि वृक्षोंके वन प्रजाको भय-रहित एवं आनन्द-सहित करते हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? अर हैं-केवलज्ञानके द्वारा लोक और अलोकके जानने वाले हैं; अथवा अघाति कोका क्षय करके एक ही समयमें त्रैलोक्यके शिखर पर आरोहण कर मुक्तिको प्राप्त करने वाले हैं, अथवा मोक्षार्थी ज्ञानी जनोंके द्वारा ही गम्य हैं-जाने जाते हैं; अथवा संसार-विमोक्षणमें शीघ्रता करनेवाले हैं; अथवा धर्मरूप रथके संचालनार्थ चक्रांग-स्वरूप हैं; अथवा भव्य जीवोंको (अं) (र) दाता हैं, शिवके (र) अथवा काम तथा भयसे (अ) रहित हैं। पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? पद्मप्रभ हैं-चरणकमलोंकी उत्कृष्ट प्रभाके धारक हैं;अथवा पद्मनामक निधि-विशेषोंसे अत्यन्त शोभित हैं; अथवा विहारके समय देव-निर्मित म्वर्णमयी कमलों पर संचार करते हैं। पुन कैसे हैं ऋषभ देव ? शीतल हैं-छद्मस्थ अवस्था में जिन्होंने शीत उष्णादिको भारी परीषहोंको सहन किया है। यहाँ पर 'शीत' पदसे उष्णादि परीषह और वर्षादि योग भी उपलक्षित हैं); अथवा शान्तिकी मूर्ति हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? शान्ति हैं-सर्व कर्मोके शान्त-क्षय करनेवाले हैं पुनः कैसे हैं ऋपभदेव १ संभव है-समीचीन भव पर्यायके धारक हैं; अथवा शंभव हैं-(शं) सुखके (भव) जनक हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? वासुपूज्य हैं-(वासु) इन्द्रसे पूजित हैं; अथवा व-वरुण और तदुपलक्षित सोम, यमादि देव-वृन्दसे वन्दित हैं; अथवा वा पद मंत्रवाचक भी है, अतः भक्लजनके द्वारा 'ॐ ह्रीं श्रीवास पूज्याय नमः' इस मंत्रके द्वारा नित्य आराधना किये जाते हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभदेव १ अजित हैं-काम-क्रोधादि शत्रुओंके द्वारा अजेय हैं; अथवा (अं) सूर्यको अपने प्रभामण्डलके द्वारा जीतनेवाले हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभ देव ? चन्द्रप्रभ हैं-चन्द्रमाके समान जगन्-आल्हादिनी प्रभाके धारक हैं;-सुव्रत हैं-अहिंसादि सुन्दर व्रतोंके धारक हैं; श्रेवान हैं-अतिशय प्रशंसाके योग्य हैं।-कुन्थु हैं-(कुन्थति) समाचीन करनेवाले हैं। अनन्त हैं-अन्त-विनाश-से रहित हैं। पुनः कैसे हैं ऋषभ देव ? वीर हैं-शूर हैं। अथवा अपने भक्तोंको वि विशिष्ट (ई) लक्ष्मी-मोक्षलक्ष्मीके (र) दाता हैं । और विमल हैं-कर्म मलसे रहित हैं; अथवा (विमा) विशिष्ट ऐश्वर्यके धारक इन्द्रादि देव जिनके चरणोंकी नित्य वन्दना करते हैं: अथवा (विमा) सर्व परिग्रहसे रहित जो निम्रन्थ मुनियोंके द्वारा आराध्य हैं; अथवा मूत्र- पुरीषादि सर्व प्रकारके द्रव्य-मलोंसे रहित हैं; अथवा राग-द्वेषादि सर्व प्रकारके भावमलोंसे रहित हैं। पुन: कैसे हैं ऋषभ देव ? श्रीपुष्पदन्त हैं-कुन्द पुष्पके समान शोभायमान उज्ज्वल दन्तोंके धारक हैं; और नमि है-इन्द्र, चन्द्र और मुनीन्द्रादिकोंके द्वारा नित्य नमस्कृत हैं, और श्री नेमि हैं-(श्री) मोक्षलक्ष्मी रूप आत्मधर्मके प्राप्त करने वाले हैं। पुन: कैसे हैं ऋषभदेव ? सुमति हैंलोकालोककी प्रकाश करनेवाली सुन्दर मति-बुद्धिके धारक हैं । और सुपार्श्व है-सुन्दर वाम और दक्षिण पार्श्व भागोंके धारक हैं। और जिनराद हैं-विषय-कषायोंके जीतनेवाले गणधरादि-जिनोंके स्वामी हैं । पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? पार्श्व है-निज भक्तोंके सदा समीपवर्ती हैं-जब कोई भक्त जहां कहीं भी आपत्तिके समय उन्हें स्मरण करता है, तभी उसकी आपत्ति शीघ्रतासे दूर हो जाती है, जिससे भक्त यह अनुभव करता है कि भगवान मानो अदृश्य रूपसे मेरे समीपस्थ ही हैं। पुनः कैसे हैं ऋषभदेव ? मल्लि या मलि हैं-देवताओंके द्वारा (मल्यते) अपने शिरों पर धारण किये जाते हैं अथवा भव्यजीवों-को लोक शिखर पर मलते स्थापित करते हैं।
इसी प्रकार द्वितीय तीर्थकर अजितदेव भी आप सबको रक्षा करें। कैसे हैं अजितदेव ? ऋषभ
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४६] अनेकान्त
[वर्ण १४ हैं-(वृषे) अहिंसा लक्षणधर्मकी (भांति) भी आदि धारण करनेवाले हैं । ऊपर जितने विशेषण ऋषभदेवके लिये प्रयुक्त किये हैं, उन सबको अजतिदेवके पक्षमें भी लगाना चाहिए । इसी तरह संभव आदि शेष. बाईस तीर्थकरोंकी स्तुति करते समय शेप सर्व जिशेषणोंका प्रयोग उनकी स्तुतिके रूपमें करना चाहिए ।
अनुसन्धानका स्वरूप
(प्रो० गोकुलप्रसाद जैन, एम० ए० एल० एल० बी०) रिसर्च के लिये पाजकल अनुसंधान, अन्वेषण, शोध, हमारे भारतमें प्राचीनकालसे ही मनीषियोंकी प्रवृत्ति खोज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। संस्कृतमें यद्यपि अनुसन्धानकी ओर रही है जिसकी हमारी अपनी परम्पराएँ इनके अर्थोमें सूक्ष्म अन्तर है, तथापि हिन्दीमें ये शब्द हैं। हमारे देशमें ज्ञान और अनुसन्धानकी चिन्तन और प्रायः पर्याय ही माने जाते है। इनमें से अनुसंधानका अर्थ अनुभव-प्रणालियां जो वेदों और उपनिषदों में पाई जाती है समीक्षय, परिपृच्छा, परीक्षण प्रादि । अन्वेषणका प्रयोग हैं, खण्डन-मण्डन-प्रणालियां जिनका परिचय दर्शन व्यागवेषण या लुप्त तथा गुप्त सामग्रीको प्रकाशमें लानेके अर्थ- करण नीति काव्यशास्त्र आदिसे मिलता है, तथा मंथन में होता है। शोधमें प्राप्त सामग्रीका संस्कार, परिष्कार प्रणालियां जिसकी संस्कृत वाङ्गमयमें एक अविच्छिन्न धारा निविष्ट है। अतः ये सभी शब्द प्रायः समान अर्थ रखते प्राप्त होती हैं, भारत की अपनी प्रणालियां हैं। हुए अनुसन्धान कार्यके भित्र भिष रूपोंके द्योतक है।
आज की विश्वविद्यालयीन कार्यशैली के अनुसार अनुफिर भी इस क्षेत्रमें अनुसन्धान तथा गवेषण शब्दोंका सन्धान के मुख्य तत्त्व ये हैं:व्यापक रूपसे प्रयोग होता है। अनुसन्धानका अपना व्यापक अर्थ होते हुए भी वर्त
(1) अनुपलब्ध तथ्योंका अन्वेषण तथा निरूपण । मान कालमें इसका प्रयोग मुख्यतः वैज्ञानिक अन्वेषणके
(२) ज्ञात तथ्यों तथा सिद्धातों का पुनराख्यान । लिये होता है। इसका उद्देश्य ज्ञानके क्षेत्रमें उठी हुई
(३) मौलिक कार्य। शंकामोंका समाधान करना है। इसकी प्रक्रियाके अन्तर्गत
(४) विषय-प्रतिपादनकी सुष्ट शैली। केवल वस्तुविषयक तात्विक चिन्तन या गवेषणा ही नहीं इन चारोंका सापेक्षिक महत्व अनुसन्धानके विषय पर पाती है प्रत्युत उसके सूक्ष्म निरीक्षण तथा विश्लेषणको भी निर्भर रहता है। वैसे अन्वेषणके अन्तर्गत अज्ञात लेखकों उचित स्थान मिला होता है। इसमें प्रत्येक अंशका अन्योन्य तथा ग्रन्थोंकी खोज, अप्राप्त सामग्रीका प्रकाशमें लाना, कार्यकारण सम्बन्ध स्थापित कर उसके विश्लेषण द्वारा इसी उपलब्ध सामग्रीका शोधन करना, विचारों या सिद्धान्तों. महत्वपूर्ण निष्कर्ष तक पहुँचनेका प्राधान्य रहता है । आज
का अन्वेषण करना, शैली-विषयक अन्वेषण करना तथा के अनुसन्धानका प्रमुख उद्देश्य पूर्ण अनन्त एवं अखला
पूर्वापर ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारोंसे सम्बन्ध स्थापित करना है। बदज्ञानको प्रकाशमें जाना है। प्राजका अनुसन्धित पुनराख्यानकार्यमें नवीन उपलब्ध सामग्री तथा तथ्योंका अनुसन्धान कार्यमें केवल जिज्ञासाकी प्रेरयासे प्रवृत्त नहीं माख्यान करना और पूर्वोपलब्ध तथ्योंका पुनराख्यान होता, वह और भी व्यापक क्षेत्र में कार्य-निष्ठ रहता है।
करना सन्निविष्ट हैं। मौलिकताके प्राधीन समीक्षात्मक तथा वह जिज्ञासाकी तृप्ति मात्रसे सन्तुष्ट नहीं। उसे विशाल
आलोचनात्मक सामग्री पाती है जिसका महत्व मूलान्वेषणसे क्षेत्र चाहिये जहां वह निरन्तर शक्तिकी खोज कर वास्तविक कोई कम नहीं है। मौलिकतामें तथ्यान्वेषण, पाठशोध.
और वायिक सत्यकी खोज कर सके। अनुसंधिसको पाठाध्ययन, निर्वाचन, नबाविष्करण भी सम्मिलित है। किसी वस्तु या तथ्य विशेषसे रागद्वेष नहीं । वह तो केवल अनुसंघित्सुघोंको अपने विषयकी इयसामों के प्राचीन सत्यान्वेषी और सत्यार्थी होता है। अन्वेषण एक तटस्थ रहते हुए उपरोक कतिपय अनुदेशोंका पालन करना अभीष्ट निरीक्षकका कार्य है।
एवं हितकर होगा।
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अनेकान्त
AARE. ECOR
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श्रीबाबा लालमन दासजी (यह चित्र श्रीमान् लाला प्रकाशचन्द्रजी शीलचन्द्रजी जैन
सर्राफ चांदनी चौक देहलीके सौजन्यसे प्राप्त)
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श्रीबाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका म
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(परमानन्द जैन) नीवन-परिचय
अपनी सभी क्रियाएँ विवेक पूर्वक करते हु५ जान "होनहार विरवान के होत चीकने पात" यापन करते थे। चाहे नफा कम हो या ज्यादा,
इसकी वे पर्वाह नहीं करते थे और ग्राहकोंको वे यह कौन जानता था कि दरिद्रकुल में जन्म लेने वाला साधारण व्यक्ति भी अपनी साधनासे
अपनेसे कभी भी अप्रसन्न नहीं होना देना चाहते थे।
और न ऐसा कार्यकर कभी अपयशकी कालिमासे महान बन जायगा, समाजमें आदरणीय गिना
। ही वे अपनेको कलंकित होने देना चाहते थे। जायगा । जिसकी कठोर श्रात्म-साधना और दृढ़
बे कहा करते थे कि केवल पैसा संचित करना आत्मविश्वास उसे इस योग्य बना देगा कि वह ही मेरे जीवनका ध्येय नही है। किन्तु मानवताका जिस व्यक्तिसे जो कुछ भी कह देगा वह उसी तरह से ही निष्पन्न होगा। दरिद्र धनवान बन जायेगा,
सुरक्षित रखना ही मेरा कर्तव्य है। दूसरे गरीब
और अमीर सभी व्यक्तियोंके साथ मेरा व्यवहार और रोगी रोग-मुक्ति पाजायगा। यह सब उसकी आत्म-श्रद्धा एवं तपश्चर्याकी साधनाका परिणाम मृदु और सुकोमल होना चाहिये। है। आज एक ऐसे ही व्यक्ति की जीवन-घटनाओं क्योंकि मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलता। पर प्रकाश डालना ही मेरे इस लेखका प्रमुख इसलिये अपने जीवन में ठगाई या धोखा देने जैसी विषय है।
बुरी आदतें न पानी चाहिये। जहां तक भी बन बाबा लालमनदासजी का जन्म मेरठ शहरमें सके सदा सत्यका व्यवहार करते हुए इस जीवनको संवत् ११२० या २१ में हुआ था । श्रापकी जाति यापन करना ही अपना एक मात्र लक्ष्य है। जब अग्रवाल थी । घर आथिक दशामें साधारण आप मन्दिरजीमें जाते, तब दर्शन, सामायिक और था। आपका एक छोटा भाई और भी था जिसका स्वाध्याय अवश्य करत थे, तब उनके विचारोंकी नाम ईश्वरी-प्रसाद था, जो कुछ ही वर्ष हुए दिवंगत। पवित्रता और भी बढ़ जाती थी। और कभी कभी हुए हैं । घरकी आर्थिक स्थिति साधारण होनेके उनकी विचार-धारा बड़ी ही उग्र हो उठती थी, पर कारण आपकी शिक्षा-दीक्षा विशेष न हा सकी; ग्रह कार्य-संचालनकी हल्की-सी बाधा कभी कभी परन्तु अपनी आजीविकाके निर्वाह-हेतु जो कुछ भी उन्हें अपने पथसे विचलित भी कर देती थी। फिर थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त किया था, उससे ही वे अपना भी वह सोचते जीवन उन्हींका सार्थक है, जिन्होंने सब कार्य निष्पन्न करते थे। शिक्षा अल्प होने पर अपने जीवनका कुछ भाग अपनी आत्म-साधनामें भी दृष्टि में विवेक एवं विचारकी कुछ झलक अवश्य व्यतीत किया है। बिना आत्म-साधनाके जीवन में थी । यद्यपि गृहस्थ जीवन साधारण था, फिर भी आदर्शता नहीं आ सकती और न स्वोपकारके साथ जावनमें उनके संस्कार धार्मिक थे। जिनेन्द्रकी परोपकार ही बन सकता है। जीवनमें सचाई और भक्ति और श्रद्धा थी । हृदयमें सचाई और पापसे ईमानदारीका होना बहुत जरूरी है। उसके विना घृणा एवं भय था. किन्तु मनमें पवित्रताका सचार जीवन नीरस रहता है। अनुदारता नीरसताकी था. और यह कसक भी थी कि कोई भी व्यक्ति साथिन है। अतः जीवनको सरस बनाने के लिये मेरी दूकानकी वस्तुसे दुःखी और ठगाफर न जाय। उदारताकी भी आवश्यकता है। आचार और
आप आजीविकाके लिये हलवाईकी दुकान करते विचारोंसे ही जीवन बनता है । फिर मैं जिस कुलमें थे, पर दुकानमें इस बातकी सावधानी खास तौरसे उत्पन्न हुआ हूँ उसकी मर्यादाकी रक्षाके लिये रखते थे कि कभी किसी अपवित्र वस्तुसे दुकानकी जीवनमें धार्मिकताका अंश आना जरूरी है। इस चीजोंका सम्पर्क न होजाय। और खाने-पीने तरह आप अपना विचार-धाराके साथ जीवन वालोंको अपवित्र पदार्थ न खाना पड़े। अतः वे यापन किया करते थे।
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अनेट्ट
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अनेकान्त
[ वर्ष १४ ____ एक बार आपने मेरठके एक दूसरे हलवाई भूल में भी ऐसा कोई कार्य निष्पन्न न हो जिससे कल्लूमल के साथ साझा करके गढ़के मेले में जानेका दूसरोके ईमानको ठेस पहुंचे। निश्चय किया । गाड़ी में दोनों दुकानोंका सामान था इसके बाद उन्होंने फलों और शाक बेचनेकी
और साथमें उसी गाड़ीमें कल्लूमलजीके बच्चे भी दुकान करली थी, उसे भी उन्होंने कुछ समय तक बैठे थे। दैवयोगसे उनमें से किसी एक छोटे बच्चे. ही कर पाई। जब ला कल्लूमल जी गढ़के मेलेसे ने गाडीमें सहसा पेशाब करदी और उसके छींटे वापिस आये तब परस्परका साझा बांट दिया सन्दक और उसमें रक्खी हुई कुछ मिठाई पर भी गया। उस समय भी ला०लालमनदासजीने इस बातपड़े। इस बातको देख कर लाला लालमनदास का ध्यान रखा कि जिस मिठाई पर बच्चेकी पेशाब जीसे न रहा गया और उन्होंने ला० कल्लूमल जीसे के छींटे पड़े थे उसके पैसे नहीं लगाए और आगे कहा कि जिस मिठाईमें पेशाबके छींटे पड़ गए हैं उस व्यापारसे भी मुख मोड़ लिया। इस तरह घरउसे न बेचा जाय, किन्तु उसे बाहर फिकवा दीजिये, में कुछ दिन और व्यतीत करने पर एक दिन सहसा उसको बेचनेकी आवश्यकता नहीं। परन्तु लाला उनकी दृष्टि चली गई, और वे पदार्थोके अवलोकन कल्लूमलजी इस प्रस्तावसे सहमत न थे, उन्होंने करने में सर्वथा असमर्थ हो गए । इससे केबल उन्हें कहा ऐसा करना ठीक नहीं है । छींटे ही तो पड़े हैं ही कष्ट या दुःख नहीं हुआ किन्तु इससे उनके कोई हर्ज नहीं, मैं मिठाई नहीं फेंक सकता, उसमें परिवारके लोगोंको भारी ठेस पहुंची और उन्हें क्या बिगड़ गया, अन्दर की चीजें तो कोई खराब अपना पारिवारिक जीवन बिताना दूभर हो गया। नहीं हुई। दूसरे वह अबोध बालक ही तो ठहरा, पर क्या करें. कोई चारा नहीं था। उदयागत उसका कोई विचार नहीं किया जाता । यह सुन कर शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य भोक्तव्य है, अतः वे लालमनदासजी अपनी दुकानका सब सामान शान्त रहे, यद्यपि दृष्टि जानेसे आपको भारी छोड़ कर बीच में से ही घर वापिस लौट आए। आकुलता उत्पन्न हो गई, और जीवन भार-स्वरूप लोगोंके पछने पर कुछ भी उत्तर नहीं दिया। परन्तु अँचने लगा. परन्तु कर्मके आगे किसकी चलती घर आते ही उनके विचारोंमें एक तूफान-सा उठ है. यही सोच कर कुछ धीरज रखते। परन्तु बराबर खडा हो गया-विचारों का तांता बराबर जारी यह सोचते कि मैंने ऐसा कौन घोर पाप किया रहा, वे सोचने लगे कि देखा, इस मानव जीवन जिससे नेत्र विहीन होना पड़ा । अस्तु, आपके को बितानेके लिये मनुष्य कितनी विवेक-हीन मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने कुछ दिनोंसे प्रवृत्ति करता है-वह कितना खुदगर्ज है, शुद्धि- जिन दर्शन नहीं किये, परन्तु दुःख है कि मैं वहाँ अशुद्धियोंको भी नहीं देखता, वह केवल पैसा पहुँच कर भी जिनमूर्तिको नहीं देख सकता। उपार्जन करना ही अपना ध्येय बनाये हुए है । ऐसा अतः किसीका सहारा लेकर किसी तरह मंदिर जी विवेक-हीन जीवन बितानेसे तो कहीं मर जाना में पहुँचे और भक्ति भावसे दर्शन करके एक अच्छा है, अथवा सब कौटुम्बिक झंझटोंको छोड़ स्थान पर बैठ गये और उन्होंने एक माला मंगवाई। कर साधु हो जाना । पर विवेकको खोना अच्छा माला हाथ में लेकर जाप कर रहे थे कि वह अकनहीं है और न दूसरोंके धर्म तथा ईमानको खोना स्मात् टूट गई और उसके दाने इधर-उधर बिखर ही अच्छा है । इससे मुझे जो ग्लानि और कसक गए। कोई दाना किसी कोने में गिरा कोई किसी होती है उससे वचनेका उपाय करना चाहिये। दूसरे कोने में, और कोई दाना वेदीके पासके किनारे दूसरे हलवाईका अपना पेशा भी ठीक नहीं है, परन्तु वाले खूट पर गिरा । बेचारे लालमनजी उन दानोंको वह मेरी आजीविकाका साधन होनेसे उसे जल्दी हाथ से टटोलते-तलाशते रहे परन्तु पूरे दाने नहीं ही कैसे छोड़ा जा सकता है। फिर भी यथा समय मिल सके । तब आपने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करूंगा। भगवन् ! मुझसे मैं सब दाने दंढ कर माला पूरी न कर लूगा और
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वर्ष १४
श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य [४६ अपनी जाप पूरी न करूंगा तब तक मैं मन्दिरसे सांसारिक पदार्थोके भोगोपभोगसे रुचि हट गई, बाहर नहीं जाऊंगा, और न अन्न-जल ही ग्रहण देह-भोगों से विरक्ति की भावना जोर पकड़ने लगी। करूंगा । फिर सोचते हैं-भगवन् ! मैंने ऐसा कौन-सा अब आपको घरमें रहना कारागारसे भी अधिक पाप किया है जिससे यकायक मेरी दृष्टि चली गई। दुखद प्रतीत होने लगा। दिल चाहता था कि किसी मुझे तो आपकी ही शरण है। आपके गुणों का संयमीके चरणोंमें रहकर आत्म-साधना करूं । चिन्तन ही स्व-पर-विवेकका कारण है, उससे ही परन्तु इस समय यह संयोग मिलना अत्यन्त कठिन स्वात्म-निधिका परिचय मिलता है और वही मेरी था। चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई, परन्तु कोई विपत्तिसे रक्षा करेगा। अतः अब मैं यहाँसे उसी ऐसा साधु उन्हें प्राप्त न हुआ जो उनकी मनःस्थिति समय जाऊंगा, जब मेरी दृष्टि पुनः अपने रूपमें को सुदृढ करता, वे सुबह शाम बारह भावनाओंथा जायगी, और मैं माला पूरी कर अपनी जाप का चिन्तन करते, कभी पाठ करते और कभी स्वापूरी करने में समर्थ हो जाऊंगा। इस तरह लाल- ध्याय करते या मन्दिरजीमें जाकर दर्शनादि क्रिया मनजी को बैठे हुए एक दिन व्यतीत हो गया। करते, परन्तु मनकी गति अधीर हो रही थी। वे दसरा दिन भी इन्हीं विचारों में बीता। परन्त चाहते थे कि घरबार छोड दं और आत्म-साधना तीसरे दिन उन्होंने मालाके दाने ढढने का अच्छा में निरत रहूँ। पर घर छोड़ना सहज कार्य नहीं था प्रयत्न किया और काफी दाने प्राप्त हो गये, प्रायः एक फिर भी आपने रात्रिमें बहुत देर तक विचारदादाने की ही कमी रह गई। इस तरह तीसरा दिन विनिमय किया और प्रातःकाल स्नानादि क्रिया से भी वीत गया, किन्तु चौथे दिन प्रातःकाल ज्योंही मुक्त होकर जिनमन्दिर जी में गए और वहाँ पार्व आपने अवशिष्ट दाने ढूढने का यत्न किया और प्रभुकी स्तुति कर मनमें यह निश्चय किया कि मैं अपना हाथ वेदी की दाईं ओर के कोने की ओर बिना किसी गुरुके जिनेन्द्रकी मूर्तिके समक्ष यह बढ़ाया, उसी समय वेदी का किनारा उनके मस्तक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं नियमतः सप्तम प्रतिमाको में लगा उसके लगते ही खून की धारा बह निकली, धारण करता हूँ परन्तु यथाशक्य जल्दी हो चुल्लकउस विकृत खून के निकलते ही आपको निर्मल दृष्टि के व्रतोंका अनुष्ठान करने की मेरी भावना है। ज्यों की त्यों प्राप्त हो गई। दृष्टि प्राप्त होते ही आप- अतः मैं एक लगोटी और एक छोटी चादर तथा ने अपनी माला पूरी कर जाप पूरी की और जिनेन्द्र- पीछी कमंडलु रक्खूगा, तथा दिनमें एक बार शुद्ध की स्तुति कर बाद में घर गए और नैमित्तिक क्रिया- प्रासुक आहार-पान करूंगा । ऐसी प्रतिज्ञा कर ओं से निबट कर भोजन किया । भोजन के पश्चात् घरसे बाहर चले गए। आपके विचारों में मौलिक परिवर्तन हो गया। श्रद्धा में दृढता और निर्मलता आगई। आपने विचार
आपने अपने तपस्वी जीवन में अनेक प्रामों. किया कि अब मुझे सब व्यवहार व्यापार छोड़ कर नगरों और शहरों में बिहार किया । देहली खतौली, साधु जीवन व्यतीत करना चाहिये । घरमें रहकर मेरठ, हापुड़, सुनपत, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर तो आत्म-साधना नहीं बन सकेगी और इस समय
आदि में वे अनेक बार गये, और वहां की जनताआस-पास किसी योग्य गुरूका सांनिध्य भी प्राप्त को धर्मोपदेश-द्वारा कल्यण मागेमें लगानेका नहीं है जो मेरी भावनाको मृतमान कराने में समर्थ प्रयत्न किया। उन्होंने गांवोंकी जनतासे केवल हो सके और मुझे देह रूप कारागारसे छुड़ाकर जीव हिंसा ही नहीं छुड़ाई, प्रत्युत हरे वृक्ष काटना भव-पासके छेदने में मेरा सहायक बन सके।
या हरी घास व ईख आदि जलाना, जुआ, चोरी,
मांस व मदिरा आदि का त्याग करवाया। साथ वैराग्यको भोर
ही जहाँ जिन-मन्दिर नहीं हुए, वहाँ उन्हें भी बनअब आपकी परिणति अत्यन्त उदासीन होगई, वानेकी प्रेरणा की। परिणामस्वरूप अनेक मन्दिरों
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अनेकान्त
[वर्ष १४ का निर्माण भी उत्तरप्रांत में उनके समय किया महत्वपूर्ण जीवनमें पात्म-श्रद्धाकी दृढ़ता उत्तरोत्तर गया, जो अब भी मौजूद हैं।
वृद्धि पाती गई और उधर कठोर तपश्चर्यासे चित्तसुनपतका रथोत्सव
शुद्धि भी होती गई। इसीसे उनके जीवनमें जो ___ इस तरह आप विहार करते हुए सुनपत पहुँचे। घटनाएँ घटित हुई, उनमें कितनी ही घटनाएँ बड़ी सुनपत एक बहुत प्राचीन नगर है। यह उन श्वनि ही महत्वपूर्ण और दूसरोंको आश्चर्य जनक प्रतीत लोगोंका प्राचीन स्थान था, जो भारतकी प्राचीन होती है, परन्तु उनकी दृष्टि में वे साधारण रही
आर्य परम्पराके अनुयायी थे । श्वनिपदका अपभ्रंश है। यदि उनकी उपलब्ध या सुनी जानेवाली सभी विगड़ा हुआ रूप अब सुनपत रह गया। यह नगर
घटनाओंका उल्लेख करते हुए उन पर विचार किया शाही जमाने में भी खूब सम्पन्न तथा विशाल दुर्ग जाय तो एक बड़ा प्रन्थ हो जायगा । परन्तु इस और उसकी प्राचीरोंसे संरक्षित था, जो अब धरा- छोटेसे लेखमें उनकी कुछ मार्मिक घटनाओंका ही शायी होगया है। जैनियोंका यह प्रमुख केन्द्र रहा उल्लेख करनेका यत्न किया जायगा, जिनका उनके है। यहां १२वीं १३वीं शताब्दीसे भट्टारकोंकी व्यक्तित्वके साथ खास सम्बन्ध रहा है। आपका प्राचीन गही रही है. पर वह अब सदाके लिये तपस्वी जीवन बड़ा ही निस्पृह और उदार रहा है। समाप्त होगई । उस समय अनेक जैन ग्रंथ वहाँके उसकी सबसे बड़ी विशेपता यह थी कि, जब वेध्यानस्थ श्रावकों तथा मट्टारकों द्वारा प्रतिलिपि किये व कराये खड़े होते थे तब चित्र लिखितसे होजाते थे, उनकी गये थे जो यत्र तत्रके शास्त्र-भण्डारोंमें उपलब्ध दृष्टि निष्कंप और निर्मल रहती था। वे कड़ीसे होते हैं । यहांके भट्टारक दिल्ली, हिसार, आगरा कड़ी धूपमें और सर्दीमें घण्टों श्रात्म-चिंतन करने में और ग्वालियर मादि स्थानोंमें विचरण करते रहते लीन रहते थे। ध्यान-मुद्राके समय वे कभी किसीसे थे।खेद है कि वहकि भट्टारकीय शास्त्रभण्डारक बोलते न थे किन्तु मौनपूर्वक ही स्वरूप चिन्तन ३००० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ कुछ वर्षे हुए पन
किया करते थे। शारीरिक-वेदनाको वे प्रसन्नताके वाडीकी पानकी पुड़ियोंमें काममें लाये गए। परंतु किसी जैनी भाईने उनके संरक्षणका कोई प्रयत्न
साथ सहते थे पर उससे चित्तमें मलिनता या नहीं किया। ऊपरके कथनसे नगरकी महत्ता, और
खिन्नताको कोई प्रश्रय नहीं देते थे । यद्यपि वें उत्तम प्राचीनताका अन्दाज लगाया जा सकता है। यहां भावकके व्रत पालते थे, तथापि निर्मोही होनेके जैनियोंकी जन-संख्या भी अच्छो रही है, और वे
और कारण उनकी भावना भावमुनिसे कम न सम्पन्न भी रहे हैं। बाबा लालमनजीने यहां संवत थी। बाह्य-शुद्धिकी ओर भी उनका विशेष ध्यान १६४६में चातुर्मास किया था, और चातुर्मासके बाद
मान लिया था और चालमिकेबा रहता था, क्योंकि बाल-अशुचिता अन्तरके परि. वहाँ एक रथोत्सव करनेकी प्रेरणा की गई थी।
प्रवाई णामोंको मलिन बनाने में साधक होती हैं। अतः वे सुनपतका रथोत्सव बड़ी शान-शौकतके साथ सम्पन्न अन्तर और बाह पवित्रताका खास ध्यान रखते थे। हुधा था। इस रथोत्सवके सम्बन्धमें राजवैद्य वे जिस किसी व्यक्तिके यहां थाहार विधिपूर्वक शीतलप्रसादजीने एक लावनी भा बनाई थी जिसकी लेते थे, वे उससे कोई खास नियम वो नहीं करवाते एक जीर्ण-शीर्ण मुद्रित प्रति आपके ज्येष्ठ पुत्र वैद्य- थे किन्तु हिंसासे वचने के साथ साथ उसकी उंगलियों राजश्री महाबोर प्रसादजीकी कृपासे मेरे देखने में के नाखूनोंको जरूर पिसवाते थे, जिससे नाखूनोंमें बाई है।
मलका सम्पर्क न रह सके। उनके आहारमें जिस तपस्वी जीवन और अन्य घटनाएँ मैंसका दूध उपयोगमें लिया जाना था उसे अपने
आपका तपस्वी जीवन बड़ा ही सुन्दर रहा है। सामने नहता धुलवाकर साफ करवाते थे और बाप केवल इच्छाओंके ही निरोधक नहीं थे किंतु स्नानकर स्वच्छ वस्त्र पहनकर दूध निकाला जाता इन्द्रियोंका दमन भी करते। पर उन्हें बाह किसी था। पर बच्चे के लिये दोबन छोड़ दिये जाते थे। भी पदार्थसे विशेष राग नहीं था। भापके इस जहां अपनीभावश्यक क्रियाभोंमें सावधान रहते
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वर्ष १४] श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य थे, वहां उपवास आदि में भी सुदृढ़ रहते थे। समय बैठे पाया । सामने जाकर प्रणाम किया और वापिस पर सामायिक करना और समागत विघ्न-बाधाओंको चलनेके लिये कहा, परन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। निर्भयताके साथ सहना । वे कहा करते थे कि जो तब वे सज्जन धर्मशालामें वापिस गए, और प्रतिज्ञा या नियम जिस रूपमें कर लिया हो उसे सब समाचार अपने साथियोंसे कहा । प्रातःकाल सिंह-वृत्तिके साथ पालना चाहिये और सुख-दुःखमें संघके कुछ और आदमी उनके साथ वहां गए जहां समभाव रखना चाहिये। सामायिकके समय वे बाबाजी ध्यानस्थ बैठे थे । बोलने पर उन्हें कोई इतने आत्म-विभोर होजाते थे तथा शरीरसे उत्तर नहीं मिला, पर उन्हें उसी तरह ध्यानस्थ पाया, निष्पृह और हलन-चलन क्रियासे शून्य ठूठके तब उन्हें बड़ी चिन्ता हुई, मालूम नहीं क्या. कारण समान निश्चल एवं मूर्तिके समान सुस्थिर हो जाते है ? दो दिन हो गए, पर बाबाजी ध्यानस्थ ही बैठे थे कि दूसरा कोई भी व्यक्ति उनकी वृत्तिका पता नहीं हैं। उन्होंने आहारादि कुछ नहीं किया। वे वापिस चला सकता था, वह तो दूरसे ही बाबाजीको चले गए । तीसरे दिन उस सर्पने आकर स्वयं देखकर गद्गद होकर भक्तिसे उन्हें प्रणाम करके विष चूस लिया और तब वे अपना ध्यान पुरा करके चला जाता था। तपश्चर्याके साथ आत्मश्रद्धा, धर्मशाला पहुँचे, और नित्यक्रियासे निबटकर श्रीतेजस्विता, और यथार्थवादिता उनकी वचनसिद्धिमें गिरिराजकी सानन्द यात्रा की। यात्रासे लौटनेपर कारण थे।
संघके सभी सज्जनोंने बाबाजीको प्रणामकर उन्हें श्रीसम्मेदशिखरकी स-संघ तीर्थयात्रा घेर लिया, और लगे उनसे पूछने, तब बाबाजीने __ संवत् १९५६में बाबा लालमनदासजी हापुड़ कहा कि पहले जिनमन्दिर में दर्शन करल तब मैं
और दिल्लीके जैनियोंके साथ श्रीसम्मेद- आपको उन दिनोंकी बात बतला दूंगा, निश्चिन्त शिखरकी यात्रार्थ गए थे। यात्रियों में रहो । मंदिरजीसे आकर आहार होचुनेके बाद ला० रामचन्द्रजी और मुन्शीलालजी आदि बाबाजीने स्वयं उस घटनाको बसलाया, और कहाप्रमुख थे। वहां पहुँच कर बाबाजी मधुवनके कि मेरी प्रतिज्ञानुसार उस सर्पने स्वयं आकर अपना जंगल में एक शिला पर सामायिकके लिये पर्यकासन विष चूस लिया था, तभी मैं निर्विष होकर आपके से बैठ गए । दैवयोगसे वहाँ एक सर्प आया और सामने उपस्थित हूँ। और मैंने सानन्द तीर्थयात्रा की उसने बाबाजीके पैरमें काट लिया, तब बाबाजीने यह है। अगले दिन सब लोग यात्रार्थ पहाइपर पुनः प्रतिज्ञा की, कि जब तक वह सर्प स्वयं आकर अपना गए । वापिस आनेपर ला० मुंशीलालजीकी मां विष नहीं चूम लेता, तब तक मैं इसी शिला पर ध्याना- बुखारसे पीडित होगई । बुखार इतना जोरसे था वस्थित रहंगा मेरे तब तक आहार आदि का कि वे तन-मनकी सुध भूल गई। उनकी बीमारीसे सर्वथा त्याग है । भगवन ! क्या मैं तीर्थयात्रासे संघके साथीजनभी व्याकुल हुए और सभी संघमें वंचित रहूंगा जिसके लिये इतनी दूरसे श्रीपार्श्व- चिन्ताकी लहर दौड़गई। आखिर विवश होकर प्रभु की वन्दनाके लिये आया हूँ। नहीं, मैं जरूर उन्होंने सब हाल बाबाजीसे निवेदन किया । तब यात्रा करके सानन्द वापिस जाऊँगा । बाबाजी बाबाजीने कहा कि चिन्ताकी कोई बात नहीं है। प्रतिज्ञाको बड़ा महत्व देते थे और उसके पालनेमें तुम इन्हें लेजाकर सीतानालेमें स्नान करात्रो वे वे जरा भी शिथिलता नहीं करते थे। उनमें अटूट अच्छी हो जावेंगी। कुछ लोगोंकी रायमें यह बात साहस और धीरता थी । वे स्वरूपचिन्तनमें तल्लीन नहीं जंची, कि उन्हें बुखारमें सीतानाले ले जाकर होगए, इस तरह उन्हें एक दिन व्यतीत हो गया। पर स्नान कैसे कराया जाय ? परन्तु फिरभी बाबाजीकी वे अपने ध्यानसे जरा भी विचलित नहीं हुए। जब आज्ञासे उन्हें डोलीपर सीवानाले लेजाया गया, उनके साथ वाले बाबाजीको ढूढते हुए वहां गए, उसमें स्नान करते ही उनका बुखार दूर होगया। और तब उन्हें पासही जंगल में एक शिलापर ध्यानस्थ उन्होंने कहाकि मैं पहाइपर यात्रा करके ही धर्म
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अनेकान्त
[वर्ष १४ शाला वापिस जाऊँगी । तब वे यात्रार्थ पहाइपर की आशा छोड़ कर उसे जमीन पर लिटा दिया पैदल गई, और वहांसे सानन्द वापिस आई। गया। अनेक वैद्य व डाक्टर इकट्ठे हुए, पर उसकी
सम्मेद शिखरजीके जिस संघका ऊपर उल्लेख बीमारी पर किसी का वश चलता दिखाई नहीं किया गया था उसमें नानौता जिला सहारनपुरके दिया और उन वैद्य-डाक्टरों में से उनका धीरे २ ला• सुन्दरलालजी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती खिसकना भी शुरू हो गया। लड़के का बाप और रामीबाई भी थीं, जो मुख्तार श्रीजगलकिशोरजीके मा बड़ी चिंता में निमग्न थे और यह सोच रहे थे बाबा और दादी होती थीं। उन्होंने छह पैसेकी धान ।
कि क्या किया जाय इसी चिन्तासे व्यग्र हो लड़के लकर उसके चावल निकालकर श्राहार बनाया. कापिता बाबा लालमनदास जा क पास दाड़ा गया और उसे भक्तिपूर्वक बाबाजीको प्रदान किया।
और रोया। लड़के की बीमारी और अपनी परेउन्होंने जो चावल परोसे उसमेंसे बाबाजीने सिर्फ ।
शानी की सब कथा कह सुनाई और प्रार्थना की, कि ५ या ७ दानेही गिनकर लिये और दो-ढाई सेर पानी ।
किसी तरह यह बच्चा अच्छा हो जाय। तब बाबापिया। आहार हो चुकनेपर उन्होंने कहाकि अन्य
जीने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, घबड़ाओ नहीं। सबको भोजन कराइये । चुनांचे जो लोग मिले उन्हें
: आपने गलत कहा है, बच्चा अच्छी हालत में है भी भोजन कराया गया, किन्तु फिरभी वह भोजन
और वह खिचड़ी मांग रहा है। तुम घर जाकर अवशिष्ट रहा, उसी दिन ला० सुन्दरलालजीको गुर्दे
देखो तो सही, घबड़ाभो नहीं और वहां पहुंच कर
वापिस आ जाना। लड़के का पिता घर जाकर का दर्द बड़ी तेजीसे उठ खड़ा हुआ, जिससे उप
देखता है तो लड़का बराबर बोल रहा है और खाने स्थित यात्रियों और घरवालोंमें बेचैनी दौड़ गई। बाबाजीने लोगोंकी बेचैनी देखकर पूछा कि क्या
को खिचड़ी मांग रहा है। इस घटनासे वहांकी बात है ? जो आप लोग सब परेशान हो रहे हैं।
सारी जनतामें बाबाजीके प्रति जो श्रद्धा और
आदर भाव बढ़ा, वह लेखनीका विषय नहीं। अब तब लोगोंने सारा हाल कह सुनाया कि ला० सुन्दर
जनता अधिकाधिक संख्या में उनके पास आती और लालाजी को गुर्दे का दर्द तीव्र वेदनाके साथ उठ
उनसे धर्मका उपदेश सुन कर वापिस चली जाती। गया है, इसीसे सब परेशान हो रहे हैं। बाबाजीने
दूसरी घटना मेरठ जिले के एक भनेरी प्रामकी कहाकि बड़ी हरड़ मंगवाकर उसे ठण्डे पानीके साथ
है, जो आलम या आलमपुर स्टेशनके पास है। दे दीजिये दर्द जाता रहेगा, किन्तु लोगोंको दर्दमें ठण्डा पानी देना अनुचित प्रतीत हुआ, फिरभी मन्दिर बनवाने की प्रेरणा की, तब उनके निर्देशा
बाबाजी ने ग्रामवासी जैनियोंसे वहां एक जिनबाबाजीकी आज्ञानुसार हरद पानीके साथ देदी - गई, उससे सब ददे शान्त हो गया और फिर वह
नुसार साधर्मी भाइयोंने जिन मन्दिर बनवाने का
कार्य शुरू कर दिया। पर स्थानीय जाटोंने मन्दिर जीवनपर्यन्त उदित नहीं हुआ। इन सब बातोंसे, लोगोंकी. बाबाजीमें आस्था और भी दृढ़ होगई।
के कार्य के लिये अपने कुएँ से पानी लेना बन्द कर अस्तु, वहसि संघ सानन्द हापुड़ आया। तब बाबा- लेकर मन्दिर का निर्माण कार्य किया जाता। जैनियों
। दिया। वहाँ दूसरा कोई कुत्रां नहीं था जिससे पानी जीको स्थानीय जनताने वहां ही रोक लिया। बाबाजीने वहां ही चातुर्मास किया और वहाँ मन्दिरजीके :
ने उन जाटोंसे बहुत कुछ अनुनय-विनय की, परन्तु
उसका कोई फल न हुआ-वे टस से मस नहीं हुए, लिये प्ररणा की, परिणामस्वरूप मंदिरजीको तीन दुकानें प्राप्त हुई।
और उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि हम जैनमन्दिर
के लिये पानी नहीं लेने देंगे, चाहे मन्दिर बने या अन्य घटनाएँ
न बने । तब जैनी लोग बड़े संकट में पड़ गए कि एक बार एक बड़े प्रतिष्ठित धनीका इकलौता मन्दिरका निर्माणकार्य कैसे सम्पन्न हो, फलतः पुत्र सहसा बीमार हो गया। यहां तक कि जीवन निराश और अत्यन्त दुखी हो बाबाजी के पास
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वर्ष १४]
श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य [५३ मेरठ आये और सारा हाल कह सुनाया। बाबाजी प्रतिज्ञा भंगकी, या उसके पाननेमें प्रमाद किया ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। उनके अथवा अवहेलना की, या उसका ठीक तरहसे कुएँ के पास ही जो अपनी जमीन हो वहां से लेकर पालन नहीं किया, उसे अपनी भूल पर पछताना अपने मन्दिर तक एक नाली सी खुदवालो, पानी ही पड़ा, जिसके दो तीन उदाहरण भी यहाँ आ जायगा और मैं परसों वहाँ आ जाऊंगा। दिये जाते हैं। जैनियोंने ऐसा ही किया, चुनांचे ज्योंही बाबाजी एक बार बाबाजीके पास एक आदमी आया, वहाँ आए, उसी समय उस नाली में से जोरसे और बोला महाराज ! मेरा गुजारा नहीं पानी वह निकला और जाटोंका कुआं खाली होने चलता, मैं बड़ा दुःखी हूँ। बाबाजीने पूछा तुम क्या लगा। यह दशा देखकर वहाँ के जाट बाबाजीके करते हो? उसने कहा कि मैं उवालकर सिंघाडा चरणों में पड़ गए और क्षमा मांगी, तथा प्रार्थना बेचता हूँ, बाबाजीने पूछा, कितने सिंघाडे उवालते की कि महाराज इसी कुयें से पानी लेकर मन्दिर हो? उसने कहा महाराज! चार टोकरे उवालकर बनाया जाय । इस तरह वह मन्दिर बन कर आज बेचता हूं फिर भी मेरा गुजारा नहीं होताभी अपने इस इतिवृत्तको अंचल में छुपाए हुए जैन रोजाना एक रुपया भी नहीं बचता, बाबाजीने कहा साधु की निष्ठा और तपश्चर्या की महत्ताको प्रकट यदि १) रुपया रोजना तुम्हें बचने लगे तो फिर कर रहा है।
तुम्हारा गुजारा आनन्दसे होने लगेगा। उसने एक समय बाबाजी मेरठसे हस्तिनापुर जारहे थे। कहा हाँ महाराज मेरा गुजारा आनन्दसे हो मार्गमें एक किसान अपने खेतमें ईख जला रहा जायगा । बाबाजीने कहा अच्छा भाई तुम कलसे था, बाबजीने उसे बुलाकर पूछा तुम क्या कर रहे हो । वह बोला महाराज ! मैं ईख जला रहा हूँ कर बेचा करो, तुम्हें १) रुपया रोजाना बच जाया जिससे अगले वर्ष इस खेतमें ५० मन गुड़ पैदा करेगा। निदान उसने वैसा ही किया तो उसे होगा। बाबाजीने कहा, यदि तुम ईख जलाना छोड़ रोजाना एक रुपया शामको वच जाया करता था। दो तो अगले वर्ष ६० मन गुड़ पैदा होगा । किसानने इस तरह उसका कार्य प्रानन्दसे चलने लगा। एक कहा कि महाराज ! मैं आपकी बातको कैसे मानलु दिन उसने सोचा कि कल मेलेका दिन है दो टोकरे कि ईख न जलाने पर मुझे अगले वर्ष ६० मन गुड सिंघाड़े उबाल लू', यह विचारकर उसने वैसा ही मिल जायगा । तब बाबाजीने अपने साथीकी ओर किया। किन्तु शामको बेचकर हिसाब लगाया गया इशारा करके किसानसे पूछा कि तुम इन्हें जानते तब उसे मूलमें से भी आठ आने कम निकले। हो, उसने कहा हाँ, महाराज, ये तो हमारे साहू- बादमें वह बहुत पछताया, परन्तु अब पछतानेसे कार हैं । बाबाजीने पुनः किसानसे कहा कि ईख न क्या होता है। वह अपने लोभके कारण प्रतिज्ञासे जलानेका नियम लो, तो अगले वर्ष तुम्हारे खेतमें गिर चुका था उसीका परिणाम उसे भोगना पड़ा। ६० मन गुड़ पैदा होगा, और यदि किसी कारण एक दिन एक पुरुष जिसे कोई अन्दरूनी बीमारी वश साठ मन गुड़ पैदा न हो तो तुम्हारे नुकसानको हो रही थी बाबाजीके पास आया और बोला ये अपनी ओरसे पूरा कर देंगे । इस बातको दोनोंने महाराज ! यदि किसी तरह मर जाऊँ तो मेरा स्वीकार कर लिया । किसान बाबाजीको सिर पिण्ड इस बीमारीसे छूट जायगा, बड़ी वेदना है। झुका कर चल दिया और बाबाजी हस्तिनापुरको सही नहीं जाती। बाबाजीने कहा कि यदि जीवन चले गये। अगले वर्ष उस किसानके खेतमें ६० मन पर्यन्तके लिये तू परस्त्रीका त्याग कर दे तो अच्छा गुढ़ पैदा हुआ और उसने इसकी सूचना अपने हो जायगा । उसने प्रतिज्ञा ले ली और वह कुछ साहूकारके पास पहुँचा दी। और वह भी बाबाजी. दिनोंमें ही बिल्कुल अच्छा होगया। किन्तु उसने का भक्त बन गया । परन्तु जिस व्यक्तिने अपनी अपनी प्रतिज्ञाके विरुद्ध छह महिने वाद ही परस्त्री
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नर
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[वर्ष १४ सेवन किया, जिससे वह पुनः रुग्ण हो गया । अब- अच्छा पैसा प्राप्त कर लिया, किन्तु उसके बाद वे की बार उसके शरीरसे दुर्गन्ध और पीव आने अपनी प्रतिज्ञा भूल गए और पुनः वे जुआरियोंलगी। वह पुनः बावाजीके पास दौड़ा गया, और के पास बैठने लगे। निदान उसी समयसे उनकी दीनवृत्तिसे प्रार्थना की, परन्तु बाबाजीने उससे सम्पत्ति भी कम होती गई, और अन्त में वे उसी स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया कि तेरा इलाज तेरे ही अवस्थामें पहुँच गए। पास है, मैं कुछ नहीं कर सकता, तुम यहाँ से चले बड़ौतके पास किसी एक ग्राममें प्रतिष्ठा महोत्सवजाओ।
का कार्य सम्पन्न हो रहा था। उसमें चार हजार पहाड़ी धीरज पर ला कुवरसैनजी रहते थे, जनतामें लड्डुओंके बांटनेके लिये व्यवस्था की गई पहले वे सब तरहसे सम्पन्न थे, किन्तु कुछ वर्षोंके थी, किन्तु दैवयोगसे जैन जनता दस हजारसे भी बाद असाताके उदयसे सम्पा.का अभाव होगया, कुछ अधिक आगई थी । ऐसी स्थितिमें प्रबन्धकोंकी तब वे आजीविकाके निर्वाहार्थ जुआरियों के पास बड़ी चिन्ता हुई, और वे बहुत घबड़ा गए, तथा बैठने उठने लगे, उससे उन्हें जो थोड़ीसी आय हो किंकर्तव्य विमूढ़से हो गए । इसी कारण वे सबके जाती थी उसीसे वे अपना निर्वाह करते थे। वे भी सब बाबा लालमनजीके पास दौड़े गए, और उन्हें बाबाजीके पास पाया जाया करते थे, जब बावाजी नमस्कार कर निवेदन किया कि महाराज! जनको यह ज्ञात हुआ कि वे जुआरियोंके पास उठते समूह कल्पनासे अधिक आगया है, अब निर्वाह बैठते हैं, तब एक दिन बाबाजीने उनसे कहा कि कैसे होगा ? इतना प्रबन्ध तो इतनी जल्दी होना लुम जुआरियोंके पास उठना बैठना छोड़ दो, तब संभव नहीं है । और यदि प्रबन्ध नहीं होता है तो उन्होंने अपनी सारी स्थिति बाबाजीसे बतलाई, लोक हँसाई और बदनामी होगी, एवं उससे जैन
और कहा कि ऐसेमें उसे कैसे छोडूं। तब बाबाजीने धर्मको भी ठेस पहुँचनेको संभावना है । इस कारण कहा कि यह कार्य अपनी कुलमर्यादा और धर्मके हम आपसे सादर निवेदन करते हैं कि महाराज ! विपरीत है इसे अवश्य छोड़ देना चाहिये। उन्होंने अब हमें केवल आपका ही सहारा है, आप ही उसका नियम ले लिया, उनके नियम लेनेके बाद हमारी नैयाको पार लगा सकते हैं। बाबाजीने उनसे कहा कि तुम रोजाना लाल किलेके पास कहा कि आप लोग चिन्ता मत करो। धर्मके चिंटियोंको आटा डाल आया करो। चुनांचे वे प्रसादसे सब कार्य पूरा होगा। किन्तु जैसा मैं कहूँ प्रतिदिन चिटियोंको आटा डालनेके लिये लालकिले उसके अनुसार ही प्रवृत्ति करते जाओ। उन्होंने के पास जाया करते थे, उस समय उन्हें दो दिनका एक कपड़ा मंगवाया और उस पर उन्होंने एक फाका भी करना पड़ा । किन्तु तीसरे दिन दरीबा- मंत्र लिख कर दिया और कहा कि यह कपड़ा जिस
में काजी मुहम्मद हुसैनखां सब जजके सरिश्ते- वर्तनमें लड्डू रक्खे हैं उस पर ढांक दीजिये और दार ला० मन्नूलालजीके पास एक आदमी पाया और एक व्यक्ति नहा धोकर शुद्ध वस्त्र पहिन कर उसमेंउसने कहा कि आपके पास अमुक आदमीका एक से लड्डू निकाल कर देता रहे। चुनॉचे ऐसा ही मुकदमा है। और मैं ये सौ रुपया देता हूँ, उन्हें किया गया । और दश हजारसे अधिक व्यक्तियोंको आप ला० कुवरसैनजीको दे देना । ला० मुन्नालाल लडडू बराबर बाँटे गए, परन्तु वे फिरभी बचे रहे। जी ने रुपया ले लिया। और जब आफिस में आए तब बाबाजीने कहा कि और जो कोई रहा हो उन तब मुकदमोंकी लिस्ट देखो और उसमें उस आदमी सबको बांट दीजिये। इससे लोगोंको आश्चर्य का नाम तलाश किया, किन्तु वह नहीं मिला। हुआ और बाबाजीमें विशेष श्रद्धा हुई। परन्तु जब कुंवरसैनजी मिले, तब उन्हें बह रुपया दे बाबाजीका निवास दिल्लीमें बहुत अर्से तक दिया गया। उन्होंने सौ रुपया लेकर उससे बूरा रहा । धर्मपुराके नये मन्दिरजीकी धर्मशाला तथा बेचनेकी दुकान खोली, उससे १५-२० वर्षों में उन्होंने सेठके कूचेकी धर्मशालामें तो वे अन्तिम
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वष १४] श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य समय तक भी रहे। और वहाँ रहते हुए तपश्चर्या गई थी। इन्हीं सब कारणोंसे बाबाजी अल्पज्ञानो का अनुष्ठान करते हुए अपना समय धर्म-ध्यान में होते हुए भी एक साधक सन्तके समान थे। जब व्यतीत करते थे। वे कुछ समय पहाड़ी धीरज पर कभी कोई व्यक्ति उनसे प्रतिज्ञा न लेनेके लिए भी रहे हैं और नये मन्दिरजीसे भी पहाड़ी धीरज किसी वजहसे असमर्थ होकर निवेदन करता, तब आते जाते रहे हैं। जब वे पहाड़ी धीरज पर बावाजी उसे दबाते और धमका कर भी धर्मजाते थे तब राजवैद्य शीतलप्रसादजीसे मन्दिरजी भावनासे प्रेरित हो प्रतिज्ञा लेनेके लिये कहते।
जरूर सुनते थे। उनसे उन्हें कुछ अनुराग और यह भी कह देते थे कि भाई यदि त भी था। एक बार बैद्यजी बीमार हो गए, उससे प्रतिज्ञा नहीं लेगा तो मैं स्वयं आहार-पानीका त्याग काफी कमजोर हो गए। उनमें उठने बैठनेकी भी किये देता हूँ। तब वह भयसे स्वयं प्रतिज्ञा ने विशेष क्षमता न रही, दैवयोगसे उन्हीं दिनों लेता था। पर ऐसा कहने पर भी बाबाजीके हृदयमें बाबाजी पहाड़ी धीरज पहुँचे, और उन्होंने वैद्यजी कोई रोष नहीं होता था। किन्तु करुणा और को बुलवाया, तब उन्हें मालूम हुआ कि वैद्यजी परहितकी भावनाका प्रबल उद्रेक ही उसमें विशेष सख्त बीमार हैं । उनसे उठा नहीं जाता और न कारण था । चल फिर ही सकते हैं, इसलिये इस समय आनेसे अन्तिम जीवन और समाधिमरण मजबूर हैं । यह सुन कर बाबाजी उस दिन तो वैसे ही लौट आये; किन्तु अगले दिन पुनः पहाड़ी इस तरह बाबाजीसे अपनी श्रात्म-साधनामें पर गए और वैद्यजीको बुलानेके लिये आदमी जो कुछ भी उनसे बन सकता था उसे सोत्साह भेजा। आदमीने जाकर वैद्यजीसे कहा कि बाबाजी करते रहे । अन्तिम समयमें दो दिन पूर्व उन्हें यह ने आपको अभी बुलाया है, उन्होंने कहा कि इस मालूम हो गया कि परसों अमुक समय पर तेरी समय तबियत खराब है कैसे चलू। तब उस आदमी- देह कूटने वाली है, अतः उन्होंने पंडित संसारचन्द्रने कहा कि बाबाजीने कहा है कि उन्हें किसी तरहसे जीको बुला कर उनसे कहा कि भाई परसों अमुक यहाँ अवश्य ले आओ । चुनांचे वैद्यजीको डोलीसे समय पर मेरी मृत्यु होगी। अतः मन्दिरों के ले गए । वैद्यजी मन्दिरजीके पास डोलीमेंसे उतरे निर्माणका जो कार्य चल रहा है उस विषय में जो और बाबाजीसे मिले । मिलते ही वैद्यजीकी तबियत मेरी जानकारी है उसे नोट करलो जिससे मैं स्वस्थ-जैसी ऊँचने लगी। वैद्यजीने बाबाजीको शास्त्र निःशल्य हो जाऊँ। चुनांचे पंडितजी ने ऐसा ही पढ़कर सुनाया । उसके बाद जब वे घर गए तब किया । और बाबाजी अपने में सविशेष रूपसे स्वस्थ होकर पैदल ही गए और उस दिनसे उनकी सावधान हो गए और आज से कोई ४० वर्ष पूर्व . तबियत बिल्कुल ठीक हो गई।
सं०१६ ३ में उन्होंने अपने शरीरका परित्याग इन थोड़ी सी घटनाओं परसे जहाँ बाबाजीकी कर देवलोक प्राप्त किया । तपश्चर्या, आत्म-साधना और जिन-धर्म पर उनकी बाबाजीक सम्बन्धमें पाठकोंको जो कुछ नवीन निर्मल दृढ़ प्रगाढ़ श्रद्धाका मान होता है, वहाँ उनकी घटनाएँ और जीवन-सम्बन्धी बातें ज्ञात हों, उन्हें अन्तर निर्मल परिणतिका भी स्पष्ट आभास हो लाला प्रकाशचन्द्र शीलचन्द्रजी जौहरी चाँदनी चौक जाता है। उन्हें तपकी शक्तिसे वचनसिद्धि प्राप्त हो देहलीके पते पर भेजनेकी कृपा करें।
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महाकवि स्वयम्भू
और उसका तुलसीदासकी रामायणपर प्रभाव
(परमानन्दजी जैन)
अपंश भाषा के कवियोंमें चउमुह और स्वयंभू का कवि स्वयंभू में नैसर्गिक काव्य प्रतिभा थी । यह उननाम चासतौरसे उल्लेखनीय है। यद्यपि चउमुहकी बहु की काव्य रचनाओं के अध्ययनसे स्पष्ट हो जाता है। साथ मत्य तियाँ सम्प्रति अनुपलब्ध है। किन्तु उनका उल्लेख ही यह भी ज्ञात होता है कि स्वयंभदेव प्रकृतिके विशिष्ट स्वयंभूने स्वयं किया है और इससे चतुर्मुख स्वयंभूसे अभ्यासी थे। यही कारण है कि जहाँ उनकी काव्य-धारा पूर्ववर्ती हैं यह स्वत: सिद्ध है।
में सरलता है वहाँ प्रकृतिके रमणीय वर्णनसे उसकी शोभा स्वयंभूदेवका कुल ब्राह्मण था, परन्तु जैनधर्म पर उन- दुगुणित हो गई है, और श्रोतागण रूपचातक जन उसकी की प्रास्था हो जाने के कारण उनकी उस पर पूरी निष्ठा मधुरिमाका पान करते हुए तृप्त नहीं होते। यद्यपि कविकी एवं भक्ति थी । इनके पिताका नाम कवि मारुतदेव और उपलब्ध कृतियाँ बचावधि अप्रकाशित है।उनको पाँच कृतियों माताका नाम पमिनी था। कविने स्वयं अपने छन्द के बनाए जानेका उल्लेख मिलता है जिनमेंसे इस समय तीन प्रन्थमें मारुतदेवके नामसे उद्धरण दिया है । इससे संभव हो उपलब्ध हैं। पउमचरित, हरिवंशपुराण और स्वयंभू है कि वे कविके पिता ही हों। कविकी तीन परिनयाँ थीं, छन्द । शेष दो कृतियाँ स्वयंभू ग्याकरण और पंचमी चरित प्रादित्य देवी, जिसने अयोध्याकाण्ड लिपि किया था। अभी तक अनुपलब्ध हैं। ये सभी कृतियाँ अपभ्रंश या दसरी सामिश्रब्बा, जिसने 'पउम चरिउ'की बीस संधि लिख- देशी भाषामें रची गई हैं। बाई थी, और तीसरी सुधन्वा, जिसके पवित्र गर्भसे। त्रिभुवन स्वयंभू जैसा प्रतिभा सम्पन पुत्र उत्तम हुआ था।
रामकी कथा कितनी लोकप्रिय है, इसे बतलानेकी भावजो अपने पिताके समान ही विद्वान और कवि था।
श्यकता नहीं । भारतीय साहित्य में ऐसा कोई साहित्य होगा, कविवरके सुपुत्र त्रिभुवनस्वयंभू को छोड़कर अन्य पुत्रा
जिसमें रामकथाका कोई उल्लेख न किया गया हो । जैन, दिकोंका कोई पता नहीं चलता। कविवर शरीरसे दुबले
वैदिक और बौद्ध साहित्य में रामकथा पर अनेक पाख्यान पतले और उसत थे। उनकी नाक चपटी और दांत
पाये जाते हैं । यद्यपि जैन वैदिक रामायणोंको छोड़कर विरल थे।
बौद्ध रामायण मेरे अवलोकन में नहीं आई इस कारण यहाँ ® पउमिणि जणणि गम्भ संभूएं,
उसके सम्बन्धमें कुछ लिख. सम्भव नहीं है, तथापि बौद्धमारुतएव स्व अणुरायें ।२१-२ धर्मको अपेक्षा जैनधर्ममें 'रामकथा' का खासा प्रचार रहा xभाइच्चुएवि-पडिमोवमायें भाइच्चम्बिमाए । है। उसमें तद्विषयक साहित्यकी सृष्टि प्राकृत संस्कृत. बीउ मउज्मा-कंडंसयंभू धरिणीय लेहवियं । संघि..२ अपनश और हिन्दी भाषामें की गई है। जिनके नाम .+ धुवरायबत इयलु अप्पणत्ति शत्तीसुर्याणु पाढेण (?)। पउमचरित, बलभद्रचरित, रामचरित, सीताचरित, पन
णामेणसामिश्रधा सयंभू घरिणी महासत्ता, संधि २० चरित, पमपुराण और रामपुराण प्रादि है । यद्यपि जैन तीए लिहाधिय मिणं वीसहिं मासासएहिं पटिबद्ध। रामायण में भी मान्यतामेद तथा पात्रोंके चरितमें कुछ मतसिरि विज्जाहर-कंड, कण्डं पिव कामएक्स्स ॥२० मेद पाया जाता है परन्तु उससे मूल कथामें कोई अन्तर सम्वे वि सुश्रा पंजर सुअव्व परिपक्राई सिकंवति। नहीं पड़ता । जैन समाजमें रामको कथाका जितना समादर कहरा अस्स सुमो सुपब्व-सुह-गम्भ संभूमो ॥ है उतना समादर पूर्वकालमें अन्य धर्मों में भी नहीं था, और महतणुएण पईहरगत्ते विवर हासे पविरल दंतें उसका कारण रामका पावन जीवन-परिचय ही है । हिन्दू
१५.२ समाजमें रामकथाका जो भारी प्रभाव इस समय देखा जाता
धमक
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वर्ष १४]
महाकवि स्वयंभू
है वह सब तुलसीदासजीके बादसे हुआ है, उस समय है। इस रष्टिसे यदि पउमचरिउको महाकाव्य कहा जाय तो सहखों हिन्दू परिवार रामको कथासे प्रायः अपरिचित हो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। प्रन्थमें कोई दुरुहता नहीं है थे। रामको देवता माननेकी कल्पना भी नूतन तो नहीं है, वह सरस और काम्य-सौंदयकी अनुपम छटाको लिये हुए किन्तु पुरातन है। कितनी पुरानी है यह भी विचारणीय है। कर्ण प्रिय और मनोहर है पढ़ते हुए उससे पाठकका जी है।जैनकथा-प्रन्यों में रामकी महत्ताका सुन्दर चित्र अंकित नहीं उपता: किन्तु उसकी उत्कंठाको और भी अधिक किया गया है, यही कारण है कि मानवका चित्त उसे पढ़ते बनवती बना देता है। ही रामके गुणों को भोर माकृष्ट हुए बिना नहीं रहता।
प्रन्थमें नारीके सौंदर्यका ही सुन्दर वर्णन नहीं है किन्तु क्योंकि मके जीव की महत्ता, और लोकप्रियता उनकी
विभिन्न देशोंकी नारियों के वेष-भूषा रहन सहन और प्रलं. मोर माकृष्ट होनेका हेतु है। वे मानवताकी साचात् मूर्ति
कारों की चर्च भी की गई है, पर उनमें राष्ट्रकूट नारीका थे, उनकी सौम्य मुद्रा हृदयहारिणी थी। दूसरे सीताके
चित्रण बहाही सजीव है और उससे ऐसा ज्ञात होता है कि आदर्श सतीत्वकी अग्नि-परीक्षा ही उसके जीवनका सबसे
संभवतः कविने अपना यह ग्रंथ राष्ट्रकूट राजाओं के राज्यबड़ा मापदण्ड है, जो उसकी कीर्तिको भान तक भी
कालमें बनाया हो; क्योंकि उन्होंने स्त्रियोंके वेष-भूषा भक्षुण्ण बनाये हुए हैं। सीता केवल सती ही नहीं थी
माविका जो भी चित्रण किया है, वह सब मान्यखेट या किन्तु विदुषी और विवेकशीला भी थी। रामचन्द्र के द्वारा
उसके पासवर्ती इलाकों, नगरों और समीपवर्ती देशों में लोकापवादके भयले कृतान्तवक्र सेनापति द्वारा भीषण
जहाँ उनकी पहुंच आसानी से हो सकती थी और वे उसे अंगल में छुड़वाए जाने पर भी सीताने रामचन्द्र पर कोई कोप
मजदीक से देखने में समर्थ हो सके थे। यही कारण है कि नहीं दिया और न किसी प्रकारका दुर्भाव ही व्यक्त किया।
वे उसे इतने अच्छे रूपमें दर्शाने में अथवा अंकित करने में किन्तु सेनापतिसे यह कहा कि रामचन्द्रसे कह देना कि जिस
सफल हो सके हैं। अयोध्याके रखवासका चित्रण कविने बोकापवादके भयसे आपने मेरा परित्याग किया उसी तरह दिया। उसपर भी उसका गाढा रंग चढ़ा हुमा प्रतीत होता लोकापवादके भयसे अपने धर्मका परित्याग न कर दना, है। इससे राहलजीके शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता सीताके यह वाक्य उसके विवेक और अमित धीरताके सूचक
पर है कि "राष्ट्रकूट राजाभोंके राज्यकाल में कविको नारियों के हैं. जो विपत्तिमें भी विषाद नहीं करते, वे ही जगमें सन्त कह ।
बेष-भूषा रहन-सहन माविको नजदीकसे देखनेका सुअवसर ही महान् और समादरणीय होते हैं। वास्तवमै मिखा है।" इसीसे ग्रन्थ में उनका सांगोपांग कथन राम और सीताका चरित जीवनकी प्रादर्शताका उज्ज्वल
दिया हया है। कविकी कथन-शैली बड़ी ही मनोमोहक है। नमूना है। हाँ, तुलसीदासजीने भनिवश रामके गुणोंका
उसमें ऋतुभोंका वर्णन तो नैसगिक है ही, किन्तु और भी कीर्तन अतिशयोनिको लिये हुए किया है। यद्यपि वैदिक
कितना प्राकृतिक सौन्दर्यका विवेचन यत्र तत्र मिलता है। रामकथा और जनस्थानों में काफी मतभेद है, क्योंकि उनमें
वनोंका वर्णन भी प्राकृतिक और सरस ज्ञात होता है। कितनी मान्यताएं साम्प्रदायिक दृष्टिकोणको लिये हुए है। उदाहरण के लिये यहाँ वसन्त ऋतुका वर्णन करने वाली कुछ पउमचरिउ
पंक्रियाँ नीचे दी जाती हैं।स्वयंभूकी रामकथा (पउमचरिड)या रामायण बहुत
कुब्वर-णयरु पराइय जाहि, ही सन्दर कृति है। इसमें 80 सन्धियाँ हैं जिनमें स्वयंभ
फग्गुण-मासु पवोलिउ तावेंहि ।१ देवकी ३ सन्धियाँ हैं। शेष सन्धियाँ उनके पुत्र त्रिभुवन- पइट/ वसन्त-राउ प्राणन्दें, स्वयंभू की हैं। वह ग्रन्थ उतने में ही पूरा होजाता है परन्त
कोइल-कलयल-मङ्गल-सद्दे २ शेष सात सन्धियाँ उनके सुपुत्र त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रची अलि-मिहुणेहि वन्दिणेहिं पठन्तेहिं, गई है जिनमें कुछ नवीन विषयोंकी चर्चा की गई है।
वरहिण-वावणेहिं णच्चन्तेहिं ।३ ग्रन्थकर्ताने अपनी उस रामकथामें उन सभी विषयोंकी
अन्दोला-सम-तोरण-वारेहिं, चर्चा की है जिनका कथन एक महाकाम्ब में आवश्यक होता
ढुक्कु वसन्तु अणेय पयारेहिं ।४
न
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%
अनेकान्त
[वर्ष ११ कथइ चूब वणइँ विपल्लवियई,
विलाप-चित्रण में भी उसने बड़ी सफलता प्राप्त की णव-किसलय-फल-फुल्लब्भहियाँ ।५।। रावणके मरने पर मन्दोदरी और विभीषणके विप कत्थइ गिरि-सिहरइँ विच्छय,
सिर्फ पाटकके नेत्रोको ही सिक्न नहीं करते, बल्कि उनका - खल-मुहई व मसि-वरण णाव।।
मन मन्दोदरी और विभीषण तथा रवणके गम्भीर और कत्थइ माहव-मासहो मेइणि.
उदात्त भावोंकी दाद देता है।" हिन्दी काव्यधारा पृ.॥ पिय-विरहेण व सूसइ कामिणि ।
रामायण पर प्रभाव कत्थइ गिज्जइ वज्जइ मन्दुल,
इस सब कथन परसे स्वयंभूदेवकी रामायणकी महत्ताणर-मिहुणेहिं पणच्चिउ गोन्दलु का पता सहज ही चल जाता है, वह कितनी लोकोपयोगी तं तहो एयरहो उत्तर-पासहिं,
और बहुमूल्य कृति है। उनकी इस कृतिका हिन्दी भाषाके जण-मणहरु जोय
प्रसिद्ध कवि गोस्वामी तुजसीदासजी और उनकी कृति दिट्ट वसना तिलउ उब्जाउ।
'रामचरित मानस' पर अमित प्रभाव पड़ा है और उसका सज्जण-हियउ जेण अ-पमाणउ ॥१०
कविने बहुत ही भादरके साथ स्पष्ट शब्दों में उल्लेख भी
किया है जो मानसके शब्दों में निम्न प्रकार है:इसी तरह पावस और ग्रीषम प्रादि ऋतुओंका भी जे प्राकृत कवि परम सयाने, कथन सहज रूपमें किया गया है जिसे पढ़ कर चित्त प्रसस
भाषों जिन हरि चरित बखाने । औजाता है। यद्यपि कविने अपनी लधुता व्यक्त करते हुए भये जे अहहिं जे होहहिं आगे, अपनेको, म्याकरण, काव्य, छन्द और अलंकार मादिके
प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागे। परिज्ञानसे रहित बतलाया है। परन्तु जब हम अन्धको
इसमें बतलाया गया है कि प्राकृत (अपभ्रंश) के भाषाको देखते और मनन करते हैं तब हमें कविवरके पथ जो चतुर कवि हुए है, जिन्होंने रामदेवका चरित बनाया बडे ही कर्ण प्रिय चोर शब्द नपे-तुले तथा कथन है. हुए हैं, और आगे होंगे, मैं (तुलसीदास) उन
नवीनताको पाते हैं। इससे कविकी महानता का सबकी कपट रहित होकर बन्दना करता हूँ। यहाँ यह बात सहज ही पता चल जाता है । माननीय लेखक राहुलसांकृत्या- खास तौरसे नोट करने योग्य है कि प्राकृतमें हरिका चरित बनजीने स्वयंभूको सबसे बड़ा कवि बतलाया है, और उसे
सिर्फ जैन कवियोंने ही बनाये हैं। पूर्वकालसे अब तक प्रकृतिका सबसे गहरा अध्येता भी प्रकट किया है। जैसाकि
अपनश रचनात्रोंकी प्राकृत में ही गणना की जाती रही है, उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
क्योंकि प्राकृतका बिगड़ा हुमा रूप ही अपभ्रंश है। इसीसे भने प्रकृतिका बहुत गहरा अध्ययन किया है। उसका उल्लेख ग्रन्थभंडारोंकी सूचियों प्रादिमें भी उशिखित यह हमारे दिये हए उद्धरणोंसे मालूम होगा । वे समुद्र और है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है कि भारतीय साहित्यमें जैन कितने ही अन्य स्थलों एवं प्राकृतिक श्योंका वर्ण करने में कवियोंको छोड़कर रामकथाकी कोई अपभ्रंश रचना प्रम बाहिती है। और सामन्त समाजके वर्णनमें उसको किसीसे तक प्रकाशमें नहीं आई है। किन्तु जब मैं मानसको ससाना नहीं की जासकती। किसी एक सुन्दरीके सौन्दर्यको बारीकीसे अध्ययन करता हूँ तब मुझे यह स्पष्ट पाभास भासने चित्रित किया है, वह तो किया होता है कि उस पर किसी अपभ्रंश रचनाका प्रभाव जरूर
लेकिन सन्दरियों के सामूहिक सौन्दर्यका वर्णन करनेमें रहा है। रामचरित मानसमें रचनाका क्रम, उकार बहल उसने कमाल कर दिया है। चित्रकारकी भाति कविके शब्दोंकी बहुलता भाव तथा अर्थविन्यास ये सब बातें और सामने भी कोई साकार नमूना रहना चाहिये । स्वर्षभूने भी स्पष्ट कर रही हैं। पथपि उसकी कथावस्तु वैदिक राष्ट्र टोंके रविवास और उनके मामोद-प्रमोदको नजदीकसे धर्मानुसार ही बाल्मीकि रामायण प्रादिसे नी जान देखा था। वहां परदा विल्कुल नहीं था, इसलिये और भी पड़ती है, किन्तु स्वयंभूदेवका 'पडम चरित' ही मन सुविधा थी। उसो सौन्दर्यको उसने रावण और अयोध्याके मानसकी ऐसी रचनामें प्रेरक हुआ है। स्वयंभूने अपनी रनिवासोंके सौन्दर्य के रूप में चित्रित किया है।
[शेष टाइटस पृष्ट ३ पर]
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अतिथिसंविभाग और दान
(श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री) [थावकके बारह व्रतोंमें 'अतिथि संविभाग' नामका बारहवाँ व्रत है और श्रावकके छह प्रावश्यकोंमें 'दान' यह छठा मावश्यक है। इन दोनोंमें क्या अन्तर है तथा इन दोनोंका प्रारम्भमें क्या रूप रहा और पीछे जाकर दोनोंका क्या रूप हो गया, यह बतलाना ही इस लेखका उद्देश्य है।
-सम्पादक] भारतवर्ष में प्राचीन कालसे ही गृहस्थोंके भीतर संस्कृत साहित्यमें 'अत्' धातु निरन्तर गमन दान देनेकी प्रथा रही है । इसके दो कारण रहे हैं- करनेके अर्थमें प्रयुक्त होती है । तदनुसार जो अपने एक तो यह कि जिन लोगोंने आत्म-कल्याण करनेकी संयमकी रक्षा करते हुए निरन्तर गमन करता है, भावनासे गृह-जंजालका परित्याग कर दिया और जो अर्थात् घर बनाकर किसी एक स्थान पर नहीं रहता अहर्निश आत्म-साधनामें निरत रहने लगे, उनकी है उसे 'अतिथि' कहते हैं । अथवा जिसके अष्टमी, साधनामें सहायक होना गृहस्थोंने अपना अति श्राव- चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियोंका विचार नहीं है, अर्थात् श्यक कर्त्तव्य समझा और इस प्रकार घर-बार छोड़कर सर्व पापोंका सर्वदाके लिए परित्याग कर देनेसे जिसके साधु-जीवन बिताने वालोंके भोजन-पानादिका सभी तिथियां समान है,उसे 'अतिथि' कहते हैं। इन उत्तरदायित्व उन्होंने अंगीकार किया । प्रकारान्तरसे दोनों ही निरुक्तियोंके अनुसार 'अतिथि' शब्दका अपनेको घर-बार छोड़ने में असमर्थ पाकर एवं गृह- वाच्य गृह-त्यागी और संयम-धारक साधु-साध्वियोंसे त्यागी पुरुषोंके धर्म-साधनमें कारित और अनुमो- रहा है । पीछे पीछे 'अतिथि' शब्दका उक्त यौगिक दनासे सहायक बनकर साधु बननेकी अपनी भावना- अर्थ गौण हो गया और वह वीतराग धर्मके धारण को उन्होंने कायम रखा । दूसरा कारण यह रहा है कि करनेवाले साधु-साध्वियोंके अतिरिक्त श्रावक और गृहस्थके न्यायपूर्वक भाजीविका करते हुए भी चक्की श्राविकाओं के लिए भी प्रयुक्त होने लगा । जैसा कि चलाने, धान्यादि कूटने, पानी भरने, झाड़-बुहारी इस उल्लेखसे स्पष्ट हैदेने और भोजनादि बनाने में अगणित जीवोंकी हिंसा "प्रतिथयः वीतरागधर्मस्थाः साधवः साध्व्य: श्रावकाः होनेसे महान् पापका संचय होता रहता है। उस पापकी श्राविकाश्च ।
(धर्मबिन्दु, वृ० १५१ ) निवृत्तिके लिए भी गृहस्थने प्रतिदिन दान देना अपना इसी प्रकार संविभाग पदका भी अर्थ प्रारम्भमें कर्त्तव्य माना। इस प्रकार दान देनेकी भावनामें हमें साधुजनोंको खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय रूप चार स्पष्टरूपसे उक्त दो कारण ज्ञात होते हैं।
प्रकारके आहार देनेसे रहा है। जैसा कि निम्न जैनाचार्योंने प्रथम कारणको ध्यानमें रखकर उसे प्रकारसे स्पष्ट है'अतिथिसंविभाग' नाम दिया और उसे श्रावकका प्रशनं पेयं स्वाद्य खाद्यमिति निगद्यते चतुर्भेदम् । बारहवाँ व्रत बतलाया । दूसरे कारणको लक्ष्यमें रस्त्र प्रशनमतिविधेयो निजशक्या संविभागोऽस्य ।। उसे 'दान' कहा, और उसे श्रावकके छह आवश्यकों
(अमितगति श्रावकाचार, ६, ६६) में परिगणित किया। अतिथिको देनेके लिए गृहस्थ श्रावकके छह आवश्यकोंमें दान नामक जो छठा अपने भोग्य पदार्थोंमेंसे जो समुचित विभाग करता यावश्यक बतलाया गया, उसके द्वारा गृहस्थको यह है उसे अतिथिसंविभाग कहते हैं । शास्त्रोंमें 'अतिथि' उपदेश दियागया कि वह साधुजनोंको प्रतिदिन आहार शब्दकी निरुक्ति दो प्रकारसे की गई है। जो कि इस देनेके अतिरिक्त बीमारीकी अवस्थामें औषधिका भी प्रकार हैं
दान करे । भयभीतोंको अभयदान दे और ज्ञानके "संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथि- इच्छुक जनोंको ज्ञानदान भी देवे। इस प्रकार गृहस्थरस्तीत्यतिथिः ।।" (सर्वार्थसिद्धि, प्र०७. सू० २१) के दान आवश्यकके अन्तर्गत माहारदान, औषधि
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६०]
अनेकान्त
[वर्ष १४ दान, अभयदान और ज्ञानदानके रूपमें चार इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अतिथि-संविभाग प्रकारके दान का विधान किया गया।
त्याग-प्रधान होनेसे धर्मरूप है, जबकि दान प्रवृत्तिजैन शास्त्रों में दिये गये अतिथिसंविभाग और प्रधान होनेसे पुण्यरूप है। गृहस्थ के लिए दोनों की 'दानके क्रम-विकसित लक्षणोंपर दृष्टिपात करनेसे आवश्यकता है, इसी कारण पाचार्योंने उक्त दोनों का
सहजमें ही यह ज्ञात हो जाता है कि अतिथि- विधान किया है। अतिथिसंविभागका फल प्रात्मिक संविभागका क्षेत्र जैन या वीतरागधर्मस्थ मनुष्यों गुणोंका विकास करना है, जब कि भाहार दानका तक ही सीमित रहा है, जब कि दानका क्षेत्र प्राणि- फल धन-ऐश्वर्यकी प्राप्ति, औषधिदानका फल शरीरकी मात्र तक विस्तृत रहा है। लेकिन दोनों के इस सामित निरोगता, ज्ञानदानका फल ज्ञान-प्रतिष्ठा-सन्मानकी पौर असीमित क्षेत्रके कारण कोई यह न समझ लेवे प्राप्ति और अभयदानका फल निर्भयता बतलाया गया कि दान देना अधिक लाभप्रद होगा। फलकी दृष्टिसे है। इस प्रकार ऐहिक सुखदायक पुण्यकार्य होने पर भी तो दोनों में महान अन्तर है, अपात्रोंमें दिया गया दानकी अपेक्षा अतिथिसंविभागवतका महत्व कई गुणा भारी भी दान अल्प फलका देनेवाला होता है, जब अधिक हो जाता है, क्योंकि यह श्रावकका एक कि पात्रमें दिया गया अल्प भी दान महान् फलका महत्वपूर्ण भावश्यक धर्म है। हाताता। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके इस श्रावकधर्मका प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों में हम कथनसे स्पष्ट है
श्रावकाचारका क्रम विकसित रूपसे देखते हैं। प्राचार्य क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति और समस्तफलति च्छायाविभवं बहफलमिष्टं शरीरमृताम् ॥ भने श्रावकके बारह व्रतोंका ही विधान किया है।
(रलकरण्डक, श्लो० ११६) उनके ग्रन्थों में देवपूजादि छह आवश्यकोंका कहीं भी अर्थात जैसे उत्तम भूमिमें बोया गया बटका पृथक् निर्देश दृष्टिगोचर नहीं होता है। यह बात छोटासा भी बीज आगे जाकर विशाल छाया और अवश्य है कि उनमेंसे कुछ एक पावश्यकोंका यथामिष्ट फल दाता होता है, इसी प्रकार योग्य पात्रमें सम्भव बारह व्रतोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। किन्तु दिया गया थोड़ा सा भी दान समय आने पर महान् रत्नकरण्डश्रावकाचारके पश्चात रचे गये श्रावकाचारोंइष्ट फलको देता है।
में देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, सप और किन्तु उक्त उल्लेखसे कोई यह न समझ लेवे कि दान नामक छह कर्तव्योंका प्रतिदिन करना जरूरी जब ऐसा है, तब केवल अतिथि या योग्य पात्रको ही माना गया है और इसी कारण उन्हें आवश्यक दान देना चाहिए, अन्यको नहीं। अतिथि-संविभाग- संज्ञा दी गई है। में धार्मिक भावकी प्रधानता है, जब कि सर्वसाधारण- प्रारम्भमें श्रावकोंके छह आवश्यकोंका विधान न को दान देने में कारुण्य भावकी प्रधानता है। इसी होने और पीछे उनका विधान किया जानेको तहमें भावको तत्त्वार्थसूत्रकारने 'भूत-प्रत्यनुकम्पादान' पदसे क्या रहस्य है, इस पर गंभीरतासे विचार करने पर ध्वनित किया है। दोनों के फलोंमें एक दूसरा महत्त्व- ऐसा प्रतीत होता है कि काल-क्रमसे जब मनुष्यों में पर्ण अन्तर और भी है और यह अन्तर वही है जो कि श्रावकके बारह व्रतोंको धारण करनेकी शिथिलता या धर्म और पुण्यके फल में बतलाया गया है। धर्मका असमर्थता दृष्टिगोचर होने लगी और कुछ इनेफल पारमार्थिक है, अर्थात् सांसारिक दुःखोंसे छुड़ा- गिने विशेष व्यक्ति ही उन बारह व्रतोंके धारक होने कर आत्माके स्वभाविक सुखकी उपलब्धि कराना है, लगे, तब तात्कालिक आचार्योंने मनुष्यों के आचारजब कि पुण्यका फल ऐहिक है, अर्थात् सांसारिक विचारको स्थिर बनाये रखनेके लिए देवपूजादि छह सुखोंका प्राप्त कराना है। इसे हम दूसरे शब्दोंमें आवश्यक कर्तव्योंके प्रतिदिन करनेका विधान किया
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किरण २]
पश्चात्ताप और इस प्रकार उन्होंने गृहस्थोंके दिन पर दिन गिरते साथ वर्णन की हैं। वहाँ बतलाया गया है कि गृहस्थ हुए आचारको बनाये रखनेका एक प्रशस्त प्रयास किया। गुणानुरागसे प्रेरित होकर संयमी जनोंके ऊपर आई
अन्तमें एक और भी बातकी ओर पाठकोंका ध्यान हुई आपत्तियोंको दूर करे, रोगी और चर्यासे क्लान्त आकर्षित करना आवश्यक है कि जहाँ अन्य प्राचार्यो- साधुओंकी पग-चम्पी करे, सेवा-टहल और सारने श्रावकका बारहवाँ व्रत 'अतिथिसंविभाग' और संभाल कर सर्व प्रकारसे उनकी वैयावृत्य करे । इसके छठा आवश्यक 'दान' बतलाया, वहाँ समन्तभद्र अतिरिक्त उन्होंने 'जिन-पूजन' को भी वैयावृत्य के ही स्वामीने उन दोनोंके स्थानपर 'वैयावृत्य' नामके अन्तर्गत करके श्रावकाचारोमें सर्वप्रथम नित्य देवव्रतका विधान किया है। इस व्रतका स्वरूप-निरूपण पूजाका विशेषरूपमे विधान किया है । इस प्रकार काले उन्होंने 'अतिथिसंविभाग' और 'दान' का प्रावकके इस बारहवें व्रतका 'वैयावृत्त्य' नाम देकर समावेश तो कर ही लिया है, साथ ही उसके सम्बन्ध- समन्तभद्राचार्यने इम ब्रतको और भी व्यापक वं में उन्होंने कुछ और भी आवश्यक बातें विस्तारके महत्वपूर्ण बना दिया है।
पौराणिक कथा
पश्चात्ताप
(पं0 जयन्तीप्रसादजी शास्त्री)
आज कामलता मदास थी। रत्नोंके उस हारको विद्युतके मामने सदा विकसित रहने वाला देखकर अपनी हार मान रही थी, जीवन बेकार सा आज मुरझा रहा था, उससे न रहा गया। बोलामालूम पड़ने लगा। हर समय हार पानेकी चिन्नामें प्रिये, उदास क्यों हो? मेरे रहते हुए इतनी पदासीनता सब कुछ भूल गयी थी । मानो, उस हारने अपनी बोलो-क्या चाहती हो, अपनी प्राणप्यारीके लिये मैं चमकके साथ उमको चमकको खींच लिया हो। फिर क्या नहीं कर सकता ? बोलो-देरी न करो बोलो। भी एक आशा थी,भरोसा था अपने प्रेमी पर । आंखों सुन्दरीके मनका भार कुछ हल्का हुमा, सोचने
जार था उसके भाने का । बार बार उस पथको लगी। नारी नरको जब जैसा चाहे वैसा बना सकती देखती थी, उठ उठ कर घूमती थी, पर चैन न था। है। मानव कितना भोला प्राणी है ? नहीं, मैं इसको लहरों की भाँति एक पर एक विकल्प माता और भोलापन नहीं, विषयान्धता कहूंगी । यह जानता विलीन हो जाता था, पर अन्त न था।
हुमा भी कि मुझे पैसोंसे प्यार है मनुष्यसे नहीं, फिर अचानक ही पद-चाप सुनाई दिया, व्याकुल मन भी मेरे लिये सब कुछ करनेको तैयार । इस प्रकार के फिर अपने स्थान पर लौट आया, परन्तु उदासीनता विचार क्षणमें पाए और चले गये। कुछ संभल
और बढ़ गई । सब कुछ कहनेकी इच्छा रखते हुए भी कर भौहें चढ़ाकर बोली- मेरे लिये सब कुछ कर कुछ न कह पाई, एक बार उसको देखकर फिर देखा सकते हो, इसमें कितना झूठ और कितना सच है ? मैं भी नहीं और देखा भी तो अधिक देर न देख सकी। तो अब तक इसे बनावटी प्रेम ही समझती हैं। कहाँ बहुत सी बातें कहनेको सोच रही थी, सोचना विद्युत ऐसा सुनकर पुतलेकी भांति खड़ा का अब भी जारी था पर कह न सकी । उसको उस समय खड़ा रह गया। यह सब उसे सपना दिखाई दिया देखकर ऐसा मालूम पड़ता था, मानो, सारी बातें हवा- जो आँख खोलनेके बाद कुछ भी नहीं रहता,फिर भी के रूप में परिणित होकर ब्लैडरमें भर गई हों। विचार करने लगा, शायद मेरी ओरसे कुछ गलती
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६२]
अनेकान्त
[वर्ष १४ हो गई होगी। कहने लगा-सुमुखि ! मुझे क्षमा उसने ऐसा ही किया. ध्यानमुद्रामें लीन उस करो और जल्दी बताओ, उदास क्यों हो ? अगर आदमीके सामने हारको रखकर भाग गया। मनुष्य आपको कुछ संदेह है तो परीक्षण कर देखो। अपना बचाव चाहता है, भले ही दूसरे जानसे मर
सन्दरीने पुसके अन्तर्भावोंको फौरन ही पढ़ जाय। सिपाहियोंने आकर उस भादमीको पकड़ लिया, समझ लिया कि विषयान्ध नारीके इंगितों पर लिया, हार सामने पड़ा हुआ था, प्रत्यक्षको प्रमाणको इस प्रकार नाचा करते हैं जैसे मदारीके इशारों पर क्या आवश्यकता थी। बन्दर । बोली-परीक्षण, तो सुनो आज मैंने सिपाही पहिचान कर भौचक्के रह गये, आश्चर्यमहारानीके गले में एक अति देदीप्यमान रत्नोंका हार का ठिकाना न रहा, दिलमें भय समा गया, किंकर्तव्य देखा है, उसे जैसे बने वैसे लाओ। हारके बिना मेरा विमूढ़ हो गए, सारी परिस्थितियां उनके चित्तपट पर जीवन और यौवन सभी सूना है । कितनी ही बार आ-आकर झूमने लगीं, सोचने लगे-राजकुमार तुम चोरी करने में अपनी बहादुरीकी डींग मारा करते वारिषेण ! यह तो बड़ा साधु आदमी है, इसके सदाथे, पर आज पता लग जायगा।
चारके गीत सारी जनता गाती और विश्वास करती इसमें नारीकी ताडनाथी और प्रेरणा थी उसकी है, बड़ा त्यागी और बेरागी है, फिर ऐसा क्यों ? इच्छा-पूर्ति करने की, विषयासक्त नारी के लिये क्या २ क्या त्याग और वैराग्यका यह कोरा ढोंग है ? क्या करनेको तैयार नहीं हो जाते। वह विषयान्ध विद्य- दुनियाँको ठगने के लिए ही त्याग और वैराग्य किया च्चोर भी ताड़ना सहता हुआ उसी समय रातको जाता है । धिक्कार ह ऐसे त्याग और वैराग्यको। चल पड़ा। विपयान्धता उसको उस ओर लिये जा रही सिपाहियोंकी हिम्मत काम नहीं कर रही थी, थी, मैं पकड़ा जाऊँगा, मेरा क्या होगा, मानों इन पकड़नेके लिए। इतने में एक सिपाहीने निर्भीक होकर बातोंकी कोई चिन्ता ही नहीं थी। चिन्ता थी केवल कहा--जो चोरी करता है, वह चोर होता है, चाहे अपनी सुन्दरीको खुश करनेकी।
राजा ही क्यों न हो ! अन्यायको पकड़ना हमारा कर्तव्य __ जैसे तैसे राजाके महलमें जाकर हार चुरानेमें है, हमारे ऊपर सुरक्षाका भार है, ये राजपुत्र हैं तो हम सफल हो गया। खुशीका ठिकाना न रहा, 'अब उसे इन्हें छोड़ थोड़े ही देंगे, पकड़ लो। जल्दी से जल्दी अपनी प्यारीके पास पहुँचनेकी धुन राजकुमार वारिषेणको पकड़ लिया गया। परन्तु थी। उसकी धुनने उसके विवेकको खो दिया था । राजकुमार यह सब देख रहे थे और अपने कमोंकी वह उस हारको भली भांति न छिपा सका, उस हार- लीला पर मुस्करा रहे थे। कैसी विचित्रता हे कर्मोकी, का दिव्यतेज उस अंधियारी रातमें चमक गया । किसी भी अवस्थामें नहीं छोड़ते । हर समय इस चमकको देखकर सिपाही पहरेदार चिल्लाते हए दौड़ आत्माको नाच नचाते फिरते है। तब तक. जब तक पड़े। नगरमें शोर हो गया, चारों ओरसे चोर चोर आत्मा अपनेको नहीं समझ लेता, आगे देखू क्याशब्द गूजने लगा। अब विद्युञ्चोरका भाग निकलना क्या होता है। बड़ा ही मुश्किल था, वह भागते भागते विचारने राजाने सुना, चोरी राजकुमार वारिपेणने की है। लगा भव मैं पकड़ा जाऊँगा, बच निकलना बहुत धमाका हुभा, सिर चकरा गया, क्रोधके मारे आंख मुश्किल है, क्या करू? इसी विचारमें भागते हुए लात हो गई, मोठ कप-कपाने लगे, हृदयकी धड़कन विद्युत्को एक आदमी श्मशान भूमिमें ध्यान लगाये बढ़ गई, आँखोंसे क्रोधकी ज्वाला निकलने लगी, हुए दिखाई दिया, उसे देखते ही सूझ आई कि इस मानो, वारिषेणको भस्म ही कर देगी । गर्ज कर हारको उसके पास रखदू, पीछे दौड़ती हुई जनता कहा-देखो इस पापीका नीच कर्म जो, श्मशानमें इसे पकड़ लेगी और मैं छिपकर बच जाऊंगा। जाकर ध्यान करता है, लोगोंको यह बतला कर कि
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[६३
किरण २]
पश्चाताप मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ उगता है, धोका देता है। पापी स्नेहसे भर गया । ममताका सागर आँखोंसे निकलने कल कलेक! देख लिया तेरे धर्मका ढोंग ? सच है, लगा, श्मशान भूमिको पैदल ही दौड़ा गया। जाकर दुराचारी, लोगोंको धोखा देनेके लिए क्या क्या पुत्रको छातीसे लगा लिया, रोता रहा, इतना रोया नही करते। जिसे मैं राज-सिंहासन पर बिठाना जितना जीवन में कभी नहीं रोया था। आज हदय में चाहता था, वह इतना दुराचारी। अय जल्लादा! इतना पुत्रस्नेह था जितना पुत्र-जन्म के समय भी नहीं इस पापीको ले जाओ, मार डालो, में न्यायका था। आज बिना विचारे दी गई राजाज्ञा जनताको गला नहीं घोंट सकता।
प्रेरणा दे रही थी कि बिना विचारे कुछ मत करो। जनता चित्र-लिखेकी तरह सब कुछ सुन रही थी, पिता भाज पुत्रसे क्षमा मांग रहा था, एक बडे माँस बहा रहा था, और कह रहा था-इतना देशका अधिपति आज सत्यके आगे झुक रहा था. बाप तो नहीं था, जो प्राण-दण्ड दिया अपनी भूलको मान रहा था, पश्चातापसे हृदय जाय। कोई कह रहा था-राजा बड़ा न्यायवान है शुद्ध कर रहा था, आँखोंके आँसू आज उसके इस जो अपने पत्रको भी सजा देनेसे नहीं चूका । वास्तवमै पापको धो रहे थे। बोला-पुत्र, क्षमा करो। राजा ऐसा ही होना चाहिये।।
वारिषेण अपने पूज्य पिताकी मोहके वश यह राजमा थी। जल्लाद वध्य-भूमिमें वारिपेणको विचित्र दशा देखकर कहने लगा-पिताजी! यह ले गये। वह अब भी कोंकी लीला और संसारकी आप क्या कहते हैं, आप अपराधी कैसे आपने तो इस दशापर मुस्करा रहा था, शान्त था, गम्भीर था, अपने कर्तव्यका पालन किया है और सस समय उसकी शान्तमुद्रा देखते ही बनती थी। पालन कोई अपराध नहीं है। मान लीजिये मा . जल्लादने तलवार उठाई। एक बार उसका भी स्नेहमें पाकर दंडकी आज्ञा न देते, तो जनता या हृदय काँप गया । अपार जन-समूह था मानों समझती। आपने अपने पवित्र शकीकिसी नदी में भयंकर बाढ़ आगई हो । जल्लादने है। इसमें क्षमाकी कोई आवश्यकता नहीं है। इससे तो तलवारका प्रहार किया। वारिषेण पहले जैसा ही आपको प्रसन्न होना चाहिए। मुस्करा रहा था। कई तलवारके वार किये गए पर यह तो मेरे हो पापकर्मका उदय था, कि निरराजकुमार वारिषेणकी गर्दन पर एक भी घाव नहीं पराधी होते हुए भी अपराधी बना, फिर भी इसका हुधा । जनताका कौतूहल हर्ष में परिणित हो गया, मुझे तनिक भी दुख नहीं। हृदयका हर्ष गगनभेदी नारोंमें निकल पड़ा। वारि- वारिषेणकी सत्यता और साधुताकी चर्चा घर घर षेण निर्दोष है, वारिषेणकी जय हो, सत्यकी जय हो। होने लगी, लोगोंने वारिषेणके चित्रको दीवालों
राजाने जब इस अलौकिक घटनाको सुना, सुन- कागजों पर ही नहीं रहने दिया बल्कि हृदय, हृदयकर अपनी बुद्धि पर बारंबार पछताने लगा । मैंने में अंकित कर लिया। लोग कहने लगे यह मानवबिना किसी जांचके प्राण दण्डकी आज्ञा देदी, यह रूपमें देवता है । न जाने, किसने चोरी की थी और राज-धर्म नहीं है, विवेक नहीं है, न्याय नहीं है, यह नाम पढ़ी वारिपेणके । देखो उस नीचको नीचता सरासर अन्याय है, मूर्खता है। चाहे बात सच हो या और वारिषेणकी साधुता। झूठ, सारी बातोंकी छानबीन करने के बाद ही न्याय इस प्रकार वारिषेणकी प्रशंसा सुन सुन कर करना न्याय है अन्यथा अन्याय है। क्रोधमें पाकर विद्युचोर मन ही मन बड़ा पछता रहा था, हर समय यकायक ऐसा करना महापाप है। काश! राजकुमार सोचता था विचारता था अपनी नीचता पर । उस मर जाता तो जनता यही समझती वारिषेण चोर था, नीचता पर जिसने ये सारे कमे कराये थे उसे अपना बहुत कुछ पश्चाताप करते हुए राजाका हृदय पुत्र- मुंह दिखानेमें भी संकोच हो रहा था, आज उसके
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६४]
भनेकान्त
[वर्ष १४ दिलमें उस वेश्या मगधसुन्दरीके प्रति घृणा थी मात्रका हितकारी उपदेश करते हुए विहार करने लगे। तिरस्कार था, उसका नाम तक लेना पसन्द नहीं कर एक बार पुष्पडाल नामक मंत्रि-पुत्रने उनको रहा था और अपनी बुद्धि पर बारंबार सोचता था, भाहार दिया, उनके उपदेशसे प्रभावित होकर दीक्षा धिक्कारता था अपनी विषयासक्तिको । भाज वह लेली, परन्तु वह अपनी इन्द्रियोंपर पूरा पूरा कंट्रोल न वारिषेणके दर्शन करके चरणों में गिर कर अपने पापों कर सके, वैरागको छोड़कर फिरसे सरागी होनेकी की क्षमा याचना करना चाह रहा था, चाह रहा था भावना पैदा होगई। स्त्रियोंके भोगोंकी याद आने लगी उनके चरणों में पश्चातापके दो आँसू गिराना। विचारने लगे-वह पद बड़ा कठिन है, इन्द्रियों पर
भागता भागता गया,चरणों में गिर पड़ा, वारिषेण नियंत्रण करना महान कठिन है । विचारों में मलिनता केन और अपने निद्यकर्मके लिए क्षमाकी भीख माँगने एवं भाचारमें शिथिलता दिन पर दिन बढ़ने लगी। लगा। जनता तथा राजा,विद्युश्चोरको इस प्रकार क्षमा- एक दिन पद छोड़कर घरकी और चल पड़े, मुनि याचना करते देखकर सब लोग दंग रह गये । आज वारिषेण उनको इस प्रकार जाता देखकर कल्याणकी उस विधुचोरके प्रति जनसामें श्रद्धा हो गई प्रशंसा भावनासे उनको पुनः वैराग्यमें दृढ़ करने के लिए साथहोने लगी, वह आदमी धन्य है जो अपने पापों पर साथ चल दिये। पबताता है और पछताकर उनको छोड़ देता है। मुनि वारिषेण उस पुष्पडालको साथ लेकर एकदम गिरा हुभा व्यक्ति भी निमित्त पाकर कितना अपने राज-महलमें पहुँचे, माताने देखकर सोचा, अच्छा बन सकता है। अब वह विद्युचार नहीं, क्या पुत्र वारिपेणसे उस दिगम्बरी दीक्षाका पालन सहमों लोगोंके हृदयोंमें श्रद्धा प्राप्त कर चुका था। नहीं हो सका। परीक्षण-हेतु कार्य किये, संतोष हुमा, उसने सब पोरसे मुंह मोड़ कर शान्त और स्वपर नमस्कार किया और पूछा-हे मुनिराज ! किस प्रकार कल्याणकारी मार्गको अपनाया था।
आना हुआ? इधर राजाने पुत्रसे कहा-घर चलो तुम्हारी माता तुम्हारे वियोगसे अति दुखी हो रही हैं।
मुनि वारिषेणने कहा-मेरी सभी स्त्रियोंको उत्तरमें वारिषेणने कहा-पिताजी, अब मैं जान आभूषणों से सुसज्जित करके यहाँ भेज दीजिये । बूझकर अपनेको दुखमें फंसाना नहीं चाहता। मैंने महारानीने वैसा ही किया। वे बड़ी रूपवती देवसंसारकी लीला देख ली। यहाँ मानव, स्वार्थमें कन्याओंके तुल्य थीं, भाई और मुनि वारिषेणको अन्धा हो दूसरेके हिताहितको नहीं देखता, यहाँ नमस्कार किया। मानवमें मायाचार है, एक दूसरेको हड़पनेकी वारिषेणने अपने शिष्य पुष्पडालसे कहा-क्यों कोशिश करता है, भाई भाई में झगड़े हैं। स्वार्थमय देखते हो, ये सब मेरी सम्पत्ति है, इवना बढ़ा राज्य संसार सपना ही सपना है। हाथमें दीपक लेकर भी है, ये सब स्त्रियें हैं । अगर तुम्हें ये सब अच्छी मालूम कुपमें कौन मिरमा चाहेगा। आप मुझे क्षमा करें। देती है तो सभी राज्य सम्पदा ले लो और सम्हालो। अब मुझे वास्तव में मेरे शत्रु जो क्रोध, मान, माया वारिषेण मुनिको पाश्चर्यमें डालने वाले कार्यमें और लोभ है इन पर विजय करना है इनसे ही मेरी कितनी वास्तविकता तथा वैराग्यकी झलक थी। मात्माका कल्याण हो सकता है।
पुष्पलाल अपने विचारों पर पछताया और मुनिराजराजाने उनकी अटल प्रतिज्ञाको देखकर पागे के चरणों में गिर पड़ा, प्रायश्चित मांगने लगा। कुछ नहीं कहा । वारिषेणने श्रीसूरदेव मुनिके पास भाग पुष्पडालकी आखें खुल गई, अंतरंगका दीपक जाकर दिगम्बरी दीक्षा लेली, अनेक देशों में प्राणि- जगमगा उठा । तफानभाये और चले गए।
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अजमेरके शास्त्र-भण्डारसे
पुराने साहित्यकी खोज
( जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर')
(गत किरणसे आगे) ६. प्राभूतसार
जिउ'नामका परमात्मप्रकाशका भी है। परमात्मप्रकाश गत वर्षके भादों मासमें अजमेरके बड़ा घड़ा के कर्ता योगीन्दुदेवका समय डा० ए०एन० उपाध्यायपंचायती मंदिरके शास्त्र-भण्डारको छानबीन करते हुए ने ईसाकी छठी शताब्दी निर्णय किया है। उसके 'प्राभूतसार' नामका भी एक अश्रतपर्व प्राचीन ग्रन्थ अनुसार यह प्रन्थ ईसाकी छठी शताब्दीके बादका उपलब्ध हुआ है। यह ग्रंथ संस्कृत भाषामें निबद्ध गद्य
मालूम होता है। रूपको लिये हुए है और एक गुट केके प्रारम्भ में सवा . संस्कृत के जो पद्य इसमें 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत हैं तीन पत्रों पर अंकित ७० श्लोक जितने प्रमाणवाला है
वे अभी तक किसी दूसरे ग्रंथमें अपनेको उपलब्ध गुटका चैत्र सुदि १५ सम्बत् १५०६ का लिखा हुआ है, नहीं हुए। और इससे भी यह पंथ काफी प्राचीन टोंकमें लिखा गया और वह ब्रह्म आनन्दके लिए मालुम होता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है किसी शाहके द्वारा लिखाया गया है। जैसा कि पत्र कि इसमें अनेक नय-दृष्टियों को लेकर प्रायः सात प्रकार ४३-११ पर दिये गये निम्न वाक्यसे प्रकट है
के मोक्ष-मार्गका निरूपण किया है। यह ग्रंथ शीघ्र ही ___ "सम्वत् १५०६ वर्षे चैत्र सुदि १५ टोंक स्थानात्तु । अनुवादादिके साथ प्रकाशमें पानेके योग्य है। ब्रह्म प्रानन्द योग्यं पुस्तिका लिखापितं साह"
___ प्रन्थकी स्थिति बहुत ही जीर्ण-शीर्ण है। जिस ___ इस प्रन्थके कर्ता रिययनन्दि पंच-शिक्षिक देव हैं, गुटकेके प्रारम्भमें वह पाया जाता है उसके पत्र जिन्हें 'मोह-तिमिर-मार्तण्ड' विशेषणके साथउल्लेखित अलग-अलग हो गये जान पड़ते हैं और उनकी किया गया है; जैसा कि प्रथके अन्तमें दिये गए निम्न मरम्मत बड़े परिश्रमके साथ की गई है और उन्हें समाप्ति सूचक वाक्यसे प्रकट है
जोड़कर रक्खा गया है। कितने ही पत्र टूट-टाट कर "इति प्राभृतसारः समासः । मोहतिमिरमार्तण्डरियय- अलग हो गये जान पड़ते हैं । गुटकेके पत्रोंपर जो नन्दि-पंचशिक्षिकदेवेनेदं कथितं"
अंक पूर्व में दिये हुए हैं वे अनेक स्थानों पर पत्रोंके टूट ग्रंथकारका यह नाम भी अश्रुत-पूर्व है और साथ- जानेसे विलुन अथवा कुछ खंडित होगए हैं,जीर्णोद्धार में लगे हुए विशेषण उसके महत्वको ख्यापित करते करनेवालेने बड़े परिश्रमसे विषय-क्रमको लेकर उपहैं । ग्रंथ और ग्रंथकार दोनोंके नाम अन्यत्र किसी लब्ध पत्रोंपर नए क्रमसे नम्बर डाले हैं और भनेक सूचीमें भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुए और इसलिये स्थानोंपर पुराने नम्बर भी ज्योंके त्यों अथवा खंडित प्रस्तुत ग्रंथको खोज खास महत्व रखत है। अवस्थामें अंकित हैं । एक पत्र पर, जिसका मूल.
इस ग्रंथमें गुणों, पर्यायों तथा नयों का कुछ विशेष पत्रांक नष्ट हो गया है, क्रमिक नम्बर १२ पड़ा है, रूपसे वर्णन है और अनेक स्थानोंपर कथित विषयको उसके अन्त में 'पालापपद्धति नयचक्र' नामक ग्रंथकी पुष्ट करने के लिए संस्कृतादिके प्राचीन पद्य भी उद्धत समाप्ति-सूचिका सन्धि और उसके आगे १३वं पत्रम किये गये हैं। जिसमें एक दोहा 'कारण-विरहिउ सुद्ध अपभ्रंश भाषाके 'अप्प-संवोह-कब्वो' नामक प्रथक
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अनेकान्त
[वर्ष १४ तृतीय परिच्छेदके अन्तिम वाक्योंको देते हुए जो इससे मालूम होता है कि इस पत्रके पूर्व में 'अप्पपरिच्छेदका अन्तिम भाग दिया है, वह इस प्रकार संबोह-कव्व, (मात्म-संवोध-काव्य) के प्रायः तीन
परिच्छेद रहे हुए हैं, जिनकी संख्या मागेके पत्रों पर
दिये हुए अंकोंका हिसाब लगानेसे ११ पत्र जितनी पत्ता ॥ "सम्मत्तबलेण णाणु लहेवि परेवि चरणु। होती है। अपभ्रंश भाषाका यह काव्य रइधु कविका
साहिज्जइ मोक्खु भव्यहि भव-दुह-मवहरणु ॥११॥ बनाया हुमाऔर वह तीन परिच्छेदको ही लिये इय अप्पसबोंहकव्वे सयलजणमण-सवरण-सुहयरे प्रबला- हुए है। इसीसे प्रस्तुत गुट के आगे परमात्मप्रकाशबालसुहबज्झ पयत्यै तइहमो संधि परिच्छेपो सम्मत्तो ॥" की टीकाको प्रारम्भ किया गया है।
केकड़ीकी जैनसमाजका स्तुत्य कार्य
गत मासोज वदी को केकडी जिला अजमेरकी सरसावा निवासीके समक्ष सम्पन्न हुई है। जैन पंचायत (समाज)ने मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी १ प्रस्तावः-जो विवाहमें मोलह पानेके अवसर तथा क्षुल्लक सिद्धिसागरजीकी प्रेरणाको पाकर पर वर पक्षकी तरफसे चढ़ावा होना है उसकी भविष्य साहित्य प्रचारकी दृष्टिसे एक बड़ा ही उपयोगी प्रस्ताव में किस प्रकार व्यवस्था की जावे। पास किया है जो अन्य सभी स्थानोंकी पंचायतों सर्व सम्मतिसे यह तय हुमा कि सोलाणेमें जो अथवा समाजोंके द्वारा अनुकरणीय है। ऐसा होनेपर रकम घर पक्षकी तरफसे भेंट की जावेगी उसमें मे साहित्य-प्रचारका बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो सकेगा, रु० २१) चैत्यालयके ( जो पहिलेसे कटते आ रहे हैं। जिसकी आज अतीव आवश्यकता प्रतीत हो रही है। काटकर बाकी रकम जो रहे उसके चार हिस्मे किये इस प्रस्तावके अनुसार विवाह-शादियोंके अवसरों पर जाकर दो हिस्सेकी रकम तो उस मंदिरजीमें ही मन्दिरों में चढ़ाई जानेवाली रकममेंसे २५ प्रतिशत (जिसमें कि सोलाणा किया गया है ) रहने दी जावे साहित्यके प्रचारार्थ दिया जाना स्थिर हमा। और बाकी हिम्मेली सममें से एक हिम्मती
बन साहित्यिक कार्य में लगानेको दी जावेदार एक माशा है दूसरे स्थानों की पंचायतें एवं समाज भी केकड़ीकी पंचायत के इस स्तुत्य कार्यका शीघ्र अनुकरण
ge कमश्री दि०जैन संस्था केकड़ीको दी जाव ।
म तय हुआ है कि जहाँ तक हो सके सोलाणेमें करेंगी, जिससे साहित्य-प्रकाशन और समयकी भावश्यकतानुसार नव-साहित्यके निर्माण कार्यको अच्छा
रकम ही चढ़ाई जानी चाहिए। उपकरणादि
तो मंदिरके हिस्सेकी रकम जितने चढ़ाये जा प्रोत्साहन मिले।
eader जयन्तीप्रसाद जैन
नोट:-सोलाणेमें चढाये जानेवाली रकममेंसे प्रस्ताव इस प्रकार है
कोई बाहर गाँवके मंदिरजीमें भेजना चाहे तो वह ॥ श्रीः॥
अधिकसे अधिक उसका दसवाँ हिस्सा भेज सकता आज शुभ मिदी आश्विन कृष्णा सं० २०१३
है। बाकी रकमका बटवारा ऊपर लिखे मुताबिक सोमवारको सर्व दिगम्बर जैन समाज केकड़ीकी मीटिंग हुई, उसमें निम्न लिखित कार्यवाही श्रीतुल्लक
सकल दिगम्बर जैन समाज सिद्धिसागरजी और पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार
केकड़ी
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जैन ग्रंथ - प्रशस्ति-संग्रह
पणवंत हो भव्वयय कुपड जयहो सा सुह परंपर दाया पुज्ज दय-धम्म-रय सच्च सउच्च विचिस । भव्य जयंतु सया सुया बहुगुण परहिय चित्त ॥ जयउ गरवइ ग्राम गायन्त पयपालड धम्मुरउ । सय बंधु परिवारि सहियड गिरणासिय विउ जणु । जे यिययिकम्मि खिहियउ पच्चयउ मेहणि सई हवउ । वरिसउ देवसया वि कित्ति धम्मु
जो चरण कमल आयम पुराणु, उस बहु साइम-समाणु ॥ आइरिय महा-गुण-गया-समिद्ध, चच्छल्ल-महोबहि जय पसिद्ध । तो वीरइंदु मुखि पंच मासु, बूरुज्भिय-दुम्मइ, गुण-शिवासु ॥ सजण महामाणिक्क-खारिस, वय-सीलालंकि दिव्व-वाणि । सिरिच दु णाम सोहरा मुग्रीसु, संजायड पंडिय पढम सीसु ॥ तेणेउ श्रणेय छरिय-धामु, दंसण-कह-रयरण करंडु सामु । किड कg विहिय-रवणोह-धामु, लिक्खरु सुयण मणोहिरामु जो पढइ पढाइ एयचित,, संलिहइ लिहावह जो शिरुत्तु ॥ आयण्णइ मरणइ जो पसत्थु, परिभावड़ श्रह - सुि एउ सत्थु । प्पिइ कसायहिं इंदरहिं, तोलिय इह सो पासंडिएहिं ॥ तो दुक्किय कम्मु श्रसेसु जाइ,
रह जयउ जसु खंडण या कयाचि ॥ जाम मेहणि जाम महाइड कुल- पब्वय जाम ह । जाम दीव गह रिक्ख-या ह
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पालइ चायम सयल 1 जाम सग्गु सुरगियरु सुरवइ जाम रायणु चंदु-रवि । जं जिधम्मु पसत्थु ताम जगाउ
सुहुभव्वणि जयड एहु नइ सत्थु । जो सब्वणु तिलोयवसिद्ध सहावें भंडु ।
ताम जाउ सुहु भव्वणि दुसराकह रयणकरंड ॥ इति श्री पंडिताचार्य श्रीचन्द विरचिते रत्नकरण्डनाम
सो लहइ मोक्ख-सुक्ख भवाई ।
शास्त्र समाप्तम् ।
जिवणाह-चरण-जय भत्तएय, श्रमुते कव्वु करंतर ॥
सुकमाल चरिउ (सुकुमालचरित) रचना सं० १२०८
जं काई वि लक्खरा-छंद-हीरा, जह मत्त तुत्त ग्रह अहिय ही ।
विबुध श्रीधर आदिभाग :सिरि पंच गुरुहं पण पंकमइ पाविवि रंजिय समयहँ । सुकमालसामि कुमरहो चरिउ माहासमि अभ्ययाहँ ॥
धत्ता--वं खमउ सन्वु जरा गमिय, सुय देवय अण्णाण मह ॥ जमि पुज्जयिज्ज सिरिचंदमई, तह य भडारी विउ समह । एयारह तेवीसावाससया विक्कमस्स महिवइयो ।
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X
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एक्कहिं दिखे भब्वया पियारए, वलड खामे गामे मगहारए । सिरि गोविंदचंद शिव पालिए,
जया गया हु तया समाणिए सुंदरं रइयं ॥
करणपरिंदो रज्जसुहि सिरि सिरिबालपुरम्मि जुइ । चालुपुर मह सिरियंदे एक कठ संदर कम्बु जयम्मि ॥ जयड जिणवरु जयउ जिणुधम्मु वि
जणव सुहयारयकर खालिए! दुर्गाणय बारह विश्वर मंदिर, पवण्णुद्धप्रयवद अवरु डिए । जिएमंदिरे वक्चा करतें,
जय जडू जबठ साहु संत "सुईकर ।
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[ वर्ण १४
इबसिरि सुकुमालसामि मयोहरचरिए सुंदरयर गुणरयत शिवरस भरिए विबुह सिरिसुकइ-सिरिहर विरहए साहु
भन्वयण चिरु दुरि हरंते । कलवाए बुहेण भणिदे, पोमसेण गामेण मुबिंद । भासि संति यहूं सत्थई, जिया सासणे श्रवराह पसत्थई ।
पीथे
पुस कुमरगांमंकिए श्रग्भूिह-वाभूह-सूरमित्त मेलावद वणो णाम पढमो परिच्छेद्यो समन्तो ॥ १ ॥
पर सुकमालसामिया मानहो, कररुद मुद्द विवरिय वरवालो raft महुँ परिहासह व्ह गोवर बुहयणमय हर वि जह।
तं बिसु वि महियले विक्खाए, पयडसाहु पीथे व जाए, सलखण जगणी गन्भुप्पय, पउमा भचारेण स्वपर्णे ।
प्रतिमभागःधासि पुरा परमेट्ठिद्दि भतउ, विह चारु दाय अणुरतड । सिरिपुरवाढ - वसमंडण चंधड, यि गुण गियरादिय बंधउ । गुरु भत्तिय परणमिय मुखीसर, यो साहु जग्गु वणीसर, तहो गल्हा ग्रामेण पियारी, गेहिणि मग इच्छिय सुहयारी । विमल सीलाहरण विहूसिय, सुद सज्जण बुद्दया पसंसिय ।
सहरसेय कुबरेण पउत्तर, भो मुशिवर पहूं पभणिउ जुत्तढ । तं महु भ्रमा किरण समासहि, विवरेवणु मासु उल्लापहि । ता मुखि भाइ बम्प जद्द विसुखधि, पुन्व जम्म कय दुरिय विहुहि । धत्ता-धम्मस्थिवि सिरसिरुहरु, सुक् तच्चरित विरयावहि ।
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तारु पीथे जाउ, जण सुहयरु महियले विक्खायर ।
अवतु महिंदे बुच्च बीयर, बुहयण मणहरु तिकड तयउ ।
जल्हणु गायें भणिड चउत्थर, पुग्ण वि सलक्खणु दाय-समत्थउ । बहन सुउ संपुष्णु हु उ नह,
इइ रति विकसित ताउ सुहु परस्यें धुड पावहि ॥ २
ता श्राहि दियि ते घइल्लें, जिराभयिागम सत्य रसहतें ।
कइ सिरिहरु विएण पडत्तड,
तुहु परियाषिय जुचा जुतउ । पूहु बहु हियय सोक्स - विस्थारणु, भवियय मय वितिय सुहकारण ।
समुदपाल सत्तमड भगड तह । सुण्यपालु समासिड, विययाइय गुण गयहिं विहूसित । महो पिया मेण सलक्खण; लक्खा कलिय सरीर-वियक्खण । ताहे कुमरु यामेय तणूरुहु,
।
मायर मुद्द पह पहय सरोरुह । विय विसय भूसिउ कायउ, मय-मिच्छुत माय्य परिचत्तड बताया अवरु बीयर पवरु कुमरहो हुआ वर गेहिरिए । पडमा दिया सुनहिं गणिय जिय-मय-यर बहुगेहि यि ॥
सहे पाहणुयामेय पहूयठ, प्रडम पुतणं मया सरूवड । ब्रीड साल्हगु जो जिणु पुज्जइ, असु रूपेण ण मयहरु पुज्जइ ।
६८ ]
जर सुकमालसामि कह चक्खहि, विरविणु महु पुर या रक्खहि ।
ता महु मयाहु सुक्खु जाय लइ, तं सुवि भासह सिरिहरु कह
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भो पुरवाड़ वंस सिरिभूषण, धरिय-विमल सम्मत विसा एक्कचित्त हो एवि श्रायण्णहि, अपर पुच्छिउ मा अवगाहि ।
1
अनेकान्त
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वर्ण १४ . ]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[ ६६
तइयड वले भवि वि जाखिमह
अप्पा किं भगमि हरी कप्पयरो सायरो-सुरसेलो ।
बंधव सुयहिं सम्माशिज्जइ । तुरियड जथड सुपर या में, वह शियस दरसिड कामें ।
ए पीसेस कम्मक्खर, जिणमयर महं छोड दुक्खक्खड ।
णं णं अप्पपसंसा परणिंदा गरदिया लोये ॥ ५ ॥ अप्पाणं जेय थुव बुद्धिविहीरोय बिंदिय तेया । पुस्कार वह जो पहायरो पायडो तह वि ॥ ६ ॥ जो जोडद्द विशिण पया विसुद्धा जिरावरेहि मह भणिया । या ते चि सरसो भविषायण वच्छलो तह वि ॥ ७ ॥ सुन्व भवियां पिसुरण चढक्काय भग्वजणसूलं । धrय धवलेख कयं हरिवंस-स-सोहणं कव्वं ॥ ८ ॥ अत्थसारउदो सपरिमुक्कु, प्रयाणहंगिप्याइयउधवलु कम्बुमणोहरु एहु सिउ सविखहि, करहु कराया जा गुणमहावरु ॥६॥ जिणाह होकुसुमंजलि देश्वणु, गिब्भू मरणगुणिवर पावेपिरगु पचर चरि हरिवंस कवित्ते, अप्पट पर्यादित सुरहो पुत्ते ॥ १० ॥
मज्भुविए जि कज्ज ण श्ररणें, चडविहु संघु महीयलि दउ, जिरावर-पय-पंकय एवं उठ । ख हु जाउ पिसुगु खलु दुज्जर, दुट्ठ दुरासउ सिंदिय सज्जणु । एक सत्थु मुणिवरहं पडिज्जड, भत्तिषु भविणेहिं खिसु णिज्जड । जाम यहं गणि चंद्र-दिवायर, कुल गिरि-मेरु- महीयल- सायरे । पीथे सु ताम अहिदउ, सज्जण सुहि मणाई शिंदड । बारह सय गयहं कय हरिसई, श्रोत्तरं महीयले वरिसई । क पक्खे गये आयए, तिज्न दिवसे लसिवार समायए । धत्ता -- बारह सयहं गथह कई पद डिएहि र-वरणउ ज-मण-हरणु-सुहू-विव्थर एड सत्यु संपुरणउ ॥ १३ इय मिरि सुक्रमालसामि मोहर चरिए सुंदर पर गुणरयण - वियरसभरिए विहसिरि सुकइ सिरिहर विरहए पुत्त कुमार सामंकिए सुकुमालसामि सम्वत्य-सिद्धि गमणो णाम छट्टो परिच्छेश्रो समतो ॥ संधि ६॥
17
कई चक्कवह पुब्वि गुणवंतठ, धीर धर १) से होतंड सुपसिद्धर । पुणु सम्मत जुत्त सरागट, जेण पमाणगंथु किउ चगउ । देवदि बहुगुण जस भूमिट, जे वायर जिरिंदु पयालिड 1 वज्जसू सुपमिद्धर मुणिवरु - या गं कि सुदरु | मुखि महसे सुलोयग्गु जेग, पउमचरिउ मुणि रविसेषेण । जिससे हरिवंसु पविस, जटिल मुरणा वर गचरन्तु ।
।
साहु
farmer in eft गहो, पउम से आयरिय पासहो
हरिवंस पुराणु (हरिवंश पुराण) धवलकवि आदि भाग:गोयाण दीहणालं बेमि-दबी-कह- केसर सुसोहं । भद्द पुरिस विसद्विदलं हरिवंस सरोरुह जय ॥ १ ॥ हरि-हुवा कहा च उमुह चालेद्दि भासियं ह या । तह विरयमि लोयपिया जेय गं यासह दंसणं परं ॥ २ ॥
अमरा विरश्य दोम विवज्जिय सोध्णु । राजा चंद्रह चरिउ मणोहरु, पाव-रहित धरणयत्तु सु-सुदरु | श्रयमि किम एमाइ बहुत्तई, विषहुए रिसिएण चरितङ्कं । सीदि गुरु अणुवेहा, देवें वार सुबेहा । सिद्धसंगु जे ए धागड, भविय विद्योय पपासिय चंगढ ।
विस-मीसिय वरवीरं जह सा चारिच खंडियारी । उक्कड दंसण मइया मिच्छुचकरं वियं का ॥ ३ ॥ जह गोत्तमेण भणियं सेपियराए पुच्छिया । जह जिसेणेण कथं तह विरयमि किंपि उसे ॥ ४ ॥
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७० ]
रामदि जे विविध पहाणा, जिया सासगि बहु-रय-कहाया । असगु महाकइ जे सु-मयोहरु, बीर जिरिंग चरि किड सुंदरु । केसि य कहमि सुकइ-सुवा- आयर, गेय कृष्ण अहि विरश्य सुंदर । सक्कुमारु जे विश्यउ मणहरु, कह गोविंद पवरु सेयंवरु । तह वक्ख जिण क्त्रिय सावड, जे जय धवलु भुवणि विक्वायड । सालिइद्द कथ जीवउ देउ, लोए चउमुह-दो-पसिद्धउ । एक्कहि जिया सासणे अच्छलियड । से महाकइ जम्मिलियउ | पउमचरिउ जि भुवणि पथासिड, साहु परेहि परवरहिं पसंसिउ । हुड जडु तो वि किंपि अभासमि, महियले जिणिय बुद्धि पयासमि ।
अनेकान्त
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सहस किरणु रह वे विगय णिचडे वि तिमिर असेसु पणासहिं । यसमा दीवड जइविसु थोचउतोवि उज्जोचि पयासहिं ॥३
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मूले कहि इहु वीर जििंदु, पुण गोत्तमेण सुधम्मु मुणिदु । जंबूसामि विवि रसए, दिमित्त अवरज्जिय कए । गोवद्ध तह भद्दबाहु मुखि, वह विसाहु पोट्ठिलु खत्तिउ मुखि ।
पुणु जय वह याग सु सिद्धत्यु, घिसेहो ए माइ सत्थु । विजयहो बुद्धिलं गंगदेवहो, धम्मसेरा क्खन्तमुणिदहो । जयपालो पंडो धुवसेणहो, कंसायरियो तव सुभद्दहो । जयभद्दहो वह पुणु जसभद्दद्दी, सत्रह लोहा इज्जहो । पुर्ण कमेख बहु गय सुबहाकहो, हु सत् य जिसे हो।
घता
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जिसे
पुणु इह उज्जोयर,
'बसे रिसिया महु ढोयउ ।
एवह हटं भवियहं पयासमि, पद प्रत्थु असेसुवि दरिसमि । बालो को वि तिहह सुहेय, सुक्खु विविउ सुचि बुझइ जेण ।
एहु जिस वयणु पराइड कम-कम आगर पुलु पविन्तु । सुहो पावपयास भवियहु बहुगुण अविचलु-धरिविणु चित्तु ॥१॥ म विप्पो सूरहो दण केसुल्ल उवरि तह संभवेण । जिणवरो चरण अणुरत्तएा, थिई रिसियई भत्तए । कुतिरथ कुधम्म विरतए, यामुज्जलु पयहु वहंतपूण | हरिवंसु सयलु सुलनिय इएहि, म विरयट सुदु सुहाव एहिं । सिरि बसेणु गुरवेण जेम, वखाणि किड अणुक्रमेण तेा ।
सज्जा मुणे वि बहुगुण भांति, दुज्जया पच्चोलिङ दोल लिति । इहु दुट्ठई खलई सहाउ को वि, लाए वि दोस विहोस हो वि । जे खाहि पियहिं धणु विड़वति,
अप्पाड समत्ता खल भांति । जे वि वि विसंचहि अत्थु केषि,
तिहाउ खुल्लहिं खलहि तेवि । वक्त्रायाहिं जाहिं जे पठंति,
[ वर्षे १४
* वाय तरि हुया ते भयांति ।
जैवि वह सत्ये ये मुयांति देवि,
• जसु सुक्ख व लक्खा भाहिं ते वि ।
सहहि महंत जे खंति पर,
ते बुच्चहिं खलहिं अलक्कार ।
'जे परिहिउयण सहि पोरुसेय, परचंडा चाहिं खलययेण ।
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जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
वर्ष १४.]
जे माय विसरलहिणियपटवि, तहुदुल्करु छुड अण्णुको वि।
छक्कमोवएस (षटकर्मोपदेश)
अमरकीति, रचनाकाल सं०-१२४७ प्रादि माग:
परमप्पय-मावतु मुह-गुण- पावणु णिहणिय-अम्म-जरा-मरणु। खासय-सिरि-सुंदर पणंय-पुरंदर, रिसा पविवि मवियव सरण।
यह गुज्जर-विसयहु मज्मिदेसु, हामेण महीयडु, बहु-पएस । णयरामस्-पर-गामहिं बिरड, णाणा-पयार-संपइ-समिछ । तहिं यह पथि गोदहय यामु, णं सग्गु विचितु सुरेख-यामु। पासायहं पंतिड अहिं सहति, (संति १)सरपमहु सोहा ण वहति । . धय-किकिणि कसरावहिं सरिद्धि, वं कहा सुरई पाविय पसिद्धि ।
घता
जो उवहसिड ण तेहि असुरेहिं सोहट भुवशिय देखमि । पउरवनहं देविणुरिसिय णवेविणु जाणिसुणहुकह भक्समि॥ अन्तिम भाग
जिणचक्क-हरी-लएव जेवि, चउवयण मंगल देंतु तेवि । रोइह हरंतु सुत वित्थरंतु, सम्गा-पवग्ग-पह-पायतु । मह वुद्धि विहुणे कहिउ जंजि, जिणमुहणिग्गय महो खमउ तंजि मुणिदेव पसाएण अबुहएण, धिद्वत्तणि जंपिउ जंपिएण । छंदालंकारें जं विहीगु, महु दोस ण दीवउ बुद्धिहीणु। जह बालुय जपहजेमतेम, तह एण तिणिय भतीवसेण । जिणसेण सत्तु पेक्खेवि पहु, मह विरयउ भवियहो पुणु विलेहु जो को वि सुणइ एहु महपुराणु, हरिवंसणामु इच्छिय पहाणु जो लिहा लिहावह को विभब्बु, सग्गा-पवग्गु बहो होइ सव्वु हो एह विहव वहिराहु करण, अंधाहणेत्त पुत्त वि कलत्त । समप्पइ लोयह सयल काल, जो भावइ हरिकुल णाम माल | दे साह संति रायाहिराउ, विहरंतु गेमिजिणु हरउ पाउ । पाउसु बरिसर णिय समय सासु.
णिप्पज्ज सयलु महिपयासु घत्ताजो चित्त अवहारई पुण्णुवियारइंणिसुण भविउ जो सहहह तहो पावशिवारणु सिव-सुहकारण होडोमि धवलुबि कहा।
इय हरिवंस पुरा समस
देसागय-खोयहिं जाय-पमोहि, जणियवि मणि मरिणयउ। एवहिं संकासट बग्छि-पचासड, गयरुण प्रवणु पवरिणय ॥४॥ तं चालुक्कचंसि गय-आण, पालइ कण्ह-गरिंदु पहाणड । जो बज्मतरारि-विद्धसणु, भत्तिए सम्माणिय-छईसणु । णिव-चंदिग्गदेव-तणु-जायत, खत्तधम्मु णं दरिसिय-काय । सयल-काल-भाविय-णिव-विजड, पुहविहि. विपस्थितहो बिज्जड । धम्म-परोवयार-सुइ-दाणई, णिच्च-महो सब बुद्धि-समागई। मासु रजिजणु एचई माणई, दुक्खु दुहिक्खु रोड पबियाणई। रिसह-जिणेसहो तहिं ईहरू, हुगुसिहा-सोहिड ससहरू।
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७२)
अनेकान्त
[वष १४
-
दसणेण जसु दुरिउ विलाज्जा, पुरण-हेड जंजणि मरिणज्ज।
घत्ता
अमियगइ महामुणि, मुणिचूणामणि, भासितित्थु समसीख-घणु। विरहय-बहु-सस्थड, कित्ति-समस्थड, सगुणाबंदिय-णिवइ-मसु ॥६॥ गणि संतिसेणु तहो जाउ सीस, णिय-चरण-कमल-गामिय- महीसु । माहुर-संघाहिउ अमरसेणु तहो हुउ विणेउ पुणु हय-दुरेलु । सिरिसेणसूरि पंडिय-पहारा, तहो सीसु वाइ-काणण-किसाणु । पुणु दिक्खिड तहो तबसिरिणिवासु, अस्थिवण-संघ-बुह-पूरियासु। परवाइ-कुभ-दारण महंदु, सिरिचंदकित्ति जायट मुर्णिदु । तहो अणड सहोयरु सीसु जाउ, गहि अमरकित्ति णिहणिय पमाउ । थहणिसु सुकात विलोय लीणु, जामरछह बहु-विह-सुय-पवीणु । तामणहिं दिणि विहियायरेण, खायर-कुल-गया-दिणेसरेण । चच्चिणि गुणवालहंणंदणेण, भव दिण्यदाण पेरिय मणेण ।
धम्मोवएस-चूडामसिक्खु, । तहो माण-पईड जि माणसिम्खु । छक्कम्मुवएसें सहुँ पबंध, किय अट्ट संख सई सच्चसंध। साकय-पाहय ध्वय घणाई, अथराइं कियई रंजिय-जणाई। पई गुरुकुलु ताय हो कुलु पवितु, सुकइसे सासउ किउ महंतु । कहयण-वरणामउ जे पियंति, अजरामर होइ वि ते णियति । जिद्द राम-पमुह सुयकित्तिवंत, कहमुह-सुहाइ पेच्छहि जियंत कह तुटूउ अप्पापरु समणु, अक्खयतणु करइ पसिद्धगणु ।
भध्वयण पहाणे बुहगुण जाणे, थंधषेण अणुजायई । सो सूरि पवित्तड, बहु विण्यात्तड, भत्तिएँ अंब पसाई॥६॥
परमेसर पइयवरस-मरिठ, विरहवउ गमिणाहहोचरित। भएतु वि चरितु सब्वस्य-सहिड, पवडत्यु महावीरहो विहिड। सीयउ चरितु जसहर-णिवासु। पडिया- किड पयार। टिप्परगड धम्मचरिय हो पयड, तिद विरह जिह बुज्मेह जहु । सक्कप-सिलोय-विही-बधिपदिही, गुंफिबर सुहासिवनयव-बिही।
मंतोसाहि-देवह, किय चिरसेवई, धुय पहाउ गहु सोसइं। परकाय-पवेसणु, किय-सासयतणु तिहजिह काहिं पदीसह ॥
महु पाहासहि पणिय सम्मई, श्रइकाहरणे गिहि-छक्कम्मई । जाई करतड भवियन संच, दिणि दिणि सुहु दुक्कयहिं विमुच्चा । तेहि विवज्जिउ परभड भन्बई, छग्गा-गल-षण-समु गयनान्वहं (१) मई मइमूढे किं पिण चिंतड, पुण्णकम्मु इय कम्मु पवित्त । भव-काणणि भुजहो महुअक्खहि, सम्म-मग्गु सामिय मा वेक्खाह । अमरसूरि तब्बयणाणंतर, पयड गिहि छक्करमहं वित्यरु । सुणि काहपुर वंस-विजयद्धय, गियरूवोहिय-मयरद्धय । पूर्वय देवहं सुइ-गुरु वासणा, समय-सुख-सज्माय-पयासण।। संजम-तक-दाणहं संगुत्तइं,
जिससखि छक्कम्मइंवुत्तई। बल-स्प ष -शुवट, सरवाहि पत्तर,
गुणा-सील-तर-हणिय-मनु ।
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घष १४]
जनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
जो दिणि-दिण एयई करइ विहेयई,
मणय जम्मु तहो पर सहलु ॥८॥ इय छपकम्मोवएसे महाका सिरि अमरकित्ति विरहए महा कब्वे गुणपाल चिरिणिशंदण महाभच अंवपसायाणु मण्णिए छक्कमणिण्णय वरणहोणाम पढमो संधि समत्तो। अन्तिमभागः
ताई मुशिवि सोहेवि णिरतरु, होणाहिड विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावंतिहि, अम्हहं उप्परि बुद्धि-महतिहिं । छक्कम्मोवएसु बहु भवियहो, वक्खाणिवउ भत्तिई णवियहो । अंबपसायइंचाच्चपिपुर, गिह-छक्कम्म-पवित्त-पविते । गुणवालहु सुपण विरयाविउ, अवरेहि मि णियमणि संभाविड । बारह सयई समत्त-चयालिहि, विक्कम-संवच्छरहु विसालहिं । गयहि मि भवयहु पक्खंतरि, गुरुवारम्भि चउहिसि वासरि । इक्के मासे यह सम्मत्तिल, सई लिहियउ बालसु अवस्थित । णदउ परसासण-णिण्णासणु, सयलकाख जिणणाहहु सासणु। गंदउ तहवि देवि वाएसरि, जिणमुइ-कमलुभव परमेसरि । णदड धम्मु जिणिदें भासित, शंदउ संधु सुसीलें भूसिउ। णंदउ महिवह धम्मासत्तउ, पय परिपालण-णाय-महंतउ । णंद भावयणु णिम्मल-दसणु, बक्कम्महि पाविय जियसंसणु । शंदउ अंबपसाउ वियवखणु, अमरसूरि-लहु-बंधु सुलक्खणु । शंदड प्रवकवि जिण-पय-भत्तड, विबुह-वग्गु भाविय-रययत्त ।
पोट बिरु तावहि सत्यु हु अमरकित्ति-मुहि-विहित पयते। जावहि महिमारुव-मेरु-गिरि-यायालु
अंब पसायणिमित्त ॥८॥ इय छक्कम्मोवएसे महाकसिरि-अमरकित्ति-विरहएमहाकग्वे महाभत्र अंबपसायाणु मरिणए तव-दाणघण्णणोणाम चउदसमो संधी परिच्छेद्यो समत्तो॥छ। ॥ संधि १४॥ पुरंदर विहाण-कहा (पुरंदरविधान कथा)
अमरकीर्ति धादिभाग:
परमप्पय भावणु सुहगुण पावण, बिहणियजम्म-जरा-मरणु। सासय सिरि सुदरु पणष पुरंदर, रिसहुविवि तिहुयण सरण । सिरिवीर जिणंदे समवसरण,
सेणियराएँ पुण्याणिहि। जिणपूय-पुरंदर विहिकहि कहिउ तं,
बायपाहि विहिय दिहि। धन्तिम भाग:
अवराहमि सुरगिरि सिहरत्याई, तह गंदीसर दीवि पसत्थई । जाइ वि बहु सुरवर समवाएँ, अइत्तिए कय दुदहिनाएं। रहा कि सुरतरु कुसुमिहि अंचह,
शिरवाह पुरण विसेसे संचह। पत्ताजिण पूय पुरंदर विहि करह एक्कवार जो एस्थ गरु । सो अब पसाइह वेह बहु अमरकित्ति तिय सेसा ॥
जिणदत्त चरिउ (जिनदत्तचरित)
पं लक्ष्मण, रचनाकाल सं० १२७५ मादि भागः
सब सरकल इंसहो, हियकल हंसहो सेयंस बहा। भणमि भुषण कलहंसहो रणकलहंस हो णविवि जिणहो जिणयत्त कहा।
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७४]
भनेकान्त
[वर्ण १४
मुहु मुहु पभणहकर फंसि जाणु, लक्खणहो सिरिहरु हरियमाणु । बहु भत्ति कुणि वि मउलिय स-पाणि, दय किज्जल बंधव परमणाणि।
इस पखवेषि हय संसार-सरणि, पुरवावंस तामरस तरणि । विल्हण तगुरुह पायलिय पास, जिणहरु जिणभत्तु पसिद्ध यामु। तहो यंदण यशाणंद-हेड, गामेव सिरिहरु सिरिणिकेड । शिव गोत्तामर यो सहीसु, वणिणीह तरंगिणि तीरिणी। दुम्बसण कसर भर समण-मेहु, अगलिय गठरउ गुण गरु मगेहु । परिवार भार धुर-धरण-धीरू, विलसिय विलास सुरवर सरीरु । मुणि वयण कमल मयरंद भसलु, पवयण वयणाहिल मुगण कुसलु। सो विलरामे शिवसंतु मंतु, तह शिवसइ लक्खणु सीवतु । तें सिरिणामें कह वसु पयार, विरह व पयडिय तहो पुरउ सार । शिणसुणेवि कहा जिणहरहो पुत्त, संपभयह खक्खणहो सुबुद्ध जुत्त ।
पर चित्तु परिवग्वणु तस तणु रक्सणु सुवियक्खणु लक्खणु स-धणु । तणिसुणेवि परिहासह सिरि वि सरासह कुमाइ-पंसु उवसमइ घणु ॥३॥ हो हो सिरिहर वणिवर कुमार, मारावयार कय चारु चार । चारहडि चउर चउ रस्स उर, उरयादिव सशिणह भोय पउर । पउरिस रस रसिय सरीर मोह, सोहाहिल कलिय पमुक्क मोह। मोहिय स्वें पुर रमणि विंद, बंदियण सासण केलि कंद। कंदाविय दुटु जणाण मुद्ध, मुद्धमा विवज्जिय जस विसुद्ध । सुद्धा साहु गरिय तेयतार, तारच्छवि तिरमण रयणसार । सारंग वग्ग वर दीहणेत्त, णेत्ता हराम तामरस वन । ..........पीणिय सुयण सस्थ, सथेहि वियाशिय शिरु पयस्थ प्रस्थावियसुय-पय-रस-विसेस, सेसिय १ कुविसय विसरस पएस । हावाह णट्ट रस मुणिय भंग, अभंग य सासिय सिहरि संग । सिंगार विवि पोसणु सुमेह, मेहायर कय पंडिय येह ह । णेहिल जहिं ककित्तिमाल, माबह मालंकिष कुडिल बाल । बालक्कु किरण तणु-तेय लील, खोलारस पयडिय कामकील । कीलारविद मयर मिंग, भिगारहिं हाबिय जिण णिसिंग।
मुणिया हिलवर लक्खण भोकह ! बक्खण कह शिसुणे वि अणुरंज़ियड । महु मणु गुण-गण सारड पावणु पावें अहं जिय॥ पुणु पभाइ सिरिहरु णिसुणि बल्ला, पर पडिय सत्य रस मह महल्ल । बणि अरुहदत्त कह कहहि तेम, अहिणव विरवि महु पुरउ जेम । फिहमण संपट अज्जु सज्जु, पाविज्जइ किंप परत कज्ज। तेसु पसाएं महु सहलु जम्म, बहु वह बप्प बिहणिय कु-कम्मु । प्रम्हाणुपरि किज्जड पसाउ, बहु सवय परिगतिय गाउ । तुहं प्रयुदिनु मे ममि पुज्जा लिज्ज, पई परि माइट भड मिंद बिग्ज।
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पृष्ट १८ का शेष ]
माहिन्यगी कुछ लिया गया है। ममें 'क्ववियनोऽपि' रामायणमें पाठ चौपाइयाँ लिखने के बाद एक बता दिया है, वाक्य खासतौरसे विचारणीय है जिसे पटकमानमजबकि तुलसीदासजीने प्रायः पाठ चौपाइयोंके बाद एक में दिकसाहि.यसे भिम जनसाहित्यसे भी कुछ लिया गया दोहा या सोरठा दिया है। दूसरे अपनश भाषाके अनेक है। इसके अतिरिक्त 'मानस' को अन्तिम प्रशस्तिमें तो शब्दोंके प्राचुर्यको देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने उसका स्पष्ट रूपसं उल्लेख कर दिया है। जैसा कि तुजसीदासजोने अपभ्रंश भाषाका अध्ययन हीन किया हो। उसके निम्न पचसे प्रकट हैकिन्तु 'घूमउ, 'भनति-भणह' 'पिपीलिकउ' 'कवनु-कवणु' यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्री शंभुना दुर्गम, (देशी) 'केवट-केवट्ट' (सं० कैवत), 'गयउ' अपनपउ' श्रिमदु रामपदाब्ज भक्ति मनिशं प्राहत्येतुरामयणम् ।
आदि शब्द इस बातके सूचक हैं कि मानपमें अपभ्रंश मत्वा तद् रघुनाथ नामनिरतस्वान्तस्तमःशान्तये, भाषाके शब्दोंकी बहुलता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। माषाबद्ध मिदंचकारतुलसी-दासस्तथा मानसम्॥" तुलसीदासजी केवल जैन रामायणसे ही परिचित नहीं थे इस पद्य में बतलाया गया है कि समर्थ कवि श्रीशंभुने किन्त .नके परिचय में अन्य जैन ग्रन्थ भी भाये थे। /aaनि म चाण कमलोको बनेके लिये जिसका एक उदाहरण १०वीं शताब्दीके कवि धनपालकी
पहले जो दुगम रामायण (पउमचरित) रचा था उसे भविष्यदत्त पंचमी कथाकी कुछ कियाँ नीचे दी जा रघुनाथके नाममें निरत समझकर अपने अन्तःकरणके अज्ञान रही हैं जिनका रामायणकी पंक्तियोंके साथ तुलना करने पर अंधकारको शान्त करनेके लिये तुलसीदासने इस मानसको स्पष्ट पाभास मिल जाता है:
बनाया-हिन्दी भाषामें रचना की। इस पत्र में जहाँ 'पूर्व 'सुणिमित्नई जायई तासुताम,
प्रभुणा सुकविना श्रीशंभुना दुर्गम रामायणं कृतं' वाक्य गय पयहिणंति उड्डेवि साम । खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। वहीं इदं (मानसम्) वामगि सुत्ति रुहरुहरुवाउ,
भाषाब' चकार पद भो खासतौर से ध्यान देने योग्य है। पिय मेलावउ कुलु कुलइ काउ इससे सुनिश्चित है कि तुलसीदासजीने स्वयंभूदेवके रामायण वामउ किलि किंचउ लावएण,
को केवल दखा ही नहीं था किन्तु उससे उन्होंने बहुत कुछ ढाहिणउ अंगु दरिसिव मएण। साहाप्य भी प्राप्त किया था, यही कारण है कि उन्होंने उनका दाहिणु लोयणु फंदइ सबाहु,
प्रन्थमें तोन स्थानों पर तीन प्रकार से उल्लेख किया और रणं भणई एण मग्गेण जाहु ॥"
उनके प्रति समादर व्यक कर नहि कृत मुपकारं साधयो "दाहिन काग सुखेत सुहावा,
विसमरंति' की नीतिको चरितार्थ किया है।। नकुल दरस सब काहु न पावा। इसोसे प्रसिद्ध लेखक श्री राहुल सांस्कृस्यायनजाने अपनी सानुकूल वह विविध वयारी,
हिन्दी गद्य काव्य धाराकी प्रस्तावनामें इसे स्वीकार किया सचट सवाल आव वरनारी॥ और लिखा है कि-"क्वचिदन्यतोऽपि" से तुलसीवावाका लावा फिरिफिरि दरस दिखावा,
मतलब है, ब्रह्मणों के साहित्यसे बाहर "वहीं अन्यत्र से सुरभी सन्मुख शिशुहिं पित्रावा। भी" और अन्यत्र इस जैन ग्रन्थमें रामकथा बड़े सुन्दर रूपमें मृगमाला दाहिन दिशि आई,
मौजूद है। जिम सोरों या शूकर क्षेत्रमें गोस्वामीजीने रामकी मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई। कथा सुनी, उसी सोरोंमें जैनघरों में स्वयंभू रामायण पढ़ा स्वयंभूदेवसे पहले 'चउमुह' ने अपभ्रंश भाषामें रामायण जाता था, रामभक्त रामानन्दी साधु रामके पीछे जिस प्रकार बनाई थी, परन्तु खेद है कि वह भाज उपलब्ध नहीं है और पड़े थे, उससे यह बिल्कुल सम्भव है कि उन्हें जैनोंके पहा १२वीं शताब्दीके उत्तराद्ध के विद्वान कविघर ईधूने भी उक्त इस रामायणका पता लग गया हो।" भाषामें रामायण लिखी है और महाकवि पुष्पदन्तने भी ऊपर के इस समस्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है रामकथा महापुराणके अन्तर्गत लिखी है, इस प्रकार जैन कि जब रामायणकार स्वयं प्राकृतके हरिचरित (रामचरित) समाजमें रामकथाका अनुक्रम बराबर चलता रहा है। का उल्लेख कर रहे हैं और उनकी कृति में अपन शके
तुजसीदासजी ने 'मानस' के शुरूमें जहाँ यह प्रकट किया शब्दोंका बाहुल्य तक विद्यमान है। ऐसी स्थितिमें स्वयंहै कि रामायण में जहाँ अनेक पुराण, निगम और बागम भूदेवके 'पउमचरिड' का उनपर और उनकी कृति पर होने सम्मत तथा अन्य से भी वैदिक साहित्यसे भिन्न जन वाले अमिट प्रभाव को ठौन अस्वीकार कर सकता है?
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
शानाथजी,
...
संरक्षक
१०१) वा० लालचन्दजी बैन सरावगी १५००) बानन्दलालजी सरावगी, कत्तलक
११)बा. शान्तिनाथजी कलकत्ता ६२५१) वा० छोटेलालजी जैन सरावगी .,
१०१) बा. निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) वा. सोहनलालजी जैन नमेचू ,
१०१) वा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता ६२५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ,
१०१ बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन
१०१) बा• काशीनाथजी, २५१) बा०दीनानाथजी सरावगी
१०१, बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी
१.१) बा. धनंजयकुमारजी
१०१) बाजीतमलजी जैन १२५१) वा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , ५, २५१) सेठ गजराजजी गंगवान
१.१) वा. चिरंजीलाल जीसरावगी २२५१) सेठ सुमालालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) वा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१)ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली
१०१)ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन ,
१०) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५)बा०विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली * २५१) वा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहलो
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास प्रात्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ बदामीखालजी जैन, फीरोजाबाद १.१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर
२५१)ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १.१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 70५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १.१) ला बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार
२५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता * ५२५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँदोषधालय,कानपुर
१०१) ला०प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली सहायक R११) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवरे कारंजा १०१) सा० परसादीलाम भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहली रु १०१) बा० लानचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
सरसावा, जि. सहारनपुर
SONGS
प्रकाशक-परमानन्दजी नाली वीर सेवामंदिर, २१ परियागंज, दिल्ली । मा-उपवासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार
बोटेलाल जैन जयभगवान जैनएडवोकेट परमानन्द शास्त्री
१. जिनपति स्तवन-
श्री शुभचन्द्र योगी २. क्यों वरसत है ? (कविता)-[वा० जयभगवान एडवोकेट ७६ ३. भाचायद्वयका संन्यास और उनका स्मारक-हीरालालशास्त्री ७७ ४. नियतिवाद-प्रो० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य एम. ए. ५. मनको उज्ज्वल धवल बना-(कविता)-वा. जयमगवान ६. अध्यात्मगीत-(कविता)-युगवीर ७. पुराने साहित्यको खोज-जुगलकिशोर मुख्तार ८. तुम–श्रीराधेश्याम वरनवाल ८. धारा और धाराके जैन विद्वान्-परमानन्द शास्त्री
. तुकारी (कहानी)-40 जयन्तीप्रसाद शास्त्री ११. जैन दर्शन और विश्वशान्ति-प्रो० महेन्द्र कुमार न्याया• १०७ १२. महावीरके विवाहसंबंधमें श्वे०की दो मान्यताएँ-परमानन्द १०६ - १३. ऋषभदेव और महादेव-पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ११२ १५ पंचाध्यायीके निर्माणमें प्रेरक-जुगलकिशोर मुख्तार ११३ १५. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह
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चीर सेवा मन्दिर,देहली .......... मल्यः ॥
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वीर-शासन-संघ, कलकचाके दो नवीन प्रकाशन
कसाय पाहुड सुत्त
जिस २३ गाथात्मक मूल इन्थकी रचना भाजसे दोहजार वर्ष पूर्व श्रीगुणधराचायने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्यने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे और जिन दोनों पर श्री वीरसेनाचार्यने बारह सौ वर्ष पूर्व साठ हजार श्लोक प्रमाण विशाल टीका लिखी, जो आज तक लोगों में जयधवल नामक द्वितीय सिद्धान्त ग्रंथके नामसे प्रसिद्ध रहा है, तथा जिसके मूल रूपमें दर्शन और पठन-पाठन करने के लिए जिज्ञासु विद्वद्वर्ग भाज पूरे वारह सौ वर्षोसे लालायित था जो मूलप्रन्थ स्वतन्त्र रूपसे प्राजक अप्राप्य था, जिसके लिए श्री वीरसेन और जिनसेन जैसे महान् प्राचार्योंने अनन्त अर्थ गर्भित कहा, वह मूल प्रन्थराज 'कसाय पाहुड सुत्त' आज प्रथम बार अपने पूर्णरूपमें हिन्दी अनुवादके साय प्रकाशमें पा रहा है इस ग्रन्थका सम्पादन और अनुवाद समाजके सुप्रसिद्ध विद्वान पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने बहुन वर्षोंके कठिन परिश्रम के बाद सुन्दर रूपमें प्रस्तुत किया है। आपने ही सर्वप्रथम धवल सिद्धान्तका अनुवाद और सम्पादन किया यह सिद्धान्त प्रन्य प्रथम बार अपने हिन्दी अनुवादके साथ प्रकट हो रहा है। इस ग्रन्थकी खोज-पूर्ण प्रस्तावनामें अनेक
सर्व प्राचीन बातों पर प्रकाश डाला गया है जिससे कि दिगम्बर-साहित्यका गौरव और प्राचीनता सिद्ध होती है। विस्तृत प्रस्तावना, अनेक उपयोगी परिशिष्ट और हिन्दी अनुवादके साथ मूलप्रन्थ १०००से भी अधिक पृष्ठोंमें सम्पन्न हुआ है। पुष्ट कागज सुन्दर छपाई और कपड़े की पक्की जिल्द होने पर भी मूल्य केवल २०) रखा गया है । इस प्राचीनतम अन्यराजको प्रत्येक जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डार पुस्तकालय तथा अपने संग्रहमें अवश्य रखना चाहिये । बी० पी० से मंगाने वाजोंको २३) रु. में यह ग्रन्थ पड़ेगा। किन्तु मूल्य मनियार्डरसे पेशगी भेजने वालोंको वह केवल २०) रु. में ही मिल जायगा।
"
जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश
प्रथम भाग आजसे ५० वर्ष पूर्व जिन्होंने जैनगजट और निहितैषीका सम्पादन करके जैन समाजके भीतर सम्पादन कलाका: श्रीगणेश किया। जिनके तात्कालिक लेखोंने सुप्त जैन समाजको जागृत किया, जिनके क्रांतिकारी विचारोंने समाजके भीतर क्रान्तिका संचार किया, जिनके 'जिनपूजाधिकार मीमांसा' और 'जैनाचार्योके शासन भेद' नामक लेखोंने समाजके विद्वद्वर्ग और विचारक लोगों में खलबली मचाई, जिनकी 'मेरी भावना' और उपासना तत्वने भक्त और उपासकोंके हृदयमें श्रद्धा और भक्तिका अंकुरारोपण किया, जिन्होंने स्वामी समन्तभद्रका इतिहास लिखकर जैनाचार्योंका समय-सम्बन्धी प्रामाणिक निर्णय एवं ऐतिहासिक अनुसन्धान करके जैन समाजके भीतर नूतन युगका प्रतिष्ठान किया, जिन्होंने सरकार पनका सम्पादन और प्रकाशन करके भगवान महावीरके स्यावाद जैसे गहन और गम्भीर विषयका प्रचार किया।
जिन्होंने स्वामी समन्तभद्रके अद्विताय गहन एव गम्भीर अनेक ग्रन्थों पर हिन्दी अनुवाद और भाष्य लिख कर अपने प्रकाण्ड पांडित्यका परिचय दिया, उन्हीं प्राच्य-विद्यामहार्णव प्राचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार 'युगवीर के जैनहितैषी जैनजगत, वीर और भनेकान्तमें प्रकाशित ३२ लेखोंका संशोधित, परिवर्धित एवं परिष्कृत सग्रह है । इन लेखोंके अध्ययन से पाठकोंके हृदय-कमल जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाशसे पालोकित एवं श्राहादित होंगे। पृष्ठ संख्या ७५०, कागज और छपाई सुन्दर, पक्की जिल्द होने पर भी लागतमात्र ५) मनिपारस मूल्य अग्रिम भेजने वालोंको १॥) रु. डाकखर्चकी बचत होग।
समन्तभद्र-स्तोत्रको भेंट युगवीर' श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार का नई सुन्दर रचनाके रूपन जो 'समन्तभद्र स्तोत्र' हाल में ही प्रकाशित इमाइसकी कईसौ प्रतियां दूसरे उत्तम कागज तथा सुन्दर स्याहीमें अलग छपाई गई हैं। जो सजन इस स्तोत्र को
कांचमें जाकर अपने मन्दिरों, मकानों, निवासस्थानों, विद्यालयों तथा पुस्तकालय भादि में अच्छे स्थान पर स्थापित करना . चाहें, उन्हें इस स्तोत्रकी यथावश्यक दो-दो चार-चार प्रतियां भेंटस्वरूप फ्री दी जायगी।
मिलने का पता-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली
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अनेकान्त
श्री १०८ प्राचार्य नमिसागर जी
(जिनका अभी वा० २०१०५६ को समाधिमरण पूर्वक देवलोक हुआ है)
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a अहम
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वस्ततत्व-मघातक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य 1)
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नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक। परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्वनेकाना
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वर्ष १४ । वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली किरण, ३-४ । आश्विन कातिक, वीरनिर्वाण-संवत २४, विक्रम संवत् २०१३ । नवम्बर ५६
श्रीशुभचन्द्र-योगि-विरचित
जिनपति-स्तवन परपदं सपदैः स्ततपक्षवयं, विशदनाद-सनन्दित-समयम। कुमुददानविधु'धृतिवृद्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥१॥ विशद-चिद्धन-सदनकोन्नत भवपयोधिपतज्जनताश्रितम् । मदन-दन्ति हरिं सुसमृद्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥२॥ कमल-कोमल-काय-मनोहरं दरद-कर्म-सुशर्मभिदाकरम् । अनघ-घस्मर-योग-विशुद्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥३॥ सुरकृतीलमगर्भमहामहं सुरधरात्तसुसेकशुभावहम् । समयसारभराभिसुलब्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये।४॥ करटि-घोटक-कोटि-महाश्रियं स्फुरदुपाधि-निराकरण-क्रियम् चरित-चच मिनं निजबोधये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये॥५॥ सकलकेवल लोचन-लोकिनं सुकृत-क्लुप्ति-परार्थ-विवेकिनम् । परम-पौरुष-सिद्ध-समाधये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ।।६।। अमल-मंगल-सत्पद-साधकं विषय वेदन-रागविबाधकम् । प्रगुण-सद्गुण-धाम-परद्धबे, प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥७॥ अमर-शकर-माधव-मानिनं परम-पूरुष-सत्पदाखिनम् । परकुलं इतकर्म सुनद्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥८॥
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७६ ]
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अनेकान्त
[वर्ष १४ नत-नरासुर-निर्जर-नायकं करण-मुक्त-सुसात-विधायकम्। सुनय-नीत-चिदात्मसुसिद्धये प्रवियजे जिन शिवसिद्धये ॥६॥ अकल-नीरस नीरव-निर्भवं, हरि-हरेन्दु-नुतं शिवद शिवम् । निखिल-काल-कलाकृति-जग्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥१०॥ इत्थं शुभेन्दुवदना शुभचन्द्रयोगैाता दिशंतु जिनपाः शुभसिद्धिवृद्धाः। सिद्धिं विशुद्धिमरमृद्धिममन्दबुद्धिं स्वान्ते शुभाःशुभकराश्च चिदुद्यता वः ॥ ११॥ :
(अजमेरके दि. जैन पंचायती मन्दिर शास्त्र-भंडारके एक गुटकेसे उधृत)
क्यों तरमत है ? (बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) क्यों तरसत है क्यों चिन्तित तू, क्यों श्राशाहत क्यों याचक तू॥
मधु-अमृत की पूरण निधि तू
शान्ति सुधा का सागर । सुषमा का भण्डार भरा तू
मालोकों का भाकर ॥१॥
जग की सारी लीला शोभा .
___ मंगल-गाथा तुझ से। कालचक्र के युग-युग की है
नाम-महत्ता तुझ से ॥२॥
देव-असुर-नर-पशु अरु पंछी
मीन-मकर-कृमि-भौर। . अग्नि-वायु-जल-भूमि वनस्पति
रूप विविध है तेरे ॥३॥
हास-उदय उत्कर्ष-पतन के
इतिवृत्तों का कर्ता। भव्य-विभूति अतुल-वैभवमय
तू भविष्य का धारा
परमेश्वर का वास बना तू
ऋद्धि-सिद्धि का साधक । मूल्यांकन सबका तुमसे तू
झूठ-सत्य का मापक ॥
ज्ञान कला विज्ञान व दर्शन -
दान अतुल हैं तेरे। धर्म-कर्म सब पथ जीवन के
काम कल्प हैं तेरे ॥६॥
सत्य महोन मार्ग अह ज्योती
तू पौरुष का धाता। पाप-पुण्य दुख सुख-तथ्यों का
.. तु है भाग्य-विधाता Rom
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आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक
(श्री पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री) संन्यासका स्वरूप
संन्यासकी उपयोगिता जब कोई साधक भावक या मुनि अपने जीवनके अंतिम प्रारम-हितका साधन करनेवाला श्रावक या साधु निरसमय में यह अनुभव करता है कि मेरी इन्द्रियां दिन-पर-दिन' तर बारमाके हित-साधन करने में ही उद्यत रहता है। वह शिथिल होती जा रही हैं और यह शरीर अब धर्मका साधक शरीरकी उतनी ही सम्भाल करता है, जितनी कि धर्मन होकर बाधक होरहा है, तब उसे शास्त्रोंमें सन्यास-ग्रहण साधनके लिए अत्यन्त आवश्यक होती है। वह कुशल करनेका विधान किया गया है। यह संन्यास-धारण करनेका व्यापारीके समान सदा इस बातका ध्यान रखता है कि व्यय उत्सर्गमार्ग है। किन्तु यदि शरीर पुष्ट भी हो, इन्द्रियां कम हो और प्राय अधिक हो । यही कारण है कि साधक बराबर अपना कार्य कर रही हों, फिर भी यदि कदाचित् शरीरकी सम्भाल करनेके लिए उत्तरोत्तर उदासीन और कोई ऐसा उपसर्ग बाजाय, जिसके कि दूर होनेकी सम्भावना प्रात्म-सम्भालके लिए उत्तरोत्तर जागरूक रहता है। साधाही न रहे, कोई ऐसा ही रोग शरीरमें उत्पन्न हो जाय, कि रणतः संन्यासग्रहण करनेका मार्ग वृद्धावस्थामें जीवन के जिसका इलाज सम्भव न रहे, भयानक दुर्भिक्ष प्रापड़े, सन्ध्याकालमें बतलाया गया है। यह वह समय है, जब अथवा इसी प्रकारका कोई अन्य कारण पा उपस्थित हो. जीवके आगामी भव-सम्बन्धी प्रायुका बन्ध होता है और जिससे कि धर्म-साधनमें बाधा उत्पन्न हो जाय तो भी भावी जीवनका निर्माण होता है। अतएव जीवनको अन्तिम संन्यास-ग्रहण करनेकी आशा शास्त्रकारोंने दी है। यह वेलामें यह उपदेश दिया गया है कि वह अन्य सब ऐहिकसंन्यास ग्रहण करनेका अपवाद मार्ग है । उत्सर्गमार्गमें दैहिक कार्योंसे मुख मोड़कर भास्मिक कार्योंके सम्पन्न करनेके यावज्जीवन के लिये संन्यास धारण करनेका और अपवाद लिए सदा सावधान रहे। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मार्गमें कालकी मर्यादाके साथ संन्यास-धारण करनेका विधान अनुकूल हैं, तो वह इसी भवसे ही सर्व कोका क्षयकर किया गया है। यतः संन्यासका अन्तिम लक्ष्य समाधिपूर्वक अजर-अमर पदको प्राप्त कर सकता है और यदि उन दम्यशरीरका त्याग करना है, अतः इसे समाधिमरण भी कहते क्षेत्रादि अनुकूल नहीं है तो कम-से-कम वह अपने भविष्यहै। तथा संन्यास-ग्रहण करनेके अनन्तर शरीर-स्याग करनेके का तो सुन्दर निर्माण कर ही सकता है और यही संन्यासअन्तिम क्षण तक साधक अपने काय और कषायोंको क्रम- धारण करनेकी सबसे बड़ी उपयोगिता है। क्रमसे कृश करता रहता है, अतएव इसे सल्लेखना भी कहते
संन्यासका फल हैं। 'संन्यास' शब्दका अर्थ है-वाहिरी शरीर-इन्द्रियादिककी क्रियाओं और प्रवृत्तियोंको रोक कर, तथा मनके संकल्प
संन्यासका साक्षात् या परम्पराफल मोक्ष-प्राप्ति बतलाया विकल्पोंको रोककर अपने प्रात्मस्वभावमें अपने आपको
गया है। जो उत्कृष्ट संहननके धारक है और जिनके सर्वस्थापित करना । पंडितप्रवर भाशाधरजीने अपने मागारधर्मा
सामग्री अनुकूल है, वे जीव तो संन्यासके द्वारा इसी भवसे मृतके आठवें अध्यायमें संन्यासका लक्षण बहुत ही सुन्दर
मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो हीन संहननके धारक हैं
और जिनके अन्य सामग्री अनुकून नहीं है, वे भी यदि एक रूपसे दिया है
बार भी सम्यक प्रकारले संन्यासको धारण करके समाधिपूर्वक संन्यासो निश्चयेनोक्तः स हिनिश्चयवादिभिः।
शरीरका त्याग करते हैं, तो भी सात-पाठ भवमें संसारयः स्व-स्वभावे विन्यासो निर्विकल्पस्य योगिनः ||६३॥ मागरके पार उतर जाते हैं, इससे अधिक समय उन्हें संसारमें
जब योगी बाहिरी संसारसे सम्बन्ध तोड़कर तथा वास नहीं करना पड़ता है। संन्यास-धारक जीव अपनी इन्द्रिय और मनके शुभाशुभ विषयोंसे भी मुख मोड़कर, प्रात्माका ध्यान करता हुमा प्रतिक्षण पूर्व संचित प्रचुर कोसर्व संकल्प-विकल्पोंसे रहित हो भारम-स्वभावमें स्थिर होता की निर्जरा करता रहता है। यही कारण है कि जो जीव है, तब उसे तत्वके निश्चय करनेवाले महर्षियोंने 'संन्यास' सन्यासके संस्कारोंसे अपनी प्रास्माको सुसंस्कृत कर लेता है, कहा है।
वह उत्तरोत्तर प्रात्म-विकाश करता हुमा अल्पकाल में ही सर्व
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अनेकान्त
[वर्ष १४ कमोसे विमुक्र होकर सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यही संन्यास जुटाता है और फिर अकेले ही चला जाता है। नाते समय धारण करनेका सर्वोत्कृष्ट फल है।
कोई उसका साथी होता है और न जाते समय । इसलिए प्राचार्य शान्तिसागरका संन्यास-ग्रहण
उसे औरोंसे परामर्शकी क्या आवश्यकता है?"
पुनः संघपतिने जब निवेदन किया-महाराज, आपके ___ संन्यास-धारण करना श्रावक और साधु दोनोंका परम
दर्शनले भक्कोंका उद्धार होगा न १ भनोंके कल्यायका श्राप कतैव्य माना गया है । जैन शास्त्रों में संन्यास धारण करने
सदैव ध्यान रखते हैं। अब भी उनको श्रात्म-कल्याणका वाले अगणित व्यकियोंके दृष्टान्त भरे पड़े हैं। अनेकों
अवसर देना चाहिये न ? स्थानों पर समाधिमरण करने वालोंके स्मारक और शिला
श्राचार्यश्रीने उत्तर दिया-"जिनका जैमा भाग्य होगा, लेख आज भी प्रचुर परिणाममें उपलब्ध हैं। फिर भी इधर
आत्म-कल्याणका अवसर उनका उस रूपमें अवश्य प्राप्त कितने ही वर्षोंसे लोग इस अन्तिम परम कर्तव्य को भूलसे
होगा ही । दूसरोंके कार्योका निर्धारण मैं स्वयं थोड़े ही कर रहे थे। उसे स्वीकार करके गत वर्ष चारित्र-चक्रवर्ती प्रा०
सकता हैं। मुझे तो अपने ही ऊपर अधिकार है, अपने ही शान्तिसागरजीने जैन जगत् ही नहीं, सारे संसारके सामने
कोंके लिए मैं उत्तरदायी हूँ। मेरी अन्तरात्मा कहती है कि एक महान् भादर्श उपस्थित किया है। इधर उन्नीसी
सल्लेखना धारण करनका उचित समय अब भा गया है। बीसवीं शताब्दीके भीतर जितने भी साधु हुए है, उनमें
अन्तरात्माके सामने मैं और किसी बातको कैसे महत्व दे. मा. शान्तिसागरजीने अपनी दीर्घकालीन तपस्या, निर्मल
सकता हूँ?" निर्दोष चारित्र और शान्त स्वभावके कारण अपना एक विशेष
xxx "मेरी दृष्टि क्षीण हो गई है, इस कारण प्राणिस्थान जन-मानसके भीतर बनाया है। उनका शरीर पूर्ण संयम रखने में मुझे कठिनाई होगी। अतः अब पल्लेखना रूपसे निरोग था, किन्तु वृद्धावस्थाके साथ-साथ आंखोंकी
धारण करना मेरा कर्तव्य है।" ज्योति मन्द पढ़ती गई और उन्हें अपने धर्मका निर्वाह जब "दिगम्बर जैन यतियोंके लिए धर्म ही मातृ-समान है। अशक्यसा प्रतीत होने लगा, तब उन्होंने शास्त्रोक मार्गका
वही उनका जीवन-सर्वस्व है । यदि शारीरिक शिथिलताके अनुसरण कर संन्यासको धारण किया और जीवन अन्तिम
कारण धर्मके पालनमें बाधा होनेकी आशंका हो, तो वह प्रमक्षण तक पूर्ण सावधान रह कर प्राणोंका उत्सर्ग किया। बता पर्वक प्रायोपवेश करके श्रात्म-चिन्तनमें लीन हो जाते
आचार्य शान्तिसागरने जीवन भर जैन धर्मका स्वयं हैं और शरीरको उसी प्रकार त्याग देते हैं जैसे जीर्ण-शीर्ण पालन करते हुए सारे भारतमें विहार कर उपदेश दिया और कंथाको लौकिक जन । जैन साधुओंको दृष्टिमें शरीरकी लोगोंमें उसका प्रचार किया है। जीवनके अन्तमें उन्होंने उपयोगिता धर्म पालनके साधनके रूपमें ही है । जिस क्षण जिस संन्यासको धारण किया था उसका आभास उनके शरीरकी यह क्षमता नष्ट हो जाती है, उसी क्षण उसकी अन्तिम दिनोंके प्रवचनोंमें स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। उपयोगिता भी नहीं रह जाती और दि. जैन साधु बिना उसकी कुछ मांकी देखिए
किसी मोहके उसे विसर्जित कर देते हैं। इसी कारण उनके संघपति गेंदनबालजी जव्हेरी बम्बईने जब आचार्य- समाधिमरणको वीरमरण कहते हैं।" महाराज-द्वारा सल्लेखना धारण करनेके समाचार सुने और मा० शान्तिसागरके सल्लेखना ग्रहण करनेके अनन्तर उन्होंने महाराजकी सेवामें उपस्थित होकर प्रार्थना की- जो थोड़ेसे उनके प्रवचन हुए उनके कुछ अंश इस प्रकार है'कमसे कम कुछ प्रमुख लोगोंको सूचना देकर पहले यहां "मनुष्यको सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये। उदास बुला लिया जाय, उनसे परामर्श कर लिया जाय और फिर और निराश होना ठीक नहीं। प्रयास करते रहनेसे सफलता
आप सल्लेखनाके सम्बन्धमें निश्चय करें, तो अच्छा होगा।' अवश्य मिलती है। लकड़ीको लकड़ीके साथ घिसते रहने तब प्राचार्य महोदयने उत्तर दिया
पर अग्नि अवश्य प्रकट होती है, उसी प्रकार निरन्तर प्रयत्न "यह तो मैं अपने प्रात्मकल्याणके लिए कर रहा हूँ। करते रहने पर प्रात्म-जाभ अवश्य होता है।" इसमें दूसरोंसे क्या पूछना जोव अकेले पाता है, अपने "अपनेको घटिया समझना ठीक नहीं। केवलीके समान कियेका फल भोगता है, अपने प्रारमोद्धारके साधन माप ही अनन्त शक्ति प्रत्येकमें विकसित हो सकती है, इस सत्य पर
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किरण ३-४]
आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक विश्वास रखो । सभी जीवोंको सिद्ध सरीखा (भविष्यमें सिद्ध सफलता न मिलने पर उनके प्राणिमात्रके उद्धारको पुनीत बननेकी सामर्थ्य रखने वाला) समझो । किसोका तिरस्कार भावना से भरे हुये कोमल हृदयको जो ठेस पहुंची, जो नहीं करना चाहिये।
अन्तर्वेदना हुई, उसका भी पता उक वाक्यके द्वारा सहज ता. ८-8-१५ को प्राचार्य महाराजके अन्तिम प्रवचन
में ही लग जाता है । वस्तुतः प्राचार्य महाराज केवल शान्तिको रिकार्ड किया गया है। उसमें प्राचार्यश्रीने कितनी ही
सागर ही नहीं थे अपितु वे कल्याके भाकर और विश्वबातों पर बहुत उत्तम प्रकाश डाला है। जिसमें से यहां मंत्री भण्डार भी थे। पर उनके प्रवचनका एक अंश उडत किया जाता है
प्राचार्यश्री स्वर्गावरोहणके पश्चात् सारे भारत__"तर त्याचे मध्ये जिनधर्म हा कोणी जीव धारण वर्षमें शोक-सभाएं को गई और उन्हें श्रद्धाजलियां करील त्या जीवाचा कल्याण अवश्य होईल Ixxx समर्पित की गई। अनेक स्थानों पर उनके स्मारक बनाने सप्तव्यसनधारी अंजन चोर स्वर्गाला गेलं । हे तर की भी बड़ी-बड़ी बातें उठी । पर उनमेंसे कौन सोड, नीच जातीचा कुत्ता जीवंधरकुमाराच्या उप- बात मूर्तरूप धारण करेगी, यह भविष्य ही बतलायगा। देशानं सद्गतीला गेला, इतका महिमा जिनधर्माचा मेरी रायमें बड़े स्मारकके रूपमें जो भी किया जाये, सो
आहे। परन्तु कोण धारण करीत नाहीं। जैन होऊन तो ठीक है ही। पर कम-से-कम उनके सम्बास-धारण जिनधर्मावर विश्वास नाहीं।"
करनेके परम भादर्शको स्थायी रखने और संन्यासकी परम्पराअर्थात् जैन धर्म को जो कोई भी जीव धारण करता को जारी रखने के लिए यह अत्यन्त प्रावस्यक प्रतीत होता है, उस जीवका अवश्य कल्याण होता है |xx सप्तव्यसन- है कि भारत के मध्य एक और उसके चारों ओर चार इस धारी अंजनचोर पहले स्वर्ग गया और पचे मोक्ष गया। प्रकार पांच संन्यास-भवनोंका अवश्य निर्माण कराया इसे भी छोडो, अत्यन्त नीच जातिका कुत्ता भी जीवन्धर- जावे । जहां जाकर समाधिमरण इल्पक श्रावका साथ कुमारके द्वारा उपदेशको पाकर सद्गतिको प्राप्त हुआ। अपने जीवनके अन्तिम कणोंको पूर्ण निराकुलता पूर्वक इतनी महिमा जैनधर्मकी है। (इतनी महिमा जैन धर्म धर्माराधनमें व्यतीत कर प्राम-कल्याण कर सकें। इसके की होने पर भी) कोई इसे धारण नहीं करता। जैन लिए कुछ उपयोगी सुझाब इस प्रकार हैंहोकर भी उन्हें अपने जिनधर्म पर विश्वास १-जन-कोलाहल से दूर किसी एकान्त, शान्त, तीर्थ नहीं हैं।"
क्षेत्र या इसी प्रकार के उत्तम स्थानका चुनाव किया जाय, उक्र प्रवचन के अन्तिम शब्द कितने मार्मिक और जहां पर मंन्यासको धारण करनेका इच्छुक श्रावक या साधु उदबोधक हैं और प्राचार्य महाराज उनके द्वारा अपना रह कर समाधिपूर्वक देह उत्सर्ग कर सके। श्राशय प्रकट कर रहे है कि जिनधर्मके माहात्म्यसे, उसके २-संन्यास-भवनकी दीवालों पर चारों ओर घोरातिआश्रयसे बड़े-बड़े पापी तिर गये, उनका उद्धार हो गया, घोर उपसर्ग और परीषहोंको सहन करके माध्मार्य सिद तो क्या जैन कलमें उत्पन हये व्यक्ति का उद्धार नहीं करने वाले साधुओंके सजीव चित्र रहें जिन्हें देखकर होगा। अवश्य होगा। पर प्राचार्य महाराज दीर्घ निःश्वास समाधिमरण करनेवाला अपने परिणामोंको स्थिर रख सके। छोड़ते हुए कहते हैं कि जैनियोंको स्वयं अपने ही धर्म पर
३-उन चित्रोंके नीचे समाधिमरण पाठके वंद, वैराग्यविश्वास नहीं है, यह कितने दुःख की बात है । इस एक वर्धक श्लोक आदि लिखे जावें। तीर्थकरोंके पांचों कल्याणकोंही प्रवचन-सूत्र में कितनी भावनाएं अन्तर्निहित है यह के भी रश्य अंकित किये जायें। भवनकी छतपर या किसी उसके एक-एक अक्षरसे प्रकट हो रहा है। साथ ही प्राचार्य एक ओर की दीवालपर समवसरणमें धर्मोपदेश देते हुए महाराजकी उस शुद्ध भावनाका भी स्पष्ट पाभास तीर्थकर भगवानका जीता जागता चित्रण किया जाय। मिलता है, जोकि वे जीवन भर अपने उपदेशोंके द्वारा --उक्र संन्यास-भवनके समीप ही कुछ दूरी पर परिजीवों को सम्मार्गपर लानेके लिए भाते रहे और यथेष्ट चर्या करनेवालोंके रहने प्रादिके लिए कमरे मादि बनाये 8 जैन गजटके श्रद्धाञ्जलि-विशेषाकसे साभार उद्धत। जावें और इनकी व्यवस्थाका भार उक क्षेत्रके समीप रहने
वाली जैम पंचायतके प्राधीन किया जाये।
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अनेकान्त
वर्ष १४
श
-मेरे ख्यालसे स्थानोंका चुनाव इस प्रकार किया जिसमें आपने कोई-न-कोई दुर्धर व्रतका पाराधन न किया जाये-पूर्व में ईसरी, दक्षिणमें कुंथलगिरि, पश्चिममें सोनगढ़, हो। आप अनेकों बार एक-एक, डेढ़-डेढ़ मास केवल छांछ उत्तरमें हस्तिनापुर और मध्यमें इन्दौर, सिद्धवरकूट या या नींबूके जलपर रहे हैं, गर्मीके दिनोंमें भी एक-एक मास बड़वानी।
तक विना पानीके निर्वाह किया है। नमकका त्याग तो आपके ___ मेरी रायसे इन संन्यास-भवनोंका नाम 'मा. शान्ति- २७-२८ वर्षसे था ही, पर बीच-बीच में अनेकोंबार आपने सागर-संन्यास-भवन' रखा जावे। यह कार्य उनके द्वारा सर्वरसोंका भी त्यागकर केवल रूखे-सूखे भोजन पर वर्षों उपस्थित किये गये प्रादर्शके अनुरूप और भावी पीढ़ीको तक शरीरका निर्वाह किया है। एक बार आपके रूक्ष आहार इस मार्गपर चलानेके लिए प्रेरक होनेके कारण सर्वोत्तम करनेसे नेत्रोंकी ज्योति चली गई, तो आपने अन्न-जलका ही स्मारक सिद्ध होगा।
परित्याग कर दिया। किन्तु भाग्यवश तपोबलसे सातवें दिन अथवा जहां पर जैनी अधिक संख्यामें आबाद हैं, ऐसे आपको पुनः नेत्र-ज्योति प्राप्त होगई। पांच शहरोंमें नगरके बाहिर नसिया आदि स्थानोंमें उक्त आपकी शिक्षा बचपनमें बहुत ही कम हुई थी, किन्तु संन्यास-भवन निर्माण किये जावें। वर्तमानकी व्यवस्थाको मुनिजीवनमें आप निरन्तर शास्त्राभ्यास करते रहे, जिसके देखते हुए सोलापुर, बम्बई, अहमदाबाद जयपुर, दिल्ली, फलस्वरूप आपका शास्त्रज्ञान बहुत अच्छा होगया था। इन्दौर, गया और कलकत्ता मेंसे कोई भी पांच नगरोंका प्रारम्भमें आपको हिन्दी बोलनेका बहुत ही कम अभ्यास था। चुनाव किया जा सकता है।
धीरे-धीरे आपने अपनी योग्यता बढ़ाई और अब काफी देर संन्यास या समाधिमरणके साधनका उत्कृष्ट काल तक हिन्दी में उत्तम व्याख्यान देने लगे थे। आप एकान्तमें १२ वर्षका बतलाया गया है। अतः जो संसारसे उदासीन शान्ति के साथ रहना पसन्द करते थे और घण्टों मौनपूर्वक लेकर संन्यास-दीक्षाग्रहण कर प्रात्म-साधनमें लगना चाहेंगे, समाधिस्थ रहा करते थे। अन्तिम समयमें आपके भाव वे तो उनमें रहेंगे ही। साथ ही जो भी व्रती पुरुष प्रोषधो- तीर्थराज सम्मेदाचलकी यात्रा करके पूज्य पुल्लक गणेशपवास व्रतके धारक हैं, भी अष्टमी चतुर्दशीके दिनोंमें वहां प्रसादजी वर्णीके समीप रहकर समयसार आदि अध्यात्मजाकर समाधिमरणकी अपनी भावनाको दृढ़ संस्कारोंसे ग्रन्थोंके श्रवण-मननके हुए और आपने तदनुसार तीर्थराजकी सुसंस्कृत कर और भी बलवती बना सकेंगे।
बन्दना करके ईसरीमें चतुर्मास किया । अध्यात्म-प्रन्थोंका उक्त संन्यास-भवनोंकी सभालका काम उदासीन-आश्रमों श्रवण-मनन और धर्मसाधन करते हुए आपके दिन और व्रती संस्थाओंके माधीन किया जा सकता है बहुत अच्छी तरह व्यतीत होरहे थे कि अचानक उदर
मा० नमिसागरका संन्यास-ग्रहण व्याधिने विकट रूप धारण कर लिया । जब आपने रोगकी श्रा० शान्तिसागरके समाधिपूर्वक देहत्याग करनेके १३ असाध्यताका अनुभव किया, तो संन्यास धारण कर लिया मासके पश्चात् उन्हींके शिष्य परम तपस्वी भा० नमिसागर- और अन्त में अपने पूज्य गुरुदेव श्रा० शान्तिसागर महाराजके जीने ११-10-१६को संन्यासग्रहण किया। यद्यपि तपस्यासे समान ही अत्यन्त शान्ति और परम समाधिके साथ शरीरका प्रापका शरीर अत्यन्त कृश पहिलेसे ही था, परन्तु पिछले परित्याग किया। दिनों में आपको उदर रोगकी शिकायत होगई थी। जब यद्यपि प्रापको मौन-पूर्वक स्वाध्याय करना अधिक पसन्द
आपने देखा कि मेरा रोग उपचार किये जाने पर भी उत्तरोत्तर था और इसलिए व्याख्यान बहुत ही कम देते थे। पर जब बढ़ता ही जारहा है, तब आपने सर्व प्रकारकी औषधि और कभी भी आप व्याख्यान देते, तो उसमें श्रोताओंको भनेक अबका त्याग करके समाधि-मरणकी तैयारी की और अन्तमें अश्रु त-पूर्व मौलिक बातें सुननेको मिलती थीं । कभी-कभी २२-१०-५६ को दिनके १२ बजे पूर्ण सावधानीके साथ तो आप किसी खास बातको कहते हुए इतने प्रात्म-विभोर देहका उत्सर्ग कर स्वर्ग-धाम पधारे।
हो जाते थे, कि प्रांखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती मा. नमिसागरजीकी तपस्यासे सर्व जोग परिचित है। थी। जैन समाजकी दिन पर दिन गिरती हुई दशाको देखकर आपके महान त्याग और उग्र तपस्यामोंकी सर्वत्र चर्चा है। आपके हृदयमें जो पीड़ा होती थी, उसकी झांकी कभी-कभी प्रापके मुनिजीवन में ऐसा कोई चातुर्मास यान नहीं पाता, आपके उपदेशोंमें स्पष्ट दिख जाती थी। पाप जैन धर्मकी
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किरण ३-४]
आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक पवित्रता और शुद्धता रखनेके लिए अपने प्रवचनोंमें बहुत से बाल्माको इन विभावरूपी भागोंसे बचाने, मलीन होनेसे अधिक जोर देते रहे हैं । आपने जहां कहीं भी चतुमांस रोकने और ज्ञानकी सच्ची देनका ही नाम सरस्वती है। किया, भापके प्रवचनोंसे प्रभावित होकर वहांकी समाजने सरस्वती क्या है जो अपना है, उसे अपने पास रखे, दूसरे मुक्र हस्तसे दान दिया और उसके फलस्वरूप स्थान-स्थान उसमें हों उन सबको निकाल दे। यहां तक कि राग-द्वेषपर अनेकों पाठशालाएँ और औषधालय श्रादि खोले गये। रूपी हवाको लगने ही न दे । जब राग-ष मौजूद ही नहीं
श्रा नमिसागरजीका एक चतुर्मास सन १६ में होंगे तो विभावरूपी भाग उत्पन्न ही नहीं हो सकते । जब दिल्ली हुआ था। उसी समय पा० सूर्यसागरजी महाराजने बीज ही नहीं रहेगा, तो वृक्ष कहांसे होजायगा ? इस भी पहाड़ी धीरज दिल्लीमें चतुर्मास किया था। उस समय
लिए आप इन विभावरूपी राग-देषोंको अपने हृदयसे धर्मपुरा नया मन्दिरमें दोनों प्राचार्योके साथ-साथ अनेक वार निकालकर शान
निकालकर शानकी सच्ची देन सरस्वतीको स्थिर करो और उपदेश हुए हैं। जिनमेंसे कितने ही उपदेश म.भा. केंद्रीय दूसराका महासमिति दिल्लीके द्वारा संकेत लिपिमें निबद्ध कराये गये
( 101 के प्रवचनसे) थे। इन उपदेशोंकी हिन्दीमें टाइप की हुई प्रतियां मेरे पास
सच्चा सुरक्षित हैं। उन उपदेश-भाषयोंमेंसे कुछ खास-खास अंश
___ookआप लोग जान लो तरंग मेषको जाने बिना यहां उद्धृत किये जाते हैं, जिनसे पाठकोंको पा० नमिसागर
बाहिरी मेषमें गुरु नहीं हो सकता। अन्तरंग मेषको जानने जीकी महत्ता, विद्वत्ता और सूक्ष्म विचारकताका बहुत कुछ
वाला ही गुरु हो सकता है। परिचय मिलेगा।
जब तक आपके आत्माके) अन्दर माया है, मिथ्या
माहार-विहार है, प्रज्ञान है, मिथ्यात्व है, तब तक संसार है। आत्माका शत्रु कौन है ?
जो अपनी अन्तरंग भावनामें उचत रहे, वही साधु "विभावको हमने बुलाया, तो भाया । मापसे-पाप है। अन्तरंगका मतलब अपने धर्ममें । अपनी भात्माको पाया नहीं। मेरा शत्रु कौन है अज्ञान मेरा शत्रु, मेरे संसार-बन्धनसे छड़ाकर साधन करनेवाला, अवलोकन करनेअज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला विभाव मेरा शत्रु है।" बाला जो अपने आप मार्ग निकाल वे वही साधु है। ___ "आप लोग यह जान लो कि पानी हमेशा पानी रहता जप-तप करनेसे, उपवास करनेसे, कपड़ा छोड़नेसे क्या है, वह कभी गंदला नहीं रहता। पानी हमेशा सफेद रहेगा। हुमा, जब तक विषय भोग नहीं कोडे । साधु को न पुण्यपानीको कोई खराब नहीं कर सकता, जब तक कि वह पानी कर्मसे मतलव, न पाप कर्मसे । जिसको पुण्य कर्मको रहेगा । पानी हवा लगनेसे हिलोर लेने लगता है। हवा
जरूरत नहीं, पापकर्मकी जरूरत नहीं, वही साधु है। लगनेसे उछलने लगता है, बस यह कीचड़से मलीन
जो संसारमें रहे, पर अन्तरंगमेंसे जितने शल्य निकास होगया। वह मलीन नहीं, मलीन वह जो उसमें झाग दी। संसारमें रहता है, लेकिन उसमें लिप्त नहीं है. बीतउठते हैं, बुलबुले उठते हैं। इस तरह पानी आपसे-आप राग जिसके भीतर जाग रहा है, जिसके अन्दर वीतराग मैला होगया। अगर पानी अपनी असली शक्ल में रहता, सम्यग्ज्ञान प्रकाशित हो चुका है, वह शक्य-रहित गुरु है।" उसमें झाग नहीं उठते, तो पानीको मैला करनेवाला कौन
(१२-१२-११ के प्रवचनसे) है? हवा । हवासे पानीमें भाग उत्पन्न होगये। माग कहां
सबा साधु कौन है? जो आप अपने प्रारम हितकी से पायेउसके अपने विभावसे माग उपन्न होगये। हवा साधना करे और दूसरोंको साधना करनेको कहे। लगी तो विभाव हुआ, हवा नहीं लगती, तो विभाव होता
(३-१२-५७ के प्रवचनसे) नहीं, पानी गंदला होता नहीं। इसी तरह प्रादमी अपने श्रात्म-हित श्रेष्ठ, या पर-हित ? स्वभावमें स्थिर रहता, तो पानीकी तरह निर्विकार आत्मसात् "आपके सामने दो वस्तुएं है-(एक) अपना कल्याण बना रहता। उसने अपने स्वभावसे अपनेमें रागद्वेष उत्पा करना, (दो) दूसरोंका कल्याण करना । अपना कल्याण कर लिये और रागद्वेष रूपी हवासे विभावरूपी भाग करना ठीक है, या दूसरोंका कल्याण किया जाय xex उठ खड़े हुये । सरस्वती यहां ही सरस्वती है। अनादिकाल- तुम्हारा तो परहितकी रक्षा करते-करते अनन्त काल बीत
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११] अनेकान्त
वर्ष १४ गया। पहले प्रात्म-हित करो, फिर पर हित करना चाहिए। बनाया और हम कहने लगे कि इसमें यह नहीं, इसमें वह पाप सबने भारम-हित छोड़ दिया है, सब पर-हित में नहीं है। यह ऐसा नहीं है, यह वैमा नहीं है। पहले उसका मग्न हैं।"
अध्ययन करके देखो-जीव क्या है, कर्म क्या है। कर्मको "जब आपके पास है ही नहीं, तो बाप दूसरेको क्या दे प्रबग करनेका क्या उपाय है फिर सत्य और असत्यका सकते हैं। पहले अपना हित करो। जब तुम्हारे पास कुछ विवेक करके कि यह हेय है, यह उपादेय है यह लेना है, होगा, तभी पर-हित कर सकते हो । यदि मापके पास पैसा यह छोहना है. ऐसा विचार करनेसे विवेक जागृत होगा। है, धन है, तो इसको दे सकते हो। अगर तुम्हारे पास उस समय ही तुम शास्त्री कहनाभोगे । उसीको शास्त्री अब है ही नहीं, तो दूसरे क्या दोगे पर-हित कैसे कर कहते हैं, उसीको पण्डित कहते हैं। सकोगे। अतएव पहले अपना ऐश्वर्य पाने के लिये उयत
(११२५ के प्रवचनसे) रहो, प्रयत्न करो।" - सच्चा मुनीम कौन ?
कमाया बहुत, अब कुछ गमाना भी सीखो आप लोग सेठ हैं। पर वस्तुकी रक्षा करनेके लिए यदि ।
बहिरान्मा पापकर्मको निर्भय होकर करता है । कल क्या मुनीम रख दिया, उसने मार्ग देखा नहीं, चलेगा कैसे ? मार्ग
होगा, कैसा होगा ? यह नहीं सोचता और यह समझता है
कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ, ठीक ही कर रहा हूँ। धन मेरा बताओ तो चलेगा। जैसा चापका मुनीम है, उसी तरह यह
है धन मेरी रक्षा करता है। मैं भी उसकी रक्षा करूं । इसी(अपनी ओर संकेत करते हुए) धर्मका मुनीम है। अधर्मको
में अनन्तकाल बीत गये मिथ्या भाषमें | xxx अब प्राचार्य निकाल कर धर्मका मार्ग रखे, वह धर्मका मुनीम है। पर
कहते हैं कि अनादिकाल बीत गये, पापकर्म नहीं छोड़े। पदि वह तुम्हें अधर्म पर चलाए और कहे--पगार (भाहार
अब भैया, थोड़े दिनके लिए अशुभ कर्मोको छोड़ दो। यह रूपी वेतन)हाम्रो सो वह मुनीम नहीं है। जो मुनिके
स्थिर रहने वाला नहीं है। अगर स्थिर रहने वाला है तो समाषअलिप्त रहे, अलिप्त रह कर ही सेठका काम
करो। पर वह तो नाश होने वाला है । भैया, छोड़ दो करे, वही मुनीम है।
उन्मार्गको, सन्मार्गको प्राप्त करो । खाना, कमाना यह तुमने साधुको पगार दिया और उसने तुमको धर्म
सांसारिक मार्ग है। अब बहुत कमा लिया. कुछ गमाना दिया। दातार हो तुम, मैं तुम्हारा नौकर हूँ, मुनीम हूँ। भी सीख लो। गमाना क्या है। सुबह उठ कर जिनेन्द्रकाम लो भैया, कर्मको निकालनेका और धर्मको धारण कर-
कर का नाम लेना, पूजन करना, दान देना आदि । यही शुभ
नेता जिन नेका काम लो। नहीं तो
कम हैं। अब शुभ कर्मों में व्यवस्थित होत्रो। जब तक यह 'लोभी गुरु लालची चेला, दोनों नरकमें ठेलमठेला।'
नहीं करोगे, तब तक अशुभ कर्म छूटते नहीं। अगर आप सच्चा मुनीम स्खेंगे, तो आपकी नाव पार हो सकती है।
साधुभाव क्या है ? (१२५ के प्रवचनसे) इन पाप-पुण्योंसे संसारमें सुख-दुख ही मिलता है। सब कुछ स्या ?
पाप करनेसे दुख और पुण्य करनेसे सुख । इसलिए पाप संसारमें सब कुछ पा लिया, अब एक बाकी रह गया। और पुण्य दोनोंका ही बन्दीगृह-जेलखाने-से सरोकार है। वह चीज पाना है । जिसने अपने पात्मज्ञानको प्राप्त कर दोनोंको ही जेलखानेमें रहना पड़ता है। साधु भाव यहां तक लिया, उसने सब कुछ पा लिया । मुम्बक बोहेको अपनी नहीं है । साधु भाव वहीं है, जो पापके समान पुण्यका भी
ओर खींचता है, सूर्य आग पैदा कर देता है । इसी तरह त्याग कर दे। वही साधु है, वही मोक्ष है। जीवन में इतनी शक्ति होनी चाहिए. मात्मा सना शान xox जब तक संसार है, साधुभाव नहीं, शुद्धभाव होना चाहिये कि यह कर्मको फेंक दे और आत्म-शक्तिको नहीं । इसलिए शुभ-अशुभ भावोंको तिलांजलि दे दो। खींच।
शुद्धभाव ही प्रास्माको शुद्ध करनेका कारण है। शास्त्री और पण्डित कौन ?
शुद्ध या मुक्त होनेका मार्ग क्या है? शास्त्रके बनाने वालेचे कितनी युक्तियोंसे इस शास्त्रको बह पाप-पुरुष अनन्तकालने मामाको दुःखमें डालने
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किरण ३-४]
आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक वाले हैं। अगर पाप-पुण्य दोनों छोड़ दिये, तो तीसरी शुद्ध कल्याण हो जायगा कभी नहीं। ये देवी-देवता तुम्हारी चीज़ रह जायेगी अपनी प्रामा।
भकिसे प्रसन्न भी हो जायें, तो क्या देंगे। वही जो उनके xxx पाप कहें कि हमारे अन्दर यह शक्ति नहीं कि पास है। समझे वही संसारमें सुधाने वाली मोग-सम्पदा पाप पुण्य दोनोंको छोड़ दें। कैसे छोड़ दें। इसके लिये देंगे। जिसमें मगन हो करके तुम फिर संसार समुद्र में इबोगे अभ्यास करना होगा। पापोंको कम करने के लिए पहले पुण्य और फिर चतुर्गतिमें परिभ्रमण कर अनन्तकाल तक दुःख करना पड़ेगा जब पाप दूर हो जाय, तो फिर धीरे-धीरे उठाते फिरोगे!" तो फिर क्या करना चाहिये । पदमावती पुण्य भी छोड दो। इस तरह पाप-पुण्य दोनोंको छोड़ कर चक्रेश्वरी प्रादिसरागी देवोंकी पूजा भक्कि छोड़ कर एकमात्र शुद्ध हो जाओगे, मुक्त हो जानोगे।
वीतराग देवकी ही पूजा भक्ति करना चाहिये । इसीसे तुम्हारे ( २.१७ के प्रवचनसे) भीतर बीतरागता जागेगी और फिर तुम भी एक दिन
वीतराग बन कर जगत् पूज्य बन जानोगे। बोलो जगत्आ० नमिसागरका स्मारक क्या हो ?
पूजक बने रहना अच्छा है, या जगत्पूज्य बनना प्राचार्यश्रीका स्मारक क्या हो, इसका निर्णय आप लोग एक स्वरसे बोल उठे-'बोलो मा० नमिसागर लोग उनके प्रवचनको पढ़ कर ही कीजिये।
महाराजकी जय ।' सन् १९१७ की बात है श्रा० नमिसागरजी और प्रा. प्राचार्य महाराजने अपना भाषण जारी रखते हुये कहा सूर्यसागरजीका चतुर्मास दिल्ली में हो रहा थ और मैं उन अरे, तुम लोगोंने वीतरागको सराग बनानेके लिए चंवरदिनों पु. पूर्णसागरजीके पास था। धर्म पुराके नये मन्दिरमें छत्रको ही सोने-चांदीका नहीं बनाया, किन्तु स्वयं वीतरागउक्त आचार्यद्वयके भाषणके कभी पहले और कभी पीछे मेरे को ही सोने-चांदीका बना डाला। भगवान् क्या सोने-चांदीके भी भाषण लगातार हो रहे थे। एक दिनकी बात है दैनिक थे।नहीं, उनका भी पार्थिव शरीर उन्हीं पुदुगल-परमाणुपत्रोंमें यह समाचार पाया कि दक्षिणके अमुक प्रान्तमें से बना था, जिससे कि तुम्हारा-हमारा | भगवान् सोनेकम्यूनिष्टोंने अमुक उपद्रव कर दिया है और अमुक धर्म- चांदीके नहीं थे उनके शरीरका रंग सोने-चांदी जैसा था। संस्थानको सम्पत्ति लूट ली है। प्रा. नमिसागरजी कभी- और देखो, तुम कहोगे कि हमने तो भनिमें पाकर सैकड़ों कभी हिन्दीका दैनिक पत्र देखा करते थे । उक्त समाचारको हजारों रुपये लगा कर जो ये चांदी-सोनेके भगवान् बनाये पढ़ कर उनके मानस पर बहुत बाघात सा पहुँचा और वे हैं, सो कोई चुगन ले जाय, इसके लिए तुम लोगोंने इन्हें प्रवचन करते हुए अत्यन्त द्रवित होकर भाववेशमें कहने तालोंमें बन्द कर दिया, तिजोड़ियों में बन्द कर दिया। जानते लगे-'प्रय दिल्ली वाले जैनियो तुम कहाँ जा रहे हो? हो यह कितना बढ़ा पाप है? कौन सा पाप है। अरे, क्या कर रहे हो?' मैं सुन करके चौंका - आज महाराज भगवान्को तालोंमें बन्द करनेसे दर्शनावरणीय कर्म बन्धवा क्या कह रहे हैं कनड़ी भाषी होनेके कारण वे शुद्ध हिन्दी- है-दर्शनावरणीय कर्म । जिसके कारण तुम्हें कभी प्रारममें अपना भाव व्यक नहीं कर पाते थे और साधारण जनता दर्शन नहीं हो सकेगा। जानने हो, पुराने कालमें मन्दिरों पर को, या मुझे भी प्रायः उनकी बोली सहसा समझमें नहीं ताले नहीं लगा करते थे। हमारे दक्षिणमें आजभी अनेकों पाती थी। अतएव में अत्यन्त सावधान होकर उनका भाषण मन्दिरों पर ताले नहीं लगते हैं किवाद नहीं लगते हैं, कि सुनने लगा। महाराज लोगोंको उत्सुक वदन देख कर बोले जिमसे सब कोई सब काल उनका निर्वाध दर्शन कर सके। 'क्या समझे और फिर अपना अभिप्राय स्पष्ट करते हुए मन्दिरों पर ताले लगानेसे भत्रको दर्शन करनेमें अन्तराय कहने लगे-अरे, वीतरागको सराग बना र तुम लोग कहां होता है और उससे ताला लगाने वालेके भारी पाप बन्ध होता जा रहे हो १ स्वर्गमें या नर्कमेंजानते हो-वीतरागको है। तुम कहोगे-महाराज हम तो विसीको दर्शनसे रोकसराग बनानेमें कौन सा पाप होता है !!! बताऊँ ? सुनो- नेके लिए ताला नहीं लगाते हैं। हम तो देव और देवदव्यमिथ्यात्व पाप होता है । तुम लोग वीतरागके मन्दिरमें सरागी की रक्षा करनेके लिये ताला लगाते हैं। तो क्या ऐसा कहनेसे देवी-देवताओंकी स्थापना कर उनकी पूजा-भक्ति करने लगे तुम पापसे बच जानोगे अरे तुम्हारे भाव चाहे कुछ हों, पर हो? यह सब क्या है ? मिथ्यात्व है। इनके पूजनेसे तुम्हारा किया जो उलटी कर रहे हो, दूसरों के दर्शनमें अन्तराय बनते
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४] अनेकान्त
[वर्षे १४ हो, उससे तो पापका बन्ध होगा ही। जानते हो, तवार्थ- बनायो, सारे मन्दिरोंके द्रव्यको एकत्रित करो और पूंजीके सूत्र में क्या कहा है। चाहे ज्ञातभावसे क्रिया करो और चाहे विना आजीविका-हीन तथा पाकिस्तानसे पानेके कारण अज्ञातभावसे करो, पर पापका बन्ध तो होगा ही। मैं यह पाश्रय-विहीन गरीब जैनोंकी सहायता करो, उनका स्थितिविषपान कर रहा है ऐसा जान करके चाहे विष पियो और करण करो और उन्हें सुखी बनायो। 'न धर्मो धार्मिकैः चाहे अनजाने विषको पीलो, पर जानते हो दोनोंका क्या विना' और 'धर्मो रक्षति रक्षितः के सूत्रोंका मनन करो, फल होगा ? दोनों ही मरेंगे।
तब तुम्हें पता लगेगा, कि तुम्हारा श्राज क्या कर्तव्य है । अपना भाषण जारी रखते हुए प्राचार्य महाराज बोले- उस चातुर्मासमें प्रायः प्रतिदिन प्राचार्य महाराजने अपने सुम लोग अखबार पढ़ते हो, मालूम है, क्या समाचार बाते उपदेशोंके द्वारा प्रत्येक जैनको संबोधन कर-करके उन्हें उनके हैं आज अमुक स्थानकी मूर्ति चोरी चली गई, आज कर्तव्यों का ज्ञान कराया । अमुक स्थानके मन्दिरसे सोनेका छत्र-चंवर चोरी चला गया,
जिस समय महाराज उक्त प्रवचन कर रहे थे उस समय श्रादि । यदि बोग .भगवानको सोने चांदीका न बनवाते,
महाराजके नेत्रोंसे आंसू टपाटप गिर रहे थे, और वे अत्यन्त सोने-चांदीके छत्र-चंवर न चढ़ाते, तो कोई चुरा ही क्या ले
गद्गद स्वरसे अपना उपदेश दे रहे थे। उनके प्रवचनके जाता पहले सब जगह पाषाणकी ही मूर्तियां बनती थीं,
बाद मैंने महाराजके शब्दोंका खुलासा करते हुए कहा था, और उसीमें छत्र चँवर भामंडल आदि उकेरे रहते थे, तब
कि यदि प्राचार्यश्रीके सिवाय किसी अन्य गृहस्थ पंडितके कहीं चोरी होनेकी बात नहीं सुनी जाती थी । कोई चुराने
मुखसे उन शब्द निकले होते, तो पता नहीं, श्रोता लोग ही पाता, तो क्या चुरा ले जाता।पर आज तो उल्टी गंगा
उसकी कैसी दुर्गति करते । पर शाबाम है उन सब श्रोताओंबह रही है और लोग धर्मका विकृत रूप करते जारहे हैं।
को.जो इतने दिन बाद भी उसके कानों पर जूतक न रेंगी। मन्दिरोंको भी अब सोने-चांदीसे सजाते जारहे है । मैं कहता
और इसका प्राभास ही नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण मिला हमें
. हूँ, मेरी बात दिल्लीवाले लिखकर रख लें। सारे भारतमें
लालमन्दिरमें हुई उस दिनकी (२४-१०-५६ की) शोककम्यूनिष्ठ फैलते जारहे हैं, और वे बहुत जल्दी मन्दिरोंको
सभामें, जब लोग प्राचार्य महाराजके स्वर्गारोहथके उपलूट लेंगे और उनके पानेसे पहले सरकार ही ऐसी कानूनी
लषयमें उन्हें अपनी-अपनी श्रद्धाजलियां भेंट कर रहे थे। बनाती जा रही है कि जिससे सब मन्दिरोंका धन सरकारके
एक भाईने अपनी श्रद्धाञ्जलि भेंट करते हुए कहा कि मेरी पास चला जायगा । इसलिए हे दिल्लीवाले जैनियो मेरी
आप लोगोंसे प्रार्थना है कि श्राचार्य महाराजकी बात मानो-मन्दिरोंमें जितना सोना-चांदी है, उनके उप
स्मृतिको स्थायी रखनेके लिये एक फण्ड कायम किया जाए करण है, उन्हें बेचकर सब रुपया इकट्ठा करो और जो
और उसके द्वारा गरीब जैन बन्धुओंको पूजी देकर उनकी तुम्हारी समाजमें गरीब हैं, जीके लिए जिनके पास पैसा
आजीविकामें सहायता दी जाय । उक्र सज्जनके महाराजके नहीं है, उनको उनकी आवश्यकता और स्थितिके अनुसार
प्रवचनकी पुनरावृत्ति रूप इस सुझावको सुनकर भी सारी (जीके रूपमें उस रुपये को बांट दो और प्याजमें उनसे
दिल्लीके उपस्थित पंचों और मुखियोंने इस सामयिक प्रातः-सायंकाल देव-दर्शनकी तथा दिनमें न्याय-पूर्वक व्यापार
सुझावको यों ही उड़ा दिया और वक्राोंको २-२ मिनटका करनेकी प्रतिज्ञा ग्रहण कराओ। फिर देखोगे कि जब लोगों
समय देकर सभाकी कार्यवाही समाप्त कर दी गई। को यह मालूम हो जायगा कि जैनियोंने अपने मन्दिरोंका देवदव्य गरीबोंको बांट दिया है तब प्रथम तो तुम्हारे मन्दिरों
इस सम्बन्धमें मैं दिल्लीके ही नहीं, अपितु सारी पर कोई आक्रमण ही नहीं करेगा। और यदि इतने पर भी देश-विभाजनके बाद शरणार्थियोंकी समस्या उन लोग आक्रमण करें और लूटमारको भावेंगे, तो जिन लोगों- दिनों भयंकर रूप धारण कर रही थी और पाकिस्तानसे पाए को पूजी देकर उनकी आजीविका स्थिर की है, वे ही लोग हुए जैन बेघरवार और बेरोजगार होकर मारे-मारे फिर रहे मन्दिरोंकी रक्षाके लिए तन मन-धनसे लग जावेंगे और थे, अतः उनको लक्ष्यमें रखकर प्राचार्यश्रीने यह अत्यन्त उनकी रक्षा में अपनी जानोंकी बाजी जगा देंगे। दिल्ली- सामयिक, मौलिक और जैनियों पर भविष्यमें आनेवाले वालो, मेरा कहा मानो, सब लोग मिलकर एक पंचायत संकटोंसे उनकी रक्षा करनेवाला उपदेश दिया था।
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किरण ३-४]
नियतिवाद
[८५
समाजके कर्णधारोंसे यह नम्र निवेदन कर देना चाहता हूँ ही सही, अमली जामा पहिना करके उनकी आन्तरिक कि उक्र सज्जनका सुझाव प्राचार्यश्राके प्रवचनके अनुरूप ही भावनाको मूर्तमान रूप देकर अपना कर्तव्य पालन करना नहीं, प्रतिध्वनि रूप है । यदि सारे भारतके जैनियोंने चाहिए। महाराजकी प्रात्मा स्वर्गसे यह देखकर अत्यन्त प्राचार्यश्रीके स्वर्गवास पर श्रद्धाके फूल चढ़ाकर सचमुचमें शान्तिका अनुभव करेगी कि मेरे भक्क मेरे जीते जी तो नहीं शोक सभाएं की हैं और वास्तवमें थे महाराजकी स्मृतिको चेते तो. चलो अब मेरे चले पानेके बाद उनका ध्यान मेरी कायम रखना चाहते हैं, तो उन्हें स्वयं महाराजके द्वारा मेरी बातों पर गया है और वे उसे पूरा करनेके लिए कृतदिये गये सुझावको यदि वे उनके जीवन में अमली रूप नहीं संकल्प हुए हैं । महाराजकी स्वर्गस्थ भारमा वहींसे तुम्हें दे सके हैं. तो कम-से-कम अब तो उनके स्वर्गवासके बाद आशीर्वाद देगी कि तुम सबका कल्याण हो ।
नियतिवाद
(प्रो० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य, एम० ए०) नियतिवादियोंका कहना है कि-जिसका जिस हेतु नहीं, प्रत्यय नहीं । बिना हेतु, बिना प्रत्यय ही समयमें जहाँ जो होना है वह होता ही है। ताक्षण प्राणी क्लेश पाते हैं। प्राणियोंकी शुद्धिका कोई हेतु शस्त्र घात होने पर भी यदि मरण नहीं होना है तो नहीं, प्रत्यय नहीं है। बिना प्रत्यय ही प्राणी विशुद्ध व्यक्ति जीवित ही बच जाता है और जब मरनेकी होते हैं। न आत्मकार है, न परकार है न पुरुषघड़ी आ जाती है तब विना किसी कारणके ही कार है, न बल है न वीर्य है, न पुरुषका पराक्रम है। जीवनकी घड़ी बन्द हो जाती है।
सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी जीव अवश्य हैं, बल___"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति वीर्य-रहित हैं। नियतिसे निर्मित अवस्था में परिणत न्टणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि प्रयत्ने नाभाव्यं होकर छह ही अभिजातियों में सुख-दुःख अनुभव भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥
करते हैं।....."वहाँ यह नहीं है कि इस शील तसे अर्थात मनुष्योंको नियतिके कारण जो भी शुभ इस तप ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्मको परिपक्व और अशुभ प्राप्त होना है वह अवश्य ही होगा। करूँगा, परिपक्व कर्मको भागकर अन्त करूंगा । प्राणों कितना भी प्रयत्न करलें पर जो नहीं होना है सुख और दुःख द्रोणसे नपे हुए हैं । संसारमें घटनावह नहीं ही होगा, और जो होना है उसे कोई रोक बढ़ना, उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि सूतकी नहीं सकता। सब जीवोंका सब कुछ नियत है, वह गोली फेंकने पर खलती हुई गिर पड़ती है. वैसे ही अपनी गतिसे होगा ही।
मूर्ख और पंडित दौड़कर आवागमनमें पड़कर मझिमनिकाय (२।३।६) तथा बुद्धचयो दुःखका अन्त करेंगे।" (दर्शन-दिग्दर्शन पू. ४८८(सामञ्जफल सुत्त पृ०४६२-६३) में अकर्मण्यता- ८) भगवती सूत्र (१५वाँ शतक) में भी गोशावादी मक्खलि गोशालके नियतिचक्रका इस प्रकार लकको नियतिवादी ही बताया है । इसी नियतिवाद. वर्णन मिलता है-"प्राणियोंके क्लेशके लिये कोई का रूप आज भी 'जो होना है वह होगा ही' इस "यथा चोकम् -
भवितव्यताके रूप में गहराईके साथ प्रचलित है। . मियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यन् ।
नियतिवाद का एक आध्यात्मिक रूप और ततो नियतिजा मते तत्स्वरूपानुवेधतः ॥
निकला है । इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य की प्रति यद्यदैव यतो यावत् तत्तदैव ततस्तथा ।
समय की पर्याय सुनिश्चित है। जिस समय जो पर्याय नियतिर्जायने न्यायात् क एनां बाधितुक्षमः ॥
देखो श्रीकानन्जी स्वामी लिखित वस्तु विज्ञानसार -नन्दीसूत्र टी०। प्रादि पुस्तकें ।
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अनेकान्त
वर्ष१४
होनो है वह अपने नियत स्वभाव के कारण होगी चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, इस परिवर्तनचक्रसे ही, उसमें प्रयत्न निरर्थक है। उपादान शक्ति से ही अछूता नहीं रह सकता। कोई भी किसी भी पदार्थ वह पर्याय प्रकट हो ही जाती है, वहां निमित्त की के उत्पाद और व्यय रूप इस परिवर्तन को रोक उपस्थिति स्वयमेव होती है, उसके मिलाने की नहीं सकता और न इतना विलक्षण परिणमन ही भावश्यकता नहीं। इनके मत से पेट्रोल से मोटर करा सकता है कि वह अपने सत्त्व को ही समाप्त वहीं चलती, किन्तु मोटर को चलना ही है और कर दे और सर्वथा उच्छिन्न हो जाय । पेट्रोल को जलना ही है और यह सब प्रचारित हो (३) कोई भी द्रव्य किसी सजातीय या रहा है द्रव्य के शुद्ध स्वभाव के नाम पर। इसके विजातीय द्रव्यान्तर रूप से परिणमन नहीं कर भीतर भूमिका यह जमाई जाती है कि एक द्रव्य सकता । एक चेतन न तो अचेतन हो सकता दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता। सब अपने है और न चेतनान्तर ही। वह चेतन 'तच्चेतन'
आप नियति-चक्रवश परिणमन करते हैं। जिसको ही रहेगा और वह अचेतन सदचेतना ही। जहां जिस रूपमें निमित्त बनना है उस समय (४) जिस प्रकार दो या अनेक अचेतन पुद्गल उसकी वहां उपस्थिति हो ही जायेगी इस नियति- परमाणु मिलकर संयुक्त समान स्कन्ध रूप पर्याय वाद से पदार्थों के स्वभाव और परिणमन का उत्पन्न कर लेते है उस तरह दो चेतन मिलकर आश्रय लेकर भी उनका प्रतिक्षण का अनन्त काल संयुक्त पयोय उत्पन्न नहीं कर सकते, प्रत्यक चेतनका तकका कार्यक्रम बना दिया गया है, जिस पर चलने सदा स्वतन्त्र परिणमन रहेगा। को हर पदार्थ बाध्य है। किसी को कुछ नया करने (५) प्रत्येक द्रव्यकी अपनी मूल द्रव्य शक्तियाँ और का नहीं है। इस तरह नियतिवादियों के विविध योग्यताएँ समान रूप से सुनिश्चित हैं, उनमें हेर रूप विभिन्न समयों में हुए हैं। इसने सदा पुरुषार्थ फेर नहीं हो सकता। कोई नई शक्ति कारणान्तर की रेड मारी है और मनुष्य को भाग्यके चक्रमें से ऐसी नहीं आ सकती जिसका अस्तित्व द्रव्य में डाला है।
न हो। इसी तरह कोई विद्यमान शक्ति सर्वथा किन्तु जब हम द्रव्यके स्वरूप और उसकी विनष्ट नहीं हो सकती। उपादान और निमित्तमूलक कार्यकारण-व्यवस्था (६) द्रव्यगत शक्तियों के समान होने पर भी पर ध्यान देते हैं तो इसका खोखलापन प्रकट हो अमुक चेतन या अचेतनमें स्थल पर्याय-सम्बन्धी जाता है। जगत में समग्र भावसे कुछ बातें नियत अमुक योग्यताएँ भी नियत हैं। उनमें जिसकी है. जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता । यथा- सामग्री मिल जाती है उसका विकास हो जाता है।
(१) यह नियत है कि जगत में जितने सत् जैसे कि-प्रत्येक पुद्गलाणुमें पुद्गलकी सभी द्रव्य हैं, उनमें कोई नया 'सत्' उत्पन्न नहीं हो सकता योग्यनाएँ रहने पर भी मिट्टीके पुदगल ही साक्षात
और न मौजूदा 'सत्' का समूल विनाश ही हो सकता घड़ा बन सकते हैं. कंकड़ाके पुद्गल नहीं; तन्तके है। वे सत् हैं-अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु. पुद्गल ही साक्षात् कपड़ा बन सकते हैं. मिट्टीके एक आकाश, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य और पुद्गल नहीं। यद्यपि घड़ा और कपड़ा दोनों ही पुदअसख्य काल द्रव्य । इनकी संख्या में न तो एक की गलकी पर्यायें हैं। हॉ, कालान्तरमें परम्परासे बदलते वृद्धि हो सकती है और न एक की हानि हो। हुए मिट्टोके पुद्गल भी कपड़ा बन सकते हैं और अनादि काल से इतने ही द्रव्य थे, हैं और अनन्त तन्तुके पुद्गल भी धड़ा। तात्पर्य यह है कि-संसारी काल तक रहेंगे।
जीव और पुद्गलोंकी मूलतः समान शक्तियाँ होनेपर (२) प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वभाव के कारण भी अमुक स्थूल पर्यायमें अमुक शक्तियाँ ही साक्षात् पुरानी पर्याय को छोड़ता है, नई को प्रहण करता विकसित हो सकती हैं। शेष शक्तियाँ बान सामग्री है और अपने प्रवाही सत्त्व की अनुवृत्ति रखता है। मिलने पर भी वकाल विकसित नहीं हो सकतीं।
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किरण ३-४ ]
(७) यह नियत है कि उस द्रव्यकी उस स्थूल पर्याय में जितनी पर्याय योग्यताएँ हैं उनमें से ही जिस जिसकी अनुकूल सामग्री मिलती है उस उसका विकास होता है, शेष पर्याय योग्यताएँ द्रव्यकी मूल योग्यताओं की तरह सद्भावमें ही रहती हैं।
नियतिवाद
(८) यह भी नियत है कि अगले क्षण में जिस प्रकारकी सामग्री उपस्थित होगी, द्रव्यका परिणमन उससे प्रभावित होगा । सामग्रीके अन्तर्गत जो भी द्रव्य हैं, उनके परिणमन भी इस द्रव्यसे प्रभावित होंगे। जैसे कि ऑक्सिजनके परमाणुको यदि हाइड्रोजनका निमित्त नहीं मिलता तो वह ऑक्सिजनके रूपमें ह। परिणत रह जाता है, पर यदि हॉइड्रोजन का निमित्त मिल जाता है तो दोनोंका ही जल रूपसे परिवर्तन होजाता है । तात्पर्य यह कि- पुद्गल और संसारी जीवोंके परिणमन अपना तत्कालीन सामग्री के अनुसार परस्पर प्रभावित होते रहते हैं । किन्तु केवल यही अनिश्चित है कि अगले क्षण में किसका क्या परिणमन होगा ? कौनसी पर्याय विकास को प्राप्त होगी ? या किस प्रकारको साममा उपस्थित होगी ? यह तो परिस्थिति और योगायोग के ऊपर निर्भर करता है। जैसी सामग्री उपस्थित होगी उसके अनुसार परस्पर प्रभावित होकर तात्कालिक परिणमन होते जायेंगे। जैसे एक मिट्टी का पिण्ड है, उसमें घड़ा, सकोरा, प्याला आदि अनेक परि णमनोंके विकासका अवसर है । अब कुम्हारकी इच्छा, प्रयत्न और चक्र आदि जैसी सामग्री मिलती है उसके अनुसार अमुक पर्याय प्रकट हो जाती है । उस समय न केवल मिट्टीके पिण्ड का ही परिणमन होगा। किन्तु चक्र और कुम्हार की भी उस सामग्री के अनुसार पर्याय उत्पन्न होगी । पदार्थोंके कार्य-कारण भाव नियत हैं । 'अमुक कारण सामग्री होने पर अमुक कार्य उत्पन्न होता है' इस प्रकार के अनन्त कार्य-कारणभाव उपादान और निमित्त की योग्यतानुसार निश्चित हैं। उनकी शक्ति के अनुसार उनमें तारतम्य भी होता रहता रहता है। जैसे गोले ईंधन और अग्नि के संयोग सेम होता है, यह एक साधारण कार्यकारण भाव है। अब गीले ईंधन और अग्नि की जितनी
[5
शक्ति होगी उसके अनुसार उसमें प्रचुरता या न्यूनता, कमी वेशी हो सकती है। कोई मनुष्य बैठा हुआ है, उसके मन में कोई न कोई विचार प्रतिक्षण धाना ही चाहिए। अब यदि वह सिनेमा देखने चला जाता है तो तदनुसार उसका मानस प्रवृत्त होगा और यदि साधु के सत्संग में बैठ जाता है दूसरे ही भव्य भाव उसके मनमें उत्पन्न होंगे। तात्पर्य यह है कि - प्रत्येक परिणमन अपनी तत्कालीन उपादान योग्यता और सामग्री के अनुसार विकसित होते हैं । यह समझना कि -सबका भविष्य सुनिश्चित है और उस सुनिश्चित अनन्त कालीन कार्यक्रम पर सारा जगत चल रहा है । महान् भ्रम है। इस प्रकारका नियतिवाद न केवल कर्तव्य-भ्रष्ट ही करता है अपितु पुरुषके अनन्त बल, वीर्य, पराक्रम, उत्थान और पौरुषको ही समाप्त कर देता है। जब जगतके प्रत्येक पदार्थका अनन्त कालीन कार्यक्रम निश्चित है और सब अपनी निर्यातकी पटरीपर ढड़कते जारहे हैं, तब शास्त्रोप्रदेश, शिक्षा, दीक्षा और उन्नतिके उपदेश तथा प्रेरणाएँ बेकार हैं । इस नियतिवाद में क्या सदाचार और क्या दुराचार ? स्त्री और पुरुषका उस समय वैसा संयोग बदा ही था । जिसने जिसकी हत्या की, उसका उसके हाथसे वैसा होना ही था । जिसे हत्या के अपराध में पकड़ा जाता है, वह भी जब नियतिके परवश था तब उसका स्वातन्त्र्य कहाँ है, जिससे उसे हत्याका कर्ता कहा जाय ? यदि वह यह चाहता कि मैं हत्या न करूं और न कर सकता, तो ही उसकी स्वतन्त्रता कही जा सकती है पर उसके चाहने न चाहनेका प्रश्न ही नहीं है ।
० कुन्दकुन्दका अकतु स्त्रवाद श्राचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा में लिखा है कि- 'कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यमें गुणोत्पाद नहीं कर सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कुछ नया उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिये सभी द्रव्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं ।" इस स्वभावका वर्णन करने वाली गाथाको कुछ * देखो, समयसार गाथा ३०२
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अनेकान्त
[ वर्ष ५४ विद्वान् नियतिवादके समर्थनमें लगाते हैं। पर इस विशेष है कि-जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणगाथामें सीधी बात तो यही बताई है कि कोई द्रव्य रूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल दूसरे द्रव्यमें कोई नया गुण नहीं ला सकता, जो उपादान बनकर जीवके गुणरूपसे परिणत हो आयगा वह उपादान योग्यताके अनुसार ही आयगा। सकता है। केवल परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकोईभी निमित्त उपादान द्रव्यों में असदुद्भुत शक्तिका के अनुसार दोनोंका परिणमन होता है। अतः उत्पादक नहीं हो सकता, वह तो केवल सदभूत आत्मा उपादान दृष्टिसे अपने भावोंका कर्ता है। शक्तिका संस्कारक या विकासक है। इसीलिये वह पुद्गल कर्मके ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मरूप गाथाके द्वितीयाने स्पष्ट लिखा है कि-'प्रत्येक परिणमनका कर्ता नहीं है। दव्य अपने स्वभावके अनुसार उत्पन्न होते हैं। इस स्पष्ट कथनका फलितार्थ यह है कि-परस्पर प्रत्येक द्रव्यमें तत्कालमेंभी विकसित होनेवाले अनेक ।
नक निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी हर द्रव्य अपने स्वभाव और शक्तियाँ हैं। उनमेंसे अमुक स्वभावका गण-पर्यायोंका ही का हो सकता है। अध्यात्म में प्रकट होना या परिणमन होना तत्कालीन सामग्रीके
कर्तृत्व-व्यवहार उपादानमूलक है अध्यात्म ऊपर निर्भर करता है। भविष्य अनिश्चित है।
और व्यवहारका यही मूलभूत अन्तर है किकुछ स्थूल कार्यकारण-भाव बनाए जा सकते हैं पर अध्यात्म क्षेत्रमें पदार्थोके मल स्वरूप और शक्तियांकारणका अवश्य ही कार्य उत्पन्न करना सामग्रीकी का विचार होता है तथा उसीके आधारसे निरूपण समग्रता और अविकलता पर निर्भर है। 'नावश्यं होता है जब कि व्यवहारमें परनिमित्तको प्रधानतासे कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति' कारण अवश्य ही कथन किया जाता है। 'कुम्हारने घड़ा बनाया' यह कार्यवाले हो. यह नियम नहीं है। पर वे कारण व्यवहार निमित्त-मलक है। क्योंकि घड़ा पर्याय अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करेंगे जिनकी समग्रता
कुम्हारकी नहीं है किन्तु उन परमाणुओंकी है जो और निर्बाधताकी गारण्टी हो।
घड़ेके रूप में परिणत हुए हैं। कुम्हारने धड़ा बनाते प्राचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ प्रत्येक पदार्थके समय भी अपने योग-हलनचलन और उपयोग रूपसे स्वभावानुसार परिणमनकी चर्चा की है वहाँ द्रव्योंके ही परिणति की है । उसका सन्निधान पाकर मिट्टीके परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव को भी स्वीकार किया परमाणुओंने घटपर्याय रूपसे परिणति कर ली है। यह पराकर्तृत्व निमित्तके अहंकारकी निवृत्तिके है। इस तरह हर द्रव्य अपने परिणमनका स्वयं लिये है। कोई निमित्त इतना अहंकारी न हो जाय कि उपादान-मूलक कर्ता है। आ० कुन्दकुन्दने इस वह यह समझ बैठे कि मैंने इस द्रव्यका सब कुछ कर तरह निमित्त-मूलक कर्तृत्वव्यवहारको अध्यात्म दिया है । वस्तुतः नया कुछ हुआ नहीं, जो उसमें था क्षेत्रमें नहीं माना है, पर स्वकर्तृत्व तो उन्हें हर उसका ही एक अंश प्रगट हुआ है। जीव और कर्म तरह इष्ट है ही, और उसीका समर्थन और विवेपुदगलके परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भावकी चर्चा चन उनने विशद रीतिसे किया है। परन्तु इस करते हुए आ. कुन्दकुन्दने स्वयं लिखा है कि- नियतिवादमें तो स्वकर्तृत्व ही नहीं है। हर द्रव्यकी
"जीवपरिणामहेदु कम्मत्त पुम्गला परिणमंति । प्रतिक्षणकी अनन्। भविष्यत् कालीन पर्यायें क्रम पुग्गलकम्मणिमित्त तहेब जीवोवि परिणमदि ॥ क्रमसे सुनिश्चित है। यह उनकी धाराको नहीं बदल यवि कुम्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। सकता । वह केवल नियति पिशाचिनीका क्रीड़ास्थल अण्णोण्याणिमित्त तु कत्ता, प्रादा सएण भावेण ॥ है और उसीके यन्त्रसे अनन्त काल तक परिचापुग्गलकम्मकदाणं ण दुकत्ता सन्वभावाणं ॥" लित रहेगा। अगले क्षणको वह असतसे सत् या
अर्थात् जीवके भावोंके निमित्तसे पुद्गलोंकी तमसे प्रकाशकी ओर ले जानेमें अपने उत्थान बल कर्मरूप पर्याय होती है और पुद्गल को निमित्त वीर्य पराक्रम या पौरुषका कुछ भी उपयोग नहीं से जीव रागादि रूपसे परिणमन करता है। इतना कर सकता। जब वह अपने भाव को ही नहीं
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किरण ३-४] नियतिवाद
[८९ बदल सकता, तब स्वकर्तत्व कहाँ रहा तथ्य यह उत्पन्न न हो एक अध्यापक कक्षा में अनेक छात्रों को है कि भविष्यका प्रत्येक क्षणका अमुक रूपमें होना पढ़ाता है। अध्यापकके शब्द सब छात्रोंके कानोंमें अनिश्चित है। मात्र इतना निश्चित है कि कुछ न टकराते हैं, पर विकास एक छात्रका प्रथम श्रेणीका, कुछ होगा अवश्य । द्रव्य शब्द स्वयं भव्य होने दूसरेका द्वितीय श्रेणीका तथा तीसरेका तृतीय श्रेणीयोग्य, योग्यता और शक्तिका वाचक है। द्रव्य उस का होता है। अतः अध्यापक यदि निमित्त होनेके पिघले हए मोमके समान है जिसे किसी-न-किसी कारण यह अहंकार करे कि मैने इस लड़केमें ज्ञान सांचेमें ढलना है। यह निश्चित नहीं है कि वह किस उत्पन्न कर दिया तो वह एक अंशमें व्यर्थ ही है; सांचे में ढलेगा। जो आत्मा अबद्ध और पुरुषार्थ. क्योंकि यदि अध्यापकके शब्दों में ज्ञानके उत्पन्न करने हीन हैं उनके सम्बन्धमें कदाचित् भविष्यवाणी की की क्षमता थी तो सबमें एकसा ज्ञान क्यों नहीं भी जा सकती हो कि-अगले क्षणमें इनका यह हुआ? और शब्द तो दिवारोंमें भी टकराये होंगे. परिणमन होगा। पर सामग्रीकी पूर्णता और प्रकृति उनमें ज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न हुआ? अतः गुरुको पर विजय करनेको दृढ प्रतिज्ञ आत्माके सम्बन्धमें 'कर्तृत्व' का दुरहंकार उत्पन्न न होनेके लिये उस कोई भविष्य कहना असंभव है। कारण कि भविष्य अकर्तृत्व भावनाका उपयोग है। इस अक त्वकी स्वयं अनिश्चित है। वह जैसा चाहे वैसा एक सीमा सीमा पराकर्तृत्व है, स्वाकर्तृत्व नहीं। पर नियतितक बनाया जा सकता है। प्रति समय विकसित वाद तो स्वकर्तृत्व कोही समाप्त कर देता है; क्योंकि होनेके लिए सैकड़ों योग्यताएँ हैं। जिनकी सामग्री इसमें सब कुछ नियत है। जब जिस रूप में मिल जाती है या मिलाई जाती है वह योग्यता कार्यरूपमें परिणत हो जाती है।
पुण्य और पाप क्या? यद्यपि श्रात्माकी संसारी अवस्था में नितान्त परतंत्र
जब प्रत्येक जीवका प्रति समयका कार्यक्रम स्थिति है और वह एक प्रकारसे यन्त्रारूढकी तरह
. निश्चित है अर्थात् परकर्तृत्व तो है ही नहीं, साथ परिणमन करता जाता है फिर भी उस द्रव्यकी
HA MS ही स्वकर्तृत्व भी नहीं है; तब क्या पुण्य और क्या निज सामर्थ्य यह है कि-वह रुके और सोचे. तथा पाप ? क्या सदाचार और क्या दुराचार | जब अपने मार्गको स्वयं मोड़कर उसे नई दिशा दे।
प्रत्येक घटना पूर्व निश्चित योजनाके अनुसार घट अतीत कायके बल पर श्राप नियतिको जितना रही है तब किसीको क्या दोष दिया जाय ? किसी चाहें कुदाइये, पर भविष्यके सम्बन्धमें उसकी सीमा स्त्रीका शील भ्रष्ट हुआ। इसमें जो स्त्री, पुरुष और है। कोई भयंकर अनिष्ट यदि हो जाता है तो संतोष शय्या आदि द्रव्य संबद्ध हैं, जब सबकी पर्यायें केलिये 'जो होना था सोहा' इस प्रकार नियतिकी नियत हैं तब पुरुषको क्यों पकड़ा जाय १ स्त्रीका संजीवनी उचित कार्य करती भी है। जो कार्य जब परिणमन वसा होना था, पुरुषका वैसा और विस्तर हो चुका, उसे नियति कहने में कोई शाब्दिक और का भी वैसा । जब सबके नियत परिणमनोंका नियत
आर्थिक विरोध नहीं है। किन्तु भविष्यके लिये मेलरूप दुराचार भी नियत ही था. तब किसीको नियत (Done) कहना अर्थ-विरुद्ध तो है ही, शब्द- दुराचारी या गुण्डा क्यों कहा जाय ? यदि प्रत्येक विरुद्ध भी है। भविष्य (To be) तो नियंस्यत या द्रव्यका भविष्यके प्रत्येक क्षणका अनन्त-कालीन नियंस्यमान (Will be done) होगा, न कि नियत
कार्यक्रम नियत है, भले ही वह हमें मालूम न हो, (Done)| अतीतको नियत (Done) कहिये, वर्त- तब इस नितान्त परतन्त्र स्थितिमें व्यक्तिका स्वपरुमानको नियम्यमान (Being) और भविष्यको षार्थ कहाँ रहा ? नियस्यमान (Will be done)।
गौडसे हत्यारा क्यों ? अध्यात्मकी अकर्तृत्व भावनाका भावनीय अर्थ नाथूराम गोडसेने महात्माजीको गोली मारी तो यह है कि निमित्त भूत व्यक्तिको अनुचित अहंकार क्यों नाथूरामको हत्यारा कहा जाय ? नाथूरामका
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अनेकान्त
[वर्ष १४ उस समय वैसा हो परिणमन होना था, महात्माजी चोरी, दगाबाजी और हत्या श्रादि सब कुछ उन-उन का वैसा ही होना था और गोली और पिस्तौलका भी पदार्थों के नियत परिणाम हैं, इसमें व्यक्ति विशेषका वैसा ही परिणमन निश्चित था। अर्थात् हत्या नामक कोई दोष नहीं। घटना, नाथूराम, महात्माजी, पिस्तौल और गोली
एक ही प्रश्न, एक ही उत्तर आदि अनेक पदार्थोके नियत कार्यक्रमका परिणाम है। इस घटनासे सम्बद्ध सभी पदार्थोके परिणमन
इस नियतिवाद में एक ही प्रश्न है और एक ही नियत थे सब परवश थे। यदि यह कहा जाता है
उत्तर । ऐसा होना ही था' यह उत्तर प्रत्येक प्रश्न
का है। शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, प्रयत्न और पुरुषार्थ कि नाथूराम महात्माजीके प्राणवियोगमें निमित्त
सबका उत्तर भवितव्यता। न कोई तर्क है न कोई पुरुहोनेसे हत्यारा है, तो महात्माजी नाथूरामके गोली
षार्थ और न कोई बुद्धि । अग्निसे धुश्रा क्यों हुआ ? चलाने में निमित्त होनेसे अपराधी क्यों नहीं? यदि
ऐसा होना ही था। फिर गीला ईधन न रहने पर निर्यात-दास नाथूराम दोपी है, तो नियति-परवश
धुंआ क्यों नहीं हुआ ? ऐसा ही होना था। जगत्में महात्माजी क्यों नहीं ? हम तो यह कहते है पदार्थोके संयोग-वियोगसे विज्ञान सम्मत अनन्तकि पिस्तौलसे गोली निकलनी थी और गोलीको
कार्यकारण-भाव है। अपनी उपादान योग्यता और छातीमें छिदना था, इसलिये नाथूराम और महा- निमित्त सामग्री के संतुलन में परस्पर प्रभावित माजीकी उपस्थिति हुई। नाथूराम तो गोली और प्रभावित या अर्ध प्रभावित कार्य उत्पन्न होते हैं। पिस्तौलके उस अवश्यंभावी परिणमनका एक वे एक दसरे के परिणमन के निमित्त भी बनते हैं। निमित्त था जिसे नियतिचक्रके कारण वहाँ पहुँचना जैसे एक घड़ा उत्पन्न हो रहा है, इसमें मिट्टी, कुम्हारपड़ा। जिन पदार्थों की नियतिका परिणाम हत्या
चक्र, चीवर आदि अनेक द्रव्य कारण-सामग्रीमें नामकी घटना है, वे सब पदार्थ समान रूपसे
सम्मिलित हैं। उस समय न केवल घड़ा ही उत्पन्न नियतियंत्रसे नियंत्रित हो जब उसमें जुटे हैं तब हुआ है किन्तु कुमारकी भी कोई पर्याय चक्रकी अमुक उनमेंसे क्यों मात्र नाथूरामको पकड़ा जाता है।
पर्याय और चीवरकी भी अमुक पर्याय उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, हम सबको उस दिन ऐसी खबर
न एसा खबर अतः उस समय उत्पन्न होनेवाली अनेक पर्यायोंमें माननी थी और श्री श्रात्माचरणको जज बनना था, अपने-अपने द्रव्य उपादान हैं और बाकी एक दूसरे इसलिए यह सब हुआ । अतः हम सब और आत्मा के प्रति निमित्त है। इसी तरह जगत में जो अनन्त ही चरण भी उस घटनाके नियत निमित्त हैं। अतःइस कार्य उत्पन्न हो रहे हैं उनमें तत्तत् द्रव्य. जो नियतिवादमें नकोई पुण्य है, न पाप; न सदाचार है परिणमन करते हैं वे उपादान बनते हैं और शेष
और न दराचार ! जब कतृत्व ही नहीं, तब क्या निमित्त होते हैं। कोई साक्षात् और कोई परम्परा सदाचार और क्या दुराचार ? गौडसेको नियतिवाद- से, कोई प्रेरक और कोई अप्रेरक, कोई प्रभावक और के नामपर ही अपना बचाव करना चाहिये था और कोई प्रभावक। यह तो योगायोगकी बात है। जजको ही पकड़ना चाहिये था कि-बूकि तुम्हें जिस प्रकार की बाह्य और आभ्यन्तर कारण हमारे मुकदमेका जज बनना था, इसलिये यह सब सामग्री जुट जाती है वैसा ही कार्य हो जाता है। नियतिचक्र चूमा और हम सब उसमें फंसे। और आ० समन्तभद्रने लिखा है कियदि सबको बचाना है, तो पिस्तौलके भवितव्यपर "
पातरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते न्यगतः स्वभावः। सब दोष थोपा जा सकता है कि न पिस्तौलका उस
-बहत्स्व. खोक ६० । समय वैसा परिणमन होना होता तो वह न गौडसे के हाथ में आती और न गाँधीजीकी छाती छिदती। अर्थात् कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और सारा दोष पिस्तौलके नियत परिणमनका है। तात्पर्य प्राभ्यन्तरनिमित्त और उपादान-दोनों कारणोंकी यह कि-इस नियतिवादमें सब साफ है, व्यभिचार, सममता-पूर्णता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है।
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नियतिवाद...
किरण ३-४]
[ १ ऐसी स्थिति में नियतिवाद का आश्रय लेकर य प बड़े बड़े यन्त्र अपने निश्चित उत्पादनके भविष्य के सम्बन्ध में कोई निश्चित बात कहना आंकड़ों का खाना पूरा कर देते हैं पर उनके
व-सिद्ध कार्यकारणभाव की व्यवस्था के कार्यकालमें बड़ी सावधानी और सतर्कता बरती सर्वथा विपरीत है। यह ठीक है कि नियत कारण जाती है। फिर भी कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है। से नियत कार्य की उत्पत्ति होती है और इस प्रकार बाधा पानेकी और सामग्रीकी न्यूनता की के नियतत्वमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। पर संभावना जब हैं तब निश्चित कारणसे निश्चित. इस कार्यकारणभावकी प्रधानता स्वीकार करने पर कार्यकी उत्पत्ति संदिग्ध कोढिमें जा पहुँचती है। नियतिवाद अपने नियत रूपमें नहीं रह सकता। तात्पर्य यह कि पुरुषका प्रयत्न एक हद तक भविष्यकारण हेतु
की रेम्बा को बांधता भी है, तो भी भविष्य जैन दर्शन में कारण को भी हेतु मानकर उसके अनुमानित और सम्भावित ही रहता है। द्वारा अविनाभावी कार्यका ज्ञान कराया जाता है। नियति एक भावना है। अर्थात् कारणको देखकर कार्यकारण-भावकी इम नियतिवादका उपयोग किसी घटनाके नियतता के बल पर उससे उत्पन्न होने वाले कार्य घट जाने पर सांस लेनेके लिए और मनको समझाने का भी ज्ञान करना अनुमान-प्रशाली में स्वीकृत है। के लिए तथा आगे फिर कमर कस कर तैयार हो पर उसके साथ दो शर्ते लगी हैं.-'यदि कारण- जाने के लिए किया जा सकता है और लोग करते सामग्रीकी पूर्णता हो और कोई प्रतिबन्धका कारण भी है। पर इतने मात्रसे उसके श्राधारसे बत न आवें तो अवश्य ही कारण कार्यको उत्पत्र व्यवस्था नहीं की जा सकती। वसु-पकाया वो
व कुछ नियत वस्तु के वास्तविक स्वरूप और परिणमन पर ही हो तो किसी नियत कारणसे नियत कार्यकी निर्भर करती हैं। भावनाएँ चित्तके समाधानके उत्पत्तिका उदाहरण भी दिया जा सकता था; पर लिए भायीं जाती हैं और उनसे वह उद्देश्य सिद्ध सामान्यतया कारण . सामग्रीकी पूर्णता और भी हो जाता है, पर तश्व-व्यवस्थाले क्षेत्रमें अप्रतिबन्धका भरोसा इसलिम नहीं दिया जा भावना का उपयोग नहीं है। वहां हो। सकता कि भविष्य सुनिश्चित नहीं है। इसलिए इस विश्लेषण और तन्मूलक कार्यकारण भावकी बात की सतर्कता रखी जाती है कि कारया सामग्री परम्पराका ही कार्य है। उसी के बल पर पदाथके में कोई बाधा उत्पन्न न हो। आजके मन्त्र-युग में वास्तविक स्वरूपका निर्णय किया जा सका।
मनको उज्ज्वल धवल बना
(बा० जयभगवान जी, एडवोकेट) 'क्यों धौले तू क्षार हृदय में,
सजन-सजग भाभासे अपनी, मनको उज्वल. धवल बना।
___जगको ज्योती पूर्व सभाको अनुपम सुन्दर, परिणति तेरी,
रंग-विरंग है वैभव सेरा, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बना॥ थिरक रहे हैं तुझसे कण-कण,
हुला-दुला तू अपनी निधिको, . . थिरक, प्रो नम-वानराग।
- . मधुमाल क्षेत्र बना॥ मनको. स्फूर्ति-क्रान्ति-शान्ति तुझसे,
प्रभुत-अक्षय महिमा तेरी, शान्ति का संसार बना ॥ मनको० ।
रसूल मसीह अवतार बना। स्वप्न-कल्पों का वास बना तू,
खिला-खिला तू अपनी महिमा, पालोकोंका वास बना।
भूमिको मुक्री धाम बना। मनको.
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अध्यात्म-गीत
रचयिता-युगवीर
मैं किस किसका अध्ययन करूँ! क्यों करूँ, कहाँ क्या लाभ मुझे, क्षण-दुख-सुखमें क्यों व्यर्थ परू !! नारीरूप विविध पट-भुषा,
पुद्गलके परिणमन अनन्ते, क्या क्या रंग लखू।
किससे प्रेम करूँ ! हाव-भाव-विभ्रम अनन्त है.
किसको अपना सगा बनाऊँ, किसको लक्ष्य करूँ !!१ मैं किस०
किससे क्यों विरयूँ !! मैं किस० नरके भी रूपादि विविध हैं,
इन्द्रिय-विषयोंका न पार है, क्या क्या दृश्य लखु !!
कैसे तृप्ति करूँ! मौज-शौक, बन-ठन सब न्यारी,
किस किसमें कब तक उल: मैं, किसको लक्ष्य करूँ !!२ मैं किस.
जीवन स्वल्प धरूँ !!e मैं किस० पशु-पक्षी भी विविध रूप है,
भाषा-लिपियाँ विविध अनौखी, क्या क्या भाव लखू!
किसको मान्य करूँ! बोलि-क्रिया-चेष्टाएँ अपरिमित,
किस किसके अभ्यास-मननमें, किसको लक्ष्य कहँ !!मैं किस०
जीवन-शेष करूँ !!१० मैं किस. सृष्टि वनस्पति अमित-रूपिणी,
पर-अध्ययन अपार सिन्धु है, क्या क्या रूप लखू!
कैसे पार पहँ! गुण-स्वभाव परिणाम अनन्ते,
मम स्वरूपमें जो न सहायक, किसको लक्ष्य करूं !!४ मैं किस०
उसमें क्यों विचरूँ !!११ मैं किस. भू-जल-पवन-ज्वलन नाना विध
मेरा रूप एक अविनाशी, क्या क्या गुण परखू !
चिन्मय-मूर्ति धरूँ। शक्ति-विकृतियाँ बहु बहुविध सब
उसको साघे सब सध जावें, किसको लक्ष्य करूँ !!५
क्यों भन्यत्र भ्रम !!१२ मैं किस. देवाऽऽकृतियां विविध बनी है,
सब विकल्प तज निजको ध्याऊँ, किस पर ध्यान धरूँ!
निजमें रमण करूँ। गुण-महिमा-कीर्तन असंख्य हैं,
निजानन्द-पीयूष पान कर, किसको लक्ष्य करूँ !!६ मैं किस०
सब विष वमन करूँ !! १३ मैं किस. नारकि-शकले विविध भयंकर
परके पीछे निजको भूला. किसको चित्त धरूँ !
कैसे धैर्य धरूँ! सदा अशुभ लेश्यादि-विक्रिया,
बन कर अब 'युगवीर' हृदय से, क्यों सम्पर्क करूँ !!७ मैं किस.
दूर विभाव करूँ !!१४ मैं किस किसका अध्ययन करूँ ! पर-अध्ययन छोड़ शुभवर है,
निजका ही अध्ययन करूँ।
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अजमेरके शास्त्र-भएडारसे
पुराने साहित्यकी खोज
(जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर')
(गत किरणसे भागे) गतवर्णके भादों तथा आश्विनमासमें संवा चाहिये था, अभीतक धर्मामृतके किसी भी संस्करणमहीना अजमेर ठहरकर बड़ा घड़ा पंचायती जैन- के साथ प्रकाशित नहीं हुआ और न उसकी किसी मन्दिरके भट्टारकीय शास्त्र-भंडारका निरीक्षण करते लिखित ग्रन्थ-प्रतिके साथ जुड़ा हुआ ही मिला है। हुए जो कितने ही अश्रुतपूर्व तथा अलभ्य ग्रंथ उपलब्ध जान पड़ता है आशाधरजीने इसे सागारधर्मामृतकी हुए हैं उनमेंसे कुछका परिचय यहां और दिया टीकाके भी बाद बनाया है, जो कि विक्रम सं. जाता है:
१२६६ पौषकृष्ण सप्तमीको बनकर समाप्त हुई है। ७. अध्यात्म-रहस्य
क्योंकि उस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थका कोई अध्यात्मके रहस्यको लिए हए योग-विषयक यह नामोल्लेख तक न होकर बादको कार्तिक सदि ग्रंथ पंडितप्रवर आशाधरजीकी कृति है। यह ग्रंथ
पंचमी सं० १३०. में बनकर पूर्ण हुई अनगारअभीतक उपलब्ध नहीं था की इसकी मात्र सूचना ही
धर्मामृतकी टीकामें इसका उक्त उल्लेख पाया जाता अनगार-धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिके निम्न वाक्यद्वारा
है। और इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथकी रचना मिलती थी
उक्त दोनों टीका-समयोंके मध्यवर्ती किसी समय में 'भादेशात् पितुरध्याम-रहस्यं नाम योग्यधात् ।
हुई है और वह मूल धर्मामृत ग्रन्थसे कई वर्ष बादशास्त्र प्रसन्न-गम्भीर प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥"
की कृति है। साथ ही यह भी पता चलता है कि प. इसमें बतलाया है कि 'श्रध्यात्म-रहस्य आशाधरजी यद्यपि अपनी इस कृतिको धर्मामृतका नामका यह शास्त्र पिताके आदेशसे रचा गया है। १८ वा अध्याय करार देकर उसीका चूलिकादिके साथही यह भी प्रगट किया है कि 'यह शास्त्र प्रसन्न,
रूपमें एक अंग बनाना चाहते थे, परन्तु मूलमन्थगंभीर तथा प्रारब्ध योगियोंके लिये प्रिय वस्तु है।
प्रतियों और एक टीकाके भी अधिक प्रचारमें योगविषयसे संबन्ध रखनेके कारण इसका दूसरा
पाजाने आदि कुछ कारणोंके वश वे वैसा नहीं कर नाम 'योगोहीपन' भी है। इसका उल्लेख प्रस्तुत
सके और इसलिये बादको अनगार-धमांमृतकी ग्रंथ-प्रतिके अन्तमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है
टीकामें उन्होंने उसे 'अध्यात्मरहस्य' नाम देकर "इत्य-शाधर-विरचित-धर्मामृतनाम्नि सक्रि-संग्रहे योगी- एक स्वतन्त्र शास्त्रके रूपमें उसकी घोषणा की है। हरोपनयो नामाष्टादशोऽध्यायः"
इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या ७२ है, जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ
प्रतिमें वह ७३दी हुई है। ४४वें पद्यके बाद निम्न__ग्रंथके इस समाप्ति-सूचक पुष्पिका-वाक्यसे यह
गद्यांश नं०४५ डालकर लिखा हुआ है, जिसमें भी मालूम होता है कि पं. आशाधरजीने इसे प्रथ
भावमन और द्रव्यमन का लक्षण दिया हैमतः अपने धर्मामृतग्रंथके अठारहवें अध्यायके रूपमें
"गुण-दोष-विचार-स्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः । लिखा है। धर्मामृतमें अनगार-धर्मामृतके नौ, और सागारधर्मामृतके पाठ अध्याय हैं। सागारधर्मामत तदभिमुखस्णस्यैव अनुप्राहपुद्गखोच्चयो द्रव्यमनः।"
जान पड़ता है यह लक्षणात्मक गद्यांश अगले अन्तिम अध्यायमें उसे क्रमशः सत्रहवां अध्याय प्रकट किया है। यह १८वां अध्याय, जो उसके बाद होना
पद्यमें प्रयुक्त हुए 'द्रव्यमन' पदके वाच्यको स्पष्ट
करने के लिये किसीने टिप्पणीके तौर पर प्रन्थके पं. नाथूरामजी प्रेमीने इसी अक्टूबर मासमें प्रका- हाशिये पर उद्धृत किया होगा और वह प्रतिलेखक शित अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास में भी इस ग्रन्थको की असावधानीसे मूलग्रन्थका अंग समझा जाकर 'भप्राप्य लिखा है।
प्रन्थमें प्रविष्ट होगया और उस पर गलतीसे
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६४ ]
अनेकान्त
पद्य-नम्बर भी पड़ गया है । उसीके फलस्वरूप अगले अगले पद्योंके क्रमाङ्कों में एक-एक अंककी वृद्धि होकर अन्तका ७२वां पद्य ७३ नम्बरका बन गया है। ऋतु, यह प्रन्थ एक गुटकेमें, जिसके पत्रोंकी स्थिति जी है, ७ पत्रों पर (२५२ से २५८ तक) अंकित है. और प्राय: ३००-४०० वर्षका लिखा हुआ जान पड़ता है।
प्रस्तुत प्रथ अपने विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एवं सार ग्रन्थ है। अनगार- धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिमें इसके लिये जिन तीन विशेषरणों का प्रयोग किया गया है वे इस पर ठीक-ठीक घटित होते हैं । यह निःसन्देह प्रसन्न और गम्भीर है। प्रसन्न इसलिये कि यह झटसे अपने अर्थको प्रतिपादन करनेमें समर्थ है और गम्भीर इसलिये कि इसकी अर्थयवस्था दूसरे अध्यात्मशास्त्रों-समाधितंत्रादिमंथों की
१४
का कार्य हो जानेपर वह प्रति उन्हें सुरक्षित रूपमें वापिस भेज दी जावेगी ।
ग्रन्थ प्रादि-अन्तके दो पद्य निम्न प्रकार हैंअन्येभ्यो भजमानेभ्यो यो ददाति निजं पदम् । तस्मै श्रीवीरनाथाय नमः श्रीगौतमाय प्र ॥ १ ॥ शश्वच्तयते यदुत्सवमयं ध्यायन्ति यद्योगिनो येन प्राणिति विश्वमिन्वनिकरा यस्मै नमः कुर्वते । मैचित्रयतो यतोऽस्ति पदवी पस्थान्तरप्रत्ययो सुक्रियंत्र तयस्तदस्तु मनसः स्फूजस्परं ब्रह्म मे ॥ ७२ ॥ मंगलाचरण-विषयक दो पद्योंके अनन्तर, ग्रंथके विषयका प्रारम्भ करते हुए जो तीसरा पद्य दिया है। बह इस प्रकार है
अपेक्षाको साथ में लिये हुए है। योगका आरम्भ करनेवालोंके लिये तो यह बड़े ही काम की चीज हैउन्हें योगका मर्म समझाकर ठीक मार्ग पर लगानेबाली तथा उनके योगाभ्यासका उद्दीपन करनेबाली है। और इसलिये इसे उनके प्रेमको अधिकारी एवं प्रिय वस्तु कहना बहुत हो स्वाभाविक है । अध्यात्म-रसिक वृद्ध पिताजीके आदेश से लिखी गई यह कृषि मशाधरजीके सारे जीवनके अनुभवका निचोड़ जान पड़ती है। मैं तो समझता हूँ आशाधरजीने इसे लिखकर अपने विशाल धर्मामृत-प्रन्थप्रासादपर एक मनोहर सुवर्ण कलश चढ़ा दिया है। और इस दृष्टिसे यह उस ग्रन्थके साथ भी अगले संस्करणों में प्रकाशित होना चाहिये। मुझे इस ग्रन्थको देखकर बढ़ी प्रसन्नता हुई और साथ ही इसके अनुवादादिककी भावना भी जागृत हो उठी। यह प्रन्थ शीघ्र ही प्रकाशमें लानेके योग्य है । वीरसेवामन्दिर ने इस कामको अपने हाथमें लिया है और उसे इसके प्रकाशन में फिलहाल दो सौ रुपयेकी सहायताका वचन भी धर्म- रसिक ला० मक्खनलालजी ठेकेदार दिल्लीसे प्राप्त होगया है । यदि किसी भाईको दूसरे शास्त्र भण्डारसे इस ग्रन्थकी कोई अन्य प्रति उपलब्ध हुई हो तो वे उसे शीघ्र ही मेरे पास भेजनेकी कृपा करें, मिलान तथा संशोधन
शुद्ध श्रुति-मति-ध्याति-दृष्टयः स्वात्मनि क्रमात् । यस्य सद्गुरुतः सिद्धः स योगी योगपारगः ॥ इसमें बतलाया है कि 'स्वात्माके शुद्ध होनेपर जिसको सद्गुरुके प्रसाद से श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि ये चारों क्रमसे सिद्ध हो जाती हैं वह योगो योगका पारगामी होता है ।"
इसके बाद प्रन्थ में स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा, श्रुति, मति, ध्याति, दृष्टि और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है और तदनन्तर दूसरे रत्नत्रयादि विषयों को लिया गया है। ७१ वें पद्यमें एक आशीर्वा दात्मक वाक्य निम्न प्रकार से दिया है
"भूयाद्वो व्यवहार- निश्चयमयं रत्नत्रयं श्रेयसे” अर्थात् — व्यवहार और निश्चयमयी रत्नत्रय (धर्म) तुम्हारे कल्याणका कर्त्ता होवे ।
इस परिचयसे खोज करनेवाले सज्जन दूसरे शास्त्र-भंडारोंसे इस ग्रन्थकी खोज कर सकेंगे। सागारधर्मामृतका पुरानी हस्तलिखित प्रतियों को भी टटोला जाना चाहिये, संभव है उनमें से किसीमें यह १८वाँ अध्याय लगा हुआ हो ।
८. समाधिमरणोत्साह- दीपक
यह संस्कृत मन्थ आचार्य सकलकीर्तिकी कृति है, जोकि विक्रमकी १४वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। अभी तक यह ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं था। आचार्य सकलकीर्तिकी प्रन्थ-सूचियों में भी इसका नाम नहीं मिल रहा था। यह भी उसी गुटकेसे उपलब्ध हुआ है जिसमें योगोद्दीपन (अध्यात्म - रहस्य) नामका एक
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किरण ३-४] पुराने साहित्यकी खोज
[६५ शास्त्र पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या २१६ है और ओंकी साथमें योजना की है जिससे मरते समय पादि-अन्तके दो-दो पद्य इस प्रकार हैं
हपबमें निजात्मका भान होकर मोहका विघटन हो . समाधिमरवादीमा फर्क प्राप्ताम् जिनादिकान् । जाय, शान्ति तथा समताकी प्रतिष्ठा होसके, रोगादि• समाधिमृत्यु-सिद्धयर्थ वन्दे पंचमहागुरुन् ॥ जन्य वेदनाएँ वित्तको उद्वेजित न कर सकें, धैर्य
अथ स्वाम्योपकराय वये संन्यास-सिये। गिरने न पावे और उत्साह इतना बढ़ जाय कि समाधिमरणोत्साह-दीपकं प्रायमुत्तमम् ॥२॥ . मृत्यु भयकी कोई वस्तु न रहकर एक महोत्सवका xxx रूप धारण कर लेवे। यह प्रन्थ अपने विषयकी बड़ी असमगुणनिधाना विश्व-कल्याणमूग.
उपयोगी रचना है और शीघ्र ही अनुवादाविके साथ त्रिभुवनपतिपज्या वन्दिताः संस्तुताच ॥
प्रकाशित किये जानेके योग्य है। प्रकाशनके समय इसके सुगवि-सकनकीर्त्या पान्तु सम्पूर्णता मे
साथ वह 'मृत्युमहोत्सव' पाठ भी सानुवाद रहे, सुमस्य-शिक-सिद्धये सद्गाचा महस्यः ॥३॥ जिसे पं० सदासुखजीने रस्नकरण्ड-श्रावकाचारकी पेस्तीर्थेशपरैः सतां सुगतये सम्यकप्रणीताश्च या भाषा-टीकामें उद्धृत किया है, और पं० सूरसेनजी यासा सेवनतो बभूवुरमनाः सिद्धा अनन्ता हिने का तद्विषयक हिन्दी पाठ भी। साथ ही, भगवतीवा नित्यं कथति मूरि-सुविदोऽवाराधयन्ते परे, आराधनादि ग्रन्थोंसे दूसरी ऐसी महत्वकी सामग्री वास्ते मे निखिला स्तुता. सुमतये दधगाथा परां ॥२१६ भी प्रभावक शब्दोंमें चित्रादिके साथ संकलित की
इस ग्रन्थका विषय इसके नामसे ही स्पष्ट है। जानी चाहिये जिससे इस विषयमें प्रस्तुत ग्रन्थ-अकाजैनधर्ममें समाधि-पूर्वक मरणका बड़ाही महत्व है, शनको उपयोगिता और भी बढ़ जाय और वह उसकी सिद्धिके बिना सारे किए कराये पर पानी 'घर-घरमें विराजमान होकर संकटके समय सबको फिर जाता है और यह ससारी जीव मरमके सान्तवना देने और मरणासन्न व्यक्तियोंके परलोक समय परिणामों में स्थिरता एवं शान्ति न लाकर सुधारने में सच्चा सहायक हो सके । कुछ सज्जनोंका धर्म तथा मरणकी विराधना करता हुआ दुर्गतिके आर्थिक सहयोग प्राप्त होने पर बीरसेवामन्दिर दुःखोंका पात्र बन जाता है। इससे अन्त-समयमें शीघ्र ही इस आवश्यक कार्यको अपने हाथमें ले समाधि-पूर्वक मरणके लिये बड़ी सतर्कता एवं साव
सकेगा, ऐसी हद बाशा है। धानी रखनेकी जरूरत बतलाई गई है, और 'भन्ते है. चित्रबन्ध-स्तोत्र (सचित्र) समाहिमरणं दुग्गइदुकवं निवारेई जैसे वाक्योंके चतुर्विशतिजिनकी स्तुतिको लिये हुए यह द्वारा समाधि-मरणको दुर्गतिमें पड़नेसे रोकने तथा मंस्कृत स्तोत्र अपनी अग-रचनामें चित्रालंकारोंको उसके दुःखोंसे बचाने वाला बतलाया है। और अपनाए हुए है, इसीसे इसका नाम चित्रबन्धस्तोत्र यही वजह है कि नित्यको पूजा-प्रार्थनादिके अवसरों है, अन्यथा इसका पूरा नाम 'चतुर्विशति-जिन-स्तोत्र' पर इसकी बराबर भावना की जाती है। इस या 'चतुर्विंशतिजिन-चित्रवन्धस्तोत्र' होना चाहिये। भावनाको द्योतक एक प्रसिद्ध प्राचीन गाथा इस स्तोत्रक अन्त में 'इति चिनबन्धस्तोत्रं समात' वाक्यके प्रकार है
द्वारा इसे संक्षिप्त नामके साथ ही उल्लिखित किया "दुक्खखनो कम्मखमो समाहिमरणं च बोहिलाहो वि। .है और प्रथम पद्यमें भी चित्रबन्धके द्वारा वृषभादि मम होउ तिजगबन्धव तव जिणवर चरण-सरणेण " तीर्थ नेताओंके स्तोत्रकी सूचना का गई है। इसकी
जैनसमाजमें आचार्य सकलकीर्तिका नाम पथ-सख्या २६ है. जिनमेंसे मादि-अंतके दो पद्योंको सुप्रसिद्ध है और उनके बनाये हुए कितने ही प्रन्थ छोड़कर शेष २४ पोंमें चौबीस तीर्थकरोंकी अलगप्रचलित है। इस ग्रन्थ में उन्होंने समाधिसिद्धिके अलग स्तुति की गई है। प्रत्येक स्तुति-पद्य एक ही लिए अच्छी सामग्री जुटाई है, समाधि पूर्वक मरण- अनुष्टुब् छंदमें होते हुए भी अपने अंगमे अक्षरोंकी विधि-व्यवस्था बतलाई है और ऐसी सत् शिक्षा- छारा निर्मित 'जुदा जुदा चित्रालंकारको धारण
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०सुरजा
भनेकान्त
[वर्ष १४ किये हुए है । यह इस स्तोत्रमें खास खूबी है, और उक्त 'धर्मसंग्रह-श्रावकाचारका लिखना प्रारम्भ इस तरह इसमें २४-२५ चित्रोंका समावेश है. जिनके किया था, जिसको समाप्ति सपादलक्ष देशके नागपुर नाम क्रमशः इस प्रकार है:
नगरमें हुई थी। इनके पिताका नाम 'उद्धरण,' १ छत्र, २ चमर, ३ बीजपूर, ४ चतुरारचक्र, माताका 'भीषुही' और पुत्रका नाम 'जिनदास' था। ५ षोडशदल-कमल, ६ अष्टदल-कमल, ७ स्वस्तिक, इन्होंने भतमुनिसे अष्टसहस्री पढ़ी थी। यह सब
धनुष, मुशल, १० श्रीवृक्ष, ११ नालिकेर, १२ परिचय धर्मसंग्रह-श्रावकाचारादिकी प्रशस्तियोंसे त्रिशूल, १३ श्रीकरी, १४ इल, १५ बज, १६ शक्ति, जाना जाता है। १७ भल्ल, १८ शर, १६ कलश, २० रथपद, २१ पं. मेधावी अपने नामानकल अच्छे प्रौढ विद्वान कमल, २२ शंख, २३ खड्गमुष्टि, (२३-२४ खड्ग) थे और उनकी यह प्रस्तुत कृति उनके बुद्धि-वैभवको २४ मुरज।
और भी ख्यापित करती है। अलंकारकी छटाको ये चित्र भी स्तोत्रके अन्तमें जा पत्रों पर दिये लिये हुये यह बड़ी ही सुन्दर-सुबाध-रचना है और
स्तोत्रके पत्रों की कुल संख्या १० हैं और यह भी शीघ्र ही अनुवादादिके साथ प्रकाशमें लानेके योग्य एक गटकेमें (पत्र ४१ से ५० तक) पाया गया है; है। खेद है कि १६वीं शताब्दीकी रची हुई यह कलाजिसमें और भी कुछ सुन्दर स्तोत्र तथा हंसादि त्मक कृति भी विस्मृतिके गड्ढे में पड़ गई और अभी विषयों पर १८ अष्टक हैं और हिन्दीकी वृद्ध तक इसका कोई नाम भी नहीं सुना जाता था ! स्था लघु बावनी आदि कुछ दूसरी रचनाएँ भी सहयोग मिलनेपर इसे भी वीरसेवामन्दिरसे शीघ्र
यह गटका संवत् १६६८ श्रावण-वदि अष्टमीका चित्रों आदिके साथ प्रकाशित किया जा सकेगा लिखा हुआ है और नागौर में लिखा गया है। और इसके चित्रोंको आधुनिक कलाकी दृष्टि से अधिक प्रस्तुत स्तोत्रके आदिके दो और अन्तका एक पद्य सुन्दर बनाया जा सकेगा। प्रत्येक पद्यके सामने इस प्रकार :
उसका सहज-सुबोध एवं मनोहर चित्र रखा जाय, "वीर्यरचनेवार संस्था वषमादयः ।
ऐसी व्यवस्था प्रकाशनकी होनी चाहिये। चित्रवन्धेन तास्तौमि हारिया चित्रकारिणा ॥
१०. चपेट-शतक पभो वः सतां कांता वृद्धि देयादनिदितां । भाषयामास या स्वीचं भास दमितदुन्नयं ॥२॥"
यह संस्कृत जैनप्रन्थ अपने नामानुकूल पूरे सौ
पद्योंका है। संस्कृत-भाषामें निबद्ध है और अपने xxxx पत्राचाऽऽकृतिभिमृदंग-निधन (नदै) रिचौविचित्रार्थिनी प्रत्येक पद्यमें नित्यके उपयोगको अच्छी-अच्छी शिक्षाश्रीमन्मंगलकारिणां सुषमादीनां जिनानां महा। प्रद बातोंको लिये हुए है। यह भी एक गुटकेमें यो माऽधीत इमा स्तुति विवयतो मेधाविना संस्कर्ता
उपलब्ध हुया है, जो संवत् १८७३ ज्येष्ठ कृष्ण पुन्नागः कावास पाति नृपति स्वर्गविध चारनुते॥२६॥
तीजका लिखा हुआ है और कृष्णगढमें लिखा गया
है। यह उक्त गुटकेमें पाठ पत्रोंपर (२२ से २६ तक) अन्तिम पद्यमें स्वविकारने अपना नाम 'मेधावी' कितगटकेका पूर्वभाग पानीसे भीगा है; परन्तु सूचित किया है जो कि वे ही ५० मेघावी ,
यह भाग उसके असरसे प्रायः बच रहा है। इसके जान पड़ते हैं जिन्होंने सम्वत् १५४१में धर्म
आदि अन्तके दो-दो पद्य निम्न प्रकार हैसंग्रह-श्रावकाचारकी रचना की है, जो जिनचन्द्र के शिष्य तथा पद्मनन्दीके पट्ट पर प्रतिष्ठित
'श्रीपर्वशं नत्वा देवं, सकल-सुरासुर-'वरचित-सेवं । होनेवाले शुभचन्द्र के प्रशिष्य थे और जिन्होंने व किंचित्तबुचरोऽहं, मुचति येन विवेकी मोहं ॥१॥ सम्बत् १५१६में मूलाचारफी और १५१४ में त्रैलोक्य- वर्जित दुध-सहाथमहोमिः, परिहर भाषाकाय-मनोभिः । प्राप्तिकी दान प्रशस्ति लिखी है। ये मप्रोतकुलमें पविध-जीव निकाय-विना संसाति-पारक-बन्धन पार उत्पन्न हिसारके रहनेवाले थे, हिसारमें ही इन्होंने x
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किरण ३-४] 'ग्रेऽहं कस्त्वं कथमायातः, का मे जननी को मे तात:। हुए, यह बतलाया है कि मस्ति जिनेशको (पूर्व भवमें) इति परिभावयतः संसारः, सर्वोयं [खलु स्वप्नविहारः ॥ मायाचार-पूर्वक तप करनेके कारण स्त्रीपर्यायको वर्णोच्चारण-करण-विहीनं, यदिदं गुल्-संकेते बीनं । - धारण करना पड़ा। और इससे यह अन्य किसी स्वयमुन्मीजति यस्य ज्ञानं, पुनरपि तस्य न गर्भाधानम् ॥१०. श्वेताम्बर विद्वान्की कृति जान पड़ता है क्योंकि
श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें ही मल्लिजिनेन्द्रको स्त्री अनेक शास्त्रमण्डारों और बहुत-सी ग्रन्थ- बतलाया है। अतः इसके रचयिताके नाम भादिककी सचियोंको देखने पर भी अभी तक इस ग्रंथका नाम खोज होनी चाहिये । आशा है कोई भी खोजी उपलब्ध नहीं हुआ था और इसलिये यह ग्रन्थ भी विद्वान इस पर प्रकाश डालनेकी कृपा करेंगे। यदि अभुतपूर्व तथा अलभ्य जान पड़ता है । इसके रच- यह ग्रन्थ अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है तो यिता कौन हैं? यह ग्रन्थपरसे कहीं उपलब्ध नहीं शीघ्र ही प्रकाशित किये जानेके योग्य है । पढ़ने-सुननेहुआ। हां, एक स्थान पर इसमें निम्न पद्य पाया में यह बडा ही रोचक मालूम होता है और उस जाता है
विवेकको जागृत करने में बहुत कुछ सहायक है जिससे, "हन्त समूलं मायावहिल, कम्मष-परिमल-विकसितमवितम्। प्रन्थके प्रथम पद्यमें दिये हुए रचना-उद्देश्य के अनुकैतप-तपसा मल्लि जिनेशः, स्त्रीया ( राम उपदेशः ॥१० सार, विवेकीजन मोहको छोड़नमें प्रवृत्त हो सकते हैं। इसमें, मायावल्लीको मूलतः काटनेकी शिक्षा देते
(क्रमशः)
श्री. राधेश्याम बरनवालफागुन की अरुणाई में जब पहले-पहल मैने तुम्हारा केवल तुम्हारी बचपन की याद को अपने सीने पर दर्शन किया
लगाए। तालाब के किनारे!
लेकिन तभी मेरी निगाहें तुम्हारे प्रामामय मस्तक तुम लगी
की मोर उठ गई। शबनम की बूंदों की तरह-निश्छल
ओह, उस पर की सिन्दूरी रेखा ने जैसे मुझे बेना की पखड़ियों की तरह खूबसूरत
ढुस-सा लिया। और मदिरा की तरह-मादक ।
तो तुम अब पराई हो, ओह ! तालाब का नीलाजल जैसे आसमान था बचपने के प्रेम और अधिकार का शताँश भा मेरा
और उसके तट पर खड़ी तुम जैसे चाँद थीं। अब तुम पर नहीं? मेरा हृदय तुम पर लुट चुका था।
तभी तुमने जल से भरा गगरा उठाया, मैं स्वप्नाविष्ट-सा तुम्हारी भोर बढ़ा।
और धीरे कदमों मुड चलीं। तुम्हारी सीपी-सी पलकें क्षण भर को ऊपर उठी, कुछ धीरे धीरे तुम्हारी छाया, गाँव की गोद में जा, विलीन फैली, फिर तत्क्षण हो नीची हो गई।
हो गई। शायद तुम भी मुझे पहचान गई थीं।
जख्म से भरे घायल पक्षी की तरह खड़ा-खड़ा मैं बचपन में हम दोनों साथ-साथ खेले थे। तड़पड़ाता-छटपटाता रहा,
और भाज दस साल बाद मैं गाँव को वापस लौट और फिर मेरे थरथराते किन्तु तेज कदम वापस रहा था।
स्टेशन की ओर मुड़ चले। -'युगमाया' से
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धारा और धाराके जैन विद्वान्
(अनेकान्त वर्ष किरण .12 से भाग)
__ (परमानन्द शास्त्री) कविने इस प्रन्थमें जो विविध छनोंका प्रयोग सल्लेखनाके कथन-क्रमको अपनाया गया है। किया है उनमेंसे कुछ छन्दोंके नाम मय पत्राकोंके इससे यह काव्य-ग्रंथ गृहस्थोपयोगी व्रतोंका भी निम्न प्रकार हैं:
विधान करता है इस दृष्टिसे भी इसकी उपयोगिता १ विलासिनी (३२), २ भुजंग प्रिया (२५) ३ कम नहीं है। मंजरो (३०), ४ वंशस्थल ४४), ५ चन्द्रलेखा (५०), ग्रन्थकी आद्य प्रशस्ति इतिहासकी महत्वपूर्ण ६ सिंधुरगति (५८), ७ दोधक (७४), ८ मौक्तिक- सामग्री प्रस्तुत करती है। उसमें कविने ग्रन्थ बनानेमाला (७७), ६ सर्गिणी ८३), १० पदाकुला में प्रेरक हरिसिंह मुनिका उल्लेख करते हुए, अपनेसे (६६), ११ मदनलीला (१८), १२ द्विपदी (१८), पूर्ववर्ती जैन-जनैतर और कुछ सम-सामयिक १३ विद्युन्माला छंद (81), १४ रासाकुलक १०२), विद्वानोंका भी उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक १५ कुवलयमालिनी (१०२), १६ तुरगगतिमदन दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। उनके नाम इस प्रकार है:(१०३), १० समानिका (११८), १८ रथोद्धता (११६), बररुचि, वामन, कालीदास, कौतुहल, वाण, १६ प्रमाणिका (१७५), २० नागकन्या (१७६), २१ मयूर, जिनसेन, वारायण, (बादरायण) श्रीहर्ष, संगीत गंधर्व (२००), २० शृगार (२००), २३ बाल- राजशेखर, जमचन्द्र, जयरामर, जयदेव३, पालित्त भुजंग ललित (२०१), २४ अजनिका (२५०), (पादलिप्त) पाणिनि, प्रवरसेन, पातंजलि, पिंगल,
- इनके अतिरिक्त, दोहा, पत्ता, गाथा, दुपदी, वीरसेन, सिंहनन्दि, सिद्दभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, पद्धडिया, चौपई, मदनावतार, भुजंग प्रयात श्रादि अकलंक, रुद्र, गोविन्द, दण्डी, भामह, माघ भरत, अनेक छन्दोंका एक से अधिक वार प्रयोग हुआ है। चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त५, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और इससे छन्दशस्त्र की रष्टिसे भी इस ग्रन्थका श्रीकुमार, जिन्हें सरस्वतीकुमार, नामसे उल्लेखित अध्ययन और प्रकाशन जरूरी है।
किया है। जैसाकि ग्रन्थके निम्न वाक्योंसे प्रकट प्रन्थकी भाषा प्रौद है, और वह कविके अपभ्रंश है:भाषाके साधिकारको सूचित करती है । ग्रन्थान्तमें
मग जराण वक्कु वम्मीय वासु, संधि-वाक्य भी पद्यमें निबद्ध किये गए हैं। यथा:
वररुइ नामणु का कालियासु । मुणिवर णयदि सरिण-बद्ध पसिई,
इनमें जिनसेन भादिपुराणके कर्ता हैं। इनका सयल विहि विहाये एत्थे कम्ने सुभच्चे। समय विक्रमकी स्वीं शताब्दी है। यह जयराम आम समवसरणससि सेणिए संपवेसो,
पढ़ते हैं जो प्राकृत 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथके कर्ता थे। भणिउ जणमणुज जोएस संधी तिहजो ॥॥ जिनकी कृतिका अनुवाद हरिषेणाने वि०सं०१४ में किया पन्थकी३२वीं संधिमें मद्य-मधुके दोष, उदुबरादि है। यह प्राकृत छन्न-शास्त्राके को मालूम होते है। पंच फलोंके त्यागका विधान और फल बतलाया । यह पलाचार्यक. शिष्य धीरसेन जान पड़ते हैं जिन्होंने गया है। ३३वीं संधि पंच अणुबतोंका कथन पसंदागमादिक सिद्धान्त-ग्रंथोंकी टीकाएँ बनाई हैं। दिया हुआ है।३६वीं सधिमें अणुव्रतोंकी विशेषताएं १चउमह स्वयंभू और पुष्पदन्त ये अपनश भाषाके तीन बतलाईगईहैं और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के प्रा. कवि हैं। श्रीचन्द्र कुछ पूर्ववर्ती एवं सम-सामयिक ख्यान भी यथास्थान दिये गए हैं। ५६वी संधिके हैं। प्रभाचन्द्र और श्रीकुमार नयनन्दीके गुरूभाई अन्तमें सल्लेखना (समाधिमरण)का स्पष्ट विवेचन जान पड़ते हैं। उनमें श्रीकुमारको सरस्वती-कुमार का किया गया है और विधिमें श्राचार्य समन्तभद्रके जाता था इससे वे बड़े भारी विद्वान् ज्ञात होते है।
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किरण ३-४ ]
कोऊहलु वाणु मऊर सूर, जिणसे जिलागम कमल सूर । वारायण वरणा विय वियड्ढ, सिरि हरि रायसेहरु गुणड्ढ । जसइंदु जए जयराम यामु जयदेव जणामणणंद कामु । पालित्तड पाणिणि पचरसेगु, पायंजलि पिंगलु वीरसेखु । सिरि सिंहणंदि गुण-सिंह-भड, गुणभद्द गुणिल्लु समंतभद्दु । कलंकुवि समवाई य बिहंडि कामरुद्द गोविंदु दडि । भम्मुह भारत्रि माह वि महंत, चमुह सयभु, कई पुप्फयतु ।
घसा - सिरिचन्दु पहाचन्दु वि बिबुह, गुण-गण-दि मयोहरु | कई सिरिकुमार सरसइ - कुमरु, कित्ति-विलासिणि सेहरु ॥६॥
इनके सिवाय, धवल, जयधवल और महाबध रूप सिद्धांत-प्रन्थोंका वीरसेन - जिनसेनके नामो - ल्लेख पूर्वक उल्लेख किया है । कवि धनंजयको पु ंडरीक, और स्वयंभूको लोकरजन करनेवाला बतलाया है। वे धनंजय कवि कौन थे और कब हुए हैं ? क्या कवेिका अभिप्राय द्विसंधान काव्यके कर्ता धनंजयसे है, या अन्य किसी धनंजय नामके कविसे ? यह बात विचारणीय है।
तहिं जिणागमुच्छव प्रलेवहि, वीरसेण जिसे
धारा और धाराके जैन विद्वान्
[ee
१२वीं शताब्दीका उत्तरार्ध हैं । श्रतः समयकी दृष्टिसे इन सिद्ध कविका उल्लेख विक्रम संवत ११०० के नयनन्दी द्वारा होना उचित नहीं जान पड़ता | X इससे ऐसा ज्ञात होता है कि नयनन्दीने किसी अन्य सिंह कविका उल्लेख किया है और जिनकी गुरुपरंपरा का उल्लेख अन्वेषणीय है ।
कविवर नयनन्दीने राजा भोज, हरिसिंह आदिके नामोल्लेख के साथ-साथ, बच्छराज, प्रभुईश्वरका नाम भा दिया है और उन्हें विक्रमादित्यका मांडलिक प्रकट किया है । यथा
जहि बच्छराज पु पुछद्द वच्छु. हुंड पुह ईमरु सूनवत्थु । gigory पत्थरहरियराउ, मंडलिड विक्कम । इच्च जाउ । संधि २ पत्र ६
इसी संधिमें आगे चलकर अंबाइन, और कचीपुरका उल्लेख किया है कवि इस स्थान पर गये थे । इसके अनन्तर ही वल्लभराजका उल्लेख किया है जिसने दुर्लभ जिन - प्रतिमाओं का निर्माण कराया था, और जहां पर रामनन्दी जयकीर्ति और महाकीर्ति प्रधान थे। जैसा कि उनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है"बाइकचीपुर विरत, बहिं ममहं भव्य भत्तिहिं पसन्त । जद्द वल्लभराएँ बहहे, कारावित किस दुल्लदेव । जिण पडिमालंकित गच्छुमाणु, यां केा विर्यभिङ सुरविमाणु । जहिं रामणंदि गुण मणि-खिद्दाणु,
जयकित्ति महाकित्तिवि पहा । इथ तिथिवि परिमय-मई-मयद, मिच्छत्त-विडविमोढण-गहंद। इन पद्योंमें उल्लिखित रामनन्दी कौन हैं, उनकी गुरुपरम्परा क्या है और जयकीति महाकीर्तिका उनसे क्या सम्बन्ध है, ये सब बातें विचारणीय हैं। क्या प्रस्तुत रामनन्द श्रुतस्कंधके कर्त्ता ब्रह्म हेमचन्द्रके गुरुसे भिन्न हैं या अभिन्न ? इन दोनोंके समयादिका विचार करना आवश्यक है । क्योंकि आगे चलकर ग्रंथ- कर्ताने रामनन्दीको 'सूरिगा' वाक्यसे आचार्य सूचित किया है और
देवहि । णाम धवल जयधवल सय महाबंध तिथिण सिद्धत - सियपहा । विरइऊण भवियहं सुहाविया, सिद्धि रमणि हाराच्च दाविया । 'डीठ जहिं कवि धरगंज, इउ सयंभू भुवय' पि रंजठ । कवि सिंहका उल्लेख भी महत्वपूर्ण है । देखो स ंघि २ । ये कविसिंह कौन हैं और कहाँ के निवासी हैं, इनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सिंह नामके एक अपभ्रंश कविका
X देखो, महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित नामका लेख, अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०-१: पृ०३८३ उल्लेख जरूर उपलब्ध होता है जो प्रद्युम्न चरित- कइसीहहं अग्गइ हउं कुरंगु, व्हावेक्खमि होंतड पयई भंगु । के उद्धारकर्ता हैं और जिनका समय विक्रमकी
सपलविद्दि विद्दाणकन्य,
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D
अनेकान्त
[वर्ष १४ बालचन्दके शिष्यने कहा कि सकलविधिविधान महत्वपूर्ण दार्शनिक कृतियोंका ही उल्लेख किया है, काव्य अविशेपित है।
संभव है कि वे कृतियाँ नयनन्दीके अवलोकनमें भी • कविवर नयनन्दीने उसे कुछ दिनोंके बाद बनाना न आई हों और न माणिक्यनन्दीके अन्य अनेक प्रारम्भ किया। क्योंकि किसी कारण-विशेपसे उनका विद्याशिष्यांका भी कोई उल्लेख या संकेत उन्होंने चित्त उद्विग्न (उदास) था, चित्तकी अस्थिरतामें किया है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि उस समय ऐसे महाकाव्यका निर्माण कैसे बन सकता है। जब
नयनन्दीधारानगरी में नहीं थे, किन्तु यत्र तत्र देशोंमें
विहारकर जिनधर्मका प्रचार-कार्य कर रहे थे। इस कुछ दिनोंके पश्चात कविकी उद्विग्नता दृर हुई और चित्तमें प्रसन्नताका प्रादुर्भाव हुश्रा, तभी कविने इस
कारण उस समय वे धाराक विद्वानों आदिका स्पष्ट ग्रन्थके रचनेका विचार स्थिर किया। उक्त ग्रन्थको
उल्लख नहीं कर सके । फलतः वे प्रभाचन्द्रकी महत्वकविने भक्तिमें तत्पर हाकर बनाया है। अन्यथा किस
पूर्ण कृतियोंसे भी अपरिचित ही रहे जान पड़ते हैं। की शक्ति है जो इतने विस्तृत महाकाव्यको लिखने में
अन्यथा वे उनका उल्लेख किये विना न रहते।। समर्थ होता।
माणिक्यनन्दीक अन्य विद्याशियों में प्रभाचंद्र कविवर नयनन्दीकी यह रचना कितनी बहुमूल्य
भी प्रमुख रहे हैं। वे उनके 'परीक्षामुख नामक है और उनमें हेयोपादय विज्ञानकी कथनी कितनी
सत्रग्रन्यके कुशल टीकाकार भी हैं। और दर्शन
साहित्यके अतिरिक्त वे सिद्धान्तके भी विद्वान थे। चित्ताकर्पक है यह सब ग्रन्थका पूरा अध्ययन करने
ये प्रभाचन्द्र श्रवणबल्गोलके शिलालेख नं०४ के पर ही पता चल सकता है। आशा है समाजको
अनुसार मूलसंघान्तगत नन्दीगगाके भेदरूप देशीयकोई मान्य संस्था इस ग्रन्थ के प्रकाशनका भार लेकर
गणके गोल्लाचार्यके शिष्य एक अविद्धकर्म कौमार साहित्य-संसारमें उसकी सारभको बखरनेका यत्न
व्रती पद्मनन्दी सैद्धान्तिकका उल्लेख है जो कर्गवेध करेगी।
संस्कार होनेसे पूर्व ही दीक्षित हो गए थे, उनके · नयनन्दीने अपने समकालान विद्वानोंमें प्रभा
शिष्य और कुलभूषणके सधर्मा एक प्रभाचन्द्रका चन्नका नाम भी लेस्बिन किया है। जो उनके
उल्लेख पाया जाता है जिसमें कुलभूषणको चारित्रसहाध्यायी भी रहे हों तो कोई आश्चयकी बात
सागर और सिद्धान्तसमुद्रके पारगामी बतलाया नहीं है। ये दोनों ही माणिक्यनन्दीके शिष्य और त्रैलोक्यनन्दी के प्रसिष्य थे। माणिक्यनन्दी दर्शन
गया है, और प्रभाचन्द्रको शब्दाम्भोरुह भास्कर
तथा प्रथित तर्क-ग्रन्थकार प्रकट किया है । इस शिलाशास्त्रके महान विद्वान थे। उनके अनेक विद्या
लेखमें मुनि कुलभूषणकी शिष्य-परम्पराका भी शिष्य थे। चूकि नयनन्दीने अपनेको माणिक्यनन्दी.
_उल्लेख निहित है। का प्रथम विद्याशिष्य सूचित किया है, अतः यह
'अविद्धकर्णादिक पदमनन्दी सैदान्तिकास्य्योऽजनि यस्य लोके। अधिक संभव है कि उस समय प्रभाचन्द्रने दर्शन
कौमारदेव प्रतिता प्रसिद्धि यात्तु सम्ज्ञाननिधिः सधीरः। शास्त्रका पठन-पाठन प्रारम्भ न किया हो ; किन्तु उनके कुछ समय बाद दक्षिण देशसे वहाँ पहुँचने
तच्छिप्यः कुलभूपणाख्ययनिपश्चारित्रवारांनिधिःपर उन्होंने विद्याध्ययन शुरू किया हो। इसीसे प्रभा
सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तसधर्मो महान् । चन्द्रने अपनेको माणिक्यनन्दीका शिष्य तो सूचित
शब्दाम्भोरुद्दभास्करः प्रथिततर्कप्रन्धकारः प्रभाकिया, पर कहीं भी प्रथम या द्वितीय विद्या-शिष्य चम्दाख्यो मुनिराजपंडितवरः श्रीकुन्दकुम्दान्वयः॥ नहीं लिखा। हो सकता है कि उस समय तक नय- तस्य श्रोकुलभूषमाख्यसुमुने रिशष्यो विनेयस्तुतनन्दी विद्याध्ययन कर स्वतन्त्र विहार करने लगे हों। सवृत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिपस्मिद्वान्तविद्यानिधिः ॥'
और प्रभाचन्न विद्या अध्ययन कर रहे हों, यही श्रवणवेल्गोलके ५५वें शिलालेग्वमें मुलसंघ देशीकारण है कि उन्होंने प्रभाचन्द्रके सम्बन्धमें और यगणके देवेन्द्र सैद्धान्तिक शिप्य, चतुर्मुखदेवके कुछ भी उल्लेख नहीं किया। और न कहीं उनकी शिष्य गोपनम्दी और इन्हीं गोपनन्दीके सधर्मा एक
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किरण ३-४]
धारा और धाराके जैन विद्वान्
[१०१
प्रभाचन्द्रका उल्लेख भी किया गया है। जो प्रभाचंद्र टिप्पण प्रन्थ, समाधितन्त्र टीका ये सब प्राथ धाराधीश्वर राजा भोज-द्वारा पूजित थे और न्याय- राजा जयसिंहदेवके राज्यकालमें रचे गए हैं। शेष रूप कमलसमूहको विकसित करने वाले दिनमणि, ग्रन्थ प्रवचन-सरोज-भास्कर, पंचास्तिकाय प्रदीप,
और शब्दरूप अब्जको प्रफुल्लित करने वाले रोदो- आत्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका, रत्नकरण्ड मणि (भास्कर) सहश थे। ओर पण्डितरूपी कमलों- श्रावकाचार टीका , वृहत्स्वयंभूम्तोत्र टीका, शब्दाको विकसित करने वाले सूर्य तथा रुद्रवादि दिग्गज म्भोजभास्कर और तत्वार्थवृत्ति पदविवरण तथा विद्वानोंको वश करनेके लिये अंकुशके समान थे तथा प्रतिक्रमण पाठ टीका, ये सब ग्रन्थ कब और किसके चतुमुखदेवके शिष्य थे ।
राज्यकालमें रचे गये हैं यह कुछ ज्ञात नहीं होता। ___ इन दोनोंही शिलालेखोंमें उल्लिम्बित प्रभाचन्द्र बहुत सम्भव है कि ये सब ग्रन्थ उक्त ग्रन्थोंके बाद एकही विद्वान् जान पड़ते हैं। हां, द्वितीयलेख (५५) ही बनाए गये हों। अथवा उनमेंसे कोई प्रन्थ उनसे में चतुर्मुखदेवका नाम नया जरूर है, पर यह संभव पूर्व भी रचे हुए हो सकते हैं। प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्रकं दक्षिण देशसे धारामें अब रही समयकी बात । ऊपर यह बतलाया आनेके पश्चात् देशीयगणके विद्वान् चतुमुखदेव जा चुका है कि प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डको भी उनके गुरु रहे हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि राजा भोजके राज्यकालमें बनाया है। राजा भोजका गुरु भी तो कई प्रकारके होते हैं-दीक्षागुरु, विद्या- राज्यकाल विक्रम संवत् १०७० से १११० तकका गुरु आदि। एक-एक विद्वान्के कई-कई गुरु और बतलाया जाता है। उसके राज्यकालके दो दानपत्र कई कई शिष्य होते थे। अतएव चतुमुखदेव भी सवत् १०७६ और १०७६ के मिले हैं।। प्रभाचन्द्रके किमी विषयमें गुरु रहे हो, और इसलिए आचार्य प्रभाचन्द्रने तत्त्वार्थ वृत्तिके विषम-पदोंवे उन्हें समादर की दृष्टिसे देखते हों तो कोई आप- का विवरणात्मक एक टिप्पण लिखा है। उसके प्रारंभ त्तिकी बात नहीं, अपनेसे बड़ेको आज भी पूज्य में अमितगतिके सस्कृत पंच-समह का निम्न संस्कृत और आदरणीय माना जाता है।
पद्य उद्धृत किया है:आचार्य प्रभाचन्द्रने उक्त धारा नगरीमें रहते हुये
वर्गः शक्रिः समूहोसारणूनां वर्गणोदिता। केवल दर्शनशास्त्रका अध्ययन ही नहीं किया, प्रत्युत
वर्गणानां समूहस्तु स्पर्घ स्पर्धकापहैः॥ धाराधिप भोजके द्वारा प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्ध- अमितगतिने अपना यह पचसंग्रह मसूतिकापुरमें तका विकाम भी किया। साथ ही विशाल दार्शनिक जो वर्तमानमें 'मसीद विलौदा' ग्रामके नामसे टीका ग्रन्थों के निर्माणके साथ अनेक ग्रन्थोंकी रचना प्रसिद्ध है वि०म० १०७३ में बना कर समाप्त किया की है। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( परीक्षागुख-टीका) है। अमितगति धाराधिप मुजकी सभाके रत्न भी नामक विशाल दाश निक ग्रंथ मुप्रसिद्ध राजाभोजके थे। इससे भी स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्रने अपना उक्त राज्यकाल में ही रचा गया है और न्यायकुमुदचन्द्र टिप्पण वि० सं०१०७३ के बाद बनाया है। कितने (लघीयस्त्रय टीका) आराधना गद्य-कथाकोश, पुष्प- बाद बनाया है यह बात अभी विचारणीय है। दन्तके महापुराण (आदिपुराण-उत्तरपुराण) पर न्यायविनिश्चय विवरणके कर्ता आचार्य वादि- श्रीधाराधिप-भोजराज मुकुट-प्रोताश्म-रश्मि च्छटा
राजने अपना पार्श्व पुराण शक सं०६४७ (वि० सं० छाया कुकुम-पंक-लिप्नचरणाम्भोजात नमीधवः । १०८२) में बना कर समाप्त किया है। यदि राजा न्यायाङजाकर-मराहने दिनमणिश्शब्दाज-रोदोमणि:- * मूडबिद्रीक मठकी समाधितन्त्र प्रन्धको प्रतिमें स्थेपास्पण्डित-पुण्डरीक-तरणिः श्रीमान् प्रभाद्रमा ॥१७ पुष्पिका-वाक्य निम्न प्रकार पाया जाता है-'इति श्री
श्री चतुमुपदेवानां शिष्योऽप्यः प्रचादिभिः। जयसिंह देवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठि-प्रणापरिहतः श्रीप्रभाचंद्रो रुद्रवादि-गजांकुशः ॥15॥ मोपार्जितामजपुण्यनिराकृताखिलमजकलंकेन श्रीमत्प्रभा
-जैनशिलालेख संग्रह भाग १ पृ० ११८ चन्द्रपण्डितेन समाधिशतकटीका कृतेति ॥"
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-१०२]
अनेकान्त
[ वर्ष १४ भोजके प्रारम्भिक राज्यकालमें प्रभाचन्द्रने अपना सहयोग प्राप्त था, पर 'न्यायकुमुदचन्द्र' के लिखते प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज समय उन्हें अन्य विद्वानोंके सहयोग मिलनेका कोई उसका उल्लेख अवश्य ही करते। पर नहीं किया आभास नहीं मिलता और गुरु भी सम्भवतः उस इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय तक प्रमेय- समय जीवित नहीं थे क्योंकि न्यायकुमुदचन्द्र सं. कमलमार्तण्डकी रचना नहीं हुई थी। हाँ सुदर्शन १११२ के बादकी रचना है। कारण कि जयसिंह चरितके कर्ता मुनि नयन-दीने, जो माणक्यनन्दीके राजाभोजके बाद (वि० सं० १११० के बाद) किसी प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्रके समकालीन समय राज्यका अधिकारी हुआ है। जयसिंहने सवत् गुरुभाई भी थे, अपना सुदर्शनचरित वि० सं० ११०० १११० से १११६ तक राज्य किया है । यह तो सुनिमें बना कर समाप्त किया था और उसके बाद श्चित ही है इनके राज्यका सं० १५१२ का एक दान'सकल विधिविधान' नामका काव्य-ग्रन्थ भी बनाया पत्र भी मिला है। उसके बाद वह कहाँ और कब था जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों तक जीवित रह कर राज्य करते रहे, यह अभी का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख किया अनिश्चित है। अतः आचार्य प्रभाचन्द्रने भी अपनी है पर उसमें उनकी रचनाओंका कोई उल्लेख नहीं रचनाएं जिन्हें राजाभोज और जयसिंहके राज्यमें है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि प्रमेयकमलमा- रचा हा लिया है, सं० ११०० से लेकर सं०११६ तण्डकी रचना सं० ११०० या उसके एक-दो वर्ष बाद तकके मध्यवर्ती समयमें रची होगी। शेष ग्रन्थ हुई है । प्रभाचन्द्रने जब प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाया; जिनमें कोई उल्लेख नहीं मिलता, व कब बनाय, उस समय तक उनके न्यायविद्याग भी जीवित थे इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है।
इस सब विवेचन परसे स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र x जैसा प्रमेयकमलमार्तण्डके ३.११ सत्रकी व्याख्यासे विक्रमकी ११वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १२वीं स्पष्ट है-'नच बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपक्ष शताब्दीके पूर्वाधके विद्वान् हैं। साध्यसाधन-स्वरूपस्य पुनवृद्धावस्थायाँ तद्विस्मृतौ तत्स्वरू
. (क्रमशः) पोपलम्मेऽप्यविनाभावप्रतिपत्त रभावात्तयोस्तदहेतुत्वम् , स्मर- सनिमित्तत्वप्रसिद्धिः। मूलकारणत्वेन तूपलम्भादरचोपदेशः, गादेरपि तद्धतुत्वात् । भूयो निश्चयानिश्चयौ हि स्मरणादेस्तु प्रकृतत्वादेव तत्कारणत्वप्रसिद्ध ग्नुपदेश इत्यभि स्मर्यमाण-प्रत्यभिज्ञापमानौ तस्कारणमिति स्मरणादरपि प्रायां गरूणाम ॥"-अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०.११
समाज से निवेदन अनेकान्त जैन समाज का एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें भनेक खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं। पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनाकर तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं। हमें दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक ब सहायक श्रेणी में नाम लिखानेवाले केवल दो सौ सज्जनों की आवश्यकता है। आशा है समाज के महानुभाव एक सौ एक रुपया दान कर सहायक श्रेणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बटाएंगे।
मनेजर 'अनेकान्त
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पौराणिक कथा
-तुकारी:
(श्री पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्री)
भहाका जीवन बड़े लालन-पालनमें व्यतीत हुआ था। बातें सहन कर सकता है, पर आपका 'तू' शब्द नहीं सुन वह पाठ भाइयोंके बीचमें अकेली ही थी, इसलिए सबका सकता । मैं कोई इज्जत बेच कर थोड़े ही काम करता हूँ। प्यार पाकर फूली नहीं समाती थी और सुन्दर भी इतनी पागेसे पाप ध्यान रखियेगा, आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। थी कि उस चन्दनपुरमें उसको समता करने वाली दूसरी उसकी इन बातोंको श्री पण्डितजी भी सहन न कर कोई लड़की नहीं थी। बड़ी गुणवती और सुशीला थी सके, बोले-अगर ऐसा ही है तो नौकरी करने क्यों सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करती थी, आब-श्रादरके माये । बच्चू ! यह नौकरी है, इसमें सब कुछ सहन करना साथ बोलना, चालना, उसका स्वभाव बन गया था। उसे पड़ता है। अगर तू काम नहीं कर सकता, तो छोड़ कर अगर जीवनमें किसीसे घृणा थी, तो 'तू' शब्द से। अगर चला जा। कोई किसीसे किसी भी बातमें 'त' कहता. तो उसे बड़ा ही रामू पुनः कहे गये 'तू' को सुनकर सोचने लगा, क्या बुरा लगता और क्रोध उत्पन्न कर देता था। इस बात पर ऐसा व्यवहार सभी पैसे वालोंके यहां होता है क्या सभी जब कभी अपने पिताजी पर भी नाराज हो जाया करती थी। इतनी बुरी प्रवृत्तिके होते हैं क्या पैसेके घमण्डमें पाकर
उसके पिता पं० शिवशर्मा नामके ब्राह्मण, धनवान , बोलते हैं इनके यहां मानवका प्रादर नहीं होता? क्या गुणवान् और राजा द्वारा सम्मानित थे। नगर में उनका ये सभी नौकरोंके साथ ऐसा ही वर्ताव करते हैं। इनके बड़ा आदर था। मब लोग पूज्य और श्रद्धा-रप्टिसे देखते दिल नहीं होता ? कभी नौकरको शाबासी भी नहीं देते
थे। अगर कोई उनसे दुखी था तो उनका वह रामू नौकर, होंगे, चाहे वह नौकर सेठ जीके लिए प्राण भी ट्रेनेको तैयार जिसे पंडितजी कभी भी सहानुभूतिकी दृष्टिसे नहीं देखते रहे, पर सेठजीकी कोई सहानुभूति नहीं। पर, नहीं-नहीं
थे। और हर बातमें सदा तीखापन लेकर यह नहीं सभी एकसे नहीं होते, बहुतसे बड़े भले होते हैं, नौकरों के किया, वह नहीं किया, हरामकी नौकरी पाता है, यह काम
साथ बड़ा ही अच्छा वर्ताव करते हैं, सदा अच्छी तरह किया तो इसमें यह गलती है, कुछ करना ही नहीं आता,
बोलते हैं, उसके दुःख-सुखकी पूछते हैं, बीमार होने पर इत्यादि कहते रहते थे। वह बेचारा मजबूर रामू जी बड़ी चिन्ताके साथ उसका इलाज कराते हैं। पर, ये पं० जी, लगाकर काम करता था केवल दस रुपया और भोजन पर। बुखार थाने पर भी नहीं छोड़ते हैं। कहते हैं-बहाना कर प्रातः पांच बजे उठना और काम करते-करते रातको १ बजे रहा होगा, इत्यादि विचारता हुआ आंखोंमें दुःखका सागर सोना प्रतिदिनका काम था।
उमड़ाता हुआ पं० जोको नमस्कार कर चल दिया। एक दिन पंडितजी उस बेचारे रामू पर गुस्सा होते हुए जाते समय भट्टाने उसे रोका, और समझाया। साय बुरी तरह चिल्लाये और बोले-तू अन्धा हो गया था जो ही अपने पिताजीसे बोली-पिताजी। आप अगर की यह दिखाई नहीं दिया। हरामी कहीं का, पता ही नहीं जगह तुम बोल दिया करें, तो कोई भारी समय न खगे, लगता उबला-उबला-सा क्यों रहता है एक काम जो आध हर एक आदमी अपने घरका और मनका राजा होता है। घंटेमें बहुत आसानीसे हो जाय, उसमें तीन घंटे लगाता है। एक वार श्रादमीको रोटी कपड़ा न दो, पर बोलना, चालना सुझसे काम नहीं होता तो नौकरी छोड़कर चला जा। ठीक रक्बो, प्रेम पूर्वक मधुरतासे बोलो. वह आदमी
रामू उनकी सारी बातोंको सुनता गया, पर 'तू' आपका हो जायगा । आप मुझसे भी कितनी ही बार '' के शब्दको सुन कर उसके हृदयमें भारी आघात पहुँचा, सोचने साथ बोल चुके हैं, हालांकि, मैं आपकी पुत्री हूँ, फिर भी लगा, यहां मेरा कुछ भी आदर नहीं है और जहां इज्जत मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरी माता जी भी दुःखी हो ही नहीं, वहां काम नहीं करना, चाहे भूखों मर जाऊँ। ऐसा जाती हैं और सब भाई भी। सोचकर पण्डितजीसे बोला-पण्डितजी मैं आपकी सारी सुन कर पं० जो कुछ शान्त होकर बोले-बेटी 'तू'
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[वर्ष १४
अनेकान्त
बड़ा ही हानिकारक सिन्छ हुआ । मेरे स्वभाव और मेरी इस चिड़ को देखकर कोई विवाद की हिम्मत ही नहीं करता था । धीर जो तैयार भी होता था तो उसके साथ यही समस्या रखदी जाती थी, कि 'तू' शब्दका प्रयोग कभी मत करना ।
१०४]
कहना क्या बुरा है लोग भगवान् से भी 'तू' बोलते हैं, चाकर, स्थान-स्थान पर वेद, पुराणों, आदि देख जाता है। पति स्त्रीसे पिता पुत्र से बड़े छोटोंसे प्यार में कर 'तू' बोलते हैं।
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पर पिताजी ! आपने रामूसे जो 'तू' कहा, यह कौनसे प्यारका नमूना था, कीनमी महि थी। ईश्वर तो सुनता नहीं है, वह सब कुछ देखता रहता है, अगर वह सुनता होता, तो मैं आपसे सच कहती है एक बार फिर उसे पृथ्वी पर 'तू' शब्दको मना करनेके लिए आना पड़ता। पर जब वह कुछ सुनता ही नहीं है, तो पीठ पीछे जिसको चाहो उसको वैना कहो, 'तू' ही क्या, गाली भी दो । परन्तु पिताजी! यह शिक्षित लोगोंके शब्दकोपसे निकल बुध है, भले में अब इसका उच्चारय नहीं होता। पत्नी और पुत्र श्रादि भी इस शब्दको सुनकर चौंक पड़ते हैं, दुःखी होते हैं, और दूसरे नाते रिश्तेदारों तथा अन्य शिक्षित वर्गके सामने कहने पर तो दुःखका कुछ ठिकाना नहीं रहता ।
इस 'तू' में प्यार नहीं, श्रनादर छिपा है, घृणा छिपी है है और प्रगट हो जाती है असभ्यता भगड़े को बढ़ाता है शान्त वातावरयामें उनकनें और मनमुटाव पैदा कर देता है। अब तो ग्रामीण श्रदमा भी अपने वर-घरसे इसे निकाल रहे हैं। इस 'तू' शब्द उच्चारण मात्र से बहुतोंक मुखसे क्या तकनिक कर मुँह पर चले जाने हैं। और फिर आप ही सोचिये, यह कितना बुरा शब्द है, इससे कितनी कठोरता भरी हुई है कितना अक्खड़पन भरा हुआ है और feart are भावना और अमानवता । इस 'तू' शब्दके पीछे ही मुझमें और मुहल्ला पड़ोस वालोंमें एक दिन कितना झगडा हो गया था। मैंने उनकी सात पीढ़ीकी बात farari कर रखदी यो तब आपने ही श्राकर शान्त किया था।
पं० जीनै बड़े शान्त भावसे विचारा और कहा-बेटी ! ठीक है श्रीगेसे मैं कभी इस 'तू' शब्दका स्तेमाल नहीं करूँगा । अब तक मैं यह नहीं सममता था, कि मेरी पुत्री को भी इस '' शब्द paat far है । अच्छा श्राज ही में राजासे पूछकर मनादी कराये देता हूँ कि कोई तू नहीं बोला करेगा और खास तौरसे मेरी पुत्री के साथ । और उसने राजाज्ञा लेकर उस प्रकार की घोषणा भी करा दी। इस घोषणा को सुनकर मुहल्ला पदम वालोंने १० जी की पुत्रीका नाम 'तुकारी' रख दिया, यह घोषणाका कराना मेरे लिये
थाखिर में प्रसिद्ध पंडित की पुत्री थी रूपवती थी मेरी सुन्दरताकी प्रसिद्धि थी और मेरे पिताजी भी मुझे अपने अधिक पैसे वाले यहां विवाह करना चाहते थे। इन मारी बातों को लेकर एक सोमशर्मा नामक युवक रजामन्द हो गये, और उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि मैं कभी भी जीवन में 'तू' नहीं कहूँगा ।
बस में यह चाहती थी, मेरा विवाह हो गया, बड़े आनन्दके साथ रहने लगी मेरे साथ उन्होंने बड़ा अच्छा व्यवहार किया । मेरे ही साथ क्या उनका व्यवहार सभीके साथ धच्छा होता था । मेरे पतिदेव मुझसे बड़ा प्यार करते थे। हमारा जीवन 'सुख और शान्तिके साथ बीतने लगा ।
एक दिन पतिदेव 'नाटक' देखने गये। उनका इन्तजार करते-करते रातका १॥ बज गया । मुझे रह-रहकर बड़ा गुस्सा थारहा था, और नाना प्रकारकी शंकाएं मुझ पर चढ़ी शा रहीं थीं। इसी बीचमें विचार उथल लेते रहे और मुझे नींद बागई, में स्वप्न में देखने लगी कि मेरे पतिदेव नाटक देखने नहीं गये। यह तो उनका बहाना था । मैंने देखा वे एक बाजारू स्त्रीक यहां ऊपर कमरे में बैठे गाना सुन रहे हैं, उनके साथ उनके और भी यार दोस्त मस्त हो रहे हैं। वेश्या उनको अपने हाथ से पान खिला रही है, पानी पिनासी नजरें डालकर रिया रही है, और ये लोग, दस-दसके नोट उसके गानेकी एक-एक बात पर दे रहे हैं, कभी किसी प्रकार कभी किसी प्रकार | उन्हें देखकर उस समय मुझे ऐसा मालूम पड़ रहा था, मानो अगर दुनियां में कहीं प्यार है, तो यहां पर है। और कोई गानेको. समझने वाले हैं, तो बम यही लोग हैं । और अगर कोई गाने वाली है तो एक यही इतनेमें नौकरने चाकर एकएक बोतल शराब की उनके हाथोंमें देदी। पीने लगे, पीकर झूमने लगे, कहने लगे प्यारे शब्द | इतने प्यारे, कि शायद मजनृनेभी लैलाके लिए न कहे होंगे, और फरियाद भी शोरीके लिए कभी सोचे भी नहीं होंगे।
उन बेश्याके आगे दस-इसके नोटों का ढेर सा लग गया था, ऐसा प्रतीत होता था की एक हजार के नोट होंगे। उनके एक साथीने तो शराब के नशे में मस्त होकर अपने हाथकी
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किरण ३-४
तुकारी
[१०५
घड़ी तक उसके हाथमें बांध दी।
आवाज इतनी जोशसे भरी हुई थी, कि में रुक गई, न तो मैं यह सब देख रही थी और उस स्वप्नावस्थामें ही भाग सकी, और न चिल्ला ही पाई। प्रास्थिर भागकर बड़ी दुखी होरही थी। मैं अपने पतिदेवको ऐसा नहीं सम- जाती भी कहाँ रुक गई, देखा, सिपाहियोंकी वर्दी पहि झती थी। यहां मुझसे कहते थे कि मेरी प्रतिज्ञा है, मैं दस आदमी अपने-अपने हाथों में बन्द के लिये हुये मेरे सामने तुम्हारे सिवाय सबको माता और बहिन समझता हूँ और आगये, चारों श्रोरसे मुझे घेर लिया। उनमेंसे एक बोलाआज यह हाल ! क्या सभी ऐसे होते हैं. देखो,उनके साथी इसके पास जो जेवर हैं, उन्हें राजीसे ले लो और इसे जाने भी ऐसे ही हैं, जिनके घरों में अप्सरा नुल्य नारियां हैं और दो। यह सुनकर और परिस्थिति को विकट देखकर झट ही उनके प्रति पतियों का यह अत्याचार | मृठे प्यार पर सब मैंने अपना जेवर उतार कर उनके मुपुर्द कर दिया। कुछ बलिदान कर रहे हैं। हे भगवान ! तू इन्हें कब सुबुद्धि वे मुझे अपने साथ पकड़ ले गये और आगे कुछ देगा।
दूर जाकर एक भीलके सुपुर्द कर दिया, जो जीवों ____ मानव मात्र चाहता है, मुझे'मीता मिले, परन्तु स्वयं के खूनसे रंगकर कम्बल बनाया करता था। पर मैं क्या यह भूल जाता है कि सीता पाने से पहले तुम्हें राम बनना करती, अबला जो थी और फिर सोचने लगी, कि सीताजी पड़ेगा । रामको ही सीता मिल सकती है। इस प्रकारक को जब रावण हरणकर लेगया था. तब उन्होंने ही क्या विचारोंमें दृश्योंमें उलझी हुई मेरे हृदय धडकन जो अधिक किया था । जब द्रोपदीका चीर खींचा गया उस समय सिवाय बढ़ चुकी थी बन्द होकर ऐसा मालूम पडने लगा, मानो भगवानके नामके और रटा ही क्या था । बस एक. वार हृदय बैठा जारहा है । पर रह-रहकर पतिदन पर क्रोध देखा था भीम की गदा की ओर और अर्जुन के बाथ बारहा था।
की घोर फिरभी सबलों की पत्नी अबला ही तो थी। क्या इतनेमें दरवाजा खटखटाने की श्रावाज आने लगी। करती, मैं भी भगवानका स्मरण करने लगी। अब मुझे मेरी स्वप्निल दुनियां छिन्न-भिन्न हो गई। पर वे बातें अपने गुस्से पर, गुस्मा श्रारहा था। कुछ दिनोंके बार हृदय-पटल पर ज्यों की त्यों अंकित होगई। हृदयमें गुस्सा मैंने उसकी एप्टिमें कुछ और ही पाया। पहले तो मुके भरा हुथा था मैं सजग होगई : मुझं रह-रहकर बड़ा भारी पुत्री-पुत्री कहता था। बड़े प्यारमे बोलता था। मैं भी इस गुस्मा बारहा था और सोते समय मैंने निश्चय कर लिया प्रकार एक जगलीके वर्तावको देखकर कभी-कभी सोचती था कि श्राज किवाड़ नहीं खोलूगी। आखिर उनको पुका- थी-अगर इन लोगोंको शिक्षित बनाया जाय तो कितने रने-पुकारने, किवाड़ खटकान-ग्व-कान काफी गमय होगया। भले हो सकते हैं और अपने नीच कर्मोको छोड़ सकते हैं। वे गुम्मामे पाकर एकदम अपनी प्रतिज्ञाको भूल गये, और पर यकायक उसका परिवर्तन देवकर-अपनी ओर कामक मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया।
दृष्टिसे आता देवकर, मुझमें कुछ माहम बधा और मैंने बड़ी बम फिर क्या था, उनका तू, कहना था कि मैं सिरस कड़कती श्राव ज़में कहा-खबरदार ! जो श्रागे बदे, तो मैं पांव तक जल उठी, सारा शरीर गुस्पा मारे कैंपकपाने लगा, अपने प्राण दे दृगी । वह रुक गया । उस दिन मुझे मैंने उनकी शक्ल तक देखना पसन्द नहीं किया। गुम्मामें मलूम हुश्रा, कि नारीकी वाणीमें भी किनाना पल होता है। अन्धी होकर घरसे निकलकर भाग गई। मुझे उस समय उस भीलने बहुत कुछ अपने कृत्य और बुरी भावना कुछ न सूझा कि में कहां जारही है। मैं शहरसे बाहर पर पछताते हए मुझे एक सेट हाथों बेच दिया पांच हजार होकर जंगल की ओर चल पडी क्रोधमें भागी-भागी जा रुपएमें और वे संठजी भी यह कहकर मुझे लाये, कि मेरे रही थी। जिस रास्तमें क्या, जरासं अँधेरमें भी मुझे डर भी कोई सन्तान नहीं है। यह मेरी पुत्रीक मानिन्द सेठानी लगता था, सो न जाने अाज मेरा डर नहीं चला गया । के पास बनी रहा करेगी। पर अन्तरंग क्या था, कुछ क्रोधन मुझे पागल बना दिया था। मेरे सामने स्वप्नमें समझमें नहीं आ रहा था। श्राई हुई बातोंने विश्वास जमा दिया था।
चलते समय भीलने कहा था मेरी ओर करुणाकी रास्तेमें मुझे कुछ पाहट सुनाई दी। किसीने कडकती दृष्टिसे देखते हुए की सेठजी इसे 'दुःख मत देना।' मेरे आवाजसे कहा-कौन जा रहा है, खड़े हो जायो। वह दिलमें एक बार फिर उसके इन शब्दोंसे उस छ
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[ वर्ष १४
सेठजीने मेरे पैरोंमें अपनी पगड़ी रख दी और गिढ़गिड़ाते हुए बोले- 'मुझे क्षमा करो ।' परन्तु मनमें मायाचार था । ऐसे व्यक्ति अवसरवादी होते हैं। मौका टल जाने पर कुछ दिनोंके बाद उन्होंने एक तीसरे अदमीके हाथ मुझे धोखा देकर बेच दिया । उसने मेरे शरीरसे जोंके लगा लगाकर खून निकाला। मैं बहुत कमजोर हो गई और अपने कर्मों पर पश्चाताप करने लगी और कोसने लगी, अपने भाग्यको ।
१०६ ]
अनेकान्त
दयाभाव आया और मैंने उसके चेहरे पर पछतानेके भावको चाहते हैं। साफ़-साफ़ देखा ।
मैं सेठजीके घर आई और बड़े आरामसे रहने लगी। सेठानीका भी बर्ताव मेरे प्रति बड़ा अच्छा था। मैं भी उनको मां मानती थी। परन्तु उनके चेहरे पर जब कभी मेरे अंग-प्रत्यंगों को ही क्या सारे शरीरको देख लेनेके बाद कुछ आशंका भाव झलक जाते थे और यही दशा उनकी तब होती थी जब सेठजी मुझसे कोई बात हँसकर कर जाते थे। मुझे भी उनके इस प्रकारके भाव को देखकर दुःख होता और सोचने लगती, कि नारीका हृदय बड़ा शंकित होता है और हुआ भी ऐसा ही । सेठजीके विचारोंमें, क्रियाओंोंमें मुझे नई दुनिया दिखने लगी। जहां लोग बहिनजी-बहिनजी कहते-कहते और बहिनजी भाई साहब, भाई साहब कहतेकहते थक जाते हैं और उनका बहिन भाईका सम्बन्ध दूसरे निन्दनीय रूपों में परिणत हो जाता है ऐसा ही सेठजीका मेरे साथ हुआ । मैं कभी-कभी सोचती, शायद मानव समाज भोली-भाली नारियोंको नाना प्रकारके प्रलोभन तथा भय दे-देकर उनके सतीत्वको भ्रष्ट करनेमें नहीं चिकता । नारीके सामने लोकलाज तथा मजबूरी इतनी -अधिक श्रा जाती है कि उस बेचारीको श्रात्मसमर्पण करना पड़ता है । आखिर वह करे क्या, जहां जाय, कुछ दिन तो बड़ा अच्छा वर्ताव, अन्त फिर वही मंजिल ! लोग इस ओर ध्यान ही नहीं देते। पर नारीको चाहिये कि प्राय भले ही चले जांय, पर अपने धर्मसे कभी विचलित न हो ।
यह
अन्तमें सेठजीकी दाल न गल सकी, मैंने बुरी तरह उन्हें आड़े हाथों लिया। उनका शरीर कँप - कपाने लगा । फिर मैंने और साहस बटोरकर कहना प्रारम्भ किया -- श्रय नीच ! मैं अभी तेरे ढोंगका भण्डाफोड़ करती हूँ, अभी चिल्लाती हूँ तेरे मकानसे । धिक्कार है तुझ जैसे पापियों को, जो पुत्री-पुत्री कहते हुए उसके साथ दुराचार करना
इसी भांति मुझ पर अनेकों दुःख पड़े । स्थान-स्थान पर मेरे सामने भ्रष्ट होनेके प्रश्न आये, पर भगवानने मेरी लाज रख ली। मेरे शरीरको कोई हाथ नहीं लगा सका ।
इस प्रकार केवल चार माह ही हो पाये थे, उनमें ही इतने स्थानों पर समाज की दशाका पूरा-पूरा परिचय मिला ।
अन्तमें एक दिन मेरे पुण्यका उदय हुआ। मुझे उस रास्ते से जाते हुए अपने भाईके दर्शन हुए, मेरी खुशीका ठिकाना न रहा। मैं अपने भाईसे मिल कर इतनी रोई और मेरा भाई भी, मानो हमने फिरसे जन्म पाया हो, या युगयुगसे बिछड़े हुए मिले हों ।
मेरे भाईने उसी समय राजाके यहां खबर करके मुझे उस दुष्टके यहांसे छुड़ा लिया और अपने साथ ले गया । मुझे मेरे मेरे पतिदेवके सामने जानेका साहस भी नहीं होता था और शायद ऐसा ही उनका हाल था। वे भी मेरे सामने थाने में संकोच करते थे ।
आखिर ये आये, दोनोंके हृदयों में एक दूसरेको देखकर श्रानन्द था, पर चिरसंचित वियोगके धांसू निकल पड़े ।
आज उनको अपने तू कहनेका दुःख था और मुझे अपने क्रोधका । इन सारी बातोंके बाद भी, जब मैं अपने भाईके साथ घर गई, तो नगरमें शोर हो गया कि तुकारी आ गई। लोग मुझे तुकारी कहना अब भी नहीं भूले थे ।
मुख्तार श्रीकी ८०वी वर्षगांठ
वीरसेवामंदिर के संस्थापक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्राचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तार, अपने जीवन के ७६ वर्षको पूरा कर मगशिर शुक्ला एकादशी दिन गुरुवार ता० १३ दिसम्बर को ८० वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इस अवसर पर समाज की रसे उनके दीर्घायु होने की शुभकामना की जानी चाहिए ।
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जैन दर्शन और विश्वशान्ति
[श्री० प्रो० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य, एम० ए० ] विश्वशान्तिके लिए जिन विचारसहिगुता, समझौते की चादर पर बैठकर सोचना चाहिए कि 'जगतके उपलब्ध की भावना, वर्ण, जाति, रंग और देश आदिके भेदके बिना माधनोंका कैसे विनियोग हो ? जिससे प्रत्येक प्रामाका सबके समानाधिकार की स्वीकृति, व्यक्तिस्वातन्त्र्य और दूसरे अधिकार सुरक्षित रहे और ऐसी समाजका निर्माण सम्भव के अान्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना आदि मूलभूत हो सके जिसमें सबको समान अवसर और सबकी समान आधारों की अपेक्षा है उन्हें दार्शनिक भूमिका पर प्रस्तुत रूपसे प्रारम्भिक आवश्यकताओंकी पूर्ति हो सके । यह करने का कार्य जैनदर्शनने बहुत पहिलंसे किया है। उसने व्यवस्था ईश्वरनिर्मित होकर या जन्मजात वर्गसंरक्षणके अपनी अनेकान्त दृष्टिसे विचारने की दिशामें उदारता, व्याप- अाधारसे कभी नहीं जम सकती, किन्तु उन सभी समाजक कता और सहिष्णुता का ऐसा पल्लवन किया है जिससे घटक अंगोंकी जाति, वर्ण, रंग और देश श्रादिक भेदके व्यक्ति दूसरेक दृष्टिकोण को भी वास्तविक और तथ्यपूर्ण विना निरुपाधि ममान स्थितिक आधारस ही बन सकती है। मान सकता है। इसका स्वाभाविक फल है कि-समझौते समाज व्यवस्था ऊपरसे लदनी नहीं चाहिए, किन्तु उसका की भावना उत्पन्न होती है। जब तक हम अपने ही विचार विकास महयोगपद्धनिस सामाजिक भावनाकी भूमि पर होना और दृष्टिकोण को वास्तविक और तथ्य मानते हैं तब तक चाहिए, तभी सर्वोदयी समाज-रचना हो सकती है। जैनदूसरेके प्रति आदर और प्रामाणिकता का भाव ही नहीं हो दर्शनने व्यक्तिस्वातन्त्र्यको मूलरूपमें मानकर सहयोगमूलक पाता । अतः अनेकान्त दृष्टि दूसरोंके दृष्टिकोणके प्रति सहि- समाज-रचनाका दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया है। इसमें पणुता, वास्तविकता और समादर का भाव उत्पन्न करती है। जब प्रत्येक व्यक्रि परिग्रहके संग्रहको अनधिकार वृत्ति मानकर जैनदर्शन अनन्त यात्मवादी है। वह प्रत्येक प्रात्मा को
ही अनिवार्य या अन्यावश्यक साधनोंक संग्रहमें प्रवृनि करेगा मृलमें समान स्वभाव और ममान धर्म वाला मानता है।
सो भी समाजके घटक अन्य व्याश्याको समानाधिकारी उनमें जन्मना किसी जाति-भेद या अधिकार भेदको नहीं ।
समझ कर उनकी भी मुविधाका विचार कर ही, तभी मानता । वह अनन्त जड़पदार्थोका भी स्वतन्त्र अस्तित्व
सर्वोदयी समाजका म्वस्थ निमाण सम्भव हो सकेगा। मानता है । इस दर्शनने बाम्नव बहुत्वको मान कर व्यक्ति- निहित स्वार्थवाले व्यक्रियोंने जानि, वश और रंग स्वातन्थ्यकी माधार स्वीकृति दी है। वह एक व्यक परिण- श्रादिके नाम पर जो अधिकारोंका संरक्षण ले रखा है तथा मन पर दूसरे व्यका अधिकार ही नहीं मानता। अतः जिन व्यवस्थाओंने वविशेषको संरक्षण दिय है, वे मूलतः किसी भी प्राणांक द्वारा दसरे प्राणीका शोपण, निर्दलन या अनधिकार चप्टाएँ हैं। उन्हें मानवहित श्रीर नवसमाज स्वायत्तीकरण ही अन्याय है। किमी चतनका अन्य जड़ पढ़ा. रचनाके लिए स्वयं समाप्त होना ही चाहिए और ममान थोंको अपने आधीन करनेकी चेष्टा करना भी अनधिकार अवसरवाली परम्पराका सर्वाभ्युदयकी दृष्टिस विकास होना चेष्टा है। इसी तरह किसी देश या राष्ट्रका देसरे देश या चाहिए। राष्ट्रको अपने प्राधीन करना उसे अपना उपनिवेश बनाना इस तरह पानेकान्त दृष्टिसे विचार महिष्णुता और ही मूलतः अनधिकार चेष्टा है, अतएव हिया और अन्याय है। पर-सम्मानकी वृत्ति जग जाने पर मन दुसरंक स्वार्थको अपना
वास्तविक स्थिति ऐसी होने पर भी जब अात्माका स्वार्थ माननेकी और प्रवृन होकर समझातकी और सदा शरीर-संधारण और समाज-निर्माण जड पदार्थोंक बिना झुकने लगता है। सम्भव नहीं है, तब यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि जब उसके स्वाधिकारके साथ ही माथ स्वकर्तव्यका भी अाखिर शरीर-यात्रा समाज निर्माण र राष्ट्र-संरना अादि उदित होता है, तब वह दृमरके श्रान्तरिक मामलोंमें जबरकैसे किये जायें ! जब अनिवार्य स्थितिमें जड़पदार्थोका संग्रह दस्ती टाँग नहीं अड़ाना। इस तरह विश्वशान्तिके लिये
और उनका यथोचित विनियोग आवश्यक होगया तब यह उन अपेक्षित विचार-सहिप्मुता, समानाधिकारकी स्वीकृति और सभी पारमाओंको ही समान भूमिका और समान अधिकार आन्तरिक मामलोंमें अहस्तक्षेप आदि सभी प्राधार एक
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१०८]
अनेकान्त
व्यकि स्वातन्त्र्यके मान लेनेसे ही प्रस्तुत हो जाते हैं और दृष्टि और जीवनमें भौतिक-साधनोंकी अपेक्षा मानवके जब तक इन सर्व समतामूलक अहिंसक आधारों पर समाज सन्मानके प्रति निष्ठा होने से । भारत राष्ट्रने तीर्थकर महारचनाका प्रयत्न न होगा तब तक विश्वशान्ति स्थापित नहीं वीर और बोधिसत्व गौतमबुद्ध आदि सन्तोंकी अहिंसाको हो सकती । श्राज मानवका दृष्टिकोण इतना विस्तत. उदार अपने संविधान और परराष्ट्रनीतिका आधार बनाकर विश्वको और व्यापक हो गया है जो वह विश्वशान्तिकी बात सोचने एक बार फिर भारतकी आध्यात्मिकताकी झांकी दिखा दी लगा है। जिस दिन व्यक्रि-स्वातन्त्र्य और समानाधिकार है। आज उन तीर्थकरोंकी साधना और तपस्या सफल हुई है की बिना किसी विशेष संरक्षणके सर्वमान्य प्रतिष्ठा होगी कि समस्त विश्व सह-अस्तित्व और समझौतेको वृत्तिकी वही दिन मानवताके मंगल प्रभातका पुण्य क्षण होगा। जैन- ओर झुककर अहिंसक भावनासे मानवताकी रक्षाके लिए दर्शनने इन आधारोंको सैद्धान्तिक रूप देकर मानवकल्याण मन्नद्ध हो गया है। अरि जविनका मंगलमय निवाह-पद्धतिक विकासमं अपना व्यक्तिकी मुक्ति, सर्वोदयी समाजका निर्माण और विश्वपूरा भाग अर्पित किया है। और कभी भी स्थायी विश्व- की शान्तिके लिये जैन दर्शनके पुरस्कर्ताओंने यही निधियां शान्ति यदि सम्भव होगी तो इन्हीं मूल आधारों पर ही वह भारतीय संस्कृतिके प्राध्यात्मिक कोशागारमें श्रात्मोत्सर्ग प्रतिष्ठित हो सकती है।
और निर्ग्रन्थताकी तिल-तिल-साधना करके संजोई हैं । श्राज भारत राष्ट्र के प्राण पं. जवाहरलाल नेहरूने विश्व- वह धन्य हो गया कि उसकी उस अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि शान्तिके लिये जिन पंचशील या पंचशिलाभोंका उदघोष और अपरिग्रह भावनाकी ज्योति से विश्वका हिंसान्धकार किया है और बाडुङ्ग सम्मेलनमें जिन्हें सर्वमतिसे स्वीकृति समाप्त होता जा रहा है और सब सबके उदयमें अपना मिली उन पंचशीलोंकी बुनियाद अनेकान्तदृष्टि-समझौतेको उदय मानने लगे हैं। वृत्ति, मह-अस्तित्वकी भावना, समन्वयके प्रति निष्ठा और राष्ट्रपिता पूज्य बापूकी आत्मा इस अंशमें सन्तोषकी वर्ण, जाति रंग श्रादिके भेदोंसे ऊपर उठकर मानव-मात्रके सांस ले रही होगी कि उनने अहिंसा संजीवनीका व्यक्रि सम-अभ्युदयकी कामना पर ही तो रखी गई है । और इन और समाजसे आगे राजनैतिक क्षेत्रमें उपयोग करनेका जो सबके पीछे है मानवका सन्मान और अहिंसामूलक श्रान्मौ- प्रशस्त मार्ग मुझाया था और जिसकी अटूट श्रद्धामें उनने पम्यकी हार्दिक श्रद्धा । श्राज नवोदित भारतकी इस मर्यो- अपने प्राणोंका उत्सर्ग किया, अाज भारतने दृढतासे उसपर दयी परराष्ट्रनीतिने विश्वको हिमा, संघर्ष और युद्धके अपनी निप्टा ही व्यक्त नहीं की, किन्तु उसका प्रयोग नवदावानलसे मोडकर सहअस्तित्व, भाईचारा और समझौतेकी एशियाके जागरण और विश्वशान्तिक क्षेत्रमें भी किया है। सद्भावना रूप अहिंसाकी शीतल छायामें लाकर खडा कर और भारतकी 'भा' इसीमें है कि वह अकला भी उम दिया है। वह सोचने लगा है कि प्रत्येक राष्ट्रको अपनी आध्यात्मिक दीपको मंजोता चले, उसे स्नेह दान देता हुआ जगह जीवित रहने का अधिकार है, उसका स्वास्तित्व है, उसी में जलता चले और प्रकाशकी किरणें बखेरता रहे। परके शोषणका या उसे गुलाम बनानेका कोई अधिकार नहीं जीवनका सामंजस्य, नवसमाज-निर्माण और विश्वशान्तिके है, परमें उसका अस्तित्र नहीं है। यह परके मामलोंमें यही मूलमन्त्र हैं। इनका नाम लिए बिना कोई विश्व अहस्तक्षेप और स्वास्तित्वको म्वीकृति ही विश्वशान्तिका शान्तिकी बात भी नहीं कर सकता । मूलमन्त्र है। यह सिद्ध हो सकती है-अहिंसा, अनेकान्त
(जैन दर्शनसे) ग्राहकों से निवेदन । अनेकान्त के ग्राहकों से निवेदन है कि सेवा में अनेकान्त की कई किरणें भेजी गई हैं। श्राशा है वे आपको पसन्द आई होंगी । कृपया अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मनीआर्डरसे भेज दीजिये । अन्यथा ५ वी किरण वी० पी० से भेजने पर आप को १० पाने अधिक देना पड़ेंगे। मुझे आशा है कि आप अनेकान्त की किरण पहुँचते ही ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर अनुगृहीत करेंगे।
मैनेजर अनेकान्त, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली ।
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भ० महावोरके विवाह सम्बन्धमें श्वेताम्बरोंकी दो मान्यताएँ
[परमानन्द शास्त्री]
जैन समाजमें भ. महावीरके विवाह-सम्बन्धमें दो कि राजा जितशत्रु, जो कलिंगदेश का राजा था और मान्यताएँ दृष्टि-गोचर होती हैं। एक उन्हें विवाहित घोषित जिसके साथ भ० महावीरके पिता राजा सिद्धार्थकी छोटी करती है और दूसरी अविवाहित | दिगम्बर सम्प्रदायके बहिन विवाही गई थी, अपनी यशोदा नामकी पुत्रीका सभी ग्रन्थ भ० महाबीर को एक स्वरसे आजन्म बाल- विवाह भगवान महावीरके साथ करना चाहता था परन्तु ब्रह्मचारी प्रकट करते हैं-पंचबालयति तीर्थंकरोंमें उनकी भगवान विरक्त होकर दीक्षित हो गए और इससे राजा गणना की गई है। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्राम तौर जितशत्रुका मनोरथ पूर्ण न हो सका । अन्तमें वह भी दीक्षित पर भ. महावीर को विवाहित माना जाता है। विवाहित हो गया और घोर तपश्चरण द्वारा सर्व कर्म को नाशकर होने की यह मान्यता केवल कल्पसूत्र में ही मिलती है। मोक्षको प्राप्त हुआ । इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि भ० उससे पूर्ववर्ती किसी भी श्रागममें नहीं है। यद्यपि भग- महावीरके विवाह की चर्चा तो चली थी; परन्तु उन्होंने वतीसूत्र में उनके गर्भापहार की घटना का उल्लेख है और विवाह नहीं कराया था । यही कारण है कि तमाम उन्हें ब्राह्मणी देवनन्दाका पुत्र बतलाया गया है । तथापि दिगम्बरीय ग्रन्थों में उन्हें भ० पार्श्वनाथके समान ही बालविवाह की घटना का, तथा उनकी कही जानेवाली पत्नी ब्रह्मचारी प्रकट किया गया है। यशोदा और उसकी पुत्री प्रियदर्शना का कहीं कोई उल्लेख ---- ----- नहीं है। ममवायांग और स्थानांग सूत्र में तथा आवश्यक भवान्न किं श्रेणिक वेत्ति भूपति नियुकिमें पांच बालयति तीर्थकरोंके भीतर भ० महावीर को
नृपेन्द्र सिद्धार्थ-कनीयसी पति । परिगणित कर उनके प्रथम वयमें ही दीक्षित होने का स्पष्ट इमं प्रसिद्ध जितशत्रुमाख्यया उल्लेख है। ऐसी स्थिति में कल्पसूत्र की महावीरके विवाह
प्रतापवंतं जितशत्रुमंडलं ॥६॥ की कल्पना असंगत प्रतीत होती है।
जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे कल्पसूत्रमें महावीर का विवाह समरवीरराजा की पुत्री
तदागतः कुण्डपुरं सुहृत्परः । यशोदा नामकी कन्या से हुश्रा बतलाया जाती है और
मुपूजितः कुण्डपुरम्य भूभृना उमस प्रियदर्शना नामकी एक पुत्रीका उत्पन्न होना भी
नृपायमाखण्डल तुविक्रमः॥७॥
यशोदयाया सुतया यशोदया कहा जाता है । साथ ही, यह भी कहा गया है कि प्रियद
पवित्रया वीर-विवाह-मंगलम् । र्शना का पाणिग्रहण जमालिक साथ हुआ था और इस अनेक-कन्या-परिवारयामह तरह जमालि भगवान महावीर का दामाद था ।
समीक्षितु तु ग-मनोरथं नदा जिनमनाचार्य कृत हरिवंशपुराणके ६६वें पर्व परसे स्थितेऽय नाथे तपसि स्वयंभवि भ. महावीरके विवाह-सम्बन्धमें इतनी सूचना मिलती है
प्रजात-कैवल्य-विशाल-लोचने । ___ x तिसला इवा, विदेहदिण्णा इवा, पीइकारिणी इवा। जगद्विभूत्यै विरहाप क्षिति समणस्परणं भगवो महावीरम्स पित्तिज्जे सुपासे जेठे माया
क्षितिं विहाय स्थितवांस्नपम्ययम ॥६|| दिवद्धणे, भगिणी सुदंसणा, भारिया जसोया कोडिण्ण
x गांत्रेणं, समणस्स णं भगवयो महावीरस्स धया कासवगोत्ते विहत्य पूज्योऽपि महीं महीयसी तीसे दो णामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-अणोज्जा इवा,
___ महामुनिर्मोचित-कर्मबन्धनः । पियदसणा इवा । समणस्स णं भगवश्री महावीरस्स मत्त ई इयाय मोक्षं जितशत्रुकेवली कोसियगोत्तणं तीसे णं दो णामधिज्जा एवमाहिज्जंति,
निरंत-सौख्य प्रतिवद्धमक्षयं ॥१४॥ तं जहा सेसवई इवा, जसवई वा ॥१०॥
इस घटना का उल्लेख महाकवि स्वयंभू और त्रिभुवन-कल्पसूत्र पृ० १४२, १४३ स्वयंभूकेह रिवंश पुराणमें भी इसी रूपमें पाया जाता हैं।
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११० ]
० सम्प्रदाय में यद्यपि कल्पसूत्रकी विवाहित मान्यताका प्रचलन है, उसका उल्लेख पश्चाद्वर्ती श्रावश्यक भाप्य में और आचारांग चौबीसवें अध्ययन में भी पाया जाता है । परन्तु उसकी श्रन्य प्राचीन साहित्यसे कोई संपुष्टि नहीं हो सकी है। किन्तु जिन प्राचीन ग्रन्थोंमें जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं वे सब उल्लेख महावीर को अविवाहित और कुमार वयमें ही दीक्षित होना घोषित करते हैं। इससे श्वेताम्बरोंमें महावीरके विवाह सम्बन्ध को लेकर दो मान्यताओंों का उल्लेख स्पष्ट है, और उनमें अविवाहित मान्यता ही प्राचीन एवं ग्रामाणिक ज्ञात होती है । क्योकि उसका (विवाहित मान्यताका) स्थानांग, समवायांग और भगवती जैसे सूत्रग्रन्थोंमें उल्लेख तक नहीं मिलता । श्रतः दोनों मान्यताओं का तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता हैfe arra saaाहित मान्यता ही प्राचीन है, दूसरी मान्यता तो कंवल कल्पसूत्र-द्वारा ही कल्पित हुई है और उसी पर उसका प्रचार व प्रसार उनमें हुआ है जो अर्वाचीन और प्रमाणिक जान पड़ती है। समवायांग सूत्र नं० १8 से जिसमें श्रागारवासका उल्लेख करते हुए १६ तीर्थंकरोंका घर में रहकर और भोग भोग कर दीक्षित होना बतलाया गया है । इससे स्पष्ट है कि शेष पांच तीर्थंकर कुमार-श्रत्रस्थामें ही दीक्षित हुए हैं । इससे टीकाकार अभयदेव सूरिने अपनी वृत्ति में 'शेषान्तु पचकुमारभाव एवेत्याह च' वाक्यक साथ 'वीरं अरिमी' नामकी गाथा उद्धृत की है । 'स्थानांग सूत्र' के ४७६ वें सूत्रमें भी पांच तीर्थकरोंको कुमार प्रवृजित कहा गया है । इमसे स्पष्ट है कि इन सूत्र-ग्रन्थोंमें भगवान् महावीर को पाश्र्वदि तीर्थंकरोंक समान ही मह्मचारी प्रकट किया है ।
श्रावश्यक नियुक्ति की निम्न गाथाओं में भी वीर, श्ररिष्टनेमी पार्श्व, मल्लिनाथ और वासुपूज्य इन पांच तीर्थकरों को कुमार अवस्था में ही दीक्षित होना घोषित किया है
वीरं अरिनेमिं पास मल्लिं च वामुपुज्जं च । एए मुत्तण जिणे अवसेसा श्रसि रायाणां ॥ २४३ रायकुलेवि जाया विसुद्ध से वत्ति कुले । नय इत्थिभित्रा कुमारवासमि पव्वइया ||२४४
इन गाथाओंका जो श्राशय ऊपर दिया गया है वही
[ वर्ष १४
मुनि श्रीकल्याणविजयजीको भी अभिप्रेत है । इन गाथाओं के अतिरिक्त २४८वीं गाथामें स्पष्ट बतलाया गया है कि उक्त पांच तीर्थंकरोंने प्रथम अवस्थामें दीक्षा ली, और शेष तीर्थंकरोंने पश्चिम श्रवस्था में। टीकाकार मलयगिरिने 'पढमव' का अर्थ प्रथमवयसि कुमारत्वलक्षणे प्रत्रजिताः, शेपाः पुनः ऋपभस्वामिप्रभृतयो, 'मध्यमे वर्यास' यौवनत्वलक्षणे वर्तमानाः प्रब्रजिताः ।' किया है । वह गाथा इस प्रकार है
वीरो ठिमी पासो मल्लीवासुपुज्जो य । पढमव पव्वइया सेसा पुरण पच्छियवयंम २४५॥
इसके सिवाय, श्रावश्यकनियुक्तिकी 'गामायारा विसया निसेविता ते कुमारवज्जेहिं' इस गाथामें स्पष्ट रूपमें उक्त मान्यताको पुष्ट किया गया है। यहां 'कुमार' शब्दका श्रर्थ विचारणीय है। 'कुमार' शब्द का सीधा और सामान्य अर्थ कुवारा, अविवाहित, बालब्रह्मचारी होता है । 'कुमारी कन्या' इस व्याकरण सूत्रमें भी कुमारी (अविवाहित ) को कन्या स्वीकार किया गया है। 'समवायांग' सूत्रमें भी कुमार शब्दका अर्थ अविवाहित ब्रह्मचारी दिया है। श्रावश्यक निर्यु विकार को भी कुमार शब्दका उक्त अर्थ ही अभिप्रेत था जिसे उन्होंने 'गामायारा विसया निसेविता जे कुमारवज्जेहिं' वाक्य द्वारा उसे पुष्ट किया है। जो लोग खींच-तान कर 'कुमार' शब्दका अर्थ युवराज एवं विवाहित करते हैं उन्हें समदृष्टिसे नियुक्रिकारके 'कुमारवज्जे हि' वाक्य पर ध्यान देते हुये अर्थ करना चाहिये, जिसमें उन पांच कुमार तीर्थंकरोंको भोग-रहित (अविवाहित) बतलाया गया है । यदि नियुक्तिकारको कुमार शब्दका विवाहित अर्थ अभिप्रेत होता तो वे उक्त वाक्य द्वारा उनके भोग भोगनेका निषेध ही नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि नियुक्तिकारको कुमार शब्दका विवाहित होना अर्थ स्वीकार नहीं है, श्रतः नियुक्रिकारकी दृष्टिमें महावीर अविवाहित थे | दूसरे यदि कुमार शब्दका अर्थ श्वेताम्बरीय समवांगसूत्र श्रादिके विरुद्ध विवाहित स्वीकार किया जाय जैसा कि सम्प्रदायकिया जाता है तो उसमें बड़ी भारी आपत्ति आती है वादके व्यामोह में महावीरको विवाहित सिद्ध करनेकी धुन में जिसकी थोर उन्होंने ध्यान भी दिया मालूम नहीं होता । उक्त कुमार शब्द द्वारा महावीर को विवाहित, और शेष
देखो, श्रमण भगवान महावीर पृष्ठ १२ ॥
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किरण ३-४]
भ० महावीरके विवाह सम्बन्धमें श्वे० की दो मान्यताए'
चार तीर्थकरोंको अविवाहित माना जाता है। इनमें मल्लि, विवाहकी मान्यताको कोई पुष्टि नहीं मिलती, अतः यह तीर्थकर भी हैं जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीतीर्थकर मानता मानना ठीक होगा कि महावीर अविवाहित एवं बालब्रह्महै और नेमिनाथ बिना विवाह किये ही दीक्षित होगये थे। चारी ही थे। यह दोनों सम्प्रदाय मानते हैं। वासुपूज्य और पार्श्वनाथने इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें महावीरके विवाहको विवाह नहीं कराया था। ऐसी स्थितिमें कुमार शब्दका लेकर दो मान्यताएँ स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं। इस बातको विवाहित अर्थ मानने पर इन सबको भी विवाहित मानना में ही नहीं कहता, किन्तु श्वेताम्बरीय विद्वान पं दलसुम्बजी पड़ेगा। जो आगम मान्यताके विरुद्ध है, ऐसा नहीं हो मालवणिया भी स्पष्ट रूपसे स्वीकार करते हैं जैसा कि सकता कि महावीरके साथ कुमार शब्दका विवाहित और उनकी स्थानांग-समवायांग सूत्रकी गुजराती टीकके निम्नशेष तीथंकरोंके साथ उसी कुमार शब्दका अर्थ अविवाहित वाक्योंसे स्पष्ट हैकिया जाय । कुमार शब्दके अर्थक सम्बन्धमें श्वेताम्बरीय 'भगवान महावीरे विवाह कयों न हतो, एम पासूत्रों विद्वान् पं० दलसुखजी मालवणिया स्थानांग-समवायांग मां स्पष्ट पणे परंपरा सुचवाई रही छे । भगवान महावीर(पृ. ३८) पर विचार करते हुए कुमार शब्दका अर्थ बाल- ना विवाह नी बात सर्वप्रथम कल्पसूत्र मांज जेवामणि छ; ब्रह्मचारी लेनेकी प्रेरणा की है और दिगम्बरोंकी अविवाहित अने अथीते मनी विवाह-विषयक बीजी परंपरानी सूचना मान्यताको साधार बतलाते हैं 'समवायांगमां श्रोगणीसनो श्राप छ, प्रेम मानवु जाईये, अटले भगवतीनु' जमालिश्रागारबास ( नहि के नृपतित्व) कहे नारसूत्र मूकीओ, अध्ययन, स्थानांग-समवायांगने बधु तेमना विवाहना तो प्रेम ज कहेवु पडे छे के त्यां कुमारनो अर्थ बालब्रह्मचा- निषेधनी परंपरामा मुकबु जोईये, अने कल्पसूत्र, श्रावश्यक रीज लेवो जोईये, अने वाकीनानो विवाहित, आ प्रमाणे नियुकि तथा मूल्य भाष्य थी मांडी ने चूर्णी सुधीना तेमदिगम्बरोनी मान्यताने पण श्रागमिक आधार के जो एम- ना विवाहना उल्लेखो स्पष्ट पणे बीजी परंपरा मां मूकवा मानवु पड़े थे.' अतः पूर्वापर वस्तुस्थिति और श्रागम- जोईए, भगवान महावीरनो विवाह थयो हतो तेम उत्यारे संगतिको देखते हुए पाचों तीर्थंकरोंको अविवाहित ही मानना श्वेताम्बर-परंपरामां मान्यता रूढ थई गई छे , त्यारे दिगंचाहिये।
बरोंने त्यांतो ते अविवाहित होवानी बात रूढ छे' भगवती सूत्रमें जमालिका जो चरित्र दिया गया है
- स्थानांग-समवायांग पृ. ३३० उससे भगवान महाबीरके विवाहकी पुष्टि नहीं होती। साथ उपरके इस समस्त विवेचन परसं स्पष्ट है कि श्वेताम्बर ही उसमें जमालिकी अाठ स्त्रियां बतलाई गई हैं परन्तु सम्प्रदायमें भगवान महावीरके विवाह के सम्बन्धमें दो मान्यउनमें प्रियदर्शनाका जिसे कल्पसूत्र में महावीरकी पुत्री ताएँ प्रचलित हैं। उनमें अविवाहित मान्यता ही प्राचीन और बतलाया है कोई उल्लेख नहीं है । ऐसी स्थितिमें महावीरके निर्दोष है और विवाहित मान्यता अर्वाचीन और सदोष है।
विश्वशांति विधायक-जैन आयोजन यूनेस्को-सम्मेलनके अवसर पर जैन समाज दिल्ली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि विभिन्न देशोंक जो ओर से एक सेमिनार (गोप्ठी) का आयोजन किया गया ४००के लगभग प्रतिनिति पधारे हैं उनका ३० नवम्बरको है । इस अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त और स्याद्वाद तथा जैन समाज की ओरसे सम्मान किया जायगा और उन्हें विश्वशान्तिके सम्बद्ध विषयों पर बाहरसे अनेका-अनेक मान्य अंग्रेजी आदिका जनसाहित्य भेंट किया जायगा। श्रतः इस विद्वानोंके सुन्दर भाषण हिन्दी अंग्रेजीमें होंघे। इसी सुअयसर पर अपने इष्ट मित्रों सहित पधारकर लाभ सुअवसर पर प्राचीन जैन हस्त लिखित पुरातन जैन सचित्र उठाइए। तथा सुवर्णाकित ग्रन्थों, और जैन कलाके पुरातन नमूनों,
थापका, जैन शिक्षा लेखोंमी प्रतिलिपियों श्रादिका सम्र हाउस नई
डॉ. एम. सी किशोर दिल्ली में एक प्रदर्शनीका प्रायोजन किया गया है। इसकी • मंत्री-विश्वशान्ति विधायक आयोजन दिल्ली
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ऋषभदेव और महादेव
जिम प्रकार जैनियोंके चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभ- धवलामें तीन गाथाए उद्धृत की हैं, जिनमें से देवका प्रथम स्थान है, उमी प्रकार हिन्दुओंमें भी दूसरीमें त्रिलोचनधारीके रूपमें और तीमरी में त्रिशूल. महादेवको आदिदेव माना गया है। ऋपभदेव और धारी महादेवके रूप में अरिहन्तांका स्मरण किया महादेवसे सम्बन्धित कुछ खास बातों पर विचार गया है। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार हैंकरते हैं तो ऐमा प्रतीत होता है कि मल में दानाको दलियमयणप्पयावा तिकालविसएहि तीहि ण यणहि । एक ही माननेक कुछ खास कारण इस प्रकार हैं- दिट्ठपयलठसारा सुदन्द्वतिउरा मुणिव्यहो ॥२॥
१-ऋपभदेवका चरण-चिन्ह बैल है और तिरयण तिसूल धारिय मोहंधासुर-कबंध विद्रहरा। महादेवका वाहन भी बल ही माना जाता है। सिद्धमयलप्परूवा अरिहंता दुरणय-कर्यता ।।३।
२-ऋपभदेवका निर्वागा कैलास पर्वतसे माना महादेव के विपयमें ऐ० प्रसिद्धि है कि उन्होंने जाता है और महादवको भी कैलासवासी ही कहा कामको भम्म किया था, वे तीन नत्रांक धारक थे जाता है।
और त्रिपुरामुरके तीनों नगगंको जलाया था। इन
माना जाता है और तीनों ही मान्यताओंको गाथाकारने अहिन्तक ऊपर ऋपभदेव भी रत्नत्रयधारक थे।
घटाया ह कि वस्तुनः उन्होंने ही कामकं प्रतापका उक्त तीन बड़ी समताकि होने पर भी अभी दलन किया है और उन्हांन ही जन्म - जरा-मरणतक कोई ऐसी मति नहीं उपलब्ध हो सकी थी. रूप या राग-द्वप-माहरूप तीन नगरांका भम्म किया जिससे कि उक्त मान्यताको प्रामाणिक माना जा है और उन्होंने ही अपने तीनों नेत्रांस तीनों कालासकता । अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे अपने बगीचक का सर्व बातांका साक्षात्कार किया है । महादेवक कंटीली झाड़ियों और वांभियान व्यान टीलकी विषयमें एक दूसरी प्रसिद्धि यह है कि उन्होंने खुदाई करते हुए एक एमी सुन्दर और प्राचीन मूर्ति त्रिशूलक द्वारा अन्धकासुरका बध किया था और उपलब्ध हई है, जिससे कि ऋषभदेव और महादेवक इसी बातक यातनाथ वे उसके कपालको धारण एक मानने में कोई मन्देह नहीं रह जाता है। मूर्ति करते हैं दुनरी गाथामें महादेवकै इमी म्पको देशी पापाग पर उकाग है जिनकी लन्याई २ फट गाथाकारने इस प्रकारसे वर्णन किया है कि रत्नत्रयऔर चौडाइ १।। फुट है। उनके मध्य में एक फुट रूप त्रिशूलको धारण करके जिन्होंने माहरूप अन्धऊँची ध्यान मद्रायुक्त पद्मामन मनि है । मनिक कासुरका शिर काट डाला है और जो दुर्न यो मिथ्यादाहिनी ओर एक त्रिशुल अंकित है, जिसकी ऊँचाई मतकि लिये कृतान्त-यम-स्वरूप हैं ऐसे आत्मस्वरूप मृतिके कानों तक है । वायीं और इतनी ही ऊँचाई के सिद्ध करनेवाले अरिहन्त होते हैं। पर दण्डके ऊपर एक नर-कपाल अवस्थित है। उक्त दोनों गाथाओंकी प्राचीनता इमासे मिद्ध मृनिके पादपीठके नीचे सामने की ओर मुख किए है कि वे धवलामें उद्धृत की गई हैं। इन गाथाओंसे हुप वेलका मुख अंकित है, जिसके ऊपर दोनों सींग पाठक सहजमें ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे कि दाई-बाई ओर जाकर अर्धचन्द्राकारमें अवस्थित प्राचीनकालमें अरिहन्त परमेष्ठीको ही महादवक हैं। इस चरण-चिन्हके दाई ओर श्रावक और बाई विभिन्न रूपकोंसे पूजा जाता था। ऊपर जिस उप
और श्राविकाकी अर्ध नमस्कार-मुद्रामें एक-एक मूनि लब्ध मूर्तिका जिक्र किया गया है, उसने तो गाथाबनी हुई है। मूनिके शिर परके बाल जटारूपमें ओंकी मान्यताको और भी पुष्ट कर दिया है। इस उत्कीर्ण किये गये हैं। देवगढ़में सहस्रों प्रतिमाएँ अवसर्पिणाकालके आदि अरिहन्त श्री ऋपभदेव ही जटाजूटसे युक्त आज भी उपलब्ध हैं । जटाजूटसे हैं, अतएव महादेवके रूपमें उनकी मान्यता सारे ऊपरका भाग टूटा हुआ है।
भारतवर्ष में प्राचीनकालसे चली आ रही है। अरिहन्तोंकी व्याख्या करते हए वीरसेनाचार्यने ।
-हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
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पंचाध्यायी के निर्माण में प्रेरक
( जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर' )
'पंचाध्यायी' जैन समाजका एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, fare मूल तथा टीकादिके साथ में अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके है। इसके कर्ता १७वीं शताब्दी के प्रमुख विद्वान् कवि राजमल्लजी हैं, यह मुनिर्णीत हो चुका है । कवि राजमल्लजी बनाए हुए दूसरे चार ग्रन्थ और भी उपलब्ध हैं, जिनके नाम हैं-१ जम्बूस्वामि चग्नि २ लाटी संहिता, ३ श्रध्यात्मकमल मार्तण्ड, और ४ छन्दोविया ( पिंगल ) । दूसरे सव उपलब्ध ग्रन्थ जब पूर्ण हैं तब पंचाध्यायी ही ऐसा ग्रन्थ है जो १९०६ पद्य में उपलब्ध होते हुए भी बहुत कुछ अधूरा है, वह पूर्ण नहीं हो सका और अपनेको निर्माणाधीन स्थिति में ही प्राप्त हुआ है । प्रथम दो ग्रन्थ क्रमशः श्रग्नबाल वंशी साहू टोडरकी तथा साहू फानकी प्रेरणाको पाकर उनके लिये लिखे गये हैं, छन्दोविद्या श्रीमालवंशी राजा भारमल्लके संकेतको पाकर उनके लिये लिग्बी गई है और अध्यात्मकमलमार्तण्ड स्वतः की प्रेरणाको लेकर प्रधानतः अपने लिये लिखा गया है । परन्तु पंचाध्यायीक रचनेमें श्राद्य प्रेरक कौन महानुभाव रहा है यह उपलब्ध एवं प्रकाशित ग्रन्थ-प्रतियों परसे अभी तक कुछ भी मालूम नहीं होता । इसीसे मैंने अध्यात्मकमल मार्तण्डकी प्रस्तावना पृष्ठ २८ में लिना था कि – 'पंचाध्यायी की रचना किसी व्यक्ति विशेषकी प्रार्थना पर अथवा किसी व्यक्ति विशेषको लक्ष्य में रखकर उसके निमित्त नहीं हुई । उसे ग्रन्थकार महोदय उस समयकी श्रावश्यकताओंको महसूस ( श्रनृत) करके और अपने अनुभवोंसे सर्वसाधारणको लाभान्वित करनेकी शुभ भावनाको लेकर स्वयं अपनी स्वतन्त्र रुचि लिया है और उसमें प्रधान कारण उनकी सर्वोपकारिणी वृद्धि है, जैसा कि मगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञां श्रनन्तर ग्रन्थ निमित्तको सूचित करनेवाले स्वयं कविके निम्न दो पद्यों प्रकट हैअत्रान्तरं गहेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः ।
तास्तथापि हेतु साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः ||५|| सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतु कामो वृपं हि सुगमोक्त्या । विज्ञप्ती तस्य कृते तत्राऽयमुपक्रमः श्रयान् ॥६॥
परन्तु बात सर्वथा ऐसी नहीं है, पंचाध्यायी जैसे महान् ग्रन्थके निर्माणको प्रारम्भ कराने में भी कोई श्राग्र
प्रेरक जरूर रहे हैं और वे हैं उक्त साहू टोडर सुपुत्र श्री ऋषभदामजी, जिनके नामांकित शुरूमें यह ग्रन्थ किया गया था और इसका नाम भी 'ऋषभदासोल्लास' रखा गया था। इसका पता गत भादों माममें व्यावरके 'श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन' का निरीक्षण करते हुए मुझे पंचाध्यायीकी एक प्रतिसे चला है। जिसका आथ भाग निम्न प्रकार है
“ऋषिसमुदयमनुदिव्या, वाणी नैकार्थगर्वि (भिं)ता यम्य प्रादुर्भवति विपंका तमहं वन्दे महावीरम ||१|| शेपानपि तीर्थकराननन्तसिद्धानहं नमामि समं । धर्माचार्याध्यापक माधुविशिष्टान मुनीश्वरान वन्दे ॥२॥ जीयाज्जैनं शासनमनादिनिधनं सुवंद्यमनवंद्यम । यदपि च कुमतारातीनदयं धूमध्वजोपमं दहति ||३|| ऋषभदासोल्लासाख्यं शास्त्र कसम ॥४॥ गुरुन पंच नमस्कृत्य कृतार्थः स कविः पुनः । अत्रान्तरं हेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः । तोम्तथापि हेतुः पुत्रः श्रीमाधोप्टोडरम्य वरः ॥५॥ नाम्ना श्रीऋपि (भ) दामःश्रोतु कामः सुधर्ममुगमोक्त्या विज्ञप्तौ तम्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान ॥६॥
इन मंगल- प्रतिज्ञात्मक छह पद्योंके बाद ग्रन्थप्रतिमें 'सति धर्मिणि धर्माणां' नामक ७वें पद्यसे लेकर 'इत्यादि यथासभव, नामक ७६८ पद्य तक का वह है जिसे मुद्रित प्रतियों में प्रथम अध्याय सूचित किया गया है और उसके अन्त में 'द्रव्य - सामान्य प्ररूपण' ऐसा लिखा है।
प्रस्तुत ग्रन्थप्रतिके उक्र छह पद्योंमें दूसरा और तीसरा ऐसे दो पद्य तो वे ही हैं जो पंचाध्यायीकी मुद्रित प्रतियों में उन्हीं नम्बरों पर पाये जाते हैं। शेष चारों पद्य थोड़ा बहुत बदलकर रखे गए हैं और वे मुद्रित प्रतियों में निम्न प्रकारसे पाये जाते हैं
'पंचाध्यायावयवं मम कतुन्थराजमात्मवशात ।
लोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम ॥ १ ॥ इति वन्दितपंचगुरुः कृत-मंगल-सत्क्रियः स एप पुनः । नाम्ना पंचाध्यायी प्रतिजानीते चिकीर्षितं शास्त्रम ॥४॥
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११४
अनेकान्त
[वर्ष १४
अत्रान्तरंगहेतुर्यद्यपि भावः कवेविशुद्धतरः। रखनेवाले अच्छे विद्वान् जान पड़ते हैं, और उनके बाद ग्रन्थहेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धि : ॥५॥ के तैयार अंशको देव-सुनकर बहुतसे सज्जनोंकी एषणा सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतकामो वर्ष हि सुगमोक्त्या। जागृत हो उठी हो। और उन्होंने कविजीको ग्रन्थमें और विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् । ६॥' भी अनेक धर्म-विषयोंको शामिल करके उसे विशाल रूप
इन चारों पद्योंकी प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रतिके इन्हीं नम्बरवाले देनेकी प्रेरणा की हो। उसीके फलस्वरूप कवि राजमल्लजीपद्योंके साथ तुलना करने पर मालूम होता है कि प्रथम को ग्रन्थके इन चारों पद्योंमें उक्त फेर-फार करना पड़ा हो पद्यमें 'महावीरं' और 'तं पदोंको छोड़कर शेष सब पद और छठे पद्यमें जहां पहले यह सूचना की गई थी कि बदल कर रक्खे गये हैं। चौथा पद्य भी पंच गुरुओंको 'ऋषभदास सद्धर्मको सुगमोकियोंके द्वारा सुनना चाहता है, नमस्कार तथा 'पुनः' और 'शास्त्र' जैसे दो एक शब्दोंको उसीके लिए ग्रन्थ-रचनाका यह सब प्रयत्न है, वहां यह छोड़कर प्रायः सारा ही बदलकर रक्खा गया है। श्वें पद्यके सूचित करना पड़ा है कि 'सारा ही जीवलोक धर्मको सुगमोतीन चरण दोनोंमें समान हैं केवल चौथा चरण बदला नियोंके द्वारा मुनना चाहता है, उसीके लिए ग्रन्थ-रचनाका हुआ है। छठे पद्यका प्रथम चरण बदला हुआ है और शेष यह सब प्रयन्न है। साथ ही चौथे पद्यमें ग्रन्थका नाम तीन चरण ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।
'ऋषभदासोल्लास' के स्थान पर 'पंचाध्यायी' घोषित करना दोनों प्रतियोंकी इस पारस्परिक तुलना एवं पाठभेदों पड़ा हो और उसे प्रथम पद्यमें 'ग्रन्थराज' विशेषण भी देना परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रारम्भ साहू पड़ा हो । कुछ भी हो, इसमें पन्देह नहीं कि प्रस्तुत ग्रन्थटोडरक सुपुत्र ऋषभदासकी प्रेरणाको पाकर हुश्रा है, वही रचनाका सूत्र-पात उन साहू श्री ऋषभदासजीकी प्रेरणाको ग्रन्थर-चनामें अन्तरंग हेतुका हेतु बना है, उसीके नाम पर पाकर हुआ है जो साहू टोडरके सुपुत्र थे और जिनका नामोल्लेख प्रथमतः इस ग्रन्थका नाम 'ऋषभदासोल्लाम' रक्खा गया जम्यूम्बामिचरितकी प्रशस्तिमें भी पाया जाता है। प्रशिस्तमें है और सम्भवतः ७६८ पद्योंका यह प्रथम प्रकरण उसीको साहू टाडरका व
सही साहू टोडरकी वंशपरम्पराका वर्णन है, उन्हें गर्गगोत्री अग्रवाल लिखकर दिया गया है । बादको किसी कारण-कलाप अथवा
तथा भटानिया कोलका निवासी बतलाया है, उनकी भार्याका परिस्थितियांक वश ग्रन्थको और भी विशाल रूप देनेका नाम 'कसू मा प्रकट किया है जो उन साह ऋषभदाय विचार उन्पन्न हुआ है, इसीसे मुद्रित पाठवाली ग्रन्थप्रतियों में तथा उनक दा लघु नाता।
mins तथा उनके दो लघु भ्राता मोहनदास , और रूपमांउसे 'ग्रंथराज' सूचित किया गया है और उसका नामकरण गदकी माता थी। इससे ग्रन्थ-रचनामें प्राय प्रेरक साह भी 'पंचाध्यायी' किया गया है। साथ ही अन्तरंग हेतुक ऋषभदासजोका कितना ही परिचय मिल जाता है। हेनुरूपमें श्री ऋपभदासकी जगह अपनी ही साध्वी सर्वोप- पंचाध्यायीके निर्माणको ऐसी स्थितिमें उसकी दूसरी कारणी बुद्धिको स्थान दिया गया है । हो सकता है कि हस्तलिखित प्रतियोंको भी टटोला जाना चाहिए, सम्भव है इस बीचमें ऋषभदासजीका देहावसान हो गया हो, जो कि उनमेंसे किसीमें और भी कोई विशेष बात जाननेको मिल ऐसे गृढ तथा गम्भीर तत्वज्ञानके विषयमें रुचि एवं उल्लास जाय ।
ता० १३.११-१९५६ अनेकान्त के उपहार में समयसार टीका अनेकान्त के प्रेमी पाठकों को यह जानकर हर्ष होगा कि हमें बाबू जिनेन्द्रकुमार जी मंत्री निजानन्द ग्रन्थमाला सहारनपुर की ओरसे स्वामो कर्मानन्द जी कृत समयसार टोका की १५० प्रतियां अनेकान्त के उन ग्राहकों को देने के लिये प्राप्त हुई हैं जो ग्राहक महानुभाव अपना वार्षिक चन्दा ६ रुपया और उपहारी पोष्टेज १) रु० कुल ७) रुपया मनी आर्डर से सबसे पहले भेज देंगे उन्हें समयसार की टीका रजिष्टरी से भेज दी जावेगी। प्रतियाँ थोड़ी हैं इस लिये ग्राहक महानुभावों की जन्दी करनी चाहिये। मैनेजर अनेकान्त, वीर सेवा-मन्दिर २१ परियागंज दिल्ली
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जैन ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
पत्ता-अरियण तामर सायर सुहमण,
जण जाणिय जिणमइ जुवइ तासु । सायर दोसायर णायर तिलया।
ताहं गय सत्त पमुक्क तासु । वणि जिणयत्त कहतरु पुण्ण णिरंतर
पढमउ अल्हणु सुहि सरय सूरु, कह घिरइज्जह गुणणिलया ॥४॥
परिवार-गरह-परमास-पूरु ।
पवयण वयणामय-पाण-पोटु, णिक्कलंकु अकलंकु चउमुहो,
अवमेय महामह-दलिय,दुर्छ । कालियासु सिरिहरि सुकइ सुहो।
जिणवणचण-पूयण-सयत्तु, वय विलासु कइवासु असरिसु
अहिणाणि य णिहिल विणाय वित्त । दाणु वाणु ईसाणु सहरिसो।
मिच्छत्त चिय गच्चइल्लु, पुफ्फयंतु सुसयंभु भल्लयो,
गंभीर परम णिम्मय मइल्लु । बालमीउ मम्मई रसिल्लो ।
किल्लिल्ल-वल्लि शिल्लूर-णिल्लु, इह कईउ भीम इण दिदिया,
भायर सुउ लावण णेह-गिल्लु । फुरइ केम महो मह वरिठ्यिा ।
परिवार-भार-उद्धरण-धीरु, धाउलिंग गुण णउ गुण ण कारो,
जिण-गंथ-वारि-पावण-सरीरु। कम्मु करणु ण समासु सारो।
पवहिय-तियाल-बंदण-विसुद्धि, पय समिति किरिया विसेसया,
सुख सत्थभाव-भावण श्रमुद्धि । संधि छंदु वायरण भामया।
बहु-सेवय-पर-मिर-घट्ट-पाय, देष भाम लवणु ण तक्कयो,
वंदीयण दीणह दिण्ण चाय | मुर्णाम णेव श्रायहि गुरुक्कयो।
भायणिहि पयोपिय सूरिबंदु, महाधवलु जयववलु यदिट्ठो,
सउलामर-बह-कय चंदु-बंदु ? ण उर वप्प पयमिइ वरिटी । तह ण दिछ मिन्द्धन पाय............, तहोसोहणहो रसाल हो भ'यपराल हो कलकणिहत्य सहोयर
छवि महामह सोहण रिउबल मोहण गुणराहणविहियायर
गाहलु साहुलु माहण मइल्लु, इय जिणयत्तचरित्ने धम्मस्थ-काम-मोक्षवण्या गुब्भाव
तह ग्यणु मयणु सतणु जि छहल्ल । सुपवित्त सगुणमिरिमाहुलमुउ-लक्खण-विरहए भवसि
छहमहि भायर अल्हणाह भत्त, रिहरस्पणामंकिए जिणयत्तकुमारुप्पत्ति-वण्णणो णाम पढमो
छहमवि ताहा माणासत्त चिन । परिच्छेश्रो समत्तो ॥ संधि ॥
छहमवि ताहर पय पयरुह-हुरेह, अन्तिम भाग:
छहमाह मयणोवम-कामदेह । इह होतउ श्रासि विमाल बुद्धि,
साहु लहु सुपिय पिय यम मणुज्ज, पुज्जिय जिणवर ति-रयण विसुद्धि ।
वामंज्जय ताकय णिलय कज । जायस रहवंस उवयरण सिंधु,
ताह जि णंदणु लक्खणु सलक्लु, गुण गरुवाभल माणिक्क सिंधु ।
लक्खण-लक्खिउ-सयदल-दलक्खु । जायव परणाहहो कोसवालु,
विलसिय-विलास-रस-गलिय-गम्ब, जम्मरम मुद्दिय विक्चक्कवातु ।
ते तिहुअणगिरि शिवसंति सम्व । जसवालु तासु सुर मइ परालु,
सो तिहुवरि भग्गउ उज्जवेण, लाहाबव्हड लहलक्ख रातु।
वित्तउ बलेण मिच्छाहिवेण ।
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अनेकान्त
[ वर्ष १४
इण्हं चरितु जो को वि भन्छु, परिपढइ पढावइ गलिय-गब्दु । जो लिहइ लिहावइ परमु मुणइ, संभावह दावह कहइ सुणइ । जो दह दिवावह मुणिवराह, जह तह सम्म पंडिय पराह। सो चक्कट्टि पर प्राइ करिवि, पालिवि सरकत्तण लच्छि धरिति । अणुहुँज्जिवि संसारिय-सुहाइ, सवह दिव्बइ पयलिय-दुहाइ । उन्नहियाहिल सुहरस-पयासि,
पच्छइ गच्छइ णिवुइ णिवासि । धत्ताबारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कम कालवि इत्तउ । पढम पक्खि रविवारइ छठि सहारइ पूस मासे सम्मत्तउ ॥
लक्खणु सव्वाउ समाणु साउ, विन्थायउ विहिणा जणिय-राउ । सो इत्थ तत्थ हिंडंतु पत्तु, पुरे विल्लराम लक्खणु सु-पत्तु । मणहरु जिणहर तणुरुह पवित्तु । ते णिज्जिउ सिरिहरु परम मित्तु । विरदा णंदणु सम्माण घणउ, लक्खण हो समउ सो करइ पणउ । तहे जि मणेहु णिभरु महंतु, दिण दिण तं अइसय बुद्धि जंतु । भवए पवुठा मेहुणीक, अमराल-वारि पोमिय- मरीरु। जं एयारह मए मामि फारु, णिवडइ णहाफ उ णिम्भमत्त मारु। स्वर-कय पयंड-बम्हंड-पुरु, जं ट्ठिा गिट्ठरु तवइ सूरु । सुवणहो सुवणेसहु णाहु जजि,
चिरु वट्टइ भोकह चित्त तंजि । चत्ताजह अहिणव घण दंसणे ताव विहंसणे चंद कवडगं हुल्लियइ सिरिहरुसिरिसाहारउरय-परिहारउलक्खणणाणहर सुल्लियइ
णवरेक्कदिणम्मि महाणुभाउ, श्राभन्थि विल्लहो पत्थ-पाउ । पमणिउ भो बंधव अइ पवित्त , विरइबउ जिणयत्तहो चरित्त । तहो वयणे मई विरइउ सबोज्ज, बणिणाहो ववसायउ मणोज । पद्धडिया बंधं पायडन्थ, प्राइहि जाणिज्जसु सुप्पसत्थु । मयलइ पद्धडिया एइ हुँति, सत्तरि णवज्जु दस य दुरिण संतु। एयइ गंथइ सहसइ चयारि, परिमाण मुणिहु अक्खर वियारि । हउ.."रक्वरु खलिय लज, ण वियाणमि हेयाहेय-कज्ज । पय-बंध णिबंधु ण मुणमि किंपि, मह-विरइड संपइ चरित तंपि ।
सम्महसण णाण णिक मम्मच्चरिय विमालु । तं स्यणतउ मिरिहरहो अहिरक्वउ चिरकालु ॥
-आमेर भंडार प्रति. सं० १६१ १४ सुलोयणाचरिउ (सुलोचनाचरित)
गर्माणदेवसेन आदिभागवय-पंच-तिबम्ब-णहरो पचयण-माया-सुदीह-जीहालो । चारित्त-केमरड्ढो जिणवर-पंचाणणो जयऊ ॥१॥ तिहवण-कमल-दिणेसु पिण्णामिय-घण तिमिर-भर । पडिमि चरिउ पसत्थु पणविवि रिसह-जिणेसरु ॥२॥
शिवमम्मलहो पुरि णिवमते, चारुट्ठाणं गुणगणवतें। गणिणा देवसणमुणिपवरे, भवियण-कमल-पवोहण-सूरें। जाणिय धम्माहम्म-विसेसें, विमलसेण मलहारिहि सीसे । मणि चिंतिउ किं सत्यम्भासें, णिफलेण णिरु वयणायासें । जन्य ण धम्म-जुत्त रंजिय सह, विरइज्जइ पसत्य-सुदर कह ।
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किरण ३-४ ]
एस विय पाच गुण वि चमक्किउ,
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चिरु कइ कन्वहं चिति विसंकिउ । जहिं वम्मीय वास सिरि हरिसहिं, कालियास पमुहहि कइ सरिसहि । वाण- मयूर-हलिय-गोविदहिं, मुहरु सयंभु कइंदहिं । पुप्फन - भूपाल - पहाणहिं, श्रवरेमि बहु सत्य वियाहि । विरईया कचइ णिसुप्पिणु, श्रम्हारिसह ग रंजइ बुहयणु । ६ तह विधिट्ठत्त पयासमि, सत्थ रहिउ अप्पर श्रायासमि । घत्ता - जइ सुरवइ करिमत्त, तो किं अवरु महन्वउ । जह दु दहि सुरुसह तो कि तूर म वज्जड ॥ ३ ॥ जह श्रायामं विणयासुउ गउ, तो किं श्रवरु म जाउ विहंगउ । जइ सुरधेणुय जणयादिणि, तो किं अवर गदिणि । दुज्झइ जइ कप्पर, मु फलइ मणोहरु, तो किं फलउ याहि श्रवरु वि तरु ।
जइ पत्रहइ सुर-परि मंथर गइ, तो कि अवर नाहि पवहउ गइ । जद्द कह पवरहि रहयइ कब्बई, सुदरई वहिमि उब्वइ ।
हमि किपि नियम शुरू, fare विलग्गउ काई बहुवे । जइ वि ए लक्खणु छंदु वियाणमि, श्रवर निघंटु याहि परियाणमि ।
णालंकारु कवि श्रवलोइड, वि पुराण-प्रायमु- मणु ढोयउ ।
महं पारंभिय तो वि जडते, चरक जिधम्महो अणुरतं ।
जैन ग्रन्थ- प्रशस्ति-संग्रह
पिसुत सुंदर मह दृसह, ही यि सुग्रण पोसह । धत्ता -- श्रह किं पच्छमि एहु, अन्भन्थि रोसालयो । जिम दुद्ध इंगालु, धोय धोयड कालभो ॥४॥
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किं करइ पिसु संगहिय पाउ, घुड महु सरसइ जोहग्ग थाउ । छुडीहरंतु सुदर पयाई. ललियाई बद्ध भासा - गयाई । गय-विरोहु संत प्रत्थु
ड होउ व सुंदरुपसत्धु । श्रायण्णहो बहुविहु-भय-भरिउ, हउ कद्दमि चिराणउ चारु चरिउ । वइयरेंहि त्रिचित्तु सुलोयणाहं, वि पुत्तहो मयणुक्कोवणाहें । वयवंति हिय मिच्छत्तियाहें, वर - दिढ सम्मत- पतियाहें । जगाद्दा- बंधे श्रासि उत्त सिरि कुकुंद - गणिण रुित्त । तं वहि पद्धडियहिं करेमि, परि कि पिन गूढउत्थु दमि । नेवि कवि उ संखा लहंति, जे अत्थु देखि साहिं घि (खि) वंति । बत्ता - कहियं जेय असंसु मिच्छत्ताउ प्रोहहह । श्रवरु वि बहुत्तव पाउ, तं जीवासिउ तुदृद्द ॥ ६॥
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[ ११७
इय सुलोयणाचरिए महाकच्वे महापुराणे दिट्ठिए गणि देवसेण विरइए पढमा परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥ १ ॥
चरमभागः
ias सुहरु जिदिहो सासगु, जय सुहयरु भव्वयण सामगु । दउ पयजें धम्मु पयामिउ, पाउ जेण सन्धु उवएसिउ । माहु-वग्ग - रयणत्तय धारउ, गंदर मात्र वय-गुण धारउ । दागु देह इंदिय बल - उमर, वेज्जाव करेउ मुणि-पवरहं ।
दारवइ सह परिवारें, पालिए शिरु यियायारं । दउ पय-पय मुच्च पात्रे, रंजिज्जउ जिण धम्म- पहावें । वीर से-जिरसेगा परियह, प्रायम-भाव-भय- बहु-भरियः ।
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११८] अनेकान्त
[वर्ष १४ तह संताणि समायउ मुणिवरु,
देवसेण पामें मुणि गणहरु, होट्टल मुत्त' णाम बहुगुणधरु ।
विरयउ एउ कन्वु ते मणहरु । रावणु व बहुसीस-परिग्गहु,
अमुणतेण किं पि हीणाहिउ, सयलायम-मुत्तउ अपरिग्गहु ।
सुत्त-विरुखूड काइमि साहिउ । गंडविमुत्तु २ सोसु तहो केरउ,
सयलुवि खमउ देइ-वाएपरि, रामभद्द णामें तब सारउ ।
तिहुयण-जण-वंदिय-परमेसरि । चालुक्क्रियवंसहो तिलउल्लउ,
फुड बुहयगु सोहेप्पिणु भल्लउ, होतउ परवइ चाएं भल्लउ ।
तं करंत सुय-देइ-णवल्लउ । तिणमित्र मुयवि रज्जु दिक्खंकिङ,
रक्खस-संवच्छर बुह-दिवसए, तिरयण रयणाहरणालंकिउ ।
सुक्क-चउद्दसि सावण-मासए। जायउ तासु सीसु संजम-धरु,
चरिउ सुलोयणाहि हिप्पण्णउ, पिवडिदे उणामु णिह णियसरु ।
सह-अत्थ-वएणण-संपुण्णउ । तासु सीसु एक्को जि संजायउ,
पत्ता-वि महं कवित्त-गन्वेण किउ अवरु केण णवि लाहें । णिहणिय-पंचेदिय-सुह-रायउ ।
किड जिणधम्महो अणुरत्तएण मण-कय-परमुच्छाहे ॥१॥ सोल-गुणोहर गुण रयणायरु,
आमेर भंडार प्रति सं० १५६० उचसम-खम-संजम-जल-सायरु ।
(दिल्ली पंचायती मंदिरकी खंडित प्रतिसे संशोधित) मोह-महल्ल-मल्ल-तरु-गयवरु, भवियण-कुमुयखंडु-वण-ससहरु ।
१५-पज्जुण्ण परियं (प्रद्युम्नचरित) सिद्ध या सिंहकविकृतं । तवसिरि-रामालिंगिय-विग्गहु,
आदिभागः-- १ धारिय-पंचायारु-परिग्गहु।
खम-दम-जम-णिलयहो ति-हुअण-तिलय हो पंच-समिदि-गुत्तिय-तय-रिद्धउ,
विलिय-कम्म-कलंकहो। गुणिगण-वंदिउ भुवण-पसिद्ध ।
थुइ करमि स सत्तिए अइणिरुभत्तिए मयरद्धय-पर-पसर-णिवारउ,
हरिकुल-गयण-ससंकहो॥ दुद्धर-पचमहब्वय-धारउ।
पणवेप्पिणु णेमि-जिणेमरहो भन्बयण-कमल-सरणेसरहो। सिरि मलधारिदेव पणिज्जइ,
भव-तरु-उम्मूलण-धारणहो कुसुम-सर-विणिवारणहो । णामें विमलसेणु जाणिज्जा ।
कम्मट्ठ-विवक्ख-पहंजणहो मय-धण-पवहंत पहंजणहो । तासु सीसु णिज्जिय-मयगुब्भउ,
भुवणत्तय-पयडिय-सासणहो छष्भेयजीव प्रासासणहो । गुरु उवए णिवाहिय-तउ ।
हिरवेक्वणिमोह णिरंजण हो सिव-सिरि-पुरंधि-मणरंजणहो। कलह धम्मु परिपालइ संजमु,
पर-समय-भणिय-णय-सय-महहो कम-कमल-जुयल-णयभविय-कमल-रवि-पिण्णासिय-तमु ,
सम-महहो॥ सत्थ-परिग्गहु-णिहय-कुसीलउ,
महसेसिय-दंसिय-सुप्पहहो मरगय-मणि-गण-करसुप्पहहो । धम्म-कहाए पहावण-सीलउ ।
माणावमाण-समभावणहो अणवरय-णमंसिय-भावणहो
भयवंत हो सतहो पावणहो सासय-सुह संपय-पावणहो । उवमम णिलउ चरिय-रयणत्तर,
घत्तासोम्मु सुयणु जिण-गुण अणुरत्तउ ।
भुवणत्तय-सारहो णिज्जिय-मारहो अवहेरिय-घर दंदहो । १. द प्रती 'पुत्त' इति पाठः, २. द प्रतौ 'गंडइपुत्त उज्जयंत गिरि-सिद्धहोणाण-समिद्धहो दय-वेल्लिहिइति पाठः । ३. अप्रतौ 'विज्जहु' पाठः।
कलकदहो।
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किरण ३-४]
मैन-ग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह
[११६
हय दुरिय रिणं, तइलोयाइणं ।
माहवचंद आसि सुपसिद्ध भव-भय-हरण', णिज्जिय करणं ।
जो खम-दम-जम-णियम समिङ । सुइफलकुरुहं, चंदिषि अरुहं ।
तासु सीसु तव-तेय-दिवायर पुण सत्थमई, कलहंसगई।
बय-तव-शियम-सील-ग्यशायरु । वरवर पया, मणि परिवि सया।
तक-लहरि-झकोलिय परमड फ्य-पाणसुहा, तोसिय विबुहा ।
बर-बायरण-पवर-पसरिय-पड सम्वंगिणिया, बहुभंगिणिया।
जासु भुवण दूरंतर किवि पुच्चाहरणा, सुविसुदमणा ।
ठिड पच्छएणु मयणु आमंकिवि मुय-वर-वयणी, एय-गुण-णयणी ॥
अभयचदु ग्णामेण भडारउ कइयणजणणी, तं दुह-हणणी ।
सो विहरंतु पत्तु बुह-सारउ । मेहाजणणी, सुह-सुय-करणी।
सस्सिर-णंदण-वण-मच्छण्णउ घर-पुर-पवरे, गामे परे।
मठ-विहार-जिणभवण रवण्णउ । जिउ विउससहे सुह-झाणवहे।
वम्हण वाडर णामें पहणु
अरि-गरणाह-सेण-दल वहणु । सरसइ सु-सरा, महु होउ वरा।
जो भुजा परिण खय कालही इम वज्जरइ, फुडु सिद्धकई ।
रण-धोरिय हो सुग्रहो बल्लालहो। हय-चोर भए, णिसि भवियगए।
जासु भिच्चु दुजणु-मण-सल्लग्गु पहरिबूट्रिप, चित्त'तु-हिए ॥
खत्तिड गुहिल उत्तु जहिं भुल्लणु । पत्ता: -
तहिं सपत्त मुणीसरु जावहिं जासुत्तउ अथइ तातहिं पेच्छइ णारिएक्क मणहारिणिया ।
भव्वुलोउ पाणंदिड तावहिं। सियवाणयस्थिय कंजय हत्थि य अक्खमुत्ससुयधारिणिया ।। पत्ता
.णियगुण अपसंसिवि मुणिहि णमंसिवि जो लोएहिं अदुगंछियउ सा चवेइ सिविणं तितक्खणे, काइंसिद्ध चिंतयहि णियमणे। " तं सुणेवि कइ सिद्ध जंएए, महमज्झणिरु हियउ कंपए।
गय-विय-समिद्ध पुणु कइ सिद्धं सो जइबरु पाउंछियउ॥३॥
या कम्वुबुद्धिचित्त'तु लज्जिओ, तक्क छंद-लक्खण-विवज्जिनो।
पुण पंपाइय-देवण-णंदणु,
भवियण जणमण-णयणाणंदणु । ण वि समासु ण विहत्ति कारओ, संधि-सुत्त गंधहं प्रसारमो
बुहयण-जणपय-पंकय छप्पड, कन्वु कोइ ण कयावि दिनो, मह णिघंटु केणवि णु सिहो।
भणइ सिद्ध पणमिउ परमप्पर । तेण वहणि चितंतु अत्यमि,
विउल गिरिहि जिह हय भवकंदहो, खुजहो वि ताल हलु बंमि ।
समवसरणु सिरिवीरजिणिंदहो। अंधहो वि णवण पिच्छिरो,
गर-वर खयरामर समवाए. गेय मुणणि बहिरो वि इच्छिरो।
गणहरु पुच्छिउ सेणियराए। नं सुणेवि जाजय महासुई,
मयरद्धयहो विणिज्जिय मारहो, णिसुणि सिद्ध जंपइ सरासई।
कहहि चरिउ पज्जुएणकुमारहो,
तं णिमुणेवि भणइ गणेसरु, आलसु संक्किल्लहि हियउ ममेल्लहिं मज्मु वयणु इयदिहु करहि
णिसुणह सेणिय मगह-गरसरु । हउँ मुणिवरवंसें कहमि विसेमें, कन्तु किंपि तं सुहं करहिं ॥३ ता मलधारि देउ मुगि-पु गमु
इय पज्जुणकहाए पडिय-धम्मत्थ-काम-मोक्खाए कइएं पच्चक्ख धम्मु उपसमु दमु ।
सिद्ध-बिरड्याए पढमो संधी परिसमचो ॥१॥
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१२०]
अनेकान्त
[वर्ष १४
अन्तिम प्रशस्ति
कह सीहु ताहि गम्भतरंमि कृतं कल्मष-वृत्तस्य शास्त्रं शस्त्रं सुधीमता
संभविउ कमलु जह सुर-सरंमि । सिंहेन सिंहभूतेन पाप-सामज-भंजन ॥१
जण वच्छलु सज्जए-णिय हरिसु काम्यस्य काम्यं कमनीयवृत्त वृत्त कृतं कीर्तिमतां कवीनां ।
सुइवंतु तिविह वह-राय सरिसु ।
उप्पएणु सहोयरु तासु अवर भव्येन सिंहेन कवित्वभाजा लाभाय तस्यात्र सदैव कीर्तिः २॥
नामेण सुहंकर गुणहं पवरु। सम्बाहु सम्बदसी भव-वण-दहणो सम्व मारस्स मारो।
साहारण लघु व तामु जाउ सवाणं भव्वयाणं सवणमणहरो सन्वलोयाण सामी ।
धम्माणुरत्तु अइ दिन्चकाउ। सब्वेसि बच्छरूवं पयडण-कुसलो सम्वणाणावलोई,
तहु अणु व मह एउ पि सु-सारु सम्वेसि भूययाणं करुण विरयणो सवाल जो सो ॥३
मंविणोड विण कुसुम सरधारू ? जं देवं देव देवं अइसयसहिदं अंगदाराणिहतं,
जावच्छहि चत्तारि दि सुभाय सुद्ध' सिद्धी हरन्थं कलि-मल-रहितं भग्व भावाणु मुक्कं ।
पर उवयारिय जण जणि यराय । गाणायार प्रणंतं वसुगुण गाणणं अंसहीणं सुणिच्चं ।
एकहिं दिणि गुरुणा भणद वस्थ अम्हाणं तं श्रणिंद पविमल-सहिदं दंड संसार-पारं ॥४
णिसुाह छप्पय कइ राय दच्छ । णादं मोहाणुबंध सारुह-णिलए किं तवत्थं अणन्थं,
भो बाल-सरासह गुण-समोह संतं संदेहयारं विबुह-विरमणं खिज्ज देदीययाणं ।
किं अविणोयइं दिण गहि सीह । वाए सीए पवित्त विजयदु भुवणे कन्वु-वित्त विचित्त',
चउविह-पुरिसत्थ-रंसोह-भरिउ दिज्जतं जं अणं वियरदि सुइरं णाणालाहं विदितं ॥५
णिवाहि एउ पज्जुण्णचरिउ ।
कह सिद्धहो विरयंतहो विणासु पत्ता
संपत्त कम्मवसेण तासु । जं इह होणाहिउ काइमि साहिउ अमुणिय सत्य-परंपरइं।
महु वयणु करहि किं तुव गुणण तं खमउ भडारी निहुवण-पारी वाएर सच्चायरई॥
रतेण हूय छाया समेण। दुवई-जा णिरु मत्तभंगि जिण बयण
धत्ताविणिग्गय दुह विणासणी ।
किं तेण पहूवह चउ धणइं जं विहलिय हंण उ वयरइ होउ पसरण मञ्झ सुहयरि,
कन्वेण तेण किं कइयणहो ज ण छइल्ह मणु हरई । इयरण-कुमइ-णामणी ॥
गुणा पुणो पउत्त' पवियप्पं धरम पुत्त मा चित्त । पर वाइय-वाया-हरुश्र-छम्म,
गुणिण गुणं लहेविणु जइ लोगो दूसणं थवइ ॥१ सुयकेवलि जो पच्चक्षु धम्मु ।
को वारइ सविसेसं खुदो खुदृत्तणं पि विरयतो । सो जयउ महामुणि अभियचंदु,
मुवणो छुडु मब्भत्थो अमुवंतो णियसहावं वा ॥२ जो भव णिवह कहरवहं चंदु । मलधारिदेव पय पोम-भसलु,
संभव-इव हुन विग्धं मुण (मणु १) याणं सेयमग्गे लगाणं । जंगम सरमइ सन्वत्थ कुमलु ।
मा होहि कज्ज सिढिलो विरयहि कन्वं तुरंतो वि ॥३ तह पय-रउ णिरु उण्णय अमइयमागु सुह असुहंण वियप्पहि चित्त धीरे वि तेजए वण्णा । गुज्जर-कुल-गह उज्जोय-भाणु ।
परकज्ज परकव्वं विहडतं जेहि उद्धरियं ॥४ जो उहय पवर वाणी विलासु
अमिय मयंद गुरूणं पाएसं लहेवि झत्ति इय कम्वं । एवं विह विउसहो रल्हणासु ।
णियमहणा हिम्मवियं णंदड ससि दिणमणी जाम ॥५ तही पणइणि जिणमइ सुहमसील
को लेक्खा सत्यम्में दुज्जीह दुजणं पित्र सुहया । सम्मत्तवंत ण धम्मसील ।
मुवर्ण सुद्ध सहावं कर-मडलि रइवि पच्छामि ॥६
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किरण ३-४]
जैन-प्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह
[१२१
जं कि पि हीण-अहियं विउमा मोहतु पि इयकन्ने । सुकवित्त-करणे मणे बद्धगाहु, निसिसमहवियप्पा एव साहु । घिद्वत्तणेण रइयं खमंतु सव्वंपि महु गुरुणो ॥७॥ जाणियय नमई कालक्खराई, न सुबउ बायरएउ सवि. राई। यत्वाच्यं चतुराननाजनिरतं सत्पद्यतामत्वकं ।
पय छेउ सधि-विग्गहु-समासु,मणि फुरइ न एक्कवि मइ-पयासु स्वैर भ्राम्यति भृमिभागारिवल कुनि बलशं क्षणात ।
छंदालंकारु न बुज्झिमड, निग्धंटु तबकु दूरझियउ । तेनेदं प्रकृन चरेत्रमसमं सिद्धन नाम्ना पर,
नवि भरहु सब्बु बक्खाणियउ,महकइ किउ कम्वु न जाणियउ प्रद्युम्नम्य सुतस्य कर्ण सुखदं श्रीपूर्व देवद्विषः ॥
सामग्गि न एक्क वि मज्मु पासि, उत्तरमि केव महबु रासि । आमेर प्रति मं० १९७७ से और फरुखनगर प्रति
माहिय सह माहुविसरण मम् . इय रित्तवंत थिउ एक्कु स्वणु सं० १५५० से)
कलहंसगमण मसिबिंब-धयण , विलुलंत-हार-सयचत्त-नयण । १६ पामणाहचरिउ (पार्श्वनाथचरित) कवि देवदत्त आदिभाग-:
सिरिपासनाह-चरिए चउवग्गफले भवियजण-मणाणंदे मुणिदेवचडवीमचि जिणवर दिट्टपरंपर, वंदवि मृढडिटि रहिउ । यंदरइए महाकव्वे विजया मंधी ।। वर-चरिउणिदहो पामजिणिहो णिसुणि उजउ वईयरमहिउ॥ अन्तिभाग.वंदवि जिणनोयालाय जाण,
दुवई- देसिय गच्छि मीलगुणा गणहरु, अत्तीद-अणागय-बमाण ।
भविय सरोजनेमरो। पुग्णु सिद्ध श्रणंत महाजमंस ,
श्रास सुयंबु गमि अवगाहणु, जो मोक्ख-महासरि-रायहंसु ।
सिरि मिरिकित्ति मुणिवरो। श्राइरिश मुअंबुहि-पारु-पन ,
तहो परम मुणिंदहो भुवण भामि, सिद्धबहु कडमविणिहिय विचित्त ।
संजाउ सीम तब-तेय-रासि । उज्झाय परम-पवयण पवीण,
नामेण पसिद्धउ देवकित्ति, बहु-मीम मुनिम्मल-धम्म-लीण। पुणु माहु महत्यय-बूढ-भार, बावीस-परीसह-तरु-कुठार ।
तहो सीसु तवेण अमेयनेड, पंचवि परमेटि महामहल्ल,
गुणनाउ जासु जगि मउनिदेउ । पनि निम्मच्छर-मोह-मल्ल ।
गिग्वाण-वाणि गंगा-पवाहु, पंचमि कहिउ दयधम्मु साह,
परिचत्त-सगु तवसिरि-सणाहु । पंचहमि पयासिउ-लोय-चारु ।
तहो माहवचंदहो पाय-भत्तु, पंचहमि न इच्छित दुविहु मंगु,
प्रासीह सुयायरु सीस चुत् । पंचहमि निराउहु किउणगु ।
निम्माहिय-वय-भर अभयणंदि, पंचहमि भग्गु-इंदिय-मडप्यु,
निय-नाउ लिहाविउ जेण चंदि । चहिं किउ-शिविसु-विसय-सप्पु ।
इस दुसम-कालि कुंकण बलेण, पंचवि परिकलिय-असेस-विज्ज,
डोल्लंत धम्मु थिरु-कयउ जेण । पंचवि निय-निय-गुण-गण-सहिज्ज ।
ते दिक्खिउ वासषचंद सरि, पंचहमि कलिउ णाणई समग्गु,
में निहिउ कसाय-चउक्कु-चूरि। पंचहमि पयासिड मोक्ख-मग्गु ।
भवियण-जब-नयमाणंदिराई, घत्ता
उद्धरियई जे जिण-मंदिराह। पंचवि गुरुवंदवि मणिअहिणंदवि जिणमंदिरे मुणि अग्रह।
तहो सीसु जाट मुणि देवचंद, पपत्य-मणोहरे अकाषर-संबरे सुकवित्तहो मएड गच्छद ॥१॥
अविलंब वाणिकर कुमुअयंदु ।
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अनेकान्त
[ वर्ष १४
१२२]
स्यणत्तय-भूसणु गुण-निहाणु,
अण्ण मणई रसमोहिय चित्तई। अण्णाण-तिमिर पसरत-भागु ।
लक्खण-छद-रहिउ हीणाहिउ, गुदिज नयरि जिण पासहम्मि,
न मुणंतेण एस्थ किर साहिउ । निव संतु संतु संजणिय सम्मि ।
तं महुँ खमहु विछह-चिंतामणि, अह अज नियवि पासहो चरित्त,
सत्त भंगि नय-पवर-पयासणि । अब्भत्थि वि मविय जणेहि वुत्त ।
जांतह लोयसिहर-पुरवासहो, छंदालंकार-ललिय पयत्यु,
कमठ-महासुर-दप्प-विणासहो। पुणु पासचरिउ करि पायडत्थु ।
चउ-भासामय-सावण-चंदहो,
अइसयवंतहो पास-जिणंदहो । तहिं गुण गणहरि गोंदिज पुरवरि णिवसंतह पासहो चरित अवखर-पय सारहं अत्थवियारहं सुललिय छंदहि उद्धरिउ ॥१२॥
मुह-कुहर निवा सणि भुवणुठभासिणि कुपय-कुपथ-कुनय-महणि "सा देवि सरासह मायमहासइ देवयंद महुँ वसउ मणि ॥१३॥
सिरिपासणाह-चरिए चउवग्गफले भविय जमणाणंदे पास-जिणिंद-चरिउ जगि निम्मलु फणि-नर-सुरह गिज्जई। मणिदेवयंद-रइए महाकव्वे एयारसियाइमा संधी समत्ता ॥ फुडु मग्गापवग्ग फल पावणु खणु न विलंबु किज्जए॥ (मेरे पैतृक शास्त्रभंडारसे सं० १५४६ की खंडित प्रतिसे) अणु दिगु जिण-पय-पोमहि ननियह,
१५-सयविहि-विहाणकव्व(सकलविधि-विधान काव्य)
कवि नयनन्दी गंथ पमाणु पयासमि भवियाई ।
आदिभाग:नाणा छद-बंध-नीरंधहि,
धलव-मंगल-णंद-जववह-मुहलंमि सिद्धवि, पामचरिउ एयारह मंधिहि ।
हारलोय-हरिसु ब-संकमिउ-सग्गाउ जिणु । पउरच्छहि सुवरणग्म घढियहि,
जयउ पुरिम-कल्याण-कल सुव अह णं मिद्धि-वाहू-विमल दोन्नि सयाई दोनि पद्धडियहिं ।
मुत्तावलिहि णिमित्त मुह मुत्तिए ।पियकारिणि ह सिप्पिहि चउवग्ग-फलहो पावण-पंथहो,
मुतिउ खित्त ॥ मई चउवीस होति फुड गंथहो ।
जिण-सिद्ध-सूरि-पाढय सवण, जो नरु देह लिहाविउ दाणई,
पणवेप्पिणु गुरुभत्तिए । सहो संपज्जइ पंचई नाणई।
णोसेस विहाण णिहाण फुड, जो पुणु वचइ सुललिय-भापई,
करिम कव्व णिय-सतिए ॥ तहो पुण्णण फलहिं सब्वासइं।
पयासिय-केवलणाण-मनोह, जो पयडन्थु करे वि पउंजइ,
परामर-विंदरविंद-पबोह। सो सग्गापवग्ग-सुहु भुजइ।
वियंभिय -पाव-तमोह-विणास, जो प्रायन चिरु नियमिय मनु,
णमामि अहं बरहंत विणास । सो इह लोइ खोइ सिरि भायतु ।
णिरामय-मोक्ख णहगण-लीण, दिणि दिणि मंदिरि मंगलु गिना,
कयाविण वढिय हो परिहीण । नरचइ कामिशि पडहु पवजह ।
कलंक-विमुक्क जगत्तय-वंद, निप्पजहि भुवि सम्वई सासई,
णमामि सुसिद्ध अणोवम चंद । दुहु-बुभिक्खु-मारि-भउ नासई।
अखंघ महंत खमासुणि सपण, अरवि जंमइंक करंताई,
मणग्य-महारयणावनि-पुण्ण ।
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ४६मूल-ग्रन्थाकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ
उद्धृत दुसरे पद्याकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्याको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठकी प्रस्तावनास अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए, डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खांजक विद्वानों के लिये प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
जिल्द ( जिमकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगस पांच रुपये है) (२) आप्न-परीना-श्रीविद्यानन्दाचायकी स्वोपज मटीक अपूर्व कृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर
मरस और सजीव विवंचनको लिए हुप, न्यायाचार्य पं० दरबारालाजो के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसं
युक्त, जिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक सम्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृन प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांम अलंकृत, जिल्द। .. (४) स्वयम्भूम्तात्र-ममन्तभद्रभारीका अपूर्व ग्रन्थ, मुग्न्तार श्रीजुगलकिशारजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, इन्दपरि
चय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, जानयोग तथा कर्मयोगका विश्लपण करनी हुई महस्वकी गवेषणापूर्ण
१८६ पृष्ठको प्रम्नावनाग्य मुशाभिन । (५) स्तुनिविद्या-म्वामी ममन्तभद्रकी अनाग्वी कृति, पापांक जीतनकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगाफशार
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमानण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित
और मुख्नार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित। ... ॥ (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानस परिपूर्ण समन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिम्मका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुअा था । मुग्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिने अन्तकृत, सजिल्द। ... ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथम्तात्र-ग्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ) (E) शासनचस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-हिन । ... (१०) समीचीन धर्मशास्त्र-म्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक अन्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जीक विवंचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेपणामक प्रस्तावनाम युक्र, जिल्द । (११) सनाधितंत्र और इष्टापदेश--श्रीपज्यपादाचार्य की अध्यात्म-विषयक दो अनूठी कृतियां, पं० परमानन्द शास्त्रीके
हिन्दी अनुवाद और मुग्टनार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनास भूषित सजिल्द । (१)जेननाथप्रशरि मन..-संस्कृत और प्राकनक ५७५ अप्रकाशित ग्रन्योंकी प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व
संग्रह, उपयोगा परिशिष्टो और पं० परमानन्दशास्त्री की इतिहास-पाहिन्य-विषयक परिचयात्मक प्रम्नावनास
अलंकृत, जिल्द । ११३, अनित्यभावना-या. पदमनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१४) तत्त्वाथमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याम युन । (११, श्रवणबल्गाल और दक्षिणक अन्य जेनतीथ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन
समाधितन्त्र और इष्ट.पदेश मटोक मजिल्द ३), जैन प्रन्थ प्रशस्त मंग्रह महावीरका सर्वोदय तीर्थ ), समन्तभद्र-विचार-दीपिका )।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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Regd. No. D.211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) वा० लालचन्दनी जैन सरावगी कलकत्ता *१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता
१.१) बा. शान्तिनाथजी २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१.१) बा• निर्मलकुमारजी २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी
१०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, ५५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन
१.१) बा• काशीनाथजी, ... २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा. गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा. धनंजयकुमारजी २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी
१०१) बा. जीतमलजी जैन # २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) बा. चिरंजीलालजी मरावी , २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देहली
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन ,
१०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी. एटा २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली
१०१) बा. वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता * २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १.१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला• बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) सेठ जाखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १.१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर सहायक
१०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहला R१०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवरे कारंजा १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली ) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१, दरियागंज, दिल्ली
प्रकाशक-पानामगजी जैन शास्त्री वीर सेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । मुद्रक-पवाणी प्रिटिंग हाउस, देहली
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दिसम्बर १९५६
विषय-सूची
सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री
१. श्री वर्धमान-जिन-स्तोत्रम्
१२३ २. श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम्
[धर्मघोषसूरि १२३ ३. श्रमणगिरि चनें-मूले०जीवबन्धु टी. एस. श्रीपान,
अनुवादक-पी. वी. वासवदत्ता जैन न्यायतीर्थ १२५ ४. विश्व-शान्तिके उपायोंके कुछ संकेत-[पं० चैनसुखदाजी
जयपुर १३८ ५. अहिंसा और अपरिप्रह-श्री भरतसिंह उपाध्याय १४० ६. विश्व-शान्तिके साधन-[.राजकुमार जैन साहित्याचा य१४२ ७. जैनकला प्रदर्शनी और सेमिनार-[पं० हीरालाल शास्त्री १४५ ८. जैनथ प्रशस्तिसंग्रह
चीर सेवा मन्दिर देहली
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प्राचार्य श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तारकी ८०वीं वर्षगांठ सानन्द सम्पन्न
मगमिर सुदी ११ ता. १३-१२-५६ को जैन का ध्यान रखा जायगा । अनन्तर बा० छोटेलाल जी ममाज के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान श्री जुगल कलकत्ताने यह प्रस्ताव रखा कि आगामी वर्ष जयंती किशोर जी मुख्तारकी ८०वीं वर्षगांठ कलकत्ता के अवमर पर मुख्तार सा० को उनकी सेवाओंके निवासी श्रीमान सेठ मोहनलालजी दगड़के उपलक्ष्यमं एक अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया ज सभापतित्वमें बड़े समारोहके साथ मनाई गई। यह प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हुआ। आज मुग्न्तार सा० को श्रद्धांजलि देने के लिए नगर अंतमें मुख्तार सा० ने अपनी लघुता प्रकट के अनेक गण्य मान्य व्यक्ति उपस्थित थे, जिनमें करते हए सवका आभार माना और जैन माहित्य राय सा० लाला उल्फतराय जी, लाला मक्खनलाल और इतिहामके खोज-शोधकी आवश्यकता बतलाई। जी ठेकेदार ला० नन्हेंमल जी, ला. जुगलकिशोरजी आपने कहा कि हमाग बहुत अधिक साहित्य अभी कागजी, वैद्यराज महावीर प्रसादजी, बाबू रघुवर भी भंडारांमें दवा पड़ा है, जिसके छान-बीनकी दयाल जी, श्रीजेनेन्द्र जी, श्रीअक्षयकुमार जी अत्यन्त आवश्यकता है। मेरा विश्वास है कि सम्पादक नवभारत टाइम्स, लाला तनसुखराय जी, भडारांकी छान-चीनसे अनेकों अलभ्य, अदृप्ट और ला. राजकृष्ण जी, डा. एम. सी. किशोर, डाः अभूतपूर्व ग्रन्थ प्रकाशमें आवेंगे। कैलाशचन्द्र जी, बाबू महतावसिंह जी, पंडित अपने भाषणके अन्त में आपने कहा कि अब दरवारीलाल जी कठिया, बा. माईदयाल जी, बा. मेरी काम करनेकी शक्ति क्रमशः घट रही है, पन्नालाल जी अग्रवाल, श्रीमती कमला देवी और अतएव आप लोगोंको आगे आकरके काम संभाल श्रीमती मखमली देवा आदिक नाम उल्लेखनीय हैं। कर मुझे निश्चित कर देना चाहिए, ताकि मै अपने
उपस्थित लोगोंके द्वारा श्रद्धांजलि समर्पित आत्मिक कार्यमें लग सकृ। किये जानेक बाद अध्यक्ष र.ठ सोहनलालजी दृगड़ने आपने अपने अपन भापणमें बा० छोटेलाल मुख्तार सा० को अपनी श्रद्धांजलि अपित करते हुए जीकी गुप्तदान और मृक सेवाओंका उल्लेख करते संस्कृतिक सम्बन्ध में अपना महत्वपूर्ण भाषण हा कहा कि आपने समय-समय पर वीरसवा दिया। आपने कहा कि मुख्तार मा० जैसे संवा- मन्दिरको दूसरोंसे तो आर्थिक सहायता दिलाई ही भावी संयमी विद्वानकी आयु आप सबने १२५ है, पर (वय भी हजारों रुपये चुपचाप आकर वर्षकी चाही. सी एसे संयमी पुरुपके लिए यह होना सामने रख दिये हैं और वीरसेवामन्दिर की कोई कठिन नहीं है । मुख्नार माहबकी जैन बिल्डिंग के लिए चालीस हजारमें जमीन खरीदकर संस्कृति की सेवा अपूर्व है। मुझे ऐसे महारथीके प्रदान की, और नीचे की मंजिलके लिए साहू शान्ति दर्शनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई, और अनेक प्रमाद जी से ओर्थिक सहायता दिलवाई और उसके माहित्यकारों तथा विद्वानांसे मिलनेका मौभाग्य बनवानमें बड़ा परिश्रम उठाया, मै किन शब्दोंमें प्राप्त हुआ। मैं ग्रंथमालाके लिए. ५००) भट करता आपके इन उदारतापूर्ण कार्योकी प्रशंसा करूँ ? हूँ। इसे आप सहर्ष स्वीकार करें। आपने यह भी आपके ही प्रयाससे दिल्ली में वीरसेवामन्दिरके इस कहा कि ऐसे महान व्यक्तिकी जयन्तीका वड़ा आयो- भवनका निर्माण संभव हो सका है। जन किया जाना चाहिए था । आशा है भविष्यमे इस
-परमानन्द जैन अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन है कि जिन ग्राहकोंने अपना वार्षिक चन्दा ६) रुपया और उपहारी पोष्टेज २) कुल ७) रुपया मनीआर्डग्से अभी तक नहीं भेजा है, वे किरण पाते ही शीघ्र मनीआर्डरसे भेज दें अन्यथा छठी किरण उन्हें वी. पी. से भेजी जावेगी। जिससे उन्हें ।।-) अधिक देकर वी. पी. छुड़ानी होगी। आशा है प्रेमो ग्राहक महानुभाव १५ जनवरी तक वार्षिक मूल्य भेजकर अनुग्रहीत करेगे।
मैनेजर अनेकान्त-वीर सेवामन्दिर, ०१ दरियागंज दिल्ली।
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ॐ अहंम
स्वतत्त्व-रुघातक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ५)
___एक किरण का मूल्य ॥)
नीतिक्रोिषध्यसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वर्ष १४ वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली
दिसम्बर,५६ किरण, ५ । मर्गमिर, वीरनिर्वाण-मंवत २४८३, विक्रम संवत २०१३
** श्रीवर्धमान-जिन-स्तोत्रम् * जनन जलधि-मंकुदु:ख-विध्वंसहेतुर्निहित-मकरकेतुर्मारितानक्रमेतुः । जा-जनन-समस्तो नष्ट-निःशेप-धातुर्जयति जगति चन्द्रो धर्द्धमानो जिनेन्द्रः॥।। शम-दम-यमकर्त्ता सार-संमार-हर्ता, सकल-भुवननत्ती भूरि कल्याण-कत्ता । परम-सुख समर्ता सर्व-सन्देह-हर्ता जयति जगति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ।।२।। कुगनि-पथ-विनेता मोक्षमाम्य नेता, प्रकृति-गमन-हन्ता तत्त्व-मन्तान-सन्ता। गगन-गमन गन्ता मोक्ष-गमा-रमन्ता, जयति जगति चन्द्रो वर्द्धमानी जिनेन्द्र ॥३॥ सजन-जल-निनादो निजिताशेपवादो, नरपति-नत-पादो यात तवं जगाद । जयभवकृतपादोऽनेक-क्रोधाग्नि-कंदो, जयति जति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्र ।। प्रबन-बल-करालो मुक्ति कान्ता-रसालो, विमल गुण-विशालो नीनि कल्लाल-मालः । ममवशरण-नीलो धारितानन्त-शीला, जयनि जगति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ।। पिय-विप-विनाशो भूरि-भापा निवामो, हन-भव-भय-पाशः कीर्ति-वल्ली-निवामः । शरण मुख-निवामो वर्त संपूरिताशो, जर्यात जगति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ।।।। मद-मदन-विहारी चारु-चारित्र-धारी नरकगति-निवारी मोक्षमार्ग-प्रसारी। नृ सुर-नयनहारी केवलज्ञान-धारी, जयति जगति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ॥७॥ वचन रवन-धीरः पाप-धूली-ममीरः, कनक-निकर-गौरःकर-कारि-शूरः। कनुप-दहन नोर: पालितानन्तवीरों, जयति जगति चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ।।८।।
(पंचायती मन्दिर, दिल्लीके भण्डारसे प्राप्त)
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श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम्
( धर्मघोष-विरचितम्)
कस्तूरी तिलकं भुवः परिभवत्राौक कल्पद्रुमः, श्रेयम्कन्द-नवाम्बुदरित्रजगती-वैडूर्य रत्नाङ्गदः । विघ्नाम्भोज - मतंगजः कुवलयोत्तंसः स्ववशश्रियो नेत्राणाममृताञ्जनं विजयते श्रीपार्श्वनाथप्रभुः || १॥ उत्सन्नयमङ्गलैकनिलय त्रैलोक्यदत्ताभय, प्रध्वस्तामय विश्वविश्रुतदद्य स्याद्वादविद्यालय | उद्दामातिशय प्रसिद्धममय प्रक्षीकर्मोच्चय, प्रोन्मुक्तम्मय भव्य कैरववनी - चन्द्रोदय त्वं जय ॥२॥ ये मूर्ति तव पश्यतः शुभमयीं ते लोचने लोचने, या ते वक्ति गुग्गावलीं निरुपमां मा भारती भारती । या ते न्यञ्चति पादयोर्वरदयो. मा कन्धरा कन्धरा, यत्ते ध्यायति नाघवृत्तमनघं तन्मानसं मानसम् ॥३॥ किं स्नात्रैरलमंगरागविधिभिः कार्य किमभ्यर्चनैः, पयाप्तं स्तुतिभिः कृतं प्रतिभिः पूर्णं कलाद्गीतिभिः । वक्त्रेन्दौ तव चेचरयुवतिप्रीतिं दृशां विभ्रति म्वान्तं चेत्तव पाद-पङ्कजयुगे धत्तो ऽलिलीलायतम् ||४|| कान्तिः कापि कपोलयोविमलयोः श्री कापि सौम्ये मुखे छाया कापि विशाल यार्नयनयो भी कापि कण्ठे घने । शोभा काप्युरसि स्थिरे सरलयोर्ब्राह्नो किमप्यूज्जितं त्रैलोक्यैकशरण्ययोश्चरणयोस्ते देव किं महे ॥५॥ कि पीयूषमयी किमुन्नतिमयी कि कल्पवल्लीमयी. किं वाऽऽनन्दमयी सुधारसमयी कि विश्वमैत्रीमयी, कि वात्सल्यमयी किमुत्मवमयी किं लब्धिलक्ष्मीमयी, दृष्ट्वेत्थं विमृशन्ति ते सुकृतिनो मृतिं जगत्पावनीम् । ६ । स्वामिन ! दुर्जय-मोहराज- विजय प्रावीण्यभाजस्तव, स्तोत्रं कि कमठदर्पदलने श्रीपार्श्व ! विश्वप्रभा ! तिग्मांशीर्याद वा स्फुरद्-ग्रहमह सन्दोह - रोहद्रुहः, खद्योतद्युति-संहति स्तुतिपदे वर्तेत कि कोविदः ||७|| सश्रीकात्तव वक्त्रदुग्धजलधेरुद्भूतमित्यद्भुतं, मोहोच्छेदक तत्त्वसन वचः पीयूपमित्याहनः । विश्वेभ्य. फरिणभृद्विभोर्मणिघृणिव्याजात्प्रफुल्लत्फणापात्रीभिः पृथुभिविभाति परितः स्वामिन प्रयच्छन्निव
।
किं मंत्रैर्मणिभिः किमोपधगणैः किं किं रस-स्फातिभिः, कि वा सवननैः किमंजनवगैः किं देवताऽऽराधनैः । जन्तूनामिह पार्श्वनाथ इति चेन्नित्यं मनोमन्दिरे, कल्याणी चतुरक्षरी निवसति श्रीः सिद्धविद्याद्भुता || भारवन्त परमेष्ठिनं म्मररिपुं बुद्ध जिनं स्वामिनं, क्षेत्रज्ञं पुरुषोत्तमं विभु सौम्यं कला - शालिनम | योगीन्द्र विबुधाधिपं फरणपति-श्रीद गिरामीश्वरं ज्योतीरूपमनन्तमुत्तमधियस्त्वामेव संविद्रते । १० ॥ रूपादौ विपये विदन्त्रिगुरणतां त्वं न्यायविद्यागुरु
मुदाहरन्किल भवान् मीमांसकग्रामणीः । भावानां परिभावयन क्षणिकतां बुद्धाधिपम्त्वं विद स्त्वं कर्मप्रकृतीः पृथक पुरुपतः कैवल्यमाशिश्रियः | ११ | त्वं कारुण्यनिधिस्त्वमेव जनकत्व बान्धवस्त्वं विभुत्वं शास्ता त्वमचिन्त्यचिन्तितमरित्वं देवता त्वं गुरुः त्वं प्रत्यूहनिवारकस्त्वमगदंकारस्त्वभालम्बनं, तत्कि दुखमपेक्षसे जिनपनि श्रद्धालुमेनं जनम || १२॥ शिष्यन्ते तव सेवकस्तव विभो ! प्रेप्यो भुजिष्यभ्तव, द्वाःस्थस्ते तव मागधस्तव शिशुस्ते देव ! गोम्नातिक. । पत्तिः पार्श्वजिनेश ! ते तनु तवायत्तोऽग्मि मामादिश, स्वामिन्! किं करवाणि पाणियुगलीमायोज्य विज्ञापये ।। स्वःश्रीरिच्छति चक्रवर्तिकमलाऽभ्येति स्थिति सवते, कीर्त्तिश्लिष्यति संस्तुते शुभगता श्रीणाति नीरोगता । नित्यं वाञ्छति खेचरत्वपदवी तीर्थेशलक्ष्मीरपि नो कीतिस्त्रिदिवाधिपत्यमपि नो नो चक्रवनिश्रियं त्वपादाब्जरजः पवित्रिततनुः सप्रश्रय वीक्ष्यते ॥ १४ ॥ सौन्दर्यं न न पाटवं न विभवो नो विष्टपप्राभवम् । नो सर्वोपधिमुख्यलब्धिनिवह नो मुक्तिमभ्यर्थये, किन्तु वच्चरणारविन्दयुगले भक्ति जिन स्थेयसीम् ॥१५ इत्थं भूमिभृदश्वसेननन ! श्रीपार्श्व ! विश्वप्रभो ! श्रीवामाऽऽत्मज सुप्रवतितनय श्रीधमघोषस्तुत ! ये कुर्वन्ति तव स्तवं नव-नवं प्रीत्युल्लसन्मानमास्तेभ्यस्त्वं नतवत्सलो निजपदं दद्यात्रिलोकीविभो । १६ ( बड़ा धड़ के पंचायती भण्डार अजमेर से प्राप्त )
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श्रमणगिरि चलें
(तमिल लेखक जीवबन्धु टी. एस, श्रीपालाअनुवादक-पी. वी. वासवदत्ता जैन न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न) श्रमण कौन हैं
सिवाय सभी लोगोंकी उत्पत्ति एक सी है ऐसा बताने वाले ___ 'श्रमण' शब्दका प्राकृत रूप 'समण' है । 'सम' शब्दके श्राप साम्यभावकं एक महान् प्रचारक थे। भारतीय साहित्यमें संस्कृतमें तीन रूप होते हैं-सम, शम और श्रम । जो सब आपकी प्रशंसा एक बहुत बड़े योगीश्वरक रूपमें की गई जीवापर समता-भाव रखे, अपने क्रोधादि कषायोंका शमन है। श्रापके द्वारा कही गयी वाणी ही दुनियांकी भाषाओं में करे और अपनी यात्म साधनाके लिये अहर्निश श्रम करे, सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इस सत्यको सिद्ध करनेक लिये तोलकाउसे 'ममण' या 'श्रमण' कहते हैं।
प्यम् नामक तमिलग्रंथके रचयिताने निम्नप्रकार कहा हैये श्रमण या जैन साधु सुख-दुख, मित्र-शत्रु, प्रशंसा- विनयिन नीङ्गि क्लिङ्गिय अरिविन। बुराई इन सबों में समताभाव रखने वाले, प्रेम दया और मुनवन कण्डदु मुदल नलागम ।। नम्रताक अवतार, दुनियां में सत्कार्योको करनेके लिये अपने भावार्थ:-कर्मोसे रहित होकर कंवल-ज्ञानको प्राप्त सुखको त्याग करने वाले, पांचों इन्द्रियोंको वशमें करने वाले मुनिक द्वारा बताया गया धर्म ही पहला ग्रन्थ है। तथा 'मैं' और 'यह मेरा' इस प्रकारक भेदसे रहित होकर इसी बातको और भी दृढ़ करनेके लिये तिरुक्कुरलके अपने ऊपर यान वाले सब कण्टीका मामना करने वाले रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैहोते हैं। कोई भी श्रमण किसी भी कारण कभी किसी 'अगरमुदलयलुतेल्लाम आदि भगवन मुददै उलगु' जीवकी बुराई मन-वचन-कायस नहीं सोचता। ये श्रमण भावार्थः-अकारादि अक्षरोंको सबसे पहले दुनियाको अंतरग और बहिरंग दोनों में परिशुद्ध होकर उपवासों आदिके बताने वाले प्रादि भगवान् ऋपभदव थे। द्वारा अपने चारित्रकी वृद्धि करते रहने और प्रान्माके साथ
और भी:मंबन्ध रखने वाले शरीरको भी तुच्छ समझ कठिन तप- 'दिवेदम पयन्दाय नी' श्चरण करते रहते है। इस प्रकार यह श्रमण शब्द अनेकार्थ मा जीवकचिन्तामणि नामक तमिल काव्यमें कहा वाला है। इस प्रकारक श्रमणोंको ही तमिल भाषामें गया है। इसलिये भगवान ऋषभदेवक द्वारा बताये गये 'नुरवार' कहकर पुकारते हैं । इसलिये 'श्रमण' और 'तुरवार' मनिमार्गका पालन करने वाले को ही मच्चे तपम्वीक नामसं ये दोनों भाषाकी भिन्नताक कारण ही पृथक पृथक शब्द स्वीकार किया है। इस प्रकारक मुनियोंकी ही मस्कृतमें है पर दोनों एक ही अर्थको बताने वाले है। ये शब्द किमा 'श्रमण' और नमिलमें 'नुरवार' के नामले प्रशंसा की एक ममयम या मतसं सम्बन्धित नहीं है, बल्कि त्यागकी जाना है। महत्ताको बताने वाले हैं।
मुनिअादिक लमें यनिधर्म और गृहस्थधर्मको बताने वाले जानवान, चारित्रवान और कठिन तपस्या करने वाले भगवान ऋषभदेव थे । वे हम लोगोंके ममान माना-पिनास मुनि भारतवर्ष में सर्वत्र फैले हुए थे, विशेषकर तमिलदेश ही पैदा होकर जनताके बीच रहने वाले थे । अहिंसाधर्मक में । ये नमिलदशक मुनि भगवान ऋपभदेवक द्वारा बनाये श्रादि जनक थे। अकारादि अक्षरों एवं एक-दो-नीन आदि गय धर्म, अर्थ, काम और मोन इन चारों पुरुषार्थीको अंकोंको बताने वाले प्रथम विद्या गुरु थे। अमि, मपि, प्रधानता देकर बनाये गये तोलकाप्य, निरुक्करल इन दोनों कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या प्रादि पदकर्मोको पिखलाकर ग्रन्थों में बताई गई तपम्याकी विधिको पूर्ण रूपेण पालन जीवन-यापनका मार्ग बताने वाले श्रादि विधाता थे । जनता- करने वाले थे। व अहिंमांक अवतार और श्रान्मतत्व एवं को अच्छे मार्ग पर लगाने वाले गृहस्थधर्म और यतिधर्म ज्ञानतत्त्वक दृष्टा थे। वे नर्कशास्त्र, तत्ववाद, न्यायवाद, इन दोनोंको बताने वाले यादि धर्म-प्रवर्तक थे । श्रावश्य. क्रियावाद आदिमें निपुण होते थे। श्राजकी भौतिकवादी कतासे अधिक पदार्थोंको इच्छा और मंग्रह करना, पांचों दुनियांक अग्णुका ज्ञान भी उन्हें था और इस प्रकार वे पापोंमें सबसे बडा पाप बनाकर परिमित परिग्रह व्रतको वैज्ञानिक भी थे। ये लोग भूत भविष्यकी बातोंको भी उपदेश देनेवालं आप ही मर्वप्रथम थे। कर्म-जनित भेदक जानते थे और अपनी यात्माक समान आकाश क्षेत्र प्रादिकी
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अनेकान्त
[वर्ष १४
महत्ताको अपने ज्ञानसे जानने वाले थे। क्योंकि 'जे एगं इसलिये विद्वत्समाज तोलकाप्यम् , तिरुक्कुरल, सिलजाणइ से सम्बं जाणइ' अर्थात् जो केवल एक अपने पापको प्पधिकार, जीवकचिन्तामणि, वलैयापति, सूलामणि, नालजानता है, वह संसारक सर्व पदार्थोको जानता है, ऐसा डियार, पलमोलिनानूरु, एलादि, अरनेरिचारम, यशोधर श्रागम सूत्र में कहा गया है। उपयुक्र बातोंको सिद्ध करनेक काव्यके जैसे कई ग्रन्थोंको सार्वजनिक ग्रन्थ मानकर ही लिये तिरुक्कुरल में भी ऐसा ही कहा गया है
प्रशंसा करता है। तमिल भाषाको प्राचीनता और गौरवता 'सुवै ओलि, उम्, ओस, नाट टूम, एन्ड्रोन्दिन प्रदान करने वाले उपयुक संघोंमें निवास करने वाले महावगैतेरिवान कट्टे उलगु।
मुनि लोग ही थे। उन महामुनियोंमें श्रादि अत्तियर, भावार्थ:--पंचभृतांक तस्वोंको अच्छी तरह जानने तोलकाप्यके रचयिता अविनयनार, निरक्कुरल कान्यके रचवालेको ही इस दुनियांक विषय अच्छी तरह मालूम हैं। यिता कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्राचार्य, जिनसेनाचार्य, अक
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रन- लंकदेव, कोगुवेलिर, तिरुतक्कदव, तोलामोलिदेवर, वज्रनंदि, प्रयको धारण करने वाले ये श्रमण समिल देशके पर्वतों, भवनन्दि,अमृतसागर, गुण-गर, जयकोण्डार अाकाशगामी गुफाओं, ग्रामों, मठ में रहकर स्थानों और धा-स्थानोंकी मुनि श्रादि मुख्य है। तमिल, प्राकृत और संस्कृतभाषा स्थापना कर जनताक चारित्रकी शुद्धिक लिये शिक्षा और तथा और भी कई भाषाओं में पौडिन्य प्रात किये इन तमिल दीक्षा देते हुये जनतामें धर्म और ज्ञानकी वृद्धि करते रहने मुनियोंके जीवनचरित्रके बारेमें नहीं जाना जा सका । जैसे थे। इन महामुनियोंक द्वार स्थापित किये गये संघोंमें मूल- तिरुक्क रलके रचयिताके जीवन च रत्रको नहीं जान सके.वैसे मध, सेनसंघ, पुन्नाट-घ, वीरमघ, सिंहघ, नन्दिगंध, ही कई प्राचार्योक जीवनके बारेमें नहीं जान सके है । मुनिसंघ, द्रविड़संघ और अरु गलावन्वयम् के जमे कई संघ नि:स्वार्थी तपस्वियोंके द्वारा रचे गये ग्रयों में अपने बारेमें या तमिल दशक इतिहासमें प्रथम स्थान पाये हुए है। इन अपने जीवनचरित्रक बारेमें कहीं भी कुछ लिखा श्रमण-मुनियोंने शाम और सुबह विद्याको ही लक्ष्मी-स्वरूप नहीं मिलता । जनताको भलाई, चारित्र-वृद्धि और ज्ञानके समझ भिन्न भिन्न कालोंमें काव्य, नीतिशास्त्र, खगोलशास्त्र, प्रचारके सिवाय उन्होंने अपना परिचय देनेकी इच्छा नहीं जीवनशास्त्र, राजनैतिकशास्त्र, लौकिकग्रन्थ, व्याकरण, की। यह उनके नि.स्त्रार्थताकी चरम सीमा है। यही तपका साहित्य, गणितशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वैद्यशास्त्र आदि महत्व है और उनकी महिमाका द्योतक है। अगणित ग्रन्थ रच हैं। ये सभी ग्रन्थ 'सर्वजनहिताय' भगवान ऋषभदेवके द्वारा बताये गये गृहस्थधर्म और अर्थात् संसारक मानवमात्रके हितार्थ ही रचे गये हैं। ये यतिधर्मको ही श्रावक और श्रमण धर्मके नामसे पुकारते हैं। महामुनि श्रादि भगवान् ऋषभदेवक द्वारा कहे गये धर्ममार्ग श्रावकका श्रर्थ गृहस्थधर्मको पालन करने वाले और श्रमणपर चलने वाले थे. इसलिये इन ग्रन्थों में किसी एक समय- का अर्थ मुनिधर्मका पूर्ण पालन करने वाले होता है। ये को लेकर या किसी एक मतको लेकर नहीं कहा गया है। पूर्ण ज्ञानी तमिल देशभरमें फैले रहने पर भी अधिकतर इसीको और भी स्पष्ट करने के लिये पुरणानूरमें कहा गया है। पाण्ड्यदशमें थे। इन न्यागियोंकी 'मदर कांची' के रचयिता 'यादुम ऊरे यावरूम केलिर'
'मांगुडीमरुदनार' ने इस प्रकार प्रशंसा की है:अर्थात्-दुनिया के मब लोग आपसमें भाई-भाई है। वण्डु पडप्पलुनिय तेनार तो तप ऐसा सतधर्म समन्वरूपसं कहा गया है।
पृवुम पुगैयुग शावगर पलिच्च भगवान ऋषभदेवक द्वारा कहा गया धर्म दुनियांक चेन्ड कालमुम वरू उ ममयमुभ, सभी प्राणियोंके लिये है। इसी सत्यको कलिंगत्त भरणांक इन्डिवटू तोण्डिय ओलुक्कमोडु नन्गुणन्दु रचयिता कधिचक्रवर्ती जयकोरडारकी रचनाओंसे भी जान वाणमु निलनुन तामूलु तुणरुम सकते हैं।
चाण्ड कोल्गै कचाया याक्कै 'उलगुक्कु उर संय' Unnersal अर्थात् ऋषभ- आएट्रडः करियर चरिन्दनर नोनमार देवका उपदंश मनुष्यको 'विश्वजनीन' था अर्थात्, उन्होने कलपालिन तन्न विट्ट वायक्करणडै सारी दुनियांकी भलाई करने के लिये कहा है ।
पलपुरिचिमिलि नाट्टि, नल्गुवर
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किरण ५]
श्रमणगिरि चलें
कथंकण्डन्न वयंकुडै नगरत्त
था। इस भयंकर समयमें प्ठि-पुत्र कोवलन और उसकी चेम्पियन ट्रन्न चेंचुअर पुनैन्दु
पस्नी करणगि अपने घरको छोड़ रहे हैं । देव उनको आगे नोक्कु विसै तविप्प मेक्कुयरन्दोङ्गि
बढ़नेके लिये बाध्य कर रहा है । बेचारा कोवलन इरुमपूदू चान्ड नम्मपूंज सेक्युम
सुकोमलांगी पत्नीको लेकर आगे चरनेके लिये तैयार हो कुन्ड पल कुलीइप पोलिवन तोन्ड
चुका है । मदुरा पास है क्या ? तीन सौ मील चलना है। अच्चमु मवलमु मामु नीक्की
बेचारी कण्णगि पतिक कहते ही रवाना होने के लिये तयार चेद्रमु उवगयुग सैय्यादु कात्तु
हो गई । कई वर्ष माधवी वैश्याक वशमें श्रा पति अपनको अमनको लन चेन्मत्तागि
भूले हुए थे, इसका उस तनिक भी विषाद न था। करणगि सिरन्द कोल्गै यरंगृ रवैयमुम ।
प्रसन्नताके साथ पतिका अनुगमन करने लगी। प्रभात हानेक इसका संक्षेपमें अर्थ इस प्रकार है:
पहले-पहले कावेरीपूम्पट्टिणसे कई मील दूर पहुँच जानेका इच्छास रहित होकर भूत, वर्तमान, भविष्य इन तीनों उन्होंने निश्चय कर लिया था, इसलिए तेजीमे चले जा रहे कालोंके पदार्थोको अपने ज्ञानके द्वारा जाननेवाले ऐसे श्रमण थे । मार्गमें अरहन्तांक मन्दिर, बुद्ध मन्दिर, वैष्णवोंक श्रास्क लोगोके द्वारा पुष्प, धूप आदिक द्वारा पूजनीय हैं। मन्दिर श्रादि दिखलाई पड़ते हैं । अपनी जल्दीकी यात्राकी यह 'मदुरै कांची' ईसा पूर्व तमिल देशमें रचा गया प्राचीन भी परवाह न कर मार्गमें पाये श्ररहन्त भगवान मनिरामें प्रन्थ है।
प्रवेश कर दर्शन करते थे। कावेरी नदीप दम मील दूर पर स्त्रियोंक सर्वोत्कृष्ट व्रतोंको धारण करने वाली चलिज- एक वनमें श्रा पहुँचे । यहां पर तपारूढ़ एक प्रायिकाको देख काएँ और पार्यिकाएं भी धर्मका प्रचार करती आ रहीं थीं। दोनोंने नम्रतापूर्वक वंदना की । कान्दार्याडगल नामक तमिल वर्णनात्मक साहित्य मिलप्पाधिकारक रचयिता इलंग- आर्यिकाने उन दोनोंको ध्यानसं देखा । भक्रि और नम्रताक कोवडियल कदीयडिगल नामक प्रार्थिकाक मखसे मदर- साथ वन्दना करनेसे वे श्रावक जसे प्रतीत हुए । पाश्रयमूदरमें जो अरहन्त भगवानके मन्दिर एवं वहांके मनियोंका रहित दोनोंको अकेले ही पाया दबकर इसमें कोई कारण परिचय देनेवाले सुन्दर खण्ड हैं उनका अवलोकन करना अवश्य है'ऐमा उन्होंने मनमें मोचा । उनका हृदय दयास चाहिए।
भर पाया, क्योंकि तत्पश्चरणकी महिमा अदभुत होती दो हजार वर्ष पहले की बात है, तमिलदेशके 'कावेरी
है । दयास परिपूरित होकर महान तपस्विनी उनके साथ पृम्पट्टिणं नामक नगरमें कोवलन नामका एक धनाध्य
प्रेमभावस बातचीत करती हैं :-- प्ठि-पुत्र रहता था। वह बचपनसं ही वेश्यागामी हो
उरुवुग कुल नुम उयरब औलुक्क मुम गया था और विवाह हो जाने के बाद अत्यन्त रूपवती सुन्दरी
पेरुमगन निरूमाली पिरला नोन्बुम साध्वी स्त्रीके मिल जाने पर भी वह अपनी बुरी आदत नहीं
उडवीर पन्ना उरुगणालरिर । छोड़ सका | माधवी नामक एक वेश्याके चंगुलमें तो यह कडेंकलिन निगम कर्मादय वारू । ऐसा फं । कि उसने इस अंप्ठि-पुत्रका सर्वस्व ही हर श्ररहन्त भगवानक कहे मार्ग पर चलने वाले इस प्रकार लिया और उसे दरिद्र बना दिया। कोवलनको इस दशामें निःसहाय इस निर्जन वनमें अनेक कठिनाइयों को झेलकर देख उसको पति-परायणा धर्मपत्नी करणगि' ने अपनी
पानेका क्या कारण है? प्रायिकाके पुनीत वचनामृतको पायल पतिको देकर कहा कि इसे बेच करके व्यापार कर मुनकर अपनी दशाको प्रकट किये बिना ही कोवलन बोजेसबका जीवन-निर्वाद कीजिये पर उसने स्त्रीधनको लेना श्रीतपम्बिनीजी, मैं व्यापारके लिये मदुरा जा रहा हूँ । नब और उसे बेचकरक जीवन निर्वाह करना ठीक नहीं समझा प्रायिकाने कहा, आप जानेके मार्गमें घने जंगल हैं । मार्ग और मुदूर देशमें जाकर रहनेका निश्चय किया और अपना ककड-पत्थरोंस भरा हुया है। आपकी पत्नीक कोमल चरण अभिप्राय पत्नीसे कहा । बहुत कुछ बाद-विवादके पश्चात् इस कंकरीले रास्ते पर चलनके लिये समर्थ नहीं है । मार्गमें वह भी साथमें चलनेको नैयार हो गई।
अनेक कठिनाइयां भी पा सकती हैं। श्राप लोगोंको लौट उस समय अन्धकारका साम्राज्य चारों ओर फैला हुया जानेके लिये कहें, तब भी नहीं लौटेंगे, ऐसा विदित होता
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१२८]
अनेकान्त
__ [वर्ष १४ है । फिर भी इस हालतमें एक बात कहना चाहती हूँ। चीनी यात्री दक्षिण मिल देशमें मदुरैभृदर मुनियोंका मर्वधं प्ठ स्थान अभी तक जो कुछ कहा गया, उसे मत्यसिद्ध करनेके है । वहां अनेक तपस्वी ज्ञानी महामुनि रहते हैं। उन लिये चीनी यात्री हनमांगका भारतयात्रा-विवरण बहुत मुनियोंक पुग्यवचनामृतको मुनना और वहां निर्मापित उपयोगी सिद्ध होता है । वह हमारे देशमें सातवीं शताब्दीक अरहंत दवांके दर्शन में भी करना चाहती हूँ इमलिये मैं मध्यमें आया था और उसने मदुरा कांचीपुरम् अादि नगरोंआपके साथ चलेगी।
का भी भ्रमण किया था। उसने अपने भारत यात्रा-वर्णनमग्री नीच मामा केलवियर
के सिलसिले में यह भी लिखा है कि उस समय मदुरा और अर उ* कट्टांगु अरिविन येत्त
कांची में जैनधर्म बहुत उन्नत दशामें था। तनतमिल नन्नाद तीदूतीर मदुरैक्कु अग्वार पल्लीगल (मुनियोंक निवासस्थान आण्डिय दुल्लम उडैयेन ॥
इस प्रकार प्राचीन साहित्य, चरित्र और शिलालंग्बोक इन वचनोंको सुनकर कोवलनको अन्यन्त अानन्दका सत्यको सिद्ध करनेके लिये मदुरा और उसके आसपास अनुभव हया । पुनः एक बार भतिक माय नतमस्तक हो तीर्थकरोंकी मतियां, जिनमदिर, पर्वत, गुफा, शिलालेख, बोले-स्वामिनी ! आपकी दया हमपर हो, तो हमारे कष्ट चित्रकला, मुनियोंके निवासस्थान श्राज भी जै। क तम सब हवा समान दूर हो जायंगे। फिर मार्गको कठिनाइयां प्राचीन जैन गौरवगाथाकी याद दिलाते हैं । पेरुन्तांग ग्रन्थम तो चीज ही क्या हैं, ऐसा कहकर और उनके कमंडलु, बताये गये थाठ पहाड़ोंके साथ साथ वृपभरमल, पशुमल पिच्छी और नाडपत्रीय शास्त्र आदि को कंधे पर लटकाकर श्रमणमल आदि पहाट चरित्र-चिन्हस्वरूप भगवानकी उन्होंने वहांम चलना शुरू किया। सब मंत्रों में सर्वश्रेष्ठ मतियोंको लिये उन्नत मस्तक होकर विद्यमान हैं। णमोकार मत्रका पाट करन हुए व अाग बढे । इस प्रकार इन सबको दम्वनसे यह स्पष्ट हो जाना है कि तमिल इलगकोवडिगलने सिलपाधिकारमें कहा है। तमिलनाडक
देश और जैनकाल इन दोनोंको पृथक्-पृथक नहीं कर सकते प्राचीन मदुरा नगर और उसके श्राय-पापके हिम्म जन ।
न हैं। जैन कालक इनिरासकी खोज करनेके लिये तमिलदेशम समयमें बहुन उर। शामें थे इस बात को और भी न करने
ही प्रारम्भ करना चाहिये । पुदुकोई रियायतके शिलालग्नामें लिये मिलाणाधिकारमं मदुगकांड के प्रारम्भमं ही कहा है :
ई. पू. ३०० वर्षकै उन्कीर्ण ब्राह्मी शिलालेग्वमें कुछ उल्लेनिंगल मृण्डुक्मिय निम्मुक्कुई कील
ग्वनीय प्रमाण मिले हैं। यह शिलालेग्य ही अभी तक प्राप्त चंदिर बायद नि अलि सिग्न्दु
हए शिलालेखों में सबसे प्राचीन है, ऐमा शिलालेग्व-प्राविको दे ताल पिण्ड कोनिल लिम-द
प्कारकोंका अभिमत है । इस प्रकार बीमों शिलालेग्व आदियिर पत्त अरिवगे वाङ्गि
तमिलनाड़में मिले हैं। इसलिये जैन कालक इतिहासको और भी इलगकोवड़िगल पेरान्तोंग ग्रन्थों बहुन प्रशंसाक जाननेके लिये तमिलनाड अर्थात् तमिल देशसे ही शुरु माथ कहा है :
करना होगा। इस विषयमें वाद-विवाद या विचारों में भिन्नता परंगकुन्ड, स्वगम पप्पारमपल्ली
होनेकी बात ही नहीं है और पहले अगत्तियरके चरित्रको अरु गुण्डम पेरान्दै अानै इमंगुण्डम
खोजकर देखें तो कृष्ण भगवानक समयसे पहले ही जैनधर्म एन्ड्रेट वेरपुम पडुनियम्ब वल्लारक्कू बहुन अच्छी दशामें था। पहले अगत्तियर कृष्ण भगवान्की चेण्ड टुमो पिरवि तींगु ॥
आज्ञासे करीब अठारह परिवारोंके साथ तमिलदेशमें पाकर मदुराक अन्तर्गत त्रिपरंगकुन्ड्रम, प्रोस्वगम, पप्पारम, बसे । इस बातक उल्लेखसे भी जनकाल बहुत प्राचीन शमण रपल्ली अरु गुन्ड्रम्, पेरानंदम्, थानमले अलगरमले समयसे चला आ रहा है यह स्पष्ट हो जाता है। अतः ये पाठ पहाड मुनियों के निवासस्थान एवं अरहंत भगवानक चन्द्रगुप्त महाराजके कालमें भद्रबाहु स्वामीके दक्षिण भारतमें पुण्यस्थान होनेके नातं उन पहाड़ियोंके दर्शन करनेवाले तथा प्रानेसे ही यहां जैनधर्मका प्रारम्भ हुश्रा है ऐसा कहना बड़ी उनके कहे मार्ग पर चलने वालेका जन्म-मरणका भझट ही भूल है । पहले अगत्तियरके समय से पहले ही जैनधर्म उन्नत छूट जाता है, ऐसा कहा गया है।
दशामें था यही सत्य मालूम होता है। इसीको रद करनेके
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वर्ष १४ ]
लिये तिरुक के निम्नलिखित श्लोक ही सन्देह निवृत्तिके लिए पर्याप्त है।
:
मथिलापुरी निन्द्रबरयाचनउम परिन मलर पोडिलमन्द्र रत्तर पूवीण्डन्द रविलार विलिन कोटि मिनियन्दव
श्रमणगिरि चलें
अमरापति इन्द्राणि यातु कन्द्रवर कविलाय मेनुन्हिरु मलै मेलु किन्द्रवर गणनायकर चेन्द्रमिल मलेनायकर चेम्पोनि
लिरिल कुचिन गिरियालववर चम्पैंय रेनवाल निनेन्दुकाल विनेये तुलममन्देदे
इस स्तोत्रमें दक्षिण नायक दिपर्यंत नेमिनाथ भगवान् को तिरुकलंचक आचार्यने नमस्कार किया, ऐसा बनाया है। भगवान नेमिनाथ कृष्ण भाई कृष्ण चचेरे थे । छोटे होने पर भी दोनों समकालीन थे। भगवान नेमिनाथ और श्रीकृष्ण इन दोनों का जीवन चरित्र हरिवंशपुराण में विस्तारपूर्वक दिया हुआ है। बाई तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथने वृषभदेव द्वारा कहे गये धर्म-मार्गका श्रनुष्ठान कर कठिन तपश्चरण द्वारा मोन-रूपी लक्ष्मीको प्राप्त किया था | इनका काल भी पहले प्रगत्तियरका काल ही होगा थोर पहले अगतियरको भगवान नेमिनाथकं धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिला होगा। इसलिए श्रगत्तियरने पोदिन निम करते समय अपने देश में विद्यमान arge कर भगवान नेमिनाथका चिन्ह बनाया होगा । इसलिए तिrajass रचियता जहां २ भगवान नेमिनाथके मन्दिर हैं उन मग्रिलापुर, दीपगुडो, निम्मल, चिनगिरि चम्पे तीर्थस्थानों का वर्णन करते समय पहले गतियरके द्वारा पूज्य नेमिनाथ भगवान जहां विराजमान है उस पोदिपर्वतका जगतको अच्छी तरह बनानेक लिए मिलनाकडे नागसेन है।
इन वर्णनों स्पष्ट अवगत होता है कि जैनधम प्रथम रिकामे ही पूरे तमिल देशमें फैला हुआ था। जैन मुनियोंक निवासस्थान, कलाभवन, धर्मभवन यादि बहुसंख्या में थे । उपर्युक्त वर्णनोंसे पांड्यंदेश और मदुरस्त्र में जैनधर्मका अच्छा प्रभाव था यह स्पष्ट शा होता है। पांड्यदेशकी राजधानी मदुराके चारों ओर जो पहाड़ है उनमें जैनमुनियोंका निवास था यह भी ऊपर कहा जा चुका है।
१२६
श्रमणगिरि
मानव सभ्यतामें ज्ञान और चारित्रका बहुत बड़ा महत्त्व
।
है ये नींव है जिसके ऐसे मम्यदर्शन मम्यान और सम्यग्वा रत्र इन श्राभूषणोंसे जनताको अलकृत करनेवाले मुनियोंके पर्वतोंमें भ्रमणागिरिका महत्वपूर्ण स्थान है। भ्रमण का अर्थ - भगवान् वृषभदेव द्वारा बनाये गये मार्गका अनुगमन करनेवाला होता है यह पहले ही बताया जा चुका है। तोलकाप्यम् और तिरुक्कुरल में भी यही कहा गया है । इन महामुनियों को ही जनता ' कडवुन " अर्थात् ईश्वरके नामसे पुकारती है। इस प अनेक तपस्वियोन धर्मकी वृद्धि की। इसलिए इसगिरिका नाम 'अमर' पड़ा। यह पसरा के पश्चिम पांच मील एवं 'कंपन' जाने यय-मार्ग नामक एक छोटे गांवपाय है। पीन यः पुण्य पर्वत बहुत प्राचीन काल सुनियोंका निवासस्थान रहा है।
ल
श्रादि स्थानोन सिकार ब्राह्मी लिपिक शिलालेख मिलते है उसी प्रकार यहां भी आमी लिपि शिला लेख मिलते हैं। इसलिए इस पर्वतका नाम ई. ए. दूसरी या या तीसरी शताब्दी पूर्व से ही श्रमगिरि पठा होगा, ऐसा शिलालेखक श्राविष्कारकों का अभिमत है। नकल प्राचीन समयसे ही चले के कारण इस देश के राजा ने इतने विशाल स्थान पर्वत, गुफाएं और मन्दिर विश्वका पूर्व
विद्याओं में नियुम जैनमुनियों को ही सौप दिये और चेर, चोल, पांड्य, पल्लव राजाओं की परम्पराक इतिहासकी खोज करने वाले ऐतिहासिकॉन भी उपयुक्र बानकी ही पुष्टि की है। इसलिए पांड्यराजाथोक तीर्थक्षेत्रों में श्रनगिर भी एक मुख्य क्षेत्र है।
इस रिकी बनावट, इससे सम्बन्धित छोटी पहाड़ियां, गुफा, बिस्तर, मूर्ति, शिलालेख श्रादिका विवरण भारतीय शिलालेख अन्वेषण में निपुण श्री बहादुर चन्द्र छाबड़ाके मतानुसार इस प्रकार है
-
मदुरा पश्चिम में करीब पांच मील की दूरी पर एक साथ अनेक पहाड़ियां मिली हुई सी मालूम पड़ती है उसीको श्रमणगिरिके नामसे पुकारते हैं। यह पूर्व पश्चिम तक करीब दो मील लम्बा है। पहाडियों का दक्षिण-पश्चिमी किनारा कीलकुयिलकुडी के ठीक सामने पड़ता है। उत्तर पश्चिमी किनारा मदुालुके उत्तर पलनी एक भागमें त पट्टी श्रीप श्रालमपट्टी के नाम से प्रसिद्ध चिट्ट, रके पास है।
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१३०]
अनेकान्त
[किरण ५
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इन पहाड़ियोंक बीचकी चौड़ाई अधिकसं अधिक दास उनमें तीन गोलाकार अक्षरों में लिखे शिलालेख हैं तीन फर्लाङ्ग होगी। पहाड़ियोंके भिमा-भिन्न भागमें जैन- (नं०६-७-८)। पहले प्रस्तरमें एक वीरांगणा सिंहारूढ़ मूर्तियों के विद्यमान होने के कारण भी इसको श्रमण गिरि दाहिने हायमें वाण और बांये हाथमें धनुष तथा शेष दो हाथोंकहते होंगे। क्योंकि तमिल भाषामें जनोंका श्रमणके नाम में दूसरे युद्ध श्रायुधोंको लिये हुए है। सिंहकी ओर देखता से भी वर्णन किया गया है । इस गिरिको अम्मणगिरि भी हुश्रा एक हायमें तलवार और दूसरेमें ढाल लिये एक वीर कहते हैं, किन्तु बोलचाल की भाष में अम्मणरगिरि के हाथी पर सवार है । इस प्रकारकी चित्रित देवी अम्बिका रूप परिवर्तन हो गया है।
हो सकती है। इसके बाद दूसरे श्रासनमें तीन प्रायिकाओंइन पहाड़ियोंक भिम २ भागों में प्राप्त शिलालेखोंका
की मूर्तियां हैं। उनके पिर पर तीन छत्र हैं । अन्तिम वर्णन करने के लिए हम उन्हें क, ख, ग प्रादि शीर्षकोंमें।
श्राले में एक नीचंकी पोर एक पैर लटकाये हुए एक देवीकी उल्लेख करेंगे। उन शिलालेखोंमेंसे एक कन्नड़ भाषामें
मूर्ति है । उसके दाहिने हायमें कमलकी कली जैसी कोई और शेष तमिल भाषा में हैं।
चीज दिग्वलाई पडती है । जैन स्त्री देवताओंमें पद्मावतीको
ही हाथमें कमलकी कली धारण किये हुए बनाया जाता है । भाग 'क-पंचवर पदुक' पंच पांडवांका बिस्तर- हम अायनमें उपर्य' चारोंके सिवाय और कोई शिलालेख पालमपट्टी या मुत्न पट्टीक पश्चिम कोण में जो पहाड़ियां हैं नहीं है। उनमें इस भाग 'क' को ही पंचवर पदुक्क कहते हैं।
भाग 'ग' पेच्चीप्पल्लम-यह भाग श्रमणगिरिके इस भाग क में अनेक बिस्तर चट्टान पर खोदे जानक
पूर्व ढालूके दक्षिण कोणमें जो सहिपांडऊ है उसके पास कारण हमे पंचवर पदुक्क नामसे यहाँक लोग कहते हैं।
अवस्थित है पेच्चीप्पल्लम्के नामसे कहा जाता है । यह ऊपरसे लटकते हुए एक चट्टानक नीचे या मब बनाया हुश्रा
भाग पहाड़क कुछ ऊपरी भागमें लाइनसे न तीर्थंकरोंकी है। ऊपरकी चट्टान के बाहरकी पोर एक लम्बी गहरी लाइन
मृतियोंस सहित एक चट्टानक सामने समतल भूमिमें है । नालीक प्राकारकी खोदी गई है जिससे वारिशका पानी गुफाक अन्दर न नामक । इस चट्टानके ऊपर दो तमिल
उन जैन मूर्तियोंमें पांच मूर्तियां सुपार्श्वनाथकी हैं। इन जैन शिलालेख (नं. १ और २) ब्राह्मी लिपिमें इस्त्री पूर्वके हैं।
मूर्तियों के नीचे छः गोलाकार अक्षरोंके शिलालेख (408, गुफाके भीतर बिस्तरोंके निकट यासन पर एक जिनमति १०, ११, १२, १३, १४) हैं। है। उस मूनिके पास एक और ग्रामी लिपिमें लिखा हश्रा इन चट्टानोंके सामने और एक शिलालेख (नं १५) शिलाख है। उसके अति जीर्ण शीर्ण और घिस जानेसे गोल अक्षरोंमें लिखा मिला है । इनमें कुछ शिलालेख उमक सम्बन्धमें कुछ ज्ञात नहीं हो सकता है ऊपर लटकती ईसाकी पाठवीं या नौवीं शताब्दीके और शेष सब नौवीं या हुई चहानमें दो पाले तथा प्रत्येक साल में एक एक जिनति दशवीं शताब्दीके अनुमानित किये गये हैं। उत्कीर्ण है। प्रत्येक मृतिक नीचे पट्टे लुह, अक्षरों में प्रायः भाग 'घ-पर्वतके भाग 'ग' से कुछ और ऊपर जाने दशवीं शताब्दीके दो शिलालेख हैं (नं. ३ और ४) । इस पर भाग 'घ' पर पहुँचते हैं। यहां एक मन्दिरके भग्नावशेष क भागने और कोई शिलालेख नहीं है।
है जिसका कवल पीठ भाग ही शेष रह गया है । उस भाग 'ख'-सेट्रिप्पोडअ.-यह भाग ख श्रमण- भागके नीचे दशवीं शताब्दीका एक अपूर्ण शिलालेख मिला गिरिको पश्चिमी तराई पर अर्थात् दक्षिण-पश्चिमकी पोर है (नं. १६)। है। यह ठीक किलयिलकुडी ग्रामकी तरफ है । उसमे भाग 'हु'-पहाडके और उपर जाने पर चोटीके नजएक गुफाकं प्रवेश-द्वारमें बाई ओर विशाल पदमासन जिन- दीक एक दीप-स्तम्भ है। इसके कुछ दूर समतलमें चट्टानमूर्ति है । इस मूर्तिक नीचे करीब दशवीं शताब्दीके शिला- के ऊपर और एक शिलालेग्व (नं. १७) है। इसमें जो कुछ लेख (नं. ५) है जो गोलाकार अक्षरोंमें खुदे हुए जैसे भी लिखा है बह सब काडमें है । केवल एक लाइन मालूम पड़ते हैं। गुफाके अन्दर मुके हुए उपरी भागमें जो तमिलमें लिखी गई है। देखनेसे उनकी लिपि ११वी या आले हैं उनमें पांच मूर्तियां एक ही पत्थरमें उत्कीर्ण हैं। १२वीं शताब्दीकी मालूम होती है।
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वीर शासन मंघ, कलकत्ताके सौजन्यसे :
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नं0 1 श्रमणगिरि पेचिपल्लम-जैन मनियां।
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नं. २ सहिपोडऊ-मुम्ब-द्वारपर
भ० महावीरकी मूनि ।
न० ३-४उत्तमपालियम् (मदुरा) चट्टान पर उत्कीर्ण
जिन प्रतिमाएँ।
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NOTES
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नमपालियम (मदग) चट्टान पर उत्कीर्ण जिन-प्रनिमाण।
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न.' उनमपालियम् (मदुग) चट्टान पर
उत्कीर्ण जिन-प्रनिमा।
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नं०१ श्रमण गिरि पेचिप्पल्लम्-जिन प्रतिमा के नीचे का
शिलालेख नं. 10
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नं. ८ श्रमणगिरि पेचिपल्लम्-तीसरी जिन प्रतिमा
नीचका शिलालम्ब न०११।
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किरण ५] श्रमणगिरि चलें
[१३१ शिलालेखोंका विवरण नीचे दिया जाता है
बाहर जो जिनप्रतिबिंब है उसके नीचे के आसनमें इस प्रकार नं.१ और २ ब्राह्मी लिपि में
का लेख हैश्रमणगिरिके पश्चिम कोणमें (मुत्तु पट्टी)(क) (पालम- ....."नाटुकुरण्डितिरक्काहामपल्लि कनकनंदि पट्टीके पास) पांडवोंका बिस्तर जिस चहानमें है उसका
२. [ पठार ] र अभिनन्दनबटारर प्रवर माणावर विवरण इस प्रकार है
अरिमण्डलपठारर - Label-(अ) वि न दै ऊ र
३. अभिनन्दनपठारर शेयवित्त तिरुमेणि १२ ., -(आ) शै य र ल न
अर्थ-....."वेनबुनादु जिलान्तर्गत कुरण्डिके तिरुका, -(इ) का वि य
हाम पल्ली मठके कनकनंदि भट्टारक अभिनंदन भहारकके उमी चहानमें जिन प्रतिबिंबके नीचे:
शिष्य परिमंडल भट्टारक थे | यह पुज्य प्रतिमा अभिनंदन ३ तमिल १. स्वस्ति श्री [1] वेनबुनाटुक्कु रण्डि श्रष्ट उप
भट्टारकने बनवाई है।
६ तमिल २. वायी वटारर माणाकर गुणसेनदेवर गुण
उपयुक्र चट्टानमें जनशिलाके नीचे सेट्टिप्पोडऊ गुफाके ३. सेनवर माए कर कनकवीरप्पेरियडि क४. ल नाहार प्पुरत्तु अमृतपराक्किर
ऊपरी भागमें इस प्रकार का लेख है५. म न [1] लूरान कुयिरकुडी ऊगर पेरा
१. स्वस्ति श्री [ux ] नबुनाह करगिड ६. ल शेयविन गिरुमेणि [10] पल्ली
२. तिरुक्काहाम पल्लिक ७. चिविगैयार रक्ष ॥
३. गुणसेनदेवर माणावर व अर्थः-स्वस्ति श्री बेणबुनाडु जिलान्तर्गत कुरण्डिके
१.माणप्पंडितर माणाक् अष्टोपवासी भट्टारका शिष्य गुणसेनदेवर थे। कनकवीरपे
५. कर गुणसेनप्पेरियरियडिगल जो गुणसनदेवके शिष्य थे उन्होंने यह पूज्य
६. डिकल शेयवित्त तिप्रतिमा निर्माण कराई। कुयिरकुडी ग्रामके (अपरनाम ७. रमेणि ।अमृतपराक्रम नपुरममें) निवामियंक लिये। पल्ली अर्थ-स्वस्ति श्री बेनबुनाडु जिलान्तर्गत कुरण्डिके शिविगयारके ग्नामें यह रहे।
तिरुकाढामपल्ली मठके गुणसेनदेवके शिष्य बर्द्धमान पंडितके ४ तमिल
शिष्य गुणसेनपेरियडिगताने यह पूज्य प्रतिमा बनवाई। उमी चट्टानों और एक प्रतिमाके नीचे
७ तमिल १. स्वस्ति श्री [॥x ] परान्तकपर्वतमायिन ते
उसी स्थानमें एक और जिनमूर्तिके नीचे एक लेख है२. [न व] हैप्पेल्मपल्लि
१. स्वस्ति श्री [+] इप्पल्लि उडेय गु३. कुराण्ड अष्ट उपवासी वटार४. र माणकर माघनन्दिप्पे
२. णसेनदेवर सहन देव ५. रियार नाट्ट पुरत.
३. बलदेवन शेयवित्त तिरुमेणि। [1] ६. तु नाहार पेराल शेयविच
अर्थ-स्वस्ति श्रोइप्पल्लीके गुणसेनदेयके प्रधान शिष्य ७. च निरुमेणि ॥ श्री पल्लिच
देवबलदेवने यह पूज्य प्रतिमा बनवायी। ८. चिक्कियार रक्ष।
तमिल अर्थ -स्वस्ति श्री तेनवटै के पेरुमपल्ली अपर नाम
उसी स्थानमें तीसरी जिनप्रतिबिंबके नीचे इस प्रकारका परान्तक पर्वतके मठ व मंदिरके माघनन्दिपेरियार जो अष्टो. हिमा
लेख है
लेख हैपापी भट्टारकक शिष्य थे उन्होंने इस पूज्य प्रतिमाको
१. स्वस्ति श्री [॥x ] इप्पल्लि भालबनवाया नाहामपुरम के निवामियोंके लिये । श्रीपल्ली चिवि
२. किन गुणसेनदेवर सह [न] कैयारकी सुरक्षामें यह रहे।
३. अन्दलयान कलकडि [-] न-वै ५ तमिल
४. गैअन्यलयान.....(कै) यानि [ये] श्रमणपर्वतमें कीलकुयिलकुडीके पास सहिप्पोडऊ ग्रफाके ५. साति शेयवित्त तिरु
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१३२ ]
अनेकान्त
वर्ष १४
६. मेणि ॥
१. श्री [1] मिललैक् कुरंतु पानि-रिडै अर्थ स्वस्ति श्री। इस मठके अधिष्ठाता गुणसेनदेवरके २. यन वेलान सडैवनै चार्ति प्रधान शिष्य अन्दलैयान । कलक डीके अन्दलैयानने यह ३. इ (न् । ना माणवाड निट्टप्पुनाट्ट, ना.. पूज्य प्रतिमा बनवायी...... के लिए..के ... "कै
४. [क] र स (है) यप्प [न] सेदवित्त देयालि (2)
५. वर इ. तनत्त "ता"तायार [शेय] तमिल
६. दवित्त तिरुमेणि [u+] श्रमणगिरिमें पेच्चिपल्लमके पर्वतमें जो जिनमूर्ति है
अर्थः-इन्न माणव निपूनाडू जिलान्तर्गत नाकूरके उसमें इस प्रकारका लेख है
सडेयप्पनने यह पूज्य प्रतिमा बनवायी । मिजलै कुरम 1. श्री अच्चनंदि
(प्रांत) के पारूरके इडयन (ग्वाला) वेलान सडैयनके लिये। २. तायार गुणमति
यह पूज्य प्रतिमा · बनवायी गयी की मां। ३. यार शेयवित्
३ तमिल ४. त तिरुमेणि श्री [nx]
उसी स्थानमें जिनप्रतिबिंब रहनेकी जगहमें लेख इस अर्थः-श्री अच्चनन्दीकी मां गुणमतीके द्वारा बनवायी प्रकार हैहुई मूर्ति।
१. श्री [na] वेनबुनाह १. तमिल
२. निरुक्कुरण्डि उसी स्थानमें और एक जिनप्रतिमाके नीचे शिलालेख
३. पादमूलत्तान में जो समाचार हैं उनका विवरण इस प्रकार है:
४. अमित्तिन म ()१. स्वस्ति श्री [॥x] इप्पल्लिउडेय गु
१. कल कनकन (न् दि शे - २. णसेनदेवर साहन अन्दलयान
६. विच तिरुमेणि [us] ३. मलैतन मनाक्कन अचान श्री पालन
अर्थः-श्री बेनवुनाडु जिलाके तिरुक्कुरण्डिके पादमूल५. चमार्ति शेयवित्त तिरुमेणि (ux)
तान अमित्तिन मरेकल कनकनंदि-द्वारा पूज्य प्रतिमा बन अर्थः-स्वस्ति श्री इस मठके गुणसेनदेवके प्रधान
वायी गयी। शिप्य अन्दलैयानमलतनके दामाद (भतीजा) अचान
१४ तमिल श्रीपालके लिये बनवायी हुई मूर्ति । " तमिल
उसी चट्टानमें उपर्युक्त विग्रहके पास हो इस प्रकारका उसी स्थानमें तीसरी मूर्तिके नीचे दिखाई देने वाले . शिलालेखका विवरण इस प्रकार है:
१. स्वस्ति श्री [13] इप्प १. स्वस्ति श्री [@] इप्पल
२. ल्लि उदय गुण२. लि उडेय गुणसेनदे
३. सेनदेवर सट्टन ३. वर सट्टन सिंगडै
४. अरैयनकाविदि []४. प्पुरत्तु कण्डन ने (रि)
१. नगर्नबियच्चा५. वन शेयवित्त
६. ति शेयविच ६. तिरुमेणि श्री [ux
.. तिरुमेणि [४] अर्थ:-स्वस्ति श्री इस मठके गुणसनदेवके प्रधान
अर्थ-इस पल्लिके गुणसेनदेवरके प्रधान शिप्य अरैशिष्य सिगपुरके कण्डननरि भट्टारकने यह पूज्य प्रतिमा
यंगाविधि द्वारा बनवायी गयी पूज्य प्रतिमा संघनंदिके लिये। बनवायी।
१५ तमिल १२ तमिल
उसी पहाइमें पेच्चिपल्लम जैनशिलाके सामनेकी लाइनमें उसी स्थानमें चौथी जिनमूर्तिके नीचेका लेख इस इस प्रकार लेख अंकित है:प्रकार है:
1. स्वस्ति श्री [8] इप्पल्लि.
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किरण ५] श्रमणगिरि चलें
१३३ २....."गुणसेनदवर माणाक...
हाथ अपने पाप जुड़ जाते हैं और शीश झुक जाता है। ३..........."क् कर चंद्रप्रभ..
जिस प्रकार पुदुको, सिद्धनवासल आदि तमिलदेशके तीर्थस्थान माने जाते हैं उसी प्रकार यह पवित्र पुण्य श्रमण
गिरि भी एक तीर्थस्थान है । इसके तीर्थस्थान माने जानेके ६............. वित्त.........
कारण भी दिखलाई पड़ते हैं उनको देखनेसे स्पष्ट विदित अर्थः-स्वस्ति श्री इस पल्लीके गुणसेनदेवके शिष्य होता है कि इस तमिलनाडमें तमिल विद्वानोंकी, श्रादर ............. के शिष्य.........'चंद्रप्रभके द्वारा बनवायी करनेवालोंकी. श्रावकोंकी कमी न थी। तमिलदेशमें रहने गयी (यह पूज्य प्रतिमा)।
वाले जैन अधिकतर पांड्यदेशके रहनेवाले थे ऐसा उपर्युक १६ तमिल
वर्णनोंसे अवगत होता है । इस प्रकार पांड्यदेशमें गृहस्थखंडित मंदिरक नीचकी लाइनमें उमी पर्वतके पेच्चि- धर्म और मुनिधर्म ये दोनों बहुत अच्छी दशामें थे। ऐसे पल्लमके ऊपर इस प्रकार लेख अंकित है:
पांड्यदेशकी जितनी भी प्रशसा की जाय सब थोड़ी है। १. इब्वांडू इट्टयान
अब महामुनियोंके तपोवन रूप इस पवित्र श्रमणगिरि २. श्री परम... ......रिरक्षे॥
पर अचानक आई आपत्ति, तथा कांग्रेस सरकारके द्वारा अर्थः-इस वर्ष....... ...... 'इरट्टयान...... ..... बचाये जानेके वर्णनको पढ़िये। श्री परम.........."की सुरक्षामें यह रहे।
___ जीव-कारुण्य-सेवासे संबंधित यात्राके समयमें मुझे १७ कन्नड और मिल
कंपम नामक गांव जाना पड़ा। ७ जून १९४६ की बस द्वारा पर्वतके शिखरमें, पत्थरके दीपस्तम्भ पेच्चिपल्लमके कम्पमको रवाना हुया । पांच मील चलनेके बाद बस कुछ ऊपर (वही पहाड)
खराब हो गई, अतः हम सब लोगोंको वहीं उतरना पड़ा १. श्रारिय देवरु
और उसके रवाना होनेमें अभी एक घण्टेका विलम्ब था। २. पारियदेवर
में प्राकृतिक दृश्यों एवं ऐतिहासिक चीजोंके देखनेका बड़ा ३. मूलमंघ वेलगुल बालचन्द्र
शौकीन हूँ । इसलिये में जहां कहीं भी जाता हूँ वहांके ४. देवरु नेमिदेवरु मू ()
पर्वतों, मन्दिरोंके बारेमें जाननेकी जिज्ञासा रखता है। जहां ५. प्रता (प) अजितसन देवरु
बस ठहरा था वह पुदुकोट्ट नामक एक छोटा सा गांव था। ६. गोवधन देवरु.........
उस गांवके दक्षिणमें करीब एक फलांग पर पूर्व-पश्चिममें ७. र माडि......स (त) रु II
एक मुन्दर पर्वत दिखलाई पड़ा । उसको देखकर मैंने एक अर्थ--( कन्नड और तमिल )।
श्रादमीसे जो डाब पी रहा था पूछा-इस पर्वतका नाम अारिय देवरू । पारिय देवर । मूलसंघके बेलगुल क्या है ? उसने उत्तर दिया-अमणरमल । शमणरमलैके बालचन्द्र देवरू-नेमि देवरू सूर्यप्रताप अजितसन देवरू'.. नामसे भी पुकारते है । उन दोनों नामोंको सुनकर मैंने .."सम्पन्न करके स्वर्गवासी हुए।
अनुमान लगाया कि यह कोई ऐतिहासिक पर्वत होगा। श्रमणगिरिकी महिमा ही अपूर्व है । इस पर्वतमें अप्टो- इसलिये इस पुण्यक्षेत्रको देग्वनेकी जिज्ञासा उत्पन हुई। पवासी गुणसेन देव इनके शिप्य-स्वरूप भक्के समान प्रकट कंपम यात्राको बन्दकर एक मित्रके साथ (शमयरमल) हुए कनकवीरपेरियडिगल, माघनन्दिप्पेरियार, अभिनन्दन श्रमणगिरिको नुरन्त रवाना हो गया । पर्वतके नीचेकी तरफ पठारर, बर्द्धमान पण्डित, प्राचार्यपदको प्राप्त हुए अचान पुराना तालाब और छोटे-छोटे मन्दिर दिखलाई पड़े। उसके श्रीपाल, पांड्य राजाके द्वारा काबिधि पदबीको प्राप्त किये बाद पर्वतके ऊपर चढ़ा और वहांसे समतल भूमि पर श्रा अयंगाविधि सघनाम्बि, अच्चनन्दि मुनिके जैसे महान् पहुँचा । वहां एक छोटा बड़का वृक्ष है । उसके सामने चट्टान मुनियोंने धर्मको दिन दूना रात चौगुना बढ़ानेका प्रयत्न हरे-हरे घने घामसे ढके हुए थे । इतनी त्रिशाल जगहमें किया । इन महान् तपस्वियोंके स्मरणार्थ तीर्थंकरोंकी मूर्तियां किसी भी चीजको न देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, और बनायी गई हैं। इन तीथंकरोंकी मूर्तियोंको देखते ही हमारे मुझे अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ । अतः मैं चहानके
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१३४]
अनेकान्त
[वर्ष १४
ऊपर गया और एक तरफकी घासको हटाकर देखा । बस सस्मित दिव्य प्राकारको देखनेसे वह जीवित प्रतिमाकी उस चहानके नीचे कलापूर्ण ढंगसे बनायीं गयीं तीर्थंकरोंकी तरह दिखलाई पड़ी। मूर्तियां दिखलाई पड़ीं। मुझे असीम आनन्दका अनुभव उसके बाद मैंने गुफामें प्रवेश किया। वह गुफा एक हमा । श्रमणगिरिक इतिहासको ही मैंने पा लिया, यह सोच. ही चट्टानसे बनाई हुई है। उपरी भाग Dor सोचकर मेरा मन फूला न समाया । तुरन्त दोनोने गोलाकार है । उसका आधा भाग टूटकर नीचे गिर गया है। सब ओरकी घासको हटाकर देखा । संसार-समुद्रसे पार उस गुफाक ऊपरी भाग जो गोलाकार है उसके चारों तरफ करनेवाले पूज्य तीथंकरोंकी प्रतिमाएँ दिखलाई दीं। आदि- तीर्थंकरोंकी पवित्र मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। गिरे हुए भागों में भगवान, महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और गोमटेश्वर भी प्रतिमाएं रही होंगी ऐसा अनुमान होता है। उन आदिकी प्रतिमाएँ वहां थीं। वे प्रतिमाएं शांतस्वरूप और चट्टानोंको पलटे बिना उन प्रतिमाओंको देख नहीं सकते जनताको सन् चारित्रका मार्ग बतानेवाली थीं, अहिंसाक हैं। उस गुफाको चट्टानमें ये शब्द H. K. Poln १८.४ अवतार थीं। उन प्रशान्त दिव्य प्रतिमाओंको देखते ही मेरे काली स्याही से लिखे हुए हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है विचार न जाने कहां-कहां विचरने लगे। प्रतिमाओंको घाससे कि H. K. Poln नामक अंग्रेज विद्वानने १८७४ ई० में ढकी रहनेक कारण उनपर काई जम चुकी थी। तमल इसे देखा होगा। भाषाकी वृद्धिमें जिनका अधिक हाथ था उन विद्वानोंक इस पर्वतको घूमकर पूरा दग्वनेसे कुछ विस्तरों एवं रहने की जगहमें आज कौआ आदि पक्षी सुखसे रह रहे हैं। शिलालेखोंके सिवाय और कोई खास चीज दिखलाई नहीं दुनियांकी जनताको धर्म-मार्ग बतानेवाले धर्म-चक्रवर्ती तीर्थ- पड़ी। उस पर्वतके पश्चिममें दो फागकी दूरी पर एक करोकी प्रतिमायाँको देखते ही अपने आप मेरे कर बद्ध हो पहाड़ जिसे आज पेरुमाल कोइल मर्ल' के नामसं कहा गये। चारणमुनि, कउंदीयडिगल, कोवलन, करणगि श्रादिके जाता है -के पास गया। उसके दक्षिण भागमें खुली गुफा द्वारा प्रशंसा किये जाने वाले सिलप्पधिकारके स्तोत्रोंका दिखलाई पड़ी। इस गुफाके प्रवेशद्वारके ऊपर दो तीर्थकरोंकी स्मरण हो पाया। आनन्दात्रु बहने लगे। उन प्रतिमाओं प्रतिमाएँ है, तथा दो शिलालेख भी बुद हुए है । इस गुफा को पाकर मैं थोडी देरके लिए अपने आपको भूल गया। के ऊपर श्रमण मुनियों की तपस्याके चिन्ह स्वरूप चिकने
इस विशाल जगहमें करीब २०० आदमी बैठकर अच्छी बिस्तर भी खोदे हुये हैं। उन बिस्तरोंक पास में एक जैन तरह ध्यान कर सकते हैं। इस प्रतिमाके सामने खड़े होकर तीर्थकरकी प्रतिमा रखी हुई है। पूर्व की तरफ रप्टि दौड़ायें तो हमें मीनाक्षी अमन मन्दिरके अप्टोपवासी अर्थात् पाठ दिन उपवास के उपरान्त एक पश्चिममें जो शिखर है. दिखाई पड़ता है। इस शिखरसे बार अाहार लेनेवाले गुणसनदेव जैसे महामुनिने इस पवित्र उस पर्वतको देखें तो ये मूर्तियां एक पंक्रिमें स्थापित दिखलाई स्थान पर रहकर कठिन तपस्या की है। अतएव सभव है पड़ती हैं। इसलिए मन्दिर एवं गिरिका अवश्य कोई सबध कि इस पर्वतका नाम भी श्रमणगिरि रखा गया हो। ये होगा, ऐसा अनुमान लगाया जाता है । खड्गासन और पहाड़ी भाग निस्सन्दह ईस्वी पूर्वस ही मुनियों के निवास पद्मासन प्रतिमाएं बहुत सुन्दर कलापूर्ण ढंगसे बनवायी स्थान रहे होंगे। इस पुण्यगिरिके दर्शन तिरुक्कुरलके गयो हैं । इन प्रतिमाओंके पास पास और निचले भागमें रचयिता, जीवकचिन्तामणि के रचयिता तिकतकदवर, चूड़ागोलाकार अक्षरोंके शिलालेखोंमे इन प्रतिमाओंके निर्माण मणिके तोलामोलिदेवर, नालड़ियारके श्रमणमुनि, द्रविड़ पादिका विवरण दिया हुआ है,
संघके निर्माता वज्रनंदियगिल और भी कई विद्वानोने, इसके अन-तर में शिखर पर गया। वहां एक खंडहर कवियों ने, श्रावक-श्राविकाओं आदिने किये होंगे, ऐसा मन्दिरके टुकड़े दिखलाई पड़े। इसलिए नीचे उतरकर दक्षिण मानने में कोई कोई संदेह नहीं है। अनेक प्रमाणोंसे इस भागमें कछ ध्यानपूर्वक देखना प्रारम्भ किया। कुछ दूर बातकी पुष्टि भी होती है। जानेके अनन्तर एक गुफा मिली, जिसके प्रवेश-द्वा की चट्टान इतने प्रशंसनीय एवं महत्त्वपूर्ण इस ऐतिहासिक पर्वतक में करीब चार पांच फीट ऊँची महावीर भगवान्की पवित्र भागोंको सड़क पर डालनेके लिये गिरावल कंकड़के रूपमें मूर्ति उत्कीर्ण है। उस प्रतिमाकी शिल्पकलाको उसके तोड़ते हुए मैंने देखा। अफसोस ! उसको देखते ही मैं नहीं
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किरण ५]
श्रमणगिरि चलें
१३५
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समझ सका कि पर्वत तोडे जा रहे हैं या पत्थर । भारतके cal interest wers Explained by Dr. B. चरित्रको, तमिल देशकी कलाको, श्रमण-मुनियों के द्वारा Ch.Chhabra. Government epigraphist सेवित इतने बड़े धचिन्हको ही नष्ट-भ्रष्ट होते हुए देखकर for India, in an interview with a मेरा मन तड़फडाने लगा। मुझे अपार दुख हुआ और मैं representative of the Hindu to-day. उसी समय मद्रास लौट पड़ा।
"Some Jain inscriptions of about मद्राप पाते ही मैंने सीधे तमिलदेशके जैनियोंके नेता 10th century A. D. in Samanar Malai, तत्त्वज्ञानी रायबहादुर ए. चक्रवर्ती नैनार M.A.I.E.S. seven miles from Madura, had also से श्रमणगिरिके गौरवकी गाथाको कह सुनाया । उनको इसे come to the notice of the department मुनकर आश्चर्य और दुःख दोनों हुए । वे मुझे साथ लेकर he said, and added that steps were दक्षिण भारतकं अोरक्यालेजिकल डिपार्टमेंटके सुपरिटेन्डेन्ट being taken to prevent the quarrying श्री वी० डी० कृष्णास्वामीके पास गये । सुपरिटेन्डेन्टने of the locks there. The Place he दोनोंको बडे पादरक साथ बैठाया। मैंने श्रमणगिरिकी सब said, was an (curly Jain suttlement बात कह सुनाई। सुपरिटेन्डेन्टने भी इस प्रकारके ऐतिहासिक and there were Jain haus reliefs with चिन्होंक नष्ट किये जानेवाले समाचारको सुनकर दु.ग्व प्रकट inscriptions in Vatteluttu characters. किया। उन्होंने उसकी देखरम्ब करनेके लिये एक निवेदन-पत्र
Hindu 15-7-1949. लिखकर दनक लिये मुझे कहा । मैंने जो कुछ श्रमणगिरिक इस समाचारको पढ़ते ही खोई हुई वस्तुको पुनः प्राप्त बाग्में उस समय तक जाना था, तथा उसके प्रति जो कर लेने पर जैमी प्रसन्नता होती है वैसी ही मुझे भी हुई। अन्याय हो रहा था, वह सभी स्पष्ट रूपसे लिखकर एक अब पर्वतके प्रतिमा और शिलालेख सुरक्षित रहेंगे। निवेदन-पत्र दे दिया। श्रीचक्रवर्ती नैनारजीने भी इस पर डा. छाबड़ाके मतानुमः, वे प्रतिमाएं और गुफाएं ध्यान रखनेक लिये सुपरिटेन्डेन्टसे कहा। मुपरिटेन्डेन्टने भी ईसाकी दशवीं शताब्दीकी नहीं हैं। वे ईसाकी सातवीं एतिहासिक चिह्न-म्वरूप उम पहाड़की रक्षा करना हमारा शताब्दीके श्रारम्भकी या उससे पहलेकी ही होंगी। क्योंकि कर्तव्य है इसलिये शीघ्रातिशीघ्र मदुराक कलैक्टर के प्रधान नेडुमारनकालमें तिरुज्ञान संबंधके द्वारा चलाये गये मत. कार्यालयको लिखकर देखरेख करनेका वचन दिया। सम्बन्धी विवाद का वर्णन मच हो तो डा. छाबड़ा का मत
उसके बाद शिलालेख विशेषज्ञ डा. छाबडाने ठीक नहीं सिद्ध होता है । क्योंकि हजारों श्रमणों को फांसी श्रमणगिरिकी देखभाल करने के बारे में निम्नलिम्वित पर चढ़ने के बाद भी एक श्रमणका वहां जीता रहना, सुन्दर समाचार 'हिन्न' पत्रिका के सम्पादकके पास भेजने के लिए चित्रों एवं गुफाओंका निर्माण कर वहां पर तप करना कहा था। यह समाचार १५-७-४६ के हिन्दू पत्रिकामें थे असम्भवमा प्रतीत होता है। और भीगोलाकार अतरोंके अन्वे प्रकाशित हुए हैं।
पकोंका मत है कि ये ईसाकी २ या ७वीं शताब्दीके पहले उन्होंने लिखा है-मदुरा के पश्चिममें मात मोलकी के होनेका अनुमान लगाते हैं। डा. छाबड़ाके मतके अनुसार दूरी पर श्रमणगिरिमें खुद हुए दशवीं शताब्दीस सम्बन्धित ईसाकी दशवीं शताब्दीका सिद्ध किया जाय तो कई कुछ शिलालेखोंको, शिलालेखके अन्वेषकोंके ध्यानमें लाया अन्वेषकोंक मतानुमार निरुज्ञानसंबंधरकी कथा साकी गया है और वहांक चट्टानोंको बिन तोड़े रहनेके लिए इंतजाम १०वीं शताब्दीकी हो सकती है। किया जा रहा है। उपयुन स्थल पवित्र श्रमणोंका मूल ऊपर कहे अनुसार उसी सातवीं शताब्दीमें हमारे स्थान है इसके बारेमें जाननेके लिए गोलाकार अक्षरके देश में पाये तीन यात्रियोंने तमिल देशकी विशेषताओंके शिलालेग्व पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हैं। उनका पत्र भी आया वर्णनके सिलसिले में तिरुज्ञानसंबंधरके बारेमें कुछभी नहीं था। वह निम्न प्रकार है:
लिखा । उसके बदले में जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों ही Madras July, 14 तमिल देशमें बहुत उम्मत दशामें थे ऐसा लिखा मिलता है। Recent discoveries of archaeologi- दरअसल दशवीं शताब्दीके बाद ही जनधर्मकी दशा कुछ
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१३६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
खराब हुई, क्योंकि दशवीं शताब्दीके बाद १५, १६वीं समाचारको पत्रिका में प्रकाशित करनेके लिए राय दी। वे शताब्दी तक कई श्रमण मुनियोंने अनेक सुन्दर ग्रन्थोंको वे तीनों ही मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, जनताकी भलाई चाहने बनाया है। सिर्फ यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थोंका अनुवाद वाले हैं, तिरुक्कुरल पर अटल श्रद्धा करने वाले एवं करनेवाले श्रमण अगणित थे। इसीलिए ऊपर कहे अनुसार उस मार्ग पर चलाने वाले हैं। उन मित्रोंकी रायके अनुसार ई० पू० तीसरी शताब्दीमें उत्कीर्ण शिलालेखक श्राधार पर मदुरामें प्रकाशित 'तन्दि' 'दिन चैदि' इन दोनों पत्रिकाओंमें यह भी उससे सम्बन्धित वीं या ६वीं शताब्दीका होगा। छपनेके लिए श्रमणगिरिकी महिमाका वर्णन लिखकर भेजा, किसी भी कारण से उसको दशवीं शताब्दीका कहा जाय साथ ही इसके साथ क्या अन्याय हो रहा है इस बात पर तो अनुचित है। जो भी हो, वह है बहुत प्राचीन पर्वत। जोर देकर उसे रोकने का प्रबन्ध करने के लिए एक समाचार इस प्रकारके ऐतिहासिक चिन्होंके फोटो लेनेके लिए लिम्ब भेजा । इस समाचारको मेरे मित्रोंने प्रकाशित करनेका मद्रास मिंट स्ट्रीटके जैन मिशन संघकी सहायता से इंतजाम कर दिया। प्रकाशकने भी प्रधान पृष्टपर बड़े अक्षरोंमे ता. १-११-४६ को में मद्राससे रवाना होकर पुन: शीर्षक देकर 'तन्दि' और 'दिन चैदि' इन दोनों में छाप दिया। श्रमण गिरि पहुंचा।
मैंने मदास पाते ही १२ नवम्बर ४६ को दक्षिण भारत जैसा कि मैंने सोचा था, वहां पन्थर तोड़ने का काम पुरातत्त्व अन्वेषण भागके सुपरिटेन्डेन्टको ज्ञात कराया कि जारी था। मेरा जी तड़फड़ाने लगा। बहुत कुछ सोचने पर अभी तक श्रमणगिरिका तोड़ना बन्द नहीं हुआ । इसके भी कुछ समझमें नहीं पाया। श्रमणगिरिक नामसं वह उत्तरमें उन्होंने मदुरा जिलेको कलैक्टरको पत्र लिखनेको श्रमणोंके समयके सम्बन्धित है यह जाने विना ही उस तोडा कहा। मैंने तुरन्त ही १७ नवम्बर ४६ को मदुरा जिलेके जा रहा है यह एक बड़ी भारी भूल है।
कलैक्टरको पत्र लिखा । इसी बीच श्रमणगिरिक बारेमें एक शेवगिरि, वैष्णवगिरि, मुसलमानगिरि, ईमाईगिरिक वर्णनात्मक लेख लिग्नकर सुदेश मित्रनमें छपनेके लिये भेज नामसे वह होना नो उन जातियों की अनुमति विना उसे दिया। उसके प्रकाशकने भी 'मदुरा और श्रमणगिरि' नामक तोड़नेका साहस कोई करता ? इस प्रकार श्रमणांकी मंच्या शीर्षक देकर १० दिसम्बर ४६ में चित्रके साथ प्रकाशित बहुत न्यूनावस्था में है इसी कारण वे लोग प्राचीन चरित्रका कर दिया । मदुराक त्यागराय कॉलेजके तमिल प्रोफेसर डा. परिचय देने वाले इस महान पुण्यगिरिको चकनाचूर करनेमें म. राजभाणि कनारजीने भी अपने नेशनल तमिल वाचक तल्लीन हैं । अफसोस ! ब्रिटिश सरकारक रहते उस पहला भागमें श्रमणगिरिके बारेमें एक पाठ लिखा है । उसके पुण्यगिरिके लिए कोई श्रापनि नहीं पायी। देशमें प्रजातंत्र
बाद दक्षिण भारत प्रारक्यालेजिकल डिपार्टमेंट के सुपरिटेन्डेन्ट राज्य होते ही श्रमणगिरि को तोड़ा जा रहा है। कलायोकी
बी. डी. कृष्णसामीजीके पाससे निम्नलिखित पत्र प्रायाथा । वृद्धि करनेके स्थान पर प्रजातंत्र राज्य कलाको नष्ट करने के लिए तैयार हुआ, यह सोच सोचकर मुझे दुःव No. 40/926. Fort St. Georg. Madras-y हो रहा था। भारत सरकारके दक्षिण भारतक शिलालेखोंक
4th March, 50 अन्वेषक डा. छावड़ाके द्वारा दिये गये दृढ़ आश्वासन न जाने कहां गये इन सब अधिकारियों की बात विना माने
Department of Archaeology, ही काम जारी है, यह बड़े दुख की बात है। इस हालतमें
Southern Circle, उन पावन मूर्तियोंका शीघ्र फोटो लेना कितना आवश्यक My Dear Sripal, था यह उस भयंकर परिस्थितिने ही हमें बतला दिया।
Your kind letter of the 3rd instant. इसलिए जितने जल्दी हो सका, उतनी जल्दी उन सब You will be pleased to know that the मूर्तियोंका फोटो लेकर में मदुरा श्रा पहुँचा।
Mathurai Samanar Malai is now a मदराके ज्योति-सन्मार्ग-संघ-वैद्यशालाके वैद्य श्रीमुत्तु- protected monument and the collector अडिगल, ज्योति-सन्मार्गके कार्यदर्शी श्री अ. कंगनन is doing his very best to see that there जी. पुरातत्ववेत्ता श्री एरल प. मलैयप्पन जी ने इस are no prejudicial quarrying in the
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किरण ५
श्रमणगिरि चलें
१३७
%
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vicinity of the monuments.
त्यागियोंकी तपस्याका चमत्कार । With kind regards.
धर्मकी महिमारूप श्रमणगिरि मुनियोंका तपोभूमि है Yours sincerely, इसलिये हम सभी श्रमणगिरि चलकर भगवान ऋषभदेव, (Sd.) V. D. KRISHNASWAMY. नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर श्रादि तीर्थकरोंका दर्शन करें। इस अानन्दपूर्ण शुभ समाचारको पढ मेरी खुशीका
भगवान् ऋषभदेव ही इस दुनियामें सबसे पहले धर्म-मार्ग ठिकाना न रहा। प्रानन्द्र में अपने पापको भूल बैठा । उस
पर चलनेवाले थे तथा उनका धर्मोपदेश (दिव्यध्वनि) जवान
भोला ।। पत्रको अनेक बार पढ़ा । इसी शुभ अवसर पर उदकमंडलसे ही भारतवर्ष में श्रादि ग्रन्थ माना जाता है। श्रमणगिरिक शिलालेखोंका पूर्ण विवरण भी श्रा पहुँचा । उन सबोंको मैंने बारमा देखापटान
कोई भी ऐसा भारतीय साहित्य नहीं है जिसमें इनकी हो रहा था दसवें शिलालेखको पढकर । भाच्चान श्रीपाल
प्रशंसा न की गई हो । तिरुक्कुरलके रचयिताके द्वारा प्रशसा नामक धर्मात्माका ही यह समाचार है। ये सब पाश्चर्यमें
किये जाने वाले ग्रादि भगवान् ये ही हैं। तोलकाप्यम्में डालनेवाली ही बाते हैं। मेरी यात्राका जाना, मैं जिम के
'कन्दली' नामसे इन्हींका उल्लेख किया गया है । कन्दली बसमें गया था उस बमका पर्वतके पाससे गुजरना, पर्वतके
शब्दका अर्थ है निर्मोही । 'णिग्गंय' शब्दका अनुवाद ही नजदीक जाने पर ही बसका खराब होना, इस निमिनसे
कन्दली है। सिलप्पधिकारमें भी निग्गंथ कोट्टम शब्द दिया पर्वतको देखने का अवसर मिलना, ऐतिहासिक घटना-मय हुअा है । इसलिये सारा भारतवर्ष भगवान ऋषभदेवको श्रादि श्रमणगिरिका पता चलना, उसको मड़कों पर डालने के लिये भगगनक नामसे प्रथम धर्मकर्ता और प्रथम गरुके नामसे ग्रावल कंकड़ के रूप में तोड़ा जाना. इस अन्यायको देखकर वर्णन करता आ रहा है। हमारे भारतके उपराष्ट्रपति दु.ग्वी होना, पत्थरोंके तोड़नेको रोकनेके प्रयत्नमें विजय तत्त्ववेत्ता डा. श्री. राधाकृष्णनक 'हिन्दुतत्त्व' नामक ग्रन्थमें. पाना, उस पुण्यगिरिके शिलालेखों में प्राच्चान श्रीपालके ही ऋग्वेद, भागवतके जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी भगवान ऋषभनामसं एक मुनिका धर्मवृद्धि करनेवाले समाचारका जानना
देव प्रशंसाके पात्र बने हुए हैं। ई० पू० पहली शताब्दीमें श्रादि ये सब बात पूर्वभवसे सम्बन्धित सी मालम होती है। सभी जनता ऋषभदेवको ही मानती थी । इमको सिद्ध मेरे इस कथनसे पाठकगण यह न समझे कि में अपने
करनेके लिये विपुल मामग्री उपलब्ध है । इनके वर्णनोंसे मुंह मियामिठ्ठ बन रहा हूँ। क्योंकि
ज्ञात होता है कि ई० पू० पहली शताब्दी में अनेक भिम
भिम मन थे। लोगोंके द्वारा नि-भिन्न देवताओंके माने ओस्मैक्कण तानकर कल्वी ओरुवरकु जाने पर भी भगवान ऋषभदेवको विवाद-रहित धर्मचिन्ह एनुमैयुम एभाप्पुडैत्त ॥
स्वरूपमें मानते थे, इसमें पदंह ही नहीं है। कुछ समयके अर्थ-एक समयमें पढी हुई विद्या सात जन्म तक बाद उस समय होने वाले धार्मिक-मनभेदके कारण जनताके लगातार चली थाती है । ऐसा निरुक्कुरलके प्राचार्य
अन्दर विभिन्नताकी भावना पाई और पारस्परि. मत भेद कहते हैं।
बढता गया। बन्धुत्वकी-भाईचारेकी-भावना जाती रही। धर्मरूप इस पवित्र पर्वतको देखकर उसकी रक्षा करने
ही प्रेमकं स्थानमें ईर्ष्याने श्रडा जमा लिया। मध्यस्थ-भाव का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद ही में अपने जीवनसे जटा हया छल-कपट और ईप्याक रूपमें बदल गया। जीवकारुण्य-सेवाके मार्गमें अग्रसर हा। मद्रास असेंबलीमें यह परिस्थिति जन-समूहके चरित्रमें नाशका मूल कारण बलिप्रथा रोकनेके लिए और माधारण जनताके बीच इस बनी । अपने माता-पिताके मार्ग पर चलनेके सिवाय मत कानुनको लानेके लिये जो प्रयास किया उममें भी मुझे सफ- या समय हमारे जन्मके साथ-साथ पैदा होने वाले नहीं लना मिली। १४ सितम्बर सन् १० को गवर्नर तथा होते । बुद्धिक बलसे, अन्वेपोंके द्वारा, अनुभवके सामर्थ्यसे असेम्बलीके मेम्बरोंकी मान्यतामें इसके लिये कानून बनाया हम अपने लिये और जनताकी भलाई के लिये जो सर्वश्रेष्ठ गया । वह कार्यरूपमें भी परिणत हो गया । यह विजय मार्ग है उसका अनुक ण कर सकते हैं। अपने देशके पूजाके अहिंसाकी विजय है, धर्मका प्रभाव है, और है श्रमणगिरिके वर्णनोंको पढ़े तो हमें मालूम होगा कि हम लोग कितने
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१३८]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
मतके माननेके बाद यहां आये हैं। इमलिये हम लोग किसी बन्धुत्व भावको स्थापित करना ही जैनमुनियोंका मुख्य भी मतमें रहें प्राचीन कालके समान दनियाके नेता विश्वके मिद्वान्त था । इसलिये हर स्थल पर धर्मके विषयमें जोर प्रथम गुरु, संसारके प्रथम उपदेशक, जगतके प्रथम मुनि,
दिया गया है। केवल साहित्यमें ही नहीं लिखा, वरन विश्वके प्रथम सिद्धरूप ऋषभदे के दर्शनार्थ श्रमणगिरि चट्टानों और पहाड़ोंमें भी 'धर्मका पालन करो, धर्मके सिवाय चलें। चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव हों, चाहे बौद्ध हों, चाहे और कोई सहारा नहीं है' ऐमा अंकित किया हुआ है। सिक्ख हो, चाहे चाहे ईसाई हों, चाहे मुसलमान हों और जीवकचिन्तामणिक रचयित श्रीतिरुनकदेवने अपने कोई किसी भी सिद्धान्तका मानने वाला क्यों न हो, सब अन्यकी समाप्तिमें कहा है कि चाहे कोई मत हो, चाहे कोई लोग मिलकर उस आदि भगवान के दर्शनार्थ चलें। इस देशका हो, सभीको अपने धर्म मार्गपर स्थिर रहना चाहिये। प्रकार महत्वपूर्ण होनेके कारण ही इनकी प्रतिमाओंको भाइयो, धर्म गृहस्थोंके लिये श्रादि भगवान ऋषभपर्वतों, गुफाओं, चट्टानों आदि कई बाहरी स्थानों में स्थापित देवक द्वारा कहा गया है। दुनियां में बन्धुत्व-भावको फैलाने, किया गया है।
समन्वभाव रखने, प्रेम और धर्मकी वृद्धि करने, शान्तिको जीवकचिन्तामणिमें गगवान्के समवशरणका वर्णन फैलाने, आर्थिक समस्याको हल करनेके लिये तथा देव, गुरु करते हुए कहा गया है कि 'भगवानके उपदेशामृतको सुनने पाखण्ड मृढताको दूर करनेके लिये उपयुक धर्म ही माय आयो। भगवानके उपदेशामृतको सुनने पायो।' सब लोग दे सकता है । इसलिये सभी लोग मन्-धर्मका पालन करें। एक साथ हर्षसे भगवान्के (दिव्यध्वनि) रूप उपदेशामृतका वीर शामन-संघ, कलकत्ता द्वारा प्रकाशिन 'तामिल' पान करने जाया करते थे।
की पुस्तक श्रमणगिरि चलें' का हिन्दी अनुवाद, जो उक्र जनताके चारित्रको बढ़ाकर दुनियामें समता एवं संघले प्रात हुआ, माभार प्रकाशित ।
विश्व-शांतिके उपायोंके कुछ संकेत
(ले०-श्री पं० चैनमुम्बदाम, जयपुर।) भूतकाल में अब तक जितने छोटे और बड़े महायुद्ध और संमारयुद्धोंकी कौन कहे घर और संघर्ष हुए हैं, अब हो रहे हैं और आगे होंगे, उन मुहल्लोंके माधारण मघर्पभी खत्म नहीं होते। सबका कारण है मानव-मनका आग्रह। इस आग्रह इसमें कोई शक नहीं कि आज संसारके प्रत्येक को बल देने वाला उमका स्वार्थ है और उसका राष्टके सामान्य जन युद्ध नहीं, शांति चाहते हैं। मूलाधार है, मनुष्य-मनकी चिरमंगिनी हिंमा। दुनियाँको जनता युद्धके नामसे ही घबड़ा उठती हिंसा स्वार्थ और आग्रह तोनों मिल कर मन है। मंमारके विगत दो महायुद्धांके चित्र जत्र में जो संघर्प उत्पन्न करते हैं उसका परिणाम है लोगोंकी कल्पनामें आते हैं तब उनके मन में भय अशांति। हिंसाका अर्थ केवल बाहरी मार-काट का संचार हए विना नहीं रहता। हिरोशिमा और हो नहीं है, वह तो उस हिंसाका परिणाम है जो नागासाकी अणबम विस्फोट-जिन्होंने सोते खेलते मनुष्यके मनको दृपित किये हुये है। वह है राग, हंसते हुए बच्चे, नर-नारियों एवं पशु-पक्षियोंको द्वेष, परिग्रहकी तृष्णा एवं साम्राज्य-लिप्मा, यही एक साथ क्षण भरमें मृत्युका ग्रास बना दिया थाहिंसा वाक्-कलह, छोटी बड़ी लड़ाइओं और महा- तो याद आतेही मनुष्यके मनमें उत्कंपन पैदा युद्धों तक को जन्म दे देती है।
कर देते हैं। जहाँ युद्धोंकी तात्कालिक संभावना मनुष्य अहिसा, दया आदि सदवृत्तियाकी बड़ी होती है वहाँ के नर नारी और बच्चे भयभीत ही बड़ी बातें तो बनाता है, पर सचाई यह है कि उसका सोते हैं और भयभीत ही उठते हैं। युद्धोंकी कल्पना मन साफ नहीं है। मनको बुराइयाँ बाहर आये उनके मन में ज्वर पैदा कर देती है। विना नहीं रहतीं । मन जब तक साफ नहीं हो- जब किसी भी राष्ट्रकी जनता युद्ध नहीं चाहती
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किरण ५]
विश्व-शांतिके उपायोंके कुछ संकेत
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नब सदाही युद्धोंकी विभीषिका क्यों बनी रहती है खास कर बड़े राष्ट्र अपने जीवनमें न उतारें तब यह एक प्रश्न है और इस प्रश्नका समाधान आज तक युद्ध और महा युद्धोंकी परंपराएं बंद न होगी। के राष्ट्रॉकी म्वार्थ-पूर्ण राजनीति में है। आधुनिक मनुष्य शक्तिका केन्द्र है। यदि वह अपनी शासक जनताको भुलावे में डाले रहते हैं। किसी मंपूर्ण शक्तियोंको युद्धोंके बंद करने में लगा तो युद्ध का दुष्परिणाम उन्हें तो भुगतना नहीं पड़ता। कोई कारण नहीं कि विश्व में शांति न हो। पर वे अपनी शासक शक्तिके कारण आधुनिक भयंकर अभी उसकी शक्ति यद्धोंके विनाशमें नहीं, उनके से भयंकर शस्त्रास्त्रोंसे अपनी और अपने परिजनों निर्माणमें लग रही है । अणुबम और हाइड्रजन की रक्षा करनेकी क्षमता रखते हैं। युद्धके भयंकर बमोंकी रचना ही इसका ज्वलंत उदाहरण है। किन्तु कुफल सामान्य जनताको ही भोगना पड़ते हैं। हिंसाकी चिकित्सा कभी हिंसाके द्वारा नहीं हो जिसके कि हाथमें सीधा शासन-सूत्र नहीं होता। सकती ।चाहे हिंसा, हिंसा पर आंशिक अथवा
दि आज किसी भी राष्ट्रकी जनतासे युद्धके लिए अल्प कालिक विजय पाले, पर हिंसा पर स्थायी मत लिए जावें तो उन लोगोंको निराश ही होना विजय तो अहिंसा ही प्राप्त कर सकती है। एक चपत पड़गा जो युद्धके समर्थक हैं।
का जनाव कभी दो चपत नहीं हो सकता । अन्यथा यद्यपि इस समय चारों ओर विश्वशांतिकी चपतोंकी परंपराएँ चलेगी और दोके जबाबमें आवाजें आरही है और सभी इमकी आवश्यकता चार और चारके जबावमें आठ आवेंगे। रक्तका अनुभव करत हैं, पर अभी मिस्र और हंगरी में से दृपित वस्त्र कभी रक्तसे शुद्ध नहीं हो सकता। जो रक्तपात हुआ, क्या वह आकस्मिक घटना है। हिंसा आग्रह पैदा करती हैं और आग्रह विग्रहों जिन लोगोंके मनमें घोर हिंसा नाच रही है और को जन्म देते हैं। मनुष्य के मन में इस समय जो इसी कारण जो आग्रहके पुतले बने हुए हैं वे दूसरे हिंसा समाई हुई है उसकी उपमा भूतकाल के युद्धों राष्ट्रोंकी जनताके कीमती जीवनको क्या उसी में भी नहीं मिलती। आधुनिक भौतिक यंत्रों के निगाहसे देखते हैं जिस निगारसे अपने आपको। कारण मनुष्य हिंसा की पराकाष्ठा को पहुँच जाना 'लीग आव नेशनल' और फिर इसके ममाप्त होने चाहता है और इस घोर पाप को करते हुए उसे पर बनी हुई यू० एन० ओ० सचमुच अच्छे उद्देश्यों शर्म भी नहीं है । क्या जापान के नगरों पर अणुको लकर निर्मित हुए थे, पर ये युद्धाको समाप्त बम पटक कर लाखों मनुष्यों का संहार करने वाले करने में कितने सफल हुए यह सब कोई जानता है। लोगोंने कभी अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप प्रकट इसका अर्थ यह नहीं है कि यू० एन० अंक जैसी किया ? इस समय मनुष्यमें जो पशुता आई है वह महान् संस्थाओं के अस्तित्व का आज कोई उपयोग इतनी नृशस, घातक और क्रूर है कि दुनियांक सारे नहीं है। इनकी वस्तुतः अत्यन्त आवश्यकता है; पर शेर चीते, भेड़िये और सूअर मिलकर भी उसकी ऐसी संस्थाएँ अपने उद्देश्यों को तभी पूरा कर सकती समता नहीं कर सकते । मनुष्य पागल हो गया है, है जब उनके सदस्यों के मन में मनमा वाचा कर्मणा वह युद्धक नियमोंकी अवहेलना करना भी अपनी अहिंसा उतरे। वे मनुष्यके ही नहीं, पशु पक्षी और नैतिकता समझने लगा है। 0 तक के जीवन का मूल्य समझे।
युद्ध कभी अनिवार्य नहीं होते, उन्हें टाला जा मनुष्यकी साम्राज्य-लिप्सा एक बहुत पुरानी सकता है पर वे तभी टल सकते हैं जब मनमें बीमारी है। इस बीमारीकी चिकित्सा मनुष्यको हिंसा, स्वाथे, और आग्रह न हो। अब संसार के अब करनी ही पड़ेगी। राष्ट्रांके सभी पारम्परिक सभी राष्ट्रों को मिलकर यह काम करना है कि वे युद्धीका आदि कारण यही है । पर जब तक भग- कौनसे अमोघ उपाय हैं जिनका अवलंबन करनेसे वान् महावीर और महात्मा बुद्ध आदि महा पुरुपों युद्ध केवल भूतकी वस्तु बन जावे और उसकी की आध्यात्मिक शिक्षाओंको संसारके सभी और विभीषिकासे मानव-मन सदाके लिए आतंक-हीन
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अनेकान्त
[वर्ष १४
हो जाय । खास कर दुनियांके बड़े राष्ट्रों पर अब और हाईड्रोजन बमोको खत्म कर दिया जाय । यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि वे इम विपयमें उनके परीक्षणों पर पाबन्दी लगादी जाय । निर्णय करें । अन्यथा हर जगह प्रलय के दृश्य ३-अणु शक्ति का उपयोग विनाशमें नहीं, उपस्थित हो सकते हैं।
मानव की भलाई के लिए किया जाय। ____ विश्व शांति के लिए जो अव्यर्थ उपाय हो ४-त्येक राष्ट्र पंच शील को मानने के लिए सकते हैं उनमें से कुछ यह हैं-
प्रतिज्ञावद्ध किया जाय। १-कोईभी राष्ट्र अपने मातृ-प्रदेशके अति- ५-धर्मवाद, जातिवाद , और, वर्गवाद रिक्त किमी दृमरे गष्ट्रकी एक इंच जमीन पर भी कानूनी अपराध ठहराये जावे और संसारके सारे कब्जा न करे। अगर ऐमा कब्जा पहलेसे है तो राष्ट्र एक दमरेको अपना कुटुम्बी समझे। उसे बिना किमी हील हवालेके सद्भावना पूर्वक कर मंकेत हैं जो ममचे विश्व में स्थायी शांति तत्काल छोड्दें। कौन किमका मात्र प्रदेश है इसका स्थापित करने में माधकतम कारण हो सकते हैं। निर्णय एक चुनी हुई निष्पक्ष ममिति करे । पर यह निश्चित है कि इनकी सफलता मानव मन
२-युद्धके सभी वैज्ञानिक शस्त्रांका निर्माण की अहिंमा, अनाग्रह और अपरिग्रहके मिद्धान्त सदाके लिए बन्द करदिया जाय। मौजूद अणुवम पर आधारित है।
अहिंसा और अपरिग्रह
(श्री भरतसिह, उपाध्याय) आधुनिक जीवन सर्वत्र परिग्रह-प्रधान है, जिसके ही अपरिग्रह के प्रयोगका एकमात्र क्षेत्र है, जीवनसे पास परिग्रह नहीं है, ममाज में उसका कोई म्यान अलग होकर अपरिग्रह कोई चीज नहीं रह जाती, नहीं है, उसका जीवन नगण्य है, अकिंचनता का उसका कोई अस्तित्व नहीं है। आजके जीवनमें श्राज समाज में आदर नहीं है, इसलिये अपरिग्रह- यदि अपरिग्रहकी प्रतिष्ठा दिखाई नहीं पड़ती और की पूजा आज पुस्तकोंक पन्नांम ही रह गई है, उसके अभ्यासके लिये अनुकूल परिस्थितियां और आधुनिक भौतिकतावादी युग वस्तुतः उन लोगोंक वातावरण नहीं मिलते, तो यह उन लोगोंके लिये लिये जो आन्तरिक साधना करना चाहते है घोर गहरी चिन्ताका विषय होना चाहिये जो अपरिग्रह निगशाओंसे भरा हुआ है, भृग्व-प्यासकी स्थूल की प्रशंसा करते हैं या उसे अपने जीवनमें साधना आवश्यकताओंकी निवृत्ति तकके लिये आज मनुष्य- चाहते हैं। इसीलिय मैं कहता हूं कि साधनाकी
इच्छा करने वाले लोगोंके लिये यह युग घोर निरा. भयावह है, और पहलेके इतिहासमें इतनी मात्रामं शाओंसे भरा हुआ है, आज जबकि अर्थ और वह कभा नहीं देखा गया । ऐसा लगता है कि काम जीवनके मुख्य आधार बन गये हैं ज्ञान, धर्म भौतिक विज्ञानकी प्रगति और तज्जनित यान्त्रिक और दशन सबका आर्थिक और राजनैतिक सभ्यताके विकासने मनुप्यकी इस तत्रतत्राभिनन्दिनी मूल्यांकन हो रहा है, कौन अपनी वृत्तियों को अन्दर तृष्णाकी वृद्धि में योग दिया है और उसकी यह समेट कर अपरिग्रहकी साधना कर सकता है, भूख निरन्तर बढ़ती ही जारही है। यदि अपरिग्रह लोकसे अपनी आँखें मूंद सकता है। विश्व में एक कल्याणकारी वस्तु है तो उसके इस महत्त्व और साधकोंकी कमी हो सकती है, परन्तु उनका नितान्त उपयोगकी जांच जीवनमें ही हो सकती है, जीवन अभाव नहीं हो सकता। आज भी सकिचन और
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किरण ५] अहिंसा और अपरिग्रह
१४१ सादान समाजके अन्दर रहते हुये भी अकिंचन सच्चाई हो जाता है और फिर साधक द्वन्द्वात्मक
और अनादान तपस्वी हो सकते हैं. यह आश्वासन संकल्प-विकल्पोंमें नहीं पड़ता। उसे एक उच्चतर हमें उन अत्यन्त अल्प और बचे खुचे कुछ जैन सुखकी प्राप्ति हो जाती है जिसके सामने सम्पूर्ण साधकों और तपस्वियोंसे मिलता है जिनके जीवन लौकिक सुख जो परिग्रहसे प्राप्त होता है उसे अपरिग्रहकी परीक्षा पर खरे उतरते हैं और जो नीरस और फीका लगने लगता है । यह स्थिति जब परिग्रहसे कलुपित समाजमें भी उसके प्रकाशको तक नहीं आती, साधकको निरन्तर यत्नशील रहना यथासम्भव विकीर्ण कर रहे हैं।
पड़ता है और उसके पतनकी सम्भावना बनी ज्ञानकी परीक्षा अपरिग्रह में है, कौन व्यक्ति रहती है। ज्ञान या पवित्रताके मागेमें कितना अग्रसर है, हिंमाको आजकल प्रायः एक सिद्धान्तके रूपमें इसकी जांच हम उसके परिग्रही मात्रा कर
रकवा जाता है और व्यक्ति और समाजको उसे सकते हैं। प्राचीन शास्त्रकारीने माना है कि पूर्ण अपनानेकी प्रेरणा दी जाती है, परन्तु अहिंसा अपारग्रहका साधना उम व्याक्तस नहा हा सकता वस्तुतः जीवनकी एक पूरी विधि ही है जो तभी जो घर में निवास कर रहा ह, अयोन जिमके ऊपर प्राप्त की जा सकती है जब उसके लिये आवश्यक गृहस्थीका भार है। फिर भी वह अपरिग्रहकी पूरी प्टिको विकसित कर लिया जाय । जब तक दिशामें काफी प्रगति कर सकता है, अदत्तके ग्रहमासे जीवनके प्रति दृष्टि सम्यक नहीं है, अहिंसाकी बात वह विरत रह मकना है, चोरीके अनेक रूपांसे कहना बेकार है, हाँ राजनीतिज्ञांकी अहिंसाकी बात अपनको सुरक्षित रख सकता है, भोग वामनामें दृसरी है। हमारा परिग्रह भी चलता रहे, व्यापारिक कमी करके वह अपनी आवश्यकताओंको काफी प्रतिद्व द्विता भी चलती रहे, व्यवहार में थोड़ा बहुत कमा कर सकता है, जिम मात्रामें और जितनी दूर शोपण भी करते रहे, सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष चोरीको तक मनुष्य अपरिग्रहकी साधना करता है उसी भी वैध मानते रहें, और साथ ही अहिंसाके पालनमात्रामें और उमी हद तक वह चित्तकी शान्ति के फलको भी प्राप्त कर लें, ऐसा लोभ साधारण प्राप्त करता है और बन्धनोंसे मुक्त होता है। सांसारिक मनुष्यको हो सकता है, परन्तु सत्यका वस्तुओंके परिग्रहके अलावा एक मतका भी परिग्रह कठोर नियम इसके लिये अवकाश नहीं देता । यदि होता है जो हमाग मत या वाद है वही मत्य है, हम परिग्रह करते हैं तो इसके माने यह है कि किसी सर्वोत्तम है, शुद्धतम है, अन्य मव मत-वाद निकृष्ट न किसी प्रकार सूक्ष्म या अप्रत्यक्ष रूपसे किसी-नहै अपवित्र है, और असत्य हैं । इस प्रकारकी दृष्टिका किमी मात्रामें हम हिंमा भी अवश्य करते हैं, या आग्रह रखना दृप्टिका परिग्रह है, बड़े बड़े विद्वान उमके लिये उत्तरदायी बनते हैं। इसलिए यदि पुरुप तक इस परिग्रहसे पीड़ित रहते हैं इमकी भी हिंमा या उमकी सम्भावनाको हटाना है तो परिछोड़ना चाहिये, अनेकान्तवादका सिद्धान्त हमें ग्रहको अवश्य धीरे धीरे कम करना ही होगा। इसके किये प्रेरणा देता है।।
परिग्रह अर्थात व्यक्तिगत परिग्रह और राष्ट्रीय ___ साधनाके विकास में अपरिग्रह अहिसाका परिग्रह भी । साम्नाज्यवाद या उपनिवेशवाद राष्ट्रीय सहायक है, पहले अपरिग्रह आता है, बाद में परिग्रहके ही नाम हैं। चूंकि व्यक्तियांसे ही राष्ट्र अहिंसा सधनी है, वाम्नवमें तो अपरिग्रहसे भी बनते हैं और हिमा व्यक्तिक मनमें ही उत्पन्न होती पहले वैराग्य और नित्यानित्यवस्तुविवेक आना है। इसलिये जैनधर्म-साधनाने और सामान्यतः चाहिये, तभी अपरिग्रहके प्रेरणा मिलती है और सम्पूर्ण भारतीय धर्म-साधनाने व्यक्तिकी हिंस्र उसमें मन रमता है, जब चित्त अपरिग्रह में मुग्व भावनामें परिष्कार पर ही अधिक ध्यान दिया है। प्राप्त करने लगता है जो कि बाह्य वस्तुओंकी प्राप्तिमें हिंसा जिन कारणोंसे उत्पन्न होती है उनके दूर कर नहीं मिलता, तभी वह उसके लिये एक अनुभवकी देनेसे ही वास्तविक अहिंसाकी प्राप्ति हो सकती है।
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१५२1 अनेकान्त
[वर्ष १४ यह एक विधायक स्थिति है, निपेधात्मक नहीं। स्थापित नहीं होंगे, बल्कि इस सृष्टिके सेम्पूर्ण प्राणिजैन विचारकोंने, जैसा पहले संकेत किया जा चुका योंको जीनेका अधिकार मिल जायगा और उनके है, परिग्रहसे ही हिंसाकी उत्पत्ति मानी है । यदि जीवनको उसी प्रकार पवित्र माना जायेगा जैसा व्यक्तिगत जीवनमें अधिक संख्यामें मनुष्य पहले मनुष्यके जीवनको । यही जीवमात्रके अभेदकी वह अपरिग्रहका अभ्यास करें और फिर बादमें सामाज दृष्टि है जिसे जैन शासन हमें देना चाहता है, में उसका प्रसार करें तो निःसन्देह प्राणियों में इसीके साधन या मार्गको वह अहिंसा कहकर समताकी भावना आयेगी, उनमें सोहार्द बढ़ेगा पुकारता है। जिसकी साधना बिना अपरिग्रहके और केवल मानव-मानवमें ही मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध सम्भव नहीं है।
विश्व-शान्तिके साधन
(श्री पं० राजकुमार जैन, साहित्याचार्य, एम० ए०) एक युग था, जिसे जैन मान्यतामें भोगयुग हुआ और शनैः शनैः वे माया, मद और क्रोध जैसी अथवा शान्तियुग कहा जाता है, इस मान्यताके तामसिक दुर्बलताओंके शिकार होने लगे । हिमा, अनुसार वह अवसर्पिणीकालका प्रारम्भ था, उस झूठ चोरो, कुशील तथा परिग्रह जैमी पापसमय धर्मका अपने नामरूपसे कोई अस्तित्व नहीं वृत्तियोंकी और भी उनका आकर्पग बढ़ने लगा, था, प्रत्येक मानव सुखी था, तथा अपनी दैनिक लोगों में अमीर-गरीब और ऊँच-नीच का भद आवश्यकताओंसे निश्चित था । व्याक्त सर्वत्र बिखरे उत्पन्न हो गया, समताका स्थान विषमताने ले हए प्राकृतिक साधनांसे अपना आवश्यकताओंकी लिया. तथा सरलताका मायाचारने । उस समयके पूति किया करता था, और उस अपनी आवश्यकताके लोक-कल्याण-कामी मनीपियाँको लोगोंकी यह अनुरूप समस्त वस्तुएं उपलब्ध हो जाती थीं। तथाकथित संग्रहवृत्ति अभिशापस्वरूप प्रतीत हुई मानव-जीवन आज-कल जैसा विषम नहीं था. सर्वत्र और उन्होंने इस दुवृत्तिका नियन्त्रित करने के लिए सरलता एवं समताका साम्राज्य था। उस समय क्रमशः हा.मा.धिक, जैसे दंड विधानांकी स्थापना धनी-निर्धन एवं ऊँच-नीचका भेदभाव नहीं था.न करते हुए तथा अहिंसा, सत्य, अचीय, ब्रह्मचर्य एवं कोई राजा था न प्रजा, न कोई शापक थान शोध्या अपरिग्रहका पवित्र सन्देश देते हुए तत्कालीन मानव-जीवन बड़ा ही सरल और सन्तोषी था जनताको इस पापवृत्तिसे विरत करनेका पुण्य प्रयत्न जीविका-निर्वाहके साधनोंके समान रूपसे मल किया, किन्तु इस संग्रहवृत्तिक साथ अन्य रहने के कारण उस समयका मानः क्रोध मान,
पापवृत्तियाँ भी अनियन्त्रित होकर उग्रस उग्रतर माया एवं लाभ जैसी तामसिक दुवृत्तियों का ना रूप धारण करती गई और आज इनके उग्रतम नहीं था और हिंमा, अठ, चोरी, कुशील एव परिग्रह रूपने तो युगको ही घोर अशान्तिके युगमें परिवर्तित जैसी पापवृत्तियाँ भी आजकी भांति उसकी आत्माको कर दिया। जड़ नहीं बनाये हुई थीं।
तो आजका युग घोर अशान्तिका युग है, परन्तु युगने करवट ली और प्रकृति-प्रदत्त आजका व्यक्ति अशान्त है, समाज अशान्त है, साधनोंका प्रचुरतासे ह्रास होने लगा, यह हास इस राष्ट्र अशान्त है, विश्व अशान्त है। इस अशान्तिसीमा तक पहुँचा कि मानवके जीवन-निवांहम जनित भीषण ज्वालाओंसे विश्वका वातावरण बाधा उपस्थित होने लगी, फलतः लोगोंके मनमें पूर्णतया भयावह हो उठा है । आज व्यक्ति व्यक्तिको जीवन-सम्बन्धी सामग्री संग्रह करनेका लोभ उदित आत्मसात् करने में, समाज समाजको उदरस्थ करने
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किरण ५] विश्व-शांति के साधन
१४३ में, एवं राष्ट्र राष्ट्रको भस्मसात करनेकी चिन्ता किसीके धन-पर लालच मत करो। तथा प्रयत्नमें संलग्न है अण एवं उदजन जैसे धमों इन दिव्य-दृष्टि ऋषियोंने कितने अधिकारके का आविष्कार म्पष्टरूपसे सिद्ध कर रहे हैं कि आज
साथ कहा था:मानव संग्रह तथा अधिकार वृत्तिकी पराकाष्ठा पर
१--मोघमन्यो विन्दते अप्रचेताः सत्यं व्रबीमि पहुँच कर किस प्रकार विश्व-विनाशकी दानवीय
वध इत् सतस्य । लीलाका सृजन कर रहा है।
२-नार्यमर्ण पुध्यति नो सखायं केवलापी मानवताके उपासक तथा शान्तिके पुजारीके
भवति केवलादी सः। ऋग्वेद १०.११७. ६ लिये व्यष्टि, समष्टि एवं विश्वका यह अशान्त
मैं सच कहता हूँ कि जो स्वार्थपूर्ण उत्पादन वातावरण गंभीर चिताका विषय बना हुआ है,
करता है वह स्वयं उत्पादक का वध करा देता यद्यपि आधुनिक यान्त्रिक युगके पहले भी इसी भाँति
है तथा जो व्यक्ति अपने धनको न धर्म में मानव-जीवनम अनेक प्रकारकी जटिलताओं और लगाता है न अपने मित्रको देता है, जो समस्याओंने प्रवेश कर असन्तीप और अशान्तिका
केवलादी है अर्थान् ; केवल अपना ही वातावरण उत्पन्न किया और तदनुरूप समय-समय
पेट भरता है वह केवलाद है, अर्थान् केवल पर अवरित महात्माओंने उनके समाधान करने- पाप ही खाता है। का प्रयत्न किया, फिर भी आधुनिक युगकी भांति
उन्होंने तत्कालीन समाजके सामने त्यागका विपमता और निगशा इतिहास में कम ही देखने सुन्दर श्रादशे उपस्थित किया थाको मिलती है।
शत-हम्तः समाहर, सहस्र हस्तः संकिर । इतिहास हमको यह बतलाता है कि संसारमें
अथव ३-२४५: जब कभी अशान्ति और निराशाका वातावरण
सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजारों हाथों फेला तब विश्ववंद्य विभूतियोंने जन्म लेकर अहिसा से बाट दा। एवं मत्य की माधनासे शान्ति-प्राप्तिका मार्ग प्रदर्शित
अथर्व वेद के ब्रह्मपिने कितनी सुन्दर व्यवस्था
की थीकिया भगवान ऋषभदेव ऐसी ही विभूतियों मेंसे समानी प्रपा सह वोन्भागः समाने यात्रे। थे जिन्होंने मवप्रथम अहिसा, अपरिग्रह एवं
अथव० श.६६ सत्यशीलके दिव्य सन्देश द्वारा तत्कालीन व्याप्ट
तुम लोगोंका पानी समान हो, तुम्हारा एवं समष्टिगत अशान्तिको दूर करनेका प्रयत्न खाद्यान्न समान हो, तुम सबका समान बन्धनमे किया और आत्मस्वातंत्र्य-प्राप्तिक मागेका प्रशस्त बांधता है, और तुम एक दुसरेके साथ सम्बद्ध रहा। किया।
मध्य युगमे भी भगवान महावीर, बुद्ध, ब्रह्म-वर्चस वैदिक ऋपियांने भी अपने समयकी ईमा. हजरत महम्मद तथा शंकराचार्य जती समाज-व्यापी अशान्तिको दूर करनेका उपदेश विभांतयोंने समय २ पर हिमा, अपरिग्रह, अनेकांन दिया और अहिंसा अपरिग्रह तथा तथा सत्य जैसे तथा विश्व-मैत्री जैसे अमाघ साधनांसे मानव
आदर्शोको ही सामाजिक शान्तिका मूल मन्त्र माना। जीवन में एक्य और शान्ति का प्रतिष्ठित करनेके उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया--
पुण्य प्रयत्न किये। आधुनिक युगमें भी राष्ट्रपिता १- सत्यम्य नावः सुकृतपिरन, ऋग्वेद महात्मा गाँधी ऐसे महापुरुष हुए जिनको हम सबने १-७३-१ | सत्यकी नाव ही जीवात्माको पार अपनी ऑखांसे देखा और जिन्होंने अहिंमा एवं लगाती है।
सत्याग्रहके मार्गसे न केवल शताब्दियोंक पराधीन २-मा जीवेभ्यःप्रमदः । अथर्ववेद-जीवांके भारतको स्वातंत्र्य लाभ कराया, अपितु विश्वकी प्रति प्रमादी मत बनो,
उत्पीडित जनताको भी शाश्वत शान्तिका मंगलमय ३-मागृय : कम्यस्विद । धनमः। यजु०४०.१. मार्ग प्रदर्शित किया।
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१४४]
अनेकान्त
[वर्ष १४
यह सौभाग्यका विषय है कि अतीतकी भाँति ही मार पारम्परिक ऐक्य एवं मदभाव मूत्रमें आबद्ध आज भी भारत विश्व में शान्ति स्थापित करनेके हो तथा अन्तर्गष्ट्रीय जगतमें मानवीय ऐक्यकी लिये प्रयत्न कर रहा है और आजकी जनताके लिये प्रतिष्ठा हो। यह गर्वका विषय है कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री ८-अगण एवं उदजन जैसी शक्तियांका नियोजन पंडित नेहरू पंचशील जैसे मिद्धान्तोंके निर्माण में लोक कल्याणकारी कार्यों में किया जाय। क्रियात्मक योग देकर विश्वकी वर्तमान अशान्तिको -अनेकान्त मिद्धान्तके आधार पर विभिन्न दूर करनेका सराहनीय प्रयास कर रहे हैं । यद्यपि मत-मतान्तर-गत विद्वप एवं घृणाके भावोंको उनका यह प्रयाम अहिंसा और मत्यकी भावनासे समाप्त किया जाय । ही अनुप्राणित है फिर भी विभिन्न राष्ट्रोंकी पारम्प- १०-भौतिक प्रगति करता हआ भी व्यक्ति रिक लाभकी दृष्टिसे ऐक्य सूत्रमं आबद्ध करनेका आत्म-म्वातंत्र्य-गत विद्वप एव घृणाके भावोंकी यह नवीनतम प्रयास है। पर देखना यह है कि समाप्ति तथा आत्म-विकासको ही अपना चरम लक्ष्य क्या पंचशीलके आधार पर स्थापित विश्व शान्ति बनाय । सच्चे अर्थ में विश्व शान्तिका रुप ले सकेगी, ११- प्रत्येक गष्ट्रकी भौतिक प्रगतिका विनियोग हमाग उत्तर है कि इस प्रकार भी वास्तविक विश्व
भी म्व पर-कल्याण में ही हो। शान्ति असम्भव है। इसका यह अर्थ नहीं है कि १२-सन्देह एवं घृणा विद्व प और प्रतियागिता पंचशील सिद्धान्तकी उपयोगिताक सम्बन्ध में हम की भावना पर प्रतिष्टित आधुनिक राष्ट्रीयताका संदिग्व हैं। पंचशीलकी स्वीकृति विभिन्न राष्ट्रांकी समूल उन्मूलन किया जाय।
इस प्रकार जब विश्वकी अशान्निका निराकरण ऐक्य एवं सद्भावके सूत्र में आबद्ध कर सकनेम तो
व्यक्तिक आत्म विकाममं निहित है, तब आवश्यक सफल रहेगी ही और इस प्रकार इस रूपमं विश्व
है कि हम सब मिलकर अपने चरित्रका निर्माण शान्ति प्रतिष्ठित करने में भी उसकी सफलता अक्षुण्ण करें और अपने अन्त करणको इतना निर्मल बना रहेगी। परन्तु इससे व्यक्तिके चरित्र निमारणमें
लें कि हमसे पुनः भूमंडलके अधिवासा मानवीय निश्चय रूपसे प्रेरणा नहीं मिल सकेगी।
चरित्र सीग्वनेके लिये उत्कंठित हो मकें और हम हमारी सम्मतिमें विश्व शान्तिके निम्न उपाय हैं
इसके अधिकारीके रूप में विश्व में स्थायी शान्ति १-यत विश्व, मूलतः व्यक्ति-समप्टि पर प्रतिष्ठित कर सके । अतः कविवर पन्तक शब्दांमें आधारित है. अतः व्यक्ति-विकास सर्व प्रथम अप- शान्ति-स्थापनका प्रश्नक्षित है।
राजनीतिका प्रश्न नहीं रे आज जगतके सम्मुख, २-व्यक्तिविकासका अर्थ है उसके चरित्रका अर्थ-साम्य भी मिटा न सकता मानव जीवनक दुग्व। निर्माण ।
आज बृहत सांस्कृतिक समस्या जगक निकट उपस्थित ३-अहिसा, अपरिग्रह, सत्य अचार्य एवं ब्रह्म- खंड मनुजताको युग युगको होना है नव निर्मित ॥ चर्यके आदर्शको सम्मुख रखकर व्यक्तिका चरित्र
राजनीति, आर्थिक समानता और राष्ट्रीयताका निर्माण किया जावे।
प्रश्न नहीं है वरन् खंडोंमें विभाजित मानवीय Y-प्रस्तुत चरित्र-निर्माण व्यक्तिक शेशव-काल- सांस्कृतिक एकताके नव निर्माणका प्रश्न है। अतः से किया जाय और प्रयत्न-पूर्वक किया जाय ।
हम सब ऊपर बताये गये सिद्धान्तांका पालन करते -व्यक्तिके चरित्र निर्माणका पूर्ण दायित्व हो पनत नवनिर्मागाका वन लें । विश्व | राष्ट्र उठाये और उसकी सुव्यवस्था करे। यही सर्वोत्तम मार्ग है। .
६-व्यक्तिमें वर्ग, जाति और राष्ट्र भेदकी सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। कल्पना अंकुरित न हो सके।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ॥ ७-विश्वका राष्ट्र-मंडल पंचशील योजनाके अन
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
मागा.
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जैनकला-प्रदर्शनी और सेमिनार
गत नवम्बर मासमें भारतकी राजधाना दिल्ली द्वीपका मंडल, रथ, पालकी और वेदी से प्रदर्शनी में अनेक सांस्कृतिक ममारोह हुए, जिनमें यूनेम्का वस्तुतः प्रदर्शनीय बनी हुई थी। मम्मलन, बुद्ध जयन्ती और बौद्ध कला-प्रदर्शनी प्रमुख प्रदर्शनीके मध्य भायमें मैसूर, अजमेर, जयपुर, थ। इसी अवमर पर जैन समाजकी ओरसे जैन बीकानेर आदि अनेक शास्त्र-भण्डारांसे आय हये कला-प्रदर्शनी और सेमिनारका भी आयोजन किया प्राचीन एवं रंगीन चित्र शास्त्र शोकेशांमें सजाकर गया । स्थानीय सम्र हाउसके प्राङ्गणमें जैन-कला रखे गये थे। हस्तलिखिते शास्त्रोंमें १२वीं शताब्दीसे प्रदर्शनीका उद्घाटन भारत सरकारके खाद्यमंत्री लेकर १६वी शताब्दी तकक अनेक दर्शनीय ग्रन्थ श्री अजितप्रमादजी जनक द्वारा २५ नवम्बरको थे। इनमें अनेक ग्रन्थ स्वर्ण और रजतमयी स्याहीसे दिनक ११ बजे किया गया। इस अवसर पर अनेक लिखे हुए थे। मचित्र ग्रेन्में ताड़पत्रीय कल्पसूत्र मंत्रियों और संसद्-सदस्योंके अतिरिक्त स्थानीय और कालिकाचाय-कथानकके अतिरिक्त कागज पर
और बाहरसे आये हुये हजारों व्यक्ति उपस्थित थे। लिये गये ग्रन्थ भी पयाप्त सख्या में विद्यमान थे, उद्घाटनसे पूर्व स्वागत-समारोह के अवमर पर जिनमें जयपुरका चित्र भक्तामरस्तोत्र, आदिपुराण, श्री० साहू शान्तिप्रसाद जी, ला. राजेन्द्रकमारजी. यशोधरचरित्र, त्रिलोकमार और वीरसेवान्दिरकी श्री. अजितप्रसादजी जैन और आकिलोजिकल रविव्रत कथा उल्लंग्वनीय हैं। इन ग्रन्यांक चित्रांने डिपार्टमेन्टके डायरेक्टर जनरल डॉ. श्रीरामचनले दर्शकांको विशेपरूपसे अपनी ओर आकृष्ट किया। भापण हुए । डॉ. रामचन्द्रनने जैनमतिकलाकी ग्रन्थराज धवल-मिद्धान्तके हजार वर्ष प्राचीन ताड़प्राचीनता और महत्ता पर प्रकाश डालते हा कहा पत्रोंक वीरसेवामन्दिर-द्वारा लिये गये फोटो भी कि जैन तीर्थकरीकी दिगम्बर मूतियाँ अहिमा और प्रदर्शनीकी श्रीवृद्धि कर रहे थे। कपड़ों पर बने हुए शान्तिकी प्रतीक हैं और उनके द्वारा हमें यात्मिक- अनेक चित्र भी मनमोहक थे। प्राचीन काल में जैन शान्ति प्राप्त करनेका एक मृक सन्देश प्राप्त हाना माधु जिन उपकरणांक द्वारा ग्रन्थ लिखते थे-वे है। आपने अपने भापगमें हम-घाटी. हडप्पा प्राचीन उपकरण भी अनेक भण्डारांसे लाकर प्रदआदि प्राचीन ऐतिहासिक स्थानांसे उपलब्ध जैन- शनीमें यथास्थान रखे हुये थे। मत्तियोंकी विशेपताका बहतहीसन्दर परिचय दिया। यह प्रदर्शनी २५ मवम्बरसे २ दिसम्बर तक ___ प्रदर्शनीकी सजावट बहुत ही आकर्षक और दर्शकों के लिए खुली रही और देश-विदेशांक हजारों मनोरम थी। प्रचीनता और एतिहासिकता क्रमसे व्यक्तित्याने उसमे जाकर भारतीय जैनकलाका अव. सारी वस्तुएं यथास्थान रखी गई थी। हड़प्पा, लाकन उसकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की। उदयगिरि-खंडागर, मथुरा, श्रावणवेलगुल, खजु
इसी अवमर पर ३० नवम्बरस २ दिसम्बर तक राहो. आबू, चित्तौड़गढ़ आदि स्थानांके अनेक एक समिनार (गोष्ठी) का भी आयोजन किया ऐतिहासिक विशाल चित्र, देवगढ और पार्श्वनाथ गया। जिमके लिय स्थानीय विद्वानांके अतिरिक्त किला (बिजनौर ) की भव्य मूत्तियाँ चौदहवीं बाहरसे आय हुए व्यक्तियाम डॉ० कालीदास नाग, शताब्दीकी बनी लकड़ीकी कलापर्ण वेदियॉ. मित्त- डॉ. हरिमोहन भट्टाचार्य, बा. छोटेलालजी जैन नवामल (दक्षिण भारत) के सरम्य रंगीन चित्र कलकत्ता, डॉ० हीरालालजी वंशाली प० जगन्मोहन भगवान महावीरक पाँचों कल्याणकांक प्रदर्शक लालजी कटनी, पं० महन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य सुरम्य चित्र अठारह भापामें उत्कीर्ण देवगढ़का बनारम, ६० मुमेमचन्द्रजी दिवाकर मिवनी, श्री० पापाण-शिलालेख, अजमेरकी स्वणिम अष्टमंगल- अगरचन्द्र जी नाहटा बीकानेर, श्री० करतचन्द्रजी द्रव्य और मोलह स्वप्नोंसे मंडित सुन्दर बन्दनवार, काशलीवाल एम. ए. जयपुर, पं० पद्मनाभजी मैसूर, तीन लोक और बाहुबलीके विशाल चित्र, अढ़ाई- पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य, बड़ात आदिके
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१४६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
D
.
नाम उल्लेखनीय हैं।
ने अपने भाषण में कहा कि विश्व-संस्कृति में जैन सेमिनारका उद्घाटन ३० नवम्बरको ११ बजे संस्कृति का स्थान महत्वपूर्ण है। अहिंसा विश्व में श्राचार्य कालेलकरने किया। आपने अपने भाषणमें बढ़ती जा रही है और इसी से विश्व की समस्याओं भ. महावीर और म. बुद्धकी चर्चा करते हुये का समाधान हो सकता है। आपने यह भी कहा बतलाया कि उनके द्वारा उपदिष्ट मार्गसे ही आजके कि प्राचीन काल में श्रमण संघ इस प्रकार के तनाव तनावपूर्ण प्रशान्त वातावरण में शान्ति स्थापित की पूर्ण वातावरण को रोकने में सफल हुए थे। जा सकती है। जैनधर्म आत्मोन्नतिकी प्रेरणा देता आज सायंकाल ३ बजे सेमिनार की तीसरी है और अहिंसाके द्वारा मानव ही नहीं, प्राणिमात्रके बैठक डा०हरिमोहन भट्टाचार्य के सभापतित्व में कल्याणकी कामना करता है। आपने जैन सिद्धान्तों हुई, जिसमें अनेकान्त और स्याद्वाद पर अनेक की विशदरूपसे चर्चा करते हुए अनेकान्त आदि विद्वानों के महत्वपूर्ण भाषण हुए। सिद्धान्तोंके व्यवहार में लाने पर जोर दिया। इसी २ दिसम्बर के प्रातः || बजे से चौथी बैठक समय आ० देशभूपणजी और आ० तुलसीजीने भी डा• कालीदासनागको की अध्यक्षता में प्रारंभ हुई। अपने भाषणमें बतलाया कि आजके युगमें अने- आज का विषय 'विश्व शान्ति के उपाय' था। श्री कान्त दृष्टि ही विश्वको उवारने में माध्यम बन सकती रवीन्द्र कुमार जैनने बताया कि हमें जीवनके प्रत्येक है। अहिंसा और अपरिग्रहकी आराधना ही विश्व- पग में अहिंसा और अपरिग्रहको लेकर चलना मंत्रीका सच्चा रास्ता है। अपनी दुर्वलताओंको जीते होगा, तभी विश्व में शान्ति का वातावरण सम्भव बिना न हम स्वयं शान्ति प्राप्त कर सकते हैं और हो सकेगा। ललितपुर के व कालेज के प्रिन्सिपल न विश्वमें ही उसे प्रस्थापित कर सकते हैं। बी० पी० खत्री ने अपने वक्लव्य में कहा कि आज
डा० कालीदास नागने अपने महत्वपूर्ण ओज- विश्व शान्ति के लिए जो पंचशील की योजना बनाई स्वी भाषणमें कहा-भारतके प्रति विदेशोंका जो गई है, उसमें जैन धर्मके सभी मूल सिद्धान्त परस्पर-संभापण और मैत्रीका सम्पर्क बढ़ रहा है, सन्निहित हैं। पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री ने वह इस बातका प्रतीक है कि संसार भारतसे मिल कहा कि आज विश्व में अशान्ति का प्रधान कारण कर वह शान्तिपूर्ण वातावरण बनाना चाहता है, मानव ही है। यदि मनुष्य ने अपने आपको ठीक जिमका प्रचार बहुत पूर्व भ० महावीरने किया था। कर लिया, तो विश्व में शान्ति स्वयमेव स्थापित हो डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्रीने जेनधर्मकी सस्कृति पर मह जायगी। पं० राजकुमार जी साहित्याचार्य ने बताया स्वपूर्ण भाषण दिया। अध्यक्ष पदस भापण देते कि हमें आवश्यकता है अपने चरित्र-
निर्माण की। हुये साहू शान्तिप्रसादजी जैनने श्रमण संस्कृतिके यदि सदु-भाव के सूत्र से बंध कर अपने चरित्र को समस्त पुजारियांसे अनुरोध किया कि वे विश्व- विकसित कर लिया, तो हम शान्ति का एक आदर्श बन्धुत्वकी भावना और विश्वशान्तिके प्रचारके उप म्थत कर सकेंगे। श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन ने लिये तैयार हो जावें।
मुख्यतया तीन समस्यायें वताई-१ साम्राज्यवाद की दिसम्बर का प्रातः ॥ संमिनार की दूसरी लिप्सा, २ ईर्ष्या द्वेप घृणा और ३ आर्थिक विपमता। बैठक डा. हीरालाल जी की अध्यक्षता में हुई। इन तीनों बुराइयों का निराकरण हम अहिंसा उसमें डा. हरिमोहन भट्टाचार्य, पं० सुमेरचन्द्र जी सिद्धान्त के द्वारा कर सकते हैं और विश्व में शांति दिवाकर, पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, बा० अवश्य स्थापित हो सकती है। श्री मुनि फूलचन्द्र जी कामताप्रसाद जी, श्री अगरचन्द्र जो नाहटा, डा० ने बताया कि हमने यदि अहिंसा पर गंभीरता इन्द्रचन्द्र जो, बा. माईदयालजी ओर डा० पूर्वक विचार कर लिया तो विश्व में शान्ति अवश्य कालीदास नागके अहिंसा और अपरिग्रह पर स्थापित हो सकती है। अन्त में डा० कालीदास महत्त्वपूर्ण भाषण हुए । अन्त में डा० हीरालाल जी
[शेष टाइटिल-पृष्ठ ३ पर]
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जैन ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
पउनु पऊरिय चित्त हलासु, सुकोमन-णिम्मल-वाणि-विलासु। तुमं कुरु किपि कवित्त मणि?, णमामि ण जंकहणा इह दिछ । तिणं भणियं ण कात्तु मुणेम, प्रयाणमयो भणु काई करेमि । परं महु अट्ठ गुणाहु सजेव, ण बद्ध पसिद्धहि सिद्धहि तेवि । ण देवहि दाणप-विंदहि पत्त, असेस-गुणायर-अच्छड-बच । गुणेक्कु वि कस्थवि पाविड जए, पडपड सो णयणंदी तेण । मए पुणु अंगुलि उज्मय तासु,
पणामउ मे गुणलेसु विणासु । घत्ता-पर-णिदा णिहले सलठणु सढवढ रत्ताणि द्विय । कलिकंडल अट्ठ वि गुणगरुव मईमुएवि कसु संठिय ॥३॥
पवष्टिय-संजम-प्रेल-सुरुंद, णमामि गणेस गहीर-समुद्र । महन्वय-सेल-सरोवरिन्थक्क, विचित्त-मजह-णिसुभणि-सक्क । दिसासु पणासिय-वाह-गइंद, णमामि उवज्झय चारु-मइंद। पमाय-विवक्ख-वियारण-दक्ख, समीहिय-सिद्धि पुरंधि-फडक्ख । परीमह-गुज्झि-णिबद्ध-सरीर,
णमामि असेसवि संजय-वीर । वत्ता-इय परम पंच परमेट्टि पहु पणविय पुरण पयासहि । वियरिय-विस-विसहर-जलण-णि.........॥1॥
दरिसिय सुवरण-गुण-गण-मलग्घु, मुत्तालंकरित महामहग्घु । णं वसुह-विलाम्पिणि-हियय-हारु, अथाहावंती विमय-सारु । पडिवग्व-पक्ख-पडिय-णिरोहु, सिंगार-विलास-विसंस-साहु । तहि सुकद-कहा इव चित्त-हार, एयरी-चउवग्गण-धरण-धार । तहि सरसइ-कंठाहरणु देउ, रण-रंगमल्लु पाली-समेउ । तिहुयण-णारायणु-भुषण-भाणु, परमेसर अत्थी जण-णिहाणु । पम्मारवंम-गयणेक्कचंदु, जर्यासार-णिवास भूवह-गरिंदु । तहोणेमिणामु ठक्कुर गरिठ्ठ , मपुराण-पुण्ण-पजुब जणिठ्ठ । तेल्लोक्क-कित्ति कामिणिहे धामु, सुपसिद्धउ व? विहारु णामु । महिमाणिणी हे मउन्ह व मणिलु,
काराविउ कित्तणु ते गरिछ । घत्तातहि अस्थि सूरि हरिसिघु मुणि जिणसासण-पुर-तोरणु । वालि-तरंगिणि-मयरहरु, तसिरि-बहु-मण-चोरणु ॥२॥
समोवि णिवट्ठ णियच्छिषि तेण, मुणीणयदि पसरण-मणेय।
मणु जगणवक्कु वामीउ वासु, वररुइ वामणु कवि कालियासु। कोउद्दलु वाणु मयूरसूरु, जिरासेण जिणागम कमबसुरु । वारायगु वरणाउ वि वियछ, सिरि हरिमु रायसेहरु गुणटु । जसइंधु जए जयरामणामु, जयदेउ जणमणाणंद-कामु । पालितउ पाणिणि पवरसेणु, पायंजलि पिगलु वीरसेणु । सिरिसिंहनंदि गुणसिंहभद्द, गुणभह गुणिल्लु समंतभह अकलंकु विममवाइयविडि, कामदु मदु गोविन्द दंडि। भम्मुह भारह भागवि महंतु,
चउमुहु सयंभु कह पुप्फयंतु। पत्तासिरिचंद पहाचंदु वि विबुह गुण गण गदि मणोहरु । सिरिकुमार सरसइ-कुमरू-विलासिणि-सेहरु ॥६॥
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१४.]
अनेकान्त
[वर्ष १४
इमे भरण जेते कहत्ते ललामा, गुणालंकिया कित्ति-कंताहिरामा । ण चायं भडत कहतं विटतं, गुणं केवलं मज्मयं तं सततं । जिशिंदस्स गिग्गंथ-पथं मिलीणो, पयासेमि चायं कहं गंथहीणो। करामो भडत जेणं सुप्रसिद्ध, पणासेड साणं मदूरे णिसिद्ध। समुप्परिणया मज्मिणो कब्बसत्ती, बज्झए णिग्गुणत्तय कित्ती। अलंकार-सल्लक्षण देसि छवं, ण लक्खेमि सत्यंतरं अत्थमंदं । परं लक्षणो रम्म भाई कणिटो, अलंकारवंतो वि सत्थं हइहो। हुड देसिड सो वि देसंतराले, पठो ण ऐसे कइत्त विसाले । हिसंबंध सुर सुबुद्धीइ वण्णो, ण जाणामि वाया-विलासो पवगणो । ण बुज्झमि कम्बस्स णामं पि जुत्त, हसेऊण वा सूरिणा तेण । अहं तुज्म सज्मा कवित्ती पहाडे,
पयासेमि कर भुभंगप्पयाउ । धत्ताजो चार चाउ चार हडि गुणु सु कइत्तगु ण पयासह । पार-जम्म रयणु दुल्लहु लहवि भव सायरि मो णासह ॥७॥
इय जंपिउ मुणि हरसिघु जाम, पडिजंप मुणि णयदि ताम । चिह का सरसइ करणावयंसु, सुकइत्त-सरोवर-यहंसु ।
तब्भूउ-विमल-सम्मत्त-सदलु, सयल-विहिणिहाणु सुकव्व कमलु । ववगय-मिच्छत्त-तमोह-दोसु, धम्मस्थ-काम-कमयोय-कोसु । संकाइय-मलसंगम-विरामु, दय-रम्म-रमा-रामाहिरामु। सावय-वय-हंसावलि-वियासु, परमेट्ठि-पंच-परिमल-पयासु । फेवलि-सिरि-कामिणी कम-विलासु, सग्गापवग्ग-सुह-रस-पयासु। मुणि-दाण कंद-मयरंद-वरिसु,
बुहयण-महुयर-मण-दिण्ण-हरिसु । पत्ताइय कब्बु कमलु कोमल करह, जो कारु स कण्णाहं । सो सिद्धि पुरंधिहे मणु हरह, कवणु गहणु सुरकरणाहं ॥१॥
मुणिवर-णयणंदि-संणिबद्ध पसिद्ध, सयन-विहि-विहाणे एत्य कम्वे सुभब्वे । सुहउ सुका चाई वरणगुल्लासजुत्तो, ललिय-पयर उत्तो प्राइमो संधि वुत्तो ॥१॥
x xxx सिरी भोयएव धाराउरेहि, कव्व विणं एं अच्छह । मुणि मणइ एम हरिसिधु तहो,पयदि एव सुपयासह
पारंभि वि कम्बु ममंतएण, पुर पट्टण पमुह कमतएण। गयणदि मुणिदु मुणोहि रम्मु, वस्थीसुणियच्छिउ लच्छि-धम्मु । जहि वच्छराउ पुणु पुहइ वत्थु, हुतउ पुह ईसरु सूदवत्थु । होएप्पिणु वत्थए हरि मएड, मंडलिउ विक्कमाइच्चु जाउ । भुवणेक्कमलु रायहो पियारु, गुणवंतउ गउरि-गुण-पियारु ॥ अबाइय कंचीपुर विरत जहं भमहं भन्बु भत्तिहि पसत्त । जहिं वल्लहराए बल्बहेण, काराविड किसणु दुल्ण्हेण ।
पचक्ख-परोक्ख-पमाण-पोर, पाय-तरल-तरंगावनि-हीर । वर-सत्तभंगि-कल्लोल-माल, जि-सासणि-सरि-जिम्मल-सुसाल । पंडिथ-चूड़ामणि विबुह-चंदु, माणिकर्णदि उप्पण्णु कंदु। दिढबुद्धि कठिण कंटय-पयडु, तहो तुहु हुड सीसु गुणस्य डंडु।
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किरण
जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[१४६
जिण पडिमालंकिउ गच्छमाणु,
अन्तिमभागःण केण वियंभिड सुर-विमाणु ।
मुणिवर-णयणंदि-मरिणबद्धं पमिन्द, जहिरामणंदि गुण-मणि-णिहाणु,
सयविहि-विहाणे पत्य कन्वे सुभग्वे । जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु ।
अरिह-पमुह-सुत्त-वुत्तु माराहणाए इय तिरिण वि परिमण-मई-मईब,
पणिउ फुडु संधि भट्ठावणं समोति ॥ मिच्छत-विडवि-मोडण-गइंद।
संधि ५८॥ (प्रति भामेर भंडार,सं. १५८०) पत्ता
१८ अणुवय-रयण-पईव (अणुवस-रत्न-प्रदीप) सिवपुर गच्छन तिहयणहोणं स्यणत्तय सोहण ।
-कवि लक्ष्मण, रचना कान सं० १३३
भादिभाग:दरसिय अहवीरें गणहरु, कलिकाल हो पडिबोहण ॥१॥
णत्त ण जिणे सिद्ध मायरिए पाढए य पम्वइदे । रामणंदि णत्तिउ मणि,
अणुवय-रयण-पईवं सर वुच्छे सिमामेह ॥ जहि जिवं णमंसि वि णिविउ ।
xxx तहिं णिए वि भब्वाहिणंदिणा,
इह जउँणा-णइ-उत्तर-तडस्थ, सूरिणा महारामणदिणा।
मह णयरि रायवडिय पसत्य । बालइंद-सीसेण जंपियं,
धण-कण-कंवण-वण-सरि-समिड, सयल-विहिणिहाणं मणप्पियं ।
दागुराणयकर-जण-रिद्धि-सिद्धि । कह दिणाई पारभिउ पुणों,
किम्मीर-कम्म-णिम्मिय रवगण, कीस-विट्ठसे-चितन्दुम्मणो।
सहल-सतोरण-विविह-वरण। तं सुणेवि णयदि बोल्लए,
पंडुर-पायारुण्णइ-समय, मणु करिंद-करणेव सोल्खए।
जहि सहदि खिरंतर-सिरि-निकेय । रहए कन्वे इयभत्तिणिज्झरा,
चउहद चच्चरुहाम जत्थ, कासु सत्ति लेहावणे परा ।
मम्गण-गण-कोलाहल-समस्य । कहा तासु सी भरहरिद्धए,
जहिं विवणे विकणे घस कुप्पभंड, वर वराडदेसे पमिद्धए।
हि कसिमा मिच्छ पिसंहि-खंड। कित्ति-लच्छि-सरमइ-मणोहरे,
हिस्विरम-दाण-संमाश-सोह, वाडगामि महि महिन-सेहरे ।
जहि वसहि महायण सुद्ध-बोह। जईि जिणिद-हर-पह-पराजिया,
बवहार-चार-मिरि-सुद्ध-बोय, चंद-सूर णहे जंत बज्जिया।
विदरहिं पसरण चउवरण बोय। तहि जिणागमुच्छव अलेवहि,
जहिं कणयचूर-मंडण-विसेस, वीरसेण-जिणसेण देवहि ।
सिंग्गार-सार-क्रय-निरवसेस । णाम धवल जयधवल सय,
सोहगा-लग्ग-जिम-धम्म-सील, महाबंधु तिरिणसिद्धत सिव-पहा ।
माणि -णिय-पइ-वय-वाहण-लील । विरहऊण भवियह सुहाविया,
जहिं पण्ण-परिय-पगण-साव, सिद्धिनमणि-हाराच्च दाविया ।
णायर-गरेहिं भूसिय विसाल। पुंडरोड जहिं कवि धणं जड,
थियजण विबुजल अणिय-सम्म, इउ सयंभू भुवणं पिजउ ।
कूडरिंग-भयावखि-रु-धम्म । पत्ता-तवसिरि-सरसइ-कठाहरण सिद्धतिय विक्सायहि ।
बड-मालुस्सय-तोरस-सहार, जहि तहिमि हि पणविय सहहिणं जिणु तिहुवण रायहिर
जहिं सहहिं सेब-सोहगा-बिहार।
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१५०]
अनेकान्त
[वर्षे १४
जहिं दविणंगण-बहि-पेम-छित्त,
करवाल-पट्टि-विप्फुरिय-जीहु, बावरण-पुण्ण-धण-लोल-चित्त ।
रिउ-दंड-चंड-सुडाल-सीहु । नहिं चरर चाड कुसुमाल भेड,
भइ-विसम-साह सुदाम-धामु, दुज्जय-सखुद-खल-पिसुण-एड ।
घउ सायरत-पायडिय-गामु। या वियंभहि कहिमि या धण-विहीण,
याणा-लक्खण-लक्खिय-सरोरु, दविण शिहिल पर धम्म-लीण।
सोमुज्जल सामुहय-गहीरु: फेम्माणुरत्त परिगलिय-गाव,
दुप्पिच्छ-मिच्छ-रण-रंग-मल्लु, नहिं वसहि वियक्खण मणुव सम्व ।
हम्मीर-वीर-मण-नठ-सल्लु । वावार सब्व जहिं सहहि णिच्च,
चउहाणवंस-तामरस-भाणु, कणयंवर-भूसिय-रायमिच्च ।
मुणियह न जासु भुय-बल-पमाणु तंबोल-नंग-रंगिय-धरम्ग,
चुलसीदि-खंड-विण्याण-कोसु, जहि रेहहिं सारुण-सयल-मग ।
छत्तीसाउह पयडण-समोसु । तहिं हरवइ आहवमल्ल-एउ,
साहण-समुह बहुरिद्धि-रिब, दारिद्द-समुत्तारण-स-सेउ ।
अरि-राय-विसह-संकरु पसिद्ध । पत्ता
घत्ताउम्वासिय-परमंडलु दंसिय मंडलु कास-कुसुम-संकास-जसु। पालिय-खत्तिय-सासणु परबल-तासणु ताण मंडल-उब्वासणु। छल-कुल-बल-सामस्थे यीइ-गायत्थें कवणु राउ उवमियह तसु मह-जस-पसर-पयासणु णव-जल-हरसगु दुरणय-विसि-पवामणु णिय-कुल-कहरव-वण-सिय-पयंगु,
तहो पह-महाएवी पसिद्ध, गुण-यणाहरण-विहूसियंगु ।
ईसरदे पर्याण पणय-विद्ध । अवराह-वलाहय-पलय-पवणु,
णिहिलंने उर-मज्झए पहाण, मह मागह-गण-पदिदिएण-तवणु।
शिय-पदमण पेसण-सावहाण । दुव्वसण-रोय-शामया-पवीण,
सज्जण-मण-कप्प-महीय-साह, किड अखलिय-सुजस मयंकु झीगु ।
कंकण-केजरंकिय-सुबाह। पंचंग-मत-वियरण-पवीणु,
छण-ससि-परिसर-संपुण्ण-वयण,
मुक्क-मल-कमल-दल-सरल-गयण । माणिणि-मण-मोहणु मयरकेट,
प्रासा-सिंधुरनाइनामण-लील, शिरुवम-अविरल-गुण-मणि-'णकेउ ।
बंदियण-मणासा-दाण-सील । रिउ-राय-उरत्थल-दिगण-होरु,
परिवार-भार-धुर-धरण-सस, विसुमुण्णय-समर-भिडंत वीरु ।
मोयई अंतर-दल-जलिय-गत्त । खगाग्गि-डहिय-पर-चक्क-वंसु,
छद्दसण-चित्तासा-विसाम, विवरीय-बोह-माया-विहंसु।
घउ-सायरत-विक्खाय-णाम । अतुलिय-बल खल-कुल-पलय-कालु,
अहमल्ल-राय-पय-त्ति-जुत्त, पहु-पट्टालकिय विउल-भालु ।
अवगमिय-णिहिल-विण्णाण-सुत्त । सत्संग-रज-धुर-दिएण-खंधु,
णिय-यंदणाई चिंतामणीव, सम्माण-दाण-पोसिय-सबंधु ।
णिय-धवलग्गिह-सरहंसियीव । थिय-परियण-मण मीमत्सण-दच्छु,
परियाणिय-करण-विलास-कज्ज, परिवसिय-पयासिब-केरकरछु ।
रूपेय जित्त-सुत्ताम-भज्ज ।
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किरण]
जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
वाहरिउ ताई है सुह-सहाव, कह-कुज-विजयामल गलिय-गाव । जिणा-धम्म-रसायस-पास-तित्तु, सुहुधएणड एरिसु जासु चित्तु । चिंता-किलेसु जे तुम्ह बप्प, तं तजिवि समधि मण-वियप्प। अहमल्ल-राय-महमति सुबु, जिण-सासण-परिणय गुण पबद्ध । कण्हड-कुल-कहरव-सेय-भाणु, पहुणा समज सम्बई पहाणु । सम्मत्त वंतु प्रासरश-भम्वु, सावय-वय-पालणु गखिय-गव्यु ।
गंगा-तरंग-कल्लोल-माल, समकित्ति-मरिय-ककुहंतराल । कलयंठि-कंठ-कल-महुर-वाणि, गुण गरुवनयण-उत्पत्तिवाणि। भरिराय-विसह संकरहो सिट्ठ,
सोहग्ग-लग्ग गोरिवदिछ । पत्ता-तहि पुरे कर कुल-मंडणु,
दुग्णय-खंडणु मित्त तिण जितड । सुपसिद्ध का लक्खणु, बोह-वियक्खणु पर-मय-रायण छित्तउ ॥४॥
एक्कहिं दिणे सुकद पसरण-चित्तु, णिसि सेम्जायले भाइयइ सइत् । महु बोहनयां धड गरुय-मन्सुि, बुहयण-भन्वयणहं जणिय-हरिसु । कर-कंठ-करण-पहिरण अपक्कु, हर-हर मई तेण सजोरु थक्कु । महु सु-कहत्तणु विज्जा-विनाम, चुहयण-मुह-मंढणु साहिलासु। पाणंद-लयाहरु भमिय-गोय, ण वियाणइ सुबह हा इत्थ को वि । मई बसुह-कम्म-परिणइ सहाउ, उग्गमिड सहिम्बउ दुइ-विहाउ । एमेव कहत्तण-गुण-विसेसु, परिगलइ णिच्च महु गिरवसेसु । केणुप्पाएं अज्जियई धम्मु, किज्जद उवाउ इह भुवणि रम्मु । पाइयह धम्मु-माणिक्कु जेय, सहसा संपइ सुद्ध मणेण। धम्मेण रहिउ पर-जम्मु बंस, इय चिंताउलु कह-चित्तु रंझु। किं कुणमि एस्थ पयडमि उवाउ, जें लब्भइ पुरण-पहाव-राउ । मणे माइ भाणु सुह-वेल्जि-कंदु, तहि-दल-णिसाए णिनिवि दंदु । अह-गिटभर-णिदाणंद-भुतु संवेइय-मणु जा सिज्ज सुत्त । ता सुइणंतरि सुसमइ पसत्त, जिण-सासरण जक्खिणि तम्मि पत्त।
सो तुम्हहं मण-संसउ, जणिय-दुहंसउ पिण्णासिहर समुरचड़ । सुपयासिहह कहतणु तुम्ह पहुत्तगु, जिस-धम्मुलु उपचड ५ इउ मुणेवि महसि बिजहि दु, इह कब्जे म सज्जण होहि मंदु । तहो णामें विरयहि पयड भन्दु, सावय-वय-विहि-वित्थरए-कम्यु। इउ पभणेवि भंजिवि मण-महत्ति, गय अंबादेवी बियय थन्ति । परि गलिय-विहापरि गोसुबुद्ध, कइ-लक्खणु संजम-सिरि-विसुद्ध । जिणु बंदिवि अज्जिवि धम्म-स्यगु, णिजमायह मणे साखसिय-णियणु । मुहु मुहु भावह रणि वित्त, अंबादेखिए पबिउ पवित्त । तम लीड या हवह कयावि सुराणु, महु मण चिंतासा-श्रवणु पुराणु । गजोलिजय-मणु लक्खणु बहूउ, सीयगेउ कम्व-करणायउ। णिय-घरे पत्तड पण गंध-हत्यि, मय-मत्तु पुरिय मुहरूह-गभत्थि । चसि हुयउ स-सर दस-दिसि भरंतु, भणु को ण पडिप तो तुरंतु।
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अनेकान्त
[वर्ष १४
सुप्पसण्ण-राउ परई वेह, भणु कवणु दुवार-कवाड देह । अवमिय वय पलिया चातुरंग, धण-कण-कंचण-संपुरण चंग । घर समुह एंत पेच्छि वि सवारु, भणु कवणु बप्प झपड दुवारु । चिंतामणि-हाडय-निवड-जडित, पज्जहह कवणु सई हत्थ-चडिउ । घर-रगुप्पण्णउ कप्परुक्खु, जले कवगु न सिंचइ जणिय-सुक्खु । मयमेव पत्त घरु कामधेनु, पज्जहह कबणु कय-सोखसेणु । चारण-मुणि तेए जित्त-भवइ, गय णाउ पत्त किर को ण शवह । पेऊस-पिंड करे पत्तु भवु, को मुयइ निवे (इय)-जीवियन्तु । मह विज्जक्खर-गुण-मणि-णिहाणु, पवयण-वयणामय-पय-पहाणु । घर-धम्मिय-णर-मण [घो] हणत्यु, वर-कहणा विरहउ परम सत्थु । प्रमेव लड-मह-पुरण-भवणु, अवगएमाणरु धीमंतु कवणु।
तहो अभयबालु तणुरुहव हूड, वणि-पट्ट किय-भालयल-रूड णरवइ-समज्ज-सर रायहंसु, महमंत-धविय-चरहाण-वंसु । सो अभयवाल-परणाह-रज्ज, सुपहाणु राय-बावार-कज्ज । जिण-भवणु करायड ते ससेउ, केयावलि-मंपिय-तरणि-तेउ । कूडावीडग्गाइणा वोमु-कलहोय, कलस-कलवित्ति-सोमु । घउ सालउ तोरणु सिरि जणंतु, पड-मंडव-किंकिणिनण-झणंतु । देहरूहु तासु सिरि साहु सोदु, जाइड-गरिंद-सहमंत-पोतु ।
धत्ता
इह महियले सोधण्णट, पुण्ण-पउरणास जसु थामें सुपसाहमि। चितह लक्खण-
कण्णा, सोहण-महणा कम्ब-रयणु विवाहमि ॥६॥ इह चंदुवाडु जमुणा-तढत्यु, इंसिय-विसेस गुण-विविह-वस्थ । चाउ हह हहन्धर-सिरि-समिद्ध, चउ बरखासिय-जैश-रिद्धि-रिख । भुवालु तत्य सिहि मरहवालु. शिय-देस-गाम-पर-रखवालु साहि-लंबकंचु कुल-गयण-भाणु, हल्लणु पुरवह सव्वह पहाणु । नरनाह-महा-मंडणु जणिट्ट, जिब-सासन-परिण पुराण-सिद्ध ।
सभूयउ तहो रायहो, लच्छि सहायहो पढम जण मणाणंदणु । सिरि बल्लालु परेसरु, स्वें जिय-सरु सुद्धासउ महणंदणु ॥
जो साहु सोदु तहि पुर-पहाणु, जण-मण-पोसणु गुण-मणि-णिहाणु । तहो पढम पुत्तु सिरि रयणवालु, बीयउ कण्हडु अद्धिदु-भालु । सो सुपसिद्धउ मल्हा-तणूउ, तस्साणु मणा जिउ सुद्धरूड .)। उद्धरिय जिणालय-धम्म-भारु, जिणसासण-परिणय-चरिय-चारु । गंधोवएण दण दिण पवित्तु, मिच्छत्त-वसण-वासण-विरत्तु । अरिराय-गाइ-गोवाल-रज्ज, बल्लालएव-गरवहंसमज्ज । सम्वहं सम्वेसरु रयण-साहु, वावरई परम्गलु चित्त-गाहु । सिवदेउ तासु हुड पढमु सूर्ण, सिरि दाण (वंतु) ण गंध-शृणु । परियाणह रिहिस-कला-कलाउ, विरणाश-विसेसुज्जल-सहाउ । मह महा-पंडिड वि (3)-सियासु, भवगमिय-णिहिल-विज्जा विलासु ।
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किरण ५]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[१५३
रएकंतुणो (कण्णणो) दाणिणो सुकित्तो, जहासरण-भब्वस्स सम्मत्त वित्ती
पत्त
तासु सुलक्षण विहिय कुलक्कम अणुगामिर्माण तह जणमडिया तहि हुव वेणंदणण यणाणंदण हरिदेउ जि दिउराउ हिया ।।
पदाहियारि संपुण्ण-गत्तु, वियसिय-सरोय-संकास-वत्तु ।
आयुक्खए सो सिरि रयणवालु, गउ सग्गालए गुण-गण-विसालु । तहो पच्छए हुउ सिवएव साहु, पिउ-पट्टि बहट्टड गलिय-गाहु । अहमल्ल-राय-कर-विहिय-तिलउ, महयणहं महिउ गुण-गरुव-णिलउ । सो साहु पइटिउ-जणिय-सेउ,
सिवदेउ साहु कुल-स-केट । घत्ताजो कण्हडु पुष्वुत्तउ पुण्ण पउत्तड महिं माल विक्खायड आहवमल्ल-णरिदहु मणसा एंबहु मंतत्तण पइभायउ ॥८॥
पिया तस्य सल्लक्खणा लक्खणड्ढा, गुरूणं पए भत्ति काउं वियड्दा। स-भत्तार-पायारविंदाणुगामी, घरारंभ-वावार-संपुण्ण-कामी । सुहायार-चारित्त-चीरंक-जुत्ता, सुचेणयाण गंधोदएणं पवित्ता। स-पासाय-कासार-सारा मराली, किवा-दाण-मंतोसिया बंदिणाली । पसरणा सुवाया अचंचल-चित्ता, राम (रमा) राम-रम्मा मए वाल णित्ता (?)। खलाणं मुंहभोय-संपुण्ण-जुहा, पुरग्गो महासाह सोढस्स सुबहा । दया-वल्लरी-मेह-मुक्कंबुधारा, सहत्तत्तणे सुद्ध सोयावयारा। जहां चंदचूडाणुगामी भवाणी, जहा सम्ब-वेई हिं सम्वंग-वाणी । जहा गोत्त-णिहारिणो रंभ रामा, रमा दाणवारिस्स संपुषणकामा । जहा रोहिणी ओसहीसस्स सण्णा, महड्ढी सपुरणस्स सरस्स रण्णा । जहा सूरिणो मुत्तिवेई मणीमा, किसएशस्म साहा जहास्वमोसा (?)। जहा जागई कोसलेसस्स सारा, मुलीणस्स मंदाइणी सेयतारा।
अन्तिम भाग
सिरि लंबकंचु-कुल-कुमुप-चंदु, करुणावल्ली-वण-धवण-कंदु । जस-पसर-पऊरिय-बोम-खंड, अहियाह-विमण-कुलिस दंडु । प्रवराह-बलाहय-पलय पवणु, भब्वयण-वयण-मिरि-सयण-तवणु। उम्मूलिय-मिच्छत्तावणोउ, जिण-चरणचण-विस्यण-विणीउ । देसण-मणि-भूसण-भूसियंगु, तज्जिय-पर-सामंतिणि-पसंगु। पवयण-विहाण-पयडण-समासु, णिरुवम-गुण-गण-माणिक्क-कोसु । सपडि-परपयरि-सया-अणिदु, धण-दाण-धविय-बंदियण-विदु । संसाराडइ-परिभमण-भील, जिण-कन्वामय-पोसिय-सरारु । गुरु-देव-पाय-पुंडरिय-मत्तु, विणयालंकिय-वय-सोन-जुत्तु । महसह लक्खण तहु पाणणाहु, पुर-परिहायार-पलंघ-बाहु । कण्हडु वणिवह जण-सुप्पसिद्ध, अहमल्ल-राय-महमति रिद्ध । तहो पणय-वसेश वियक्मणेय, महमहणा करणा लक्खणेरण। साहुलहो परिणो जइता-सुएण, सुकइत्तणगुण-विज्जाजुएण। जायस-कुल-गयण-दिवायरेण, अणसंजमीहिं विहियायरेण । इह अणुवय-पय-पईउ कन्बु, विरयउ सत्ति परिहरि वि गवु ।
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१५४]
अनेकान्त
[वष १४
११) बाहुबलिदेव-चरिउ (बाहुबलि-चरित) जिण-समय-पसिहं धम्म-सदिहं बोहणत्थु महसावयह।
कवि धनपाल । रचना काल ११५४ इयरह महलोयह पयडिय-मोह परिसेसिब-हिसावय। आदिमाग:मह अमुमते अक्सर-विसेसु,
मिरिरिसहणाह-जिण-पय-जुयलु,
पणविवि णासिब-कजि-मलु । न मुणमि पबंधु न छंद-लेसु ।
पुणु पढम-कामएवहो चरिउ, सहावमदु ण विहत्ति अत्थु,
श्राहासमि कयमंगलु । धिट्टत्तणेग्म मह रहट सत्थु ।
xxx दुज्जणु सज्जणु वि सहावरोवि,
माय-वाय-वयणं दरिसंती, महु मुक्खहो दोसु मलेउ कोवि।
दुविह-पमाण-ममुज्जल-णेत्ती। पद्धडियाबंधे सुप्पसरणु,
पवयण-वयण-रमण-गिर-कोमल, अवगम अत्यु भग्ववणु तएणु ।
सह-समूह-दसण-सोहामन । होणक्खरु मुणेवि इयरु सत्थु,
सालंकार-अहर-पुरयावा, संथवट परणु कज्जेवि अपत्थु ।
पय-समास-भालुव-नलु भावइ । अहियक्खरूमत्ता-विहाउ,
गण चउ-णासा-वंसु-परिटिउ, सं पुसउ मुणि वि जणियाणु राउ।
दो-उवभोय-सवणजुउ-संठिउ । सय दुरिय छ उत्तर प्रत्थसार,
विग्गह-तण-रेहागलि-कंदल, पद्धडिय-छंद माया-पवार।
णय-जुय-उस्य-कढिण पच्छथलि । बुझहु ति-सहस सय चारि गंथ ,
मह वायरणुउ अरु जड दुग्गमु, बत्तीसक्खर बिरु तिमिर-मंथ।
प्रस्थ-हीर-गाहि-सुमणो रमु । चदु-दुहय समा पिहु पितृ पमाण,
दुविह-छंद-भुव-जुन-जग-जाणहि, सावय-मण-बोहण सुद्ध-आण ।
जिणमय सुत्तसार माहरणहि । मेरह सब तेरह उत्तरान,
तय-सिद्धत-तिवलि-सोहालउ, पग्गिलिक विक्कमाइच कास
कह थलु तुंगुणियंबु विसानउ । मवेय रइह सम्बई ममक्ख,
वर-विरणाण-कलासकरंगुलि, कत्तिय-मामम्मि असेय-पक्व ।
ललियर करई-कसण-रोमालि । सत्तमि दिण गुरूवारे समाए,
अंग-पुब्ब उरू-णिभंतिए, भट्टमि रिक्खे साहिज्ज-जोए।
पय-विहत्ति-लीलई पय-दितिए । नवमास यंते गयडत्यु,
विमल-महागुण-णह-मा-मासुर, सम्मत्तड कम कम एहु सत्थु ।
णव-रस-गहिर-वीण तंतीसर। पत्ता
हिम्मल-जस-भूसिय-संयंवर, विस्थकर वयगुरुभव, विहुशिय-दुम्भवजण-वल्लह परमेसरि।
पविमल-पंचयाण सुहकय कर। कम्ब-करण मइ पाषण, सुइसरिदावण,महुउवण उ वाणुसरि। पता
इय अणुपय-यण-पईव-पत्थे महासावयाण सुपसरण- मह उप्परि होड पसरण मण मोह-पखल-णिण्णासणि । परम तेवण्ण-किरिय-पयडय-समस्थे मुगुण सिरि-माहुल- तियरण सुद्धिय तहणविचिपय-जिय मुह-कमल णिवासिणि॥२ सुव-लक्षण-विरइए भग्व-सिरि-यहादरच-याकिए
गुज्जरदेस मज्झि यय-वहण, सावयार-विहि-समत्तयो याम अटुमो परिच्छेउ समतोमा
वसइ विउलु पल्हणपुरु पहणु। 'प्रति सं० १५३५,
वीसलएउभाउ-पय-पालउ, (जैनसिद्धान्त भास्कर भाग , ३ से)
कुवनय मंडणु सयलुव मालउ ।
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[पृष्ठ १४६ का शेष]
हीरालाल जी ने 'अहिसा और अपरिग्रह' पर हुई नाग ने अपनी ओजस्विनी भाषा में बताया कि हमें चर्चा का, श्री सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर ने 'अनेकान्त कुछ करना है, तो इस संकुचित दायरे में नहीं, और न्यावाद' पर हुई चर्चा का और डा० अपितु सारे विश्व में महावीर के मिद्धान्तों का हरिमोहन भट्टाचार्य ने 'विश्व शांति के उपाय पर डंका बजा देना है। ये वे ही मिद्धान्त हैं जिनसे हई चर्चा का सार-अश पेश किया । अन्त में शान्ति मिल सकती है। जैन साहित्य शांति रूपी अध्यक्ष पदसे भापण देते हुये साहू शांतिप्रसाद खजाने से लबालब भरा हुआ है, आवश्यकता है जी ने कहा कि दूसरे देशोंके लोगों को जैनधर्मके इसके सदुपयोग की। आपन भाषण के अन्त में सिद्धांतांसे पूर्णतः परिचित करना चाहिए और नालंदा विश्वविद्यालय का जिक्र करते हुए कहा कि इसके लिए यह आवश्यक है कि जैनधर्मक मुरूप उसमें विभिन्न देशों से आये हुए दश हजार उपदेशांको विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया जाय । विद्यार्थी विद्याध्ययन करते थे और उन्हें सर्व प्रकार अन्तमें अध्यक्षपदसे एक शोति प्रस्ताव उपकी सुविधायें मुफ्त दी जाती थीं। आज ऐसा ही एक स्थित किया गया, जो सर्वसम्मतिसे पास हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय अहिंमा विश्वविद्यालय बनना चाहिए सेमिनार के लिए आये हुए लेखों में से कुछ जिमसे कि संसारको शांतिका मार्ग प्राप्त हा सके। लेख इसी किरण में प्रकाशित हैं। शेष लेख यथा
आज के ही अपराह्न में ३।। बजे से सा हाउस सम्भव आगेकी किरणोंमें दिये जावेगे। के प्राङ्गण में खुला अधिवेशन हुआ। जिसमें डा०
-हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
शोक प्रस्ताव
शोक समाचार पारा निवामी वाबू श्री निर्मलकुमारजी जैनके जैन समाजकं प्रसिद्ध समाजसेवी, तीर्थभक्त, स्वर्गवास पर शोक प्रकट करने के लिय श्री छोटलाल दानवीर आरा निवामी बाबू निर्मलकुमारजी जैन जी जैन के सभापतित्वमें स्थानीय श्री दिगम्बर जैन रईमका बहुत दिनोंकी बीमारीके बाद कार्तिक शुक्ला भवनमें कलकत्ते के सारे जैन-समाजकी सभा हुई। एकादशी, ता० ११ नवम्बरको स्वर्गवास हो गया उसमें निम्न प्रस्ताव स्वीकृत हुआ
है। वीरसेवामंदिर परिवार आपके असामयिक ___कलकत्तेके समस्त जैन-समाजके सुप्रसिद्ध समाज- निधनपर हार्दिक खेद प्रकट करता हुआ जिनेन्द्रसे सेवी, तीर्थ भक्त, दानवीर और कितना ही उपयोगी प्रार्थना करता है कि म्वर्गस्थ आत्मा परलोकमें सुखसंस्थाओंके संस्थापक एवं जैन धर्म, समाज तथा शान्तिका अनुभव करे, और शोकाकुल कुटुम्बी-जना देशके महत्त्वपूर्ण कार्यामें सदा सहयोग देने वाले को इप्ट वियोगके महनेकी क्षमता प्रदान करे। श्रापक सुप्रख्यान आग निवासी बाबू देवकुमारजी जैनके
निधनसं एक समाज सेवीका अभाव हो गया है
जिसकी पूर्ति होना कठिन है। ज्येष्ठ पुत्र श्री निर्मलकुमारजी जैनके असामयिक
शोकाकुल-वीर संवान्दिर परिवार स्वर्गवास पर हादिक शांक प्रकट करती है। उनके ~~ वियोगमें सारे जैन समाजकी जो महान क्षति हुई।
हादिक समवेदना प्रकट करती है और श्री वीर प्रभुसे
प्रार्थना करती है कि वे दिवंगत आत्माको शान्ति है, उसकी पूर्ति नहीं की जा सकती।
और उनके परिवार वर्गको धैर्य प्रदान करें। यह सभा उनके शोक-संतप्त परिवारके प्रति
जैन समाज कलमा
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Kegd. No D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरचक
१०१) मा० लालचन्दजी जैन सरावगी कलकत्ता
१.१) पा• शान्तिनाथजी ५ १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा.छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१०१) बा. निर्मलकुमारजो
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) वा सोहनलालजी जैन लमेचू ,
१.१ बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) लागुलजारीमल ऋषभदासजी ,
१.१) बा• काशीनाथजी, ... २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन
१.१) बा. गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) वा०दीनानाथजी सरावगी
१.१)बा.धनंजयकुमारजी २५१)बा० रतनलालजी झांझरी
१०१)बा. जीतमलजी जैन २५१) वा० बल्देवदासजी जैन सरावगी ,
१०१) बा.चिरंजीलालजी सरावगी में २५१) सेठ गजरानजी गंगवाल
, 4 २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची * २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली
१०१)ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन ,
१०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१)बा०जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा. फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) वा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १.१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१.१)बा.बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १.१)ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर
लावीरसिंहजी.जैनावाच कम्पनी.बेहली १०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १.१)ला. बलवन्तसिहजी, हांसी जि० हिसार में २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१.१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता १) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले
१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर ___सहायक
१०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवरे कारंजा ११)वा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली * १०१)ला. परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी.देहली १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
वीर-सेवामन्दिर' १०१) वा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१, दरियागंज, दिल्ली
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प्रकाशक-परमाणबाजी गवासी वीर सेवामंदिर, दरियागंज, दिल्ली । मुम्वासी प्रिटिंग हाउस, देहवी
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वर्ष १४
किरण ६
सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्नार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट
परमानन्द शास्त्री
विषय-सूची १. सुभातस्तोत्रम्
-नेमिचन्द्रयति । २. णवकारमंत्र-माहात्म्य-[40 हीरालाल जी सिद्धांत शास्त्रो १५६ ३. हडप्पा और जैनधर्म -[ले० टी. एन. रामचन्द्रन १५७
अनुवादक बाबू जयभगवानजी एडवोकेट ४. समन्वयका अद्भुत मार्ग अनेकांत-श्रीनगरचंदजी नाहटा १६२ ५. राजमाता विजयाका वैराग-मुमेरचन्द दिवाकर शास्त्री १६३ ६. खान-पानादिका प्रभाव-[पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री १६८ ७. प्रद्मुन्न चरित्रका रचनाकाल व रचियता।
-[श्री अगरचन्दजी नाहटा १७० ८. साहित्य परिचय और समालोचन -[परमानन्द जैन १७२ १. पुराने साहित्यकी खोज-जुगलकिशोरजी मुख्तार, युगवीर' १७३ १०. वीर-सेवामन्दिर दिल्लीकी पैसाफण्ड गोलक
-[जुगलकिशोरजी मुख्तार १७७
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| वीर सेवा मन्दिर,देहली .......... मूल्यः ॥
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धर्मका अपूर्व अवसर न चूकिये अनेकान्तके उपहारमें समयसार टीका
श्री अतिशयक्षेत्र मढ़ियाजीमें श्री १०५ पूज्य छुल्लक अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंको यह जानकर हष होगा कि सहजानन्द (मनोहरलाल) वर्णीजी महाराज पधारनेसे कि हमें बाबू जिनेन्द्रकुमारजी मंत्री 'निजानन्द प्रन्थ माला धर्मका अपूर्व लाभ होरहा है श्री वणों गुरुकुल एवं ब्रह्म- सहारनपुरकी ओरसे स्वामी कर्मानन्दजी कृत समयसार विद्याश्रम १८.१२.५६ संचालू होगया है । जिसमें प्रतिदिन टीकाको १५० प्रतियों अनेकान्तके उन ग्राहकोंको देनेके त्यागो, ब्रह्मचारी श्रावक-श्राविकाएँ, स्नातक छात्र एवं जबल- लिये प्राप्त हुई हैं जो ग्राहक महानुभाव अपना वार्षिक पुरसे जेनसमाज प्रतिदिन आकर वीजास धर्म-प्रवचन चन्दा ६) रुपया और उपहारी पोप्टेज १) रु० कुल श्रवणकर ज्ञानोन्नतिक साथ श्रात्म-शान्तिका अनुभव करते ७) सवासात रुपया मनीआर्डरसे सबसे पहले भेज देंगे हैं। आपकी भाषण शैला मरम स्पष्ट और हृदयग्राहिणी उन्हें समयसार रीका रजिष्टरीसे भेज दी जावेगी। प्रतियों है । विद्वान्मे लेकर अल्पबुद्धि बालक भी श्रापक सदुपदशको थोड़ी हैं इसलिये ग्राहक महानुभावोंको जल्दी करनी ग्रहण कर लेते हैं। यह मढियाक्षेत्र जबलपुरसे ४ मील चाहिये, अन्यथा बादको पछताना पड़ेगा। नागपुर रोड पर रमणीक पहाड़ीके ऊपर स्थित है। पहाड
-मैनेजर 'अनेकान्त' पर दो प्राचीन मंदिर हैं और दो बड़े मंदिर बन रहे हैं।
वीर सेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली एक वर्णी गुफा है जिसमें सुकौशल मुनिका उपसर्ग सहित चित्रमूर्ति है जो सफेद मंगमर्मरले बनी है। तथा वर्तमान
___अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन चौबीम तीर्थंकरोंकी २४ छतरी सामर्मरको बनना शुरू
अनकान्तक ग्राहकोंसे निवेदन है कि जिन ग्राहकोंने हागई है। पहाडकी तलहटी में एक मदिर धर्मशानामें है। अपना वार्षिक चन्दा छह रुपया अभीतक नहीं भेजा है और एक मानस्तम्भ तलहटीक मैदान में बना है। नया पहाडके
उनकी सेवामें अनेकान्तकी ५ किरणें भेजी जा चुकी है। परकोटाके बाहर ४ मंदिर और एक गुफा भी बन गई है।
और छठवीं किरण भेजी जारही है। अत: इस किरण के अतः यहाँक दर्शन तथा बगीजांक प्रवचनका लाभ होगा। पहुचन
पहुंचते ही वे ६) रुपया मनावारस भेज दें। यदि उपहार जो त्यागी, ब्रह्मचारी, ब्रह्माणी, श्रावक और श्राविका ग्रन्यकी आवश्यकता हो, तो पाटंज हित ) २. भेजे।
ग्रन्यको आवश्यकता हा, ता पाप इस ब्रह्मविद्याश्रममें रहकर ज्ञान तथा श्राम-नाम करना
__ अन्यथा उन्हें अगली किरण वी. पी. से भेजी जावगी जमसे चाहते हों, वह ऐसा अवसर न च । इसमें भोजनकी
उन्हें :-) अधिक दकर वी. पी. झुटानी होगी। आशा व्यवस्था है। भोजन फीस माधारण ११) मासिक है।
हे मी ग्राहक महानुभाव १५ फर्वरी तक अपना वार्षिक निम्न पतेसे पत्र-व्यवहार करें।
मृल्य भेजकर अनुगृहीत करेंगे। -मैनेजर 'अनकान्त' सिंघई कोमलचन्द्र जैन
वीर सेवामन्दिर २७ दरियागंज दिल्ली मंत्री-मढियाजी क्षेत्र, पो०-गढा, जबलपुर (म. प्र.)
दुःखद वियोग पटनागंजका वार्षिक महोत्सव श्री दि. जैन अतिशयक्षेत्र पटनागंजका वार्षिक मेना
हाल के ता०५७ के जैनमित्रसे यह जानकर कि 'जन माघ शुक्ला १३-१४-१५ दिन मंगलवार, बुधवार,
संस्कृति संरक्षक सङ्घ' के जन्मदाता एवं माथापक श्री वृहस्पितिवार ता. १२-१३-१४ फरवरीको बड़ी धूमधामके
जीवराज दोशीका ता०१५ को समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास साथ सम्पन्न होगा। और उसी समय १२ फीट ऊंची श्री
हो गया है। आपने अपनी तीन लाखकी सम्पतिका ट्रस्ट महावीर स्वामीकी विशाल प्रतिमाका महामस्तिकाभिषेक,
कर दिया था। आप ब्रह्मचारी तथा अच्छे लेखक भी थे। श्रीगणेशवर्णी गुरुकुलका समारम्भ, विराट कविसम्मेलन
अापके वियोगसे जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना सम्भव होगा। सर्वसमाजको सादर निमंत्रण है तथा अादर्श विवाह नहीं है। वीरसेवामन्दिर परिवार आपके इस वियोग, भी होंगे । कृपया मेले पर पधारनेकी कृपा करें । जन्य दुःसमें सम्वेदना प्रकट करता हुआ वीर प्रभु से प्रार्थना निवेदकः-मुशी मूलचन्द जैन करता है कि दिवंगत श्रामा परलोकमें सुरू-शान्ति प्राप्त
करता है कि दिवंगत आत्मा पर मेलामंत्री-श्री दि. जैन अतिशयक्षेत्र, पटनागंज कर, और कुटुम्बी जनोंको धैर्य प्राप्त हो। पो० रहली (मागर) म. प्र.
-वीर सेवामन्दिर परिवार
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ॐ अहंम
इस्ततत्त्व-संत
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तत्व-प्रकाशका
विश्वतन्य-प्रकार
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वाषिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य 10)
नीतिक्रोिधसीलोकव्यवहारवर्तकसम्प। परमागमस्यबीज भुबनेकरारुर्जयत्यनेकन्त।
वर्ष १४ वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली
जनवरी'५७ किरण, ६ । माघ, वीरनिर्वाण-मंवन ०४८३, विक्रम मंबन २०१३
(नेमिचन्द्रति-विरचितम्)
सुप्रभात-स्तोत्रम् चन्द्रार्क-शक-हरि-विष्णु-चतुर्मुखाद्यास्तीक्ष्णैः स्ववाण निवर्ह विनिहत्य लोकम् । व्याजम्भतेऽहमिति नात्र परोऽस्ति कश्चित् मन्मथं जिनधनम्तव सुप्रभातम ॥ १॥ गन्धर्व-किन्नर महारग-दैत्य-यक्ष-विद्याधरामर-नरेन्द्र-समर्थिताघ्रिः । संगीयते प्रथित-तुम्बुर-नारदैश्च कीर्तिः सदैव भुवने तव सुप्रभातम् ॥२॥ अज्ञान-मोह-तिमिरोघ-विनाशकस्य सज्ज्ञान-चारु बलि-भूपित-भूषित्तस्य । भव्याम्बुजानि नियनं प्रतियोधकस्य श्रीमजिनेन्द्र दिनकृत्तव सुप्रभातम् ॥३॥ श्वेतातपत्र-हरिविष्टर-चामरोघ-भामण्डलेन सह दुन्दुभि-दिव्यभापाऽ-1 शोकाग्र-देवकर-मुक्त-सुपुष्पवृष्टी देवेन्द्र-पूजितवनम्तव सुप्रभातम ॥४॥ तृष्णा क्षुधा-जनन-विम्मय-गग-मोह चिन्ता-विपाद-मद-खद जरा-जोधाः । प्रम्वेद-मृत्यु-रति-रोप-भयानि निद्रा देहेन सन्ति हि यवम्तव मप्रभातम ॥५॥ भूतं भविष्यदपि सम्प्रति वर्तमानं ध्रौव्यं व्ययं प्रभवमुनममप्यशेपम । त्रैलोक्य-वस्तु-विषयं सविशेपमित्थं जानासि नाथ! युगपत्तत्र सुप्रभातम् ॥६॥ स्वर्गापवर्ग-सुखमुत्तममव्ययं यन व हिनां मुभजतां विदधासि नाथ ! हिंसाऽनृतान्बनिता-परवित्त-सेवा संत्यागकेन हि यतम्तव सुप्रभातम ॥७॥ संसार-धोर-तर-वारिधि-यानपात्र ! दुष्टाष्टकर्म-निकरेन्धन-दीप्त-चन्हे ! अज्ञान-मूढ-मनसा विमलैकचक्षुः श्रीनेमिचन्द्र-यतिनायक! सुप्रभातम् ।।८।।
प्रध्वस्तं परतारकमेकान्त-प्रह-विवर्जितं विमलम्। विश्वतमः-प्रसर हरं श्रुतप्रभातं जयति विमलम ||
(बदाधड़ा पंचायती मन्दिर अजमेरके शास्त्र-भण्डारसे प्राम)
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वकार-मत्र-माहात्म्य
घण-घाइ-कम्म-मुक्का अरहंता तह य सब्य सिद्धा य । सट्ठिसयं विजया पवराणं जत्थ सासमो कालं। पायरिय उवजमाया पवरा तह सव्यसाहणं ॥१॥
तस्थ वि जिण-णवयारो पढिज्जह परम-पुरिसेहि ॥१३॥ एयाण णमोकारो पंचरहं पंच-जमखण-धराणं ।
इराषएहि पंच ह पंचहि भरएहि सो वि पडिजति । भषियाण होइ सरण संसारे संसरंताणं ॥२॥
जिण-णवयारो एसो सासय-सिव-सुक्ख-दायारो ॥ उड्ढमह-तिरियजोए जिण-णवकारो पहाणो णवरं । जेण पुरं तेण (?)हमा वयारो पाविमो कयत्येण । पर-सुर-सिव-सुक्खाणं कारणयं इस्य भुवणम्मि ॥३॥
सो देवलोग गंतु परमपयं तं पि पावेइ ॥१६॥ तेण इमो णिचंचिय पढिजइ सुत्त ट्रिएहि अणवरयं ।
एसो प्रणाइकाले अणाइजीवो प्रणा जिणधम्मो ।
सहयावि ते पढ़ता एसोविय जिण-णमोयारो ॥१६॥ होई चिय दुइ-दलणो सुह-जणी भवियलोयस्स ॥२॥
जे के वि गया मोक्खं गच्छंनि य के वि कम्म-खल-मुक्का । जाए वि जो पदिज्जइ जेण व जायस्स होइ फल-रिद्धी।
ते सम्बे विय जाणसु जिण-णवयारस्स भावेण ॥१७॥ अवसाणे वि पढिज्जइ जेड मुनो सुग्गई जाई ॥५॥
इय पसोणत्रयारो भणियड सुर-सिद्ध-खबर-पमुहेहि । भावइहि वि पतिज्जइ जेण व लंघेइ प्रावह-सयाह ।
जो पढइ भत्तिजुत्तो सो पावह सासयं ठाणं ॥१८॥ रिद्धीहि वि पतिज्जह जेण वसा जाह वित्थारं ॥६॥
अडवि-गिरि-राय-मज्झे भयं पणासेइ चितिमो संतो । गर-सुर हुति सुराणं विज्जाहर-नेय-सुर-वरिंदाणं। रक्खद भविय-सयाह माया जद्द पुत्त-हिंभाई ॥१६॥ जाण इमो शवयारो सासुन्व (हारुम्व) पट्टियं कंठे ॥७॥ र्थमेइ जलं जलणं चिंतियमित्तण जिण-णमोयारो। जह पहिणा दट्ठाणं गारुडमतो विसं पणासेइ ।
अरि-चोर-मारि-राव-घोरुवसगं पणासे ॥२०॥ तहणवकारो मंतो पाव-विसं णासए सेसं ॥८॥
यो किंचि तह य पहवह डाइणि-घेयाल-रिक्ख-मारि-भयं । किं एण महारयणं किंवा चितामणिब्ध गवयारो।
गावयार-पहावेणं णासंति ते सयल-दुरियाह ॥२॥ किं कप्पदुममरिसो णहु बहु ताणं पि अहिययरो॥
सयल-भय-वाहि-तक्कर-हरि-करि-संगाम-विसहर-भयाइ ।
णासति तक्खणेणं जिण-णवयारो पहावेणं ॥२२॥ चिंतामणि-रयणाई कप्पतरू एक्क जम्म सुह-हेऊ ।
हियइ-गुहाइ णवकार-केमरी जेण संठिमो शिवं । णवकारो पुणु पवरो सग्गपवग्गाण दायारो॥१०॥
कम्मट्ट-गठि-गय-घट्टथट्टयंताण परणट्ट ।२३॥ जं किंचि परमतच्चं परमप्पयकारणं पिजं किंवि।
तव-संजम-णियम-रहो पंच-णमोकार-सारहि शिरुत्तो। तस्य इमो णवकारो माइज्जइ परमजोईहि ॥१॥
याण-तुरंगम-जुत्तो णेह फुरं परमणिग्वाणं ॥२॥ जो गुणह लक्खमेगं पूयाविहिपण जिण-णमोक्कारं ।
जिण सासणस्स सारो चउदस-पुब्बाइ जो समुद्वारो। तित्थयरणामगोयं सो बंधहणस्थि संदेहो ॥१२॥
जस्स मणे णवयारो संसारो तस्स किं कुणह ॥२५॥ जैन वाङमयमें णमोकार या नमस्कार-मंत्रका वही स्थान है, जो वैदिक वाङमयमें गायत्री-मंत्रका है। इस मंत्रमें क्रमशः अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार किया गया है। फलकी दृष्टिसे णमोकार-मंत्रका स्थान गायत्री मंत्रसे महस्र-कोटि-गुणित माना गया है, यह बात उपर दिये गये पमोकारमन्त्र-माहात्म्यसे प्रकट है। यह णवकार-मन्त्र-माहाम्य नामक स्तोत्र अजमेर-शास्त्र-भंडारके एक गुटकेसे उपलब्ध हुआ है। इसके रचयिताने एमोकार मन्त्रको अनादिमूलमन्त्रके नामसे सक्रिक सिद्ध कर उसे जिन-शासनका सार और चौदह पूर्व-महार्णवका समुद्धार बताया है। साथ ही उसे दुःखको दलन करने और सर्व सुखको देने वाला तथा स्वर्ग-अपवर्गका दाता प्रकट किया है। रचना इतनी सरल और सरस है कि पढ़ने के साथ ही उसका अर्थ-बोध हो जाता है। इसके रचियताके नाम भादिका उक रचना परसे कुछ पता नहीं चलता।
-हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
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अनेकांत
TIRTHANKARA-FROM HARAPPA, PUNJAB
2400-2000 B. C.
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हडप्पा और जैनधर्म
लेखक-श्री. टी. एन. रामचन्द्रन, संयुक्त निर्देशक-पुरातत्त्वविभाग, भारत सरकार
(अनुवादक-श्री जयभगवान, एडवोकेट) सिन्ध उपत्यका-संस्कृतिकी उच्चतम स्मारक उसकी मिल गये हों। इस मूर्तिकाका कलेवर न सिर्फ अक्षरेखाके प्रस्तर कला-कृतियां हैं। ३ मृतिकायें जिनमें दो सुप्रसिद्ध गिर्द संविभाजित है, बल्कि यह अपने कायिक स्पन्दनसे पौर विवादग्रस्त मूर्तिकायें भी संमिलित हैं अब तक हडप्पा- उत्पन्न समस्थलोंके परस्पर छेदन वाले स्थानमें भी संतुखित से प्रकाश में पाई है, इनमेंसे तीन पशुओंकी प्रतीक हैं है। देहका बाह्य परिस्पन्दन इतना सुव्यक्त है कि वह उस क्षेत्र और पांच प्रसिद्ध पद्मासनस्थ देवताकी प्रतीक हैं। हडप्पा और पिण्डकी एकताका जिसमें कबन्धकी सत्ता ठहरी हुई है, की उपरोक्त दो मूर्तिकाओंने तो प्राचीन भारतीय कला सम्ब- अनुशासन कर रहा है । दूसरे शब्दों में यह मूर्तिका देह-क्षेत्रन्धी प्राधुनिक मान्यताओं में बढ़ी क्रांति ला दी है। ये दोनों में विनम्र होती हुई रेखाओं और समस्थलोंका एक साकार मूर्तिकायें जो ऊँचाई में ईचसे भी कम हैं, शिर हाथ पाद- प्रदर्शन है। यह और दूसरी पूर्व-वर्णित संस्थित मूर्तिका विहीन पुरुषाकार कबन्ध है। इनसे जिस सजीपता और भारतीय मूर्तिकलाकी दो विशिष्ट विधियोंकी प्रतीक हैं। रचना-कलाका प्रदर्शन हुआ है वह स्थिर और अन्तम खी एक वह जो दहके मृदु-पाशोंके भीतर अनजाने ही उदय है। दोनोंमें ग्रीवा और कन्धों के स्थान पर पृथक बने हुये होने वाली जीवनकी थिरकनोंका अंकन करती है। दूसरी सिर और बाह धारण करनेक रन्ध्र बने हये हैं। इनमें से वह जो देहके बाह्य स्पन्दनको इच्छाबलसे उसी देह क्षेत्र फलक-प्रदर्शित एक मूर्तिकाका श्राकार तो ऐसा बनाया गया तक सीमित रखती है जो स्पन्दनसे घिरा हुआ है। ये दोनों हे जैसे वह भीतरसे उभरने वाली एक भयाध प्रारमशनि मूर्तिकार २४०० से २००० ईसा पूर्वकी पांकी गई है। द्वारा रचा गया हो, जो उसके कण-कणको सचेत बना रही नर्तनकारी प्रतिमाके शिर बाहु और जननेन्द्रिय पृथक बना है। जो देहके अन्तःपुरसे जग कर एक सूक्ष्म मचलने वाली कर कबन्धमें बनाये हुए. रन्ध्रीमें जोड़े हुए थे। इसकी टांगें थिरकनकी संवेदना में व्यस्त है। यह प्रतिमा जो भीतरसे टूटी हुई हैं। इसके कुचाग्र भी पृथक बनाकर सीमेंट द्वारा रची हुई प्रतीत होती है यद्यपि निश्चेष्ट है तो भी थिरकन जोड़े हुए हैं। इसकी नाभि कटोरके प्राकार वाली है। से भरी है। यह प्रतिमा इतनी भोजपूर्ण है कि यद्यपि यह इसकी बाई जांघ पर एक छेद बना हुआ है। दूसरी केवल ३, ३३ इच ऊँची है तो भी यह ऊँचाई में उठती हुई संस्थित प्रतिमा अकृत्रिम यथाजात नग्न मुद्रावाले एक दोख पड़ती है। यह स्थूल कबन्ध, रूपों की गहन गूढ सुदृढ़-काय युवाकी मूर्ति है। जिसके स्नायु पट्टे बड़ी देखजीवन-शक्तिको लटूकी स्थिर घूमके समान इस प्रकार रेख, विवेक और दक्षताके साथ जो मोहनजोदडोकी उत्कीर्ण विकसित कर रहा है कि यद्यपि यह दीखनेमें ठहरा हुआ मोहरोंकी एक स्मरणीय विशेषता है, निर्माण हुए हैं। मालूम देता है परन्तु सर्व प्रकार सजग और सचेष्ट है। नर्तनकारी प्रतिमा इतनी सजीव और नवीन है कि यह थोड़ेमें यों कह सकते हैं कि यह मूर्तिका देहके मृदुपाशोके मोहनजोदड़ो कालीन मूर्तिकाओंके निर्जीव विधि-विधानोंसे भीतर अनजाने ही उदय होने वाली जीवनकी थिरकनोंका नितान्त भछूती है। यह भी नग्न मुद्रापारी मालूम देती मान कर रही है। इस प्रकार यह रचित पिंडकी मूर्तिका है। इससे इस सुझावको समर्थन मिलता है कि यह उत्तरहै। मूर्तियोंका यह भौतिक प्रतिरूप भारतीय कलामें प्राचीन कालीन नटराज अर्थात् नाचने शिवका प्राचीन प्रतिरूप है। युगोंसे उन देवताओंके प्रदर्शनका यथार्थ प्रतीक बना चला सभी कला-विशेषज्ञोंका मत है कि विशुद्ध सादगी और पा रहा है जिनमें तपस्या और ध्यान-मग्न जिन व तीर्थंकरों सजीवताकी अपेक्षा यूनानी कलायुगसे पहले कोई भी ऐसी के समान सृष्टिकारिणी प्रारमशक्ति नियन्त्रित रूपसे स्फु मूर्तिका निर्मित न हुई जिसकी तुलना इन दो महत्त्वशाली
मूर्तिकाओंसे की जा सके। हरप्याकी दूसरी मूर्तिका एक ऐसे चपल नर्तकका प्रतीक उपरोक नग्न मुद्रापारी प्रस्तर मूर्तिका प्राचीन भारतीय है जिसके मन्द-मन्द समुद्भूत बावर्त और उभरते हुए कलाके इस मौलिक तथ्यकी साक्षी है कि भारतीय कलाका समस्थल अनन्त धारावाही नृत्यकी थिरकनोंके क्षेत्रमें रन- विकास प्रकृत्रिम प्रकृतिले इतना ही सुसम्बद्ध है जितना कि
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१५८]
अनेकान्त
[वर्ष १४ वह अपने सामाजिक वातावरण और लोकोत्तर श्रादर्शोसे प्रयुक्र हुए हैं, उत्घात भूमिके विभिन्न स्तरोंकी गहराई सुसज्जित है। यह कला एक दम ऐपी दिव्यताको प्रतीक सम्बन्धी तथ्योंकी सन्तोषजनक शहादत प्राप्त करानेमें है जो बाहरमें अस्त-व्यस्त न हो कर अन्तमुखी शान्तिके अपर्याप्त रहे हैं और उनका यह कथन है कि इन मर्थ प्रयुक्त होने वाली सभी विभूतियों और सुसंयत रचना. मूर्तिकाओंमेंसे एक नर्तककी मूर्तिका हड़प्पाके बा भंडार भारी शक्तियोंसे सम्पन्न है। निस्सन्देह इन तथ्योंका ही थाले स्तरसे मिली और दूसरी उसीके पास-पास वाले हम जैनियोंके उपास्यदेव और तीर्थकरोंमें साक्षात् दर्शन स्थानके लगभग ४ फुट १० इंच नीचे वाले स्तरसे मिली, नते हैं जिनकी महान् मूर्तियां, जैसी कि मसूर देशके बाह्य हस्तक्षेपकी संभावनाका निराकरण नहीं करता । इन अवयवेखगोल, कार्कल, वेणूर आदि स्थानोंमें स्थित हैं, मूर्तिकाओंको उत्तरकालीन कहना भी कठिनाईसे खाली हमारे ध्यानको आकर्षित करती हैं । अपनी समस्त इन्द्रियों- नहीं है। यह संदेह तभी दूर हो सकता है जब अधिक के व्यापारका मन वचन कायको गुप्ति-द्वारा नियन्त्रण किये अन्वेपणों द्वारा इस क्षेत्रके विभिन्न स्तरोंसे प्राप्त वस्तुओंका हुबे, अपनी समस्त विभूतियों और सृष्टिकारक शकियोंका समुचित अभिलेखोंकी सहायतास तुलनात्मक अध्ययन अहिंसाके सुदृढ़ एवं कोमल सूत्रद्वारा वशीकरण किये हुए किया जाये।" और ऋतुओंकी कटुतायोके प्रति अपने कायिक अङ्गोपाङ्गोंका श्री व्हीलरकी अन्तिम टिप्पणीसे यह स्पष्ट है कि इन व्युत्सर्ग किये हुए मैसूर दशके श्रवणबेलगोल स्थित बाहु- मूर्तिकाको उत्तरकालीन कहना इतना ही कठिन है बलीकी महान् मूर्तिके सदश जैन तीर्थकरों और जैन सन्तोंकी जितना कि इन्हें ईसा पूर्वकी तीसरी सहस्राब्दीका न कहना । सभी मूर्तियां अपने पुरातन और निर्ग्रन्थ यथाजात नग्न इस तरह दोनों पक्षोंकी युत्रियां समकक्ष हैं। रूपमें मानव मानवको यह देशना कर रही है कि अहिंसा पानी, अब हम इन मूनिकायों के ((Subjective) ही समस्त मानवी दुःखोंके निवारणका एक मात्र उपाय है। स्वाश्रित और (Objective) पराश्रित महत्त्वकी जांच ये 'महिंसा परमो धर्मः' का साक्षात् पाठ पढ़ा रही हैं। करें। इसके स्वाश्रित महत्वका अध्ययन तो हम पहले ही
हडप्पाकी भूर्तिकाके उपरोक गुणविशिष्ट मुद्रामें होनेके कर चके हैं। यह एक मीधे खड़े हुए नग्न देवताकी प्रतिमा कारण यदि हम उसे जैनतीर्थंकर अथवा ख्याति-प्रात तपो- है जिसके कन्धे पीछेको ढले हुए है और इसके.साफ सुथरे महिमा-युक्त जैन सन्तकी प्रतिमा कहें तो इसमें कुछ भी रचे अवयव ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस ढले पिण्डके भीतर असत्य न होगा । यद्यपि इसके निर्माण काल २४००-२००० चेतना एक सुव्यवस्थित और मुसंयत क्रमसे काम कर रही ईसा पूर्वके प्रति कुछ पुरातत्त्वज्ञों द्वारा सन्देह प्रकट किया है। जननेन्द्रियकी स्थिति नियन्त्रणकी भावनासे ऐसा संमेल गया है, परन्तु इसकी स्थापत्य शैलीमें कोई भी ऐसी बात खा रही है कि अनायास ही इन्द्रिय-विजयी जिनकी कल्पनाका नहीं है जो इसे मोहनजोददोकी मृण्मय मूर्तिकाओं एवं वहां- भाभास हो पाता है। इसके मुकाबले में मोहनजोदड़ोकी की डरकीर्य मोहरों पर अंकित बिम्बोंसे पृथक् कर सके। ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दीकी उस उत्कीर्ण मुहरका अध्ययन इस स्थान पर इस मूर्तिका-सम्बन्धी सर मौर्टिमर ह्वीलरके किया जा सकता है जिस पर गेंडा, भंसा, सिंह चीता, हस्ती विचार जो INDUS VALLEY CIVILISATION (Ca- आदि पशु, तथा पक्षी, मनुष्य धादि मोंक मध्य ध्यानस्थ mbridge History of India. 1953)के बैठे हुए रुख-पशुपति-महादेवकी मूर्ति रचनात्मक स्फूर्तिकी पृष्ठ पर प्रकाशित हुये हैं, उद्धत करने योग्य हैं- अर्ध्वमुखी प्रेरणाको व्यक्त करती हुई अर्ध्वरेतस् मुद्रा में अंकित
"इन दोनों मूर्तिकानों में जो अपने उपलब्ध रूपमें है। मोहनजोदड़ो वाली मुहर पर अंकित देवताकी मूर्तिकता चार इंच से भी कम ऊंचाई वाले पुरुषाकार कबन्ध है ऐसी का स्पष्टीकरमा ऋगवेदकी निम्न ऋचाश्रीसे पूर्णतया सजीवता और उल्लास भरा है जो ऊपर वाणित रचनायों होता हैमें तनिक भी देखने को नहीं मिलता। इनकी ये विशेषता (१) ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषि- ...' इतनी स्वस्थ और परिपुष्ट है कि अभी इन्हें सिंधु-युगकी
विप्राय महिपोपुनावान कहने और सिद्ध करने में कुछ आपत्ति-सी दीख पड़ती है।
श्येनो ग्रभामं सवधितिर्वनानां सोमा - दुर्भाग्यसे वे वैधानिक उपाय जो इनके अन्वेषकों द्वारा
पत्रिनमत्येति रंधन
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किरण ६]
हडप्पा और जैनधर्म
[१५६
अर्थात्-देवताओंमें ब्रह्मा, कवियों में नेता, विप्रोंमें स्वर्गीय मान्माओंसे उन पवित्र मन्त्रीका लाभ करते है। ऋषि, पशुओं में भैंसा, पक्षियोंमें बाज, शस्त्रों में कुल्हाड़ा, जिनके द्वारा वे प्राधि-व्याधियोंकी रोक-थाम करते है और सोम पवित्र (छलनी) में से गाता हुया जाता है। रोगियोंकी चिकित्सा करते हैं । सुन देव (शुन अथवा शिश्न (२) विधा बद्धो वृषभो रोरवीति
देव) संभवतः वे तीर्थकर व तीर्थकर श्रथा उनके अनुयायी महोदेवो मानाविवेश ॥ . ५८३ थे जिन्होंने अहिंसा-मन्देशके लिए सुविख्यात जैन धर्मके अर्थात्--मन, वचन, काय तीनों योगोंसे संवत सिद्धान्तोंको प्रकाशित किया। वृषभदेवने घोषणा की कि महादेव मयों में प्रावास करता है। यूग्रनच्चांगके यात्रावृत्तान्त अफगानिस्तान तकमें जैनधर्मके (३) रुद्रः पशूमामधिपतिः।।
प्रसारकी साक्षी देते हैं । बुद्ध भगवानकी जीवनचर्याक अर्थात्--रुद्र पशुओंका अधिपति अर्थात् अधिनायक अध्ययनसे पता लगता है कि उनके विरोधी छह महान् व प्रेरक है। मोहनजोदड़ो वाली मुहरके उपरोक ऋग्वेदीय तीथिक थे । पूर्णकश्यप, अजितकेश, गोशाल, कात्यायन, विवरण के प्रकाशमें इस नग्न मूर्तिकाकी ऋग्वेद के हवालेसे निग्रंथ नाथपुन और संजय । उक्त तालिकामै गोशाल भाजीपक पहचान करना आसान होगा।
पन्धका प्रवर्तक गोशाल है और निर्ग्रन्थ नाथपुत्र २४वें इस निबन्धका लेखक जब मई, जून, जुलाई १९५६ अन्तिम जैन तीर्थकर महावीरका ही नाम है। इस प्रकार के महीनों में एक पुरातात्विक गवेषणापार्टीको अफगानिस्तान यूननच्यांगके दिये हुए 'कुन देव' के वृत्तान्तसे स्पष्ट है वे जा रहा था तो उसे यूअनच्चांग (६००-६१४ ई० मन्) कि वह संभवतः नग्न जैन तीर्थकरकी भोर ही सकेत कर के यात्रावृतान्तोंकी सचाईको जांच करनेके लिए जा रहा है । तीर्थिक शब्द भी तीर्थकर व तीर्थकरका ही योतक अफगानिस्तान तथा अन्य स्थान-सम्बन्धी विविध वैज्ञानिक है। अफगानिस्तानमें जैन धर्मके प्रसारकी बात निःसन्देह
और मानवीय उपयोगकी बातोंसे भरपूर हैं. अनेक अवसर एक नई खोज है। 'सुन' शब्द संमषत: 'शुन' व 'शिण' प्राप्त हुए। उसने होपिना, गजनी व गजना हजाराव 'शिश्नदेव' का ही रूपान्तर है। जब हम ऋग्वेदके कारको होसलके जो विवरण दिये हैं ये बड़े ही महत्वके हैं। ओर देखते हैं तो हमें पता लगता है कि ऋग्वेद दो सूत्रोंमें वह कहता है कि वहां बहत्से बुद्धसर तोथिक हैं जो सुन शिश्न' शब्द-द्वारा नग्न देवताओंकी ओर संकेत करता है। देवकी पूजा करते हैं। जो कोई उस नग्न देवताकी श्रद्धामे इन सूक्रॉमें शिश्नदेवास अर्थात् नग्नदेवास यज्ञोंकी सुरक्षाके आराधना करते हैं उनकी अभिलाषाएं पूरी हो जाती हैं। लिए इन्द्रका श्राह्वान किया गया है। दूर और निकटवर्ती सभी स्थानोंके जन उनके लिए बहुत (१) न यातव इन्द्र जूजुवु! न बड़ी भकिका प्रदर्शन करते हैं। छोटे और बड़े सभी एक
वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः। सरीखे उसका दर्शन पाकर धार्मिक उत्साहसे भर जाने हैं। स शर्धदो विपुणम्य जन्तो मा। वेतीर्थिक अपने मन, वचन और कायका संयम करके
शिश्नदेवा अपिग ऋतं नः । ऋ०७२११५
अर्थात हे इन्द्र ! राक्षम हमें अपनी चालोंसे न मारें। यजुबदक पुरुष सूक्क ३१-१७म कहा गया है कि हमारी प्रजासे हमें अलग न करें। तुम विषम जन्तुको 'तन्मय॑स्य देवत्वमजानम'- अर्थात् उस अादि पुरुष मारनेमें उत्साह-यक होने हो। शिश्वदेव अर्थात् मानदेव वृषभने सबसे पहिले मर्त्य दशामें देवत्वकी प्राप्ति की। हमार यज्ञमें विग्न न डालें। स्वयं देवत्वकी प्राप्ति करके ही उसने घोपणा की थी कि
(२) स वाजं यातापदुप्पदा यन महादेवत्व मयों में ही प्रवास करता है। मांस बाहर
स्वता परिषदत सनिष्यन् । कहीं और देवत्वकी कल्पना करना म्यर्थ है। इन्हीं श्रुतियों- अनवां यच्छतदुरस्य वेदो के आधार पर ईश० उप• में कहा गया है 'ईशावास्यमिदं
धनत्र छिश्नदेवाँ अभिवर्षसा भूत॥ सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगत् ॥ ३॥ अर्थात् जगतमें जितने
. १०.१६.३ कितने भी जीव हैं, वे सब ईश्वरके आवास हैं।
अर्थात्-यह इन्य शुभ मार्गसे युद्ध क्षेत्र में गया, उसने ---अनुवादक स्वर्गके प्रकाशको विजय करनेका प्रवल किया, उसने
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अनेकान्त
[वर्ष १४ चालाकीसे विमा रोक-टोक शिश्न अर्थात् नग्न देवोंको मार- भगवद्गीताके स्वामी कृष्णके समकालीन थे, ईसासे १.. कर शतद्वारों वाले दुर्गकी निधि पर कब्जा कर लिया। श्री वर्ष पूर्व ठहरता है। मेरठके समीप पाडवोंकी कर्मभूमि मेकडोनल अपनी पुस्तक Vedic Mythology वैदिक हस्तिनापुर में हुई हालकी खुदाईसे उसका वसतिकाल पाख्यान) के पृष्ठ १५५ पर कहते हैं कि शिश्नदेवकी पूजा ११०० से ८०० वर्ष ईसा पूर्व निर्धारित हुआ है। हमें ऋग्वेदके विरुद्ध है । इन्द्रसे प्रार्थना की गई है कि वह शिश्न- अभी शेष २१ तीर्थकरोंकी कालगणना करना बाकी है जो देवोंको यज्ञोंके पास फटकने न दे। इन्द्र के सम्बन्धमें कहा पूर्वापरक्रमसे नेमिनाथसे पहले हुए हैं। यदि हम इसी गया है कि उसने जब चोरीस शतद्वारोंवाले दुर्गमें निधि- अनुपातसे प्रत्येक तीर्थकरकी कालगणना पीछे पीछे करते कोषोंको देखा तब उसने शिश्नदेवोंका वध कर दिया। चले जावें तो हमें जान पड़ेगा कि आदि तीर्थकर वृषभदेव
ये दोनों ऋचाएं हमारे सामने इस सचाईको व्यक्त कर ईसापूर्वकी तीसरी सहस्राब्दीके अन्तिम चरणमें हुए हैं। देती हैं कि हडप्पावाली नग्नमूर्तिकामें एक परिपल्लवित जैन हड़प्पाको उक्त मूर्तिकाका काल विशेषज्ञों द्वारा २४... तीर्थकरको उसकी उस विशिष्ट कायोत्सर्ग मुद्रामें देख रहे २००० ईस्वी पूर्व निश्चित किया गया है। जैनधर्मके हैं जो अगले युगोंमें श्रवणबेलगोल, कार्कल, वेगूर आदि आदि प्रवर्तक आदिनाथका अपर नाम वृषभ होना बड़ा ही स्थानों में बनी जैन तीर्थकरों अथवा सिद्धोंकी वृहत्काय महत्वपूर्ण है। चूकि ऋग्वेदके सूत्रोंमें पुनः पुनः यह बात मूर्तियों में श्रमरताको प्राप्त हो गई हैं। इस स्थल पर कोई दोहराई गई है कि यह वृषभ हीथा जिसने महादेवके श्रावास हैरानीसे पूछ सकता है कि क्या अगले युगों जैमी जैन मूर्ति- आदि अनेक महान् सत्योंकी कल्पके प्रादिमें घोषणा की थी। कलाकी कायोत्सर्गमुद्रामोहनजोदड़ो व हड़प्पावाले तीन सह- विधाबद्धो वृषभो रोरवीति माग्दी ईसापूर्व प्राचीनकालमें उदयमें आसकती थी? महो देवो मयाना विवेश ॥ऋग ४-५८-३. निःसन्देह पूर्ण नग्नता और समस्त भौतिक चेतना प्रान्त
यह बात कि आदिनाथ अपर नाम वृषभदेवने वैदिक रिकम्युत्सर्ग जो जैनधर्मके मौलिक सिद्धान्त अहिंसाकी सिद्धिके यज्ञों तथा पशुहत्या के विरोधमें एक नये धर्मपन्थकी स्थापना लिये आवश्यक है, इस ही कायोत्सर्ग मदाकी ओर लेजाते की,जैनधर्मकी प्रवर्तनामें एक बहुत बड़ी घटना है। उत्तरहैं। यह वही मुद्रा है जो उपरोक हड़प्पाकी मूर्तिकामें ® लेखक महोदयकी उन धारणा जैन तथा जैनेतर किसी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार प्राचीनतम कालसे लेकर आज भी भारतीय अनुश्र तिसे मेल नहीं खाती । भ. प्रादिनाथ तक इस आदर्शवादकी एक अट श्रृंखला और एकता बनी (ऋषभदेव) इस कल्पकालके श्रादि धर्म-प्रवर्तक हैं। जिस हुई है। इस मूर्तिकामें एक भी ऐसी शैल्पिक विशेषता नहीं युगमें इनका आविर्भाव हुमा, वह समस्त हिन्दू साहित्यमें है जो हमारी उक्त धारणाको संदिग्ध बना सके, या हमें सतयुग व कृतयुगके नामसे प्रसिद्ध है। चूंकि इस युगमें पथभ्रष्ट कर सके। इसके अतिरिक्र इस मूर्तिकाकी नग्न मुद्रा सत अर्थात मोक्षमार्ग और कृत अर्थात् कर्मफलवादकी वेदोक महादेव, रुद्र, पशुपतिकी उस अर्ध्वरेतस मुद्रासे जो प्रधानता थी और यह तप, त्याग, अहिंसाका युग था। काफी मोहनजोदडोकी मुहर पर अंकित है, बिलकुल भिन्न है। काल बीतने पर जब भगवान्की आध्यात्मिक वाणी, अल(दखें Cambridge History, of 1953 Plate कारिक शैली और गूढ रहस्यमयी वचनावलीके वास्तविक XXIII)
अर्थको भुलाकर अज्ञानी और दीक्षित जन उनके शब्दार्थचौबीस तीर्थकरोंका कालक्रम तथा पूर्वापरक्रम हड़प्पाकी को ही वास्तविक अर्थ समझने लगे और उस शब्दार्थको मूर्तिकाका काल-निर्णय करनेमें तनिक भी बाधक नहीं है। होश्रुति-सत्य मान कर व्यवहार करने लगे, तो दार्शनिक वर्तमान कल्पकी तीर्थकर-तालिका २४ तीर्थकर शामिल मान्यतामों और धार्मिक परम्परामोंमें विपरीतताका उदय हैं। इनमेंसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर, भगवान् बुद्धके हुमा । पशु अर्थात् पाशविक वृत्तियों के बन्धन, संयम व समकालीन थे। २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ महावीरसे ... हनन द्वारा जिस धर्म-मार्गकी देशना दी गई थी, वह से अधिक वर्ष पूर्व हुए हैं। और २२वें तीर्थकर नेमिनाथ पशुवलिमें प्रवृत्त हो गया। इस धर्ममूढ़ता पर खेद प्रकट महाभारत प्रसिद्ध पाण्डवोंके मित्र भगवान् कृष्णके चचेरे करते हुए अथर्ववेद में कहा गया हैभाई थे। मोटे ढंगसे गणना करने परभी नेमिनाथका काल जो मुग्धा देवा उत शुना यजन्तोत गोरङ्ग पुग्धा यजन्तः
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किरण ६]
हडप्पा और जैनधर्म कालीन घटनाओं और आदिनाथके अनुयायी सन्तोंने जो ऐतिहासिक तथ्यका ही उल्लेख कर रहा है कि जैनधर्मका तीर्थकर व सिद्ध नामसे प्रसिद्ध है, उनके द्वारा प्रवर्तित धर्मको मूल उद्देश्य जैसा कि वृषभदेवने समझा और प्रसारित अहिंसाके स्थायी प्राधार पर कायम कर उसे भागे-आगे किया, वैदिक यज्ञोंसे सम्बन्धित पशुहत्याको दूर करना था। चलाया । जो काल और क्षेत्र के साथ-साथ विद्युत् प्रादेष्टनोंके सबकी हो श्रद्धाको अपनी ओर आकर्षित करने और सभी में समान शकि पर शक्ति हासिल करता चला गया। और अपने महान् मन्तग्योंका विश्वास भरनेके लिये प्रादि तीर्थसारे वातावरणको 'अहिंसा परमो धर्मः' के मन्त्रसे श्रोत करने सभी वस्त्रोंका परित्याग कर दिया। इस तरह उसने प्रोत कर दिया।
अपने और अपने अनुयायियोंको कायोत्सर्गसे प्रारम्भ करके वृषभदेव नग्न अवस्थामें रहते थे, यह एक निर्विवाद महान् प्रात्मत्यागके लिये प्रस्तुत किया। यह तथ्य कि उसके लोकमसिद्ध बात है। क्योंकि पूर्ण नग्नता जो प्रात्मविशुद्धिके उत्तराधिकारी अन्य तीर्थकरांने इसी मार्गको अपनाया, लिये एक अनिवार्य आचरण है, जैनधर्मका एक केन्द्रीय जैनियों द्वारा प्रयुक्त होनेवाली भारतीय कलाकी एक मनोज्ञ सिद्धान्त है। यदि ऋग्वेदमें प्रमुख वैदिक देवता इन्द्रको कथा है। इसलिये यह मूर्तिका, जिसका विवरण ऊपर दिया शिश्नदेवों अर्थात् नग्नदेवोंसे वैदिक यज्ञोंकी रक्षार्थ श्राह्वान गया हैं प्राचीनतम जैन संस्कृतिका एक सुन्दर गौरवपूर्ण किया जाता है तो यह स्पष्ट ही है कि ऋग्वेद तत्कालीन एक प्रतीक है। या इमं यज्ञं मनसाचिकेत प्रणो वोचस्तमिहेह ब्रवः भारतीय संस्कृतिके उपयुक ऐतिहासिक क्रमकी बोर
अथर्व ०.५.१. संकेत करते हुए ही मनुस्मृति १.८६. विष्णुपुराण ६.२.१. अर्थात्-मूद विप्र जन इस श्रादि पुरुषकी पूजा बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र ३.४१-१४७. महाभारत-शान्तिपर्व, (पुरुधा) बहुत प्रकारसे (शुना) प्राणियों और (गोरग) अध्याय २३१-२१-२६, अध्याय २३८-१01, अध्याय गौके अंगों द्वारा करते हैं। परन्तु जो ज्ञानी जन इसकी २४५.१४ तथा मुण्डक उपनिषद १.२.१,... आदिक पूजा (मनसा) मानसिक साधना-द्वारा करते हैं। वे ही (नः)
उल्लेखोंसे पाया जाता है कि सतयुगका धर्म तप, त्याग,
को हमें (प्रवोचः) उपदेश करें और वे ही (तम्) उस आदि
शान, ध्यान-प्रधान था । तामें हिंसक यज्ञोंका विधान पुरुष की (इह इह) विभिन बातोंको (बुवः) बतलायें।
हुआ। द्वापर में इसका हास होने लगा और कलियुगमें इनका इस पशुयज्ञ-प्रधान युगको ही भारतीय ऋषियोंने त्रेता युगकी संज्ञा दी है, क्योंकि इस युगमें ही तीन
सर्वथा अभाव हो गया । त्रेता युगमें पूजा-अर्चनार्थ हिंसक
यज्ञोंका विधान पदिक आर्यजनों के कारण हुआ था । परन्तु विधाओं (ऋक, यज, साम,) तथा तीन अग्नियों (भावह
भारतकी अहिसामयी चेतनाने उसे सहन नहीं किया। यह नीय, गार्हपत्य, दाक्षिण्य) का विशेष प्रचार हुआ है।
इसके विरोधमें सक्रिय हो उठी और जब तक उसे अपने इससे अगला युग-जिसमें आध्यात्मिक और याज्ञिक दोनों विचार-धाराओंका सम्मिलन हुा-द्वापरके नामसे प्रसिद्ध
धार्मिक क्षेत्रसे निकाल कर बाहिर नहीं कर दिया, उसे हमा । यही भारतीय-साहित्यमें उपनिषदोंका यग है। शान्ति प्राप्त नहीं हुई। इस मांस्कृतिक संघर्षकी कहानी तदनन्तर जब अनेक राज-विप्लवों तथा विभिन्न दार्शनिक जाननेके लिए अनुवादकका 'अनेकान्त' वर्ष ११ किरण ४-५ परम्पराओं के कारण भारतीय जीवन कलह-क्लेशोंसे पीड़ित में प्रकाशित 'भारतकी अहिंसा संस्कृति' शीर्षक लेख देखना हुआ, तब कलियुगका उदय हुआ।
पर्याप्त होगा।
-अनुवादक साधुको चितिरिव सहिष्णु होना चाहिए (धवला) १. जैसे पृथ्वी अच्छे या बुरे अगर, तगर, चन्दन, कपूर या मल, मूत्र, रुधिरादिके पड़ने पर एक ही समान रहती है। उसी प्रकार साधुको इष्ट-अनिष्ट, लाभ-अलाभ, यश-अपयश, निन्दा-प्रशंसा और सुख-दुखमें समान रहना चाहिए।
२. जैसे पृथ्वी विना किसी शृंगार-बनावटके अपने प्राकृतिक स्वभावमें ही बनी रहती है, वैसे ही साधुको भी विना किसी ठाठ-बाटके स्वाभाविक वेषमें रहना चाहिए।
३. जैसे पृथ्वी, पर्वत, ग्राम, नगरादिको और मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको धारण करती हुई नहीं थकती, सी प्रकार साधुको स्वयं श्राम-साधन करते और दूसरोंको धर्मोपदेश देते और सन्मार्ग दिखाते हुए कभी नहीं थकना चाहिए।
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समन्वयका अदभत मार्ग अनेकान्त
(ले० श्री. अगरचन्द्र, नाहटा) जगत् में जब और चेतन दो पदार्थ हैं। सारी सृष्टि- लोग परस्परमें टकरासे रहते हैं। घर-घरमें, बाप-बेटेमें, का बिलास इच्छा पर श्राधारित है । जीवका लक्षण पति-पत्नीमें भेद-भाव है। क्षण-क्षण में विभिन्नतासे संघर्ष, चैतन्यमय कहा है। जिस वस्तुमें चैतम्य नहीं, वह जड़ है। कलह, वैर विरोध, युद्ध, घृणा, क्रोध, हिंसा भादि नजर विचार चैतन्यके हो सकते हैं, जनके नहीं । जीव अनन्त है, प्रा रहे हैं। धर्म जो शान्तिका मार्ग है उसमें भी यहां स्वरूपतः समानता होते हये भी संस्कार, कर्म और बाह्य होली सुलग रही है। व्यक्ति दूसरोंके विचारोंको ठीक न परिस्थितियों श्रादि नाना कारणसे उनके शारीरिकव
ममझ कर उससे द्वेष करने लगता है।
____ भगवान् महावीरने जगत्के प्राणियोंमें जो हिंसाकी मानसिक विकासमें बहुत ही अन्तर नजर आता है। एक
भावना वढ रही थी, उस रोगका उपशम अहिंसारूपी जीवसे दूसरे जीवकी प्राकृति नहीं मिलती। ध्वनि, अवयव,
अमृतस किया। सामाजिक व आर्थिक ऊँच-नीचता भेद-भाव प्रकृति, रुचि इच्छारे श्रादि सभी बातों में एक दूसरेमें
और मनुष्यकी संग्रह और तृष्णाका इलाज अपरिग्रह कुछ न कुछ अन्तर रहता है। इसी कारण सबकी पृथक्
बतलाया, तो विचारोंको विषमतामें समन्यय करनेका एक मता है । जैन दर्शन मानना है कि अन्य कई दर्शनोंकी
प्रवल और सुगम उपाय स्यावाद या अनेकान्तको बतलाया। भांति जीव एक ही ब्रह्मक अंश रूप नहीं है । न कभी किसी
स्थाहाद रान्देहवाद नहीं, अनेकान्तवाद ढिलमिल नीति ईश्वरने उस पैदा किया, न कह कर्म फल ही देता है । जीव
नहीं, पर वस्तु-स्वरूपक वास्तविक जानका सच्चा द्वार है अनादि है, उसका स्वय अस्तिाब है, स्वयं कर्म करता है।
और विचार-वैषम्य में समता स्थापित करनेका एकमात्र और स्वयं ही भोगना है। उत्थान और पतनकी सारी
तरीका है। चूंकि हर एक वस्तु और बानके अनेक पहलू जिम्मेवारी उसकी अपना है । बन्धन और मुक्ति म्वकृत है। होत है। जहां तक उसके समस्त पहलुओं पर विचार न यह चाहे, सो समस्त वन्धनोंको तोड़ कर शुद्ध, बुन्द्र मर्य
किया जाय, उसका ज्ञान भ्रान्त और अपूर्ण रहेगा और शक्रि-सम्पन बन मोक्ष व परमात्म-पढ़को पा सकता है।
इस अपूर्णता और भ्रान्तिको पूर्णता और सत्य मानकर दूसरे निमित्तमात्र हैं, उपादान वह स्वयं है।
मनुष्य अपने विचारों और स्थानका प्राग्रही बन जाता है। अनन्त जीवोंका जब पृथक-पृथक अस्तित्व है, तो मैं जो कुछ कहता है, विचार करता हूँ, बही ठीक है, दूसरे कोंक यावरणोंकी विविधता और कमी-येशीसे उनके के विचार और सिद्धान्त मिथ्या है, गलत है। यही एकान्त विचारों में विभिन्नता रहेगी ही। पृथक-पृथक जीवोंकी बात है और जैनदर्शन में इसको सबसे बड़ा पाप मिथ्यात्व बतखाया जाने दीजिए, एक ही मनुष्य में समय-समय पर कितने विचार गया है। मिथ्यात्वका अर्थ है मूळापन, वस्तुके वास्तविक उत्पन्न होते है. बहनोंका तो उन विचारों में कोई सामंजस्य ज्ञानके विपरीत बातको सत्य मानकर महाग्रही बनमा । नहीं होता । अवस्था और परिस्थितियों श्रादिके बढ जाने क्रम अनेक धर्मान्मक है। अपेक्षा भेदसे एक ही पर उसके विचारों में गहरा परिवर्तन हो जाता है। हम यह वस्तु में अनेक धर्म रह रहे है उन सबकी अोर लक्ष्य न कल्पना ही नहीं कर सकते कि अमुक व्यक्रिके विचार अाज देकर केवल एक ही धर्म या बातको वस्तुका पूरा स्वरूप जो कुछ है. उपके थोड़े समय और थोड़े वर्षो पहले उससे या ज्ञान मान लेना मिथ्यात्व है । एक ही मनुष्य सर्वथा विपरीत थे । प्राम-पासके वातावरणका, व्यक्तियोंका अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है, अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र और घटनाओंका उस पर जबर्दस्त प्रभाव पटता है । जब है, स्त्रीकी अपेना पति है, बहिनकी अपेक्षा भाई है, एक मनुष्यकी ही यह हालत है तो समस्त जीवोंके विचारोंमें भुयाका भतीजा है, मामेका भानजा है, शिप्यका गुरु है, साम्य कभी हो ही नहीं सकता । इस विषमतामें समता गुरुका शिप्य है। इस तरहके और अनेक सम्बन्ध उस कैसे स्थापित की जाय, इस पर जैन तीर्थंकरोंने, विशेषतः एक ही व्यक्किमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे रहते हैं। महावीरने बहुत ही गम्भीर चिन्तन दिया। उन्होंने अपने अनेकान्त उन सारे दृष्टि-भेदों और अपेक्षाओंको स्वीकार चारों ओर देखा कि विचार-विगिनताके कारण प्रवृत्ति- करता है, प्रतिपादन करता है। पर एकान्तवादी यह प्राग्रह विभिन्नता होती है और एक दूसरेको विरोधी मान कर कर बैठता है कि यह तो पिता ही है, पुत्र नहीं और ऐसे
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किरण ६]
राजमाता विजयाका वैराग्य
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एक-एक दृष्टिको लेकर अनेक व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकारक अंशतः मही हैं। इसी प्रकार इष्ट-अनिष्ट, प्रिय-अप्रिय, श्राग्रह कर बैठते हैं तो उन सबमें एक संघर्ष छिड़ जाता है। सुख-दुख, सत्-असत् , नित्य-अनिन्य, देव-पुरुषार्थ आदि वे एक दूसरेके विचारोंको समझनेका प्रयन्न नहीं करते। सभी विरोधी प्रतीत होने वाले तत्वोंका भी समन्वय
आखिर दूसरा व्यक्ति अपनेसे भिन्न विचार रखता है और अनेकान्त दृष्टिसे सहजमें ही हो जाता है, फिर भी परस्पर उसे सत्य मानता है तो उसका कुछ न कुछ कारण तो विरोधी प्रतीत होने वाले उन-उन तत्वोंमें विरोधके लिए अवश्य होना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने मन्तव्यको कोई स्थान न रहेगा। इसलिए समन्वयके अदभुत मार्गसही समझते हैं, उसी प्रकार हर एक व्यक्रि भी अपने- रूप अनेकान्त दृष्टिको सदा सामने रखकर जीवन में आने अपने मन्तव्यको सही समझता है। पर वास्तवमें दोनों ही वाले प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, राष्ट्रीय और इसी एकान्तवादी हैं। क्योंकि जिस दृष्टिसे एकका मन्तव्य सही प्रकारकी अन्य सभी समस्यायोंका हल हूँढना चाहिए। है, वह दूसरेकी दृष्टिसे सही नहीं है । अत: यही कहना मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके द्वारा प्रबलसे प्रबल विरोध ठीक होगा कि अपनी-अपनी दृष्टियोंसे हर एकके मन्तव्य भी परलताम अविरोधमें परिणत किया जा सकता है।
राजमाता विजयाका वैराग्य
(श्री. सुमेरुचन्द्र दिवाकर, शास्त्री, बी० ए० एल-एल बी०) दक्षिण भारतमें बोली जाने वाली तमिल भाषाका तो उन्होंने उस विकट परिस्थिति में अपने वंशकी रक्षाके लिए इतिहास बहत प्राचीन है। उसका साहित्य भी अत्यन्त गर्भिणी महारानी घिजयाको एक मयूराकार विमानमें बिठा प्रौढ़ है उसके श्रेष्ठ पंच महाकाव्योंमें 'जीवकचिन्तामणि' आकाशमें उड़ा दिया और स्वयं काष्ठांगारसे युद्ध करते हुए जैन काव्य अपना लोकोत्तर स्थान रखता है। उसे तमिल
वैराग्य-भावोंसे प्राणोंका परित्याग कर स्वर्गवासी हुए। भाषाकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है । (The greatest महारानी विजयाका वायुयान राजधानीकी श्मशानभूमिमें existing Tamil literary monument)
पहुँचा। जहां महारानीने एक देवोपम-सौन्दर्यसे समलंकृत उसमें जीवन्धरकुमारका मनोरम चरित्र अनुपम शैलीमें
तेजस्वी पुत्ररत्नको जन्म दिया । दैवकी शवभुत गतिको जैन कपिने अंकित किया है।
देखो कि राजपुत्रका श्मशानमें जन्म हुभा। शासन-देवता परम आदरणीय विद्वान प्रो. अप्पास्वामी चक्रवर्ती,
___माताकी सहायता करती है। राजधानीके प्रमुख धनी सेठ मद्रामने Main Antiquary' जैन एन्टीक्वेरी, जून गंधाकटके यहां उस राजपुत्रका सम्यक प्रकारसे पालन-पोषण ११५५ में उक्त ग्रन्थके निर्वाण-सम्बन्धी अध्याय पर प्रकाश हुआ। बालकका नाम जीवन्धरकुमार रखा गया। डाला है। यहां उसका कुछ अंश हिन्दी भाषी भाइयोंके
कुमारकी जननी विजयादवी तपस्वियोंके एक पाश्रममें परिज्ञानार्थ दिया जा रहा है।
चली गई और अमानाके उदयको शान्तभावसे सहन करने कथाका सम्बन्ध इस प्रकार ज्ञातव्य है--मोक्षगामी लगी। उस समय विजयादवी स्वयं वैराग्यकी जीती जागती महापुरुष जीवन्धरकुमारके पिता सत्यंधर हेमानन्द देशान्तर्गन प्रतिमा-मी दिग्बनी थी। वह अपना समय अकिंचन महिलाराजपुरीके महाराज थे उनकी विजयारानी अनुपम सुन्दरी थीं। की स्थितिमें व्यतीत कर रही थी । इधर जीवन्धरकुमारका महाराज अपनी महारानी विजयादेवीमें अन्यन्त श्रापक होकर रक्षक पुण्य था। अतः वह राजपुत्रकी ही तरह वृद्धिंगत
और अपने मन्त्री काप्ठांगारको राज्यभार सौंपकर विषय- हा । कुछ कालके याद तरुणावस्थामें समुचित सामग्रीको भोगोंमें नल्लीन हो गये थे। काष्ठांगारके मनमें राजाके प्राप्त कर जीवन्धरकुमारने पापी काष्ठांगारको मारकर अपने प्रति विद्रोह के विचार उत्पन्न हुए। उसने राजा बननेकी पिताका राज्यामन प्राप्त कर लिया। लालसासे मत्यधर महाराजके संहारका जाल रचा।
राज्याधीन होकर जीवन्धर मांसारिक सुग्वोंका उपभोग जब सन्थन्धर महाराजको इस पढ्यन्त्रका पना लगा, करने लगे। उनकी गुणवती और रूपवतो पाठ रानियां थीं।
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१६४ ]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
राज्यमें शान्ति और समृद्धिकी स्थापना हो चुकी थी। अपनी बात बहुओंसे मिलनेके बाद माताने अपने पुत्र उन्होंने प्रजाके सुख और कल्याण-हेतु विपुल धन जगाया। महाराज जीवन्धरको अपने पास बुलाया। महाराज विनीत माता विजया तपोवनसे राजमहल में भा गई। मानाकी भावसे पानी जननीके चरणों में पहुँचे और पुष्पोंसे राजइच्छानुसार महाराज जीवन्धरने सिद्धभगवानका एक भव्य माताकी पूजा की तथा मुकुटसे अलकृत अपने मस्तकको
और विशाल जिनालय अशोकवृक्षके समीप बनवाया। माताके चरणों पर रखकर उन्हें प्रणाम किया और माताके उन्होंने जिनमदिरकी निन्यपूजाके एवं वार्षिक उत्सबके लिए समीप बैट गये। उपजाऊ धान के खेतोंसे युक्त एक ग्रामका दान किया। जिन माताने अपने पुत्रको सम्बोधित करते हुए कहा-'वत्स! लोगोंने जीवन्धरके जन्मसे राज्य-प्राप्ति-पर्यत उनका तुम्हें दूसरों से ज्ञात हो गया होगा। प्यारे जीवक ! मैं तुम्हें यह रक्षण किया और सहायता दी, उनकी स्मृतिमें राजमाताने बताऊँगी कि तुम्हारे पिताकी अन्त समय में क्या अवस्था हुई। उक्त सत्कार्योंका प्रतिफल कृतज्ञताके साथ समर्पित किया। इसे ध्यानसे सुनो। तुम्हारे पिता महाराज राजकीय वैभवका ___ जब जीवन्धरका जन्म श्मशान-भूमिमें हुया, तब शासन प्रानन्द भोग रहे थे। दुर्भाग्यवश वे विषय-वासना और देवीने माताकी रक्षा को थी और उसे सावधानी- इन्द्रियोंके सुखोंसे इस प्रकार घिर गये, जैसे सुन्दर पूर्वक तपस्वियोंके श्राश्रममें पहुंचाया था। इस उपकारकी चन्द्रमा ग्रहण के समय राहुसे घिर जाता है । वे विषय-सुखोंके स्मृतिमें राजमाताने देवीके नाम पर एक और मंदिर बन- दास हो गये । उनने लोक-निन्दा पर ध्यान नहीं दिया। वाया । जिस मयूराकृति विमानमें माता राजधानीखे निकली विद्वान् मंत्रियोंकी बुद्धिमत्ता पूर्ण सलाहको नहीं सुना । थीं उसकी स्मृति भी उनके मनमें विद्यमान थी। अतः जिस प्रकार पागल हाथी महावतके अधीन नहीं रहता, उसी उसका भी चित्र अपने कमरेमें लगावाया था।
प्रकार वे अपना समय व्यतीत कर रहे थे। मंत्रियोंने देखा प्रमुख श्रेष्ठो कंदुकदन (गन्धोत्कट) ने पांच सौ ।
कि अब उनको आवश्यकता नहीं है, इ.लिये उन्होंने नौकरी चार बच्चोंके मध्य बालक जीवन्धरका पालन-पोषण '
- छोड़ दी। जैसे समुद्र पारकी दीवारोंको नष्ट करके तटवर्ती किया। राजमाताने अपने भाई महाराज गोविंदकी श्रोरसे
नगरको जलमें दुबा देता है, इसी प्रकार राजाको विषयप्रतिदिन शुद्ध गोदुग्ध एव पौष्टिक भोजन द्वारा पांच सौ
सुखोंमें डूबनेले बचानेके लिये मंत्रियोंकी हितकी सलाह पांच बालकोंके प्रतिदिन श्राहारकी व्यवस्था की। इतना
विफल रहो । अत. वे विषय-सुखमें डूब गये और राजाके कार्य सम्पन्न करके राजमाता विजया चितामुक्त हो गई थीं।
कर्तव्योंको भूल गये। उनके मित्र और कुटुम्बी निराश एक दिन सेठानी सुनन्दा, जिसने जीवन्धरका जननी-सरश हा उन्हे अकला छड़ चल गय। उनका असहाय अवस्था ममत्व-भावसे पालन किया था, राजमाता विजयाके समीप
उनके ही प्राचरणके परिणामस्वरूप थी। प्राकका बीज पहुँची। माता विजयाने हर्षसे भेंट की तथा कुरुवंशको और
बोने पर उसके फलरूपमें दूसरा वृक्ष नहीं उगता । राजाशिशु जीवन्धरकी रक्षार्थ की गई कृपाकी सराहना की। इसके
की विवशताको देख कपटी मंत्री काष्ठांगारने जिसके हाथमें पश्चात् माताने बड़े प्रेमसे जीवन्धरकी आठ रानियोंको
राजाने समस्त अधिकार सौंप दिये थे, राजाकी प्रभुताको बुलाया और उनसे एक रहस्यकी बात बताते हुए कहा
हड़पकर सारे अधिकार हस्तगत कर लिये। इस विकट मैंने पूर्व समयमें एक बार स्वप्नमें एक राजमुकुटको अष्ट
स्थितिका ज्ञान राजाको अति विलम्बसे हुआ। अतः उनने मालाबोंसे अलकृत देखा था। उसकी सादी रूपमें तुम
गर्भस्थ राजकुमार-तुम्हारी रक्षाके हेतु मुझे मयूर-यंत्रमें जीवन्धरको आठ रानियां प्राप्त हुई हो। जिनेन्द्रदेवके प्रसादसे
बिठलाया तथा सुरक्षा-पूर्वक मानेकी आज्ञा दी। मेरे जाने तुम्हारी गोदी हरी-भरी रहे। तुम्हारी जिनेन्द्र भगवानमें
पर महाराजने असुरक्षित हो विषम परिस्थितिका सामना अविचलित श्रद्धा रहे । (May you all have, m
किया तथा वे कपटी सेनापतिके षड्यंत्रके शिकार हो गये । swearing faith in the Lord.)
यह दुःखद अन्त महाराजकी कृतिका ही फल है। जब तुम
बुरे बीज बोयोगे तब अच्छी फसल कैसे पाओगे। मेरे प्रिय * क्षत्रचूलामणि, जीवंधरचंपू एवं गचितामणिमें पुत्र ! मैंने ये सब बातें तुम्हें बताई, ताकि तुम विषय-सुखोंश्रेष्ठीका नाम गंधोत्कट लिखा है।
के बारेमें सावधान होजाया। अब मेरे लिये यह उपयुक्त
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किरण ६]
राजमाता विजयाका वैराग्य
[१६५
समय आ गया है कि मैं संसारसं नाता तोड़कर पुण्य नपो- न कर तपस्या और धर्ममें लगना चाहिए। यह शरीर वनमें जाकर अपना समय व्यतीत करू।
दुःखद बीमारियोंका घर है। यह मृत्यु के लिये मधुर भोजन अपनी माताके इन वाक्योंको सुनकर जीवन्धर महाराज- सदृश है। जब तक शरीरका स्वास्थ्य नष्ट नहीं होता है के हृदयको बहुत प्राघात पहुँचा और ये मूञ्छित हो गये। और वह बल-हीन नहीं बनता तब तक अपने भोजनके तत्काल उनकी रानियोंने तथा अन्तःपुरकी दासियोंने उनके साथ दूसरोंको (सत्पात्रोंको) भोजन कराओ औ रमानवमुखपर गुलाब-जल छिड़का और पंखांसे हवा की। जब शरीरके द्वारा प्राप्तव्य सद्गुणोंकी उपलब्धिके हेतु बेहोशी दूर हुई तब वे नींदसे जगे हुयेक समान उठ बैठे। उद्योग करो। उन्होंने मातासे अपना सन्देश देनेको कहा । माताने कहा- यह शरीर एक गाड़ी ही तो है और मनुष्य उसको जीवनके विषय में सबकी हार्दिक अभिलाषा रहती है। कितु चलाने वाला ड्राइवर (चालक) है। शरीरमें विद्यमान जन्मस मरण-पर्यंत अपने जीवनका पूर्ण समय हमें ज्ञात प्राण उस गाड़ीके धुरा ( Axle ) समान हैं । यदि बहुत नहीं है । अन्तमें जब मृत्युके आधीन हो जाते हैं तब यम- काल तक लगातार उपयोगमें लनिक कारण गाड़ी जीर्ण राजकी दादोंसे अपनी रक्षा करने में असमर्थ होते है । उस हो गई और शिथिल बन गई तो उसमें नवीन जीवन समय अपने जीवनके व्यर्थ व्यय होने पर शोक करनेके सिवाय रूपी नया धुरा डालना सम्भव नहीं है। किन्तु शरीर
और कोई बात हाथमें नहीं रहती। आध्यात्मिक सुधारकी अन्तमें बेकार बनकर छट जाता है। कभी-कभी शरीर प्राशासे बीते दिन वापिस नहीं लौटते । ऐसा होना असंभव शोक और दुःखक प्रवाहमें पड़ कर वृद्धावस्थाके पहले ही है। जैसे भोजनका लोलुपी व्यक्ति सुस्वादु बाहारको खुब नष्ट हो जाता है। अतः इस गाड़ी प्राण-रूपी धुराके खाता है, उसी प्रकार मौत भी नियमसे हमे निगल जायेगी। म्यराब होनेस, बेकार होने के पूर्व मनुष्यको इस शरीरसे हर सबकी मृत्यु निश्चित है । जन्म और मृत्युसे जीवन घिरा प्रकारका लाभ ले लेना उचित है । इसलिये प्रो बन्धु ! इस है। ऐसी स्थितिमें अनुकूल साधन-युक्र नर-जन्मको पाना गाड़ीसे अधिकसे अधिक नतिक लाभ लेनेका प्रयत्न करो। बड़े भारी सौभाग्यकी बात है। इस प्रकारकी अनुकूल सामान्यतया मानव इच्छायोंकि प्राधीन हैं । वे नैतिक परिस्थितिके प्राप्त होने पर तुम्हें इस अवसरसे लाभ उठाना महत्ता प्राप्त करनेका उद्योग नहीं करने । उन्हें धर्मका चाहिये और अन्तःकरण-पूर्वक धर्मक भागमें लगकर प्रात्म- अमली स्वरूप नहीं मालूम है । वे मुखकी इच्छाका दास विकासके हेतु प्रयत्न करना चाहिये । इस धर्म मानको छोड़ रूपमें अनुगमन करते हैं। यह निश्चय मानो कि इच्छाका कर यदि स्त्री और बच्चोंक मध्य सुबमें इंच रहे तो निश्चय लक्ष्य पूर्णतया सार-शून्य है, इसलिए ऐसी सार-हीन से हाथ कुछ न पायेगा । जो लोग कुटुम्बक प्रेममें बंधे रहते इच्छाओंके पछि दौड़ना बन्द करी । इस जगत में हम देखते हैं. वे विशेष कालमें सबसे पृथक् हो जाते हैं, जिस प्रकार है. कि कोई-कोई व्यक्ति महान वैभव-पूर्ण अवस्थामें रहते पानीकी वृदें प्रचड पवनके प्रहारमै बिखर जाती हैं | इम- हये अपनी प्रिय पत्नियों द्वारा प्रदत्त सुमधुर भोजनको लिए मेरी यह सलाह है कि तुम परिस्थितियों के दाम न अनिच्छा-पूर्वक खाने हैं। वही व्यक्ति विपत्ति आने पर बनो । इन्द्रिय जनित सुखकी लालसा, कुटुम्बका प्रेम आदि धन-हीन बन हायमें मिट्टीका बनन ले भोजनके लिये सब बातें तुम्हारे प्रात्म-विकासको रोकती है । इसलिए मेरा गली-गली भीख मांगते हैं। प्रिय बन्धु ! यह निश्चय यह कहना है कि तुम अपने प्रेमपात्रोंके प्रति अनुराग न करो, कि धनमें कुछ भी नहीं धरा है। अपना मन दिखाओ, क्योकि इस प्रकारका मोह अामाकी उन्नतिम आन्मिक संयममें (Spiritual discipline) लगाओ। विघ्न रूप है। जीवन्धर ! मैं तुम्हारी माता हूं, इसे भूलने- क्योकि वही एक प्राप्तव्य पदार्थ है। हम इस संसारमें का साहस धारण करो और मुझे इच्छानुसार साध्वीका देखते हैं कि दुदैवके फल-स्वरूप सुवर्ण-पानमें सदा दूध जीवन व्यतीत करने में स्वतंत्रता प्रदान करो।
पीने वाली तथा राजमहल में निवास करने वाली महारानी माताने सद्गुणोंकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए पुनः अपने राजकीय वैभवसं शून्य हो जाती है। निर्धनता और कहा-प्रिय बन्धु ! सुन्दर स्त्रियोंके मध्य विषय-मुखमें सुधाके कारण वह भोजनकं लिये घर-घर भीख मांगती उन्मत्त न होकर वृद्धावस्था पानेक पूर्व ही धर्मको विस्मरण हुई जाती है। संसारका एसा ही स्वभाव है। इसलिये
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१६६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
कभी भी धनकी इच्छा मत करो । धर्मका मार्ग पकड़ो। इस राजमाताकी प्रार्थना पर पाश्रमकी प्रमुखाने कहा, संसारमें हम गरीबी और दुःख देखते हैं। एक स्त्री इतनी तपस्या-पूर्वक आत्म-संयम अत्यन्त कठिन कार्य है। गरीब होती है कि वह अपनी लज्जा-मात्र निवारण-योग्य तपस्याके बिना धार्मिक जीवन द्वारा भी इस लोकमें सुख छोटा सा जीर्ण वस्त्र पाती है। वह अपने एक हाथसे तथा सन्मान मिलेगा और परलोकमें स्वर्गका सुख प्राप्त कपको पकड़ कर लज्जाकी रक्षा करती है और दूसरे होगा। इसलिए आप सभी महिलाओंको तपस्याका विचार हाथको भोजमार्थ पकानेके लिये कुछ पत्तोंको तोड़नेके हेतु बदलना चाहिए। उठाती है । ऐसी स्थितिमें वह अपने दुर्भाग्यको कोसती है, इन चेतावनीक वाक्योंको सुन कर राजमाताने कहाजिसके कारण उसकी ऐसी लज्जापूर्ण दुखद अवस्था हुई 'पूज्य माता जी! हम आपके धर्मोपदेशको पीछे सुनेंगी, है। बन्धु ! जीवन में ऐसी बातोंको देखते हुए धन-संग्रहकी अभी तो हमें साध्वीकी दीक्षा दीजिये। मोर उन्मुखता न धारण करो। तपस्या तथा आत्म-संयममें
इस प्रकार साग्रह प्रार्थना किये जाने पर पाश्रमकी लगो । सुन्दर तथा सुडोल शरीर वाला युवक, जिसे देख
साध्वियोंने दीक्षा समारम्भके लिये आवश्यक कार्य करना सुन्दर स्त्रियोंका मन हर्षित होता था, वृद्ध होने पर मुकी
प्रारम्भ कर दिया। वह स्थान पत्र-पुष्प द्वारा अलंकृत किया कमर वाला होकर लकड़ीके सहारे खड़ा हो पाता है। इस
1 पाता है । इस गया, दीपक जलाये गये, श्रामन सुन्दरता पूर्वक सजाया तरह तुम जानते हो कि जवानी जीवन में एक अस्थिर
गया । राजमाताके चरणोंको दूधसे प्रक्षालित किया गया। वस्तु है।' राजमाताने अपने पुत्र जीवकके कल्याणक
उनकी रेशमकी बनी राजकीय पोशाक दूर की गई। उन्होंने निमित्त यह सदाचारका उपदेश दिया।
सफेद सूती कपड़ा पहिना । श्राध्यात्मिक विकासके नियमाराजमाताके शब्दोंको ध्यानसे सुन कर सुनन्दा माताने नसार अन्य महिलायोंकी भी ऐसी ही विधि की गयी। भी उसे अपने लिये उपयोगी अनुभव किया। उसने
उनके आभूषणों और मालाओंको अलग कर दिया जीवकसे कहा, 'धार्मिक नरेन्द्र ! राजमाताके संसार-त्याग गया। उन्होंने सादा सफेद सती वस्त्र धारण किया । का निश्चय, भले ही अच्छा हो या बुरा, मुझे पूर्ण रूपसे
राजमाता, सुनन्दा तथा साथकी महिलायोंने पूर्वकी ओर मान्य है। मैंने उनके अनुकरण करनेका निश्चय किया है।'
मुम्ब कर श्रासन ग्रहण किया। इसके पश्चात् उनके सुन्दर माता सुनन्दाके ये शब्द सुन कर जीवक अवाक् खड
वस्त्र प्राश्रमकी साध्वियोंने काट डाले और एक पात्रमें रहे। वे क्या कहें यह समझमें नहीं पाता था।
रग्ब कर वे उन्हें बाहर ले गई। दीक्षा संस्कारके पश्चात् वे पुनः जीवंधरको छोड़ कर दोनों माताए तपोवनकी
महिलाएं पंखोंसे रहित मयूरीके समान लगती थीं। इस पोर रवाना हो गई । राजभवनकी अन्य महिलाएं अश्रु
प्रकार श्राश्रममें रह कर उन्होंने साध्वीका जीवन स्वीकार भरे नेत्रोंसे असहाय सरीखी खड़ी रहीं। सारा नगर शोकमें
किया। भगवान् सर्वज्ञ-प्रणीत जिनागममें उनकी दृढ़ श्रद्धा क्रन्दन कर रहा था। जिस दिन विजया महारानी मयूर- धी। वे सब आत्म-विशुद्धिके कार्यमें गंभीरतापूर्वक खग यंत्र पर बैठ कर नगरसे बाहर गई थीं, उस दिन लोग गई। उनकी आत्मामें आध्यात्मिक गुण उत्पन्न हो इतना नहीं रोये थे। भाजके रोनेको आवाज तूफानके समय गए । अनेक प्रात्मगुणोंके कारण उनका हाइ-मांसहोने वाली समुद्रकी गर्जनाके समान थी। राजमाताकी निर्मित देह रत्न आदि बहमूल्य पाषाणोंसे पूर्ण सोनेके पात्र पालकीके पीछे-पीछे एक हजार महिलाओंकी पालकियां समान मनोहर लगता था। वे साध्वियां बाह्य जगत्का और थीं। वे सब उस पुण्याश्रममें पहुंची, जहां प्रमुख
पुण्याश्रमम पहुचा, जहा प्रमुख तनिक भी ध्यान न कर आश्रममें रहती थीं। लोगोंकी संघ-नायिका पूजनीया साप्पी पमा विराजमान थीं।
प्रशंसा अथवा निंदाका उन पर कोई असर नहीं होता था। राजमाता, साथकी सहस्र महिलाओंके साथ अपनी- शास्त्रोंके स्वाध्यायमें उन्हें बहुत आनन्द प्राता था । वे अपनी पालकियोंसे नीचे उतर कर, आश्रम में पहुंचीं। उनने शंका तथा भ्रमसे मुक्त थीं। जिन भगवानकी वाणीमें उनकी संघ नायिका माध्वी पत्र को नमस्कार किया और प्रार्थना श्रद्धा प्रकाशस्तंभके समान सारे संसारमें प्रकाशमान हो की कि उनको तथा साथको स्त्रियोंको आश्रममें स्थान दें हो रही थी। एवं संसार-सिन्धुके पार जाममें उनका मार्ग-प्रदर्शन करें। एक दिन राजा अपनी रानियोंके साथ पूजाके लिये
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किरण ६]
राजमाता विजयाका वैराग्य
पुष्पोंको लेकर आश्रमको गये। उन सबने राजमाताके पश्चात् माता सुनंदाकी भोर मुखकर महाराज बोले, चरणों पर पुष्प रख कर चरणोंकी पूजा की और इस तुमने मेरा पालन-पोषण किया, इससे यथार्थमें तुम ही मेरी प्रकार कहा
माता हो। अब तक तुमने मुझे कभी भी कोई कष्ट नहीं 'पूज्य माताजी ! पहले मुझे आ.के समीप निवास दिया । अब तुमने संसारका तथा मेरा परित्याग कर दिया है। करनेका सौभाग्य नहीं मिला था। अब प्राशा थी कि विजय- यह तुमने मेरे प्रति करता का कार्य किया है। महाराजने के उपरान्त मैं आपके पास महल में रहूंगा। परन्तु मापने माता सुनंदाके समक्ष अपनी व्यथा इस भांति व्यक्त की, जिस संसारके राजकीय वैभवका परित्याग कर दिया । मेरी आपसे प्रकार घायल सिंहका बच्चा अपनी माताके समक्ष अपने एक प्रार्थना है कि आप कृपाकर नगर में निवास करें ताकि दुःखको प्रगट करता है। मैं आपके दर्शनका अनेक वार लाभ ले सकूँ।'
यह सुनकर सुनंदा माताने कहा-तुम्हें पुरानी बातोंको ___ इस पर साध्वी राजमाताने कोई भी उत्तर न दिया। भूल जाना चाहिये । अपने पतिको मृत्यु होने पर मैं चुपवे मूर्तिकी तरह मौन रहीं। इस बीचमें साध्विकाओंकी चाप तुम्हारे पास रही आई। इस पर संसारने मुझे दोष अग्रणी पूज्य माता पाने कहा- इस साध्वीने कुछ भी दिया कि अपने मृत पतिके शोकको भूलकर मैं तुम्हारे राजउत्तर न दे जो मौन धारण किया। उसका कारण यह है कि महलमें राजकीय वैभवके साथ रही। अब जब स्वयं राजआप यह जान लें कि अब पुराने कौटुम्बिक संबंध समाप्त माताने राजमहलके वैभव तथा संपत्तिको नगण्य मान कोष हो चुके । आप पुराने संबंधोंको भूल जायं और तत्संबंधी दिया है और तापसाश्रममें प्रवेश किया है, तब मेरा राज्य भावनाओंका त्याग कर दें।
महल में रहकर आनंद भोगना लोगोंके लिए विशेष लांछन इन स्पष्ट शब्दोंको सुनकर महाराज जीवंधर अपनी देनेका कारण होगा। क्या तुम यह चाहते हो कि लोग रानियों सहित दुःखसे सिसक-सिसक कर रोने लगे। महा- मेरी निंदा तथा अवहेलना करें। इन शब्दोंको कहकर माता राजने कहा, 'पूजनीया माता जी! मैं पुराने पुत्रभावको सुनंदाने जीवकको शांति दी और अपने महल में वापिस घोषित करते हुये तथा उसे पुनः दृढ़ करते हुये इस जाकर राजकीय कर्तव्य पालन करने को कहा। आश्रममें नहीं पाया हूँ। मेरी मुख्य भावना प्राश्रममें इसके पश्चात् साध्वी राजमाताने सुनंदादेवीके पुत्र आनेकी यह है कि मैं पूज्य जिनेन्द्रभन साध्वियोंका दर्शन नंदाक्ष्यसे इस प्रकार कहा, 'हमने संसारको छोड़कर तापकरूं और उनक साइसको भली प्रकार देखें जो जिनागममें साश्रममें प्रवेश किया है, इससे तुमको दुःख नहीं करना कथित आध्यात्मिक संयमका पालन कर रही हैं।' चाहिए। हम तुमको कभी नहीं भूलेंगी। हम तुम्हारा
महाराजके इन शब्दोंको सुनकर सभी साध्वियोंका मन उज्वल भविष्य चाहती है।' सहानुभूतिसे द्रवित हो गया और उनने साध्वी राजमातासे इन शब्दोंको सुनकर वे सय पानंदित हुए। इसके सांत्वनाके कुछ शब्द कहनेका, यह कहते हुये, अनुरोध पश्चात् महाराज जीवंधरने साध्वियोंके आश्रम-निवासके किया कि भनको इस प्रकारका उत्तर देना उनकी श्रद्धा अनुरूप जीवनके प्रति प्रशंमाका भाव व्यक्त किया और पाश्रमसे
और संयमके प्रतिकूल नहीं हैं। पाश्रमकी साध्वियोंके हम चलकर अपने राजप्रासादकी ओर गमन किया। रानियोंने प्रकार अनुरोध पर राजमाताने महाराजसे कहा, जो पवित्र भी मानासे आज्ञा लेकर महाराजका अनुगमन किया। धर्मकी आराधना कर रही हैं उनके दर्शन करनेका तुमने इसके अनंतर स्व. महाराज सत्यधरकी गुणवती एवं विश्वअपना भाव दर्शाया है ताकि लोगोंको मुक्रिपथमें लगानेकी विख्यात सौन्दर्य वाली महारानीने सारे जगत्को पानीके प्रेरणा दी जाय । हम भी इसी ध्येयकी प्राप्तिके हेतु संसार- बुलबुले सदृश सोचकर विश्वके समस्त पदार्थोंकी लालसाका का त्याग करके पवित्र पाश्रममें भाई हैं । इस पर महाराजने त्याग कर दिया और दृढ़तापूर्वक धर्मके मार्ग पर चलकर कहा-'पूजनीया माता जी! आपने मुझे अपने पुत्रके समान स्थिरतासे मनको संयममें लगाया, क्योंकि उसने अपने पोषण करनेका कष्ट नहीं उठाया, अतः आपको मेरा और मनमें यह धारणा कर ली थी कि निर्वाण-प्राप्तिका एक जगतका परित्याग करना उचित ही है।
यही मार्ग है।
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खान-पानादिका प्रभाव
(श्री० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
अपने देशकी यह बहुत पुरानी कहावत है
पशुओं में एक जबर्दस्त भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मांसजैसा खावे अन, वैसा होवे मन,
भोजी शेर, चीते, बाघ आदि जानवर अन्यन्त क्रू र स्वभावी जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वानी।
और एकान्तप्रिय होते हैं, जबकि शाकाहारी गाय, हरिण अर्थात् खाने-पीनेकी वस्तुओंका असर मनुप्यके मन पर श्रादि अत्यन्त शान्त स्वभावी और संघप्रिय होते हैं, वे अपने पड़ा करता है। पर आजकल लोग इन बातोंको दकियानूसी समाजकं साथ ही रहना पसन्द करते हैं। उक्त महाशय बताने लगे हैं और खाने पीनेकी मर्यादा जो हमारे घरोंमें जब शाकाहारी थे. उनमें शाकाहारियों के गुण थे और अब पीढ़ियोंसे चली आ रही थी, उसे नोड़कर स्वच्छन्द श्राहार- मांस-भोजी हो जानेपर उनमें मांस-भोजी जानवरों जैसे दोष विहारी बनते जा रहे हैं। खाने-पीनेकी वस्तुओंका प्रभाव प्रविष्ट होगये। कितना अमिट होता है इसके दिखाने के लिए दो एक घटनाएं एक और भी सच्ची घटना सुनिये--एक सज्जनने नीचे दी जाती हैं
बताया कि वे एक बार पर्युषण पर्वमें षट्-स-विहीन भोजन पंजाबके एक सौम्यमूर्ति क्षत्रिय-बन्धु बचपनसे निरामिष- कर अत्यन्त निर्मल परिणामोंके साथ धर्म साधन कर रहे भोजी थे। वे अत्यन्त मिलनमार और हंसमुख व्यक्रि थे। थे। चूंकि वे वहां अतिथि बनकर गये थे, इसलिये प्रति उन्होंने कभी भी मांस नहीं खाया था औप न उनके घर- दिन नये-नये घर पर भोजन करने जाना पड़ता था। एक वाले ही खाते थे। गत दूसरे महायुद्धके समय वे फौजमें दिन उस रूखे-सूखे भोजनके करने पर भी रातमें उन्हें भर्ती होकर युद्धके मोर्चे पर गये। परिस्थितिवश वहां उन्हें अन्यन्त काम-विकार जागृत हुआ और नींद लगते ही स्वप्नमांस खाना पड़ा। धीरे-धीरे उन्हें मांस खानेका चस्का लग दोष भी हो गया। दूसरे दिन उन्होंने अपने अत्यन्त निजी गया और शराब पीनेकी आदत भी पड़ गई । जब युद्ध मित्रोंसे उस व्यक्तिके आचरण-बावत पूछ-ताछ की, तो बन्द हो गया तो वे लौटकर पर आये। लोग यह देखकर पता लगा कि स्त्री और पुरुष दोनों ही पाचरण-भ्रष्ट हैंदंग रह गये कि उनका स्वभाव एक दम बदल गया है। स्त्री व्यभिचारिणी और पुरुष व्यभिचारी है। उक्त सज्जन जहां वे पहले अल्यन्त मिलनसार और दश श्रादमियों में श्राश्चर्य-चकित हुए कि एक व्यभिचारी मनुष्यके अनसे बैठने वाले थे, वहां अब वे अत्यन्त रूप-स्वभावी हो गये व्यभिचारिणी स्त्री-द्वारा बनाये गये भोजनका कितना प्रभाव थे। बात-बात पर क्रोधित हो लाल-पील हो जाते थे। लोगों एक ब्रह्मचारी मनुष्य पर पड़ता है। से मिलना-जुलना तो एकदम ही नापसन्द हो गया था। आजकल लोग दिन पर दिन शिथिलाचारी होते जाते अब खाना तो वरायनाम रह गया था, रोजाना नई-नई हैं और हर एक आदमीके हाथकी बनी हुई वस्तुको जहां किस्मके मांस खाते और शराबमें शराबोर होकर अपने कमरे कहीं भी बैठकर जिस किसी भी समय पर खाया-पीया में मस्त होकर पड़े रहते थे। एक दिन उनके एक धनिष्ट करते हैं । यही कारण है कि उनका दिन पर दिन नैतिक मित्र जो आजकल दिल्लीके एक कालेजमें प्रोफेसर हैं. उनसे पतन होता जा रहा है। जो वस्तु जितने कुत्सित संस्कारी मिलनेके लिये गये, तो उनकी उक्त दशा देखकर आश्चर्यसे व्यक्तिके द्वारा उपार्जित होगी और जितने हीनाचारी स्तम्भित रह गये। जहां पहले उनका चेहरा अत्यन्त सौम्य व्यक्तिके द्वारा तैयार की जाएगी , उन दोनोंके कुत्सित था और बाल घुघराले थे। वहां अब वे अत्यन्त रौद्र मुख संस्कारोंका प्रभाव उस वस्तु पर अवश्य पड़ेगा । लेकिन दीखने लगे थे और बाल तो सूथरके समान मोटे और खड़े उसके खाने पर उसका अनुभव उसी व्यक्तिको होता है, हो गये थे। उक्त प्रोफेसर साहबको उनकी यह दशा देख- जिसका श्राचार-विचार शुन्छ है और खान-पान भी शुद्ध कर अत्यन्त दुःख हुआ और उनके गर्म मिजाजको देखकर है । जिसका चित्त भात-रौद्र ध्यानसे रहित एवं उनसे कुछ भी कहनेका साहस नहीं हुआ।
धर्मध्यानरूप रहता है। यह एक सत्य घटना है। मांस-भोजी और शाकाहारी खान-पानकी चीजोंके समान वस्त्र और स्थानका भी
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किरण ६] खान-पानादिका प्रभाव
[१६६ प्रभाव मनुष्यके ऊपर पड़ा करता है। इस विषयमें इसी मुझे रातभर पटवारियांक सम्बन्ध स्वप्न आते रहे और दिसम्बर मासके 'कल्याण' में प्रकाशित उदासीन सन्त भी जमाबंदीकी बातें, तो कभी हिसाब-किताबकी बातें, अनन्त श्री स्वामी रमेशचन्द्रजी महाराजके अनुभव ज्ञातन्य जो पटवारी किया करते हैं, दिखलायी पड़ती रहीं। प्रातःकाल हैं। जिन्हें कल्याणसे यहां साभार उद्धृत किया जाता है- जागने पर मैं उस श्राश्रमके प्रबन्धकके पास गया और मैंने दूसरे के वस्त्रों का प्रभाव
उनसे पूछा कि आपके इस स्थान पर अबसे पहले कौन "आजकल लोग कहते हैं कि चाहे जिसका खा लो,
भाकर रहते थे। प्रबन्धकजीने बताया कि 'महाराज, इस पी लो और चाहे जिसका वस्त्र पहन लो, कोई हानि नहीं
स्थान पर ५-६ दिनों तक बराबर बहुतले पटवारी पाकर है । पर ऐसी बात नहीं है मेरे जीवनकी एक घटना है।
रहे थे और वे यहां पर जमाबंदीका काम करते रहे थे। मैं सन् १६४६ की बात है कि मैं एक बार लायलपुर, पंजाबमें
समझ गया कि बस, उन्हीं पटवायिोंके संस्कार इस कमरेमें गया हुआ था। वहां मैं एक रात्रिको श्री सनातनधर्मसभाक
रह गये हैं, जो मुझे रात भर सताते रहे। जहां मनकी स्थान पर जाकर सोया। मैंने वहांके चपरासीको बुलाकर
सूक्ष्मता थी, वहीं उनका प्रभाव भी प्रकट हुआ। अतः उससे कहा कि मुझे रात्रिको यहीं पर सोना है, इसलिए
हमारा मन चाहे जिस जगह बैठकर शुद्ध और स्थिर रह मुझे कोई बिलकुल ही नया विस्तरा लाकर दो । चपरासीने
सकेगा, यह सोचना गलत है। सोच-समझकर और पवित्र
वातावरण वाले स्थान में रहकर भजन-पूजन करनेसे ही मन मुझे एक बिलकुल ही नया बिस्तर। लाकर दे दिया। मैं उस नये विस्तरेको बिछाकर सो गया । सोनेके पश्चात् सारी
लगेगा और लाम हो सकंगा। जहां मांसाहारी रहते हों, रात मुझे स्मशानघाटके स्वप्न आते रहे और मुर्दे पाते तथा
जहां मांस-मछली, अंडे मुर्गे खाये जाते हों, और जहां गो. जलते दिखलायी पड़ते रहे । प्रातःकाल उठने पर मुझे बड़ी
भक्षक लोग रहते हों, तथा जहां अश्लील गन्दे गाने गाये चिन्ता हुई कि अाज ऐसे बुरे स्मशानघाटके स्वप्न क्यों मुझे
जाते हों, व्यभिचार होता हो, वहाँ भला मन कैसे शुद्ध रह दिखलाई पड़े। मैंने तुरन्त ही उस चपरासीको अपने पाप
सकता है और कैस भजन बन सकता है।" बुलाकर उसे पूछा-भाई ! बताओ, तुम मेरे सोनेके लिए
(कल्याण, दिसम्बर १९५६) यह विस्तरा कहांसे लाये थे? उत्तरमें चपरासीने कहा कि
उपरके उद्धरणसे पाटक महजमें ही जान सकेंगे कि 'महाराज! एक सेठजीकी माता मर गयीं थी, उठ सेठ जीने
खाने पीनेकी चीजोंक समान प्रोदने पहननेके वस्त्रोंका और अपनी मरी हुई माताके निमित्त यह नया विस्तरा दानमें
स्थानका भी असर हम पर पड़ता है। मनुष्यके जैसे पवित्र दिया था. वहो मैंने आपको लाकर दे दिया। मैं समझ गया
भाव तीर्थ क्षेत्रों पर होते हैं, वैसे अन्यत्र नहीं। इसका कि दान चूकि प्रेतामाके निमित्त दिया गया था, इसलिए
__ कारण यह है कि जिस भूमि पर रह कर साधु-सन्तों एवं उस दान किये हुए विस्तरमें भी प्रेत-भावना प्रवेश कर गयी
तीर्थकरादि महापुरुषोंने विश्वक कल्याणकी भावना की है, और इसीसे मुझे रात भर स्मशानघाटकी बान दिग्बलाई
उनके पवित्र भावोंका अमर वहाँक पार्थिव परमाणुषों और पड़ती रहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि जो कर्म जिस
वातावरण पर पड़ता है । उस स्थान पर जब कोई दूसरा भावनासे किये जाते हैं, उसके संस्कार उसमें जाग्रत रहते
व्यक्ति पहुँचता है, तब उसके मन पर उसका असर पड़ता हैं। इसलिए सबके हाथका खाना-पीना और सबके वस्त्रोंको
है और उसकी बुरी और मक्लेश-पूर्ण मनोवृत्ति बदलने काममें लेना कदापि उचित नहीं है।"
लगती है । इसके विपरीत जिम स्थान पर लोग निरन्तर
जुआ खेलते रहते हैं, जहां वेश्याएँ और व्यभिचारिणी स्थान या वातावरणका प्रभाव
स्त्रियां दुराचार करती रहती हैं. वहांका वातावरण भी 'वातावरण और स्थानका भी मन पर बड़ा प्रभाव दूषित हो जाता है, और वहां जाने पर निर्मल मनोवृत्ति पढ़ता है। जिस स्थानपर जैसा काम किया जाता है, वहां वाले भी मनुष्योंके मन मलिन होने लगते हैं। यही पर वैसा ही वातावरण उत्पन्न हो जाता है । इसका अपना कारण है कि साधक एवं पाराधकको द्रव्य, क्षेत्र, काल अनुभव इस प्रकार है-में एक बार ऋषिकेश गया था और और भाव की शुद्धि सर्वप्रथम मावश्यक बतलाई वहां एक रातको एक आश्रममें जाकर ठहरा। सो जाने पर गई है।
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प्रद्युम्न चरित्रका रचनाकाल व रचियता
(लेखक-श्री अगरचन्द, नाहटा) हिन्दी साहित्यके प्राचीन अन्य रचना-कालके उल्लेख संमत चउदसइ इग्यार, वाले बहुत कम मिलते हैं। इसलिए उनके रचनाकाल के
उपरी अधिक भइ एग्यार ॥११॥ निर्णयमें अनुमानले ही काम लिया जाता है, जो असंदिग्ध भादवसुदी नवमी जे सार, नहीं कहा जा सकता। कुछ रचनामोंमें संबतोंका उल्लेख स्वाति नखित्र शनीचर वार। रहता है पर कई कारणोंसे वह मान्य करना कठिन होता अगरवालकी मेरी जाति, है। वीसलदे रास आदि कई प्राचीन रचनाओंकी प्रतियों में
भगरोवे मेरी उत्पत्ति। रचनाकालके सूचक विभिन प्रकारके पथ मिलते हैं। कई पुव्वरितु मैं सुण्यो पुराण, प्रन्थोंकी कुछ प्रतियोंमें रचना काल-सूचक पद्य होते हैं, उपनउ भाउ मइकियो बखान । कुछ प्रतियोंमें नहीं। इस तरहकी विविध संदिग्धताओं के जइ पुहमि इकचित कियो, कारण उन अन्योंके रचना-कालका निर्णय करना कठिन हो
साइ समाइ विलियव (1) ॥११॥ जाता है। यहां एक ऐसी ही प्राचीन रचनाकी विविध
चउपइ बन्ध मह कियउ विचित्त, प्रतियोंमें, रचनाकाल-सूचक पद्यके पाठमें जो महत्त्वपूर्ण पाठ
भवीय लोक पढ़उ दे चित्त । भेद मिलता है उसका परिचय दिया जा रहा है।
हुँ मति-हीणु न जाणउ केट, इस प्राचीन हिन्दी रचनाका 'परदमणचरित, प्रद्युम्न
अखर मात न जाणव हेउ । चरित्र, परदवणु चउपई, परदवण चरितं चउपहीबंध ऐसे कई सधनु जननि गुगावइ उद्धरिउ, नाम विविध प्रतियोंमें मिलते है। इसके रचनाकाल-सूचक
साहु मइ राज गढह अवतरित ॥ पोंमें संवत् १३.१,१४११ और ११११ ये तीन तरहके एलची नयरी वसंतव जाणि, पाठ मिले हैं और पथ-संख्यामें भी कुछ न्यूनाधिकता है। इस
सुणियउ चरितु हम करियउ बखाणि ॥ अन्यकी अभी तक ६-७ प्रतियोंका पता चला है, जिनमें चार दूसरी प्रति ३४ पत्रोंकी है और पद्य संख्या ६८२ है। मूल प्रतियां और दोका विवरण मेरे सामने है। यहां उन भिक्ष अक्षरों में लिखित प्रशस्ति संवत् १६०५ पासोजवदी। प्रतियोंका परिचय देकर प्रन्धके रचना-काल आदि पाठ-भेदों- मंगलवारकी है। इसमें उपरोक्त प्रसंग वाले पद्य इस का विवरण प्रस्तुत लेखमें दिया जायगा।
प्रकार हैंजयपुरके श्री कस्तूरचन्द्रजी काशलीवालसे मुझे इस
संवतु चउदहस हुइ गए, अन्यकी दो प्रतियां मिली हैं, जिनमें पहली ३२ पत्रोंकी है
ऊपर अधिक ग्यारह भये। पर उसके बीचके २३ से २८ तकके पत्र नहीं हैं। इस प्रतिमें भादव दिन पंचइ सो सारु, लेखन-समय नहीं दिया गया है पर मुझे इसका पाठ अधिक
स्वाति नक्षत्र शनिश्चर वारु॥ उपयुक्त जगा और शायद यह प्रति सबसे पुरानी भी हो।
अगरवालकी मेरी जाति, इस प्रतिमें ७०६ पद्य हैं। यद्यपि अन्तमें पाक ७१६ का पुर अगरोए मुहि उतपाति, दिया है पर ००० के बाद ००१ के स्थान पर ७१० लिखकर सुधणु जणणि गुणवइ उर धरिउ, उसी क्रमसे मागे संख्या दे दी है अतः १ की संख्या बढ़ती
सा महराज गरह अवतरिउ, है। ग्रन्थके प्रारम्भमें रचना काल-सूचक एक पथ मिलता
एरछ नगर वसते जानि, है और अन्तमें कविका परिचायक पद्य मिलता है। वे दोनों सुणउ चरित मई रचिउ पुराण ॥ क्रमश: इस प्रकार है:
तीसरी प्रति सिंधिया ओरियन्टल इन्स्टीव्य र, उज्जैनके सरस कथा रस उपजइ घणउ,
संग्रहकी है। इस प्रतिकी सर्वप्रथम सूचना लश्कर जाने पर निसरणउ चरित्र पज्जवरण तणउ। डा. क्राउजे (सुभद्रादेवी) से मिलने पर उनके पास जो
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प्रद्युम्न चरित्रका रचनाकाल व रचियता
उपरोक्त इन्स्टीव्य टके जैन प्रतियोंकी विवरणात्मक सूची है प्रचारिणी सभासे मंगवाया गया। उसमें अन्धकी रचना उससे मिली । मैंने बीकानेर भाकर उसका विवरण उज्जैनसे और रचियता सम्बन्धी पच इस प्रकार है :मंगाया । इस प्रतिमें रचनाकाल सम्बत् ११३॥होनेसे संवत् चउदस दुइ गई, इसको मंगाके देखना बावश्यक हो गया। उज्जैनवाले वैसे उपरि अधिक एग्यारह लई। प्रति भेजनेको राजी नहीं हुए तो अंतमें भंडारकर मोरिय- भादव वदो पंचम तिथि सारु, न्टल इन्स्टीव्य र पूनाकी मार्फत मंगवाई गई। इस प्रतिकी स्वाति नखित्त शनिश्चर वारू ॥७०१॥ एक विशेषता उल्लेखनीय है कि अभी तक इस ग्रन्थकी अगरवालकी मेरी जाति, जितनी भी प्रतियाँ ज्ञात है सब दिगम्बर मन्दिरोंमें व पुनि ागरोबइ मोहि उत्पत्ति ॥ ७०२॥ उन्हींकी लिखित है पर उज्जैन वाली प्रति श्वेताम्बर यतिकी
सुद्धि जननि गुणवह उरि धरउ, लिखी हुई और सम्भवतः श्वेताम्बर यतिके किसी भंसारसे साहु महत्तउ घरि अवतरित ॥ ७०४॥ ही इन्स्टीव्य टमें पहुंची है। संवत् १६३५ पाश्विन वदी एरिच नयरि वसंतस जाणि ११ रविवारको राजगच्छके उपाध्याय विनयसुन्दरके शिष्य सुणि चरित्त मह करिउ बखाण ।। ७०५ ।। भकिरलके शिष्य नयरत्नने इसे अपने लिए लिखी। इसमें इस प्रतिमें कविके नामवावा जो पच उज्जैनकी प्रतिमें पद्य-संख्या है, पाठमें भी काफी अंतर है और अन्यके १५वीं संख्याका है वह इसमें सर्व प्रथम है। माममें चरित्रके स्थान पर चउपई लिखा मिलता है। जो अठदल कंवल सरोवर बास, काश्मीर पुर लियो निवास ऐसी अधिकांश रचनाओंकी संज्ञा है, छन्द भी चौपई है। हंसि चढ्यो कर पुस्तक लेइ कवि साधारु सारद पणमेइ रचनाकाल और प्रन्थकार-सम्बन्धी पद्य इस प्रकार हैं:- पदमावति झुड करि लेह, ज्वालामुखि व केसर देह, समत् पंचसाहई गया, ग्यारहोत्तरा भी असतह भया। अंबाहण रोहिणी जो सार, सासं देवा नमें 'साधार'॥
गताथ साह, स्वातिनक्षत्र शनिश्चरवार इसमें कविका नाम होने पर भी विवरण-लेखक उसे अगरवालकी मेर। जाति, पुरी आगरोवइ मां उत्पत्ति। पकड़ नहीं पाया और उसकी जाति अगरवालको ही कविका धनु जननि गभुउरी धरयो,समहराइकरिया अवतरीयो नाम मान लिया। आगरोवइको कविने अपनी जातिका येरस नगर बसंतउ जाणि, सुणहु चरित में किया बखाणु उत्पत्ति-स्थान बतलाया है उसे ठीक नहीं समझने के कारण
जयपुरसे प्राप्त दोनों प्रतियोंके पाधारसे कविका नाम कविको प्रागरेका निवासी लिख दिया गया है । जब मैं जयनिर्णीत नहीं हो सका था। सुघनु शब्द अवश्य कुछ विचा- पुर गया तब कस्तूरचंद्र काशलीवालने प्रति दिखलाते हुए रणीय लगता था, पर प्रसंगसे उसका दूसरा अर्थ भी संभव कहा कि कविके नामका पता नहीं चलता । पर वह बागरेका होनेसे वह कविनाम ही है यह निश्चय नहीं हो सका। अगरवाल है तब मैंने आगरोवह शब्दको ठीक मिलाकर इस उज्जैनवाली प्रतिमें दो अन्य पथ और भी हैं जिनमें वह अगरवालोंका उत्पत्ति-स्थान अग्रोहे नगरका सूचक हैकविका नाम स्पष्ट रूपसे साधारु पाया जाता है। यथा- बतलाया। इसी प्रन्धकी दो अन्य प्रतियां ऐसी भी मिली भठदल कवल सरोवर वासु, काश्मीरपुरी लियो निवासु हैं जिनमें रचनाकाल १३॥ दिया है। इनमेंसे एक प्रति हंस चदि करि पुस्तक लेइ, कवि साधारु सारदामेह रोवांके मोहल्ला कटराके दिगम्बर जैन मंदिर में है जिसकी पदूमावती इंदु करि लेइ, उवालामुखी सकेसरी देह। पत्र-संख्या ४१ है और पद्य-संख्या ०२०। इसमें 'गुणसागर अभवउ हिनउ खंडि जर सारु, शासन देवि कथेसाधारु यह कियो बखानि' वाक्य आता हे उससे विवरण-लेखकने
अतः इस प्रतिका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। पत्र कविका नाम गुणसागर मान लिया है। वास्तवमें संवत् संख्या २४ है।
१११के उल्लेख वाली जो दो प्रतियां मिली है उसे पीने चौथी प्रति जिसका सर्वप्रथम पता चला था वह बारा- से किसी अन्यकारने भाषाका भी रद्दोबदल करके तैयार की बंकीके जैनमन्दिरकी है। इसकी पत्र-संख्या १२और बेखन- है इसलिए उसने अपने संकलित पाठवाले अन्यको पुराना समय १७६५ कार्तिक सुदी १५ है। दिल्ली में ऋषिधर्माने सिद्ध करनेके लिये 'चउदहसै' के स्थानमें 'तेरहस' लिख दिया इसे लिखा है । पप-संख्या...है। इसका विवरण नागरी है और रचनाकालका सूचक पच बो अन्य प्रतियों के प्रार
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. अनेकान्त ,
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'म्ममें आता है वह अन्तमें दे दिया है। कवि-परिचयवाले १३.१ का उल्लेख अवश्य ही पीछेका है और तो पथके भी दो टुकड़े कर दिये हैं। पहली पंकि.२१वें पथ- स्वयं संदिग्ध है। में और दूसरी-तीसरी पंक्रि ७२४- पद्य और संवतोल्लेख दूसरी समस्या ग्रन्थके रचना-स्थानकी है पर वह तो वाली ७२५ में दे दी है । प्रागरोवइ पाठको वह भी ठीक सभी प्रतियोंमें 'एलछ' या 'एरछ' नगर ही स्पष्ट लिखा है नहीं समझ सका इसलिये उसने उसके स्थान पर 'प्रागरे' अत: आगरा मानना भ्रमपूर्ण हैं। प्रागरोवई लेखककी पाठ दिया है। यह पद्य इस प्रकार है
जातिका उत्पत्ति-स्थान है और वह अग्रोवह ही निश्चित रूप अगरवार आगरै बसै, जिनसेवनको चित उलस॥७२१
से है, भागरा नहीं। कुवरि नाम जननि उर धरचों,
तीसरी समस्या कविके नामकी है। वह बाराबंकी
और उज्जैनको प्रतिसे निश्चित हो जाती है कि कविका नाम साहु मल्ल जिहि घर अवतरयौ
साधारु ही है। यद्यपि उसके उल्लेख वाले दोनों पद्य जयपुरएरछ नयरि वसे तुम नानि,
से प्राप्त दोनों पुरानी प्रतियोंमें नहीं है। फिर भी एक गुनसागर यह कियौ बखानि ॥७२४॥ श्वेताम्बर लेखकने संवत् १६३४ में जिससे प्रतिलिपिकी, वह 'संवत तेरहसै हुए गए, ऊपर अधिक इग्यार भए। प्रति अवश्य ही पुरानी और प्रामाणिक होनी चाहिए और
रीवामें हिन्दी ग्रन्थोंका शोधकार्य अभी रघुनाथ शास्त्री उसका समर्थन बाराबंकी वाली दिगम्बर प्रति भी कर रही ने किया है। उन्होंने इस ग्रन्थका परिचय 'विन्ध्य शिक्षा के है। अतः रचना-काल, रचना-स्थान और कवि इन तीनों मार्च १९५६ अंकमें प्रकाशित किया है। उन्होंने कविका समस्याओंका निर्णय उन विचारणासे हो जाता है। अभी नाम गुणसागर आगरा-निवासी और रचना सम्बत् १३११ इमकी पुरानी व अन्य प्रतियां और भी जहां कहीं में, की बताते हुए कथावस्तु अपने लेखमें दी है।
पता लगाना आवश्यक है। इस सम्बत् १३१२ के उल्लेखवाली एक और प्रति एलछ नगरके सम्बन्धमें अनुसंधान करने पर विदित हुआ 'श्री कस्तूरचन्दजी काशलीवालको मिली है जिसका विवरण कि वह मध्यप्रान्तका एलिचपुर जिला ही है। प्र. शीतलमैंने उनकी नोटबुकमें देखा था। इसकी भाषाको देखते हुए प्रसादजीके मध्यप्रान्तके जैन स्मारकके पृष्ठ ४७ में लिखा है यह संस्करण पीछेसे किसीने तैयार किया है,यह निश्चित है। कि एलिचपुर नगरको राजा एलने बसाया, वह जैन था।..
ऊपर जो पाँच प्रतियों के विवरण दिये गए हैं उनसे इस ग्रन्धका सर्वप्रथम परिचय मुझे श्री कामताप्रसाद जैनके रचनाकालकी समस्या जटिल हो जाती है पहली प्रतिमें 'हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहामासे मिला था।
४११ भादवा सुदी स्वातिनक्षत्र शनिश्चर वारू' दूसरी में उन्होंने दिल्ली-भंडारकी जो सूची अनेकान्त में छपी थी १४११ भादवा पंचमी' इसमें सदी व वदोको स्पष्टता नहीं उसके प्राधारसे इसे गद्य-ग्रन्थ बताया था । दिल्ली-मंडारमें है। तीसरी प्रतिमें सम्बत् ११(१५००) भादवा बदी सं०१६ की इसकी लिम्वी प्रति थी । श्रतः वह गद्य-अन्य पंचमी, चौथीमें १४११ भादवा बदी पंचमी और हो तो बहुत ही महत्वपूर्ण बात है यह सोचकर मैंने श्रीपांचवीं में १३१ भादवा सुदि पंचमीका पाठ मिलता है। पाहाल जैन अग्रवालसे इसकी प्रति प्राप्त की और देखा तो स्वाति नक्षत्र शनिश्चर वार सबमें है। तीन प्रतियों में संवत विदित हुआ कि वह गच-ग्रन्थ नहीं, पद्य-रचना ही है। १४११. एकमें १५१ और अन्यमें १३:१। तिथि दो पर महत्वकी बात यह विदित हुई कि यह रचना सं०१४११ भादवा बदी पंचमी, एक में भादवा सुदी पंचमी, एकमें की है। संवतोल्लेख वाला इतना प्राचीन ग्रन्थ प्रायः अन्य भादवा सुदी। और एकमें भादवा पंचमी बतलाई है। मैंने नहीं मिलता, अतः प्राचीनताके नाते इसका महत्व और भी पुराने संवतोंकी यंत्रीसे जांच करनेका प्रयत्न किया, तो इनमेंसे बढ़ जाता है। चाहे वह गद्य-ग्रन्थ न भी हो। कामताप्रसादकिसी भी संवत् तिथिको स्वतिनक्षत्र शनिश्चर वार नहीं जीने सूचीके प्राधारसे इसका कर्ता रायरच्छ लिखा था, बैठता । मतः उसके आधारसे वास्तविक रचना-कालका निर्णय पर प्रति मँगाने पर यह विदित हुआ कि वह कर्ताका नाम करना सम्भव नहीं हो सका । पर जो प्रतिया मेरे सामने हैं नहीं, परन्तु इस प्रन्थके रचना-स्थानका नाम है। कविका उनको देखते हुए सम्बत् ११ही रचनाकाल सम्भव है।
(शेष टाइटिल पेज ३ पर)
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अजमेरके शास्त्र-भण्डारसे
पुराने साहित्यकी खोज
[ जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर']
११. प्राकृत-छन्द-कोश दोहा दोधक, १८. इंसदोधक, १६. सोरठा, २०. चूलिकायह प्राकृत छन्दोंका, जिनमें अपभ्रंश भाषाके छन्द भी दोहा, २१. उपचूलिका दोहा, २२. उग्गाह दोहा, २३. शामिल हैं, एक सुन्दर कोश है, जो उन भट्टारकीय शास्त्र- रसाकुल. २४. स्कधक-दण्डक, २१. कुण्डलिया, २६. भण्डारके एक गुटकसे उपलब्ध हुआ है। इसको पत्र-संख्या चन्द्रायण, २७. बेराल, २८. राढक, २६. वस्तु, ३०. दुबई १०(२२ से ३७) और पद्य-संख्या ७८ है। प्रस्तुत ग्रंथ- (द्विपदी), ३१. पद्धडी, ३२. चौपई, ३२. कुण्डलिनी, १४. प्रतिके अन्तमें यद्यपि पद्य-संख्याङ्क ७२ दिया है परन्तु वह चन्द्रायणी, ३५. लघु चौपई, ६. अडिल्ल, ३७. भिन्न पद्यों पर संख्याक डालनेकी कुछ गड़बड़ी श्रादिका परिणाम अडिल्ल, ३८. घत्ता, ३६. मेहाणी, ४०. महामेहाणी, ४१. है । यह प्रति कुछ अशुद्ध लिखी होनेसे इस बातकी ज़रूरत नाराच (प्रकारान्तर), ४२. एकावली ४३. चूडामणि, ४४. पड़ी कि इसकी कोई दूसरी प्रति मिलनी चाहिये, जिससे मालती, ४५. पद्मावती, ४६. गाथा (गाथाभेद-)४७. विप्री, प्रतिलिपिका कार्य टीक बन सके । खोज करने पर भाग्यसे ४८. छत्रिणी, ४१. वैश्यी, १०. शूद्री, ५१. पथ्या, १२. एक दसरी प्रतिका और पता चला, जो कि जयपुरके दि. विपुला, ५३. चपला, ५४. मुखचपला, ५५. जघनचपला, जैनमन्दिर पं० लूणकरणजीके शास्त्रभण्डारमें है और ५६. विगाहा-विपरीता, ५७. गीति, ५८. उपगीति, ५६. इसलिये मैं स्वयं जयपुर जाकर पं० कस्तूरचन्द्र जी M.A. प्राहिणी। की कृपासे उसे प्राप्त कर लाय।। जयपुरकी प्रति शास्त्रा- इन छन्दास कितने ही छन्दोंके लक्षणों में उनके कारमें ६ पत्रों पर लिखी प्राय. शुद्ध और मन्दर है. जहां निमोता कवियकि नाम भी दिये हैं. जैसे नागेश-पिंगल. गल कहीं कुछ अशुद्ध है उसका संशोधन अजमेरकी प्रतिसे हो अल्ह, अर्जुन, गोसल । इन कवियोंके नामादि-सूचक कुछ जाता है। जयपुरी प्रतिक अन्तमें यद्यपि पद्यसंख्या ७७ वाक्य नमूनेके तौर पर निम्न प्रकार हैं:पड़ा है, परन्तु वह भी दो पद्यों पर ३८ वां अंक पड़ जानेकी
रायाणं ईसणं उत्तो... 'एसो छदो सोमक्कतो (४) गलतीका परिणाम है। यह प्रति भाषाकी दृष्टिस 'य' के २ छंदपि मैणाडलं अल्ह जंपेइ। (१) स्थान पर 'अ' तथा 'इ' के प्रयोगादिकी कुछ विशपताओंको ३ णारायणाम सोमवंत गोसलण दियो (१५) लिये हुए हैं, जिनका प्रकटीकरण ग्रन्थक सम्पादन तथा प्रका- ४ चूलियाउ नं बुह मुणउ गुल्ल्ह पर्यपह सम्व-. शनके अवसर पर हो सकेगा। अस्तु ।
सुपहा (२६) इस ग्रन्थमें प्रायः छन्द-नामके साथ प्रत्येक छन्दका रतं दुवईय छंदु सुह लक्खण अज्जुण-सुकइ बद्धो(३५) लक्षण उसी छन्दमें दिया है जिसका लक्षण प्रतिपादन इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने अपना कोई नाम नहीं दिया करना था, और इस तरह उदाहरण के अलगसे देनेकी ज़रूरत और न ग्रन्थ-रचनाका समय ही दिया है । इससे ग्रन्थकारनहीं रक्खी गई, साथ ही छन्दशास्त्रक गणादि-विषयक कुछ का नाम और रचना-समय दोनों ही अभी अज्ञात हैं । जिन नियमादिक भी दिये हैं। जिन छन्दोंके लक्षण इसमें दिये गुल्ह, अल्ह, अर्जुन और गोसल नामके कवियोंका इसमें गये हैं उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं:
उल्लेख है उनकी कोई रचनाएं अपने सामने नहीं हैं और १.सोमकान्त, २. दोधक, ३. मोतियादाम, ४. प्रोटक न उनके समयका ही कुछ पता है। यदि उनमें से किसी५. यतिबहुल ६. भुजंगप्रयान, ७. कामिनीमोहन, ८. मैना- का भी समय मालूम होता तो यह निश्चय-पूर्वक कहा जाता कुल, .. छप्पय, १०. रोपक, 11. नाराच, १२. डुमिला, कि यह ग्रन्थ उस समयके बादका बना हुआ है। प्राशा है १३. विहान, १४. गीत, १५. विजय, १६. फुटवेसर, १७. उन कवियोंकी कोई कृति सामने आने पर इस विषयका
उपका
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अनेकान्त
[वर्ष १४
ठोक निर्णय हो सकेगा । जिस किसी विद्वानको उनके समयादि दिक जय-लक्षणसे युक्त कहे गये हैं। अस्तु । विषयक कुछ परिचय प्राप्त हो तो उसे प्रकट करना चाहिए। . यह ग्रंथ अच्छा उपयोगी है और अनुवादादिके साथ
हाँ, एक बात यहां प्रकट कर देनेकी है और वह यह प्रकाशित किये जाने के योग्य है। कि, जिस गुटकेसे यह ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है उसके १२. पिंगल-चतुरशीति-रूपक अन्तिम भागमें फार्सी भाषाकी कुछ कविताएं फार्सी लिपिमें
यह छन्द-विषयक ग्रन्थ भी उसी गुटकेसे उपलब्ध ही लिखाई गई हैं, उनमेंसे पहली कविता जिससे लिखाई
हुआ है जिससे 'प्राकृत-छन्दकोश' मिला है और पिंगलाचार्यगई है उसने लिखते समय अपने लिखनेकी तारीख भी शाके धार पर प्राकत-भाषामें निबद्ध है। साथमें दर्ज कर दी है और जो "मवा २४ माह शबान कर्ताका नाम और रचनाकाल इसमें भी दिया हुआ नहीं सन् १६२ (हिजरी) है। इससे प्रस्तुत छन्द-ग्रन्थ गुटकेमें इस है। परन्तु यह भी एक प्राचीन कृति है और उस समयको तारीखसे कितने ही काल पहलेका लिखा हुआ है और उस रचना जान पड़ती है जबकि देश में प्राकृत-अपभ्रंशका गुटकेमें अवतरित अथवा लिपिकृत हुए उसे ४१३ वर्षसे ।
प्रचलन था। यह ग्रन्थ उक्त गुटकेके प्रायः प्रारम्भमें ही उपरका समय हो गया है। क्योंकि आज हिजरी सन् १३७६ छन्दकोशसे पूर्व लिखा गया है और इसलिये इसका प्रचलित है। ऐसी हालतमें यह ग्रन्थ ११५ वर्षसे पहलेका लिपिकाल भी ११३ वर्षसे पहलेका सुनिश्चित है। प्रथकी बना हुआ है, इतना तो सुनिश्चित है। परन्तु कितने वर्ग पत्र संख्या २२ और श्लोक संख्या ३०० के लगभग है। पहले इसका निर्माण हुआ यह अभी निर्णयाधीन है। इस ग्रन्धमें ४ छन्दोंके स्वरूप दिये हुए हैं और साथमें
इस ग्रन्थके श्रादि-अन्तके दो-दोपद्य इस प्रकार हैं:- छन्दशास्त्र-सम्बन्धी गणादि-विषयक कुछ नियमोंका भी आजोयणट्ठियाणं सुर-नर-तिरियाण हरिस संजणणी उल्लेख है । जिन ८४ छन्दोंके इसमें रूप दिये हैं उनके सरस-सर-वरणछंदा सुमहत्था जयउ जिणवाणी ॥१ नाम निम्न प्रकार हैं:भू-चंदक्क मरुग्गणा म-भ-ज-सा सव्वाऽइ-मझतगा . साडा, २ दण्डिका, ३ गाहिनी ४ गाहा, ५ विग्गाहा, गीयाई सुकमा कुति सुसिरि कित्तिं च रोगं भयं । ६ सिहिनी, ७ उग्गाहा, गाहा, ६ खंधाणा, १० वत्थुवा, सम्गंभोऽगणि-खेसरान-य-र-ता सव्वाऽऽइ-मझतला " दोहा, १२ गंधाना, १३ उक्किन्था, १४ रोका, आऊ वृड्ढि विनास देश-गमणे कुवंति निस्संसयं ॥२ १५ लाला, १६ रंगिक्का, १७ विज्जुमाला, १८ चउपइया, x x x
पहुमावती, २० स्वामाला. २१ पत्ता, २२ गीतिका, पयडेइ छंद-संखं अक्खरसंखा अणाइ एगजुया। २३ डिल्ला, २४ पद्धड़ी, २५ अडिल्ल, २६ मडिल्ल, छदाणं जोणीभो जागह पाऊण मत्ताई ॥७७। २७ वत्थु २८ वहरथु, २६ झमिल्ल, ३० गयनंदु, इय पाइय-उंदाणं कइवइ-पामाइं सुप्पसिद्धाई। ३१ पयंगम, ३२ तिमा, ३३ नाराया, ३४ दुबई ३५ पावानी, भणियाई लक्ख-लक्खण-जुआई इह छंदकोसम्मि ॥७८ ३६ वल्लरिया, ३७ चॉवर, ३८ सामाणी, ३१ धारीया, इति प्राकृतछंदकोशः समाप्तः ।
४० खंजा तुगा, ४१ सिक्खा, ४३ तोटक, ४४ भुजंगइनमें पहला पद्य मंगलाचरणका है, जिसमें जिनवाणीका प्रयात, ४५ लीला, ५६ लग्गणिया, ५७ जमकाणा, जयघोष करते हुए उसे समवसरणमें एक योजन पर्यन्त स्थित ४८ फारी, ४. मोदका, .. चंदाणा, ५१ चूलिया, सुर-नर-तियंचोंको हर्षित करनेवाली लिखा है और साथ ही ५२ चारण, १३ कमला, ५४ दीपका, ५५ मोत्तिदाम, यह बतलाया है कि वह महान् अर्थको लिये हुए सरस २६ सारंगा ५७ बंधा, ५८ विज्जोहा, ५६ करहंचा ६० पंचा, स्वर-वर्ण और छन्दोंसे अलंकृत है। दूसरे पद्यमें पाठ ६१ सम्मोहा, ६२ चौरंशा, ६३ हंसा, ६४ मंधाणा, गणोंका सुप्रसिद्ध स्वरूप बतलाते हुए रचनाके आदिमें उन ६५ खंडा, ६६ खंजा ६७ हरसंखाणा, ६८ पाइक्का, गणोंको प्रयुक्त करनेका फल प्रकट किया है और साथमें उन ६६ पंका, ७० वाणी, ७१ सालूरा, ७२ रासा, ७३ ताणी, गयोंके देवतादिका भी निर्देश किया है। अन्तिम पयमें इसके पूर्व में एक पृष्ठ पर मोकार मन्त्र, एसो पंच अन्धकी समाप्तिको सूचित करते हुए यह प्रकट किया है नमोकारो, प्रज्ञान-तिमिर-ग्याप्ति और 'या कुदेन्दुकि इस छन्दकोशमें कतिपय सुप्रसिद्ध प्राकृत छन्दोंके नामा- तुषारहारधवला' नामका सरस्वतीकाम्य दिया है।
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किरण ६] पुराने साहित्यकी खोज
[१७५ ७४ चन्दामाला, ७५ चक्का, ७६ हाटक्की, ७७ धूमा, टगणो तेरह भेओ भेया अट्ठाइ होति ठगणस्स। ७८ तक्का, ७६ खण्डा, ८० खण्डलया ८१ कम्बलया, डगणस्स पंच भेया तिब्भेया होंति ढगणस्स ||१|| ८२ धवलंगा, ८३ बिम्बा, ८४ दम्बलिया।
ग्रन्थके अन्त में 'बलिया छन्दका लक्षण देकर ग्रन्थइन नामोंके अनन्तर कुछ गाथाएँ दी है जिनमें पिंगल- समाप्ति-सूचक जो वाक्य दिया है वह इस प्रकार है:भाषित ८४ रूपोंके लक्ष्य-लक्षण भेदसे कथनकी प्रतिज्ञा तीसधुवमत्तय एरसजुत्तय पंडियलोय चवंति णरा। करते हुए पहले छन्दशास्त्र-सम्बन्धी नियमों और गणोंके विस्सामयटिट्ठिय एरसदिट्ठिय पायहसिट्ठिय तिएिणघरा भेदों-उपभेदों आदिका कुछ विस्तारके साथ वर्णन दिया है दासप्पढमंचियअट्ठतहचियचउदह तिरिणविकियणिलय और फिर 'साडा' प्रादि उपर्यत छन्दोंके लक्षणात्मक जो एरिसछंदय सेसफणिंदय सो जागेमश्चय डबलिय। स्वरूप दिये हैं। किसी-किसी छन्दके उपभेदोंका उल्लेख इति डंबलियाछंदः समाप्तः । इति पिंगलस्य चतुकरके उनके भी स्वरूप साथमें दिये हैं और जहां कहीं रशातिरूपकाः समाप्ताः । छन्दका उदाहरण अलगसे देनेको रूरत पड़ी है वहाँ इस तरह यह इस ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय है। चंदोंअलगसे उदाहरण दिये हैं और कहीं एकसे अधिक भी की संख्या और उनके लक्षणादिको देखते हुए प्रन्थ अच्छा उदाहरण दिये हैं। साथ ही जगह-जगह पिंगलके अनुसार महत्वपूर्ण एवं उपयोगी जान पड़ता है और अनुवादादिके कथनकी बात कही गई है। एक स्थान पर 'उवचूलिउ' साथ प्रकाशित किए जानेके योग्य है, जिससे प्राकृत और छन्दका उल्लेख करते हुए उसके निर्माता कवि रल्हका अपन शके साहित्यकी श्रीवृद्धि हो सके। भी उल्लेख किया है। जैसा कि निम्न पद्यसे प्रकट है :- १३. विधवा-शील-संरचणोपाय दोहा छंद वि पढम पढि दह दह कल संजुत्त उक्त ४१४ वर्ष पहलेके लिखे हुए गुटकेमें एक स्थान
सुअठ सवि मत्त दइ। (पत्र ७६,८०) पर दस गाथाएँ दी हुई हैं जिनमें विधउवचूलिउ बुहियण सुणहु हियण सुणहु गुरु गण मुण सजुत्तवाओंके शीलकी संरक्षाका सुन्दर उपाय बतलाया गया है।
जंपेइ रल्ह कइ॥ ये गाथाएँ परस्पर सम्बद्ध एक ही प्राचार्यकी कृति जान इस ग्रन्थके मंगलाचरणके दो पद्य इस प्रकार हैं- पढ़ती है और इसीसे इस गाथा-समूहको यहां 'विधवाजा विज्जा चउराणोण सरिसा जा चउभुए संभुणा शील-मंरक्षणोपाय' नाम दिया गया है। इन गाथाओंमें जा विज्जाहर-जस्व-किन्नरगणा जा सूर-इंदाइया। विधवाओंके आचरण-सम्बन्धी भारतकी प्राचीन संस्कृति जा सिद्धाण सुराणराण कइणा जा धूवयं निश्चयं सन्निहित है, उसकी जानकारी के लिये इन्हें यहां पूरा ही सा अम्हाण सुहाण एव विमला वाणी सिरी भारया उदरत किया जाता है। आजकल भारतकी संस्कृति तो जो विविह-सत्थसायर पा-पत्तो सविमलजल-हेलं। महिलाओं के सम्बन्धमें कुछकी कुछ हो गई है और होती पढणब्भासतरंडो नाएसो पिंगलो जयउ ॥२॥ जा रही है। किसीको भी शील-संरक्षाकी कोई चिन्ता ही
इनमेंसे पहले पद्यमें विमला वाणी श्रीभारतीका नहीं रही है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैंस्मरण और दूसरेमें नागेश पिंगलका जयघोष उनकी
(गाथा) स्तुतिको लिए हुए किया गया है। इन पद्योंके अनन्तर
पुरिसेण सह सहासं संभासं वत्तकरणमेगते । 'अथ चउरापी-रूपक-नामानि' वाक्य देकर उन ८४ छन्दोंके
एगट्टाणे सयणासणाई परिकठाणं च ॥१॥ नाम दिये हैं जिन्हें उपर उधत किया जा चुका है। उनके
परिसस्सवालविवरण-अंगोहलि एहाण-मलणमभंगो अनन्तर जो पद्य ५४ छन्दोंके लक्षणारम्भसे पहले दिए हैं
दिट्ठीह दिट्टिबधो विलवणं चलण धुवणं च ॥२॥ उनमेंसे प्रारम्भके दो और अन्तका एक पद्य इस प्रकार है:'चउरासीरूवा जं वृत्ता लक्खण-लक्खेण संजुत्ता। तबाल कुसुम-कम का
तंबोल-कुसुम-कुंकम कप्पूर सुरहि तिल्ल-कत्यूरी। चउरासी रूवा भावाणं पिंगलु-नामेइ पावाणं ॥११॥
केस-सरीर नियसण-वासणमेलाइसिरिखंड ।।३।। गुरु जुवकन्नं गुरु अंतकरलयं पयोहरम्मि गुरुमज्मे नह-दंत-अलय-सीमंत-केस-रोमाण तह य परिकम्म। श्राइगुरूणं चलण विप्पो सम्वेसु लहुएसु ।।२।।
अच्चतमुञ्चम्मिल्लबंधणं वेणिबंधं च ॥४॥
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१७६] अनेकान्त
[वर्ष १४ नाहि-नियंब-उरत्थल-पयासणं पुरिस-सेव-करणं च। प्रति अपनी भक्तिका प्रदर्शन किया गया है और इस प्रकारका नर-सुर-तिरिए द? कामकहं पुव्व-रय-सरणं ॥५॥ भाव व्यक्त किया है कि जैसे हंस सरोवरका, भ्रमर पुष्पोंका, सर्वाचय भाभरणं अलन्तयं अंजणं प्रणवरित और सर्प चन्दन-वनका स्मरण करता रहता है उसी प्रकार
मेरा मन आपका स्मरण करता रहता है। इत्यादि। हिंडोलय खट्टाई-सयणं तह कूलिभाएउ ॥६॥
इस चिट्ठीमें यद्यपि लिखनेका कोई समय नहीं दिया कोसंभ पट्टटलं तिलवासाईणि अच्छवत्थाणि।
है, फिर भी यह अतीव प्राचीनकालकी लिखी हुई जान इगमती जुयलस्स उ परिहरणं उभडो वेसो॥७॥ पड़ती है-खास कर उस समयकी जब कि कागजका खीर कामुहीवण-वंजणमाहारमहियमहणं च। प्रचलन नहीं हुआ था और भोजपत्रों पर चिट्ठी भादि जणसमवाए कोजग-पलोयणं धम्मठाण-बहिं ।।८॥ लिखी जाती थीं। क्योंकि इसमें चिट्ठी अथवा गुण-लेखनके
लिए भोजपत्रका ही उल्लेख किया गया है। इस पर-गिहगमणं एगागिणीइणिसि बाहिरम्मि णिस्सरणं
" दृष्टिसे इस चिट्ठीका काफी महत्त्व है और अपने इस चमचम-रत-उलगाणं तलियारणं तह परिभोग |
। महत्त्वके कारण ही प्रतिलिपि कराकर इसे गुटकेमें सुरक्षित सिंगारत्थं दप्पण-पलोयणं मिदियाइ नहरागो। रखा गया है। पाठकोंकी जानकारीके लिए यहां इसे पूर्णएमाइ विहव-महिलाण विवज्जए सीलरक्खट्ट।। १०॥ रूपमें प्रकाशित किया जाता है:
कुसलं अम्हाण वरं अणवरयं तुम्ह गुणलियंतस्स । १४, प्राकृतको पुरानी चिट्ठी
पट्ठाविय नियकुसलं जिम अम्हं होइ संतोसो ॥१॥ प्राकृत भाषामें लिखी यह चिटठी भी उन १४ वर्ष
1 सो दिवसो सा राई सो य पएसो गुणाण श्रावासो। पुराने गुटकेले उपलब्ध हुई है। इसको देखनेसे मालूम होता है कि वह किसी अनन्यनिष्ठ शिष्य-द्वारा अपने दूर
सुह गुरु तुह मुहकमलं दीसइ जत्थेव सुहजणणं ।।२।। देशस्थ विशिष्ट गुरुको लिखी गई है। चिट्ठी गाथा-छन्दमें किं अब्भुज्जो देसो किं वा मसि नत्थि तिहुयणे सयले । निबद । पोंको लिए हुए है और लेखकादिके नाम-धामसे किं अम्हेहिं न कज्जं जं लेहो न पेसिओ तुम्हे ॥३॥ रहित है । इसकी पहली गाथामें अपनी कुशल-क्षेम सूचित जइ भुजो होइ मही उयहि मसी लहिणी य वणराई। करते हुए अपनेको निरन्तर गुरुके गुणोंमें लीन बतलाया है। लिहइ सुराहिवणाहो तो तुम्ह गुणा ण याति ॥४॥ और गुरूसे अपनी कुशल-क्षेमकी पत्री देनेकी प्रेरणा की है,
जह हंसो सरइ सर पडुल कुसुमाई महुयरो सरइ । जिससे अपनेको सन्तोष हो । दूसरी गाथामें गुरुको सम्बोधन
पर चंदणवणं च नागो तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥५॥ करके लिखा है कि वह दिवस, वह रात्रि और वह प्रदेश गुणोंका प्रावास है, जहां आमन्द-जनक आपका मुख-कमल दिखाई जह भदवए मासे भमरा समरति अंबकुसुमाइं। पड़ता है। तीसरी गाथामें यह उक्षा की गई है कि क्या तह भयवं मह हिययं सुमरइ तुम्हाण मुहकमलं ॥६॥ पन्नी लिखनेके लिए उस देशमें भोजपत्र नहीं है, मषि जह वच्छ सरह सुरहिं वसंतमासं च कोइला सरइ। (स्याही) नहीं है अथवा भपनेसे कोई काम न रख कर विज्झो सरइ गइंदं तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥७॥ उपेक्षा करदी गई, जिससे पत्री नहीं भेजी गई। चौथी गाथामें यह प्रकट किया गया है कि सारी पृथ्वी भोजपत्र,
" जह सो नीलकलाओ पावसकालम्मि पंजरे बूढो । समुद्र स्याही, वनराजि लेखनी बन जाय और लिखने वाले सभरह वणे रमिउं तह अम्ह मणं तुम सरह ।। बृहस्पति हों, तो भी तुम्हारे गुण लिखे नहीं जा सकते जह सरइसीय रामो रुप्पिणि कण्होणलो यदमयंती है। इसके बादकी गाथाओंमें उपमालंकारोंके साथ गुरुके गोरी सरेइ रुई तह अम्ह मणं तुम सरइ॥॥
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वीर-सेवा-मन्दिर दिल्लीकी पैसा-फण्ड-गोलक
कार्यको देखते हुए मातको रक्षाका जो सेवा-
कातक जनसाहित्य और तितका हुई, जहाँ उसका
वीर-सेवामन्दिरकी स्थापना सरसावा जिला सहारनपुरमें अप्रैल सन् १९३६ को हुई, जहाँ उसका विशाल भवन विद्यमान है । वहां इसके द्वारा १६ वर्ष तक जैनसाहित्य और इतिहासके अनुसंधान, उद्धार, प्रचार एवं जैन संस्कृतिको रक्षाका जो सेवा-कार्य हुआ वह किसीसे छिपा नहीं है । उसके इस सेवाकार्यको देखते हुए समाज तथा देशको अधिक लाभ पहुँचानेकी दृष्टि से ही कुछ सज्जनोंकी भावना तथा प्रेरणा उसे दिल्ली जैसे केन्द्र स्थानमें लानेकी हुई । तदनुसार कुछ वर्ष हुए उसका प्रधान कार्यालय खोलकर उसे दिल्ली लाया गया और कलकत्ता आदिके कुछ उदार महानुभावांकी कृपासे उसका निजी तिमजिला भवन भी २१ दरियागंजमें नकर तय्यार होगया है। इस तरह यह संस्था अब भारतकी राजधानी दिल्लीमें आगई है, जहां भारतको और भी अनेक प्रमुख संस्थाएँ पहलेसे आ चुकी हैं और प्रारही हैं। और वह भारत सरकारके नियमानुसार रजिष्टर्ड भी हो चुकी है,
दिल्लीमें आ जानेसे इस संस्थाकी जहां उपयोगिता बढ़ी है, वहां इसकी जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई हैं, जिन्हें पूरा करनेके लिये सारे समाजका सहयोग वांछनीय है; तभी समाजकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित रखते हुए उसके गौरवके अनुरूप कार्य हो सकेगा।
इसमें सन्देह नहीं कि दिल्ली भारतके दिल (हृदय) स्वरूप मध्यभागमें स्थित भारतकी राजधानी ही नहीं बल्कि अनेकानेक प्रगतियों उन्नत कार्यों और विकास-साधनोंके स्रोत स्वरूप एक प्रमुख केन्द्र.म्थान बन गई है। यहां सब देशोंके राजदूत निवास करते हैं । संसारके विभिन्न भागोंसे नित्यप्रति अनेक प्रतिष्ठित दर्शक और कला-कोविद पर्यटक आते ही रहते हैं। यहां नित्य ही भाँति-भांतिकी प्रदर्शनियों, सभा-सोसाइटियों तथा अन्य सम्मेलनोंके आयोजन भी प्रचुरमात्रामें होते रहते हैं। जिनमें सम्मिलित होने के लिये भारत तथा विदेशोंसे असंख्य जनता आती रहती है। अतएव यहां प्रचार जैसे कार्योको अच्छी प्रगति मिल सकती है और जैनसिद्धान्तोंकी प्रभावना भी लोक-हृदय पर अंकित की जा सकती है।
परन्तु यह सब तभी हो सकता है जब इन कार्योंके पीछे अच्छी आर्थिक योजना हो। समाजमें धनिक प्रायः इनेगिने ही होते हैं और सभी जन उनका सहयोग अपने-अपने कार्योंके लिये चाहते हैं। वे सबको कैसे कबतक और कितना सहयोग प्रदान करें? आखिर धनिक वर्गकी अपनी भी कुछ मर्यादाएँ हैं। अधिकांश धनिकोंकी स्थिति और परिणति भी सदा एक सी नहीं रहती। परिस्थिति आदिके वश जब कभी उनकी सहायता बन्द हो जाती है तो जो संस्थाएँ एकमात्र कुछ धानकों पर ही अवलम्बित रहती हैं वे कुछ दिन चलकर ठप हो जाती हैं और उनके किये कराये पर एक तरहसे पानी फिर जाता है। वही संस्थाएँ सदा हरी भरी और फलती-फूलती दृष्टिगोचर होती हैं जिनकी पीठ पर जन-समूहकी शक्ति काम करती हई देखी जाती है। निःसन्देह जन-समूहमें बहुत बड़ी शक्ति होती है । इधर-उधर विखरी हुई शक्तियां मिलकर जब एक लक्ष्यकी भोर अग्रसर होती हैं तब बहुत बड़ा दुम्साध्य कार्य भी सरलतासे सम्पन्न हो जाता है।
ऐसी स्थितिमें बहुत दिनोंसे मेरे मनमें यह विचार चल रहा था कि दिल्ली में वोरसेवामन्दिरको स्थायी तथा प्रगतिशील और समाजके प्राचीन गौरवके अनुरूप कैसे बनाया जाय और कैसे इसकी आर्थिक समस्याओंको हल किया जाय? अन्तमें यह उपाय सूझ पड़ा कि वीरसेवामन्दिरके लिये एक पैसा-फण्डगोलककी योजना की जाय और उसे जैन-समाजके हर घर और प्रत्येक जैनमन्दिरमें स्थापित किया जाय। घरकी गोलकोंमें घर पीछे कमसे-कम एक पैसा प्रतिदिन डाले जानेकी व्यवस्था हो और उसका भार गृहस्वामी पर ही रक्खा जाय, वही वर्षके अन्तमें गोलकसे पैसे निकाल कर उन्हें दिल्ली वीर-सेवा
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१७८]
वोद-सेवा-मन्दिर दिल्लोकी पैसा-फण्ड-गोलक मन्दिरको भेजते रहनेको कृपा करें। और मन्दिरोंकी गोलक-व्यवस्था मन्दिरोंके प्रवन्धकोंके सुपुर्द रहे। गोलकोंकी सप्लाई वीर-सेवामन्दिर करे । जिस गोलकसे जितना पैसा वपके अन्तमें प्राप्तहो, प्रायः उतने ही मूल्यका नया उपयोगी जैन-साहित्य प्रत्येक घरके स्वामी तथा मन्दिरके व्यवस्थापकके पास वीर-सेवामन्दिरकी ओरसे विना किसी मल्यके फ्री भेजा जाय। ऐसा होने पर अधिकसे-अधिक जैन-साहित्यके प्रचारकी व्यवस्था हो सकेगी, जिसकी आज बहुत बड़ी जरूरत है, और उसके द्वारा जैन सिद्धान्तोंके मर्म, महत्व, व्यवहार में आने-लानेकी योग्यता-उपयोगिता आदिको लोक-हृदय पर अंकित किया जा सकेगा। साथ ही, जिनवाणीके अंग-स्वरूप महत्वके प्राचीन ग्रन्थों तथा अन्य समृद्ध साहित्यकी खोज हो सकेगी, विविध भाषाओं में उनके अनुवाद तैयोर किये जासकेंगे और जैनतत्त्वोंका विवेचन ऐसी सरल तथा सुन्दर भाषामें प्रस्तुत किया जा सकेगा जो लोक-हृदयको अपील करे। और इस तरह वीरसेवामन्दिर लोकहितकी साधनामें बहुत कुछ सहायक हो सकेगा, उसे लोकका समर्थन प्राप्त होगा और वह अपने भविष्यको उत्तरोत्तर उज्ज्वल बनाकर स्थायित्व प्राप्त कर सकेगा।
आर्थिक समस्याको हल करने और सारी जैन जनताका सहयोग प्राप्त करने के उपाय-स्वरूप अपनी इस गोलक-योजनाको जब मैंने अजमेर, केकड़ी, व्यावर, सहारनपुर, दिल्ली और कलकत्ता आदि स्थानोंके कतिपय सज्जनोंके सामने रक्खा तो उन सबने इसे पसन्द किया। तदनुसार वीरसेवामन्दिरकी कार्यकारिणी समितिमें इसका प्रस्ताव रक्खा गया और वह ३ जनवरी सन् १६५७ को सर्वसम्मतिसे पास हो गया।
अब इस गालक-योजनाको कार्य में परिणत करने और सफल बनानेके लिये सारे जैनसमाजका सहयोग वांछनीय है। नगर-नगर तथा ग्राम-ग्रामसे दो एक परोपकारी एवं उत्साही सज्जन यदि सामने आए और घर-घरमें गोलकांकी स्थापनाका भार अपने ऊपर लेवें तो यह कार्य सहजमें ही साध्य हो सकेगा। वीर-सेवा-मन्दिर मांगके अनुसार उन्हें गोलकें मप्लाई करेगा। आजकलकी दुनिया में एक पैसेका मूल्य बहुत कम है और वह आगे और भी कम होने वाला है, और इसलिये घर पीछे एक पैसा प्रतिदिन साहित्य-सेवाके लिये दानमें निकालना किसीके भी लिये भाररूप नहीं हो सकता-खास कर उन गृहस्थोंके लिये जिनका दान करना नित्यका आवश्यक कर्तव्य है। फिरभी अर्थशास्त्रकी दृष्टिसे बू'दसे सर भरे' और 'कन कन जोड़े मन जुड़े' की नीतिके अनुसार इस पैसेका बड़ा मृल्य है। जैनियोंकी संख्या २० लाखसे ऊपर है, सामान्यतः ४ व्यक्तियों के पीछे एक घरकी कल्पना की जाय तो जैनियोंके पाँच लाख घर बैठते हैं। इनमेंसे एक लाख घरों में भी यदि हम गोलकांकी स्थापना कर सकें, और घर पीछे पाँच रुपये वापिककी भी आय मानले तो वीर-सेवा-मन्दिरको प्रतिवर्ष पाँच-लाखकी आय हो सकती है। इस आयसे वीर-सेवा-मन्दिर कुछ वर्षों में ही वह कार्य करने में समर्थ हो सकेगा जिससे घर-घर, देश-देश और विदेशों में भी जैन-धर्म और वीर-शामनकी चर्चा फेल जाय और अधिकांश जनता अपने हितको समझने और उसकी साधनामें अग्रसर हो सके।
वीर-सेवा-मन्दिरनं आमतौर पर पर्वादिके अवसरों पर अपनी कोई अपील आजतक नहीं निकाली, यह घर-घरमें गोलक-योजना उसकी पहली अपील है। आशा है कि समाजकी ओरसे इसका ऐसा सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त होगा जिससे वीर-सेवा-मन्दिर अपनी जिनशासन और लोक-सेवाकी भावनाओंको शीघ्र ही पूरा करने में समर्थ हो सके।
निवेदकजुगुलकिशोर मुख्तार संस्थापक 'वीरसेवामन्दिर'
२१ दरियागंज, दिल्ली
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
उत्तुग धबलु सिरि-कब-कबसु, तहिं जिणहरु ई बासहर जसु । मइ गपि पखोबड जिण-भवणु, बहु समयालउ सम-सरण । सिरि अरुह बिंबपुणु बंदिवर, अप्पाबड-गरिहट-गिदिया । हो किरणेहें सिविणंग पाई, विहरंगई कि सुहि संगमई। भो भो परमप्पय तुहुं सरण, मसिड जम्म-जरा-मरणु ।
.
सहि पुरवाड बस बापामब, भणशिव-पुष-पुरिस-सिम्मबल। पुण हुउ रायसेहि लिव भत्ता, भोवई गामें दप-गुण-तर। सुहडपउ तहो संदण बावर, गुरु सजग भुषधि विसावर । तहो सुदुरपणवालु धरापति, परमप्यय-पंकब-ड-अति। एहि वहिनिया-वित्य-नानंतर, महि-ममंतु पल्हणपुर पत्ता । सिरि पहचंदु महागाव पापड, बहुसीसेहि सहिड शनि रावतु। या बाएसरि-सरि-यणायर, सुमय कणय-सुपरिक्वाय-बायह। दिलु गणोंसें पय-पणवंवड, बुह धणवालु विबुह-जन-भत्तड । मुशिणा दिउ हत्युषिशोएं, होसि वियक्तणु मज्मु पसाएं। मंतु देमि तुहकप मत्थए कर, महु मुह-हिम्मड बोसहिचस्वक। सृषि-वयणु सुखि म प्रायदिर, विवएं पाय-अभवमई बंदिर। पडिय सस्थ गुरु-पुरट प्रणावस,
हुभ जप-सिदि सुका-भावावस । बा-पट्टणे खंभायच्चे धार-णयरि देवगिरि। मिकामय विहुर्णतु गणि पत्तठ जोइणिपुरि॥१॥
तहिं भवहिं सुमहोछट विहिवड, सिरि रयणकित्ति-प? बिहमर । महमूद साहि मणु रंजिवड, विजहि-वाहन-माणु-भंजिवट गुरु प्राएसें मई किस गमखु, सूरिपुर बंदिर ऐमिजिणु । पुर्ण दिवा चंदवाडुण्यरु, बरनवानल्यं मवर-हा।
बावकणव सपा पर, पुहारमवि सिरि हा
एक मुशियर पर खमंसिपई, अमिजाव प. ता पत्ता सिरि संघाहिवद दिट्टड वासखर सुबह
जायव-वंस-पभोणिहि-दु-पाहु, मासि पुरिसु सुपसिद्ध जसहरू । तहो शंदणु गोकणु संजायउ, संभरिराय मंति विसापड। सहो सुड-सोमएउ-सोमाणयु, कुणय-गइन-विंद-पंचाहनु । तहो पेमसिरि भज्जा विवाहय, बय-बम-सीत-गुणेहिं विराहप । एपहिं सत्त-पुत्त संजाइम, पंजिय गिरए सच-विक्साइच । पदमु ताहं दव-परखी सुरतह, संघाहिट गामें वासाहरु। जो दिवहाडिय चाड-पसिङड, यह भंड शिव मंत-समिधर। पुणु बीवड-परिवार सहोयर, विशकिड हरिराय मबोहरु । तइबर सुड पल्हाउ समक्खन, संजावड भादंदिव-सज्जन । पुण कुरियर महराउ विसुख, गुण-मंडिय तण हुट जस-लुइट। पंचमु भामराउ मेदायर, बटर तब बाम-रयणायह। सतमु समस-मारपवार,
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१८.]
अनेकान्त
[वणे १४
संतणु-णाम-जाउ-माइ-दुक्खा। एहि सत्तहिं सुयहिं पसाहिउ, सोमएउ णं ययहिं जियाहिट । जो पढमठ यंदणु वासाहरु, सयल-कलाबड संचय-ससहरू। पेक्षेविष्णु सारंगणरिंदें, बाहु-वाण-कुल-कहरव-चंदें। रज्ज-धुराधर शियमणि जाणिवि, मंति-पम्मि ठविउ सम्माधिषि । अप्पिवि देसु-कोसु-घणु-परियण,
भुजइ रज्ज-सोक्स-विच्चन-मणु । घसासोसुअणु-गुणायरु बुहु-विहियायरु दुक्खिय-जण-पव-कायवक जिब-पव-पंकय-महुयह सिरिवासद्धरु जापबर सहिं पुरिवार
तापेक्सवि पंडिय धणवालें, विहसिवि पाणउंबुद्धि-विसालें। भो सम्मत्त-रयण-नयणायर, वासद्धर हरिराय-सहोयर। विण्य-गुणासंकिय हिम्मच्छर, पंडिय-जण-मण-जण-कोचर । करिवि पट्ट मन्बजणु-रंजित, जे तिस्थयर-गोत्त प्रावजिट। धरणउं हं गुरुभत्ति-कयायर, मह-सुइ-कित्ति-तरंगिणि-सायर । जिणवर-पाय पमोरुह-महुयर, सयन-जीव-रक्षण-सु-दयायर । दुस्समकाल-पहाव-गुरुक्कड, जिणवर-धम्म-मग्गि जणु बंकड। दुज्जण-पडर-खोर-अकयापरु, विरलउ सज्जणु गुणिविहियायह। असहायहो अगिको विव मरवाई, धम्म-पहावें बम्भह उपाई। धम्मही जण हि जहि गच्छाइ, तहि वर्ष सम्म कोवि स पेपर। तें कजें धम्माया किज्जा, धम्महोणु ण कमावि हविम्बर । इस धम्मो पहारहरपुर, पिसुधिषि वासापक संबड।
चा-मुगुजपिवि पियचायए महरु तहिं गुरुचरणग्गे ठियर। बहुविणए सिरिवासदरेण कह धणवाल पथिय ।।
जिण-पय-पंकप-इंदिरेज, भायम-पुराण-सुह-मंदिरेव। सम्मत्त-भवण-नगणायरेखा, कइ पुग्छिउ-पुणु पासाहरेष। भो किं प्रवियोएं गहिं कालु, मह-तंदु धुमहि जिणु सामिसानु । करि-कप्यु मणोहरू सत्य-चित, जिया-चक्कि-काम-कहभाइ-विचित। जसु गामईबासा विहिल दुरित, बाहुबलि-कामएकहो चरियट । जस बसलोवरि तंबोलु मम्बु, तह जिण तिवमोवरि सहा कम्यु। तुहु विरयहि भन्य-मयोहिराम, पडिया बंधे सइयामु। के विजए जाए म होइ सिदि, पुरिसे जेण ण बाबु-आदि। किं किविणएव संचिव-धक्षण, कि थिएवंह-पिव-संगमेण । किं णिज्जलेण षण-गज्जिएण, कि सुह. संगर-भज्जिएव। कि अप्पशेष गुण-कित्सोण, किं अविवेयं विट-सरणणेच। किं विप्पएण पुणु रूसिएण, किंकवं बक्खया-सिएखा। किंमणुयचणि अंजणि भन्दु, किबुद्धिए जाएण रइड कम्बु । इय वषण सुणिवि संपाहिवासु, धणवाल पर्वपद वियसियाम् । भो कुणमि कम्वु जंकहिट मज्मु, गुरुयण हंसाएं कि मसज्नु । हडं कमि कम्युह-जविय-हासु, तुच्छमई पबम जस-पवासु । णालोयड पवमा पय-सुभंगु,
पाउ-बबरमह-काइयवहं संगु। पत्ता-वायरण महोवहिं दुसरु सह-सरि किपरिया। यावाभिहाण-जल-स्पिड बडरपालि ..
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जैनअन्य प्रशस्तिसंग्रह
[१८१ बाएसरि-कीसा-सरपवास,
पर पडमचरिउ ति सु-कइसेदु, एचबासि महाकई मुणि-पयास ।
हब अवर जायबर पखारवेतु । सुभ-पवण-हुविय-कुमय-रेणु,
पत्ता-चउमुह दोणु सयंभुकइ पुष्फतु पुणु वीरु भणु का-चावहि-सिरि धीरसेणु ।
ते गाण-मणि-उज्जोय-कर हउ दीवोवमु होणु-गुण ॥८॥ महि-मंडलि वरिण विधुहवंदि,
६ शिसुणिवि वासाहरु जपह, वापरण-कारि सिरि-देवणंदि ।
किंतुहं बुह चिताउलु संपह। जइणेद यामु जाया-दुसन्तु,
जइ मयंकु किरणहिं धवनइ भुवि, किड जेण पसिद्ध स-बायबन्तु।
तो खजोड ण छह णिय-छवि । सम्मत्तारू युसु राबभम्बु,
बह खयराउ गयणे गमु साह, दंसह-पमाणु बरु स्यड कम्यु।
तो सिहति किं शिव-कमु वजह । मिरि बन्जसूरि गणि गुण-दिहाणु,
जह कप्पतरु बमिय फल कप्पा, विस्यड मह छंदसण-पमाणु ।
तो किं तह लाइ थिय संपह। महासेण महामई विउ समहिल,
बसुजेत्तिड मइ-पसह पबछ, पण गाम सुलोयणचरित कहिउ ।
सो तेत्तिउ परस्यले पयछ। रविसेणे पठमचरित्तु वुत्तु,
इय णिसुणिवि संघाहिव वुत्तर, जिणसेणें हरिवंसु वि पवित्त ।
करणा धणवालेण पउत्तड। मुणि डिलि जहत्त-णिवारणत्यु,
xxx
इयमिरि-बाहुबलि-देन-चरिए सुहडदेव-तणय-युह धणणं वरंगुचरिउ खंडणु पयत्यु ।
बाल-विरइए, महाभम्व-वासर-णामीकए सेणियरायदियरसेणे कंदप्पचरिउ,
समवसरणा-समागमो वणणो णाम पढमो परिमो वित्थरिय महिहिणव-रसह भरिट ।
समतो ॥ संधिः ॥ जिण-पासचरिउ भइसयवसेण,
पन्तिमो भाग:विरयउ मुणिपुगव-पउमसेण । अमियाराहण विरहय विचित्र,
जंबुदीव-भरद्द-वर-संतरि, गणि अंबसेण भव-कोस-चत्त ।
गिरि-सरि-सीमाराम-णिरंतरि । चंदप्पहचरिउ मणोहिरामु,
अंतरवेइ मज्झि धरिबउ, मुणि विएहुसेण किउ धम्म-धामु ।
सहं काविट्ठविमउ मु-पसिद्धड। धणयत्तचरिउ चउवाग रु,
वीर-खाणि उप्पत्ति पवित्तउ, भवरेहि विहित णाणापयार।
सूरीपुरु जण-परिपालंतउ । मुणि सीहणंदि सहत्य वासु,
सूरसेणु णरवइ तहोणंदणु, अणुपेहा-कय-संकप्प-णासु।
अंधय-विदिठ-राउ रिउ-महणु । णवयारणेहु णरदेव वुत्त,
तहो पइवय पिय-पाण-पियारी, कह असग विहिड वीरतो चरित्त ।
णाम सुभद्दा देवि भडारी। सिरि-सिद्धसेण पवयण विणोड,
दस-दमार तहिं पांदण जाया, जिसेणें विरह आरिसेन (भारिसोर)
वोर-वित्ति तिहुण-विक्खाया। गोविंदकइ दंसण-कुमार,
सायर-विजउ पढमु उविणीयउ, कह-यण-समुदो लद्ध-पारु ।
पुणु अक्खोडु णाम हुआ बीयउ । जयधवलु सिद्ध-गुण-मुगिड तेड,
तइयउ अमियामउ सिरिवल्लहु, सुप सालिहत्थु कह जीव देव ।
पुणु हिमवंतु तुरिउ जाणहु दुल्लहु ।
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१८२
भनेकान्त
विजउ णामु पंचमु सुह-बहनु, बहर अचलु रिदि-सक्कंदणु । सत्तमुखामु पसिबड धारणु, पुणुभट्टमड तणुभट पूरणु। सुङ बाहिचंदु णवमु पुण जाबहु, दमड सुर वसुएवड माणस। एवहं बहु अंकोऽतिमदोवर, बापरणे णिज्जिय अमरकर । समुद विजश्र सूरीपुरि थप्पिर, चंदवाडु वसुएषहो अप्पिट । वहो मुड रोहिणेउ भरि-गंज, देवह-णंदणु अणु जणहणु। वहो संताण कोटि-कुख-बक्साई, संजाया केवखि-परचक्खाई। पुणु संभरि गरिंद महि भुजिय, जायव-सुब्वमतें रंजिय। असवंतु चहुवाण पुहह पहु, तहु मंतिउ जदुवंसिउ जसरहु । पहुगण पत्तिहु भउ धरणीयलि, भासानुरि सुरि-पय-पंकय-अखि । साहु णाम गोकणु मंती तहु, जिणवर-चरणंभोरुह-महुखिहु । हुड संभरि णरिंद महिवाबड, करणदवु-शाम-पय-पाखाउ । सोमदेउ बहो मंति सहोयर,
सयल-कलालांकडणं ससहरु । पत्ता-पुण सारंगु णरिंदु अभयचंदु हो गंदण ।
तहो सुभ हुउ जयचंदु रामचंदु थामें पुरु॥ णिव-सागर-रज्जि-समयंकित, वासाहरु मंतिड णीसंकिउ । गिय-पहु-रज्ज-भार-दिढ-कंधरु, विबुह-वंदि-तरु-पोसण-कंधरु । एक्कु जि परमप्पट जो झावर, वे ववहार सुदणय भावह। जो ति-काल रयणत्तर अंचह, चडाणपोय-रुड़ कह-वि ण मुग्छ। जो परमेट्ठि-पंच-बाराहद, जो पंचंग-मंत-महि साहह।
[वर्ष १४ जो मित्त पंच अवगण्याई बक्कम्महिं जो दिवि दिखि गम्मई। जो सत्संगु-मण्डविहाबाद, सास-सच्च-सहा रसाबाद। दावारहु-गुण-संतत-पत्तड, सत्स बस जो कहिवि वरठ। भट्ट मूखगुण-पालन-पह सांसद भट्टग रपयापर। भट्ट-सिब-गुण-गह-सम्माबई, भट्टरव-पुज्जिय जिण-पत्याह। सव-विह-पुराण-पत्र दाहायरु, सव-पयस्थ परिरक्खह-शायर। बवनस-चरिड सुबई वसावा, दह-बखन-महिं रह-माणहं। एवारह अंगई मणि इच्छा, एवारह-परिमाउ-णियच्छा। बारह-सावय-वय-परिपालाइ, तेरह-विहि चरित्तु सुणिहाबाद। बउदह-कुत्यरक्खमुवपस्सह, बउदह-विह-पुम्वहि-मणु-वासह। पउदह-मग्गण-वित्थरु-जोवह, बडबह पुरिस सत्तण उज्जोबह ।
हो बंधड रयणसीहु भणि भज्जा य मेरु सुपसिबर। नियर्विव-पट-रएवि पुणु जिणवर-गोत विवर ॥२॥
वासद्धर पिययम वे परिणिलं, परियण-पोसणणं कुरु धरणिडं। वे परसुजल पर व मराखिय, सोल-तहहिं वेदिख रसाखिय। पेमकिय-कुल-सरणं पोमिणि, सुयश-सिहंडणि जलहर-दि। पइ-वय-सीज-सखिल-मंदाइणि, दुक्लिय-जय-जय-शिव-सुह-दाहदि । उदयसिरी होमा विषय-य, बटविह-संघहो कप्पणिही हय । उमर-सप्पि-सुय-नया-समुन्भव, संजाया कुख-हरण-तणुम्भव | पहम-पुत् जयपालु गुवंगड,
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किरण ६
जैनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह
[१८३
स्वेणं पसभणंगड।
संतोसु तह य हरिराय पुण । हुट जसपाल वियक्खणु बीयउ,
थिरु अरुह-धम्मु जा महिवलए, पुणु रउपालु पसिड तीयड ।
सायर-जलु जा सुर-सरि मिलिएं। तुरियड चंदपालु सिरि-मंदिर,
कणयदि जाम वसुहा प्रचलु, पंचमु सुभ विहराज सुहकरु ।
वासरहो छ?उ ताम कुलु। बट्टड पुरणपालु पुण्णायरु,
जो पढइ पढावह गुण-भरिओ, सत्तमु बाहहु याम गुणायक।
जो लिहइ लिहावद वर-चरित्रो । अट्टमुरूवएउ रूवउ,
संताण-वुड्ढि विथरइ तहो, एहि भट्ठ-सुहि-चिरु-वड्ढ ।
मणवंछिउ पूरह सबलु सुहो । भाइय-मत्तिज्जय-संजुत्तर,
बाहुबलि-सामि गुरु-गण-संभरण, यंदड वासाधर गुण जुत्तइ ।
महुणामउ जम्म-जरा-मरणु । जं हर्ड पच्छिउ पसमिय गब्वें,
पत्ता-जो देह लिहावइ वि पत्तहो, वायह सुणइ सुणावह । वासाहर-संघाहिव-भब्वें।
सो रिद्धि-सिद्धि-सपय नहिवि, परछह सिव-पउ पावह ॥ तहो वयण मई श्रारिसु दिट्ठउ,
श्रीमत्प्रभाचन्द्र-पद-प्रसादादवासबुया धनपालदरः । जंगणहर सुअ-केवलि-सिटुउ ।
श्रीसाधुवासाधर-नामधेयं स्वकाम्य-सौधे जशो-करोति ॥ सो पेच्छिवि मइ पाइय कन्वें,
इति बाहुबलि-चरित्रं समाप्तम् । विरयड बुह-धणवाले भन्।
(आमेर-भंडार, प्रति सं० १५८६ सिरि-बाहुबलि-चरिउ जं जाणिलं, बक्खण छदु तक्कु ण वियाणि ।
ऐ० पन्नालाल सरस्वती भवनको प्रतिसे संशोधित) बत्ता-खक्षण-मत्ता-छंद-गण-होणाहिउ जं भणिउ मई। २० चंदप्पह-चरिउ (चन्द्रप्रभचरित)भ० यशःकीर्ति
त खमउ सयलु प्रवराहु वाएसरि-सिवहं संगहं ॥३॥ आदिभाग विक्कम-गरिंद-अंकिय-समए,
णमिऊण विमल-केवल-लच्छी-सब्वंग-दिण्ण-परिरंभ। चटदह-सय-संवाछरहिं गए।
लोयालोय-पयाम चंदप्पह-सामियं सिरसा ॥१॥ पंचास-वरिस-चउ-हिय-गणि,
तिक्काल-बमाणं पंचवि परमेटि : ति-सुखोऽहं । वहसहहो सिय-तेरसि सु-दिणि ।
तह नमिऊण भणिस्सं चंदप्पह-सामिणो चरियं ॥२॥ साईणक्खसे परिट्टियई,
धत्तावरसिद्धि-जोग-णामें ठियई।
जिण-गिरि-गुह-णिग्गय सिव-पह-संगय.सरसह-सरिसुह-कारिणिय ससि-वासरे रासि-मयंक-तुले,
महुहोउ पसरिणय गुणहि रवरिणय तिहुवण-अण-मयहारिणिय गोलग मुत्ति-सुक्कै सबने ।
हुबड-कुल-नयलि पुप्फयंत, चउवग्ग-सहिउ-णव-रस-भरिउ,
बहु देउ कुमरसिंहवि महंत । बाहुबलिदेव-सिद्धहो चरियउ ।
तहो सुउ हिम्मलु गुण-गण-विसालु, गुज्जर पुरवाड-वंसतिबर,
मुपमिद्धत पभणइ सिद्धपालु । सिरि-सुहड-सेट्टि गुण-गणणिजउ |
जसकित्ति विबुह-करि सुहु पसाउ, तहो मणहर छाया गेहणिय,
महु पूरहि पाइय कन्व-भाउ । सुहडाएवी णामें भणिय ।
तं निसुणिवि सो भासेह मंदु, तहो उवरि जाउ बहु-विणय-जुनो,
पंगलु तोडेसह केम चंदु। धणवालु वि सुउ णामेण हुओ ।
इह हुइ बहु गणहर णाणवंत, तहो विरिण तणुब्भव विउल-गुण,
जिण-बयण-रसायण विस्थरंत ।
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अनेकान्त
[वर्ष १४ गणि कुंदकुंद वच्छल गुण,
हर यमु हामि किंपिवि सत्थु गंधु । को वएणण सक्कह इयर जणु ।
पत्ताकलिकाल जेण ससि लिहिउ णामु,
जा चंद दिवायर सम्व विसायर, जा कुल पब्वय भूबनो। सह दिट्ठउ केवल एंत-धामु ।
ता एहु पयहहु हियइं चहुड, सरसहं देविहिं मुहि तिलयो। यामें समंतभद् वि मुणिंदु,
इय-सिरि-चंदप्पह-चरिए महाकइ-जसकित्ति-विरहए भइ णिम्मलु णं पुरिणमहि चंदु ।
महाभम्व-सिद्धपाल-सवण-भूसणे सिरिचंदप्पह-सामि णिम्वाण जिउ रंजिउ राया रहकोडि,
गमणो-णाम एयारहमो-संधी परिच्छेनो सम्मत्तो॥ जिण-थुत्ति-मित्ति मिवपिंडि फो.।
(मेरे पैत्रिक-शास्त्र-भंडारसे) सं.-१३. यीहरिट विंबु चंदप्पहासु,
पडव-पुराणु (पांडव-पुराण) (भाषा अपभ्रंश) उज्जोयंतउ फुडु दस दिसासु ।
कर्ता-भ० यशःकीर्ति. रचना-काल सं १४६७ अकलंकु णाई पच्चक्षु णाणु,
मादिभाग:जें तारा-देविहि दलिउ-माणु ।
बोह-सु-सर-धयरटुहो गय-धय-र?हो सिरिजलाम सोरटुहो। उज्जालिउ सासणु जय पसिद्ध,
पणविवि कहमि जिणि?हो गुयबल-विट्ठहो कह पंडव-धयरटुहो। णिद्धाडिय घहिलय सयल-बुद्धि ।
जो भब्व सरय-बोहण-दिणिदु, सिरि-देवणंदि मुणिबहु पहाउ,
हरिवंस-पवण-पह णिसियरिंदु । जसु गाम-गहणि मासेउ पाउ ।
सन्वंग सलक्खणु बद्धसंसु, जसु पुज्जिय अंबाएई पाय,
णिय-कम्म-णियक्खाणण विसु । संभरण मित्ति तक्खणि ण पाय |
भव-भीयह मत्तहं जलिय इंसु, जिणसेण सिद्धसेण वि भयत,
वे पक्ख समुजलु णाइ इंसु । परवाइ-इप्प-भंजण-कयंत ।
जेसि वर-जम्मि पढिउ अहिंसु, इय पमुहहं जहिं वाणी-विलासु,
जो सिद्धि-मरालिहिं परमहंसु । तहि प्रम्हह कह होई पयासु ।
जें णाणे पवियाणिउ ण हंसु,
जो तिस्थणाहु वज्जरिय हेसु । जहि थुबह फीसरु, बहु जीहाहरु, मह सहसखुतिरिक्वा । जण-चाय-विसा-सारंग-रिसु, सहि पर जिण-चरणइ, सिवसुहकरणइ, किह संथ्णइ समिक्खह
जम्मणे हरि-किय सारंग-वरिसु ।
णिय-कतिए जिउ सारंगु सज्जु, अन्तिमभाग:
सारंगेण जि मेहिलउ अवज्जु । गुज्जर-देसहं उम्मन गामु,
गिह-मोहु चह वि सारंगु जाउ, तहिं छहा-सुउ हुउ दोण णामु ।
सारंगु गयणे दिएणउ न राउ। सिद्धउ तहो णंदणु भब्व-बंधु,
सारंगें पणविय णिच्च-पाउ, जिण-धम्म-भारि में दिएणु खंधु ।
सारंग पाणि कर तुलिउ राउ। तहु सुर जिवड बहुदेव भन्दु,
चउतीसातिसयहिं सोहमाणु, जे धम्म कज्जि विव कलिउ दम्बु ।
वसु-पारिहेर-सिय-चत्त-माणु। तहु लहु जायउ सिरि-कुमरसिंह,
चउ-घण-चमरेहि विजिज्जमाय, कलिकाल-करिदंहो हणण-सीहु ।
जसु बोयालोय पमाणु णाणु । तहो सुर संजायउ सिद्धपालु,
जे पयडिड बावीसमउ तित्यु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-रमालु।
जसु अणुदिणु पणवइ सुरहं सत्थु । तहो उवरेहिं इह किया गंधु,
समुद-विजय सिबएवीहे पुत्तु,
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किरण ६]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[१८५
सो नेमिणाहु गुण-सील-जुत्तु ।
घेनाही तहो पिय णाम सिद्ध, असु तिथे जाउ म हयले पवित्त,
गुरुदेव-भत्त परियण । वहं चरिउ अच्छरिय-जुत्तु ।
तहो यंदणु णंदणु हेमराउ,
जिणधम्मोवरि जसु णिज्य-भाउ । तह पविवि सिहं णाण-समिद्ध पायरियह पाठयहं तहं।
सुरवान मुमारख-तगई रज्ज, साहाह पपवेप्पिणु भाउ घरेप्पिणु बाएसरि जिण-वयण-रुहं ॥१ मंतितणे थिउ पिय भार कज्ज ।
पुणु रणवेप्पिणु जिणु वड्ढमाणु, अजनवि जस तित्थु पवड्ढमाणु ।
जें अरहंतु-देउ मणि भाविउ, जासु पहुसे, को विण सावित। चउ-कम्म इणि विहु परम-णाणि,
जेण करावा, जिण चेयालड, पुरण हेउ चिर-रव-पक्खा जोयण-पमाण-जसु दिग्व-वाणि ।
धय-तोरण-कलसेहिं प्रलंकिड, जंजए पडिय पंचस्थिकाय,
जसु गुरत्ति हरि जाणु वि संकिट । बदन्व तह व काजहो न काय |
पर-तिय-बंधउ-पर उवयारिट, जीवाइ-पयासिय-सत्त-तच्च,
जेण सम्वु जणु धम्महं तेरित । पुणु णव-पयत्थ-दह-धम्म-सच्च ।
संघ धुरंधरू-पयड मुणज्जा, सम्मत्तु वि पणविसह दोसु चत्त,
सावय-धम्में णिच्च मणु रंजह । णिम्सकिय संवयाई जुत्त ।
सत्त वसण जे दूर वज्जिय, वरिउ विविहु सायार-धम्मु,
सील-सयण-वित्ति वि भावज्जिय । प्रणयार-धम्मु णिहणियहु कम्मु ।
सत्त गुणहं दायारहं जुत्तउ, जसु समवसरणु जायण-पमाणु,
णव-विह-दाण-विहिए उ पसउ । जे भणिउ तिलोय-पमाण-ठाणु ।
पणएं पणय-गुणें मठ भंजिउ, पुणु इंदभूइ-पमुहह णवधि,
रयणत्तय-भावण-अणुरंजिउ । णिय-गुरुहु जसुज्जल गुण सरेवि ।
विणणं दागु देह जो पत्तहं, चिर कह हु करेप्पिणु परम भत्ति,
जिणु तिकालु पुज्जइ समचित्तह। सुउ किंपि पयासमि णियय-सत्ति ।
तामु भज्ज-गुण-रयण-वसुधार, इय चिंतंतउ मणि जाम थक्कु,
गंधो णाम णिय-गइ-जिय-सुरसरि । मुणि ताम परायउ साहु एक्कु ।
रूव चेलण-देवि पहाणय, इह जोणिपुरु बहु पुर-हिसार,
जिणवर-भत्तिहें णं इंदाणिय। धण-धण्ण-सुवरण-गरहि फारु।
अमिय-सरसन्वयणहि सच्चहि ठिय, सिरि-सर-वण-उववण-गिरि-विसालु,
णउ तंबोलराय अणुरंजिय । गंभीर-परिह-उत्तुंग-सालु।
उवरि करिल्लु सील जे धारिड, तहिं निवसह जालपु साहु भम्बु
स्यणत्तय हार मणु पेरिउ । पिउजी भज्जालंकित अगम्वु ।
धम्म सवण-कुंडन जे धारिठ, सिरि-अयरवाल-वंसहि पहाणु,
जिण-मुहा-मुद्दिय संचारित। सो संघहं वच्छलु-विगय-माणु ।
जिण-गेहम्मि गमण-णेउर-सरू, हो चंदणु बील्हा गय-पमाउ,
तहो चंदण-कंकण सोहिय-कह। ............"सई जि पाउ ।
जिणवर-मत सरण कुंचड उरि, भावेष्पिगु हिवमक्ता दिछु,
जिणवर-वाणु तिबउ किट शिय-सिरि । से पवि सम्माणिड किड वरिष्ट ।
एयहं पारवहंजा सोहिय,
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अनेकान्त
[वर्ण १४
१८६]
भार मुणिवि कंचणहिण मोहिय । तासु पुत्तु पल्हणु जाणिज्जा, चाएं. तक्य-गणहिं थुणिज्जा । बीयर सारंगु वि पिय भत्तड, कउला तहड वस िचत्तर।
पल्हण यंदणु गुणणिलउ गोल्हण माय-पियर-मण-रंजणु । बील्हा साहुहें अवरु सुर लखा णामु जण-मण पाणंदणु॥३
दिउ राजही य भज्जहि समेड, कोलंतह हुउ संताण जोउ। णंदणु डूंगर तह उधरणक्खु, हंसराउ तयउ सुउ कमल-धक्छ । एक्कहि दिणि चिंतिउ हेमराय, जिणधम्म हीणु दिणु अहलु जाय । णिसुणिज्ज चिर पुरिसहं चरित्त, हरि-नेमिनाह-पंडवहं वित्तु । ता होइ मज्म जम्मु वि सलग्घु, णामइ-चिर संचिउ-पाउ-मिग्घु । इय चितिवि जिण-मंदिरहि पत्त, जस मुणि पणविवि अक्खिड सचित्तु । सोउं हच्छमि पंडवचरित्त, पयरहि सामिय जं जेम वित्त । विवरी सन्छु अणु वजरेइ, गरयावणि दुक्खहोणउ डरे । तं णिसुणिवि जंपिउ मुणिवरिंदु, चंगड पुच्छिउ बुइयणहं चंदु । पंडव-चरितु बह-गहणु जइवि, तुव उवरोहें हर्ष काम तइवि । तो तहो वयणे गुण-गण-महंतु, पारंभिउ सदस्थहं फुरंतु। सजण-दुज्जण-भउ परिहरेवि,
णिय-णिय-सहाव-रत्तें वि दोवि । पत्ता-सज्जणु वि सहावु अकुडिब-भावु
ससि-मेहुव उवयार-मई। पर-दोस-पयासिरु अवगुण-भासिरु
दुज्जणु सप्पु व कुडिलाई॥
गुण कित्ति-सिस्म-मुणि-जसकित्ति-विरइए साधु-वीरहा-पुवाय मंति-हेमराज-णामंकिए कुरुवंस-गंगेयड-पिति-धएवणेयाम पढमो सग्गो ॥प्रथमसंधिः॥
चरमभाग :शंदउ सामगु सम्मइणाहें, गंदउ भवियण-कय-उच्छाहें। एंदउ परवइ पय पालंतर, शंदउ उदव-धम्मु वि रिसिहं किउ । यांदउ मुणिगण तउ पालंतउ, दुविह-धम्मु भवियणहं कहतउ । दाण-पूय-वय-विहि-पालंतउ, गोदड सावय-गुण-य-चत्तउ । कालं विणिय णिश्व परिसक्कर, कासवि धणु कणु देति या थक्कउ । पज्जा मंदलु गिज्जउ मंगलु, बच्चड णारीयणु रहसे कलु: णंदउ वील्हा पुत्त गुणवंतउ, हेमराउ-पिय-पुत्त महत्तउ । प्रत्थ-विरुद्ध बुहहिं सोहिम्वउ, धम्मत्थे बालसु नउ किचउ । विक्कमराय हो ववगय कालए, महि-सायर-गह-रिसि अंकालए। कत्तिय-सिय अट्टमि बुद्द बासर, हुउ परिपुरण, पदम नंदीसर । गहु मही-चंदु-सूरु-तारायण, सुर-गिरि उवहि ताउ सुह भायणु । जाता णंदड कलिलु हरंतउ,
भविय-जयहिं विस्थारिज्जंतउ । पत्ता-इय चडविह संघह विहुणिय विग्यह
हिएणासिय भव-जर-मरह। जसकित्ति-पयासणु अखलिय-सासणु
पयडड संति सयंभु जिगु ॥२३॥ हय पंडव-पुराणे सयल-जण-मण-सवण-सुहवरे सिरिगुणकित्ति-सिस्स-मुणि-जसकित्ति-विरहए साधु-बीता-पुत्त हेमराज - णामंकिए •णेमिणाह-अधिटुर-भीमान्नुप-निम्बाब गवणं, नकुल-सहदेव-सम्वसिद्धि-बबदा-पंचम - सम्म गमण - पयासणो णाम पडतीसमो इमो सम्गो समतो संधि ३४॥
इस
वपुराणे सयल-जय-मण-समय-सहयरे सिरि-
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(पेज १७२ का शेष) नाम साधारू है। इन सब बातोंका विवरण मैंने 'वीरवाणी' हैं वहाँके भण्डारों की भी अभी छानबीन नहीं हुई। जितनी वर्ष १ अंक 1.-११ में प्रकाशित अपने लेखमें उसी समय भी रचनामों की जानकारी प्रकाशमें पाई है उन रचनामोंका प्रकट कर दिया था। अब अन्य प्राप्त प्रतियोंसे रायररछका अध्ययन भी अभी ठीकसे नहीं हो पाया। नामके लिये तो पहला अक्षर रा न होकर वास्तवमें 'ए' था, अतः नगरका कुछ व्यकियोंने हिन्दी जैन साहित्य पर थीसिस भी लिखी नाम परछ हो सकता है।
हैं पर अप्रकाशित रचनाओंका अध्ययन उन्होंने शायद हिन्दी जैन-साहित्यकी शोधका काम यद्यपि इधर कुछ ही किया हो और अभी तक हिन्दी जैन साहित्य प्रकाशित वर्षोमें हुआ है और हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन जैसे तो बहुत कम हुआ है अत: उनका लेखन अपूर्ण रहेगा ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं पर वह उस साहित्यकी विशालता- ही। अब हिन्दी साहित्यके नये इतिहास प्रन्थ तैयार हो को देखते हुए बहुत ही साधारण प्रगति समझिए। रहे हैं श्रतः उनमें हिन्दी जैन साहित्यको समुचित स्थान वास्तवमें अभी तक हिन्दी जैन साहिन्यकी जितनी जामकारी के लिए हमें अपने साहित्यकी शोध और अध्ययन प्रकाशमें पाई है वह बहुत कम ही है क्योंकि बहुतसे शीघ्रातिशीघ्र और अच्छी तरहसे करना नितान्त पुस्तक-भण्डार अभी तक अज्ञात अवस्थामें पड़े हैं । अागरा आवश्यक है। जैसे हिन्दीके प्रधान क्षेत्र जहां अनेकों जैन सुकवि हो गए
साहित्य-परिचय और समालोचन
जेनदर्शन-लेग्यक प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, सुन्दर पुस्तक दसरी नहीं लिखी गई। इसके लिये लेखक प्रकाशक गणेशवर्णी जैनग्रन्थमाला, काशी। पृष्ठसंग्ख्या ७८४, महानुभाव धन्यवादई हैं । इसका प्राकथन डा. मंगलदेवजी माइज २०४३०१६ पेजी । मृल्य जिल्द प्रनिका ) म. शाम्बी, एम. ए. डी. लिटने लिखा है पुस्तकको भाषा और
प्रानुन ग्रन्थका विषय उपके नापस म्पष्ट है। इसमें ली परिमार्जित है। और उत्तर प्रदेशकी सरकार द्वारा जैन दर्शनका विवेचन किया गया है इस पुस्तकके लेखक परस्त है। हां, सामान्यावलोकनमें अनेकान्त स्थापनका प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यापाचार्य एम. ए. है, जिन्होंने अनेक विचार करते हुए 'जन परम्पगमें युगप्रधान रामी समन्त जनदार्शनिक ग्रन्यांका सम्पादन किया है। और जिनकी भद्र और न्यापावतारी मिसनका उदय हश्रा।" हम महत्वपूर्ण प्रस्तावनाएँ उनके योग्य विचारक विद्वान होने वाक्य में समन्तभद्र के बाद न्यायावतारी सिद्धसेनका उल्लेख की स्पष्ट मूवना करती हैं। श्रापन दार्शनिक ग्रन्योंका उन्हें सन्मतिसूत्रका कर्ता मानकर किया गया है, जो ठीक तुलनात्मक अध्ययन किया है । यह ग्रन्थ १२ अध्यायोंमें
नहीं हैं, क्योंकि मन्मनिके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान् विभाजित है। पृष्ठभूमि और मामान्यावलोकन, विषय
थे और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर, सन्मतिके कर्ता प्रवेश, जैनदर्शनको देन, लोक व्यवस्था, पदार्थस्वरूप, द्रव्य.
न्यायावतार कलि कमसे कम दो सौ वर्ष पूर्ववर्ती है।
यद्यपि इस बातको अन्तिम दार्शनिक माहिन्यकी सूची देने विवेचन, सप्ततत्व निरूपण प्रमाण-मीमांसा, नयविचार, स्याद्वाद और सप्तभंगी, जनदर्शन और विश्वशान्ति और
समय संशोधन कर दिया गया है । तथापि मूललेम्व
अपने उसी रूपमें सुरक्षित हैं । गुणधराचार्यका समय भी जैन-दार्शनिक साहिन्य। इनमें प्रत्येक अधिकार-विषयक
ऐतिहासिक दृष्टिसे चिन्तनीय है। इसी तरह अनेक स्थानों पदार्थका चिन्तन करते हुये विवेचना की गई है। और
पर पूर्वाचार्योक वाक्योंको अनुवादादिक रूपमें अपनाया है. प्रमाणकी मीमांसा, करते हुये भारतीय दर्शनोंकी आलो.
अच्छा होता यदि वहां पर फुटनोट अादिमें उनके चना भी की गई है, साथ ही तुलनात्मक दृष्टिसे जो विवेचन
नामादिका उल्लेख भी कर दिया जाता । इमसे कथन तथा किया गया है वह महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, किन्तु ।
महत्वपूर्ण है। इतना ही नहा, किन्तु विवंचनका मूल्य और भी अधिक बढ़ जाता। यह सब कुछ उनकी आलोचना करते हुए भी जो समन्वयामक दृष्टिकोण ने भी प्रस्तत पुस्तक बहत उपयोगी है। ऐसे उपयोगी उपस्थित किया गया है, उससे अन्यकी महता पर और भी प्रथके प्रकाशन के लिये गणेशवर्णी प्रन्थमाला और उसके प्रकाश पड़ता है । अद्यावधि जैनदर्शन पर हिन्दीमें इतनी संचालक महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। -परमानन्द जैम
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी कलकत्ता
१.१) चा. शान्तिनाथजी १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी .,
१०१) बा. निर्मलकुमारजी
१०१) बा. मातीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा० मोहनलाल नी जैन लमेच ,
१०१ बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदामजी ,
१०१) बा. काशीनाथजी, .. २५१) बा० ऋपभचन्द (B.R.C.) जैन २५१) बा० दीनानाथजी मरावर्ग:
१०१) बाल गोपीचन्द रूपचन्दजी
१०१) बा. धनंजयकुमारजी २५१) बाल रतनलालजी झांझरी
१०१) बा. जीतमलजी जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन मरावी
१०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल २२५१) मेठ मुआलालजी जैन
१०१) बा• रतनलाल चांदमलजी जैन, रांची २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) ला० महावीरप्रसादजी ठकठार, देहली २५१) मंठ मांगीलाल जी
१०१)ला. रतनलालजी मादीपुरिया, दहली
१०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्र । •५१) माह शान्तिप्रमाद जी जन
१००) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ *२५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुनिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धमपत्नी डा श्रीचन्द्रमी, एटा ५१) ला० कपरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी टंकंदार, देहली २५१) बाजिनेन्द्रकिशोरजी जैन जोहरी, देहली
१८१) बा. फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्द जी न, दहली
१८१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हंमल जी, दहली
१०१) बा० बंशीधर जुगलकिशारजी जैन, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, गहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदाम आत्मारामजी सरावगा, पटना २५१) मेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१)ला० उदयराम जिनेश्वरदामजी महारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनायाच कम्पनी, देहली १०१) बा. महावीरप्रमादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला. बलवन्तमिहजी, हांसी जि० हिसार ०५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) सेठ जावीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता २११) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, महारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद पीपवालय,कानपुर सहायक
१०१) ला प्रकाराचन्द च शीलचन्दजी जौहरी, देहली १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदाम जी, चवरे कारंजा १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) सेठ लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन
'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१. दरियागंज, दिल्ली
Mara
प
प्रकाशक-परमानम्बजी जैन शास्त्री वीर संवामंदिर, २९ दरियागंज, दिल्ली । मुद्रक-पवाणी प्रिटिंग हाउस, देहली
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भनेकात
फरवरी १९५७
..
विषय-सूची १. श्री नेमि-जिन-स्तुति-[पं० शालि २. जैन कलाके प्रतीक और प्रतीकवाद-[ एके. भट्टाचार्य, हिष्टी
कीपर-राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली, अनुवादक-जयभगवान जैन एडवोकेट
१ ३. पूजा, म्तोत्र, जप, ध्यान, और लय-[पं० हीरालाल सिद्धांत शास्त्री ४. जैन परम्पराका आदिकाल-[डा. इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम. ए. 10 ५. विश्व-शान्तिके अमोघ उपाय- [श्री अगरबन्द नाहटाए 6. विदर्भमें गुजराती जैन लेग्वक- [प्रो. विद्याधर जोहरा पुरकर २०१ 7. पुराने माहिन्य की खोज- [जुगलकिशोर मुग्तार 'युगीर' २०॥ ८. पीड़िन पशुओं की सभा (कहानी)-[श्रीमती जयवन्नी देवी २०७ १. मंस्कागें का प्रभाव - [पं० हीरालान सिद्धान्त शास्त्री १०. छन्दकोष और शाल-परन्तगोपाय छप चुके-[श्रीअगर चन्दनाहटा .. ५१. साहित्य परिचय और ममालोचन--. [परमानन्द जैन १० १२. जैनग्रन्य प्रशस्ति-संग्रह
पीर सेवा मन्दिर,देहली
मूल्यः ॥
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वीर-सेवा-मंदिरको प्राप्त सहायता गत श्रावण-माससे वीर-सेवा-मन्दिरको जो आर्थिक सहायता सदस्य-फोस सहित प्राप्त हुई है
वह क्रमशः निम्न प्रकार है और उसके लिए दातार महानुभावोंको साभार धन्यवाद ! २११) श्रीमान मंट मोतीलाल तोतालालजी जैन
३०) श्री गणेशवर्णी अहिंसा प्रतिष्ठान दिल्ली। रानी वाले व्यावर ।
(श्री० मा० लाफिरोजी लाल जी) २५१) श्रीमनी नर्मदावी जी ध०प० श्री मेठ नानालाल
२) श्रीमान ला. ज्योनिप्रसाद जी नई दिल्ली। . जी जैन रानी वाले व्यावर। २५१) श्रीमान मेट धर्मचन्द्र जी सांगानी ब्यावर ।
२१) ,, बा. मदनगोपाल सुपुत्र प्रतापनारायण जी २५.) , संठ मूलचन्द जी पहाच्या,ब्यार।
- नथा श्री. बा• प्रेमचन्द जी मंसूरी की
पुत्री कुमुमलना के विवाहोपलक्ष में। २५१) ., बा० गुमानमल जी बाकलीवाल व्यावर । २५०) दि. जैन समाज व्यावर ।
१००) श्रीमान सेट मोहनलाल जी दृगड़ कलकत्ता । ४०) यातायान महायता , दि० जन समाज, व्यावर ।
११) दि. जैन समाज महादरा । ४०) यातायात महायता श्री संट मांतीलाल तांतालालजी १) श्रीमान संट मिलापचन्द रतनलालजी जैन कटारिया २५९) दि जैन ममाज कही।
... ... ककडी। २०.) दि. जैन समाज खुरई।
२५) डा. प्रकाशचन्द कैलाशचन्द जी डिटी गंज, १०१) नया मन्दिर शास्त्र मभी दिल्ली ।
सदर बाजार दिल्ली। २१०) दि. जैन समाज कलकना।
१२) श्रीमान बा०मदनलाल जी बी. कॉम. एल-एल.बी. १००) श्रीमान बाबू नन्दलाल जी जैन कलकत्ता ।
प्रभाकर, ब्यावर ५००) बा. रघुवरदयाल जी जैन M.A करोलबाग :) ,, बा. मोहनलाल जी काशलीवाल । ३०००) में शेप रहे प्रान ।
१२) ,, मूलचन्द जी लुहादिया नरायना । १००) , लाला मरम्बनलाल जी जैन ठेकदार दिल्ली
शान्तिप्रसाद जी जैन नई दिल्ली । ८०१) मध्य।
बा० बिमल प्रसाद जी मदरबाजार, दिल्ली ३०००) गुप्त महायता दातार का नाम अभी गुप्त है,
१०) , प्रेमचन्द जी मित्तल दिल्ली। (४००० के मध्ये)
१२) ,, बा० शिवरचन्द जी जन दिल्ली । ३८) गुप्त दान ।
१२) श्री. ला० कश्मीरीलाल मांवलमिह जी दिल्ली २५०) श्रीमान रा०प० बाब उल्फतगयजी जन रिटा० इंजी.
डिटीमल नेमीचन्द जी दिल्ली । मेरठ, ५००) के मध्य ।
१२) , बा० जुगलकिशोर हमचन्द्र जी दिल्ली । २५) , रा. मा० ला० उल्फतराय जी जैन दिल्ली
,, प्रकाश चन्द्र जी यादती ग्यतौली । मामिक सहायना।
१२) ., शीलचन्द्र जी जैन , ११) , संट मगनलाल नेमीचन्द जी जैन तथा राम्ब० ।
१२) श्री. बाब मुमतप्रसाद जी जन ., संठ रतनलाल मृरजमल जी रांची।
१२) ,. ला. श्यामलाल जी जैन ,, १०), संट नानूलाल फन्नलाल जी ठोल्या कोपर गांव ।
मंत्री-वीर-सेवा-मन्दिर । सागर विद्यालयका सुवर्ण जयन्ती महोत्सव , पाठकों को यह जान कर अत्यन्त हर्ष होगा कि बुन्देलखण्डकी एक मात्र प्रसिद्ध सस्था गणेश दि. जैन संस्कृत विद्यालय का सुवर्ण जयन्ती महोत्सव विद्यालय के संस्थापक एवं संरक्षक पूज्य महामना आध्यात्मिक मन क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी के सानिध्यमें फाल्गुन शुक्ला (अष्टान्हिका ) में तीर्थराज सम्भेद शिग्वर पर होगा। इसी मुअवसर पर सौराष्ट्र के श्राध्यामिक संत श्री कांजी स्वामी मानगढ ससंघ तीर्थराज पर यात्रार्थ पधार रहे हैं । अत: ममाजक श्रीमानों और विद्वानोंको वहां पधार कर उत्सवको सफल बनाना चाहिये।
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ॐ अहम
SPE
Hinki.iminim
वस्तुतत्त्व-मयातक
वसत्त्वका
नाषिक म.ग.)
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एक किरण का मूल्य 1)
istory
CINEPACHAR
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नीतिविरोधप्सीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक्। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः।
व १४
।
वीरसेवामन्दिर. २१, दरियागज, दहली फाल्गुन, वीरनिर्वाण-संवत २४८२, विक्रम संवन २०१३
फरवरी'५७
श्रीनेमि-जिन-स्ततिः
(नेमिनिज-व्यंजनयुग्म-मिद्धा) मानानाननमानेन नोनमन्नामि माननम ।
मिनामान' ममम' मुनीनामिन' मानम.८ ॥११॥ । मानन-अहंकारण । २ अनूनमानेन-अनुन्छमानेन । ३ न उन्नन क्लिन्नं, न क्रान्तमित्यर्थः । ४ उन्नामिमाननंउन्नामिनी उन्मापन्नी मानना पूजा यम्य सनम् । ५ नेमिनामा नु जिनः । ६ श्रमम-निर्ममम् । ७ मुनीनामिन-स्वामिनं मनीन्द्रम् । न वयं कारः श्रानुमः-स्तमः ।।
नानामाना' मनिम्नाना ममानानामनामिनाम ।
नामिन' नामिनामाम नमिनाम्न नमोनमः ॥ १ नानामाना-नानासकारमानादीनां क्लेशादीनां वा । २ अनिम्नानां-उत्कटानाम् । ३ अमानाना-अप्रमाणानाम् । १ अनामिना-नामयिनुमशक्यानाम् । ५ नामिने-न्यक्करणशीलाय नाशकम्वभावाय । ६ नामिनां-प्रणमता उमे-रक्षकाय अब रन । ७ नमिम्बामि-अभिधानाय । ८ नमो नमः-प्रकर्षण वीष्माय ॥२॥
माननान्नामिनं नाम ननानिम्न ममानन'।
ननु म ममी मेनामांमाना मानम निना" ||३|| माने-पृजायाम् । २ न उन्मिन्नामिन-न उन्मित्रम्। ३ नाम ग्रहो। ४ न न निम्न-न न हीनां, अपि तु श्रीनमेव । ५ श्रमानने-अपजायाम् । ६ ननु-पानपं । ७ नेमि-द्वाविनितमं तीर्थकरम् । ८ मना-मेनकाण्या अप्परा, मा-लक्ष्मी, उमा-गौरी, नामाम् । । इनाः-स्वामिनः इन्द्र नागयण-अंकगः, इन्द्रादय. प्रत्यक्षीभृताः । १० पानमन-नमः कुर्वन्ति स्म।
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१८८] अनेकान्त
[वर्ष १४ मिन्न मन्मन मा३ मा नि मानिनी माननान्मनाः ।
नाना नाममा म नन्नभिं मनो म मि. म. 'मानिनाम्१२ ॥४॥ १ मिनमिनानानां स्निग्धानाम् | २ मन्मनं-अव्यकम् । ३ आ-पालापन्तीनाम् । ४ मा लक्ष्मीः । ५ श्रानि-श्रात्मनि मन्यन्तीति मानिन्यस्तासां मानिनीनाम् | ६ माननं-अनुभवनं, तत्र उन्मना उत्कण्ठितः यः स ना पुमान् । ७ नाना-नानाप्रकारम् । ८ ना-पुरुषः । अमीमनत्-मानयामाम, पूजयामास | १० 'अम इम मह गतौ' इतस्य धातोः श्रमति गच्छति हृदयवर्तितां नेमिम् । इम-प्रसिद्धम् । १२ श्रानिना-पानाः प्राणाः विद्यन्ते येषां ते तथोक्ताः ॥४॥
मनोमुन्निम्ननं नूनमुन्नमन्माननोननम् ।
नुन्नमेनो ऽमुना नेमिनाम्ना म्नानेन मामनु" ॥शा मनोमुनिम्नन-मनसो मुत् हर्पस्तं निम्नयति अल्पीकरोति तत् । २ उनमन्माननोननं-उनमन्ती उत्सर्पन्ती, मानना-पूजा, ना ऊनयति लंघयतीति तत् । ३ नुन्न'-नुदन प्रेरणे धानो प्रयोगः, नुन्न विप्नं । केन ? मया। ४ पुन:पापम् । ५ अमुना नेमिनाम्ना कृत्वा । ६ शाम्ननं-अभ्यमनं पुनः पुनः उच्चारणं. नेन । ७ मां कथं अनु लक्ष्मीकृत्य ॥५॥
नोन मुन्मानमानेन मुनीनाऽनेनमाननम ।
मीनानमि नमान्नेमि मनूनांप्नामि माम माम' ||६|| १ नोनं-न ऊन, न रहितम् । २ उन्मानमानेन-प्रमाणज्ञानेन प्रमाणज्ञानविशेषेण सत्यभूतज्ञानेन युक्रमित्यर्थः । ३ मुनीनां सप्तर्षीणां इनः म्वामी चन्द्रः, तद्वत् अनेना अम्बरण्डा मा लक्ष्मीर्यस्य, तत् एवंविधं पाननं मुग्वं यस्य तम् । ४ मीनानं-मीङ हिमायां, हिंसन्तम् । ५ इ. कामः । ६ नमन-नमःकुर्वन् । ७ द्वाविंशतितम तीर्थकरम् । ८ अनून-परिपूर्णम् । अमिमीम-जगाम । १० मां-लक्ष्मीम् ।
मुनीनमेनोमीनानां निमाने नेमिमाननम ।
नेमिनामान मानाना ममोमान ममु नुमः ॥७॥ १ मुनीनं मुनिस्वामिनम् । २ एनामि कल्मषाग्येव मीनाः मत्म्यास्तेषाम् । ३ निराकरणे । ४ नमीश्वराभिधानं तीर्थकरदेवम् । ५ अनानां दशविधप्राणानाम् । ६ अमोमानां प्रबंधक क्षीण कर्मकत्वात् , अमी बन्धने धातुः ।
नेमीनमननं नेम नमन नेमिमाननम् ।
नेमिनाम्नो न ना म्नात मान" नून-ममी मम ॥८॥ १ नेमि-इनस्य नेमिस्वामिनो मननं स्मरणं नेमीनमननं मम प्राणा जीवितमिति योज्यम् । २ नेमिनमनं-नेमेनमनं नति | ३ तथा नेमेर्माननं पूजनम् । ४ नेमीश्वराभिधानस्य । ५ द्वौ ननौ प्रकृतार्थ गमयति प्रापयति । ६ अाम्नान पुनःपुनः अभ्यसनमित्यर्थः । ७ पाना प्राणा जीवितमिति तात्पर्यम् । ८ नूनं निश्चितमवश्यम्, मम प्राण। न न, अपि तु भवन्त्येव । १ मम स्तुतिकत्त: पुरुषस्य ।
इति स्तुनि ये पुरत पठन्ति नेमेनिज-व्यजन-युग्मसिद्धाम् । श्रीवर्धमानोदयलिनस्ते स्युः सिद्धवध्वाः परिभोगयोग्याः ।।६।।
इति पंडितशालिकृतं (ना) श्रीनेमिनाथस्तोत्रं (म्तुतिः) द्वयक्षरं (री समाप्तम् (मा) नोट :-यद्यपि मुल स्तुति माणिकचन्द ग्रन्थमालाके सिद्धान्तसारादिसग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है, पर वहां वह कर्ता के नाम से विहीन और अत्यधिक अशुद्ध छपी है । यह सटिप्पण-स्तुति दि. जैन पंचायती मन्दिर-अजमेर के एक गुटकेसे प्राप्त हुई है, जो सं० १६६८ का लिखा हुआ है। इसके रचयिता . शालिका विशेष परिचय अभी तक प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु इतना स्पष्ट है कि वे सं०१६६८ से पहले के विद्वान हैं।
- जुगलकिशोर 'युगवीर'
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जैनकलाके प्रतीक और प्रतीकवाद
(लेखक-ए. के. भट्टाचार्य, डिप्टीकोपर-राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली)
अनुवादक-जयभगवान जैन, एडवोकेट जैन, बौद्ध नथा ब्राह्मण परम्परा में (anmcomic) हैं, अपितु इसलिए कि वे उनके गुणोंका असली सार लिए अतत्-प्रतीकोंकी रचना इस ढगसे की जाती है कि उनमें हुए हैं। इन भौतिक पदार्थोमें दिव्य गुणोंका प्रदर्शन ही सस्थापित मनुष्य या वस्तुकी सजीव छवि दिखाई नहीं उन्हें अभिप्रेत है, ताकि इनके दर्शनोंसे भक्कोंके मनमें दिव्य पड़ती । मानव मस्तिष्कने अत्यन्त प्राचीन कालसे ही सत्ताका आभास हो सके । इन मूर्तियोंकी पूजाका अभिप्राय परम देववकी कल्पना सर्वथा समान प्रतिरूपमें न करके इनके द्वारा प्रदर्शित दिव्यात्माओंकी पूजाके अतिरिक्त और अनत्-प्रतीकोंमें की है। नगर ये प्रतत्-प्रतीक कुछ ऐसे कुछ भी नहीं है। इस तथ्य के आधार पर ही किसी सरोवर भावों और मूल्यों से सम्बन्धित हैं जो इन्हें सजावटी व व भवनके अधिष्ठातृ देवकी मान्यताका वास्तविक अर्थ कलात्मक रूपोंमे विलग कर देते हैं । ये अपना मुकाव आंखों- हमारी समझ में आ सकता है। इस तरह तीर्थकरकी मूर्ति, को नहीं, अपितु मनको देते हैं। भारतीय धर्मो व एक धर्मप्रवर्तक व धर्मसंस्थापकक उन सभी सम्भाव्य पारमार्थिक विचारणायाम सांसतिक पूजाका इनिहाय दिव्य गुणोंका मामूहिक प्रतीक है। जिन्हें देखकर साधकके इतना ही पुराना है जितनी कि धार्मिक परम्पराएँ। रूप- चित्तमें इनके प्रति श्रद्धा पैदा होती है। इसीलिए कहा भेद व मूर्तिकला जिसका प्रिय मानवाकार मूर्तियोका गया हैअध्ययन है नितान्त एक उत्तर कालीन विकास है।
'प्रतिष्ठानाम देहिनां वस्तुनश्चप्रारम्भिक बौद्ध-साहित्यमें हमें बुद्ध भगवान द्वारा कहे
प्राधान्यमान्यवन्नुहेनुकंम कर्म' हुए ऐसे वाक्योंका परिचय मिलता है जिनमें मानवाकार अर्थात् प्रतिष्ठा एक प्रकारका संस्कार है, जिसके द्वारा मूर्तियों के लिए अचि प्रकट की गई है। उन्हीं स्थलों पर संस्थापित पुरुष व वस्तुकी महत्ता और प्रभावको मान्यता ऐम चन्यों को मान्य टहराया गया है जिनकी गणना दी जाती है। अानुपाङ्गिक प्रतीकों में की जा सकती है। इनका प्रयोग
स्थापना या प्रतिष्ठावाद प्रतिनिधि स्पस एस समय लिए है जब भगवान स्वयं एक यनि श्राचार्य पद पर आरूढ होने पर दीक्षित गिना उपस्थित न हों। ये प्रानुपङ्गिक प्रतीक बौद्ध-कलाकी जाता है। एक ब्राह्मण वेदिक माहिन्यके अध्ययन द्वारा विशेषता है। जैनकलामें इसकं समान कोई रूप दग्वनमें दीक्षित होता है. एक क्षत्रिय राज्य-शासन संभालने पर. नहीं पाता। जैनलोगोंने अपनी पांडुलिपियां तथा धार्मिक एक वैश्य वैश्य-नि धारण करने पर, एक शूद्र राजकीयशिल्पकलाम जिन सांकेतिक चिन्होंका प्रयोग किया है वे अनुग्रहका पात्र होने पर और एक कलाकार उसका मुखिया अधिकतर एक या कई पूज्य वस्तुओं के प्रतीक है। भारभिक नियुक्त होने पर दीक्षित कहा जाता है। इस प्रकारकी बौद्धकलामें मूर्तिकलाका प्रभाव और उत्तरकालमें उसकी दीक्षा व मान्यताके समय इनके भाल पर तिलक लगाकर बाहुल्यताका कारण बुन्द्र भगवान की मूर्तिकलाके प्रति इनको सम्मानित किया जाना है। इन तिलक श्रादि चिन्होंउपयुक अमचि बतलाई जाती है। एक बौद्ध, उपासककी का यद्यपि भौनिक दृष्टिसे कोई विशेष मूल्य नहीं है, व्याख्या करते हुये 'दिव्यावदान' में स्पष्ट कहा है कि वह तथापि ये मामाजिक महना मान्यताके प्रतीक होनेसे मूर्ति व विम्ब की पूजा नहीं करता, अपितु वह उन बडे महत्त्वक हैं। इसी तरह मूनिमें जिन भगवान्क समस्त श्रादर्शोकी पूजा करता है जिनक कि वे प्रतीक हैं। दिव्य गुणांका न्यास व स्थापन ही प्रतिष्ठा है। अथवा
हिन्दु तथा बौद्ध लोगोंके समान जैन लोग भी मूर्तिपूजा बिना किसी रूपके उनकी कल्पना करना हो प्रतिष्ठा है। के महत्व-सम्बन्धी अपने विशेष विचार रखते हैं। इनके मे अवसर पर या तो जिन भगवानके व्यन्निवका उनके अनुसार मूर्तियोंकी स्थापना इसलिए नहीं की जाती कि वे गुण-मगृह में प्रवेश कराया जाना है, या गुण-समूह देवताके तीर्थकरों व अन्य माननीय देवताओंकी समान प्राकृतियां व्यक्तित्वका अतिक्रम कर जाते हैं । इस तरह प्रस्तर, धातु,
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१६.]
अनेकान्त
वणे १४
-
अन्त व सिद्ध हो
मूर्तियोंकी
पाका मूर्तियों में प्र
काप्ठ आदि पदार्थोमेंसे रूप-सहित व रूप-रहित उत्कीर्ण वचन-शैली साधु या साध्वीके लिए वर्ण है। अपितु यों हुए प्रतिबिम्ब जिन्हें जिन, शिव, विष्णु, बुद्ध चंडी, कहना चाहिए कि वायु गुह्य अनुपारी मेघ छा गये हैं, मुक क्षेत्रपाल प्रादि मंज्ञाएं दी जाती हैं। पूज्य बन जाते हैं। गये है, बरसने लगे हैं। चूंकि इनमें मान्यता द्वारा कल्पित देवत्वका समावेश किया जैन अनुश्र तिमें अर्हन्त व सिद्ध देवोंकी मानवाकार जाता है। इसी तरह कम्पना-द्वारा भवनपति व्यन्तर, मतियोंकी चर्चा प्राचीन कालसे चली आती है। उड़ीसा ज्योतिष और वैमानिक देवोंके गुणोंका मूर्तियोंमें प्रदर्शन देश में उदयगिरि खंडगिरि-स्थित कलिंग सम्राट खारवेलके माना जाता है और ठीक इसी तरह अर्हन्तों, सिद्धों आदि- जिम आदिनाथ उपभकी मूर्तिका उल्लेख है उसमे नन्दवंश की मूर्तियों की स्थापनाके समय तथा घरेलू जलाशयों और काल तकमें भी तीर्थकरोंकी मूर्तियोंका होना सिद्ध कूप-सम्बन्धी देवताओंकी स्थापनाके समय उनमें दिव्य होता है। गुणों व विभूतियोंकी मान्यता की जाती है, उनका मूर्तियों में जमा कि कल्पसत्र में वर्णन है पशुओं और देवताओंके वास्तविक अवतरण अभिन नहीं होता । जब किमी चित्र यवनिका पर चिनिन किये जाते थे। 'अन्तगडदशानी रूप सहित या रूप-रहित पदार्थोंमें संस्कारों-द्वारा यह धारणा सत्त में कथन है कि सलमाने हरि नैगमेपित देवकी मूर्तिको बना ली जाती है कि उसमें अमुक पुरुष व देवके समस्त ।
प्रतिष्ठित किया था और वह प्रतिदिन उपकी पूजा किया शास्त्रीय लक्षण विद्यमान हैं, तो वह पदार्थ उस पुरुष व
करती थी। प्रायः प्राचीनतम उपलब्ध जैन मुनियां कुशान देवका प्रतिनिधि बन जाता है। धारणा-द्वारा गुणांका न्यास
कादकी हैं। यद्यपि तीर्थकरोंकी दो दिगम्बर मूर्तियां मौर्य या स्थापना ही प्रतिष्ठा है।
कालकी भी उपलब्ध हुई हैं। परन्तु पूजायोग्य वस्तुओंक श्रुतेन सम्यग्ज्ञानस्य व्यवहारप्रसिद्धये स्थाप्यम्य
व कभी कभी उन बग्तुओंक भी जो केवल लौकिक महत्त्वकी कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरती न्यासगाचरे साकारे वा
हैं, या जो वैज्ञानिक धारणाको लिए हुए है बहुतसे निराकारे विधिना यो विधीयते न्यासदिम
प्रतीक व प्रतीकात्मक रचना जनकलामें और भी अधिक त्युक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च मा ।
प्राचीन कालसं पायी जाती हैं। उक्त स्थापनावाद जैनधर्मके देव-मूर्तिवाद से पूरे तौर पर मेल खाता है। क्योंकि परमेष्ठी जिन मुक्त श्रात्मा हैं और वे जब, अचेतन प्रस्तर व काप्ठखंडोंमें अवतरित नहीं जैनकलाकं प्रतीकोंका उल्लंम्ब हम अग्निक प्रतीकसे हो सकते, जैसे कि शिव, विष्णु श्रादि हिन्दू देवताांक प्रारम्भ करते है अग्नितत्वका सम्बन्ध जागरण व बोधिसे सम्बन्धमें-कि जो अलौकिक शक्ति-सम्पन्न देव माने जाते है। आग्नेय शक्ति के अन्तिम स्रोत सूर्यको वेदों में जीवन और हैं-सम्भव हो सकता है। जैन और हिन्दू परम्परात्रों- चेतनाका सबसे बड़ा प्रेरक बतलाया गया है। यह प्रज्ञाकी में यह एक मौलिक अन्तर है, जिसे जैन मूर्तियोंकी स्थापत्य- अर्चिषा है जिसके द्वारा मारको पराजित किया जाता है। कलाको अध्ययन करते समय सदा ध्यानमें रखना जरूरी अमरावतीके वे उघड़े हुए प्रतीक जिनमें बुद्ध भगवानको है। जैनधर्ममें बुद्धिवाद यहां तक विकसित है कि वह अग्नि-स्तम्भके रूपमें दिखलाया गया है, वैदिक मान्यताओंक ब्राह्मणिक मान्यता समान अाकाश, मेघगर्जना व विद्य दुघटा ही अवशेष हैं। वहां अग्निको अप व पृथ्वीसे उत्पन्न हुआ में किसी देवत्वको मान्यता नहीं देता, उसके अनुसार ये बतलाया गया है, चूंकि यह स्तम्भ कमल पर आधारित है। सब प्राकृतिक व वैज्ञानिक परिणमन है जो उक्त प्रकारकी इसी तरह जैनधर्ममें अग्निको तेज व तेजस्वी श्रात्माका चिन्ह घटनाओंके लिए उत्तरदायी हैं जो वर्षा वायु में मौजूद किन्हीं माननेकी प्रथा इतनी ही पुरानी है जितना कि पुराने अंगामें परिवर्तनोंके कारण होती है, किसी दिव्य शक्तियोंकी आचारांग सूत्र | जनदर्शन में विश्वके सभी एकन्द्रिय जीवोंको इच्छाके कारण नहीं। यह कहना सब असत्य है कि विश्वमें कायकी अपेक्षा पांच भेदोंमें विभक्त किया गया है-वायुआकाश-देवता, गर्जन-देवता, विद्यु द् देवता श्रादि कोई देव कायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, पृथ्वीकायिक और सत्तामें मौजूद है, या यों कहना चाहिए कि देवता वर्षा वनस्पतिकायिक । जैनतत्त्वज्ञानके कायवादके अनुसार करता है इस प्रकारकी सब बातें असत्य हैं। इस प्रकारकी एकेन्द्रिय जीवोंकी उक्त कायिक-विभिनता उनके पूर्वोपार्जित
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किरण ७] जैनकलाके प्रतीक और प्रतीकवाद
[ १६१ कमों पर श्राधारित है। जब कोई जीव तेजस्कायिक या तथा अमरावतीमें श्राग्नेय स्तम्भोंका जिन प्रतीकों द्वारा अग्निकायिक हानका कर्भ वन्ध करता है, तो वह माधारण प्रदर्शन किया गया है, वे बौद्ध-कलामें फैले हुए त्रिशूलके अग्नि दीपशिखा, बडवानता, व विद्युत्, तंज श्रादि कोई-मा प्रतीकस घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । इस स्थल पर हमें इस भी रूप धारण कर सकता है। जैनप्रथाक अनुग्गर अग्नि, बातका ध्यान रखना चाहिए कि त्रिशूलका प्रतीक न केवल बार या वाणीका अधिष्ठान देवता भी है। जन अन्यों में जैन और बौद्ध कलामें ही पाया जाता ह, अपितु इसकी जिन १६ शुभ मानांका उल्लेख पाया है, उनमें एक अग्नि- परम्परा बहुत पुरानी है। वास्तव में वैश्वानर अग्निके शिग्वा-विषयक भी है। तेजम् सम्बन्धी जैन धारणा इतनी त्रिभावोंकी तीन शूलधारी त्रिशूलके प्रतीकमें कायापलट हो सम्पूर्ण है कि यह धूम-रहित अग्नि शिग्वाको ही शुभ स्थान- गई है । पीछेको शैव कलामें तो त्रिशूलका शिवके साथ का विपय मानती है। अग्नि-शिग्वा जो शुभ स्वप्नका विशेष सम्बन्ध रहा है। मथुराके पुराने सांस्कृतिक केन्द्रसे विषय मानी गई है, उप तेजस्वी प्रान्माका ही सांकेतिक जो कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं, उनसे तो यह सम्बन्ध और प्रतिरूप है, जो इस स्वप्नका प्रतिमें स्वर्गसे अवतरित हो भी पुराना सिद्ध होता है। मोहनजोदडोकी प्रागैतिहासिक जन्म लेनेवाली है। यह धारणा जैनियोंक पटलेश्यावाद सस्कृतिको दबनेसे इस सम्बन्धका प्रारम्भ और भी अधिक या जीवन परणति बाइसे भी बहुत मेल म्बाती है। यहां प्राचीन हो जाता है। कडफिसिस द्वितीयके शैव सिक्के यह बतलाना मचिकर होगा कि उन पट विभिन्न लेश्याओं तथा मिर्कपकी शैव मुहर शैवधर्मके साथ त्रिशूलका सम्बन्ध या षट् प्रकार की जीवन परिणतियोमेस प्रत्यकका अपना व्यक्त करनेके सबसे पुराने उदाहरण हैं । जैनकलामें त्रिशूल अपना विशेष वर्ण है । अग्नि व तेजस लेश्याका वर्ण उदीय. दिग्देवनाका एक पुराना प्रतीक रहा है। धार्मिक तथा मान मृर्यक समान दमकने हुए सुवर्णवत होता है। यह लौकिक वास्तुकलाके भवन निर्माणके स्थान पर धार्मिक तंजमशक्ति या जीवन-प रणति जैन मान्यतानुसार कठोर भावनास कूर्मशिला स्थापित करनेका विधान मिलता है। तपस्या-द्वारा मिन्द्र होती है । साधारणतया यह शक्ति लोक- यही विधान उत्तरकालीन जैन शास्त्रों में भी पाया जाता है। उपकारक अर्थ प्रयुक्त होती है, परन्तु कभी कभी साधक 'वत्थुमारपयरणं में उन परम्पराका अनुसरण करते हुए इसका प्रयोग रोषक अावशमें विष्वमक ढंगसे भी कर बैठता कृर्मशिलाकी स्थापनार्थ न केवल उसी प्रकारके मंत्रोंका है। प्राग-विज्ञानकी दृष्टिस मानव-दह चार अन्य तत्त्वांक उल्लेख किया गया है, अपितु इस शिलाकी आठ दिशामों में अतिरिवाजम्म तत्वका भी बना हुश्रा कहा जाता है । यह दिक्पालांक पाठ प्रतीक रखे जानेका भी विधान है। इनमेंमा यता दहकी क्रियात्मक रचना पर अवलम्बित है। वह से पाठवें दिक्पालके लिए जिन प्रतीकका प्रयोग हुना है, नेज जो जीवन-रचनाकी सुरक्षा करता है, अनादि अग्नि वह त्रिशूल है। यह शिलाकी सौभागिनी पर रक्खा जाता व प्राथमिक अनादि जीवन-निका ही अंश है। है। यहां त्रिशूल पाठवें दिपाल ईशानके तांत्रिक चारित्रत्रिशूल का प्रतीक
को व्यक्त करता है । यह वास्तवमें इस बातको स्पष्ट कर
दना है कि बौद्ध और जैनधर्मोमें रत्नत्रयको प्रकट करनेके बौद्ध धर्म और कहर ब्राह्मणिक धर्ममें जीवन-सम्बन्धी
लिए प्राचीनकालस-पभवन. कुशानकालसे-जिस त्रिशूलकी विचारणाकं फलस्वरूप 'जीवन-वृक्ष' प्रतीकका एक विशेष
मान्यता चली आती है, वह जैनियोंकी धार्मिक प्रतत्कनामें स्थान है । कलामें चाहे वह हिन्दु, बौद्ध या जैन कोई भी
एक मौलिक तथ्यको लिये हुए है । इस सम्बन्धमें मथुराके कला हो, जीवन सम्बन्धी सांकेतिक चिन्हांका विवेचन करते
कंकाली टीलेसे प्राप्त उप जिन मूर्तिको दग्वना श्रावश्यक समय हम कदापि उनके मूल्य और महत्त्वको नहीं भुला
होगा, जिसके पदस्थलक अन-भागमें उघादे हुए त्रिशूल पर मकने । सांचीमें रन-जड़ित जीवन-वृक्षक शिर और पात्रोंका
__ रक्खे हुए धर्मचक्रकी साधुजन पूजा कर रहे हैं। यह शैली लेखककी उक्त धारण। सम्भवतः किमी श्रमवश बन बौद्धकलाकी उप प्राचीन शलीसं बहुत कुछ मिलती-जुलती बन गई है। अन्यथा, उन मान्यतासे जनदर्शनका कोई है, जिसमें स्वयं भगवान बुद्धका प्रतिनिधित्व करनेके लिए सम्बन्ध नहीं हैं। वास्तवमें यह वैदिक धर्मकी मान्यता है। धर्मचक्रका प्रयोग हुश्रा है। निःसन्देह बूल्हरके शब्दों में कह
-अनुवादक सकते हैं कि जैनियोंकी प्राचीनकला और बौद्धकतामें कोई
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१६२]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
विशेष अन्तर नहीं है। असली बात यह है कि कलाने कर-द्वारा स्पर्शित हो रहा है, भगवान् बुद्ध-द्वारा मृगदावनमें कमी साम्प्रदायिक रूप धारण नहीं किया। दोनों ही धर्मोने की गई प्रथम धर्म-प्रवर्तनाको चित्रित करता है। उत्तरोत्तर अपनी-अपनी कलाकृतियोंमें एक ही प्रकारके आभूषणों, कालमें सम्भवतः ये प्रतीक साम्प्रदायिकताकी संकीर्ण प्रतीकों तथा भावनाओं का प्रयोग किया है। अन्तर केवल सीमानोंसे बाहिर निकल गये हैं। क्योंकि जैनलेखक ठक्कुर गौण बातों में है। जैन परम्परामें रत्नत्रयका प्रतीक सिद्ध व फेरु लिखते हैं कि चक्रेश्वरी देवीका परिकर उस समय जीवन्मुक्त पुरुषोंके तीन मुख्य गुणों-दर्शन, ज्ञान, चारित्र- ___ तक पूरा नहीं होता, जब तक कि उसके पदस्थल पर दायेंको प्रगट करता है। बौद्ध परम्परामें यह त्रिशूल बुद्ध, धर्म बायें मृगोंसे सजा हुअा धर्मचक्र अङ्कित नहीं किया जाता। और सघ, इन तीन तथ्योंका द्योतक है। यही भाव बौद्ध यहां वह चक्ररत्न भी विचारणीय है, जो जैन परम्परामें परम्परामें कभी-कभी त्रिकोणाकार रूपसे 'बील' के कथना- चक्रवर्तीका प्रतीक व आयुष कहा गया है। जैनकलामें नुसार तथागतके शारीरिक रूपको व्यक्त करता है, और चक्रका प्रदर्शन ईस्वी सन्की कई प्रथम सदियों से ही हुया कभी-कभी त्रि-अक्षात्मक शब्द श्रीम्' से व्यक्त किया गया मिलता है। मथुराके कंकाली टीलेसे कुशानकालके जो है। ब्राह्मण परम्परामें यह त्रिशूल ब्रह्मा, विष्णु और शिव, आयागपट्ट अर्थात् प्रतिज्ञापूर्त्यर्थ समर्पण किये हुए पट्ट इस त्रिमूर्तिका द्योतक है। बौद्ध रत्नत्रयके विभिन्न प्रतीक निकले हैं, उनमें उस केन्द्रीय चतुर्भुजी भागके दोनों चक्र तक्षशिला ( Taxila) के बौद्ध क्षेत्रोंसे, तथा कुशानकाल- जिसके मध्यवर्ती दायरेमें ध्यानस्थ जिन भगवानकी मूर्ति के प्राचीन समयसे मिलते हैं ।
अङ्कित है और उसको छूते हुए सजावटी ढगसे चार कोणोमें धर्मचक्र
श्रीवत्स और चार दिशाओंमें त्रिशूलके चिन्ह बने हैं, दोनों मथुराके कंकाली टीलसे प्राप्त उक्र मूर्तिका अध्ययन ओर स्तम्भ खड़े हुए हैं, उनमेंसे एक पर चक्र और दूसरे हमें यह माननेको विवश करता है कि इस पर उत्कीर्ण पर हस्ती अङ्कित है। इसी क्षेत्रके एक और पायागपह चक्र उस धर्म-भावनाका प्रतीक है जो प्राचीन तथा मध्य- (नं० ज० २४८ मथुरा संग्रहालय) में चक्र केन्द्रीय वस्तुके कालीन बौद्धधर्ममें मान्य रही है। वैष्णव-कलामें चक्रका रूपमें अंकित है, जो चारों ओर अनेक सजावटी वस्तुओंसे प्रतीक स्वयं भगवान् विष्णुसे घनिष्ठतया सम्बन्धित है। घिरा है। यह सुदर्शन धर्मचक्रकी मूर्ति है। इस चक्रमें जो ईसा पूर्वकी सातवीं सदीके चक्राङ्कित पुराने ( Punch- तीन सम केन्द्रीय घेरोंसे घिरा हुआ है-१६ पारे लगे हुए Marked) ठप्पेके सिक्के इस परम्पराकी प्राचीनता हैं। इसके प्रथम घेरेमें १६ नन्दिपद चिन्ह बने हैं। यह पट्ट सिद्ध करनेमें स्वयं स्पष्ट प्रमाण हैं। रत्नत्रयकी भावनासे भी कुशानकालीन है । राजगिरिकी वैभारगिरिसे गुप्तकालीन सम्बन्धित चक्र जैनकलाकी ही विशेषता नहीं है अपितु इस जो तीर्थकर नेमिनाथकी अद्वितीय मूर्ति मिली है, उसके प्रकार के चक्र कुशानयुगकी तक्षशिला कलामें भी पाये जाते हैं, पदस्थल पर दायें बायें शंख चिन्होंसे घिरा धर्म-चक्र बना जो निस्सन्देह बौद्धकला है। वहां यह चक्र त्रिशूलके साथ हुआ है। इसमें चक्रके साथ एक मानवी आकृतिको जोड़कर सांकेतिक ढगसे दिखाया गया है। वहां यह चक्र जो चक्रको चक्रपुरुषका रूप दिया गया है । यह सम्भवतः ब्राह्मत्रिरत्नके प्रतीक त्रिशूल पर टिका है और जिसके दोनों णिक प्रभाव की उपज है, वहां वैष्णवी कलामें गदा, देवी पावों में एक-एक मृग उपस्थित है और जो भगवान बुद्धके और चक्रपुरुष रूपमें श्रायुधोंको पुरुषाकार दिया गया है।
सहिष्णुता-सुकरातकी पत्नी बहुत ही क्रोधी स्वभावकी थी। एक बार सुकरात रातको बहुत देरसे घर आए । अब पत्नी लगी बड़बड़ाने । बहुत समय बड़बड़ानेके बाद भी जब सुकरात कुछ नहीं बोले, तब पत्नीको और भी अधिक गुस्सा आया। ठंडके दिन थे, गुस्से में
आकर उतनी ठंडमें उसने ठंडे घड़ेका पानी सुकरातके ऊपर उंडेल दिया । सुकरात मुस्कराते हुए बोले-प्रिये ! तूने उचित ही तो किया । पहले बादल गरजते हैं उसके बाद बरसते हैं। इसी प्रकार तूने गरज लिया फिर वर्षा की । यह तो प्रकृतिके अनुकूल ही किया है।
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पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय
(लेखक-५० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री) सर्व साधारण लोग पूजा, जप आदिको ईश्वर-आराधना- हमें स्थापना-पूजा और द्वन्य-पूजासे प्रयोजन है। क्योंकि के समान प्रकार समझ कर उनके फलको भी एकसा ही भावपूजामें तो स्तोत्र, जप आदि सभीका समावेश हो जाता समझते हैं। कोई विचारक पूजाको श्रेष्ठ समझता है, तो है। हमें यहां वर्तमानमें प्रचलित पद्धति वाली पूजा ही कोई जप, ध्यान आदिको । पर शास्त्रीय दृष्टिसे जब हम विवक्षित है और जन-साधारण भी पूजा-अर्चासे स्थापना इन पाँचोंके म्वरूपका विचार करते हैं तो हमें उनके स्वरूपमें पूजा या द्रव्यपूजाका ही अर्थ ग्रहण करते हैं। ही नहीं, फल में भी महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। रम्तोत्र -वचनोंके द्वारा गुणोंकी प्रशंसा करनेको प्राचार्योंने इनके फलको उत्तरोत्तर कोटि-गुणित बतलाया स्तुति कहते हैं । जैसे अरहंतदेवके लिए कहना-तुम धीतहै। जैसा कि इस अन्यन्त प्रसिद्ध श्लोकसे सिद्ध है- राग विज्ञानसे भर-पूर हो, मोहरूप अन्धकारके नाश करनेके पूजा' कोटिममं स्तोत्रं स्तोत्र-कोटिसमो जपः । लिये सूर्य के समान हो, आदि। इसो प्रकारकी अनेक जप-कोटिममं ध्यानं ध्यान-कोटिसमो लयः॥ स्तुतियोंके समुदायको स्तोत्र कहते हैं । संस्कृत, प्राकृत,
अर्थात्-क कोटिवार पूजा करनेका जो फल है. अपन'श, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, कनदी, तमिल उतना फन एक वार स्तोत्र-पाठ करने में है। कोटि वार आदि भाषाओं में स्व या पर-निर्मित गद्य या पद्य रचनाके स्तोत्र-पढनेसे जो फल होता है, उतना फल एक वार जप द्वारा पूज्य पुरुषोंकी प्रशंसामें जो बचन प्रकट किये जाने हैं, करने में होता है। इसी प्रकार कोटि जपके समान एक वारके उन्हें स्तोत्र कहते हैं। ध्यानका फल और कोटि ध्यानके समान एक वारके लयका ३जप-देवता-वाचक मंत्र प्रादिके अन्तर्जल्परूपसे वारफल जानना चाहिए।
वार उच्चारण करनेको जप कहते हैं। परमेष्ठी-वाचक विभिन्न वाचक-वृन्द शायद उक्र फलको बांच कर चौंकेंगे और मंत्रोंका किसी नियत परिमाणमें स्मरण करना जप कहेंगे कि ध्यान और लयका फल तो उत्तरोत्तर कोटि- कहलाता है। गुणित हो सकता है, पर पूजा, स्तोत्र और जपका उत्तरोत्तर ४ ध्यान-किमी ध्येय वस्तुका मन ही मन चिन्तन कोटि-गुणत फल कैसे संभव है। उनके समाधानार्थ यहां करना ध्यान कहलाता है। ध्यान शब्दका यह यौगिक अर्थ उनके स्वरूप पर कुछ प्रकाश डाला जाता है:
है। सर्व प्रकारके संकल्प-विकल्पोंका अभाव होना: चिन्ताका १पूजा-पूज्य पुरुषोंके सम्मुख जाने पर अथवा उनके निरोध होना यह ध्यान शब्दका रूढ अर्थ है, जो वस्तुतः अभावमें उनकी प्रतिकृतियों के सम्मुम्ब जाने पर सेवा-भकि लय या ममाधिके अर्थको प्रकट करता है। करना, सन्कार करना, उनकी प्रदक्षिणा करना, नमस्कार
५ लय-एकरूपना, तल्लीनता या साम्य अवस्थाका करना, उनके गुण-गान करना और घरसे लाई हुई भेंटको
नाम लय है। साधक किसी ध्येय विशेषका चिन्तवन करता उन्हें समर्पण करना पूजा कहलाती है। वर्तमानमें विभिन्न
हा जब उसमें तन्मय हो जाता है, उसके भीतर सर्व सम्प्रदायोंके भीतर जो हम पूज्य पुरुषोंकी उपासना-बारा- प्रकारके संकल्प विकल्पों और चिन्ताओंका अभाव हो जाता धनाके विभिन्न प्रकारके रूप देखते हैं, वे सब पूजाके ही है और जब परम समाधिरूप निर्विकल्प दशा प्रकट होती अन्तर्गत जानना चाहिये । जनाचार्योने पूजाके भेद-प्रभेदोंका तब उसे लय कहते हैं। बहुत ही उत्तम रीतिसं सांगोपांग वर्णन किया है। प्रकृतमें
पूजा, स्तोत्र आदिके उक्त स्वरूपका मूक्ष्म दृष्टिसे अव१ पूजा-(पूश्रा) सेवा, सन्कार (प्राकृत शब्दमहार्णव) लोकन करने और गम्भीरनामे विचारने पर यह अनुभव २ स्त्रोत्र-थोत्त) गुण-कीर्तन (,) हुए विना न रहेगा कि ऊपर जो इनका उत्तरोत्तर कोटि३ जप-(जव) पुनः पुनः मत्रोच्चारण (,) गुणित फल बतलाया गया है, वह वस्तुतः ठीक ही जान ४ ध्यान-(झाण, उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण (,) पड़ता है। इसका कारण यह है कि पूजामें बाह्य वस्तुओंका १ लय-मनकी साम्यावस्था, तल्लीनता (,) पालम्बन और पूजा करने वाले व्यकिके हस्तादि अंगोंका
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१६४] अनेकान्त
[वर्ष १४ संचालन प्रधान रहता है। और यह प्रत्येक शास्त्राभ्यासी स्तोत्र-पाठसे भी जपका माहात्म्य कोटि-गुणित बतलाया जानता है कि बाहरी द्रव्य क्रियाओंसे भीतरी भावरूप गया है। इसका कारण यह है कि स्तोत्र पाठमें तो बाहिरी क्रियाओंका महत्व बहुत अधिक होता है। अमनी पचेन्द्रिय इन्द्रियों और वचनोंका व्यापार बना रहता है, परन्तु जपमें तिर्यच यदि अत्यधिक संक्लेश-युक्त होकर भी मोह मका उस सबको रोक कर और परिमित क्षेत्रमें एक श्रासनस बन्ध करे, तो एक हजार मागरसे अधिकका नहीं कर सकेगा, अवस्थित होकर मौन-पूर्वक अन्तर्जल्पके साथ पाराध्यके जब कि संशी पंचेन्द्रिय साधारण मनुप्यकी तो बात रहने नामका उसके गुण-वाचक मन्त्रोंका उच्चारण किया जाता दें, अत्यन्त मन्दकषायी और विशु. परिणामवाला अप्रमत्त- है। अपने द्वारा उच्चारण किया हुया शब्द स्वयं ही सुन संयत साधु अन्तः कोटाकोटी सागरोपमकी स्थितिवाले सके और समीपस्थ व्यक्ति भी न सुन सके, जिम्पक उच्चारण काँका बन्ध करेगा, जो कि कई करोड़ सागर प्रमाण होता करने हए ओंठ कुछ फरकनेम रहें, पर अक्षर बाहिर न है। इन दोनोंके बंधनेवाले कर्मोकी स्थितिमें इतना महान् निकले, ऐसे भीतरी मन्द एवं अव्यक्त या प्रस्फुट उच्चारणको अन्तर केवल मनक सद्भाव और प्रभावके कारण ही होता अन्तर्जल्प कहते हैं। व्यवहार में देखा जाता है कि जो व्यक्ति है। प्रकृतमें इसके कहनेका अभिप्राय यह है कि किसी भी सिद्धचक्रादिकी पूजा पाठमें ६-६ घंटे लगातार खडे रहते हैं, व्यकि-विशेषका भले ही वह देव जैसा प्रतिष्ठित और महान वे ही उसी मिद्वचा मंत्र जप करने हए याध घंटमें ही क्यों न हो-स्वागत और सकारादि ना अन्यमनस्क होकर घबरा जाते हैं श्रायन डांवाडोल जाता है, और शरोरये भी संभव है, पर उसके गुणोंका सुन्दर, परम और मधुर पसीना झरने लगता है। इसमें सिद्ध होता है कि पूना-पाठ शब्दोंमें वर्णन अनन्य-मनस्क या भक्रि-भरित हुए विना और स्तोत्रादिक उच्चारणमे भी अधिक इन्द्रिय-निग्रह जप संभव नहीं है।
करते समय करना पड़ता है और इसी इन्द्रिय-निग्रहके यहां यह एक बात ध्यानमें रखना आवश्यक है कि कारण जपका फल स्तोत्रस कोटि-गुणित अधिक बतलाया दूसरेके द्वारा निर्मित पूजा-पाठ या स्तोत्र-उच्चारणका उक्र गया है। फल नहीं बतलाया गया है। किन्तु भक-द्वारा स्वय निमित जपसे ध्यानका माहा-म्य काटि-गुणिन बतलाया गया है। पूजा, स्तोत्र पाठ श्रादिका यह फल बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि जपमें कमसे कम अन्नजल्परूप पुराणोंके कथानकोस भा इसी बातकी पुष्टि होती है। दो वचन-व्यापार तो रहता है, परन्तु ध्यानमें तो वचन-व्यापारएक अपवादों को छोड़कर किसी भी कथानकमें एकवार पूजा को भी सर्वथा रोक देना पड़ता है और ध्येय वस्तुक स्वरूपकरनेका वैसा चमत्कारी फल दृष्टिगोचर नहीं होता, जैमा चिन्तनके प्रति ध्यानाकी एकाग्र चित्त हो जाना पड़ता है। कि भनामर, कल्याण-मन्दिर, एकीभाव, विषापहार, स्वयम्भू मनमें उठने वाले मंकल्प-विकल्पोंको रोक कर चिनका स्तोत्र आदिके रचयिताओंको प्राप्त हुआ है। स्तोत्र- एकाग्र करना कितना कठिन है, यह ध्यानक विशिष्ट काम्योंकी रचना करते हुये भक-स्तोताक हृदयरूप मान- अभ्यामी जन ही जानते हैं। 'मन एव मनुष्याणां सरोवरसे जो भक्रि-सरिता प्रवाहित होती है, वह अक्षत- कारणं बन्ध-मोक्षयोः' की उक्तिक अनुमार मन ही पुष्पादिके गुण-बखान कर उन्हें चढ़ाने वाले पूजकके संभव मनुष्योंके बन्ध और मोक्षका प्रधान कारण माना गया है। नहीं है। पूजकका ध्यान पूजनकी बाह्य सामग्रीको स्वच्छता मन पर काबू पाना अति कठिन कार्य है। यही कारण है मादि पर ही रहता है, जबकि स्तुति करनेवाले भनका ध्यान कि जपस ध्यानका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक बतलाया एकमात्र स्तुत्य व्यक्तिके विशिष्ट गुणोंकी ओर ही रहता है। गया है। वह एकाग्रचित्त होकर अपने स्तुत्यके एक-एक गुणका वर्णन ध्यानसे भी लयका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक मनोहर शब्दोंके द्वारा न करनेमें निमग्न रहता है। इस बतलाया गया है । इसका कारण यह है कि ध्यानमें किसी प्रकार पूजा और स्तोत्रका अन्तर स्पष्ट लक्षित हो जाता एक ध्येयका चिन्तन तो चालू रहता है, और उसके कारण है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि पूजा-पाठोंमें प्रात्म-परिस्सन्द होनेसे कर्मास्रव होता रहता है, पर लयम अष्टकके अनन्तर जो जयमाल पढ़ी जाती है, वह स्तोत्रका तो सर्व-विकल्पातीत निर्विकल्प दशा प्रकट होतो है, ममताही कुछ अंशोंमें रूपान्तर है।
भाव जागृत होता है और प्रान्माके भीतर परम पाल्हाद
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किरण । पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय
[१६५ जनित एक अनिर्वचनीय अनुभूति होती है। इस अवस्थामें स्नान आवश्यक है, उसी प्रकार मानसिक सन्तापकी शांति कर्मोक श्रावध म्क कर परम संवर होता है, इस कारण और हृदयकी स्वच्छता या निर्मलताकी प्राप्तिके लिए प्रतिध्यानसे लयका माात्म्य कोटि-गुणित भी अल्प प्रतीत दिन पूजा-पाठ आदि भी आवश्यक जानना चाहिए। स्नान होता है । मैं नो कहेंगा कि संवर और निर्जराका प्रधान यद्यपि जलसे ही किया जाता है, तथापि उसके पांच प्रकार कारण होने से जयका माहात्म्य ध्यानकी अपेक्षा असंख्यात- हैं-१ कुएसे किसी पात्र-द्वारा पानी निकाल कर, गुणित है और यही कारण है कि परम समाधिरूप इस बालरी आदिमें भरे हुए पानीको लोटे प्रादिक द्वारा शरीर चिल्लय (चतन में लय । की दशामें प्रतिक्षण कमोंकी पर छोड़ कर, ३ नलके नीचे बैठ कर, ४ नदी, तालाब अगग्व्यातगुणी निर्जरा होती है।
आदिमें तैरकर और ५ कुश्रा, बावड़ी श्रादिके गहरे पानीमें ___ यहा पाठक यह बात पूछ सकते हैं कि तत्वार्थसूत्र दुबकी लगाकर । पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि कुएं से पानी श्रादिमें तो सवरका पर कारण ध्यान ही माना है, यह
निकाल कर स्नान करनेमें श्रम अधिक है और शान्ति कम । जप और लयकी बका कहमि आई? जन पाठकों को यह
पर हमकी अपेक्षा किसी वर्तनमें भरे हुए पानीसे लोटे द्वारा जान लेना चाहिए शुभ ध्यानक जो धर्म और शुक्ररूप दो
म्नान करनेमें शान्ति अधिक प्राप्त होगी और श्रम कम भेद किये गये है, उनमेम धर्मध्यानक भी अध्या म दृष्टिसे
होगा। इस दूसरे प्रकारके स्नानसे भी तीसरे प्रकारके पिण्डस्थ, पदम्ब, रूपस्य, और रूपातीत ये चार भंद किये
स्नानमें श्रम और भी कम है और शांति और भी अधिक | गये हैं। इनमेंस बादिक दो भेदोंको जप मंज्ञा और
इसका कारण यह है कि लोटंसं पानी भरने और शरीर अन्तिम दो भदोंकी ध्यान मझा महपियांने दी है । तथा
पर डालनेके मध्यमें अन्तर पा जाने से शान्तिका बीचशुक्ल ध्यानको परम समाधिरूप 'लय' नामस व्यवहृत
बीचमें प्रभाव भी अनुभव होता था, पर नलसे अजस्त्र किया गया है । ज्ञानार्णव अादि योग-विषयक शास्त्रों में
जलधारा शरीर पर पड़नेके कारण स्नान-जनित शान्तिका पर-समय-वणित योगा अष्टाङ्गका वर्णन स्याद्वादक सुमधुर
लगातार अनुभव होता है। इस तीसरे प्रकारके स्नानसे समन्यया द्वारा मो रूपमें किया गया है।
भी अधिक शान्तिका अनुभव चौथे प्रकारके स्नानसे प्राप्त उपयुक पृजा. म्तोत्रादिका जहां फल उत्तरोत्तर
होता है, इसका तैरकर स्नान करने वाले सभी अनुभवियोंअधिकाधिक है, यहां उनका समय उत्तरोत्तर हीन-हीन है ।
को पता है। पर तैरकर स्नान करनेमें भी शरीरका कुछ न उनक उनरोनर समयकी अल्पता होने पर भी फलकी महनाका कारण उन पांचोंकी उत्तरोत्तर हृदय-सब्द-स्पर्शिता
कुछ भाग जलसे बाहिर रहने के कारण स्नान-जनित शांतिहै। पूजा करने वाले व्यक्निक मन, वचन, कायकी क्रिया
का पूरा-पूरा अनुभव नहीं हो पाता । इस चतुर्थ प्रकारके अधिक बहिमुखी एव चंचल होती है । पूजा करने वालेस
स्नानस भी अधिक श्रानन्द और शान्तिकी प्राप्ति किसी स्तुति करने वाले के मन, वचन, कायकी क्रिया स्थिर. और
गहर जलके भीतर डुबकी लगानमें मिलती है। गहरे
पानीमें लगाई गई थोड़ी मी दरकी दुबकीस मानों शरीरका अन्तमुवी होती है। आगे जप, ध्यान और लयमें यह स्थिरता और अन्तमुखना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है,
सारा मन्ताप एकदम निकल जाता है, और दुबकी लगाने यहां तक कि लयम व दोनों उस चरम सीमाको पहुँच
वालेका दिल श्रानन्दमे भर जाता है। जाती है, जो कि छद्मस्थ वीतरागके अधिकसे अधिक
उन पांचों प्रकारके स्नानाम से शरीरका सन्ताप संभव है।
उत्तरोत्तर कम और शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता उपयुक्र विवेचनसे यद्यपि पूजा, स्तोत्रादिकी उत्तरोत्तर जाता है, ठीक इसी प्रकारसे पूजा, स्तोत्र आदिके द्वारा भक्त महत्ताका म्पप्टीकरण भली भांति हो जाता है, पर उस या पाराधकके मानसिक सन्ताप उत्तरोत्तर कम और
और भी मरल रूपमें सर्वसाधारण लोगोंको समझाने के लिए आत्मिक शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता है। स्नानयहां एक उदाहरण दिया जाना है। जिस प्रकार शारीरिक के पांचों प्रकारोंको पूगा-स्तोत्र श्रादि पांचों प्रकारके क्रमशः सन्तापकी शान्ति और स्वच्छताकी प्राप्तिक लिए प्रतिदिन हप्टान्त समझना चाहिए।
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जैन परम्पराका आदिकाल
(डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, पी० एच० डी० )
जैनधर्मके अनुसार संसार अनादिकाल से चला आ रहा है। इसे न कभी किसीने रचा और न यह किसी एक तत्त्वसे उत्पन्न हुआ है । प्रारम्भसं ही इसमें अनन्त जीव हैं । अनन्त पुद्गल परमाणु हैं और उनसे बनी हुई संख्य वस्तुएँ हैं । प्रत्येक वस्तुमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है और किसी रूपमें स्थाधिग्य भी रहता है। नई पर्याय उत्पन्न होती है, पुरानी नष्ट होती है। फिर भी इन्य ज्यों का त्यों रहता है। घड़ा फूटने पर घट हो गई ठीकरेकी पर्याय उत्पन्न हो गई किन्तु स्थाओं में मिट्टी ज्योंका त्यों रही। प्रत्येक व्यय और औम्पसे युत्र है। जैनदर्शनका यह हे तीर्थकर अपने मुख्य शिष्य गणधरोंको इसीका उपदेश देते हैं ।
पर्याय नष्ट दोनों अ
1
वस्तु उत्पाद
मूल सिद्धांत सबसे पहले
जिस प्रकार संसार अनादि है, उसी प्रकार अनन्त भी है ऐसा कोई समय नहीं आया, जब इसका अन्त हो जायगा । इस प्रकार अनादि और अनन्त होने पर भी इसमें विकास और द्वास होते रहते हैं। जब कभी उन्धान का युग आता है, मनुष्योंकी शारीरिक, मानसिक तथा श्राध्यात्मिक शक्तियां उत्तरोत्तर विकसित होती हैं। जब कभी पतनका समय आता है, उनमें उत्तरोत्तर ह्रास होता है। उत्थान और पतनके इस क्रमको बारह आरे वाले एक चक्र से उपमा दी गई है। बारहमेंस छह धारे विकासको प्रगट करते हैं और यह दासको विकास वाले चारोंको उत्पि काल तथा हास वाले धारोंको अवसर्पिणीकाल कहा जाता जाता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनोंको मिलाकर एक कालचक्र होता है । इस प्रकारके श्रनन्तकाल तक इनका प्रवाह चलता रहेगा। इस समय अवसर्पिणीकाल है । इसमें मानवीय शक्यिोंका उत्तरोत्तर डास होता जा रहा है।
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I
सबसे पहला श्रारा सुषमा सुपुमा था । उसमें लोग अत्यन्त सुखी तथा सरल थे। उनकी सभी आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों पूर्ण हो जाती थी न किसीको किसीका अधिकार छीनने की इच्छा होती थी, न दूसरे पर प्रभुत्व जमाने की। दूसरा श्रारा सुपुमा था। उसमें भी लोग सुखी तथा मह थे। तीसरा सुषमादुपमा था उसके पहले दो भागोंमें लोग सुखी थे किन्तु तीसरे में कुछ संगी अनुभव होने लगी । वृक्षोंमें फल देनेकी शक्ति कम हो गई। परिणाम
स्वरूप बांट कर खानेकी आवश्यकता हुई। अधिक उत्पादनके लिए स्वयं परिश्रम करना अनिवार्य हो गया। तीसरे भारेके प्रथम दो भागों तक समाजकी रचना नहीं हुई थी। उस समय न कोई राजा था, न प्रजा । सबके सब स्वतन्त्र होकर विचरते थे। पारिवारिक जीवनके विषयमें कहा जाता है कि सह-जन्मा भाई-बहिन ही बड़े होकर पति-पत्नी बन जाते थे इसीको युगल-धर्म कहा जाता है। हृदयके सरल । तथा निष्पाप होनेके कारण वे सबके सब मर कर स्वर्ग प्राप्त करते थे। तीसर मारेके अन्तिम तृतीयांश में जब जीवन-सामग्री कम पड़ने लगी, तो व्यवस्थाकी अावश्यकता हुई और उसी समय क्रमशः पन्द्रह कुलकर हुए। वैदिक परम्परामै जो स्थान मनुका है, जैन परम्परामैं वही कुलकरोंका है। इन कुलकरोंके समय क्रमशः तीन प्रकारकी दण्डव्यवस्था बताई गई है। प्रथम पांच कुलकरोंके समय 'हाकार' की व्यवस्था थी, अर्थात् कोई अनुचित कार्य करता तो 'हा' कह कर उस पर असन्तोष प्रगट किया जाता था और इतने मात्र अपराधी सुधर जाता था। दूसरे पांच कुलकरोंके समय 'माकार' की व्यवस्था थी, अर्थात् 'मा' कह कर भविष्यमें उस कामको न करनेके लिए कहा जाता था । अन्तिम पांच कुलकरोंके समय 'धिक्कार' की व्यवस्था हुई, अर्थात् 'चि' कह कर अपराधीको फटकारा जाता जाता था। इस प्रकार दण्ड विधानमें उत्तरोत्तर उग्रता घावी गई।
ऋषभदेव
पन्द्रहवें कुलकर नाभि थे। उनके समय तक युगल धर्म प्रचलित था। नामि तथा उनकी रानी मरुदेवीका वर्णन भागवतमें भी आता है। उनके पुत्र ऋषभदेव हुए। जम्बूद्वीपपत्ती में आया है कि ऋषभदेव इस अवसर्पिणीकालके प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती हुए उनके समय युगल धर्म विपिन हो गया। वृक्षोंके उपहार कम पद गये। तंगीके कारण लोग चापसमें झगड़ने लगे तभी ऋषभदेवने ममाज-व्यवस्थाकी नींव डाली। लोगोंको तभी खेती करना, भाग जलाना, भोजन पकाना, वर्तन बनाना, आदि जीवनके लिए आवश्यक उद्योग-धन्धोंकी शिक्षा दी, विवाह-संस्कारकी नीच डाली, भिन्न-भिन्न कार्योंके लिए अलग-अलग वर्ग
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किरण ७]
जैन परम्पराका आदिकाल
स्थापित किये। मर्यादा भंग करने वाले के लिए दण्डकी साधनाके लिए वनकी ओर प्रस्थान कर दिया, प्रात्म-शत्रुओं व्यवस्था की। उस समयसे भारतवर्ष भोगभूमिसे बदल पर विजय प्राप्त करनेके लिए वे वनके एक कोनेमें ध्यानम्थ कर कर्मभूमि बन गया प्रकृतिके वरदान पर जीने वाला खड़े हो गये । क्रोधको जीता, लोभको जीता, मायाको मानव अपने पुरुषार्थ पर जीने लगा। ऋषभदेव सर्वप्रथम जीता। किन्तु अभिमानका अंश मनमें रह गया। वे वैज्ञानिक और समाज-शास्त्री थे। उन्होंने समाजकी सर्व- भगवान् ऋषभदेवके पास नहीं गये । मनमें झिझक थीप्रथम रचना की । भागवतमें आता है कि एक साल वृष्टि जाऊँगा तो छोटे भाइयोंको-जो पहले मुनि हो चुके हैंनहीं हुई, परिणाम स्वरूप लोग भूखे मरने लगे। ऋषभदेव- वन्दना करनी होगी। ने अपनी प्रात्म-शकिसे पानी बरसाया और लोगोंका संकट एक साल तक खडे रहे । शरीर पर बेलें चढ गई। दूर किया । यह घटना भी इस बातको प्रकट करती है कि पक्षियोंने घोंसले बना लिए, किन्तु उन्हें कैवल्य प्राप्त नहीं ऋषभदेवके समय खाद्य वस्तु मोंकी तंगी पा चुकी थी और हुआ । ब्राह्मी और सुन्दरी भी भगवान्व पाम दीक्षित हो उन्होंने उसे दूर किया।
हो चुकी थीं। उन्हें अपने भाईकी अवस्था मालूम पड़ी।
समझानेके लिये वे बाहुबलीक पाय पहुँची और बोलीऋषभदेवके भरत बाहुबली श्रादि सौ पुत्र थे, तथा
'भाई! अहंकार-रूपी हाथीस नीचे उतरी। जब तक हाथी ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी दो कन्याएँ । श्रायुके अन्तिम
पर चढ़े रहोगे, कैवल्य प्राप्त नहीं होगा। तुम्हारे मनमें यह भागमें उन्होंने अपना राज्य पुत्रोंमें बांट दिया और स्वयं
अभिमान है कि छोटे भाइयोंकी वन्दना कसं करू? प्रामतपस्वी जीवन अंगीकार कर लिया। उनके साथ और भी
जगतमें न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। सबकी आत्मा बहुत से लोग प्रबजित हुए । किन्तु ऋषभदेवने जो कठोर
अनादि है और अनन्त है। यहां तो यही छोटा है, जो मार्ग अपनाया, उसमें वे ठहर न सके। कठोर तपस्या एवं
श्रान्म-गुणों के विकासमें पीछे है। संसारमें छोटा-बड़ा शरीरआत्म-साधना द्वारा कैवल्य प्राप्त करके ऋषभदेवने दूसरोंको
की अपेक्षा समझा जाता है। आत्म-विकासके साधक शरीरप्रात्म-कल्याणका उपदेश देना प्रारम्भ किया।
को महत्त्व नहीं देते।' इधर भरतके मनमें चक्रवर्ती बननेकी आकांक्षा जगी
बाहुबलीको अपनी भूल मालूम पड़ी। अभिमानका और वह अपने भाइयोंको श्राधीनता स्वीकार करनेके लिए नशा उतर गया। भगवानके पास जानेके लिए कदम उठाने बाध्य करने लगा। उन्हें यह बात अमा प्रनीत हुई। ही वाले थे कि कैवल्य प्राप्त हो गया। समान अधिकारको रक्षाके लिए वे पिताके पास पहुंचे। भात चक्रवतीन काल तक राज्य किया infra अषभदेवने उन्हें त्याग मार्गका उपदेश दिया : परिणाम- श्चर्यका भोग किया। एक बार उसने एक शीशमहल स्वरूप बाहुबलीको छोडकर सबके सब मुनि हो गए और बनानेकी आज्ञा दी। जब महल बनकर तैयार हो गया, तो आत्म-साधनाके पथ पर चल पड़े।
वह राजसी नेपथ्यमें उसे देखनेक लिए गया . महल बड़ा बाहुबलीने भरतका आज्ञाका खुला विरोध किया और मुन्दर बना था। भरत दम्ब देखकर प्रसन्न हो रहा था और युद्धकी तैयारी कर ली। दोनों भाइयों में परस्पर मल्ल-युद्ध- अपने ऐश्वर्य तथा शक्निका गर्व कर रहा था। राजमी वेशका निश्चय हुआ। भरतने मुष्ठि-प्रहार किया। बाहुबली भषामें चमकता हृया सुन्दर शरार दर्पणोंमें प्रतिविम्बित सह गये । फिर बाहुबलीने प्रहारके लिए मुष्टि उठाई। होकर जगमगा रहा था और वह हर्प एवं गर्वमे श्राप लावित उसी समय उनके मनमें आत्म ग्लानि उत्पन्न हो गई। हो रहा था। चलते चलते एक अंगुलीम अंगूठी नीचे गिर राज्यके लोभसे बड़े भाई पर प्रहार करना उचित नहीं पड़ी और अंगलीकी चमक समाप्त हो गई। वह सूनीसी प्रतीत हुमा । क्रोधकी दिशा बदल गई। भाई पर प्रहार मालम पड़ने लगी । भरतक मनमें श्राया--"क्या यह चमक करनेकी अपेक्षा प्रान्म-शत्रुओं पर प्रहार करना उचित
पराई है ? जब तक अंगूठी थी अगुली जगमगा रही थी, समझा । सोचा-'मुझे उमी पर प्रहार करना चाहिए उसके अलग होने ही भही दीखने लगी।' उसने दूसरी जिमने भाई पर प्रहार करनेके लिए प्रेरित किया ।'
अंग्रटी भी उतार दी। वह अंगुली भी निस्तेज हो गई। बाहुबलोने उसी समय मुनिव्रत ले लिया और प्राम- मुकुट उतार दिया, चहरकी शोभा लुप्त हो गई। धीरे
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१९८] अनेकान्त
वर्ष १४ धीरे सारे आभूषण उतार दिये और सारा शरीर निस्तेज जन-मानसको प्राप्तावित किया और मम्कृतिक बीजोंको हो गया। भरतके मनको बड़ा श्राघात लगा। सोचने पल्लवित किया । लगा—'क्या मैं पराये सौन्दर्य पर इतना अभिमान कर ३. भरतकी ज्ञान-प्राप्ति निवृत्तिकी जगह अनासक्ति रहा था। यह तो मिथ्या अभिमान था। पराये धन, पराये पर जोर देती है। वास्तवमें देखा जाय तो श्रात्म-साधनाका सौन्दर्य और पराई शनि पर किया गया गर्व तो झूठा गर्व मुख्य केन्द्र अनासकि है । निवृत्ति उसीका एक साधन है। है, प्रात्म-वंचना है, ठगी है । हमें अपने ही सौन्दर्यको निवृत्ति होने पर भी यदि अनासक्ति नहीं हुई, तो प्रकट करना चाहिए। प्रान्म-सौन्दयं ही शाश्वत है, नित्य निवृत्ति व्यर्थ है। है। उसे कोई नहीं छीन सकता। उसीको प्राप्तिके लिये प्रयत्न ४. बाहुबलीको घटना त्यागमार्गके एक बड़े विघ्नकी करना चाहिए।'
ओर सकेत करती है। मनुष्य घर-बार छोड़ता है, धन भरतका मन सांसारिक भोग और ऐश्वर्यसे विरक्त हो सम्पत्ति छोड़ता है, कुटुम्ब-कबीला छोड़ता है कठोर मयमके गया। प्रात्म-चिन्तन करते-करते उसी समय कैवल्य प्राप्त मार्ग पर चलता है, उग्र तपस्यायों द्वारा शरीरको सुम्बा हो गया।
डालता है, सभी सांसारिक ग्रन्धियां टूटने लगती हैं। किन्तु भगवान् ऋषभदेवने चिरकाल तक लोगोंको आत्म
ये ही बातें मिलकर एक नई गांठ खड़ी कर देती है । साधक साधनका मार्ग बताया और अन्तमें निर्वाण प्राप्त किया।
अपने म्याग तथा तपस्याका मद करने लगता है। एक और
उग्रचर्या करता है, दूसरी पार गांठ मजबूत होती जाती 1. भगवान् ऋषभदेवका जीवन कई दृष्टियोंसे महत्त्व
है। परिणाम-स्वरूप वह जहाँका तहां रह जाता है। कई पूर्ण है। उन्होंने केवल त्यागमार्गका उपदेश नहीं दिया,
वार तो ऐसा भी होता है कि अहकार मोधको जन्म देता किन्तु समाज-रचना और अर्थ व्यवस्थाके लिए भी मार्ग
है और आगे बदनक स्थान पर पतन प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन किया था । खेती करना. कपड़े बुनना, बर्तन बनाना,
साधकको पद-पद पर इस बातक ध्यान रग्वनेकी श्रावश्यश्राग जलाना, भोजन बनाना श्रादि अनेक कलाएं सिखाई
कता है कि उसके मनमें यह गांठ न वधन पाये। इसके थीं। वर्तमान जैन समाज जो एकांगी निवृत्तिकी ओर झुकता
लिए उसे अत्यन्त विनयी तथा नम्र बने रहना चाहिये । जा रहा है, उनके जीवनसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है। आत्म
मान पूजा या प्रतिष्ठाको कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए। साधना और धर्म या प्रादर्श चाहे निवृत्ति हो, किन्तु समाज
ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा भाईको प्रतिबोध दिया जाना रचना प्रवृत्तिके विना नहीं हो सकती । ऋपभदेवने जीवनके
स्त्री समाजके सामने एक उज्ज्वत श्रादर्श उपस्थित करता दोनों पहलू अपने जीवन-द्वारा उपस्थित किये।
है। अगर महिला समाज अपने भाई तथा पतियोंको झूठी २. भगवान् ऋषभदेवकी पूजा केवल जैनियों तक प्रतिष्ठाके नाम पर झगड़के लिए उभारनेकी जगह उन्हें मीठे सीमित नहीं है। वैदिक परम्परामें भी उनको विष्णुका शब्दोंसे शान्त करनेका प्रयत्न कर, तो बहुत सा कलह याही अवतार माना गया है। प्राचीन साहित्यमें तो उनका वर्णन मिट जाय । नम्रताकी शिक्षा के लिए पुरुषकी अपेक्षा स्त्रियां मिलता ही है, उनकी पूजा भी यत्र-तत्र प्रचलित है । उदय- अधिक उपयुक्त है। पुरके समीप केसरियाजीका मन्दिर इसका स्पष्ट उदाहरण ५ जैनधर्ममें भाद्रपद शुक्ला पंचमीको पर्युषणका है। जैन-परम्पराकी मान्यता है कि भगवान् ऋषभदेवने सांवत्सरिक पर्व मनाया जाता है । जैनियोंका यह सबसे बड़ा वर्ण-व्यवस्थाका प्रारम्भ किया । वृद्धावस्थामें संन्यासको पर्व है। इसी दिन वैदिक परम्परामें ऋषिपचमी मनाई अपनाकर उन्होंने आश्रमधर्मको भी कायम रखा। उनका जाती है । ऋपिपंचमी और पर्युपण दोनों अन्यन्त प्राचीन जीवन वैदिक परम्परासे भी मेल खाता है। इस प्रकार पर्व हैं और इनकी ऐतिहासिक उत्पत्तिक विषयमें दोनों भगवान् ऋषभदेव भारतकी श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों परम्पराएँ मौन हैं। पं. सुखलालजीकी कल्पना है कि परम्पराओंके श्रादि पुरुषके रूपमें उपस्थित है। ये उस उच्च ऋपिपंचमी वस्तुतः ऋषभ-पचमी होनी चाहिए। ऋषिहिमालयके समान प्रतीत होते हैं जिसके एक शिखरसे गगा पंचमी चाहे ऋषभपंचमीसे बिगड़कर बनी हो, या वही दूसरे शिखरसे यमुना वही । दोनों दिन्य स्रोतोंने भारतीय नाम मौलिक हो किन्तु इतना अवश्य प्रतीत होता है कि
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किरण ७] विश्व शान्तिके अमोघ उपाय
[१६१ इस पर्वका सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेवकी स्मृतिसे रहा होगा। शुद्धिके पर्वके रूपमें मनाए, तो वह भारतका राष्ट्रीय पर्व यदि इस पर्वको श्रमण और ब्राह्मण दोंनों परम्पराए प्रात्म- बन सकता है।
नोट :-विद्वान लेखकने यह लेख यद्यपि श्वेताम्बर शास्त्रोंके आधार पर लिखा है, तथापि उनके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष मननीय हैं।
--सम्पादक
विश्व-शांतिके अमोघ उपाय
(ले. श्रीअगरचन्द नाहटा) विश्वका प्रत्येक प्राणी शान्तिका इच्छुक है; जो कतिपय विश्वके समस्त प्राणियोंकी बुद्धिका विकास एक-सा पथ-भ्रान्त प्राणी अशांतिकी सृष्टि करते हैं वे भी अपने नहीं होता, अतः विचारशील व्यक्रियोंकी जिम्मेदारी बढ़ लिये तो शान्तिकी इच्छा करते हैं । प्रशान्त जीवन भला जाती है । जो प्राणी समुचित रीतिसं अशांतिके कारणोंको किसे प्रिय है । प्रतिपल शान्तिको कामना करते रहने पर जान नहीं पाता, उसके लिये वे विचारशील पुरुष ही मार्गभी विश्व में अशांति बढ़ ही रही है। इसका कुछ कारण प्रदर्शक होते हैं। तो होना ही चाहिये। उसीकी शोध करते हए शांतिको दुनियाँके इतिहासक पन्ने उलटने पर सर्वदा विचार
किया जाता शील न्यक्रियोंकी ही जिम्मेदारी अधिक प्रतीत होती है। है । आशा है कि इसमें विचारशील व विवेकी मनुप्योंको विश्वके थोड़े से व्यक्रि ही सदा दुनियोंकी अशान्तिके कारणोंश्राशाकी एक किरण मिलेगी, जितनी यह किर । जीवनमें
न को ह दनेमें आगे बढ़े, निस्वार्थ भावसे मनन कर उनका व्याप्त होगी उतनी ही शान्ति (विश्व शान्ति) की मात्रा रहस्याद्घाटन किया श्रीर समाजके समक्ष उन कारणों को बढ़ती चली जायगी।
रखा । परन्तु उन्होंने स्यं अशान्तिके कारणोंसे दूर रहकर व्यक्रियों का समूह ही 'समाज' है और अनेक समाजों- सच्ची शान्ति प्राप्त की। का समूह एक दश है। अनेकों दशोंके जनसमुदायको हो, नो व्यक्रिकी अशान्तिका कारण होता है अज्ञान, 'विश्व-जनना' कहते हैं और इसी 'विश्व जनता के धार्मिक, अर्थात व्यक्रि अपने वास्तविक स्वरूपको न समझकर नैतिक, दैनिक जीवनक उच्च और नीच जीवनचर्यास विश्वमें काल्पनिक स्वरूपको सच्चा समझ लेना है और उसी अशांति व शान्तिका विकास और हाम होता है। अशान्ति व्यक्रिकी प्राप्तिके लिए लालायित होता है, सतत प्रयत्नशील सर्वदा अवांछनीय व अग्राह्य है । इसीलिये इसका प्रादुर्भाव रहता है इससे गलत व भ्रामक रास्ता पकड़ लिया जाता कब कैस किन-किन कारणों में होता है, इस पर विचार है और प्राणीको अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। उन कष्टांक करना परमावश्यक है। प्रथम प्रत्येक व्यक्रिक शान्ति व निवारणार्थ वह स्वार्थान्ध हो ऐमी अधार्मिक तथा नीतिअशान्तिके कारणोंको जान लेना जरूरी है इसीसे विश्वकी विरुद्ध क्रियाएँ करना है कि जिनसे जन समुदायमें हलचल शांति व अशांतिके कारणों का पता लगाया जा सकेगा। मच जाती है और अशान्ति आ खडी होती है। यह व्यक्तिकी अशांतिकी समस्याओंको समझ लिया जाय और स्वरूपका अज्ञान जिस जैन परिभाषामें 'मिथ्यात्व' कहते हैंउसका समाधान कर लिया जाय नो व्यक्यिोंक मामूहिक क्या है ? यहा कि जो वस्तु हमारी नहीं है उसे अपनी रूप 'विश्व' की अशान्तिके कारणोंको समझना बहुत प्रामान मान लेना और जो वस्तु अपनी है उसे अपनी न समझ हो जायगा । संसारका प्रत्येक जीवधारी व्यकि यह सोचने कर छोड़ देना या उसके प्रति उदामीन रहना । उदाहरणार्थलग जाय कि अशान्तिकी इच्छा न रखने पर भी यह जड पदार्थ जैसे वस्त्र, मकान, धन इत्यादि नष्ट होने वाली हमारे बीचमें कैसे टपक पड़ती है, एवं शान्तिकी तीव्र इच्छा चीजोंको अपनी समझ कर उनकी प्राप्ति व रक्षाका सर्वदा करते हुए भी वह कोसों दूर क्यों भागती है तो उसका इच्छुक रहना और चेतनामयी श्रामा जो हमारी पच्ची कारण दूदते देर नहीं लगेगी।
सम्पत्ति है-उसे भुला डालना सच्चे दुःखोंका जन्म इन्हीं
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२००]
अनेकान्त
[विर्ष १४
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क्षणभंगुर वस्तुओंकी प्राप्तिमें लगे रहनेस ही होता है। तरह एक दिन वह यह भली-भांति समझ लेगा कि आत्मादृश्यमान सारे पदार्थ पौद्गलिक हैं, जड़ हैं। श्रात्मा तो में मग्न रहना ही सच्ची शान्ति है। यदि इस प्रकार हमें दिखाई देती नहीं, अतः शरीरको ही हमने सब कुछ विश्वका प्रत्येक प्राणी समझ ले तो फिर विश्वकी अशांतिका मान लिया है। उसीको सुम्बी रखनेके लिये धन-सम्पत्ति कोई कारण ही न रहेगा। परिग्रह-संग्रह और ममत्व बुद्धि इत्यादिको येन केन प्रकारण जुटाने में संलग्न रहते हैं। इस ही अशान्तिका दूसरा कारण है। तरह हम पर वस्तुओंकी प्राप्तिकी तृष्णामें ही जीवन-यापन आजका विश्व भौतिक विज्ञानकी तरफ आँख मूंदकर करते हुए अपनी वस्तु अर्थात् श्रात्मभाव, श्रान्मानुभवसे बढ़ता चला जा रहा है। योरोपकी बातें छोड़िये। वह तो परान्मुम्ब हो रहे हैं, यही अशान्तिका सबसे प्रधान, मूल भौतिक विज्ञानके अतिरिक्त आध्यात्मिक विज्ञानको जानता और प्रथम कारण है।
तक नहीं , सब भौतिक विज्ञानके अधिकाधिक विकास में ही
मनुप्योंकी पराकाष्ठा मानता है। फलतः अणु बम जैसे जड़ पदार्थ सीमित हैं और मानवकी इच्छाएं अनन्त
सर्व संहारक शस्त्रका आविष्कार करता है। केवल भारतवर्ष हैं । अत ज्योंही एक वस्तुकी प्राप्ति हुई कि दूसरी वस्तुको
ही एक ऐसा देश है कि जहां अनादि कालसे प्राध्यात्मिकधारा ग्रहण करनेकी इच्छा जागृत हो उठती है। इस तरह तृष्णा
अजस्र गतिसं प्रवाहित होती श्रा रही है और समय-समय बढ़ती चली जाती है और उत्तरोत्तर अधिक संग्रहकी कामना
पर दशक महापुरुषों ऋषियोंने इसे और भी निर्मल तथा मनमें उद्वेलित हो उठनी है। जिससे हम व्यन व अशान्त
सचेत बनाया और इस धाराका पीयूष-सम जल पीकर हो जाते हैं । इसी प्रकार अन्यान्य व्यक्रि भी संग्रहकी इच्छा
अनेक मानव संतुष्ट हुए । अब योरोप भी भारतकी ओर करते हैं और प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। अशान्तिको चिन
अाशाकी दृष्टि लगाए देख रहा है क्योंकि उसे इस देशको गारियां छूटने लगती हैं। व्यकि वे देशकी अशान्ति रूप
अहिंसा-भूनि महात्मा गांधीकी प्रान्मिक शान्तिका आभास जाला धधक उटी कि वह सारे विश्व में फैल जाती है और
मिल चुका है । वह समझ गया कि अहिसाकी कितनी बड़ी एक विश्वव्यापी युद्धका अग्निकुण्ड प्रज्वलित हो उठता है।
शनि है। जिसके द्वारा भारतवासी अंग्रेजोंके शनिशाली जिससे सारे विश्वका साहित्य, जन-समूह, सपत्ति, जलकर
साम्राज्यले बिना शस्त्रोंक लिए भी समर्थ तथा सफल हुए। राव हो जाती है। यही दुनियाकी अशान्तिकी रामकहानी
मिकहानी उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक अपनी चिराभिलषित स्वतंत्रता है। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न देशों में उत्पन्न
दशाम उन्पन्न प्राप्त की । वे समझने लगे हैं कि भारतही अपने आध्यात्मिक
माने लगे हैं कि भारतटी हुए महापुरुष यही उपदेश दिया करते है कि 'अपनेको मानक
ज्ञानके द्वारा विश्व-कल्याण कर सकता है और प्रात्मानुभव. पहचानों' 'परायको पहचानों' फिर अपने स्वरूपमें रही,
से ही अखड शान्ति प्राप्त हो सकती है। 'यह मेरा है, और अपनी आवश्यकताओंको सीमित करो । तृष्णा नहीं
वह व्यक्ति या देश मेरा नहीं है। इस भेद-भावके कारण रहेगी तो संग्रह अति सीमित होगा जिससे वस्तुओंकी कमी
प्राणी अन्य 'प्राणियों के विनाशमें उद्यत होता है। इस न रहेगी। अतः वे आवश्यकतानुसार सभी को सुलभ हो
भेद-भावसे अधिक और कोई बुरी बात हो नहीं सकती। सकेगी। फिर यह जनसमुदाय शान्त और सन्तुष्ट रहेगा। दसरेके दुखको अपना मानकर दुख अनुभव कर उसके किसी भी वस्तुकी कमी न रहेगी। जनसमुदाय भौतिक दुख-निवारणमें सहयोग देना ही मानवता है। पराया कोई वस्तुओंको प्राप्ति सुलभ होने पर उन पर कम असक्त होगा हे ही नहीं, सभी अपने ही हैं ऐसा भाव जहां पाया कि और आत्मज्ञान की तरफ मुकेगा। मानव ज्यों-ज्यों अपने किसीको कष्ट पहुँचनेकी प्रवृत्ति फिर हो ही नहीं सकेगी मात्मस्वरूपको समझनेका प्रयत्न करेगा, त्यों न्यों वह सम- फिर पराया कप्ट अपना ही कप्ट प्रतीत होने लगेगा। झता जायगा कि भौतिक वस्तुए जिनके लिये वह मारा-मारा भारत एक अध्यात्म-विद्या प्रधान देश है। इस देश में फिर रहा है .., जल्द नष्ट होने वाली है, पर उसमें मोह बड़े बड़े अध्यात्मवादियोंने जन्म ग्रहण किया है। उनमें रखना मूर्खता है। इन विचारों वाला श्रावश्यकतासे अधिक प्रायः ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध संग्रह (परिग्रह) न करेगा और अन्तमें उसे आत्मा ही अवतीर्ण हुए थे। अहिंसा उनका प्रधान सन्देश था। ग्रहण करने योग्य है-यह स्पष्ट मालूम हो जायगा-इस महात्मा गांधी की 'अहिंसा' व 'विश्व प्रेम' भारतके लिए
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किरण ७] साहित्य परिचय और समालोचन
[२०१ कोई नवीन वस्तुएं नहीं थी । सिर्फ इसकी अपार शक्तिको हम (२) व्यर्थ अनावश्यक अन्न वस्त्रादिका संग्रह नहीं भूलसे गये थे। इन्हीं अहिंसा सत्य आदिको भगवान् करना अर्थात् अपरिग्रह । महावीर और महात्मा बुद्धने अपने पवित्र उपदेशों द्वारा (३) 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' भारतके कोने कोने में प्रचलित किया था। भगवान महावीर अपनी प्रामाके समान विश्वके प्राणियोंको समझना। ने ही 'अहिंसा' यानी 'विश्व प्रेम' का इतना मुन्दर और अर्थात् अहिंसा आत्मीयताका विस्तार । सूचम विवेचन किया है कि जिसकी मिसाल नहीं मिल (४) विचार संघर्ष में समन्वयका उपाय-अनेकान्त सकती। उनका कथन था 'मनुष्यको अपनी आत्माको श्राज मनुष्यताका एकदम हास हो चुका, व हो रहाप्रतीत पहिचानना चाहिए, में स्वयं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, चतन्य हूं, होता है। पारस्परिक प्रेम और मैत्री भावकी कमी परिलक्षित सर्व-शक्ति सम्पन्न एवं वांच्छा-रहित हूँ, मुझे किसी भी हो रही है। पुराने व्यक्ति श्राज भी मिलते हैं तो आत्मीयता भौतिक पदार्थमें आसक्रि नहीं रखनी चाहिए, उनसे मेरा का अनुपम दर्शन होता है, वे खिल जाते हैं हरे भरे हो कोई चिरस्थायी सम्बन्ध नहीं। अगर मानव इस उपदेशको जाते हैं । चेहरे पर उनके प्रसन्नता-प्रफुल्लताके भाव ग्रहण करे, तो उसमें अनावश्यक वस्तुओंके संग्रहकी वृत्ति दृष्टिगोचर होने लगते हैं, पर आजके नवयुवकोंके पास बना(परिग्रह) ही न रहेगी। उसमें मूछों तीव प्रारम्भ व वटी दिखावेकी मंत्री व प्रेमके सिवाय कुछ है नहीं। बाहरके आसक्रि भी न रहेगी और जन्य चाहना न रही तो प्रतिस्पर्दा सहावने, चिकनी-चुपड़ी बातें, भीतरसे खोखलापन अनुभव वैमनस्य और कलह न रहेगा। जब ये सब नहीं रहेंगे तो होता है। इसीलिए पर-दुग्व-कातर विरले व्यक्कि ही मिलते फिर जन-समुदायमें अशान्तिका काम ही क्या है ? सर्वत्र हैं। अपना स्वार्थ ही प्रधान होता है। एक दूसरेके लगावशान्ति छा जायेगी और विश्वमें फिर अशान्तिके बादल और से ही स्वार्थ टकराते है और अशान्ति बढ़ती है। श्रारमीयतायुद्ध की भयङ्कर श्राशंका छा रही है वह न रहेगी। सर्वत्र के प्रभावसं ही यह महान दुख हट सकता है। हमारा मानव महान सुखी दिखलाई पड़ेगा। उपयुक विवेचनसे प्राचीन भारतीय श्रादर्श तो यही रहा हैविश्वशान्तिक निम्नलिखित कारण सिद्ध हुए
अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् । (१) प्रात्मबोध-चेप्टा और भौतिक वस्तुओं में विराग उदारचरितानां तु वसुधा कुटुम्बकम् ॥ अर्थात् आत्मज्ञान |
इस श्रादर्शको पुनः प्रतिष्ठापित करना है।
विदर्भ में गुजराती जैन लेखक
[लपी० विद्याधर जोहरापुरकर, नागपुर महाविद्यालय, नागपुर] विदर्भसे जैनधर्मका सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। ऐसे लेखकों में हमें ब्रह्म ज्ञानमागर सबसे प्राचीन फिर भी चौदहवीं मदीसे वह कुछ अधिक दृढ़ हुआ मालूम होते हैं। आप काष्ठामंधक भट्टारक श्री. है। राजस्थान और गुजरातसे बघेरवाल, बण्डल- भूपण के शिष्य थे, जिनका समय सत्रहवीं शताब्दी वाल आदि जातियों के लोग इस समय बड़ी तादाद- है। आपकी कई व्रतकथाओंका निर्देश अनेकान्तमें में विदर्भमं आकर बसे । इससे यह सम्बन्ध बहुत पहले हो चुका है । हमारे संग्रह में आपके द्वारा कुछ दृढ़मृल हुआ। इस सम्बन्धका एक विशेष अंग रचित दशलक्षणधर्म, पोडशकारण भावना, षट्कम, यह रहा कि विदर्भक जैनसमाजमें स्थानीय मराठी रत्नत्रय आदि विविध विषयांक कोई चार सौ पद्योंभाषाके साथ माथ राजस्थानी और गजगती भापा- का एक गुटका है । इस गुट कमें इन स्फुट पद्यांके के साहित्यका भी निर्माण होता रहा। इस लेग्वमें अलावा आपकी दो रचनाए और हैं। जिनमेंसे एक हमने ऐसे वैदर्भीय गुजराती साहित्यका ही संक्षिप्त रचना 'नीर्थावली' है । इसमें कोई एक सी पद्यां में निरूपण किया है।
अनेकान्त वर्ष १२, पृष्ठ ३०
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२०२]
अनेकान्त
[वष १४
सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र मिलाकर ७८ तीर्थक्षेत्रों- उल्लेख है उनकी समृद्धिका वर्णन तत्कालीन का परिचय दिया गया है इस तीर्थावली' का सारांश श्वेताम्बर साधु शीलविजयजीने भी किया है । हमने मराठी मासिक सन्मतिमें प्रकाशित कराया इसके बाद उल्लेखनीय लेखक कवि धनसागर
हैं। आपने कारंजामें ही सम्वत् १७५६ में 'पार्श्वआपकी दूसरी रचना 'अक्षर बावनी' है । इम- पुराण' की रचना की । आप भी काष्ठासंघक ही की प्रशस्ति परमं विदर्भक साथ आपका सम्बन्ध अनुयायी थे। आपके ग्रंथकी प्रशस्ति इस प्रकार हैस्पष्ट होता है जो इस प्रकार है
देश वराड मझार नगर कारंजा सोहे। काष्ठासंघ समुद्र विविध रत्नादिक पूरित ।
चंद्रनाथ जिन चैत्य मूल नायक मन मोहे ॥ नंदीतटगछ भाण पाप मिध्यामति चूरित ।।
काप्टासंघ सुगच्छ लाडबागड बडभागी। विद्यागुणगंभीर रामसन मुनि राजे ।
बघेरवाल विख्यात न्यात श्रावक गुणरागी । तास अनुक्रम धीर श्रीभूषण सूरि गाजे ।।
जिनधर्मी जमुना संघपति सुत पूजा संघपति वचन । कलियुगमा श्रृनचली पट्दर्शनगुरु गछपती। चित में धरी अन्याग्रह थकी रनी मुधनसागर रचन ॥१४५ तास शिष्य एवं पति ब्रह्म ज्ञानसागर यती ॥५३॥ पोदशशत एक बीम शालिवाहन शक जाणो। वंश बघेर प्रसिद्ध गोत्र एह भणिज्जे ।
रस भुज भुज भुज प्रमित पीर जिन शाक बखाणो ॥ श्रावक धर्म पवित्र काष्ठासंघ गणिज्जे ॥
उपयुक्त दोनों ग्रन्थांकी प्रशस्तियाँ स्थानीय हस्तसंधपति बापू नाम लघु वय इहु गुणधारी।
लिखित प्रतियोंसे दी गई हैं। दयावंत निर्दोष मब जनक सुग्बकारी ॥
काष्ठासपके समान मूलमंधके भी भट्टारक-पीठ उमकी प्रीत निशपथे पढने बानी करी।
विदर्भमें थे । यहाँ के भट्टारक धर्मचन्द्रके शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागर वदति यागम तत्व अमृत भरी ॥५॥
गंगादासकी दो रचनाए स्थानीय सेनगणमन्दिरमें इस प्रशस्तिमें जिन वापू संघईका उल्लेख है वे मिलती हैं-आदित्यवार कथा तथा वेपन-क्रियाकारजा (जिला अकोला) के उस ममयके ख्यात- विनती। पहली रचना सम्बत् १७५० में लिखी गई नामा श्रीमान थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित की गई है। इन दोनांकी प्रशस्तियाँ इस प्रकार हैंकई मूर्तियाँ वहॉ के काप्ठासंघ मन्दिर में मौजूद हैं।
आरित्यवार-कथा इम विषय में उल्लम्बनीय दमरे कवि पामो है।
। विशालकीति विमल गुण जाण । जिनशासनकज प्रगम्यो भाण आपने कारंजाम ही शक सं० १६१४ में 'भरत भुज
तन्पद कमलदलमित्र । धर्मचंद धृतधर्म पवित्र ॥ ११२ ॥ बली' नामक काव्य लिखा । आप भी काष्ठासंघके ही
तेहनो पंडिक गंगादास । कथा करी भवियण उल्हास ।। अनुयायी थे। अापके ग्रन्थकी प्रशस्ति इस प्रकार है
शक सोला शत पनर पार । सुदि आषाढ बीज रविवार ॥११३ गछ नंदीतट विद्यागण मुद्रकीर्ति नित बंदिये।
वेपन-क्रिया-विनती तस्य शिष्य पामो कहे दुख-दारिद्र निर्कदिये ॥२१॥ सक सोडस सत चौद बुद्ध फाल्गुण सुद पक्षह ।
कारंजे सुम्व करण चन्द्रजिन गेह विभूषण । चतुर्थि दिन चरित्र धरित पूरण करी दक्षह ।।
मूलसंघ मुनिराय धर्मभूपण गतदूषण । काग्जो जिनचंद्र इंद्रवंदित नमि स्वार्थे ।
विशालकीर्ति तस पाट निखिल वंदिन नरनायक । संघवी भोजनी प्रीत तेहना पठनार्थे ।
तस पट्टांबुजसूर धर्मचन्द्रह सुखदायक ॥ बलि मकल श्री संघने येथि सहू वांछित फले।
तस पत्कजपट्पद मुद्रा गंगादास वाणी वदे। चक्रिकामनाये करी पामो कह सुरनरु फले ॥२१॥ त्रिपंचास क्रिया मदा भवियण जन राखो हृदे ॥११॥ उल्लेखनीय है कि यहाँ जिन संघवी भोजका आगे चलकर भट्टारक धर्मचन्द्रकी परंपरामें २ सन्मति वर्ष ६, पृष्ठ ३२१
३ जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ४५५ ।
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अजमेरके शास्त्र-भंडारसे
पुराने साहित्यकी खोज
(जुगलकिशोर मुग्न्तार 'युगवीर')
१५. मदन युद्ध
सुणहु भवियण एहु परमत्थ, तजि चिंता पर कथा इक्कु यह 'मदन-युद्ध ग्रन्थ प्राकृत-अपभ्रंश-मिश्रित पुरानी
ध्याने हुइ करणु दिज्जयइ । हिन्दी में कवि वल्हका लिखा हुआ है। जिसका दूसरा नाम मणु विहसइ कमल जिम, जइसमाधि इहु अमिय पिउनइ बृचिराज है । कविके इन दोनों नामोंकी उपलब्धि ग्रन्थ- परिचइ जिन्ह चितु एहु रसु घालइ कसमल-खाइ। परम होनी है। यह ग्रन्थ भी एक गुटकेस उपलब्ध हुआ है। पुनरपि तिन्ह संसारमहि जम्मण-मरण न हाइ॥४॥ इसकी पत्रसंख्या २० (११ से ३१) और पद्य संख्या इनमेंसे प्रथम पद्यमें ऋषभदेवका स्मरण किया गया है १५% है। ग्रन्यका विषय ऋपभदेवका काम-विजय है। और यह बतलाया गया है कि वे सर्वार्थसिद्धि-विमानसे चयग्रन्थका रवनाकाल सं. १५८६ असोज सुदि एकम शनिवार कर मरुदेवीकी कुक्षिसे तीन ज्ञानको लिये हुए उत्पन हुए थे, है और लिपिकाल मं० १६६८ समझना चाहिये। क्योंकि वे इच्वाकुवंशके मंडन थे, उत्तम भोगोंको भोगकर उन्होंने जिस गुटकमें यह ग्रन्थ है वह सं० १६६८ सावन वदि प्रवृज्या ली थी और फिर निर्वाणको प्राप्त हुए थे। दूसरे अष्टमीका लिखा हुआ है।
पद्य (गाथा) में अर्हन्तकी वाणीको नमस्कार करते हुए उसे ___ ग्रन्थ के प्रारम्भिक चार पद्य इस प्रकार हैं:
सुख और जयकी जननी लिखा है और मदनयुद्धके रचनेकी "जो सम्वट्ट विमाण हुति चविओतिअणाण चित्तंतरे प्रतिज्ञा की है। तीसरे रड्ढा नामके पद्यमें ऋषभदेवका गुणउववरण। मरुदेवि कुक्खिरयणे स्वागंकुले मंडो॥ गान करते हुए उनके कुछ विशेषणों का उल्लेख किया है और भुत्तभोगसरजदेविमलं पाली पज्जा पुणो। फिर बतलाया है कि मैं उन गुणोंका विस्तारसे कथन करता संपत्तो णिव्याण देव रिसहो काऊण सा मंगलं ॥१॥ हूँ जिनके द्वारा उन्होंने कामदेवको जीता है। चौथे पद्यमें जिण अरह वागवाणी पणमुसुहमत्ति देहि जय-जणणी भव्यजनोंको लक्ष्य करके कहा गया है कि इस परमार्थको वणेमि मयण-जुझ किम जित्तउ मिरीय रिमहंसु ॥२॥ बात पर चिन्ता और पर-कथा आदिको छोड़ करके पूरी रिसह जिणवर पढम तित्थयरु जिण धम्मह उद्धरण। तरह ध्यान देना चाहिये । इससे मन कमल-समान प्रफुल्लित जुगल-धम्म सव्वइ निवारणु, नाभिगय कुल-कमल ॥ होगा, समाधि-रूपी अमृतकी प्राप्ति होगी और इस रसकी सव्वएणु संसार-तारणु जो सुरइंदाह दियो सदाचरण प्राप्तिसे सब पापोंका नाश होकर संसारमें फिर जन्म-मरण
सिरधार। नहीं हो सकेगा। और इस तरह मदनयुद्धके अध्ययन कह क्यउं रति-पनि जितिया, ते गुण कहुं वित्थार ॥३॥ श्रादिका फल बनला कर भव्य-जीवोंको काम-विजयके द्वारा इसी नामक एक और भट्टारक हुए । उनके शिष्य तस सेकक बुध ऋषभ धुरीन । रची कथा म्यंजन-पर-हीन ॥ ऋपभको भी एक रविवार-कथा अंजनगाँव, जिला संवत अष्टादश तेतीस । श्रावण सुदि बारसि रवि दीस ॥१२॥ अमरावतीके बलात्कारगरण मन्दिर में मिलती है। गंगेरवाल सुप्रांबड्या हीरबा रघुजी भ्रात । इसकी रचना विदर्भके कर्णखेट ग्राममें सम्वत् ते वचने कीधी कथा मुणता मंगल ख्यात ॥२४॥ १८३३ में हुई थी। यथा
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरणसे स्पष्ट है कि यदि विषय वराड मझारि सुनन । काखेट धनधान्य समग्र ॥ प्रयत्न किया जाय तो विदर्भमें गुजराती साहित्य सुपार्श्वदेव चैन्यालय तुग । दर्शन देखत पातक भंग ॥१२॥ काफी मात्रामें उपलब्ध हो सकता है। खासकर तप पट्टोदय शिखरी सूर्य । शक्रकीर्ति भूमंडलवर्य । कारंजाके भट्टारकीय ग्रन्थ-भण्डारोंकी इस दृष्टिसे तत्पट्ट भूषण श्री गुरुराज । धर्मचंद्र गछपति निति गाज ॥१२२ छानबीन होनेकी बहुत आवश्यकता है।
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२०४] अनेकान्त
[वर्ण १४ आत्म-विकासके लिये प्रोत्साहित किया है।
वृहस्पतिवारको निर्मित हुई है, जैसा कि अन्तके निम्न अन्यके अन्तिम दो पद्य इस प्रकार हैं:
द्वितीया पद्योंसे प्रकट है:जह न जगन न जन्म मरण जत्थ पणि वाहि-वेक्षण, श्रीमत्साहि-अवम्बरम्य नृपते राज्ये सतो सम्मते, जह न देह न न नेह यातिमइ न हठह चेयण।
शाके विक्रम साहि-साधु विदिते संवत्सरे पावने । जह सुक्ख अनंत ज्ञान दंसण अवलोकहि, तत्राप्यत्र शतंन पोडशवरे अष्टे (अब्देच) षट्त्रिंशके, काल विएस्सइ सयल सुद्ध पुणिकालह खोवइ । मामे चैत्र-विचित्र-पक्ष-प्रथमे सारे द्वितीयादिने ॥२२॥ जह वन्न न गंध न रस फरस सबद भेद नहि किह लह्यो।
वृहस्पति-गुणाधार वारे याग-शुभे वरं। बूचिराज हे श्रीरिसह-निण सुथिर होइ तहं ठहरह्यौ
केवलज्ञान-मरस्य चरित्रं रचितं शुभम् ॥२३॥ राइ विक्कमतणों संवत नव्बासीय पनरसइ सरदरुत्ति आसु वखाणु।
हम एजामें विशुच्चर श्रादि उन पाँचसौ मुनियोंकी तिथि पडिवा सुकल पख सनीचरवार
पूजा भी शामिल है जो श्रीजम्बूस्वामीके साथ ही दीक्षित
___ कर णिखत्त जाणु। हुए थे । पाँचसी मुनियोंके अलग-अलग नाम स्तुति तिनु दिन वल्ह जु संठग्यो मयण-जुज्म सविससा सहित देकर अर्घ चढाये गए हैं। और यह इस पूजाकी पढत सुणत रिक्खा करो जयो स्वामिरिसहेस ॥५७n सबसे बड़ी विशेपता है। इस पूजाले कर्ता पडित 'मोदक'
इनमेंसे पहले पद्यमें श्री ऋषभदेवकी निर्वाणावस्थाका हैं। जिन्हें कहीं कहीं 'लाडनू” नामसे भी उल्लेखित किया वर्णन है, जो उन्होंने मोह-शत्रके पुत्र और प्रधान सेनापति गया है । दोनों नामके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं:मदन तथा मोह और अन्य सब अंतरंग शत्रुओंको जीत कर जंपइ कइ लाडनु निपुण देव ! प्राप्त की थी और जिसमें जरा, जन्म, मरण, वेदना देह, हउं करद-निरंतर तुझ सेव । (पत्र ३,२६) नेह आदि किसी भी कष्टदायी वस्तुका सम्बन्ध नहीं रहता।
चरित्रं भव्य-जीवानां, मंगलं वितनोतु वै। तथा अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त
धीमता मोदकाख्येन, रचितं पुण्यकारणम् (पत्र२७) वीर्य प्रकट हो जाते हैं। तब आत्मा पुद्गलके सम्बन्धसे इस पूजाकी रचना पद्यपि साह टोडरने कराई है परन्तु रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिर हो जाता है और उसमें दासमल्लकी प्रेरणा भी हुई है जिसका उल्लेख वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्दके भेदोंसे मुक्त हो जाता है। ग्रंथकारने निम्न पद्योंके द्वारा किया है :--
इस ग्रन्थकी रचना अनेक छन्दोंमें की गई है। कविता तहविह मइ पंडियदासमल्ल, और विषयको चर्चित करनेको दृष्टिसे यह ग्रन्थ उतने उपरोहें थुइ चिरइय रसल्ल ॥ ( पत्र २) अधिक महत्वका नहीं है जितने अधिक महत्वको यह हिन्दी दासमल्लो विनीतात्मा धर्म-कर्मणि तत्परः। भाषाके विकासको दृष्टिको लिये हुए है । अतः भाषा-विज्ञोंके तस्योपदेशतः या चरित्रं जंबुस्वामिनः ।। (पत्र २७) द्वारा यह उस दृप्टिसे अध्ययन किए जाने तथा प्रकाशित
इनमें दाममल्लको यिनीतात्मा और धर्म-कर्ममें तत्पर किए जानेके योग्य है। इस ग्रन्थकी प्रति जयपुरके शास्त्र- बतलाया है। ऐसा जान पड़ता है कि पं. दासमल्ल कविकी भंडारमें भी पाई जाती है । प्रस्तुत प्रति अशुद्ध है। इस रचनामें भी सहायक हुश्रा है। १६. जम्बूस्वामि-पूजा
इस पूजाके प्रारम्भिक मंगलाचरणादि-विषयक कुछ पद्य यह पूजा प्रायः संस्कृत भाषामें निबद्ध है और जय- इस प्रकार हैंमालादिके कुछ अंश अपनश भाषाको लिए हुए हैं। यह वाणी यस्य गरीयसी गुणनिधेः सेव्या सदा पंडितउन्हीं साह टोडरको लिखाई हुई है जिन्होंने कवि राजमलसे लोकालोक-निवास-तत्त्वकथनं कत सतां सम्मता। जम्बूस्वामि-चरित्र लिखाया था । यह जम्बूस्वामि-चरित्र सोऽयं श्रीजिनवीरनाथममलं मानावमाने समं अकबरके राज्यमें सं० १६३२ को समाप्ति पर चैत्र सुदि अष्टमी- वन्देवा(ह) सततं परं शिवकर मोक्षाय स्वर्गाय वै || को रचा गया है। और यह पूजा उससे कोई ४ वर्ष बाद गौतमादि-गणाधीशान्मुनीन्द्र-गुण-पावकान् । अकयरके राज्य में ही विक्रम संवत् १६३६ की चैत वदि वन्दे सकल-कल्याण-दायकान् नतमस्तकः।२।।
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किरण]
पुराने साहित्यकी खोज नरामर-खगाधीशाः यस्य पाद-पारुहम् ।
नाम्ना श्रीगुणभद्र-न्याय-निपुणो वादीभ-पंचानना । वन्दितुं चोत्सुका याता: वन्दे तं जिनशासनम् ॥३॥ सागसार-विचारणैकचतुरो जीयात्सदा भूतले ।।११।। नो कवित्वं करिष्यामि केवलं लाक-रंजनम् । तत्पट्ट गुणसागरो मदहरो मानावमाने समो, पुण्याय श्रेया किन्तु भक्त्या वापरया परम् ।।४।। बालत्वेपि दिगम्बरोऽस्ति नितरां कोा प्रशस्ता महान् । ये केचिन मजनतालाक, विधन्ते गुणशालिनः । सोऽयं श्रीरविकीर्तिवाद-निपुणा भट्टारको भूतले, नमामि नततं तेभ्यो में कुर्वन्तु कृ पराम् ।।५।। नन्दत्वेव गुणाकरो वृषधरो भव्यैः सदा सेव्यतः ॥१२ सज्जनानां स्वभावोऽयं. प:-दुःखेन दु:म्विताः । योऽसौ वादि-विनोदनाद निपुणो ध्याने गतो लोनतां दुर्जनाः मपेवन मम्यक् दुखदा दोप-प्राहका॥६॥ प पाताप-विनाशनक-शशिभृच्चारित्र-चूड़ामणिः । सुखिना. सन्नु लोके ये जिनगम प्रभावकाः श्रीमन्नामकुमारसेन-गणभृद्भट्टारका सम्मतो, दया-धम-सदाचार-तत्वगः गुणशालिनः ॥७॥
जीयात्सोपि गणाधिपो गुणनिधिरासेव्यतां सज्जनः।१३ इन पद्योंमें वीरभिगवान् गौतमादि गणधर मुनीन्द्र और आम्नाये तस्य ख्यातो भुवि भरततमः पावनोभूतलेऽस्मिन् जिन-शामनकी स्तुति करते हुए कहा है कि-'यह रचना में पासासंघाधिशेऽसौ कुलबल-सबमस्तस्य भार्याऽस्ति घोषा लोकदृष्टिसे या कवित्वकी दृष्टि नहीं कर रहा हूँ किन्तु पुण्य साध्वी श्रीवा द्वितीया जिनचरणरता वाचिवागीश्वरीव
और कल्याणकी दृष्टिसे भक्रिभावको लेकर कर रहा हूँ।' गर्भे तस्या बभूव गुणगणमाहितो टोडराख्यस्तु पुत्रः ॥१५ इसके बाद सज्जनोंको नगरकार करते हुए उनका भाव भार्ये तम्य गुणाकरस्य विमले द्वे दान-पूजारते, पर-दुग्खमें दुखित होना गननाया है और दुर्जनोंको सर्पके या ज्येष्ठा गुणपावना शिमुग्बी नाम्ना हरो विश्रु।। समान दुख देने वाले और टोप-ग्राहक लिखा है । सातवें तस्या गर्भ-समुद्भवोऽस्ति नितरां यो नन्दनः शान्नधीः, पद्यमें यह आशीर्वाद दिया है कि वे सब लोग सुग्वी हों मान्यो राजसभा-सु सम्जनसभा-दासो ऋषीणां महान् । जो जिनागमके प्रभावक दे. दयाधर्म तथा सदाचारमें तत्पर वल्लभा तस्य संजाता रूप-रम्मा-विशेषतः। और गुणशाली हैं।
भर्तानुगामिनी साध्वी नाम्ना लालमती शुभा ॥१६ इन पयोंके बाद ग्रन्थमें पूजाके लिये मण्डलकी विधि टोडरस्य नृपस्य वरांगना लघुतरा गुण-दान-विराजिता। लिखी है। जिसके मधमें एक कोठा और उसके चारों ओर विमलभापि कुसुभमती परा, अजनि पुत्रद्वयो वरदायका क्रमशः १, ८, १६, २४ ३२, १८,६४, ६०, १०४ और तेपा ज्येष्ठः सकत-निरतो मोहनाख्यो विवेकी, १३६ कोष्ठक दिए हैं। ..प्टकांकी कुल संख्या २१३ होती भार्या तिम्य मुकृत-निरता नामती माथुरी या । है। यह कोष्ठक-संख्या उन मुनि-स्नूपोंकी वाचक जान पड़ती कान्त्या कामो वचन-सरसो रूप रूक्मांगदोऽपि है जो मथुरामें जीर्ण-शीर्ण अवस्थाको प्राप्त थे और जिनका भार्या गेहे कमजवदना भागमती भाग्यपूरा ॥१८॥ पुनः जीर्णोद्धार माहू रोडग्ने कराकर एक बड़ी पूजाप्रनिष्ठाकी य.सर्वपां गरिष्ठः स्यात् टोडराख्यः प्रसन्नधीः । आयोजनाको थी, जिसका उल्लेख उनके द्वारा निर्मापित स्वामीति जम्बुनाथस्य तेन कारापितं शुभम् ॥१६॥ जम्बूस्वामि-चरितमें पाया जाना है।
इस प्रशस्तिमें काष्ठासंघ परोपकार चतुर (माथुरगग्छ) इस पूजामें पाह टोहरको गुरु-परम्पग-महित एक और पुष्करगणके प्राचार्योंका उल्लेख करते हुए लोहाचार्यके प्रशस्ति दी हुई है जो इस प्रकार है :
वंशमें क्रमशः मलयकीर्ति, गुणभद्र, रवि (भानु)कीर्ति और काष्ठासंघ-परोपकार-चतुरे-गच्छे गणे पुष्करे कुमारसेनका पट्ट-परम्पराये उल्लेख किया है । और फिर लोहाचार्य-वरान्वये गुर निधिभट्टारको मा जिन् । यह बतलाया है कि कुमारसेनकी आम्नायमें पासा नामके जानात्ये जिनेश्वरस्य कथितं नत्वार्थभानं परं साह हुए, जिनकी स्त्रीका नाम घोषा था, जो साध्वी, जिनसोऽयं श्रीमलयादिकीति-विदितः सेव्यः सदा पडितः।१ चरणोंमें रत द्वितीय लक्ष्मी तथा सरस्वतीके समान थी। पट्टतस्य गुणाग्रणी समधनो मिथ्यान्धकारे रविः। घोषासे टोडर नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी दो स्त्रियाँ श्रीमज्जैन-जितेन्द्रियोऽतितगंवारित्रचूड़ामणिः॥ थी। ज्येष्ठा स्त्रीका नाम 'हरो' था और उसके गर्भस ऋषि
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अनेकान्त
[वर्ष १४
(ऋषभ) दास नामका पुत्र उप्पन हुधा था। लघु स्त्री इस पूजा-प्रन्थको प्रशस्तिमें दिया गया। जिसके सूचक दो कुसुम्भमती थी जिसके दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र मोहनदास, पच इस प्रकार हैं: जिसकी पत्नीका नाम माथुरी था और दूसरा पुत्र 'रूपमा
मोही यस्य न विद्यते गुणनिधेस्तावत्परं दुःखदः गद, जिसकी भार्याका नाम भाग्यवती था। इन सबमें
संसारे सरतां न तस्य परमज्ञानाधिकस्यैव च । गरिष्ठ साहू टोडरने जो प्रसन्न बुद्धि था, प्रस्तुत ग्रन्थकी सोऽयं श्रीजिनराजपावनमतेभूयात् सदाचारिणः रचना कराई है।
श्रीमट्टोडर-भावकस्य सततंकल्याणमा-म्भकः ।।
स्वामीति जम्भवतां पुनातु शांति च कार्ति वितनोतु नित्यं यहाँ पर मैं इतना और भो प्रकट कर देना चाहता हूँ पासा-वरे वंशशिरोमणोनां श्रीटोडाख्यस्य गुणाकरस्य कि साह रोडरके लिखाये हुए जम्बूस्वामि-चरित्रको प्रशस्तिसे
इनमेंसे पहला श्राशीर्वाद प्रशस्तिके पूर्वका और यह मालूम होता है कि साहू टोडर अग्रवालवंशा गर्गगोत्री
दूसरा आशीर्वाद ग्रन्थकी समाप्तिके अन्तका है । इस और भटानिया कोलके निवासी थे। प्रशस्तिमें उनकी एक
ग्रन्थमें पूज के जो अप्टक जयमालादिके शुरूमें दिये हैं उनको ही स्त्री कंसूभीका नाम दिया है और उसके तीन पुत्र पुनः प्रशस्तिके पूर्व भी दिया गया है। अन्यकी पत्र-संख्या
नामादि प्रकट किये हैं। परन्तु यहाँ स्पष्ट रूपसे दो २०और श्लोक संख्या ८०. के लगभग है। यह ग्रन्थ-प्रतिस्त्रियों का नामोल्लेख है और ऋषभदासको जिसे यहाँ सं० १८७७ में वैशाग्बसुदि अष्टमीको जयदेव नामके अखिदास लिखा है पहली स्त्रीका पुत्र बतलाया है। जिसके महात्माके द्वारा जोबनेरम लिखी गई है और अजमेरके दोनों नामोंकी उपलब्धि पंचाध्यायीकी उस प्रतिसे भी पण्डित पन्नालाबने इस लिखवाया है। प्रति बहुत कुछ होती है जिसका परिचय अनेकान्तकी गत किरण नं. ३-४ अशुद्ध है और उसीका यह परिणाम है कि 'जम्बूस्वामिमें दिया गया है। उस प्रशस्तिमें रूपांगदकोचिरंजीवी लिखा पूजा समाप्ता' के स्थान पर 'इनियं जबूद्वीपपूजा समाप्ता' है और उसकी पत्नीका कोई नाम नहीं दिया, जिससे मालूम लिखा गया है । इसकी दूसरी प्रतिकी खोज होनी चाहिये होता है कि जम्बूस्वामि-चरितको रचनाके बाद चार वर्षकै और यह ग्रन्थ शीघ्र ही छपाकर प्रकाशित किये जानेके भीतर उसका विवाह हो चुका था, तभी उसकी स्त्रीका नाम योग्य है।
पीड़ित पशुओं की सभा
(श्रीमती जयवन्ती देवी) एक खेतमें एक किसान हल जोत रहा था। दस बीघा गजराजको सुशोभित किया गया। क्योंकि उम पर राजा जमीन जोत चुकने पर भी किसानने बैलोंको नहीं छोड़ा, साहब बैठ कर विवाहके लिये जा रहे थे, नाना प्रकारके
और अधिक चलानेके लिये बाध्य करने लगा। परन्तु बैलों- बाजे बज रहे थे, तरह-तरहके नृत्य हो रहे थे। हाथीका के पैर न उठते थे तमाम शरीर दिन भरके परिश्रमसे क्रान्त ध्यान आकर्षित हुआ और वह इधर उधर देखने लगा। हो गया था, भूख भी बड़े जोरसे लग रही थी, पर तभी पीलवानने उसके सिरमें अकुश लगा दिया। हाथी कृषकको दया न आई। स्वार्थ और लोभ जो सिर पर अस्त हो उठा और इन कर एवं कृतघ्न मनुष्योंकी प्रवृत्ति सवार था। वह डंडेसे पीटने लगा उस पर भी उन्हें चलते पर सोचने लगा। न देख उसमें लगी तीक्षण भार बैलकी कूखमें निर्दयता
आखिरकार एक दिन उसने अपने भाई सभी पशुपूर्वक घुसेड़ दी। बैल तड़प उठा, खूनकी धारा बड़े वेगसे पक्षियोंको एकत्रित कर एक सभा की । क्रमशः एकके बाद वह चली वह धड़ामसे पृथ्वी पर गिर पड़ा।
एकने अपना-अपना दु.ख कहना प्रारम्भ किया।-बैल ___ एक मदमस्त हाथी पर स्वर्णमय हौदा सजाया गया. बोला-क्यों जी, हम दिन रात अथक परिश्रम करके, बहुत कीमती कारचोबी कपड़ा श्रोढ़ाया, चांदीकी घंटी जमीन जोत कर अन्न उत्पन्न करते हैं जिसके बिना मनुष्य लटकाई और पुष्पहारोंसे तथा अनेक प्रकारकी चित्रावलीसे दो दिनमें तड़प जाता है और अन्तमें मर जाता है। फिर
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किरण ] पीड़ित पशुओंकी चिकित्सा
[२०७ भी उनका हमारे प्रति ऐमा निप्टर निर्दय व्यवहार क्यों? वैरागी हैं, उन्हें किसीका पक्षपात नहीं। अतः उन्हींकी घोड़ा बोला-भाई देवो न, मनुष्य मेरी ही पीठ पर चढ़ बात प्रमाणित माननी होगी। इमलिये सब मिल कर कर बनी शानसे इठलाते इतराते चलते हैं और मंग्राममें उनके चरणों के समीप शान्ति पूर्वक जा बैठे। महात्मा जव शत्रुओंको परास्त कर विजयी बनने हैं, पैदल चलने ध्यानसे उठे तो उन्होंने अपनी रामकहानी कही। समतावालोंको बडी घृणाकी दृषिसे देखते हैं. हमींस गौरव प्राप्त रस भोगी साधुने उन्हें सान्त्वना देते हुए बतलाया किकरते हैं यदि हम न हों तो उनको यह शान कैसे बढ़े ! देखो, भाई ! पूर्व जन्ममें तुम लोगोंने छल कपटकी फिर भी हमको ही कोडों-चाबुकोंसे पीटते हैं ? हमने उनका वृति रक्खी, बहुतसं पाप कर्म किये, लोगोंको धोखा दिया, श्राग्विर क्या अपराध किया है ?
अन्याय किया, पर धन चुराया, विश्वासघात किया, मांसयह सुन कर गाय, भैंस भी बोल उठीं- हां, भय्या! भक्षण किया, अपना शीक पूरा करनेके लिये दूसरोंका देवो न, हमारे बच्चोंको दृध पीनेसे छुडा कर एक तरफ शिकार किया, निःकारण कौतुहलवश अनेक निरपराध खडा कर देते हैं जो उस दूधक पूरे हकदार हैं और जिनके पशु-पक्षियोंको सताया, तोते श्रादि जानवरोंको कैदमें-पिंजरेलिये हम दूध पिलाने बेलाकी घण्टोंकी प्रतीक्षा करती हैं में बन्द रक्खा, उसीके फल स्वरूप तुम्हें यहांसे दुख उन दुधमुंहे बच्चोंको घपीट कर एक तरफ बांध कर खडा उठाने पड़ रहे हैं यदि कुछ भी धर्मपाधन किया होता कर देते हैं और हमारा दृध दुई कर श्राप बड़े शौकसे तो आज मनुष्योंकी तरह तुम भी मुम्बी होते। अब भीदुध, चाय ग्बोया, रबद्री, रमगुल्ले चमचम आदि तरह हम पर्यायमें भी छल-कपट ईयां कलह, द्वेषका त्याग तरहकी स्वादिष्ट मिठाइयां बना कर खाने और मौज उडाने करो हिंमाको छोड़ो, समता भाव धारण करो जिससे हैं । भला कहो न, क्या बात है जो वे इतना अन्याय फिर तियंच जातिमें जन्म न हो और तज्जन्य दुःखोंसे हमारे प्रति करें और हम चुप चाप उसे सहन करते रहें, निवृत्ति हो। जैसे वे खाते पोते सोते हैं और अपनी मन्तानके प्रति मोह आज जो मनुष्य तुम पर अन्याचार कर रहे हैं और रखते हैं, वैसे ही हम भी तो करते हैं?
असह्य यातनाएं दे रहे हैं, उसका फल अागामी जन्ममें यह मन कर एक-एक कर सभी बोल उठे--अरे
उन्हें भी तुम्हारे ही समान भोगना पड़ेगा। इसलिए इस
उन्हें भी तम्हारे ही समान भोगना पडेर भाई। मनुष्योंकी तो बात ही क्या, हमारे विना तो तीर्थ- कम लोग शान्ति पर्वक अपने उदय
वन तुम लोग शान्ति पूर्वक अपने उदयमें पाये हुए कर्मों के करोंकी भी पहचान नहीं होती। जिनके चरण कमलोंमें फलको भोगो और पूर्वजन्ममें किये हुये दुष्कर्मोंकी निन्दा राजा, महाराजा इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती श्रादि सभी करो, तथा आगेके लिए प्रतिज्ञा करो कि हम अब भूल सिर झुकान हैं और जिनके चरणोंकी शरण प्राप्त करने में करके भी ऐसे पाप कर्म नहीं करेंगे। इस जन्ममें तुम अपना अहोभाग्य समझते हैं उन तीथंकरोंके सन्निकट रहते लोग यद्यपि असहाय हो, तथापि परस्परमें जितनी भी हए भी ये हमारी कद्र करना नहीं जानते। हम तो अब जिस किमी प्रकारसे एक दूसरेकी सहायता कर सको, उसे इस तरह संकटापन्न जीवन नही विताएँगे। अब तो करो। इससे तुम्हारे पाप कर्म जल्दी दूर हो जायेंगे और अन्यायका प्रतीकार करना ही होगा कि हम तो रात दिन मनुष्योंके अन्याचारोंसे तुम्हें मुक्ति मिल जावेगी। साधुकी दुख उठा और सब आनन्द उड़ा!
प्रेमभरी मधुर वाणी सुन करके मभी पशु पक्षियोंकी भीतरी अब प्रश्न यह हुआ कि यह निर्णय कैसे हो? अन्तमें प्राग्वें खुल गई और उन्होंने अपने-अपने मनमें प्रतिज्ञा की सभीने कहा कि चलो, उपवनमें जो महान्मा ध्यान लगाये कि प्रागेसे हम किमीको भी नहीं सतायेंगे और जितनी बैठे हैं उनसे ही यह निर्णय करवायें। क्योंकि वे त्यागी बनेगी दूसरोंकी सहायता करेंगे।
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संस्कारोंका प्रभाव
(श्री पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) मनुष्य ही क्या, प्राणिमात्रके उपर उसके चारों ओरके दूसरा उदाहरण मास्टर मनहर का लीजिये-जो वातावरणका प्रभाव पड़ा करता है। फिर जो जीव जिस बचपन में ही संगीत और वाद्यकलामें निपुण हो गया था। प्रकारकी भावना निरन्तर करता रहता है, उसका तो असर उसकी बचपनमें प्रकट हुई प्रतिभा उसके पूर्वजन्मके संस्कारोंउस पर नियमसे होता ही है। इसी तथ्यको दृष्टिमें रख __ की आभारी है। तीर्थकरोंका जन्मसे ही तीन ज्ञानका धारी कर हमारे महर्षियोंने यह सुकि कही
होना पूर्वजन्मके संस्कारोंका ही तो फल है। किसी व्यकि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति। तादृशी।' विशेषमें हमें जो जन्म-जात विशेषता दृष्टिगोचर होती है,
अर्थात् जिस जीपकी जिस प्रकारकी भावना निरन्तर वह पूर्वजन्मके संस्कारोंका ही फल समझना चाहिये। रहती है, उसे उसी प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य- आज हम जो जैन कुलमें उत्पन्न हुए हैं और जन्मकी भावनाओंका प्रभाव उसके दैनिक ज वन पर स्पष्टतः कालसे ही हमारे भीतर जो मांस-मदिराके खान-पानके प्रति दृष्टिगोचर होता है । मनुष्य जिस प्रकारके विचारोंसे निरन्तर घृणा है, वह भी पूर्वजन्मके संस्कारोंका प्रभाव है। हम प्रोत-प्रोत रहेगा, उसका आहार-विहार और रहन-सहन भी निश्चयतः यह कह सकते हैं कि पूर्वजन्ममें हमारे भीतर वैसा ही हो जायगा। यही नहीं, मनुप्यके प्रतिक्षण बदलने मांस-मदिराके खान-पानके प्रति घृणाका भाव था और हम वाले विचारोंका भी असर उसके चेहरे पर साफ-साफ पूर्व भवमें ऐसे विचारोंसे श्रोत-प्रोत थे कि जन्मान्तरमें भी नजर आने लगता है। इसीलिये हमारे प्राचार्यो को कहना हमारा जन्म मद्य-मांस-भोजियोंके कुलमें न हो। उन पड़ा कि
विचारोंके संस्कारोंका ही यह प्रभाव है कि हमारा जन्म 'वक्त्रं वक्ति हिमानमम' अर्थात् मुख मनकी बातको व्यक्त कर देता है। प्रति
हमारी भावनाओंके अनुरूप ही निरामिष भोजियोंक कुलमें
हुअा। अब यदि वर्तमान भवमें भी हमारे उक्त संस्कार क्षण होने वाले इन मानसिक विचारोंका प्रभाव उसके वाचनिक और कायिक क्रियाओं पर भी पड़ता है। और उनके
उत्तरोत्तर दृढ़ होते जायेंगे और हमारे भीतर मद्य-मांस
सेवनके प्रति उत्कट घृणा मनमें बनी रहेगी, तो इतना द्वारा लोगोंके भले बुरे विचारोंका पता चलता है।
निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि हमारा भावी जन्म भाजके मनोविज्ञानने यह भले प्रकार प्रमाणित कर
भी निरामिष-भोजी उच्चकुल में ही होगा। यही बात दिया है कि विचारोंका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ा करता
रात्रिभोजनके विषयमें भी लागू है। पूर्व जन्ममें हमारे है। विचार जितने गहरे होंगे और प्रचुरतासे होंगे. अात्माके
भीतर रात्रिमें नहीं खानेके संस्कार पड़े, फलतः हम अनस्तऊपर उनका उतना ही दृढ संस्कार पड़ेगा। किसी भी प्रकारके विचारोंका संस्कार जितना दृढ़ होगा, उसका प्रभाव
मित-दिवा-भोजियोंके कुल में उत्पन्न हुए। पर यदि आज
हम देश-कालकी परिस्थितिसे या स्वयं प्रमादी बनकर मात्मा पर उतने ही अधिक काल तक रहता है। जिस
रात्रिमें भोजन करने लगे हैं और रात्रि-भोजनके प्रति हमारे प्रकार बचपनमें अभ्यस्त विद्या बुढ़ापे तक याद रहती है,
हृदयमें कोई घृणा नहीं रही है, केवल मांस-मदिराके खानउसी प्रकार बुढ़ापेमें या जीवनके अन्तमें पड़े हुए संस्कार
पानके प्रति ही घृणा रह गई है, तो कहा जा सकता है कि जन्मान्तरमें भी साथ जाते हैं और वहां पर वे जरा सा ।
इमारा भावी जन्म ऐसे कुलमें होगा-जहां पर कि मांसनिमित्त मिलने पर प्रकट हो जाते हैं। उदाहरणके तौर पर
मदिराका तो खान-पान नहीं है, किन्तु रात्रि-भोजनका हम बालशास्त्रीको ले सकते हैं। कहते हैं कि वे १२ वर्षकी
प्रचलन अवश्य है। इसी प्रकार भिन्न भिन्न संस्कारोंकी अवस्थामें ही वेद-वेदाङ्गके पारगामी हो गये थे। इतनी बात जानना चाहिए । छोटी अवस्थामें उनका वेद-वेदाङ्गमें पारगामी होना यह पूर्व जन्मकी घटनाओंका स्मरण होना भी रद संस्कारोंसिद्ध करता है कि वे इससे पहले भी मनुष्य थे और का ही फल है। इसलिये हमें अपने भीतर सदा अच्छे पठन-पाठन करते हुए ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके संस्कार डालना चाहिये, जिससे इस जन्ममें भी हमारा पठन-पाठनके संस्कार ज्योंके त्यों बने रहे, और इस भवमें उत्तरोत्तर विकास हो और आगामी भवमें भी हमारा जन्म वे समस्त संस्कार बहुत शीघ्र बालपनमें ही प्रकट होगये। उत्तम सुसंस्कृत कुलमें हो।
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छन्द-कोष और शील-संरक्षणोपाय छप चुके
(श्री अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके १४वें वर्पसे माननीय श्रीजुगलकिशोर तानि इह छन्दाकोषाभिधाने छन्दशास्त्रे भणितानि । जी मुख्तारने, अजमेरके शास्त्रभण्डारमें जो ग्रन्थ श्रीमन्नागपुरीय-तपागच्छ-गगनमण्डल नभो-मणिश्रीउन्हें महत्वपूर्ण व अप्रसिद्ध ज्ञात हुए उनका परि- वनसेनसुरि-शिष्यश्रीहेमतिलकसूरि-पट्ट-प्रतिष्ठित श्रीचय "पुराने साहित्यकी खोज" शीर्षक लेखमालामें रत्नशेखर-सूरिभिः कथितानीति । कीदृशानि तानि देना पारम्भ किया है। वस्तुतः अजमेरके शास्त्र- लक्ष्यलक्षण-युतानि । लक्ष्याणि छन्दांसि लक्षण(नि संग्रह में सौ से भी अधिक अप्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण गणमात्रादीनि ततो लक्ष्यैः लक्षणैश्चयुतानि सहिग्रंथ हैं, जैसा कि मैंने मुख्तार साहबके पास उक्त तानि समाप्ता चेयं श्रीरत्नशेखर-सुरि-संतानीयश्रीशास्त्र-भण्डारको कार्डोके रूपमें सूची देखकर राजरत्न-पट्टस्थित-श्रीचन्द्रकीतिसूरि-विरिचित-छन्दःनिश्चय किया। इस भण्डारमें केवल दिगम्बर-ग्रन्थ कोष-नामग्रन्थस्य टीका। इति श्रीछंद-कोप-टीका। ही नहीं पर कुछ श्वेताम्बर रचनाओंकी भी प्रतियाँ ऐसो मिली हैं-जो श्वेताम्बर-भण्डारोंने भी मेरे
___टीकाकार ग्रन्थकारकी परम्पराके ही हैं और देखने में नहीं आई। इस दृष्टिसे यह भण्डार बहुत
रत्नशेखरसूरि और चन्द्रकीतिसूरि दोनों ही सुप्रमहत्वपूर्ण है और मुख्तार साहबने जो यह लेख
सिद्ध विद्वान ग्रंथकार हैं। छन्दकोष मूल रूपमें माला चालू की है वह भी बहुत ही जरूरी और
प्रोफेसर हरि दामोदर बेलकरने सम्पादित करके उपयोगी है।
बम्बई युनीवर्सिटी जरनलके मई १९३३ के अंकमें
प्रकाशित किया था। इससे पहले सन १९२२ में अनेकान्तके गत जनवरी अंकमें इस लेखमाला डन्य महिमने प्रकाशित किया था। इसकी टीकाके अन्तर्गत 'कृत-छन्द-कोप', 'पिंगल-चतुरशीति- की प्रतियाँ तो काफी मिलती हैं, पर शायद अभी रूपक' और 'विधवा-शील-संरक्षणोपाय' नामक तीन तक प्रकाशित नहीं हुई। रचनाओंको अनुपलब्ध समझकर परिचय दिया है। वास्तव में प्राकृत-छन्द-कोष और विधवा-शील- 'विधवा-शील-संरक्षणोपाय' १५वीं शताब्दीकी संरक्षणापाय ये दो रचनाएँ तो अन्यत्र उपलब्ध ही लिखी हुई एक ताड़पत्रीय प्रतिमें विधवा कुलकके नहीं है किन्तु छप भी चुकी हैं और पिंगल-चतुरशीति- नामसे मिला था। वह प्रति पाटण-भण्डारकी थी। रूपक यद्यपि अभी प्रकाशित तो नहीं हआ पर यह विधवा-कुलक कोई अट्ठाईस-तीस वर्ष पहले. इसकी कई प्रतियाँ अन्य संग्रहालयों में भी प्राप्त हैं। भावनगरसे 'जैनधर्मप्रकाश में गुजराती अनुवादके
साथ प्रकाशित हुभा था। जब सम्वत् १९८५ में मैंने प्राकृत छन्दकोपमें वैसे तो ग्रन्थकारने अपना उसे देखा, तो मुझे वह बहुत उपयोगी लगा। मैने म्पष्ट नाम नहीं दिया, पर इसकी टीका चन्द्रकीति- इन दस गाथाओं पर हिन्दी में अपनी उस समयकी सूरि-विरचित हमारे संग्रहमें व अन्य भण्डारों में बुद्धिके अनुसार २६ पृष्ठों में विवेचन लिखा और प्राप्त है, उमक अनुमार यह नागपुरीय तपागच्छके विधवाओके कर्नव्य-संबंधी अपने स्वतंत्र विचार देकर रत्नशेम्बर सूरि-द्वारा रचित है। टीकाक मंगला- ६८ पृष्ठोंकी एक पुस्निका अपनी अभय जन ग्रन्थचरणके दृमरे श्लोकमें और मूलग्रंथके अन्तिम मालासे विधवा-कनेव्यके नामसे प्रकाशित की। श्लोककी टीकामें इमका स्पष्ट निर्देश है- अन्य-लेखनके रूपमें मेरी यह सर्वप्रथम रचना
थी। इस तरह विधवाशील-संरक्षणोपाय रचना भी छंदकोषाभिधानस्य सूरिश्रीरत्नशेखरैः। कृतस्य क्रियते टीका बोधनायाल्पमेधसाम् ॥२॥
गुजराती व हिन्दी अनुवाद व विवेचन के साथ
अट्ठाईस-तीस वर्ष पहिले ही प्रकाशित हो चुकी है। टी.. इति पूर्वोक्तप्रकारेण छन्दसा कतिपय- पिगल-चतुरशीति-रूपककी 'अनृप संस्कृत लायब्ररी नामानि कतिचिदभिधानानि सुप्रसिद्धानि जनविदि- व अन्य संग्रहालयों में कई प्रतियाँ प्राप्त है।
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साहित्य परिचय और समालोचन
१ जैन साहित्य और इतिहास-लेखक पं. नाथूरामजी इस लेख संग्रह में जहां लेखोंका संशोधन परिवर्द्धन प्रेमी, प्रकाशक यशोधर मोदी, विद्याधर मोदी, व्यवस्थापक कर सुरुचि पूर्ण बनाया गया है वहां अन्य नवीन लेखोंका संशोधित साहित्यमाला ठाकुर द्वार बम्बई २। पृष्ठ संख्या संकलन भी परिशिष्टके रूपमें दे दिया गया है। जिनमें से १३. मूल्य सजिल्द पतिका )रु.।
प्रथम लेखमें तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थ भाष्यको इस ग्रन्थमें जैन साहित्य और इतिहासका परिचय उमास्वातिकी स्वोपज्ञ कृति बतलाते हुए उन्हें यापनीय संघका कराया गया है। जिनमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ताक विद्वान सूचित किया गया है। जो विचारणीय है। इस परिचयके साथ तीर्थ क्षेत्रोंका भी ऐतिहासिक परिचय दिया तरह उक्त संस्करण अपनी विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण गया है। श्रद्धय प्रेमीजी जैन समाजके ही नहीं किन्तु हिन्दी
हो गया है। इसके जिए प्रेमीजी धन्यवादके पात्र हैं। मेरी साहित्य-संसारके सुयोग्य लेखक और प्रकाशक हैं। आपने
हार्दिक कामना है कि वे शतवर्ष जीवी हों। ग्रन्थकी पाई अपने जीवन में साहित्यकी बहमूल्य सेवा की है जो चिरस्मर चित्ताकर्षक है । पाटकोंको इसे मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। बीय रहेगी। पाप समाजके उन व्यक्रियों में से हैं, जिन्होंने २ जनशासनका मर्म-लेखक पं. सुमेरचन्द्रजी समाजको चेतना दी और उसके विकास के लिए क्रान्तिको दिवाकर, बी. ए. एल. एल. बी०, प्रकाशक-शान्तिजन्म दिया। प्राजके प्रायः जैन विद्वानोंके श्राप मार्गदर्शक प्रकाशन, सिवनी (म.प्र.) पृष्ठसंख्या १०४ । हैं। आपने अपनी इस वृद्ध अवस्थामें भी अनवरत परिश्रम
प्रस्तुत पुस्तकमें लेखकके पांच लेखोंका संग्रह है। करके उन अन्यको पुनः व्यवस्थितकर प्रकाशित किया है। .
, शान्तिकी खोज २ धर्म और उसकी आवश्यकता यह संस्काण प्रथम संस्करणका ही संशोधित, परिवर्द्धित .
३ विश्वनिर्माता ४ विश्वविचार ५ और अहिंसा । आप एक और परिवर्तित रूप है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह
अच्छे वक्ता और सुलेखक हैं तथा समाजक निस्वार्थ-संवक। है कि इसमें अनावश्यक विस्तारको स्थान नहीं दिया गया,
पुस्तक गत सभी लेख पठनीय और मननीय हैं। लेखोंकी किन्तु उसके स्थान पर अन्य अनेक सामग्री यत्र-तत्र
भाषा सरल और मुहावरेदार है। इसके लिये लेखक महानुसंमिविष्ट कर दी गई है। लेखोंका चयन और संशोधन करते हुए प्रेमीजी ने इस बातका खास ध्यान रखा मालूम
भाव धन्यवादके पात्र हैं। होता है कि लेखों में चर्चित विषय स्पष्ट और संक्षिप्त हो
३-अगश्रा और वनपशेका फूल-मूल लेखक किन्तु व्यर्थकी कलेवर वृद्धि न हो। वे इसमें कहां तक
खलीफ जिब्रान । अनुवादक बाबू माई दयाल जैन । सफल हुप हैं इसका पाठक स्वयं निर्णय करेंगे। परन्तु
प्रकाशक सुबुद्धिनाथ जैन, राजहंस प्रकाशन सदर बाजार इससे प्रस्तुत सस्करणकी उपयोगिता बढ़ गई है। हां,
दिल्ली ६, पृष्ठसंख्या :६८ मूल्य ३) रुपया। लेखोंका संशोधन करते हुए प्रेमीजी ने अपनी मान्यता यह पुस्तक सीरियाके प्रसिद्ध लेखक और विद्वान विषयक पिछली बातोंको ज्यों का त्यों ही रहने दिया है। खलील जिब्रानकी ४४ कहानियाँका हिन्दी संस्करण है। जब कि उन मान्यताओंके प्रतिकूल कितनी ही प्रामाणिक जिसके अनुवादक बाबू, माईदयालजी जैन बी. ए. बी. सामग्री और युक्तियां प्रकाशमें लाई जा चुकी हैं जिन पर टी० हैं। कहानियां सुन्दर और चित्ताकर्षक हैं, अनुवादकी प्रेमीजीको विचार करना जरूरी था। किन्तु आपने उनकी भाषा सरल और मुहावरेदार है और उसे पढ़ते हुए मूल उपेक्षा कर दी है, जिससे पाठकोंको भ्रम या गलतफहमी जैसा ही आनन्द आता है। पुस्तकका कलेवर देखते हुए हो सकती है। यदि आप उन पर प्रामाणिक विचार मूल्य कुछ अधिक जान पड़ता है। इसके लिए अनुवादक उपस्थित करते तो वस्तुस्थितिका यथार्थ निर्णय कर और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। विवादास्पद उलझनें भी सुलझ जातीं।
-परमानन्द जैन
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
सिरि कट्ठसंघ माहुरहो गर्गाच्छ, पुग्वर-गण मुगिणवरबई विलछि । संजाय वोर जिगुस्कमेण, परिवाडिए जइवर णिहयएण । मिरि देव मणु तह विमलसेणु, नह धम्मसणु पुणु भावसणु। तहा पट्टि उवएणउ सहर्माकत्ति, प्रणवस्य भामय जए जासु कित्ति । तह विक वायउ मुरिण गुराकत्ति णामु, तव-एं जासु सराह खामु । तही णय बंधउ जकित्ति जाउ श्रायरिय गासिय दोसु-राउ । नणय बुद्धिा विरइयउ गंथु,
गावियह दाधिय-सुह-मग्ग-पंथु । (प्रनि आमेर और दहली पंचायती मंदिर शास्त्रभंडारसे, स. १६१२, सं. १६६।।
२२ हरिवंशपुराण ( भ. यश:कीर्ति ) रचनाकाल सं० १५०० आदिभागःपयडिय जयहमहो कुणयविहमहो भविय-कमल-परहपहो। पण विवि जिणयही मुणियापहो कह पयडाम हरिवंसहो।
जय विपह विसकिय विम पयाम, जय जिय-अजिय हय-कम्मपाप | जय मंभव भव-तरुवर-कुठार, जय अभिणंदण परिसेमिय कुणारि । जय मुमई मुमय पडिय-पय थ, जय पउमप्पह णामिय-कुतिन्थ । जय जय सुपाप हय-कम्मपाय, जय चंदवह ममि-भास-भाम। जय सुविहि सुविहि-पयडण-पवीण,
जय मीयल जिण वाणी-पवीण । प्रशस्ति का यह भाग प्रामेर प्रतिम नहीं है, प्रतिलेखकोंकी कृपासे टूट गया जान पड़ता है । किन्तु पंचायतो मंदिर दहला के शास्त्र-भंडारकी प्रतिमें मौजूद है, उसी पर से यहां दिया गया है।
जय संय-सेय किय-विगय-सेय, जय वासुपुज्ज भन-जनदि सेय । जय विमल विमल गुण-गण-महंत, जय संत दंत जिणवर अणंत । जय धम्म धम्म विस हरिय ताव, जय मंनि ममिय-संसार-भाव । जा कुथु सुरक्विय-सुहम-पाणि, जय अरिजिण चक्की मयल-णाणि । जय मल्लि णिहय-तिल्लोक-मल्ल, जय मुणिमुच्चय चूरिय-ति-सल्ल । जय णमि जिण विम-रह-चक्कणेमि, जय जहिय राय रायमइ णेमि । जय पाप असुर-रणम्महिय-माण,
जय वीर विहाखिय-णय-पमाण । घत्तापुणु विगय-सरीर गय-भवतीर तीस छह गुण सूरिवरा । उवज्झाय सुमाह हुय सिवलाहू पणविवि पयामि कह पवरा"
पुब्व पुराण अत्थु बह वित्थरु, काल-पहावे भवियह दुत्तरु । अयरवाल-कुल-कमल-दिणेसरु, दिउचंदु माहु भषिय-जण-मणहरु । नाम भज्ज बालुहिइ भणिज्जा, दाण गुणहिं लोप ह थुणिज्जइ । मच्च-सील-बाहरणहिं सोहिय, भारु मुगि वि कंचहि ण मोहिय । नाह पुत्त विरणाग क्यिाउ, दिउढाणामधेउ - हुजाण । तही उवरोहें मइ यहु पारदउ, णिमुणह भवियण-प्रत्य-विसुदउ । जामु मुम्नहं महार उ-विज्जइ, मग्गपवग्गहं सुह-संपज्जह । अइ महंतु पिक्ववि जणु मंकिड, ता हरिवंमु मइंमि प्रोहिकिड । मह-अत्य-संबंध-फुरंतउ, जिणमेण्हो मुनहो यह पयडिउ । तहु मीसु वि गुणभह वि मुणिंदु,
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अनेकान्त
[वणे १४
वाईहिं कुभदारण-मयंदु' । सज्जण-दुज्जय-भउ अवगरिणावि, ते णिय-णिय सहावनय दोरिणवि। कहुयउ-जिंबु महुरु इंगाली, अंबिलु बीयपूर-चिंचाली। सिंह सज्जण सुसहावें वच्छलु, दुज्जणु दुत्थु गहह कवियश बलु । खेउ दोसु सो मई मोकल्लिट, जह पिक्खा ता अच्छउ सलिखा।
अन्तिमभाग:
इहु हरिवंसु सत्थु मह प्रक्खिड, कुरुवंसहो समेत पड रक्खिड । पढमहि पडिउ वीर-जिर्णेदे, सेणियरायहो कुवलय-चंदें। गोयमेण पुणु किय सोहम्में, जंबूसामि विण्हु सयामें।
दिमित्त अवरज्जिय णा, गोबडणेण सु भयबाहें। एम परंपराए अणुलग्गड, आइरियहं मुहाउ भावग्गउ । सुणि संखेव सुतु अवहारिक, मुणि जसकित्ति महिहि विस्थारउ । पद्धडिया छंदें सुमणोहरु, भवियण-जण-मण-सवय-सुहंकह। करि वि पुण्णु भवियह वक्खाणित, दिदु मिच्छत मोह-अवमाणित। जो इउ चरिउ वि पाइ पढावइ, वक्खाणेप्पिणु भवियहं दावह । पुणु पुणु सहहेह समभावें, सो मुख्चा पुम्वक्किय-पावें। जो मायरह ति-सुद्धि करेलिया, सो सिउ लहह कम्म देप्पिनु । जोणु एम चित्तु णिसुणेसह सग्गु-मोक्खु सो सिग्घु खहेसह।
एउ पुराणु भषियहं प्रासासह, आयु-बुद्धि-बलु-रिद्धि पयासह । वइरिड मित्तत्तणु दरिसावइ, रज्जस्थित विरज्जु संपावइ । इट्ट समागमु लाइ सुहाइवि, देवदिति वह मच्छरु मुचिवि । गह साणुग्गह सयल पयहि, मिच्छाभाव खणद्ध तुहि । भावह सव्व जाहिं खम भावे, सुह-विलास परि होहि सदावें । पुत्त-कलित्तस्थियह सुपुत्तई, सन्गस्थियहं अणु हुज्जा। जो जं इच्छह सो तं पावइ, देसंतरि गउ णिय घरि श्रावइ । भवियण संबोहण णिमितें, एउ गथु किउ हिम्मल-चित्त ।
उ कवित्त कित्तहें धणलोहें, बउ कासुवरि पवयि मोहें । इंदउ रहिएउ हुउ संपुरणउ, रज्जे जलालखान कय उण्णउ । कम्मक्खय णिमित्तु हिरवेक्खें, विरहउ केवल धम्मह पक्खें। प्रत्थ-विरुदधु जं जि इह साहिउ, तं सुयदेवि खमड अवराहउ । यंदउ परवहणाय सपत्तउ, सहता उवणिय पय पालतउ। यंदउ जिणवर सासणु बहुगुणु, शंदड मुणिगणु तह साबय जणु । कानि कालि कालिविणि वरिसउ, गच्चड कामिणि गोमिणि विलसउ । पसरउ मंगल वजउ मद्दलु, यंदड दिउढासाहु गुणग्गलु । जावहि चंदु सूरु तारायशु, शंदड ताम गंथु रंजिय जणु । विक्कमरायहो ववगय कालई, महि इंदिय दुसुण्ण अंकालई । भादवि सिय एयारसि गुरुदिणे, हुड परिपुरबाड उमातहि इथे ।
यह पंकि भामेर प्रतिमें नहीं है, किन्तु पंचायती मंदिर देहली भंडारकी प्रतिमें पाई जाती है।
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किरण ७]
जनपथ प्रशस्तिसंग्रह
[२१३
सय चालीस संख स-माणहु,
गथ-पमाणु अणुट्ठई जाणहु । धत्ताहरिवंसु एहु मई वज्जरिउ हरिबलणेमहिं चरिउ विसिटिड। परिवाडिए कहिउ मुणीसरहं तं तिह भवियह सिटुड ॥
इह कट्टसंघे माहुरहं गच्छि, पुक्खरगणे मुणिवर-वह विलच्छि। संजाया वीर जिणुक्कमेण, परिवाडिय जइवर णिहयएण । सिरि देवसेणु तह विमलसेणु, मुणि धम्मसेणु तह भावसेणु। तहो पट्ट उवगए उ सहसकित्ति, प्रणवरय भमिय जए जासु कित्ति । तहो सीसु सिद्ध गुणकित्ति यामु, तव-ते जासु सरीरु खामु । तहो बंधउ जम मुणि सीसु राउ, पायरिय पणासिय दोसु-गउ । तहो पट्टय सिठ्ठउ मलयकित्ति, मलधारि मुणीसरु पयडिकित्ति । तहं अरणइं मातउ दिण्ण चाउ, पासीवालु विज्जय गयडु जाउ । इह जोयणिपुरु बहु पुर हंसारु, धण-धरण-सुवरण-बरेहि फारु । सरि-सर-वण-उववण-गिरि-विसाल, गंभीर परिह उत्तु गु सालु । जउणाणा तहो पासिहि वहंति, पर-णारि जत्थ कीडति एहति । जहिं घरि-घरि ईसर भूइ-जुत्त, घरि घरि णिय थिय-गोरीहि रत्त। श्रणवरउ जत्थ वहइ सुभिक्खु, णउ चोरु-मारि णड ईय-दुक्खु । जहि कालि कालि परिसंति मेह, णंदहिं हायर-जण जणिय-णेह । जहिं चेयाजउ उत्तुगु वंड, धय-रयण-स-घंटहिं णं करिंदु । जिण-पडिमा-मंडिउ विगय-मरण, कइलासु व उच्चड सेय-बएणु ।
तहिं जिणवर-मंदिर गयणादिरि, प्राइवि रिसि सुहमाहिं सावय-वय-पाखाहिं जिणु जयकारहिं साविय दाणु पयहि॥
जहि दूगर पंडिउ अह सुदक्खु, अणुदिणु परिपोसह धम्मु-पक्खु । तहि भयरवाल-वंसह पहाणु सिरि गमग-गोत्तणं सेय भाणु । जंसवें वेणज्जिय काम-वाणु, दिउचंद साहु किय पत्त-दाणु । भत्तारहो भत्तिय इटु पत्ति, बालुहिय याम य-विणय-जुत्ति। तहि गंदण चत्तारि वि महत, संघही दिउढा-डूमाहि जुत्त जो पढम गुणग्गलु पासराउ, शिव पिय तोसउही बद्धराउ । सुड चोचा जिण-सुय-भत्त साहु, पिय यम बीघाही बदगाहु । पुणु दिवचंद भज्जहिं गन्भहूड, गुण अग्गल देओ णाम बीड । देखो पिय परिहुव महुर-वाणि, मय-सच्च-सील-गुण-रयण खाणि । खूत णामें जिणमय विणीय, कीलंतहं सा शंदण पसूय । मोल्हणु लखमणु तहं गोइंद दक्खु, दाणेकचित्तु णं कप्परक्खु । देयो बीया भज्जा गुणंग, देदो गामें सम्वंग चंग। जिण-सासण वच्छल सुद्धभाव, जिण-पूर्व-दाण-रय-रिउ सहाव । गोइंद पिय पोल्ही गुण-महंतु, पिय-पाय-भक्षु जिणयासु-पुत्तु । दिउढा साहुर्हि पिय-अइ-विणीय, पूल्हाही सह सीलेय सीय । तह लाडो खामें अवर भञ्ज, संघहं विषयायर भइ सलज्ज । भत्तारहो भत्तिय विणयवंति, स्खें रह पिय व काय-कति ।
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०१५)
अनेकान्त
[ वर्ष १४
तहो पुत्त वीरदासुवि गुणंगु,
जो बारह भावण अणुचितह, पिय साधाही रूवं अणगु ।
अप्प-सरूव भिएणु तणु मण्णइ । तहो णंदणु णा उदयचंदु,
दिउढा जसमुरिण पत्थि पवित्तुवि, पिय-माय-कुमुयवणणाइ इंदु।
काराविउ हरिवंसु-चरितुवि । तुरियड एंदणु डूमामयत्तु
पत्तापाहुलही पिय करमसिंह बुनु ।
जामहिं णहु सायरु चंदु दिवायरु ता णंदउ दिरढा हु कुलु ।
में विण्हुहि चरियउ कुरु-वंसह सहियउ काराविउ हय-पाव मलु एयाहिं मजिक णंदणु तइयो,दिउचंद साहुदि कि यरिणज्जा।
इय हरिवंसपुराणं कुरुवंम-साहिट्टिए विबुह चित्ताणुदिउढाणामें सुद्धमणु सिहि सुदसणु इव जाणिज्जइ। रंजण-पिरिगुणकित्ति-मीसु मुणिजसकित्ति-विरइए साधुअरहंतुवि एकु जि ओझायइ,
दिउढा णामांकए णेमिणाह-जुहिटिर-भीमाज्जुण-णिब्वाणववहार सुद्धबउ भ वह।
गमण (तहा) गाकुल सहदेव सब्वट्ठसिद्धि-गमण-बण्ण्णो जो तियाल रयणत्तउ अंचइ,
णाम तेरहमो सग्गो समत्तो ॥ संधि १३ ॥ चट णियोय रुइ कहव । मुच्चइ ।
(लिपि सं. १६४४ पंचायती मंदिर दिल्डा शास्त्र भंडारसे) चउविह संघहं दाणु कयायरु,
२३-जिणरत्ति कहा (जिनरात्रिव्रत कथा) मंगल उत्तम सरण विगय-परु । जिणवरु थुइवि तिकालहि अंचइ,
भट्टारक यशःकीर्ति
आदिभाग :धणु ण गणेइ धम्म-धणु संचइ । जो परमेट्टि पंच बाराहइ,
पणविवि सिरिमनहो अहमय-जुनहो वीरहो नासिय-पावमलु | पंचवि इंदिय-विसयई साहइ ।
णिच्चल मण भन्वहं विलिय-गब्वहं अक्वमि फुहु जिणजो मिच्छत्त पंच अवगएणइ,
रत्ति फलु । पंचम गइ णिवासु मणि मण्णइ ।
परमेटिठ पंच पणविवि महंत, . जो अणुदिणु छक्कम्म णिवाहइ,
नइलोय णमिय भव-भय कयंत । दाण-पूय-गुरु-भत्तिहिं साहइ ।
जिण-वय-विणिग्गय टिब्बवाणि. जो छज्जीव-निकायहं रक्खइ,
पणमेवि सरासइ सहरवाणि । छह दब्यहं गुण-भाव णिरक्खइ ।
णिग्गंथ उहय-परिमुक्क-संग, सत्त-तच्च जो णिच्चाराहइ,
पणवेवि मुणीसर जिय-अणंग। सत्त-वसण दूरेण पमायह।
पणविवि णियगुरु पयडिय-पहार, सत्तवि दायारह गुणजुत्तउ,
फलु अक्खमि जिणरत्तिहि जहाउ । इह परसत्त भयह जो चत्तउ ।
अन्तिमभाग:अट्ठ मूलगुण जो परिपालइ,
गिमुणिवि गोयम भासिउ णिराउ, उत्तर गुण सयल वि संभालइ ।
वउ गहिउ झत्ति मणि करि विराउ । सहसण-अठंग-रयण-धरु,
जिणु वंदिवि तह गोयमु गणेसु, मज्ज-दोसु परिवज्जण-तप्परु ।
णिय णयरु पत्त संणिउ णरेसु । गव एव पयवि पयत्थई बुज्मइ,
दह-तिउण वरिसि विहारवि जिणेंदु, दह-विह धम्मग्गहण वि रुच्चा ।
पयडेवि धम्मु महियलि अणेंदु । एयारह पडिमउं जो पालइ,
पावापुर वर मज्झिहि जिणेसु, बारह धयई णिच्च उज्जालह ।
वेदिण सह उझिवि मुत्तिईसु ।
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किरण : जैनग्रन्थ-प्रशास्तसंग्रह
[२१५ चउसेमह कम्मह करि विणासु,
विरएवि चंदप्पहचरिउ चारु, संपत्ता सिद्ध-णिवाम-वासु ।
चिर चरिय कम्म दुक्खावहारु । देवाली अम्मावम अलेउ,
विहरंतें कोउगहल-वसेण, महो देउ बोहि दवाहिदेउ ।
परिहस्थिय वाएसरि रसेण । चउदव-णिकायहं अहमगुज्ज,
सिरि-अयरवाल-कुल-संभषेण, प्राइवि विरइय गिब्याण-गुज्ज ।
जणणी-वील्हा-गब्भुवेग | जिग णिमियउ जो वि करेइ भन्छु,
अणवस्य विणय-पणयारुहेण, पावइ मोक्षु संरिब-गच्छ ।
काणा बुह गोल्ह-तणुरुहेग ।
पयडिय तिहुश्रण-वई गुणभरण, घत्ता
मरिणय सुहि सुपणे 'सरिहरेण । जिण णिसिवउ फलु क्विउ गुणहं कित्ति मुणीसे ।
जउँणा-सरि सुर-णार हियय-हार, पिरिजसकित्ति मुणि कुवलयचंद जिणगण भत्तिविसंगेश
णं वार विलासिणि-पउर-हार : अमुणिय कव्वविसेम तह विज वीरगाह-अणुराएं ।
डिंडीर-डि-उप्परिय-मिल्ल, घिलत्तणेण रइयं तं मयलं भारही ग्वमनी ॥
कीलिर रहं गंथोम्बउ थपिल्ल । इति जिनरात्रिवत कथा (ग्रामेरशास्त्र भंडारसे)
सेवाल-जालोमावलिल्ल,
वुहयण-मण परिरंजण छइल्ल | ४२ रविनउ कहा (रवित्रत कथा)
भमरावलि-वेणी-वलय-लच्छि, भ० यराःकीनि
पप्फुल्ल-पोम-दल-दीहरच्छि। आदिभाग:
पवणाहय सन्निलावत्तरणाहि, श्रादि अंत जिणु बंदिवि सारद,
विणिहय-जणवय तणु-ताव-वाहि । धरेवि मणि गुरु निग्गय गपिग्गु ।
वणमय-गलमय-जल घुसिण लित्त, सुयणहं अणुसरवि पुच्छंन भचयगड पायगाह तहं रवि-बर
दर फुडिय-सिप्पिउ दसण-दिति। पभणमि मावयह, जामु करतहं लब्भइ संपइ पक्रा ।
वियसंत सरोरुह पवर-वत्त, अन्तिमभाग:
रयणायर-पवर-पियाणु रत्त । पामजिणेंद पसाएं दिवमहं सो कहइ,
विउलामल पुलिण णियब जामु,
उत्तिण्णी णयणहि दिदु तामु । पंडिय सुरजन पामहं भव्बउ वउ लवइ ।
हरियाणए दसे असंखगामे, जो इहु पढइ पढावह णिसुइ करणु दइ,
गामियिण जणिय अणवस्य कामे । सो जसकित्ति पसंसिवि पावइ परम गई ॥२०॥
पत्ता(दिल्ली पचायती मन्दिर शास्त्र भंडारके गुटकेस)
परचक्क-विहट्टणु सिरि-संघदृणु, जो सुरवडणा परिगणित। २५-पासणाह-चरित (पार्श्वनाथ चरित)
रिउ रुहिरावट्टणु विउलु पवणु, दिल्ली यामेण जि भबिड ॥२ (कवि श्रीधर) रचनाकाल सं०११ । आदिभाग
जहिं अमि-वर-तोडिय रिउ-कवालु, पूरिय भुप्रणासहो पाव-पणासहो
णग्णाहु पमिद्ध अणंगवालु। बिरुवम-गुण-मणि-गण-भरिउ ।
हिरदलु बटिठय हमारवीरु, तोडिय भवपासही पणवेवि पासहो
वंदियण-विंद-पवियएण-धीरु। पुणु पयाम तासु जि चरिउ ॥
दुज्जण-हियथावणि दलण-सीरु, दुरणय-धीरय-बिरसण-समीर ।
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२१६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
बल-भर-कंपाविय णायराउ,
पुणु बीयत विबुहाणंद-हेउ, माणिणि-यण-मण-संजणिय-राउ ।
गुरु भत्तिए संथुन अरुह-देउ । तहि कुल-गयणं गणेसिय पयंगु.
विणयाहरणालंकिय-सरोरु, सम्मत्त विहूसण भूसियंगु।
सोढल-णामेण सुबुद्धि धीरु। गुरुभत्ति णविय तेल्लोक-णाहु, दिउ अल्हण मेण साहु ।
पुण तिजउ णंदणु णयणाणंदणु जगे गट्टलु णामें भणिउं । तेण वि णिज्जिय चंदष्पहासु,
जिणमहणीसंकिउ पुण्णालंकिउ जसु बुहेहिं गुण गणु गणिउं ॥५ णिसुणेवि चरिउ चंदप्पहासु ।
जो सुंदर बोया इंदु जेम, अंपिउ सिरिहरु ते धरणत,
जण-वल्लहु दुल्लहु लोय तेम । कुलबुद्धि विहवमाण सिरियवंत ।
जो कुल-कमलायर-रायहंसु, प्रणवरउ भमई जगि जाहि कित्ति,
विहुणिय-चिर-विरइय-पाव-पसु । धवलती गिरि-सायर धरित्ति । सा पुणु हवेह सुकइत्तणेण,
तित्थयरु पयट्टावियउ जेण, वाएण सुएण सुकित्तणेण ।
पढमड को भणियई सरिसु तेण ।
जो देइ दाणु वदीयणाहं, जा अविरल धारहि जणमण हारहिं दिज्जइ धणु वंदीयणह।
विरएवि माणु सहरिस मणाह ।
पर-दोस-पयासण-विहि-विउत्तु, ता जीव पिरंतरि भुषणभंतरि भमई कित्ति सुदर जणहं ।।४
जो ति-रयण-रयणाहरण-जुत्तु । पुत्तेण विनच्छि-समिद्धएण,
जो दितु चउब्बिहु दागु भाई, णय-विणय सुसील-सिणिद्धएण ।
अहिणउ वंधू अवयरिउ णाई । कित्तणु विहाइ धरणियलि जाम,
जसु तणिय कित्ति गय दस दिमासु, सिसिरयर-सरिसु जसु ठाइ ताम |
जो दितु ण जाणइ सउ सहासु । सुकइत्ते पुणु जा सलिल-रासि,
जसु गुण-कित्तणु कइयण कुणंति, ससि-सूर मेरु-णक्ख त-रासि ।
अणवरउ वंदियण णिरु थुणंति । सुकहत्तु वि पसरह भवियणाहँ
जो गुण-दोसहं जाणई वियार, संसग्गे रंजिय जण-मणाहूँ।
जो परणारी-रह णिग्वियारु। इह जेजा या साहु प्रासि,
जो स्व विणिज्जिय-मार-वीरु, बह गिम्मलयर-गुण-रयण-रासि ।
पडिवरण-वयण-धुर-धरण धीरु । सिरि-प्रयरवाल-कुल कमल-मिसु, सुह-धम्म-कम्म-पवियएण-वित्तु ।
सोमहु उवरोहें शिय विरोहें णट्टलसह गुणोह-णिहि । मेमडिय शाम तहो जाय भज्ज, सीनाहरणालंकिय सलज्ज ।
दीसह जाएप्पिणु पणउ करेप्पिणु उप्पाइय भव्वयणदिहि ॥६ बंधव-जण-मणः-संजणिय-सोक्ख,
तं सुणिवि पयंपिउ सिरिहरेण, हंसीव उहय-सुविसुद्ध पक्ख ।
जिण-कव्व-करण-विहियायरेण । तहो पढम पुत्तु जण वयण राम,
सम्वउ जं जंपिउ पुरउ मज्नु, हुड पारक्खि तसजीव गामु ।
पइ सम्भावें बुह मह असभु । कामिणि-माणस-विहवण-काम,
परसंति पुत्थु विबुहहं विवक्ख । राहरु सम्वत्थ पसिन था।
बहु कवड-कूट-पोसिय सवक्तु ।
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किरण ७]
जैनप्रन्थ-प्रशस्विसंग्रह
[२१७
अमरिस धरणीधर सिर विलग्ग, पर मरूव तिक्ख मुह करणलग्ग। अमहिय परणर गुण गरुथ रिद्धि, दुब्वयण हणिय पर कज्ज सिद्धि । कयणा मा मोडण मन्य रिल्ल, भूमिउ डिभंगि णिदिय गुणिल्ल । को सक्कइ रजण ताहं चित्तु, सज्जण पयडिय सुअणन रित्तु । तहि लइ महु किं गमणेण भब्व, भन्बयण-बंधु परिहरिय-गव्व । तं सुणिवि भणई गुण-रयण-धामु, अल्हण णामेण मणोहिरामु । पउ भणि काइ पई अरुहभत्तु,
किं भुणहि ण णट्टलु भूरिसत्तु । पत्ता--जो धम्म-धुरधरु उरणय-कंधह सुअण-सहावालंकरिउ अणुदिणु णिच्चलमणु जसु बंधवयणु करह वयणु णेहावरित।
जो भब्वभाव पयडण समत्थु, ण कया वि जामु भापिउ णिरत्थु । णाइण्णइ वयणइं दुज्जणाई, सम्मागु करइ पर सज्जणाहं । मंमग्गु समीहइ उत्तमाह, जिणधम्म विहाणे णित्तमाह । णिक करइ गाछि सहुँ बुहयणहिं, सत्थान्थ-वियारण हिय-मणहिं। किं बहुणा तुझु समामिएण, अप्पर अप्पेण पमंमिएण। महु वयणु ण चालइ सो कयावि ज भणमि करइ लहु तं सयावि । नं गिसुणिवि मिरिहरु चलिड तेल्थु,
विठ्ठणट्टलु ठाई जेत्थु । तणवि तहो पायही विहउ माणु, सपणय तंबालासण ममाणु। जं पुत्व जम्मि पविरहउ किपि, इह विहिवसण परिणवइ तपि । खणु एक सिणेहें गलिउ जाम,
अल्हण णामेण पउत्तु ताम । पत्ता
भो णट्टल णिरुवम धरिय कुलाम
भरणमि किंपि पइं परम सुहि । पर समय परम्मुह अगणिय दुम्मह परियाणिय जिण समय विहि ।।८॥ कारावेवि माहेयहो णिकेड, पविइएणु पंच वरणं सुकेउ । पहं पुणु पट्ट पविरहय जेम, पासहा चरित जइ पुणवि तेम । विरयावहि ता संभवह सोक्खु, कालंतरेण पुणु कम्ममोक्तु । सिसिरयर विवे णिय जणण णाम, पहं होई चडाविड चंद-धामु । तुझ वि पसरह जय जसु रसंत, दस दिमहि सयल असहण इसंतु । तं णिसुणिवि गट्टलु भणइ साहु, सइवाली पिय यम तणाणाहु ॥ भणु खंड रसायणु सुह पयासु, रुरचहण कासु हयतणु पयासु । एत्थंतरि सिरिहरु वुत्त तेण, गट्टलु णामेण मगोहरेण। भो तहु महु पयडिय णेहभाउ, सुहुँ पर महु परियाणिय सहाउ । तुहुँ महु जस सरसीरुह सुभाणु, तुहुँ महु भावहि णं गुण-णिहाणु । पहं होतएण पासहो चरित्तु, प्रायएण मि पयहि पावरित । तं णिसुणिवि पिसुणि कविवरण, प्रणवरउ लद्ध-सरसइ-वरेण ।
धत्ता
रियमि गयगावे पविमल भावे तुह वयणें पासहा चरिउ । पर दुज्जण गियरहिं हयगुण पयरहिं घरु पुरु रायरायरु भरिउ । । ।
इय सिरिपामचरित्त' रइयं बुद्ध-सिरिहरेण गुणा-भरियं । अणुमरिणायं मरणोज्ज गहल-णामेण भग्वेण ॥१॥ विजयंत-विमाणामो सम्मादेवीइ चंदणो जायो । कणयप्पहुचविरुणं पामो संधी परिसमतो॥२॥ धिर
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२१८] अनेकान्त
[वर्ष १४ अन्तिमभाग:
अग्रोतकान्वय-नभोगण-पाणेंदुः, राहव माहुहें सम्मन-लाहु,
श्रीमाननेक-गुण-रंजित-नारु-चेताः॥२॥ मंभवड समिय मंमार-दाहु ।
ततोऽभवत्साढल नामधेयः सुतो द्वितीयो द्विषतामजेयः । सोढल नामहो सयल विधरित्ति
धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोतवृषेण मुग्धः ॥३ धवलंनि भमउ अणवरउ किति ॥
पश्चाद्बभूव शशिमंडल-भासमानः, तिरिण वि भाइय सम्मत्त जुत्त,
ग्यानः क्षिनीश्वरजनादपि लब्धमानः । जिणभणिय धम्म-विहि करण धुत्त ।
सद्दर्शनामृत-रसायन-पानपुष्टः महिमेरु जलहि ससि सृरु जाम,
श्रीनट्टलः शुभमना नपिनारिदुष्टः । सहुँ तणुरुहेहि संदतु ताम ।
तेनेदमुत्तमधिया प्रविचित्य चित्ते, चउविहु वित्त्याउ जिणिद संधु,
म्यानोपमं जलदशेपममारभृतं ।
श्रीपार्श्वनाथच रतं दुरितापनोदि, परममय खुवाइहिं दुलंघु ॥
मोक्षाय कारिमितेन मुद व्यलेखि ॥२॥ वित्थरउ मुयजसु भुअणि पिल्लि,
-प्रति भामेर भंडार सं० १९४७ तुदृउ तडित्ति संसार-वल्लि । विक्कम णरिद सुपसिद्ध कालि,
नोट-इसके बादमें पहलमाहक सम्बन्धमें १५-२० दिल्ली पट्टणि धण कण विसालि ।।
पंकियों और दी हुई है जिनका सम्बन्ध प्रशस्तिसे न होनेके
कारण यहां नहीं दी गई। मणवामि एयारह माहि, परिवाडिए वरिसहं परिगएहि ।
२६-वड़ढमाण कव्व (वर्धमानकाव्य) कसणठुमीहिं प्रागहणमामि,
--कवि हरिद र हरिश्चंद) रविवारि समाणि ट सिमिर भामि ॥
आदिभागमिरि पासणाह गिम्मलु चरितु,
परमप्पय भावणु मुह-गुगण पावगु णिहणिय-जम्म-जरा-मरण । सयलामल गुण रयणाह दित्त ।
सासय-सिरि-मुदरु पग्गय पुरंदरु रिसह विनि तिहुयण-सरगु पणवीस सयइ गथही पमाणु,
पणवेप्पिणु पुण धरहताणं दुकम्म-महारि-खयंताणं । जाणिज्जहिं पणवीसहि समारणु ।
वसुगुण-संजोय-समिद्वाणं सिद्धार्ग ति-जय-पसिद्धाणं ॥१॥ बत्ता
मुराणं सुद्ध चरित्ताणं वय-संजम भाविय चित्ताणं । जा चन्द दिवायर महिह रसायर ता बुहयहिं पढिजजउ । पर्याडय समग्गमस्यायाणं भव्ययणहो णिरुज्झायाणं ॥२॥ भवियहि भारिजउ गुणहिं थुणज्जाउ बरलेयहि लिहिजड ॥८ माहणं माहिय-मोवाणं सुविसुद्धज्माण- हि-दम्वाणं । इय पास र रइय बह-सिरिहरेण गणभरियं। सम्मत्त-णाण-मुचरित्ताणं स-निमुद्धपण वमि पवित्तागं ॥५॥ भणुमरिणायं मणुज्जं गट्टल-शामेण भब्वेण ॥
वसहाइसुगोत्तमाणं सु-गणाणं संजम धामाणं । पुन्व-भवंतर-कहणो पास-जिणिदस्स चारु-निव्वाणी । अवहारि व केवलवंताणं ......................nel जिण-पियर-दिक्ख-गहणो बारहमो संधी परिसम्मत्तो ॥ x x x x
संधि १२ अन्तिमभागःपासीदत्र पुरा प्रसन्न-बदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः,
जय देगहिदेव तिथंकर, सूत्र षादिगुणैरलंकृतमना दवे गुरौ भानिकः।
बड्ढमाण जिण मन्व-सुहंकर सर्वज्ञ कम कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो,
शिरुवम करणा रसायणु धरणउ, जेजाख्योऽखिखचन्द्रराचिरमलस्फूजयशोभूषितः ॥६॥
कव्व-रयणु कंडलु भउ पुण्ाउ | यस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाल्यो,
सो गांदड जो शियमणि मण्णइं, न्यायानमंदमतिरुस्मित-सर्व-दोषः।
वीर-चरितु वि [मणु] भायण्णाई।
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन १६मूल-अन्योंकी पचानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ
उद्धत दूसरे पोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए, डी. लिट् के प्राथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानो के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
जिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारोलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिस
युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांसे अलंकृत, सजिल्द । ... (४) स्वयम्भूम्तात्र-ममन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपार
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयांगका विश्लेषण करती हुई महस्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासं सुशोभित ।
... (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंक जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिमे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमानण्ड--पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुआ था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिलं अलवृत, सजिल्द। " ) (5) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... m) (e) शासनचतुमित्रशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वी शतान्दोकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-सहित । " (१०) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक अन्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
___जीक विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावनास युक्र, मजिल्द । (११) समाधितंत्र और इप्टोपदेश-श्रीपूज्यपादाचार्य की अध्यात्म-विषयक दो अनूठी कृतियां, ६० परमानन्द शास्त्रीके
हिन्दी अनुवाद और मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनास भूषित पजिल्द । (१२) जैनग्रन्थप्रशरि संग्रह-संस्कृत और प्राकृतक १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व
संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्दशास्त्री की इतिहास-पाहिन्य-विषयक परिचयात्मक प्रस्तावनास अलंकृत, सजिल्द ।
... ... (१३) अनित्यभावना-प्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासं युक्त । (१५, श्रवणबल्गाल और दक्षिणक अन्य जैनतीथ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन (१६) कसाय पाहुड सचूर्णी-हिन्दी अनुवाद सहित (वीरशामन संघ प्रकाशन)
... २०) (१७) जनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश महावीरका सर्वोदय तीर्थ), समन्तभद्र-विचार-दीपिकार),
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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Regd. No D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) वा० लालचन्दजी जैन सरावगी कलकत्ता
१.१) बा. शान्तिनाथजी १५००) बा. नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता
१०१) बा. निर्मलकुमारजी * २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता * २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमंच ,
१.१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन ,
१.१) बा० काशीनाथजी, २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी
१०१) बा. धनंजयकुमारजो * २५१) बा. रतनलालजी झांझरी 4२५१) वा० बल्देवदासजी जैन सरावगी .
१०१) बा. जीतमलजी जैन २५१) सेठ गजरानजी गंगवाल
१.१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २२५१) मेठ सुआलालजी जैन
१.१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, रांची २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी ,
१०१) ला. महावीरप्रसादर्जा ठेकेदार, देहली
१०१)ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देहली ५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री फतेहपुर जैन ममाज. कलकत्ता *•५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन ,
१०१) गुप्तसहायक, मदर बाजार, मगठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्रजी, एट। २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला मक्खनलाल मातीलालजी ठेकदार, दहली. २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा. फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फोराजाबाद १.१)ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर
२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार ५२५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांचो १०१)ला. बलवन्तमिहजा, हासी जि. हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०) मेठ जोखारामबैजनाथजी मरावगी, कलकत्ता *२११) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजा चाँद औषधालय,कानपुर सहायक
१०१) ला. प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली १०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवरे कारंजा १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी. देहली १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली। १०१) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
'वीर-सेवामन्दिर' बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१. दरियागंज, दिल्ली
प्रकाशक-परमानन्दजी मेन थास्ती वीर सेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली। मुद्रक-पवासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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मनपाता
मार्च १९५७
वर्ष १४
किरण ८
सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन .जयभगवान जैन एडवोकेट
परमानन्द शास्त्री
विषय-सूची 1. ऊर्जयन्तगिरि के प्राचीन पूज्य स्थान- (जुगलकिशोर मुक्तार] २. २. आमाके त्याज्य और प्राय दो रूप-
जैन गीता से] २५० ३. अतिचार रहस्य- (. हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री] २७ ५. सरकार द्वारा मांस-भक्षणका प्रचार-प० हीरालास सिद्धान्तशास्त्री] १२१ १. कविवर भगवतीदास
- (परमानन्द शास्त्री] २२० ६. जगतका संक्षिप्त परिचय- [प० अजित कुमार शास्त्री] १. .. विश्वशांतिका सुगम उपाय-पाप्मीयता [श्री अगरचन्द नाहटा) २१ 1. क्या भावईमान जैनधर्मके प्रवर्तक थे, परमानन्द शास्त्री] २२० 1. क्या मांस मनुष्य कास्वाभाविक पाहार है -[हीरालाल सि. २१५ १०. अहिंसा और हिंसा
खिक सिद्धिसाग] १. ११.भ. बुद्ध और मांसाहार- [हीराका सिद्धान्त शास्त्री) २ १२. पार्श्वनाथ बस्तिका शिखालेख- -परमानन्द शास्त्री] २१२ ३ जैनाप्रन्य प्रशस्ति संग्रह
वीर सेवा मन्दिर,देहनी
मूल्यः
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वीर-सेवा-मन्दिरको प्राप्त सहायता साधना और उनके दिव्य सन्देशोंको अपने जीवन में लाने
तथा उनका विश्व में प्रचार करने का प्रयत्न करना चाहिये। (गत किरण से आगे जो सहायता मय सदस्य फीस के प्राप्त हुई है, वह निम्न प्रकार है, उसके लिए
साथ ही उपयोगी साहित्यका वितरण जन-साधारणमें किया दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। श्राशा है
जाय । और भगवान महावीरकी पूजनके साथ उनकी पावन अन्य दानी महानुभाव भी साहित्य और इतिहास
वाणीले साक्षात् सम्बन्धित प्राचार्य पुंगव श्रीगुणधर रचित आदिके कार्य में अपना आर्थिक सहयोग प्रदान
श्री कसायपाहुडसुत्त' को, जो प्राचार्य यतिवृषभकी चूणि करेंगे।
और पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्रीके हिन्दी अनुवादके
साथ वीरशासन संघ कलकत्ता सेप्रकाशित हुआ है । मंगा. १००) ला. पारसदास जी जैन मालिक-जैन टैक्टर्स एन्ड
कर उसकी पूजा करें, और अपने सरस्वती भवनमें विराजभोटो स्वेअर पार्टस, क्वीन्म रोड, दिल्ली
मान करें । २०) रुपया भेजने पर बिना किसी पोस्टेजके एक २१) ला. जयचन्द जी जैन, वंसल इलेट्रिक स्टोर,
हजार पृष्ठोंसे भी अधिक बहुमूल्य सजिल्द प्रथ आपके दरीबाकलां, दिल्ला तथा ला• नेमीचन्दजी जैन
पास भेज दिया जायगा। के, विवाहोपलक्ष में,
मिलने का पता:२५) रा० सा. उलफतराय जी जैन सर्राफ, दिल्ली।
वीरसेवामन्दिर, २, दरियागंज, दिल्ली। १२) ला. महतावासह जी जैन जौहरी दिल्ली।
सूचना ४८८) अनेकान्तको प्राप्त सहायता
धर्मानन्द कौशाम्बीकी जिस 'महात्मा बुद्ध' नामको
पुस्तकके वें प्रकरणके सम्बन्धमें मांसाहारको लेकर जैव ११) खा. सूरजमल कुन्दनमल जी जैन के सुपुत्र ला. सांवलदास मोरीमल जी की सुपुत्री के
समाजमें क्षोभ चल रहा था, उसके सम्बन्धमें अकादमीकी विवाहोपलक्ष में, अनेकान्त की सहायतार्थ ।
मीटिगमें उसके विषयमें एक नोट लगानेकी योजना स्वीकृत ५) श्री चन्दनारायण जी जैन, गवर्नमेंट कन्ट्रक्टर
हो गई है। और अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद भी प्रकाने अपनी पुत्री शिरोमणि जैन प्रभाकर के विवाहोप- शित नहीं किये जायेंगे। -- लक्ष में।
दुखद वियोग -मंत्री. वीर सेवामन्दिर पाठकों को यह जान कर दुख होगा कि जैन समाज शुभ समाचार
के प्रसिद्ध सेठ छदामीलाल जी फिरोजाबाद की धर्मपत्नी
सेठानी श्रीमती शरवती देवी का ता. ७ मार्च सन् १९५७ पाठकों यह जान कर हर्ष होगा कि जैन समाज के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार
गुरुवार के दिन सहसा हृदयकी गति रुक जाने से स्वर्गवास की बाई आंख का आपरेशन डा. मोहनलाल जी अली
हो गया है। प्राप भी अपने पति के समान ही धार्मिक
कार्यों में सहयोग देती थीं। आपके इस वियोगसे सेठ जीगढ़ द्वारा सानन्द सम्पन्न हो गया है। आज कल मुख्तार सा० अपने भतीजे डा. श्री चन्दजी जैन 'संगल' एटा के
के जीवनको बड़ा आघात पहुंचा है। काल की कुटिल गति
के प्रागे किसी की नहीं चलती है। आपके इस इष्ट वियोग पास ठहरे हैं। डा. साहब उनकी परिचर्या में सानन्द संलग्न हैं। और अप्रेल के प्रारम्भ में मुख्तार साहब की
जन्य दुख में वीरसेवामन्दिर परिवार अपनी समवेदना दिल्ली भाने की प्राशा है।
व्यक्त करता हुभा श्री जिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना करता है कि
दिवंगत आत्माको परलोक में सुख-शान्ति की प्राप्ति हो और महावीर जयन्ती
सेठ जी तथा बाबू विमलप्रसाद जी और अन्य कुटुम्बी गत वर्षोंकी भांति इस वर्ष महावीर जयन्ती चैत्र जनों को दुःख सहने की क्षमता प्रात हो। शुक्ला त्रयोदशी ता.१२ अप्रैल सन् १९५७ गुरुवारके दिन
शोकाकुल-वीरसंवा मन्दिर परिवार अवतरित हुई है। अतः हमें उस दिन भगवान महावीरकी
कुल १०४)
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...
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ॐ अहम
ततत्व-सघात
कोपाक
श्वतत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य १)
एक किरण का मूल्य 1)
HIREHEIRRBHBHI
नीतिक्रोिषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनकगर्जयत्यनेकान्त।
वर्ष १४ वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली
मार्च ५७ किरण,
चैत्र, वीरनिर्वाण-संवत २४८३, विक्रम संवन २०१३ ऊर्जयन्त गिरिके प्राचीन पूज्य स्थान अजमेर शास्त्र-भण्डारके एक जीर्ण-शीर्ण गुटकेसे निम्न पद्य प्राप्त हुआ है, जिसमें उर्जयन्त गिरिकी कुछ विशेषताओंका उल्लेख है। इससे ऊर्जयन्तगिरिके इतिहाम पर कितना ही प्रकाश पड़ता है :
श्रीपच्चन्द्रगुहां वराक्षरशिला घस्रावतारं सदा, अर्चे चारणपादुकां वनगुहे सर्वामरैरचिंते । भास्वल्लक्षणपंक्रिनितिपथं बिन्दु च धयां शिला,सम्यग्ज्ञानशिलां च नेमिनिलयं वन्दे सशृङ्गत्रयम् ॥
. इसमें यह बतलाया है कि 'मैं चन्द्रगुफाकी, वगक्षर (मुन्दर लेख-मण्डित) शिला की, नित्य केशर वर्षावाले परोवरको, मर्व देवोंसे पृजित वन-गुहा (महनार-वनान्तर्गत गुफा) में स्थित चारण-पादुकाकी, दैदीप्यमान लक्षण-ममूहले निर्वनि-पथको दिखानेवाली नेमि-जिन-प्रतिमाकी, बिन्दुकी, धर्म्यशिला (धर्मोपदेशशिला की, मम्यग्ज्ञान-शिला (केवलज्ञानोत्पत्ति-शिला) की और तीन शिम्बरोंवाले नेमिजिनालयकी पूजा-वन्दना करता हूँ।
जिन दश स्थानोंका इसमें उल्लेख है, वे सब ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार तीर्थ ) से सम्बन्ध रखते हैं और बहुत प्राचीन ऐतिहासिक स्थान हैं। चन्द्रगुहा वह चन्द्राकार गुफा है, जिसमें पहले श्रीधरसेनाचार्य जैसे महर्पियोंका भी निवास स्थान रहा है। 'भाम्वल्लक्षण-पंक्ति-
निति-पथं पदके द्वारा जिस नेमि-जिनकी प्रतिमाका उल्लेख किया गया है, यह वही पूर्वी टोककी प्रतिमा जान पड़ती है जिसके लिए विक्रमको दूसरी शताब्दीके विद्वान आचार्य स्वामी समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू-स्तोत्रमें 'तव लक्षणानि लिखितानि वत्रिणा वहतीति तीर्थ जैसे शब्दोंके द्वारा उल्लेख किया है। और साथ ही यह भी लिखा है कि आज भी चारों तरफसे ऋषिगरण प्रीति-भक्तिस पूरित हदयका लिए हुए इस नीर्थ पर सतत आते रहते हैं। इन स्थानोंमेंसे कितने ही स्थान कालके प्रभावसे आज नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं, कितने ही दुर्दशा-अस्त हैं और कुछ का पता भी नहीं हैं।
-जुगलकिशोर, युगवीर
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आत्माके त्याज्य और ग्राह्य दो रूप बहिरात्मा
अन्तरात्मा बहिरात्मेन्द्रिय द्वारैरात्मज्ञान-परान्मुखः।
मात्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्टवा देहादिकं बहिः। स्फुरितश्चात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥१॥
तयोरन्तरविज्ञानादन्तरात्मा भवत्ययम् ॥८॥ जो इन्द्रियों द्वारा वाह्य पदार्थोंको ग्रहण करता हुआ।
अन्तरङ्गमें ज्ञान-दर्शनमयी अपने श्रात्माको देख कर पात्मज्ञानसे परान्मुख रहता है और अपने देहको प्रारमरूप
और बहिरङ्गमें अचेतन, ज्ञान-शून्य शरीरादिकको देख कर से निश्चय करता है अर्थात् शरीरको ही प्रास्मा समझता है
स्व और परका भेद-विज्ञान होनेसे यह प्राणी अन्तरात्मा उसे बहिरारमा कहते हैं ॥१॥
बन जाता है ॥८॥ नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् ।
प्रजहाति च यःकामान् सर्वानपि मनोगतान् । तियेचं तिर्यगंगस्थं सुरांगस्थं सुरं तथा ॥२॥
श्रात्मन्येवात्मना तुष्टः सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥६ नारकं नारकांगस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा।
जो जीव अपने मनोगत सर्व मनोरथोंको सर्वथा त्याग तथापि मोहमाहाल्यावपरीत्यं प्रपद्यते ॥३॥
देता है और अपने प्रात्मामें ही स्वतः सन्तुष्ट रहता है, बहिरात्मा, मनुष्य-देहमें स्थित आरमाको मनुष्य,
वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥६॥ तिर्य-शरीरमें स्थित प्रात्माको तिर्य, देव-शरीरमें स्थित
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु यो गतस्पृहः ।। आत्माको देव और नारक-शरीरमें स्थित प्रास्माको नारकी
वातराग-भय-क्रोधः सोऽ-तरात्मा निगद्यते ॥१०॥
जो दुःखोंके आने पर घबड़ाता नहीं है और सुखोंके मानता है। यद्यपि तस्वदृष्टिसे प्रारमा उक प्रकार नहीं है,
मिलने पर जिसे हर्ष नहीं होता, प्रत्युत जो उनमें गतस्पृह तथापि मोहके माहात्म्यसे बहिरात्मा विपरीत मानता (इच्छा-रहित) रहता है, तथा जो राग, भय और क्रोधके
वशीभूत नहीं होता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥१०॥ तनु-जन्मनि स्वकं जन्म तनु-नाशे स्वकां मृतिम् । यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । मन्यमानो विमूढात्मा बहिरात्मा निगद्यते ॥४॥ नाभिनन्दति न दृष्टि सोऽन्तरात्मा निगद्यते ।।१।।
शरीरके जन्म होने पर अपना जन्म और शरीरके नाश जो सांसारिक बन्धुजनोंसे स्नेह-रहित हो गया है और होने पर अपना मरण मानने वाला मूढ जीव बहिरात्मा उन-उन शुभ अशुभ वस्तुओका पाक
उन-उन शुभ अशुभ वस्तुओंको पाकर न उनका अभिनन्दन कहलाता है॥४॥
करता है और न द्वेष ही करता है, वह अन्तरामा अहं दुःखी खो चाहं रिक्तो राजा सुधीः कुधीः ।
कहलाता है।॥११॥ इति सचिन्तयन् मूढो बहिरात्मा निगद्यते ॥५॥
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च केवलः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टः सोऽन्तरात्मा निगधत ॥१२॥ __ मैं सुखी हूँ, मैं दु.खी हूँ, मैं दरिद्र हूँ, मैं राजा हूँ,
जिसकी एकमात्र अपने प्रात्मामें प्रीति है, जो अपने मैं विद्वान् हूँ, मैं मूर्ख हूँ, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला
मात्मामें तृप्त है और अपने प्रात्मामें ही सन्तुष्ट है वह मूढ जीव 'बहिरास्मा' कहलाता है॥४॥
अन्तरात्मा कहलाता है ॥१२॥ सबलो निबंलश्चाई सुभगो दुर्भगस्तथा।
असक्तः लौकिक कार्य सततं यः समाचरेत्।। इति संचिन्तयन् मुढो बहिरात्मा निगद्यते ॥६॥
भासक्त आत्म-कार्येषु सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥१३॥ मैं बलवान् है, मैं निबल हूँ, मैं भाग्यवान् हूँ तथा मैं जो मनुष्य सतत आसक्रि-रहित होकर सर्व लौकिक अभागा है, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला मूठ जीव कायोंको करता है और आत्मिक कार्योमें सदा तत्पर रहता है बहिरास्मा कहलाता है।॥६॥
वह अन्तरात्मा कहलाता है॥१३॥ मम हयमिदं वित्तं सुत-दारादयो मम ।
प्रात्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो जनः। इति सचिन्तयन् मूढो बहिरात्मा निगद्यते ॥ सख वा यदि वा दुःखं सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥१४॥
यह मेरा मकान है, यह मेरा धन है, और ये मेरे पुत्र, जो मनुष्य समस्त प्राणियोंके सुख और दुःखको अपने स्त्री, प्रादि हैं, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला मूढ जीव सुख और दुःखके समान देखता है और सबको समान मानता बहिरास्मा कहलाता है। बहिरात्म-दशा त्याज्य है॥७॥ है वह अन्तरात्मा कहलाता है। यह दशा प्राय है ॥१४॥
(भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली जैन गीतासे)
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अतिचार-रहस्य
(श्री० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री) देव, गुरु, संघ, प्रात्मा आदिकी साशीपूर्वक प्रकारका रहता है । इन सब बाह्य कारणोंसे तथा जो हिंसादि पापोंका-बुरे कार्योंका-परित्याग किया संज्वलन और नो कषायोंके तीव्र उदयसे उसके जाता है. उसे व्रत कहते हैं। पापोंका यदि ब्रतोंमें कुछ न कुछ दोष लगता रहता है । अतएव एक देश या आंशिक त्याग किया जाता है, तो उसे व्रतकी अपेक्षा रखते हुए भी प्रमादादि तथा बाम अणुव्रत कहते हैं और यदि सर्व देश त्याग किया परिस्थिति-जनित कारणोंसे गृहीत व्रतोंमें दोष जाता है, तो उसे महानत कहते हैं। यतः पाप पांच लगनेका, व्रतके आंशिक रूपसे खण्डित होनेका हैं, अतः उनके त्यागरुप अणुव्रत और महाव्रत भी और गृहीत व्रतकी मर्यादाके उल्लंघनका नाम ही पांच-पांच ही होते हैं । इस व्यवस्थाके अनुसार शास्त्रकारोंने अतिचार रखा है । यथामहाव्रतोंके धारक मुनि और अणुव्रतोंके धारक सापेक्षस्य ते हिस्यादतिचारोंऽशभम्जनम् । श्रावक कहलाते हैं । पांचों अणुव्रत श्रावकके शेष
. सागारधर्मामृत अ०४ श्लोक १८) व्रतोंके, तथा पांचों महाव्रत मुनियों के शेष व्रतोंके जब अप्रत्याख्यानावरण कषायका तीव्र उदय मूल आधार हैं, अतएव उन्हें मूलव्रत या मूलगुणके आजाता है, तो व्रत जड़मूलसे ही खण्डित होजाता नामसे भी कहा गया है। मूलवतों या मूलगुणोंकी है। उसके लिए प्राचार्योने अनाचार ऐसे नामका रक्षाके लिए जो दूसरे व्रतादि धारण किये जाते हैं, प्रयोग किया है। यदि किसी व्रतके पूरे सौ अंक रखे उन्हें उत्तरगुण कहा जाता है । इस व्यवस्थाके जावें, तो एक से लेकर निन्यानवे अङ्क तकका व्रतअनुसार मूलमें श्रावकके पाँच मूलगुण और सात खण्डन अतिचारकी सीमाके भीतर पाता है । उत्तरगुण बताये गये हैं। उत्तर गुणांका कुछ आचार्यो- यदि शत-प्रतिशत व्रत खण्डित हो जावे, तो उसे ने 'शीलव्रत' संज्ञा भी दी है। श्रावक धमके विकासके अनाचार कहते हैं। अनेक आचार्योने इसी दृष्टिसाथ-साथ मूलगुणोंकी संख्या पाँचसे बढ़कर आठ को लक्ष्य में रख करके अतिचारोंकी व्याख्या की है। हो गई, अर्थात् पाँचों पापोंके त्यागक साथ मद्य, किन्तु कुछ प्राचार्योने अतिचार और अनाचार इन मांस और मधु इन तीनोंके सेवनका त्याग करनेको दोके स्थान पर अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और
आठ मूलगुण माना जाने लगा । कालान्तरमें अनाचार ऐसे चार विभाग किये हैं। उन्होंने मनके पाँच पापोंका स्थान पांच उदुम्बर-फलोंने ले लिया भीतर व्रत-सम्बन्धी शुद्धिकी हानिको अतिक्रम, व्रत
और एक नये प्रकारके आठ मूल गुण माने जाने की रक्षा करनेवाली शील-बाढ़के उल्लंघनको व्यतिलगे। तथा पाँच अणुव्रतोंकी गणना उत्तर गुरणोंमें क्रम, विषयों में प्रवृत्ति करनेको अतिचार और की जाने लगी और सातके स्थान पर बारह उत्तर विषयसेवनमें अति आसक्तिको अनाचार कहा है। गुण या उत्तर व्रत श्रावकोंके माने जाने लगे।
जैसा कि प्रा. अमितगतिने कहा हैमुनिजनोंके पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग नव- क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलंघनम् । कोटिसे अर्थात् मन, वचन, काय और कृत, कारित प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं बदन्त्यनाचारमिहातिसक्रिताम् ॥ अनमोदनासे होता है, अतएव उनके व्रतोंमें किसी इनके मतानुसार १ से लेकर ३३ अंश तकके प्रकारके अतिचारके लिए स्थान नहीं रहता । पर व्रत-भंगको अतिक्रम, ३४ से लेकर ६६ अंश तकके श्रावकोंके प्रथम तो सर्व पापोंका सर्वथा त्याग व्रत-भंगको व्यतिक्रम, ६७ से लेकर ६६ अंश तकके सम्भव नहीं। दूसरे हरएक व्यक्ति नवकोदिसे पापों- व्रत-भंगको अतिचार और शत-प्रतिशत व्रत-भंगको का त्याग भी नहीं कर सकता है। तीसरे प्रत्येक अनाचार समझना चाहिए। व्यक्तिके चारों ओरका वातावरण भी भिन्न-भिन्न परन्तु प्रायश्चित्त-शास्त्रोंके प्रणेताभोंने उक्त
गुण माने जर भातर व्रतवार विभाग
शुव्रतोंकी
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२२२]
अनेकान्त
[वर्ष १४
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चारके स्थान पर 'आभोग को बढ़ा करके पाँच अर्थात् सम्यग्दर्शन, पांच अणुव्रत, तीन गुणत्रत विभाग किये हैं। उनके मतसे एक वार व्रत खंडित और चार शिक्षाव्रत, इन तेरह व्रतोंमंसे प्रत्येक करके भी पुनः व्रतमें वापिस आ जानेका नाम ब्रतके अतिक्रम आदिक भेदसे पांच-पांच मल या अनाचार है और व्रत-खण्डित होने के बाद निःशंक अतिचार होते हैं। अतएव सर्व अतिचार (१३४५ होकर उत्कट अभिलापाके साथ विपय-सेवन करने- =६५)पैंसठ हो जाते हैं। का नाम श्राभोग है। किसी-किसी प्रायश्चित्तकारने इसके आगे सातवें श्लोकमें अतिक्रम, व्यतिक्रम अनाचारके स्थान पर छन्न भंग नाम दिया है। आदि पांचों भेदांका स्वरूप आदि दिया गया है
प्रायश्चित्त-शास्त्रकारोंके मतसे १ से लेकर २५ और तदनन्तर कहा गया है किअंश तकके व्रत-भंगको अतिक्रम, २५ से लेकर ५० त्रयोदश-व्रतेपु स्युर्मानस-शुद्धिहानितः । अंश तकके व्रत भंगको व्यतिक्रम, ५१ से लेकर ७५ प्रयोदशातिचारास्ते विनश्यन्त्यात्मनिन्दनात् ॥१०॥ अंश तकके व्रत भंगको अतिचार,७६ से लेकर ६६ त्रयोदश-व्रतानां स्वप्रतिपक्षाभिलाषिणाम् । अंश तकके व्रत-भंगको अनाचार और शत प्रतिशत प्रयोदशातिचारास्ते शुद्धयन्ति स्वान्तनिग्रहान् ॥११॥ व्रत-भंगको आभोग समझना चाहिए।
त्रयोदश-बतानां तु क्रियाऽऽलस्यं प्रकुर्वतः । एक विचारणीय प्रश्न
प्रयोदशातिचाराः स्युस्तत्त्यागान्निर्मलो गृही ॥१२॥ श्रावकके जो बारह व्रत बतलाये गये हैं, उनमें से
त्रयोदश-व्रतानां तु छन्न भंग वितन्वतः । प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचार वतलाये गये हैं, प्रयोदशातिचाराः स्युः शुद्धयन्त योगदण्डनात् ॥१३॥ जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र अ०७, सू०२४ से सिद्ध है- प्रयोदशवतानां तु साभोग-व्रतभंजनात् । ___ "व्रत-शीलेषु पंच पंच यथाक्रमम्।'
प्रयोदशातिचाराः स्युश्छन्न शुद्वयधिकानयात् ॥१४॥ ऐसी दशामें स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता अर्थात् उक्त तेरह व्रतां में मानस-शुद्धिकी हानिहै कि प्रत्यक व्रतके पांच-पांच ही अतिचार क्यों रूप व्यतिक्रमसे जो तेरह अतिचार लगते हैं, वे बतलाये गये हैं ? तत्त्वार्थसूत्रकी उपलब्ध समस्त अपनी निन्दा करनेसे दूर हो जाते हैं। तेरह वतोंदिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाग्रीके भीतर इस के स्व-प्रतिपक्षरूप विपयांकी अभिलापासे जो व्यतिप्रश्नका कोई उत्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। जिन- क्रम-जनित तेरह अतिचार लगते हैं, वे मनके जिन श्रावकाचारोंमें अतिचारोंका निरूपण किया निग्रह करनेमे शुद्ध हो जाते हैं । तेरह व्रतोंके आचगया है, उनमें तथा उनकी टीकाओं में भी इस रणरूप क्रिया में आलम्य करनेसे जो तेरह अतिचार प्रश्नका कोई समाधान नहीं मिलता। पर इस प्रश्न- उत्पन्न होते हैं. उनके त्यागसे गृहस्थ निर्मल अर्थात के समाधानका संकेत मिलता है प्रायश्चित्त-विपयक अतिचार-जनित दोपसे शुद्ध हो जाता है। तेरह ग्रन्थों में जहां पर कि अतिक्रम व्यतिक्रम, अति- वनोंके अनाचाररूप छन्न भंगको करनेसे जो तेरह चार, अनाचार और आभोगके रूपमें व्रत-भंगके अतिचार होते हैं. वे मन, वचन. कायरूप तीनों पांच प्रकार बतलाये गये हैं।
योगोंके निग्रह से शुद्ध हो जाते हैं। तेरह व्रतों के हालमें ही अजमेर-भण्डारसे जो 'जीतसार- आभोग-जनित व्रत-भंगस जो तेरह अतिचार उत्पन्न समुच्चय' नामक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है, उसके अन्त- होते हैं. वे प्रायश्चित्त-वर्णित नय-मार्गसे शुद्ध होते में 'हेमनाभ' नामका एक प्रकरण दिया गया है। हैं॥१०-१४|| इसके भीतर भरतके प्रश्नांका भ. वृपभदेवके द्वारा इस विवेचनसे सिद्ध है कि प्रत्येक व्रतके पांच उत्तर दिलाया गया है। वहां पर प्रस्तुत अतिचारों- पांच अतिचारोंमेंसे एक-एक अतिचार अतिक्रमकी चर्चा इस प्रकारसे दी हुई है
जनित है. एक-एक व्यतिक्रम-जनित है, एक-एक -बत-गुण-शिक्षाणां पञ्च पञ्चैकशा मला. । अतिचार-जनित है, एक-एक अनाचार-जनित है अतिक्रमादिभेदेन पवर्षाष्टपच सन्ततः ॥६॥ और एक-एक आभोग-जनित है। उक्त सन्दर्भसे
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किरण] अतिचार-रहस्य
[२२३ दूसरी बात यह भी सिद्ध हाती है कि प्रत्येक अति- है। जिस प्रकार अतिक्रमादिको बूढ़े बैलके ऊपर चारकी शुद्धिका प्रकार भी भिन्न-भिन्न है। इससे घटाया गया है, इसी प्रकार व्रतोंके ऊपर भी लगा यह निष्कर्ष निकला कि यतः व्रत भंगके प्रकार पांच लेना चाहिए। हैं, अतः तज्जनित दोष या अतिचार भी पांच ही इस विवेचनसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो हो सकते हैं।
जाती है कि अतिक्रमादि पाँच प्रकारके दोषांकी प्रायश्चित्तचलिकाकटीकाकारने भी उक्त प्रकारसे अपेक्षा ही प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचार बतही व्रत-सम्बन्धी दापोंके पांच-पांच भेद किये हैं- लाये गये हैं।
सर्वोऽपि व्रतदीप. पञ्चपष्ठिभेदो भवति । तद्यथा- श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाले जितने भी अतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारोऽभोग इति । ग्रन्थ हैं, उनमें मे व्रतोंके अतिचागेका वर्णन उपाएपामर्थश्चायमभिधीयते जरगवन्यायेन । यथा- सकाध्ययन और तत्वार्थसूत्र में ही सर्वप्रथम दृष्टि
कश्चिजरगवः गहासस्यसमृद्धि-सम्पन्न क्षेत्रं गोचर होता है। तथा श्रावकाचारांमसे सर्वप्रथम समवलोक्य तत्सीमसमीपप्रदेशे समवस्थितस्तत्प्रति रत्नकरण्ड श्रावकाचारमं अतिचारोंका वर्णन किया स्पृहां संविधते माऽनि कमः । पुनविवरांदगन्तरास्यं गया है। जब हम नत्त्वार्थसूत्र वणित अतिचागेका संप्रवेश्य ग्राममेकं ममाददामीभिलापकालुप्यमाय उपासकाध्ययन सूत्रसे जोकि आज एकमात्र श्वेताव्यतिक्रमः । पुनरपि तद्-वृत्तिसमुल्लंघनमस्याति- म्बरांक द्वारा ही मान्य हो रहा है-तुलना करते चारः। पुनरपि क्षेत्रमध्यमधिगम्य प्रासमकं समा- हैं, जो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि एकदाय पुनरस्यापमरणमनाचारः। भूयाऽपि निःशं- का दूसरे पर प्रभाव ही नहीं है, अपितु एकने दूसरेकितः क्षेत्रमध्यं प्रविश्य यथेष्टं संभक्षणं क्षेत्रप्रभुणा के आतचारोंका अपनो भाषामें अनुवाद किया है। प्रचण्डदण्डताडनखलीकारः आभोगकार आभाग यदि दनांके अतिचारोंमें कहीं अन्तर है, तो केवल इति । एव व्रतादिष्वपि योज्यम।
भोगोपभोग-परिमाणवतके अतिचारोंमें है। उपास(प्रायश्चित्त-चूलिका. श्लो० ५४६ टीका) काध्ययन-सूत्रमें इस व्रतके अनिचार दो प्रकारसे भावार्थ-प्रत्येक व्रतके दाप अतिक्रम, व्यति- बतलाये हैं-भोगतः और वर्मतः। भोगकी अपेक्षा क्रम, अतिचार, अनाचार और आभागके भदसे वे ही पाँच अतिचार बतलाये गये हैं, जोकि तत्त्वार्थपांच प्रकारके होते हैं। इन पांचांका अर्थ एक बूढ़े सूत्र में दिये गये हैं। कर्मकी अपेक्षा उपासकाध्ययनबैलके दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट किया जाता है। में पन्द्रह अतिचार कह गये हैं. जोकि खरकर्मके
जैसे कोई वढ़ा बैल धान्यसे हरे-भरे किमी नामसे प्रसिद्ध हैं, और सागारधर्मामृतके भीतर खतको देखकर उसके ममीप बैठा हुआ ही उसके जिनका उल्लेख किया गया है। खानकी मनमें इच्छा करे, यह अनिक्रम दोष है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि उपासकापनः बैठा बेठा ही बाढ़के किसो छिद्रसे भीतरको ध्ययनमें कमेकी अपेक्षा जा पन्द्रह अतिचार बतलाये मुंह डालकर एक ग्रास लनेको अभिलापा करे, यह गये हैं, उन्हें तत्त्वार्थसूत्र-कारने क्यों नहीं बतलाया? व्यतिक्रम दोप है। पुनः उठकर और खेतकी वाढको मेरी समझमे इसका कारण यह प्रतीत होता है कि तोड़कर भीतर घुसनेका प्रयत्न करना अतिचार तत्त्वार्थसूत्रकार "व्रत-शीलेपु पंच पंच यथाक्रमम्' नामका दोष है। पुनः खेतमें पहुँचकर एक पास इस प्रतिज्ञास बंधे हुए थे, इसलिए उन्होंने प्रत्येक घासको खाकर वापिस लौटना, यह अनाचार नाम- व्रतके पांच-पांच ही अतिचार बताये । पर उपासका दोष है । फिर भी निःशंकित होकर खेतके काध्ययन-कारने इस प्रकारकी कोई प्रतिज्ञा प्रतिभीतर घुसकर यथेच्छ घास खाना और खेतके चारोंके वर्णनके पूर्व नहीं की है, अतः वे पांचसे मालिकद्वारा डंडोंसे प्रबल आघात किये जाने पर अधिक भी अतिचारांके वर्णन करने के लिए स्वतंत्र भी घासका खाना न छोड़ना भोग नामका दोष रहे हैं।
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२२४ ] अनेकान्त
[वणे १४ तत्वार्थसत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार-वर्णित घटित होना आवश्यक है। रलकाण्डके का श्रा० अतिचारोंका जब तुलनात्मक दृष्टिसे मिलान करते समन्तभद्र जैसे तार्किक व्यक्तिके हृदय में उक्त बात हैं. तो कुछ व्रतोंके अतिचारोंमें एक खास भेद नजर खटकी और इसीलिए उन्होंने उक्त दोनों ही व्रतोंके आता है। उनमें से दो स्थल खास तौरसे उल्लेखनीय एक नये प्रकारके ही पांच-पांच अतिचारोंका निरूहै-एक परिग्रहपरिमाणव्रत और दूसरा भोगोप- पण किया, जोकि उपर्युक्त दोनों आपत्तियोंसे भोगपरिमाणव्रत । तत्त्वार्थसूत्रमें परिग्रहपरिमाण- रहित हैं। व्रतके जो अतिचार बताये गये हैं, उनसे पाँचकी यहाँ पर सम्यग्दर्शन, बारह व्रत और सल्लेएक निश्चित संख्याका अतिक्रमण हो जाता है। खनाके अतिचारोंका अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, तथा भोगोपभोगव्रतके जो अतिचार बताये गये हैं, अनाचार और आभोग इन पांच प्रकारके दोषोमें वे केवल भोग पर ही घटित होते हैं, उपभोग पर वर्गीकरण किया जाता है, जिसकी तालिका इस नहीं; जब कि व्रतके नामानुसार उनका दोनों पर प्रकार है
अतिचार-क्रम अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अनाचार आभोग सम्यग्दर्शन शंका
कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव १. अहिंसाव्रत छेदन बन्धन
पीडन
अतिभारारोपण आहार-वारण २. सत्याणुव्रत- परिवाद रहोऽभ्याख्यान पैशुन्य कूटलेखकरण न्यासापहार ३. अचौर्याणुव्रत चौरप्रयोग चौरार्थादान विलोप सशसन्मिश्र हीनाधिकविनि. ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत अन्यविवाहकरण अनंगक्रीड़ा विटत्व विपुलतृषा इत्वरिकागमन ५. परिग्रहपरि. अतिवाहन अतिसंग्रह विस्मय अतिलोभ अतिभार-वहन ६.दिव्रत व्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम तिर्यग्व्यतिक्रम क्षेत्रवृद्धि अवधिविस्मरण ७. देशव्रत रूपानुपात शब्दानुपात पुद्गलक्षेप आनयन प्रेष्यप्रयोग ८. अनर्थदण्डव्रत कन्दर्प कौत्कुच्य मौखर्य असमीक्ष्याधिक० अतिप्रसाधन ६. सामायिक मनोदुःप्रणिधान वचोदुःप्रणिधान कायदुःप्रणिधान अनादर अस्मरण १०.प्रोषधोपवास अष्टमृष्टग्रहण विसर्ग आस्तरण अनादर . अस्मरण ११. भोगोपभोग- विषयविषतोऽ- अनुस्मृति अतिलौल्य अतितृषा अति-अनुभव
परिमाण नुपेक्षा १२. अतिथिसंवि० हरितविधान हरित-निधान मात्सर्य अनादर अस्मरण सल्लेखना जीविताशंसा मरणाशंसा भय मित्रानुराग निदान
उक्त वर्गीकरण रत्नकरण्ड-वर्णित अतिचारोंको निश्चित किया हुआ न मान लेवें। किन्तु इस वर्गीसामने रखकर किया गया है, क्योंकि वे अतिचार करण पर खूब विचार करें और जिन्हें जो भी नया मुझे सबसे अधिक युक्तिसंगत प्रतीत हुए हैं। विचार उत्पन्न हो, वे उसे अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ
अन्तमें पाठकोंसे और खास तौर पर विद्वानोंसे भेजें, या व्यक्तिगत रूपसे मुझे लिखें । उनके यह नम्र निवेदन कर देना आवश्यक समझता हूँ कि विचारों और सुझााँका सादर स्वागत किया वे मेरे द्वारा किये गये वर्गीकरणको अन्तिम रूपसे जायगा।
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जिसमें मॉम-
नहीं, श्रमण जन सदा
सरकार-द्वारा मांस-भक्षणका प्रचार
(पं० हीरालाल सिद्धान्त-शास्त्री) 'अहिंसाके नामसे हिंसाका बाजार गर्म' शीर्षक लोक-परलोक और पुण्य-पाप कुछ नहीं मानते हैं, उनके एक लेख 'अहिंसा' पत्रके १ जनवरी ५७ के अंकमें कर कार्योंका अन्धानुसरण हमारी वह भारत सरकार कर प्रकाशित हुआ है, उसका निम्न अंश अति उपयोगी होनेसे रही। है, जिसका जन-जन आस्तिक एवं परलोकवादी है हम यहाँ उसे साभार दे रहे हैं। पाठक गण केवल उसे और पुण्य-पापको मानता है। जीवधात करने वालोंको पढ़कर ही न रह जावें, बल्कि वे पढ़कर दूसरोंको सुनावें ज्ञात होना चाहिए कि जिस प्रकार तुम्हें अपने प्राण प्यारे और अपने आस-पासका वातावरण दिन पर दिन बढ़ती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणीको भी अपने प्राण प्यारे हैं। हुई इस महाहिंसाके विरुद्ध बनाकर सरकारके इस कुकृत्यकी जिस प्रकार तुम्हें जरा-सा काय चुभने पर कष्ट होता है, भरपूर निन्दा करके नये कसाईखाने खोलने और मांस-भक्षण उसी प्रकार उन्हें भी कष्ट होता है, फिर तुम क्यों उन प्रचारको रोकनेके लिए अपनी पूर्ण शक्ति लगावें। दीन-हीन मूक प्राणियों पर छुरी चलाकर अपनी निर्दयता"जिस भारतमें २००० वर्ष पहले मांसकी एक भी दुकान
का परिचय देते हो! भ. महावीरने अपने प्राय उपदेशमें नहीं थी, उस भारतके इस नौ वर्ष के स्वतंत्रता-कालमें
यही कहा था
सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउंण मरिज्जि। मांसकी दुकानों, कसाईखानों और मांस-भक्षणको पर्याप्तसे
तम्हा पाणि-वहं घोरं समणा परिवज्जयंति एवं ।। भी अधिक प्रोत्साहन मिला है। अहिंसाका नारा लगानेवाली
-आचारांग सूत्र वर्तमान सरकारक खाद्य-विभागने अंग्रेजी भाषामें एक ऐसी
अर्थात्-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं पुस्तक प्रकाशित की है जिसमें मांस-भक्षणके पक्षमें अनेक युक्तियां देकर मांस-भक्षणको विषेय मार्ग ही नहीं,
चाहता, इसलिये प्राणियोंका घात करना घोर पाप है। किन्तु आवश्यक तथा उपयोगी वतलाया गया है। जब
श्रमण जन सदा ही उसका परित्याग करते हैं। कि विदेशोंमें मांसाहारकी प्रवृत्ति कम होती जाकर शाकाहार
जब भारतवासी लोक-परलोकके मानने वाले हैं, तो की प्रवृत्ति बढ़ती जारही है और संसारके बड़े-बड़े डाक्टर
उन्हें यह भी जानना चाहिये कि जिन प्राणियों पर तुम और विशेष मांसका श्राहार मानवीय प्रकृतिके विरुद्ध
छुरी चलाते हो वे प्राणी भी तुम्हारे पूर्व जन्मोंमें माता, बतलाते हैं। जिन बुराइयोंको विदेशी विवेकी लोग छोड़ते
पिता, भाई, पुत्र आदिके रूपमें सगे सम्बन्धी रह चुके हैं। जारहे हैं, खेद है कि भारतीय उन्हें ग्रहण करते जारहे हैं।"
फिर इस जन्मके सगे-सम्बन्धियोंकी भूख-शमन करनेके
लिये पूर्व जन्मके ही सगे-सम्बन्धियोंको मारकर खा जाना "यह और भी अधिक दुःखकी बात है कि जिस
चाहते हो, आश्चर्य नहीं, महान् आश्चर्य है तुम्हारी इस भारतके खाद्य-विभागसे मांस-भक्षणको प्रोत्साहन देने वाली
मात्साहन दन वाला अज्ञानता पर! यह पुस्तक निकली है, उसके सर्वेसर्वा मंत्री 'जैन महानु- इसके अतिरिक्त मांस खाने वाले मनुष्योंको यह भी भात्र हैं। जैनधर्ममें मांस-भक्षण तो क्या, मांस-स्पर्शको भी तो सोचना चाहिये कि यह मांस न बारिशसे बरसता है, घोर पाप और महान् अपराध माना गया है। भोजनके न जमीनसे उगता है, न वृक्षों पर फलता है, न पर्वतोंसे समय मांसका नाम लेना भी जहां अन्तरायका कारण बन मरता है और न अपने पाप ही उत्पन्न हो जाता है। यह जाता है, वहाँ मांस-भक्षणको प्रोत्साहन दिया जाना बहत तो प्राणियोंके मारने पर ही उत्पन्न होता है। जैसा कि ही लज्जाजनक बात है।"
हमारे महर्षियोंने कहा हैमांस-भक्षणको प्रोत्साहन देने वाली सरकारको यह पर्जन्यः पिशितं प्रवर्षति न तत्प्रोद्भिद्यते ज्ञात होना चाहिये कि अन्नके अभाव में भूखों मरने वालोंकी वृक्षाः मांसफला भवन्ति न, न तत्प्रस्यन्द भुखमरी मिटानेके लिये वह जिस दयालुता या कर्तव्य- सत्त्वानां विकृतिर्नचापि पिशितं प्रादुर्भवत्यन्यथा, तत्परतासे प्रेरित होकर कसाईखाने खुलवा रही है और हत्वा प्राणिन एव तद् भवति हि प्राज्ञैःसदा वर्जितम्। लोगोंको मुर्गी वा मछली पालनेके लिए सहायता दे देकर इसलिए प्राणियोंके घातसे उत्पमा होने वाले ऐसे जोर-शोरसे प्रचार कर रही है, वह उसका एकदम करता- हिंसा पापसे परिपूर्ण मांसको खाने वाला और उसका प्रचार पूर्ण नृशंस-कार्य है। जो पश्चिमी देश नास्तिकवादी है, करने वाला मनुष्य कैसे अहिंसक कहला सकता है। फिर
लोक-परलोकक
यो पर तुम
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२२६]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
अपनेको अहिंसक कहने बाली हमारी भारत सरकार इस सभा मनुष्य पापके भागी होते हैं, और इसीलिये मनु महाहिसा महापापका इस प्रकार खुला प्रचार कर रही है, महाराजन उन्हें कसाई बतलाया है। यह अत्यन्त दुःखकी बात है। धर्मपाण भारत के नेताओं इसलिए भारत सरकार जो दिन पर दिन नये कसाई. द्वारा इस महा हिंसाका तीव्र विरोध होना अत्यावश्यक है। खाने खुलवा रही है, और लोगों को मांस खानेके लिए मनुस्मृतिमें भी यही बात कही है:-
प्रोत्साहित एवं प्रेरित कर रही है, वह तो जीवहत्याके महानाकृत्वा प्राणिनां हिमां मांसमुत्पद्यते क्वचित्। पापकी भाजन है ही, पर उस सरकारका जो विरोध नहीं न च प्राणियः स्वग्यस्तस्मान्मांमं विवजयेत्॥ करतं. वे भी अनुमति-जनित दोषके भागी होते है। अर्थात् प्राणियोंकी हिंसा किये विना मांस पैदा नहीं
ना मार पदा नहीं भारतमें जब वैदिक धर्म का बोलबाला था और यज्ञोंमें होता, और न प्राणीका वध करना स्वर्ग देने वाला है, जो बलि दी जाती था. उस समय भी किसी शासकने इसलिए मांस नहीं खाना चाहिये।
मांस खाने का प्रचार नहीं किया और न कसाईखाने ही मांपको खानेवाले समते हांगे कि जालावरको मारने खलपाय अंग्रेगोके थानेस पूर्वका मारा भारतीय इतिहास
इ आदिका जावधानका पाप लगना दख जाइये, कहीं भी इस प्रकारका कोई बात नहीं मिलंगी। होगा, खाने पानेको क्या दाप हैपरन्तु उनक. यह स्वयं माय-मन्त्री होने का भी मुसनमानी बादशाहा भार समझ बिलकुल अज्ञानसं मरी हुई है इसका कारण यह अंग्रेज शासकों ने मांस-मण करनेका ऐसा खुला प्रचार नहीं है कि कसाई वर्गर जो भी जानवरका घात करते हैं, वे किया। प्रत्युत इस बात के अनेक प्रमाण मिलत है कि अनका उसे न्याने वालकि निमित्त ही मारते हैं। यदि खाने वाले राजानां और बादशाहोंने राजाज्ञाएँ और शाही फरमान लोग मांस खाना छोड़ देवें, तो कसाईखाना में प्रतिदिन निकाल करके प्राणघात न करनेकी घोषणा की है, जो जो लाखों प्राणी काट जाने हैं, उनका काटा जाना भी बन्द भी शिलालेग्यों एवं शासन-पत्रों के रूपम उपलब्ध है। हो जावे । शास्त्रकारांन ता यहां तक बतलाया है कि जो जामकलमे ही नाम-मण करने वाले अनेकां मुसलमानस्वय जीवधात न करके दूसरोंस कराता है, सावधात करने शासकोंने हमारे धर्म-गुरुयोंके सदुपदशसे स्वयं प्राजन्मक वालोंकी अनुमोदना, प्रशंसा और सराहना करता है, वह लिए मांस खानेका परित्याग किया है और अनेकों धाः भी जीवघात करने वालोंके सदृश ही पापी है। जिस प्रकार पों पर किसी भी जीव नहीं मारनेही 'अमारा' घोषणाएँ मांसका खानेवाला पापका भागी है, उसी प्रकार मांसका पकाने वाला, लानेवाला, परोसने वाला और बेचने वाला,
इन सबसे भी अधिक महान दुःखकी बात यह है भी पापका भागी होता है । बहुत बचपनमें हमने एक किजो शिक्षा विराग सदाचार और नैतिक नागरिकताभजनमें सुना था
प्रसारक लिए उत्तरदायी है, वह इस समय खूब दिल खोल 'हत्यारे आठ कमाई, महाराज मनु यतलाते करके मांस-भक्षाका भारी प्रचार कर रहा है और मांस
अर्थात् मनु महाराजने पाठ प्रकारके फसाई बतलाये भक्षणका उपयोगिता बनाकर धर्म-प्राण भारतीयोंकी गाढ़ी हैं। मनुस्मृ में बतलाये गये वे आठ कसाई इस प्रकार हैं
कमाईका अगष्य द्रव्य ग्वि मींच कर इस प्रकारके निकृष्ट अनुमन्ता विशसिता विहन्ता क्रय-विक्रयी।
कोटिके पुस्तक प्रकारानमें पानीकी तरह बहा रहा है। जिस संस्कर्ता चोपहर्ता च स्वादकश्च ति घातकाः ॥ भारतवर्ष में किसी माय दूध-दहीकी नदियां बहा करती थीं, अर्थात् -पशुधात करने या मांस म्यानेकी अनुमति जिय भारतमें विदेशी और म्लेच्छ कहे जाने वाले लोग भी
करन बाजा मांसक टुकड़े करने वाला, खानेके निमित्त मांस-उम्पादनके लिए पशुओंको घात कर मांसको बेचने वाला, मांमका स्वरीदने वाला, मांसका पकाने
खूनकी नालियां नहीं बहा सके, उस भारतमें आज उसीके वाला, मांसका परोसनेवाला और मांसका खाने वाला, ये और अपनेको अहिंसक कहने वाले शासकोंके द्वारा प्रतिदिन आठ प्रकारके कसाई होने हैं।
असंख्य मूक पशुओंको काट-काटकर खूनकी नदियां बहाई मनुस्मृतिके उक कथनसे स्पष्ट है कि मांस-भक्षण करने जारही हैं ॥ धर्मप्राण भारतके लिए इससे अधिक और वालेके समान उसका प्रचार, व्यापार और तैयार करने वाले दुःखकी क्या बात हो सकती है?
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कविवर भगवतीदास
(परमानन्द शास्त्री) जीवन-परिचय
प्रन्थ-भण्डारों में स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें उपलब्ध भी
होती हैं । उक्त विलासकी ये कविताएँ काव्य-कलाकविवर 'भैया' भगवतीदास आगराके निवासी . थे। आपकी जाति ओसवाल और गोत्र कटारिया ।
- की दृष्टिसे परिपूर्ण हैं, उनमें रीति, अलकार,
अनुप्रास और यमक यथेष्ट रूपमें विद्यमान हैं। था। आपके पितामहका नाम साह दशरथ था, जो अब उस समय आगराके प्रसिद्ध व्यापारियोंमेंसे एक थे
साथ ही अन्तर्लोपिका, बहिर्लापिका और चित्रबद्ध और जिन पर पुण्योदयसे लक्ष्मीकी बड़ी कृपा थी।
काव्योंकी रचना भी पाई जाती है। प्रस्तुत संग्रह में विशाल सम्पत्तिके स्वामी होने पर भी आप निर. यद्यपि सभी रचनाएँ अच्छी हैं, परन्तु उन सबमें भिमानी थे। उनके सुपुत्र अर्थात कविवरके पिता
__ 'चेतन कर्मचरित पंचेन्द्रिय सम्वाद, सूबाबत्तीसी, साहूलालजी भी अपने पिताके ही समान सयोग्य. मनबत्तीसी, वाईसपरीषहजय, वैराग्य पच्चीसिका, सदाचारी, धर्मात्मा और उदार सज्जन थे। स्वप्न बत्तीसी, परमात्मशतक, अष्टोत्तरी और
कविवर भगवतीदास १८वीं शताब्दीके प्रतिभा- आध्यात्मिकपद आदि रचनाएँ बड़ी ही चित्ताकर्षक सम्पन्न विद्वान और कवि थे । आप आध्यात्मिक
और शिक्षाप्रद हैं। ये अपने विषयको अनूठी रचनाएँ समयसादि ग्रन्थोंके बड़े ही रसिक थे । इनका
कविवर भक्तिरसके भी रसिक थे. इसीसे आपकी अधिक समय तो अध्यात्म ग्रन्थोंके पठन-पाठन तथा कितनी ही रचनाएँ भक्तिरससे ओत-प्रोत है। गृहस्थोचित षट्कर्मों के पालनमें व्यतीत होता था,
कवित्व और पद और शेष समयका सदुपयोग विद्वद्गोष्ठी, तस्वचर्चा कविकी कविता अनूठी है और वह केवल अपने एवं हिन्दीकी भावपूर्ण कविताओंके निर्माणमें होता विषयका ही परिचय नहीं कराती, किन्तु वह कविक था। आप प्राकृत, संस्कृत तथा हिन्दी भाषाके आन्तरिक रहस्यका भी उद्घाटन करती है । कविता अभ्यासी होनेके साथ-साथ उर्दू, फारसी, बंगला भावपूर्ण होने के साथ-साथ सरस, सरल और हृदयएवं गुजराती भाषाका भी अच्छा ज्ञान रखते थे,
। उसमें अध्यात्मरसकी पुट पाठकके अंतरइतना ही नहीं किन्तु उर्दू और गुजराती में अच्छी मानसमें अपना प्रभाव अंकित किये बिना नहीं कविता भी करते थे । आपकी कविताएँ सरल और रहती । कविवरको इन कविताओंका जब हम कबीर, सुबोध हैं और वे पढ़ने में बहुत ही रुचिकर मालूम दादूदयाल और सूरदास आदि कवियोंकी कविताओं होती हैं। उनकी भाषा प्राञ्जल, अर्थबोधक एवं के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तब उस भाषा साहित्यकी प्रौढ़ताको लिये हुए है। उसमें समय एक दूसरेकी कवितामें कितना ही भाव-साम्य लोगोंको प्रभावित करनेकी शक्ति है और साथ ही पाते हैं। और इस बातका सहज ही पता चल
आत्मकल्याणकी प्रशस्त पुट लगी हुई है । कविका जाता है कि कविवरकी कविता कितनी अनुभूतिपूर्ण विशुद्ध हृदय विषय-वासनाके जजालसे जगतके
सस्स. आत्मप्रभावोत्पादक एवं उद्बोधक है। और जीवांका उद्धार करनेकी पवित्र भावनासे ओत-प्रोत वह कविकी पवित्र आत्म-भावनाका प्रतीक है। है और उनमेंकी अधिकांश कविताएँ दूसरोंके उद्- कविताओंके कुछ पद्य यहाँ उदाहरणके तौर पर बोधन निमित्त लिखी गई हैं।
उधृत किये जाते हैं जिनसे पाठक कविके भावोंका आपकी एकमात्र कृति 'ब्रह्मविलास' है. यह सहज ही परिचय पा सकेंगे। कविवर 'अपनी शतभिन्न-भिन्न विषयों पर लिखी गई ६७ कविताओंका अष्टोत्तरी' नामक रचनामें पुण्य-पापकी महत्ताका एक सुन्दर संग्रह है। इसमें कितनी ही रचनाएँ तो वर्णन करते हुए कहते हैं:इतनी बड़ी हैं कि वे स्वयं एक एक स्वतन्त्र ग्रन्थके 'प्रीषममें धूप तपै तामें भूमि भारी अरे, रूपमें स्वीकार की जा सकती हैं, और वे कितने ही फूलता है पाक पुनिअति ही उमहिक।
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२२८] अनेकान्त
[वर्ष १४ वर्षाऋतु मेघ झरै तामें वृक्ष केई फरै, और विषय-भोग ये सब कर्मोंका भ्रमजाल है, जरत जवासा अब बापुही ते डहिकैं।
अनित्य और क्षण-विनाशी है। परन्तु मूढ़ मानव ऋतुको न दोष कोड पुन्य-पाप फलै दोङ, इनमें मग्न होकर इन्हींके संग्रहके लिये तरसता जैसे जैसे किये पूर्व तैसे रहें सहिके। हुआ मृत्युकी गोद में चला जाता है। केई जीव सुखी होंहि केई जीव दुखी होंहि,
इसी तरह ये निम्न पद्य भी शिक्षा-प्रद और देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नैकु रहिक ॥२४॥
यात्म-शंबोधनको लिये हुए हैगर्मीमें धूप तेज पड़ती है, उससे समस्त भूतल
"जीवन कितेक तापै सामा तू इतेक करे, जलता है परन्तु पाक वृक्ष (अकोला) बड़ी उमंगके
लक्षकोटि जोरि जोर नैकुन अघातु है। साथ फूलता है । वर्षाऋतुमें मेघ बरसता है जिससे
चाहतु धराको धन प्रान सब भरों गेह, चारों ओर हरियाली हो जाती है। अनेकों वृक्ष
यों न जाने जनम सिरानो मोहि जातु है । फलते-फूलते हैं परन्तु जवासेका पेड़ अपने आप
काल सम र जहाँ निश-दिन घेरो कर, ही जलकर गिर पड़ता है। हे भाई, इसमें ऋतुका
ताके बीच शशा जीव कोलौं ठहरातु है। कोई दोष नहीं है, किन्तु यह पुण्य पापका फल है
देखतु है नैननिसौं जग सब चल्यो जात, जिसने जैसे कर्म किये हैं उसे उसी तरहसे उनका
तऊ मूढ चेत नाहि लोभ ललचातु है ।। फल भोगना पड़ता है। कोई जीव पुण्यके कारण हे आत्मन् ! यह मानव जीवन कितनी अल्पसुखी, और कोई जीव पाप-वश दुःखी होते हैं। स्थितिको लिये हुए है फिर भी तू उस पर इतना अतः हे भाई ! तू पुण्य और पाप दोनोंसे अलग अभिमान कर रहा है । लाखों करोड़ोंकी सम्पदाको रहकर संसारका तमाशा देख । कविने इस कवित्तमें जोड़ता हुआ जरा भी नहीं अघाता-तेरी तृष्णा कितनी सुन्दर शिक्षा प्रदान की है।
बढती ही जाती है सन्तोष नहीं करता। तू चाहता कवि कहते हैं कि पुण्यके द्वारा प्राप्त हुए है कि पृथ्वीकी सारी धनराशि उठाकर अपना घर सांसारिक वैभवको देखकर अभिमान मत कर। भरलूँ, परन्तु तू यह नहीं समझता कि मेरा जीवन 'धूमनके धौरहर देख कहा गर्व करे,
ही समाप्त होने जारहा है। कालके समान कर बे तो छिनमाहि जाहि पौन परसत ही । दिन-रात जहाँ घेरा डाल रहे हैं, तब उनके मध्यमें संध्याके समान रंग देखत ही होय भग,
स्थित खर गोश कबतक अपनी खैर मना सकता है ? दीपक पवन जैसे काल-गरसत ही । तू अपने नेत्रोंसे जगतके सब जीवोंको परलोकमें सुपनेमें भूप जैसे इन्द्र-धनु रूप जैसे, जाते हुए देख रहा है, तो भी यह मूढ जीव अपनी प्रोस बूंद धूह जैसे दुरै दरसत ही । ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता और न जागएसोई भरम सब कर्मजान वर्गणाको, रूक होता, लोभके फन्देमें फँसा हुआ ललचा रहाहै। तामें मूढ़ मग्न होय मरै तरसत ही ॥
और भी कवि कहते हैं कि-हे भाई तू पुदगलइस पद्यमें बतलाया गया है कि हे आत्मन् ! तू की संगति में अपने भरमको मत भूल, ज्ञानके सहइन धुएँ के मकानोंको देखकर क्यों व्यर्थ गर्व करता योगसे तू अपना काम सम्हाल, अपने दृष्टि (दर्शन) है,ये तो हवाके लगते ही एक क्षणमें नष्ट हो जायेंगे। गुणको ग्रहण कर । और निजपदमें स्थिर हो शुद्ध सन्ध्याके रंगके समान देखते-देखते ही छिन्न-भिन्न आत्म-रसका पानकर, चार प्रकारका दान दे, तू हो जावेंगे। जैसे दीपक पर पड़ते ही पतंग कालके शिव-खेतका वासी है और त्रिभुवनका राजा है, मुखमें चले जाते हैं. अथवा सपने में प्राप्त किया अतः हे भाई तू भरममें मत भूल । जैसा कि उनकी राज्य और इन्द्र-धनुषके विविध रूप ओसकी बूंदके निम्न कुंडलियासे प्रकट है:समान ही क्षणभरमें विनष्ट हो जाते हैं इसी तरह भैया भरम न भूलिये पुद्गल के परसंग । यह राज्य वैभव, धन दौलत, महल-मकान, यौवन अपनो काज सँवारिये, माय ज्ञानके संग ॥
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किरण कविवर भगवतीदास
[२२६ आय शानके संग, आप दर्शन गहि लीजे। ध्यान करने आदि वाक्योंके द्वारा अपनी आत्माको कीजे थिरताभाव, शुद्ध अनुभौ रस पोजे । हितमें लगानेकी स्वयं प्रेरणा की है। दीजे चडविधि दान, महो शिव खेत-बसैया ।
कविवरके पदोंमें भक्तिभावके साथ सिद्धान्त, तुम त्रिभुवनके राय, भरम जिन भूलहु भैया ॥ अध्यात्म, वैराग्य और नीतिकी गंभीर अभिव्यंजना इसी तरह कवि शरीरकी अस्थिरताका भान हुई है । पार्थिव सौन्दर्यकी लुभावनी चकाचौंधसे कराते हुए कहते हैं कि-हे आत्मन् !तू इस शरीर- उन्मत्त हुए जीव जो आत्मरहस्यसे सर्वथा अपरिसे इतना स्नेह (राग) क्यों करता है, अन्तमें इसकी चित है, उन्हें सम्बोधित करते हुए ज्ञान-वैराग्य रूप कोई रक्षा न हो सकेगी। तू बार बार यह कहता है सुधामृतसे सिंचित और स्वानुभवसे उद्बोलित कविकि यह लक्ष्मी मेरी है, मेरी है, परन्तु कभी क्या वरका निम्न पद देखिये जिसमें वस्तु-स्थितिका सुन्दर वह किसीके स्थिर होकर रही है ? तू कुटम्बीजनोंसे चित्रण किया गया है । और बतलाया है कि इस इतना मोह क्यों कर रहा है, शायद उन्हें तू अपना परदेशी शरीरका क्या विश्वास ? जब मनमें आई, समझता है । पर वह तेरे नहीं हैं। वे सब स्वार्थके तब चल दिया । न सांझ गिनता है न सबेरा, दूर सगे हैं-साथी हैं। अतएव हे चेतन ! तू चतुर है देशको स्वयं ही चल देता है कोई रोकने वाला नहीं। चेत । संमारकी ये सभी दशा झूठी हैं। जैसा कि इससे कोई कितना ही प्रेम करे,आखिर यह अलग निम्न सवैयासे स्पष्ट है:
हो जाता है। धनमें मस्त होकर धर्म को भूल जाता काहे को देह से नेह करै तुब, अंतको राखी रहेगी न तेरी, है और मोहमें झूलता है । सच्चे सुखको छोड़कर मेरी है मेरी कहा करै लच्छिमीसौं, काहुकी है के कह रही नेरी। भ्रमकी शराब पीकर मतवाला हुआ अनन्तकालसे मान कहा रयो मोह कुटुम्बसौं, स्वारथके रस लागे सगेरी। घूम रहा है, हे भाई ! चेतन तू चेत, अपनेको संभाल। तात तू चेत विचक्षन चेतन, झूठी है रीति सबै जगकेरी ॥१. इस पदका अन्तिम चरण तो मुमुक्षुके लिये अत्यन्त इस तरह कविने 'अष्टोत्तरीके उन पर शिक्षाप्रद है, जिसमें अपनेको श्राप द्वारा ही संभा
- अपनको भान कराने वाले आत्मज्ञानका मटा लनेका प्ररणा काग उपदेश दिया है। रचना बड़ी ही सरस और मनो
कहा परदेशी को पतियारो॥ मोहक है । कवि केवल हिन्दी भाषाके ही कवि नहीं मन माने तब चलै पंथको, सांझ गिनै न सकारो । थे। किन्तु वे उर्दू और गुजराती भाषामें भी अच्छी सबै कुटुम्ब छांदि इतही पुनि त्यागि चलै तन प्यारो ॥१ कविता रचनेमें सिद्ध हस्त थे। धार्मिक रचनाओं- दर दिशावर चल्लत प्रापही, कोड न राखन हारो। को छोड़कर शेष रचनाएँ भी सन्दर और उदय कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो॥२ ग्राही हैं। उन रचनाओं में से कविकी कुछ रचना- धनसौं रादि धरमसौं भूलत, मूलत मोह मझारो।
ओंका परिचय आगे दिया जारहा है, आशा है इह विधि काल अनंत गमायो, पायो नहिं भव-पारो॥ पाठक उससे कविके सम्बन्ध में विशेष जानकारी सांचे सुखसौं विमुख होत है, भ्रम-मदिरा-मतवारो। प्राप्त कर सकेंगे। कविवरने केवल पर उद्बोधक ही चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया' भापही आप संभारो॥४ रचना की हो, ऐसी बात नहीं है, किन्तु उन्होंने कविका मानस अध्यात्मकी छटासे उद्वेलित है, अपने अन्तमोनसको जागृत करनेके लिये कितने ही वह अपने हृदय-कुजमें आत्म कल्याणकी पावन स्थलों पर 'भैया' तू चेत जैसेवाक्योंका प्रयोग किया भावनासे प्रेरित हो, संसारके सम्बन्धों की अस्थिहै। यथा
रताका भान कराता है। आकाशमें घुमड़ने वाले 'निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभुको, जो टारै भव-भीरा रे।
बादलोंके समान क्षणभंगुर एवं उद्दाम वासनाओंका 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तार भव-नीरा रे ॥
सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपनेको पिछाननेका साथ ही अपनेको सचेत होने, वीतराग प्रभुका सुन्दर संकेत किया है, कवि कहता है-हे प्रात्मन् !
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२३०] अनेकान्त
[वष १४ तू अभिमानको छोड़ दे, तू कहाँ का निवासी है देख राजा रंक कोऊ, थिर नहीं यह थान ॥ और तेरे साथी कौन हैं ? सभी महिमान हैं, संसार जगत देखत तोरि चलवो, तू भी देखत भान । तुझे देखता है और तू अन्य को देख रहा है, घड़ी घरी पलकी खबर नाही, कहां होय विहान । पलकी कोई खबर नहीं है, कहाँ सबेरा होगा यह स्याग क्रोधरु लोभ माया, मोह मदिरा पान | कुछ नहीं ज्ञात होता । तू क्रोध, लोभ, मान, मायारूप राग-दोषहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान । मोह-मदिराके पानका परित्यागकर, दोषोंको दूर भयो सुर-पुर देव कबहूँ, कबहूँ नरक निदान । फैक और अज्ञान तथा अन्तरात्मासे राग-द्वषको । इम कर्मवश बहु नाच नाचे 'भैया' श्राप पिछान ॥ दूर करते हुए अपनेको पिछाननेका यत्न कर । इस तरह कविवरके सभी पद आत्म बोधक हैं, छांदि दे अभिमान जिय रे
उनमें भक्तिरसकी पुटके साथ अध्यात्मरसकी काको तू अरु कौन तेरे, सबही हैं महिमान | अच्छी अभिव्यंजना हुई है।
जगतका संक्षिप्त परिचय
(श्री० ५० अजितकुमार शास्त्री) यह जगत जिसमें कि विचित्र प्रकारके जड़-चेतन, चर- उस अधोलोकके सात विभाग हैं जिन्हें सात नरक कहते अचर, सूचम स्थूल, रश्य अदृश्य पदार्थ भरे हुए हैं, बहुत हैं। नीचे नीचेकी पोरके नरकोंका वातावरण ऊपर उपरके विशाल है, अकृत्रिम है, अनादि एवं अनिधन है। (प्रादि नरकोंकी अपेक्षा अधिक दुखपूर्ण एवं प्रशान्तिमय है । अतएव अन्त-शून्य है। जैनसिद्वान्तमें जगतका आकार बाहरकी उस क्षेत्रमें (अधोलोकमें) नियत समय तक रहने वाले ओर अपनी दोनों कौनियां निकाल कर, अपनी कमर पर जीवोंको महान् दुखोंको सहन करते हुए अपना जीवन दोनों हाथ रखे हुए तथा अपने दोनों पैर फैलाकर खड़े हुए बिताना पड़ता है। मनुष्यके समान बतलाया गया है। जगतके चारों ओर अधोलोकके ऊपर सात राजूकी ऊँचाई पर, यानी जगतके घनोदधि (नमीदार वायु) मोटी वायु और तदनन्तर पतली सी बीचमा ब लोळ माताm वायुका विशाल बेदा है, वायुके उन बेदोंको जैन ऋषियोंने
तरह गोल है, अत: जैन भूगोलके अनुसार पृथ्वी गेंदकी तीन वात-वलय संज्ञा से कहा है।
तरह गोल न होकर थालीकी तरह गोल है, यदि उस यह जगत १४ राजु (असंख्य योजन) ऊँचा है, उत्तरसे पृथ्वीकी परिक्रमा की जावे तो परिक्रमा करने वाला व्यक्ति दक्षिणकी ओर सब जगह सात राजु मोटा है, किन्तु पूर्वसे जहांसे चलेगा, चलते चलते अन्तमें फिर उसी स्थान पर पश्चिमकी ओर (खड़े हुए मनुष्यके आकारके समान होने या जावेगा, जहांसे कि वह चला था। विशाल भूभाग होनेके कारण) नीचे सात राजू फिर उपरकी मोर क्रमसे घटते हुए कारण एवं विषम वातावरण होनेसे प्रत्येक व्यक्ति परिक्रमा सात राजूकी उँचाई पर एक राजू चौड़ा रह गया है । उससे कर नहीं सकता, परन्तु यदि कोई दैवी शकिसे अपने संभव उपर उसका फैलाव फिर हुआ है और साढ़े तीन राजूकी क्षेत्रमें भ्रमण करना चाहे तो पूर्वसे पश्चिमको ओर या उँचाई पर वह पांच राजू का हो गया है। उसके पागे फिर पश्चिमसे पूर्वकी ओर चलते हुए अपने ही स्थान पर मा क्रमसे घटते हुए अन्तमें (चौवह राजू की उंचाई पर) केवल सकता है। एक राजू रह गया है। समस्त जगतका घनाकार क्षेत्रफल मध्यलोकके ठीक बीच में एक बहुत ऊँचा पर्वत है ३४३ राजू है।
जिसका नाम 'सुमेरु' है। मध्यलोककी ऊँचाई उसी पर्वतकी इस जगतके सात राजू वाले नीचे के विभाग को अधो- ऊँचाई तक मानी जाती है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे लोक कहते हैं, जहाँका वातावरण स्वभावसे हो हर तरह (ज्योतिष चक्र) इसी सुमेरु पर्वतकी सदा स्वभावसे प्रददुःखदायक है, अतः उसे 'नरका शब्दसे कहा जाता है। क्षिणा किया करते हैं। इसी कारण उनके प्रकाशके होने
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किरण ८]
जगतका संक्षिप्त परिचय
(२३१
तथा अस्त होनेके कारण दिन-रात हश्रा करते हैं। सूर्य शील मानकर गणित निकालते हैं। वे पृथ्वीको गेंदके चन्द्रका भ्रमण उत्तरायण ( उत्तरकी पोरकी परिक्रमा) आकारमें गोल मानते हैं । किन्तु यह मान्यता अभी तक तथा दक्षिणायन (दक्षिणकी ओर परिक्रमा के रूपमें विवादास्पद है। उनके विदेशी विद्वानोंने अपनी विभिन्न नियमित रूपसे होता है, इसी कारण गणितके अनुसार अकाव्य युक्रियोंसे इस मान्यताको गलत ठहराते हुये चुनौती ज्योतिष वेत्ता विद्वान चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहणका नियत समय दी है। अनेक यूरोपीय विद्वान् पृथ्वीको स्थिर और सूर्यको पहले ही जानकर बतला देते हैं।
गतिशील युक्तिपूर्वक बतलाते हैं । (विस्तारके भयसे हम पृथ्वीतलसे ७१० योजनकी ऊँचाई पर आकाशमें तारे यहां उन युक्तियोंको नहीं दे रहे हैं।) घूमते हैं, उनसे १० योजन ऊँचा सूर्य है, उससे ८० मध्यलोकसे उपर सुखमय वातावरण वाला ऊर्ध्वलोक योजनकी ऊँचाई पर चन्द्रमा है। फिर नक्षत्र, बुध, शुक्र, है जिसके अनेक अन्तर्विभाग है। उस सुखमय प्रदेशको बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर (शनीचर) हैं। ११. 'स्वर्ग' कहा जाता है। वहां पर एक नियत समय तक योजन मोटे प्राकाश-प्रदेशमें समस्त ज्योतिष-चक्र है। रहने वाले प्राणियोंको 'देव' नामसे कहा जाता है।
मध्यलोकमें असंख्य गोलाकार द्वीप और समुद्र हैं। सबसे ऊपरका क्षेत्र 'मोक्ष' स्थान कहा जाता है। हमारा निवास-क्षेत्र जम्बूद्वीपमें है, जो कि एक लाख योजन संसारी जीव कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर, सांसारिक आवालम्बा चौड़ा (गोल) है। हम जिस भरत-क्षेत्रमें रहते हैं, गमन (जन्म-मरण) से प्रतीत होकर उसी उपरिवर्ती वह जम्बूद्वीपका धनुष-पाकार बहुत छोटा अंश है। भरत स्थानमें पहुँच कर अनन्त कालके लिये (सदाके लिये) क्षेत्रके प्रार्यखण्डमें ये एशिया, अफ्रीका, यूरोप अमेरिका स्थिर (विराजमान )हो जाते हैं। और आष्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर, प्रशान्त, प्रतला- हमारा निवास मध्यलोकमें है। अपने उपार्जित कर्मके न्तक आदि समुद्र हैं। जम्बूद्वीपवर्ती ज्योतिष-चक्रमें दो अनुसार संसारी जीव विभिन (मनुष्य, पशु, देव, नरक, सूर्य दो चन्द्र हैं जो कि समानान्तर पर भ्रमण करते हैं। योनियों में जगतके विभिन्न क्षेत्रोंमें भ्रमण करता हुआ अपना आधुनिक विदेशी विद्वान सूर्यको स्थिर और पृथ्वीको गति- अच्छा बुरा कर्म-फल प्राप्त किया करते हैं।
विचार-कण आत्म विश्वास एक विशिष्ट गुण है । जिन मनुष्योंका आत्मामें विश्वास ही नहीं, वे मनुष्य धर्मके उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं।
मुझसे क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं असमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म विश्वासके अभावमें कदापि सफल नहीं हो सकते।
सती सीतामें यही वह प्रशस्तगुण (आत्मविश्वास) था जिसके प्रभावसे रावण जैसे पराक्रमीका सर्वस्व म्वाहा हो गया, सती द्रोपदीमें वह चिनगारी थी जिसने क्षण एकके लिए ज्वलन्त ज्वाला बनकर चीर खींचनेवाले दुःशासनके दुरभिमान-द्र.म (अभिमान विपबा सुन्दरीमें यही तेज था जिससे बञमयी फाटक फटाकसे खुल गया। सती कमलश्री और मीराबाई के पास यही विषहारी अमोध मंत्र था जिससे विष शरबत हो गया और फुफकारता हुआ भयंकर सर्प सुगन्धित सुमनहार वन गया।
अस्सी वर्षकी बुढ़िया आत्मबलसे धीरे धीरे पैदल चलकर दुर्गम तीर्थराजके दर्शनकर जो पुण्य संचित करती है वह आत्मविश्वास में अश्रद्धालु डोली पर चढ़कर यात्रा करने वालोंको कदापि सम्भव नहीं।
बड़े बड़े महत्त्व पूर्ण कार्य जिन पर संसार आश्चर्य करता है आत्मविश्वासके बिना नहीं हो सकते।
-वीवाणीसे
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विश्वशान्तिका सुगम उपाय-आत्मीयताका विस्तार
(श्री अगरचंद नाहटा) विश्व-शान्तिके लिए सभी लोग प्रयत्नशील और आत्मीयताका भाव गहरा प्रतीत होता है। मेरे अपने अनुइच्छुक हैं और उसके उपयुक वातावरण भी नजर आ रहा भवकी बात है । गौरीशंकरजी अोझा, पुरोहित हरिनारायणहै। इस समय सोचना यही है कि किस उपायसे काम जी आदिकी स्मृति होते ही उनकी प्रात्मीयताका रस्य सम्मुख लिया जाय | हर व्यक्तिक अपने-अपने विचार हैं। इस लेख- श्रा उपस्थित होता है। आदरणीय वयोवृद्ध भैरवदत्तजी में मैं अपना विचार संक्षेपमें रख रहा हूँ। मेरे मनकी श्रासोया व रावतमल जी बोयरा आज भी जब कभी मिलते संकुचित भावनाके कारण ही प्रधानतया संघर्ष होता है। हैं, हर्षसे गद्गद् हो जाते हैं। उनकी मुरझायी हृदयकली जैसा व्यवहार हम दूसरोंसे चाहते हैं वैमा व्यवहार दूसरोंके मानो खिज-सी जाती है। जिसकी अनुभूति उनके चेहरेसे साथ नहीं रखने, यही सबसे बड़ी कमी है।
व बोलीसे भलीभांति प्रकट हो जाती है । यद्यपि मेरा उनसे अहिंसा सिद्धान्त हमें प्राणिमात्रके साथ प्रेम व सद्- वैसा निकटवर्ती पारिवारिक सम्बन्ध नहीं है। अपने ४० भावनाके व्यवहार करनेका संदेश देता है। विश्वमें समस्त वर्ष तकके आयु वाले निकट सम्बन्धियोंमें भी मुझे वैसी प्राणी हमारी जैसी ही आत्माएँ हैं । इसलिए सबमें मैत्री भावना आत्मीयताके दर्शन नहीं होते। कई वृद्ध पुरुषोंको मैंने
और समान व्यवहार होना आवश्यक है और वह तभी हो देखा है उनमें प्रात्मीयताका भाव इतना गहरा होता है कि सकता है जब मेरेपनका संकुचित दायरा बढ़कर सबके साथ वे मिलते ही हर्षातिरेकसे प्रफुल्लित हो जाते हैं। अपने पनकी अनुभूति हो। जब सभी प्राणी अपने प्रात्मीय
प्राचीन काल में संयुक्त परिवारकी समाज-व्यवस्था के सदृश अनुभव होने लगते हैं तो एकका दुःख दूसरेका दुःख
इसलिए अधिक सफल हो सकी थी। आज तो सगे भाई भी बन जाता है और फिर किसीके साथ दुर्व्यवहार, हिंसा,
न्यारे-न्यारे हों तो उसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं, पर छल, ई-द्वेष होने का कोई कारण नहीं रहता। अत:
पिता और मातासे भी पुत्र अगल हो रहे हैं । जहां पहले आत्मीयताका विस्तार ही विश्व-शान्तिका सुगम उपाय है।
एक ही कुटुम्बमें पचास व्यकियोंका निर्वाह एक साथ प्रत्येक व्यक्ति जो श्राज अपने पुत्र कुटुम्ब समाज व देशकी
होता था, वहां आज दो भी प्रेमके साथ नहीं रह सकते। आत्मीयताको अनुभव करता है उसे बढ़ाते हुए सारे विश्वके साथ हम एक रूप बन जायेंगे।
इसका प्रधान कारण आत्मीयताका हास ही है। आप न आत्मीयता अर्थात् अपनेपनकी अनुभूति, विश्वके रह सकता हर जगह व मल हा अलग-अलग रह, पर एक प्रायः समस्त प्राणियोंमें प्रात्मीयता सहज स्वभावके रूपमें दूसरका दखनस प्रमक स्थान पर द्वष भाव जागृत हो पाई जाती है। पर उसकी परिभाषामें काफी अन्तर रहता उठता है, तब साथ जीवन अशान्तिका साम्राज्य बन बिना है। किसीमें वह बहुत सीमित दिखाई पड़ती है तो किसीमें नहा र
नहीं रह सकता है। वह असीम प्रतीत होती है। इसी प्रकार शुद्धि एवं घनी- ऐसी ही स्थितिसे मानव मानवका शत्रु बनता है। भूतताका भी अन्तर पाया जाता है। माताकी पुत्रके साथ गृह-कलह बढ़ता है। यावत् बड़े-बड़े महायुद्ध उपस्थित इसी प्रकार पारिवारिक कौटम्बिक-आत्मीयता होती है। होते हैं। विश्वकी वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डालते हुए यह उसमें मोह एवं स्वार्थ रहनेसे भी शुद्धि नहीं होती, जब कि यात दीपकवत् स्पष्ट प्रतिभासित होती है। भाये दिन महासन्तोंकी आत्मीयतामें यह दोष नहीं रहनेसे वह शुद्ध युद्धके बादल छाये हुए नजर आते हैं। आशंका तो प्रति समय रहनी है। किसी किसीके अपनेपनकी अनुभूति पाई अधिक बनी हुई है कि कब कौन किससे लड़ पड़े औरयुद्ध छिड जाती है तो किसीमें वह साधारण होती है।
जाय । यदि प्रास्मीयताका भाव विस्तृत किया जाय, तो यह प्राचीन कालमें मनुष्यों में सरलता व प्रेम बहुत अधिक नौबत कभी नहीं आने पावे । तब प्रतिपक्षी या विरोधी कोई मात्रामें होता था। वर्तमानमें सरलताकी बहुत कमी हो गई रहता ही नहीं है। सभी तो हमारे भाई हैं, मानव हमारे है और स्नेह भी दिखाऊ ज्यादा हो गया है। कपट एवं सदृश ही चैतन्य-स्वरूप प्रात्मा होनेसे हमसे अमित है। स्वार्थकी अधिकता हो जानेसे आत्मीयताका बहुत ही हास अतः किससे लड़ा जाय ? उसका कष्ट अपना कष्ट है। हो गया है। आज भी वृद्ध एवं भोले भाले ग्रामीणों में इसकी बरवादी अपनी ही बरवादी है। अतः प्रात्मीयताके
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किरण]
विश्वशान्तिका सुगम उपाय आत्मीयताका विस्तार
[२३३
प्रसारित करनेसे इन महायुद्धोंका अन्त हो सकता है। अंकित हो जाना चाहिए
विश्व शांतिकी बातको एक बार अलग भी रखें, पर 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।' भारतमें ही अपने भाइयों के साथ कितने अन्याय व अत्या- जीवन के प्रत्येक कार्यको करते समय इस महा वाक्यकी चार हो रहे हैं। हमारे अलगावकी भावनासे ही पाकिस्तान- ओर हमार। यह ध्यान रहे। ईश्वरको सृष्टि-कर्ता मानने का जन्म हुआ और लाखों व्यक्तियोंको अमानुषिक अत्या- वाले दर्शन जीव जगतको उस परमात्माका एक ही अंश मानते चारोंका शिकार होना पड़ा। उसे भी अलग रखकर सोचते हैं और सभी प्राणियोंमें वह एक ही ज्योति प्रकाशित हो हैं तो प्रान्तीयता, गुट-पार्टी व दलबन्दीसे हमारा कितना रही मानते हैं तब उसमेंसे किसीको कष्ट देना परमात्मानुकसान हो रहा है। इसका एकमात्र कारण आत्मीयताकी को कष्ट देना होगा। कमी ही है। आज काला बाजार, घूसखोरी आदि अनी- भारतीय मनीषी सब जीवोंको अपने समान मानकर तियोंका-बोल बाला है। इसमें भी वही अलगावकी वृत्ति ही नहीं रुके, उनकी विचार-धारा तो और भी आगे बढ़ी काम कर रही है।
और सब जीवोंमें परमात्माके दर्शन करने तक पहुँच गये। यदि हम एक दूसरेसे अभिन्नताका अनुभव करने लगें एक दूसरेसे अलगावका तो प्रश्न ही कैसे उठ सकता है। तो कोई किसीको मनसा, वाचा, कर्मणा दुःख दे ही नहीं अपितु एक दूसरेके साथ मेत्री, एक दूसरेके प्रति श्रद्धा एवं सकता । क्योंकि हमारेसे भिन्न तो कोई है ही नहीं। श्रादर बुद्धिकी स्थापना होती है। उसका उनका दुःख हमारा दुःख है । इससे व्यक्ति ऐसी वर्तमानमें हमारी आत्मीयता इने गिने ब्यक्तियों तक
आरमीयता व अपनेपनका भाव रखे तो विश्वकी समस्त सीमित होनेसे संकुचित है। उसे उदार भावना द्वारा विस्तृत अशान्ति विलोप हो जाय और सुख-शान्तिका सागर उमड़ कर जाति, नगर, देश यावत् राष्ट्र व विश्वके प्रत्येक प्राणीके पड़े। आखिर प्रत्येक मनुष्य जन्मा है, वह मरता अवश्य साथ प्रात्मीयता (अपनेपन का विस्तार करते जाना है है। तो फिर प्राणिमात्रको कष्ट क्यों पहचाया जाय । यही शान्तिका सच्चा प्रमोष एवं प्रशस्त मार्ग है। 'खुद शान्तिसे जीओ और प्राणिमात्रको सुखपूर्वक जीने दो, हमारे तत्त्वज्ञोंने धर्मकी व्याख्या करते हुए-लक्षण यही हमारा सनातन धर्म है । भारत का तो यह आदर्श ही बतलाते हुए-'जिससे अभ्युदय व निश्र यस प्राप्त हो, वही
धर्म कहा है। अतः प्रात्मीयताका विस्तार वास्तवमें हमारा अयं निजः परो वेति गणना लघु-चेतसाम् । आत्म-स्वभाव या धर्म हो जाना चाहिये । अलगाव-भेदभावउदारचरितानां त वसधैव कदम्बकम को मिटाकर सबमें अपनेपनका अनुभव कर तदनुकूल व्यव
अर्थात् ये मेरा, ये तेरा, यह भाव तो बुद्ध-वृत्तिके हार करें, तो सर्वत्र प्रानन्द हो आनन्द दृष्टिगोचर होगा। मनुष्योंका लक्षण है । उदार चरित्र व्यक्रियोंका तो समस्त उस आनन्दके सामने स्वर्गके माने जानेवाले सुख कुछ भी विश्व ही अपना कुटुम्ब है।
___ महत्त्व नहीं रखते । एक दूसरेके कप्टको अपना ही दुःख भारतीय दर्शनोंमें, विशेषतः जैनदर्शनमें तो प्रात्मीयता- समझकर दूर करें, व एक दूसरेके उत्थानको अपना उत्थान कि विस्तार मानव तक ही सीमित न रखकर पशु-पक्षी समझते हुए ईर्षाल न होकर इसमें हर्षि हों, एक दूसरोंको यावत् सूचमातिसूचम जन्तुओंके साथ भी स्थापित करते हुए ऊँचा उठानेमें हम निरन्तर प्रयत्न करते रहे, इससे अधिक उनकी हिंसाका निषेध किया गया है। अहिंसाको मूल मिति जीवनकी सफलता और कुछ हो नहीं सकती। इसी भावना पर खड़ी है कि किसी दूसरेके बुरे व्यवहारसे भारतीय प्रादर्श यही रहा है कि समस्त विश्वके कल्याणमुझे दुःख होता है वैसा ही व्यवहार मैं दूसरों के साथ करता की भावनाको प्रतिदिन चिन्तन करें और उसके अनुरूप
तो उसे भी कष्ट हुये बिना नहीं रहेगा। अतः उसे कष्ट अपने जीवनको ढालनेका प्रयत्न करें। प्राणिमात्रकी सेवामें देना अपने लिये कष्ट मोल लेना है। जो मुझे अप्रिय है अमृतत्व हो जाना, दुःखियोंका दुःख मिटाना, गिरेको ऊँचा वैसा व्यवहार दूसरोंके साथ भी नहीं किया जाय । वास्तवमें उठाना और सबके साथ प्रेमभाव व मैत्रीका व्यवहार करना वह भी मेरा अपना ही रूप है, अतः प्रात्मीय है। यही सच्ची अहिंसा है जिसे कि जैन दर्शनने अधिक महत्त्व
भारतीय महर्षियोंका यह पादर्श वाक्य हमारे हृदयमें दिया है।
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क्या भ० वर्द्धमान जैनधर्मके प्रवर्तक थे ?
(परमानन्द शास्त्री) 'भारतीय संस्कृतिका इतिहास' नामक लेखके लेखक प्रचार और परस्पर प्राचार-विचारोंका आदान-प्रदान होता रहा श्रीलीलाधरजी पांडेय हैं, जो 'भारतीय संस्कृति' नामक पत्रके है। किन्तु बौद्धसंस्कृति के जन्मदाता महात्मा बुद्ध हैं। उन्होंने सम्पादक है। आपका यह लेख २३ मई सन् ५६ के ही उपका प्रवर्तन किया है। जैनधर्मके सम्बन्धमें बौद्ध'हिन्दुस्तान' नामक दैनिक पत्रमें प्रकाशित हुआ है। लेखकने धर्मके साथ तुलना करते हुए यह कह देना कि वद्धमान या अपने उस लेखमें 'बौद्धधर्म और जैनधर्म इस उपशीर्षकके महावीर जैनधर्मके प्रवर्तक थे, इतिहासकी अनभिज्ञता और नीचे यह निष्कर्ष निकालनेका प्रयत्न किया है कि जैनधर्मके जैनसंस्कृतिके अध्ययनकी अपूर्णताका परिचायक है । क्योंकि प्रवर्तक वद्धमान थे। जैसा लेखकी निम्न पंकियोंसे प्रकट है- महावीरको हुए अभी २५८१ वर्ष व्यतीत हुए हैं। उनसे ___'वैदिक कालीन हिंसा और बलि प्रथाके व्यापक पूर्ववर्ती दो तीर्थकरोंका अस्तित्व भी ऐतिहासिक विद्वानोंने प्रचारके कारण बौद्ध और जैनधर्मोंका प्रादर्भाव हमा। स्वीकार कर लिया है। उनमें से नेमिनाथ जैनियोंक २श्व वैदिक हिंसाका व्यापक विरोध इन धर्मोक मूल उद्देश्य थे। तीर्थकर थे. जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे और जिनका बौधर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध और जैनधर्म के प्रवर्तक उल्लेख 'अरिष्टनेमि' के नाम किया गया है। तेवीसवें वईमान हुए।
तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ हैं, जो महावीर भगवानसं २५० इसमें सन्देह नहीं कि महात्मा बुद्ध बौधर्मके प्रवत्तक वर्ष पूर्ववर्ती है। ऐसी स्थितिमें लीलाधरजी पांडेयका वर्धथे। परन्तु जैनधर्मके प्रवर्तक महावीर या वद्धमान नहीं मानको जैन संस्कृतिका प्रवर्तक लिखना सर्वथा असत्य है। थे किन्तु वे जैनधर्मके प्रचारक थे । बर्द्धमानसे पूर्व २३ जैनधर्म या जैन संस्कृति प्राचीन कालसे अपने सिद्धांतोंतीर्थकर और हो गये हैं। उनमेंसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का प्रचार कर रही है। आज भी जैन संस्कृतिकी चार-पांच जैनधर्मके प्रवर्तक थे। जो मनु (कुलकर) नाभिरायके पुत्र इजर वर्ष पुरानी कलात्मक मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। हड़थे। जिन्हें आदिनाथ, आदिब्रह्मा, आदिजिन, तथा युगादि
पासे जो मूर्ति-खंड प्राप्त हुए हैं, उनमें से तीर्थकरकी जिन, अथवा अप्रजिनके नामसे उल्लेखित किया जाता है।
एक खंडित मूर्तिका चित्र अनेकान्तकी गत किरण में बेट महाभारत, भागवत और पुराण ग्रन्थों में उनका नामो- निविभाग डायरेक्टर डॉ. रामचन्दन लेख लेख हो नहीं किया गया, किन्तु उनका स्तवन भी किया
कथा के अनुवादक साथ प्रकाशित हुया है जिसका काल ऐति
I गया है। शषभदेवका भागवतके पांचवें स्कन्धमें ऋषभाव- हासिक विद्वानोंने क..या ... वर्ष ईसासे पर्व बततारके रूप में उल्लेख किया गया है और महाभारत में उन्हें लाया है। यदि भूगर्भ में दबी पड़ी जैन संस्कृतिकी महत्त्वजैनधर्मका आदि प्रवर्तक लिखा है। उन्हींके पुत्र भरतके पूर्ण सामग्रीका उद्धार हो जाय-उसे खुदवाकर प्रकाशमें नामसे इस देशका नाम 'भारतवर्षे लोकमें विभुत हुआ 18 लाया जाय. तो जन संस्कृतिकी प्राचीनता और महत्ता पर उनका निर्वाण कैलासगिरिसे हुआ है, और उनका और भी अधिक प्रकाश पढ़ सकता है। जैन संस्कृतिका चिन्ह वृषभ (नन्दि) था। उनको हुए बहुत अधिक मूल नहेश्य हिंसाका ही विरोध नहीं रहा है, किन्तु अपने समय हो गया है उसी समयसे भारतमें श्रमण और वैदिक
अहिंसा सिद्धान्तका प्रचार रहा है और है । अहिंसाका इन दोनों संस्कृतियोंका उद्भव हुआ। इनमें श्रमण संस्कृति प्रचार करते हए यदि हिंसाका या बलि प्रथाका विरोध जैन संस्कृति है। तभीसे इन दोनों संस्कृतियोंका भारतमें
भी करना पड़ा, तो उसका मूल उद्देश्य अहिंसाका ऋषभो मरुदेन्या ऋषमाद् भरतोऽभवत् ।
संरक्षण और संवद्धन हो रहा है। जैनधर्मके इस अहिंसा भरता भारत वर्ष भरतात्सुभतिस्वभूत, -अग्निपुराण सिद्धान्तने केवल भारतीय धर्मोमें ही अहिंसाकी छाप नहीं कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः।
लगाई, किन्तु अन्य वैदेशिक संस्कृतियों पर भी अपना प्रभाव चकार स्वावतार च सर्वशः सर्वगः शिवः।-प्रभास पुराण अंकित किया है। प्राशा है 'भारतीय संस्कृतिका इतिहास दर्शयन् वर्म वीराणां सुरासुर-नमस्कृतः ।
पुस्तक के लेखक लीलाधरजी पांडेयका इससे समाधान होगा नीतित्रयस्य कर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः॥-मनुस्मृति और वे अपने उस पाक्यका संशोधन करनेकी कृपा करेंगे।
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क्या मांस मनुष्यका स्वाभाविक आहार है ?
(श्री पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) मांस खाना मनुष्यका स्वाभाविक भोजन नही योग्य है कि खानेकी चीजें दो तरहकी होती हैंहै, इस बातकी परीक्षा प्रकृतिदेवीके सच्चे उपासक एक आबी (जनसे उत्पन्न होने वाली) और दूसरी
और तदनुकूल कार्य करने वाले पशुओंसे सहजमें हो पेशाबी (रज और वीर्यके संयोगसे पैदा होनेवाली)। जाती है। पशुओंकी दो जातियाँ हैं-एक मांसाहारी प्रावी पदार्थ वे हैं जो बारिश या पानीकी सिंचाईसे दूसरी शाकाहारी (घास खानेवाली)। मांसाहारी पैदा होते हैं। जैसे गेहूं, चना, मटर आदि अनाज
कुत्सा, बिल्ली और अंगूर, अनार, सेव आदि फल, तथा शाकसिंह आदि हिंस्र प्राणियोंके होते हैं। शाकाहारी भाजी आदि । पेशाबी चीजोंमें मनुष्य और पशुपशुओंके नाखून पैने या नुकीले नहीं होते, जैसे कि पक्षियोंकी गणना की जाती है, क्योंकि समस्त पशुहाथी, गाय, भैंस, ऊंट आदिके । मांसाहारी पक्षी आदि पेशाबसे ही पैदा होते हैं। और इन्हीं पशुओंके जबड़े लम्बे होते हैं, पर शाकाहारियोंके पेशाबी पशु आदिके घातसे मांस पैदा होता है। गोल । गाय और कुत्ते के जबड़े देखनेसे यह भेद इन दोनों प्रकारकी चीजोंमें पेशाबी चीज गन्दी, साफ-साफ नजर आयेगा। मांसाहारी पशु पानीको अपवित्र एवं अभक्ष्य है और आवी चीजें सुन्दर, जीभसे चप-चपकर पीते हैं, किन्तु शाकाहारी प्राणी पवित्र अतएव भक्ष्य है। होठ टेककर पीते हैं। गाय, भैंस, बन्दर और सिंह मांसके खानेवाले लोग समझते हैं कि मांस श्वान, बिल्ली आदिको पानी पीते हुए देख कर यह खानेसे शरीरमें ताकत बढ़ती है, किन्तु यह धारणा भेद सहज में ही ज्ञात हो जाता है। परन्तु मनुष्यों में
ह। परन्तु मनुष्याम नितान्त भ्रमपूर्ण है। ताकत बढ़ानेके लिये मांसमें पशुओंके समान दो प्रकारकी जातियाँ दृष्टिगोचर ५३-५५ डिग्री अंश है, तब गेहूँ में ८, चनेमें १२४, नहीं होती।
मूंगमें ११८, भिंडीमें १२१ और नारियलमें १६५ __ यह एक आश्चर्यकी बात है कि अपनेको बन्दर- डिग्री शक्तिवर्धक अंश है । शक्ति मांस-खोर शेर, की औलाद मानने वाला पश्चिमी संसार बन्दरोंका चीते, बाघ आदिकी अपेक्षा घास-भोजी हाथी, घोड़े खाना-पीना छोड़कर कुत्त-बिल्लियोंका खाना कैसे बैल आदिमें बहुत होती है । बोझा ढोना, हल खाने लगा। यह तो विकास नहीं, उल्टा हास हुआ। खींचना आदि शक्तिके जितने भारी काम घोड़े, जब ये पश्चिमी वैज्ञानिक आंत, दांत, हड्डी आदि- बैल आदि कर सकते हैं, उतना काम शेर आदि की समता देखकर मनुष्यको बन्दर तकको सन्तान नहीं कर सकते । यही बात मनुष्यमि है। जो मनुष्य मानेसे नहीं चूकते, तब फिर उसीकी समतासे वे परिश्रम और व्यायाम करनेवाले हैं, वे यदि अन्न, * शुद्ध शाकाहारी क्यों नहीं बने रहते, यह सच- मेवा आदि खाते हैं, तो मांस-भक्षियोंकी अपेक्षा मुच विचारणीय है । यथार्थ बात तो यह है कि अधिक शक्ति-सम्पन्न होते हैं। मनुष्य रसना (जीभ ) के स्वाद-वश मांस-भक्षण मानसिक बल तो मांस खानेसे उल्टा कमजोर जैसे महा अनर्थकारी पापमें प्रवृत्त हुआ और होता होता है। संसारमें आजकल हम जहाज, विमान, जा रहा है, अन्यथा यह उसका स्वाभाविक भोजन टेलीफोन, प्रामोफोन आदि जिन आविष्कारोंको नहीं है। क्योंकि मनुष्यके दांतोंकी वनावट और देखकर मनुष्यकी बुद्धिका नाप-तौल करते हैं, उन उसके खान-पान आदिका तरोका बिल्कुल शाका. चीजोंके आविष्कारक मांस-भक्षी नहीं, अपितु फलाहारी प्राणियोंसे मिलता है। इससे यह निर्विवाद हारी और शाक-भोजी थे। सिद्ध है कि मांस-भक्षण मनुष्यका स्वाभाविक आहार किसी छोटे बच्चे के सामने यदि मांसका टुकड़ा नहीं है।
और सेव, सन्तरा आदि कोई एक फल डाला जाय, दूसरी एक महत्वपूर्ण बात यह भी जाननेके तो बच्चा स्वभावतः अपने आप फलको हो
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२३६] अनेकान्त
[वर्ण १४ उठाएगा, और मांस को छएगा भी नहीं।
मिटा सकते हैं। इसके सिवाय मांस चाहे कच्चा हो, या पकाया शाकाहार एक पौष्टिक खुराक है हुआ, गीला हो या सूखा; उसमें असंख्य सूक्ष्मजीव- भारतवासी प्रारम्भसे ही शाकाहारी रहे हैं। जिनका कि रूप-रंग मांसके ही सदृश होता है, बीचके समयमें अनार्य लोगोंके सम्पर्कसे अवश्य हमेशा पैदा होते और मरते रहते हैं। इस कारण कुछ लोगोंने मांस सेवन प्रारम्भ कर दिया, पर मांस खानेसे बहुतसे ऐसे रोग पैदा होते हैं, जोकि ऐसे लोग हमारे यहाँ घृणाकी दृष्टि से ही देखे जाते अन्न-भोजी यो शाकाहारी मनुष्योंको नहीं होते हैं। रहे हैं। विदेशों में जहाँ पर शीतकी अधिकतासे कैन्सर या नासूरका अति भयानक रोग प्रायः मांस- अन्न उत्पन्न नहीं होता था, लोग मांस-भोजी रहे भक्षी मनुष्यों को ही होता है।
हैं और निरन्तर मांस-सेवन करनेसे उनके हृदयमें इस प्रकार यदि धर्म, पवित्रता, शारीरिक शक्ति, यह धारणा घर कर गई कि शरीरको शक्तिशाली दिमागी ताकत, स्वभाव आदि किसी भी दृष्टिसे बनाने के लिए मांस खाना अनिवार्य है। पर उनकी विचारकर देख लीजिए, मांस खाना हर तरहसे यह धारणा कितनी भ्रमपूर्ण है, इसे एक जर्मनी हानिकारक और अन्न, फल, मेवा, घी, दूध आदि महिलाके ही शब्दों में सुनिएपदार्थोंका खाना लाभप्रद सिद्ध होता है।
मिस क्राउजे एक जर्मनी महिला हैं वे तीस वर्षे स्वास्थ-वृद्धि के लिए शाक-माजीका महत्त्व से भी अधिक समयसे जैनधर्मको धारण करके __ भारत शाकाहारी देश है । शरीर-रचनाके भारतमें रह रही हैं। जब आपने जर्मनीसे भारत निरीक्षणसे बोध होता है कि मानव शाकाहारी है। आनेका विचार अपने कुटुम्बी जनों और मित्रोंसे शरीर और मन पर भोजनका बड़ा प्रभाव पडता प्रकट किया, तो वे लोग बोले-तुम घास-फूस खाने है। मांस आदि आहार प्रोटीन, स्टार्च आदि द्रव्यसे वाले देशमें जाकर भूखों मर जाओगी। अन्न तो भरपूर होता है। ये द्रव्य शरीरमें सुगमतासे न घास-फूस है, उसे खाकर मनुष्य कैसे जिन्दा रह पचनेके कारण शरीरमें यूरिक एसिड जैसे विष पैदा सकता है और उससे शरीरको क्या ताकत मिल करते हैं । शरीरको विजातीय विष दुर्बल बनाते हैं सकती है ? इत्यादि । मिस क्राउजे अपने निश्चय और शरीर यन्त्रक कोमलांग पर अनुचित दबावसे पर दृढ़ रहीं और उन्होंने भारत आनेका संकल्प उनके नियमित कार्यमें शिथिलता उत्पन्न हो जाती नहीं छोड़ा। भारत आनेके बाद जब उन्हें यहाक है। जो आहार सजीव और चेतनयुक्त होता है, वही घृत-तैल-पक्व मैदा, बेसन आदिकं बने पकवानोंका शरीरमें जीवनशक्ति और उत्साह पैदा करता है। परिचय प्राप्त हुआ, तो उन्होंने मांस खानेका सदाके इस दृष्टिसे शाकभाजी ही मनुष्यका नैसर्गिक अहार लिए परित्याग कर दिया। वे मुझे बतलाती रही हैं बन सकती है।
कि अन्न-निर्मित भारतीय पकवान कितने मिष्ट - शरीरको स्वस्थ और पुष्ट रखने के लिए शरीरमें पौष्टिक होते हैं, इन्हें मैं शब्दोंमें व्यक्त नहीं कर पौन भाग क्षार और पाव भाग खटास होना आव- सकती हूँ। अपने देश-वासियोंको मैंने पत्रों में लिखा श्यक है। खटाईकी अभिवृद्धिसे बीमारियाँ पैदा है कि अन्न-भोजनके प्रति वहाँ वालोंकी धारणा होती हैं । शरीरको क्षारमय रखनेके लिए शाक- कितनी भ्रमपूर्ण है। . . भाजी ही आहारमें महत्त्वका स्थान रखती हैं।
भोजनके तीन प्रकार रोग की स्थितिमें 'शाक-भाजी खाओ' इस सूत्रका हमारे महर्षियोंने भोजनके तीन प्रकार बतलाये उच्चारण आधुनिक डाक्टर लोग भी करने लगे हैं-सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । जिस है। शाक-भाजी प्रकृति-द्वारा मिली हई अनमोल भोजनके करनेसे मनमें दया, क्षमा, विवेक आदि भेंट है । उसका सदुपयोग आरोग्यशक्ति देता है। सात्त्विक भावोंका उदय हो, शरीरमें स्फूति और इतना ही नहीं, उसके सेवनसे हम अनेक रोगोंको मनमें हर्षका संचार हो, वह सात्त्विक भोजन है।
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किरण]
अहिंसा और हिंसा जैसे दाल, चावल, गेहूँ, दूध, ताजेफल, सूखीमेवा राजसिक भोजन करनेवाले व्यक्तिको मनोवृत्ति और ताजी शाक भाजी श्रादि । जिस भोजनके करने यद्यपि तामसिक भोजीकी अपेक्षा बहुत कुछ अच्छी पर मनमें रोष, अहंकार श्रादि राजसिक भावोंका होती है, पर फिर भी उसे जरा-जरासी बातों पर उदय हो, किसी पवित्र कार्यके करने के लिए मनमें चिड़चिड़ाहट उत्पन्न होती रहती है, चित्त अत्यन्त उमंग-उत्साह न हो, प्रस्तुत मान-बढ़ाई और प्रतिष्ठा चंचल और मन उतावला रहता है, अपनी प्रशंसा प्राप्त करनेके लिए मनमें उफान उठे, वह राजसिक और पराई निन्दाकी ओर उसका अधिक मुकाव भोजन है। अधिक खटाई, नमक और मिर्चीवाले रहता है, यह यशः प्राप्तिके लिए रणमें मरणसे भी चटपटे पदार्थ, दहीबड़े, पकौड़े और नमकीन चाट नहीं डरता है। वगैरह राजसिक भोजन समझना चाहिए। जिस सात्विक भोजीकी मनोवृत्ति सदा सात्विक भोजनके करनेसे मन में काम-क्रोधादि विकार उत्पन्न रहेगी। इसके हृदय में प्राणिमात्रके प्रति मैत्री-भावना हों, पढ़ने-लिखने में चित्त न लगे, हिंसा करने, झूठ होगी, गुणीजनोंको देखकर उसके भीतर प्रमोदका बोलने और पर स्त्री सेवन करनेके भाव जागृत हों, पारावार उमड़ पड़ेगा और दीन-दुःखी जनोंके वह तामसिक भोजन है। मद्य, मांस और गरिष्ठ उद्धार करनेके लिये वह सदा उद्यत रहेगा और श्राहारके सेवकको तामसिक भोजन कहा गया है। दिल में दया और करुणाकी सरिता प्रभावित रहेगी
तामसिक भोजन करनेवाला व्यक्ति जरासा उसका चित्त स्थिर और प्रसन्न रहेगा । ज्ञानोपाभी निमित्त मिलने पर एकदम उत्तेजित हो आपेसे र्जनके लिए सदा उद्यत रहेगा। बाहर हो जाता है और एक बार उत्तजित हो जाने उक्त विवेचनसे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि पर फिर उसे अपने आप काबू पाना असम्भव हो मनुष्यके भीतर मानवीय और दैविक गुणोंकी प्राप्ति जाता है। तासिक भोजन करनेवालेकी प्रवृत्ति और उनके विकासके लिए सात्त्विक भोजन करनेकी हमेशा दूसरोंको मारने-पीटने और नीचा दिखाने- अत्यन्त आवश्यकता है। तामसिक भोजनसे तो को रहेगी। वह दूसरेके न्यायोचित अधिकारोंको पाशविक और नारकीय प्रवृत्तियाँ ही जागृत होती भी कुचल करके अपने अन्याय पूर्ण कार्योंको महत्त्वकी हैं यदि हमें नारकी और पशु नहीं बनना है, तो यह दृष्टिसे देखेगा। तामसिक भोजी अत्यन्त स्वार्थी अत्यन्त आवश्यक है, कि हम तामसिक भोजनका और खुदगर्ज होते हैं।
सदाके लिए परित्याग कर देवं।
अहिंसा और हिंसा अहिसा जीवन है, तो हिंसा मरण है। अहिंसा रखती है, तो हिंसा धेर्यका नाश करती है। अहिंसा शान्तिकी उत्पादिका है। अहिसा उन्नतिक शिखर पर गंगाकी शीतल धारा है, तो हिंसा अग्निकी प्रचण्ड ले जाती है, तो हिंसा अवन्नतिके गर्तमें ढकेलती है ज्वाला है। अहिंसा रक्षक है, तो हिंसा भक्षक है । अहिसास्वर्ग और मोतका द्वार है तो हिंसा नरक और अहिंसा शारदी पूर्णिमा है, तो हिंसा भयावनी अमानिगोदका द्वार है । अहिंसा सदाचार है, तो हिंसा वस्या । अहिंसा भगवतीदेवी है, तो हिंसा विकराल दुराचार । अहिंसा प्रेमका प्रसार करती है, तो हिंसा राक्षसी। अहिंसा भव-दुःख-मोचिनी है, तो हिसा द्वेषको फैलाती है। अहिंसा शत्रुओं को मित्र बनाती सर्व-सुख-शोपिणी है । अहिंसासे संवर, निर्जरा और है तो हिंसा मित्रोंको शत्रु बनाती है। अहिंसा विरा- मोक्ष होता है, तो हिंसासे आस्रव, बन्ध और संसार धियोंके विरोधको शान्त कर परस्परमें सुलह कराती होता है। ऐसा जानकर आत्म-हितैषियोंको हिंसाहै, तो हिसा स्नेहीजनोंमें भा कलह कराती है। राक्षसीको छोड़कर अहिंसा भगवतीका श्राश्रय नेता अहिंसा सर्वप्रकारके सुखोंको जन्म देती है तो हिंसा चाहिए। सभी दुःखोंको जन्म देती है। अहिंसा धैर्यको जीवित
-तु० सिद्धसागर
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भ. बुद्ध और मांसाहार
[पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री] अपनेको धर्म-निरपेक्ष कहने वाली भारत सरकारने अभी शब्दका अर्थ बुद्धघोषाचार्यकी टीकाके अनुसार 'सूकरका पिछले दिनों बुद्ध जयन्तीके अवसर पर बुद्धधर्मके अनु- मांस किया है, उसी टीकामें उन्होंने स्वयं स्वीकार किया यायियोंको प्रसन्न करनेके लिए सारे भारतमें अनेकों स्थानों है किपर अनेक समारोहोंका आयोजन किया और 'भगवान् बुद्ध' 'एके भणंति सूकर महवं ति पन मुदु ओदनस्स नामक पुस्तकका हिन्दी संस्करण प्रकाशित कराया। इस पश्चगोरसयूसपाचनविधानस्स नाममेतं। यथा पुस्तकके 'मांसाहार' नामक ग्यारहवें परिच्छेदमें मांस-भक्षण गवपानं नाम पाकनामं ति। केचि भणंति सूकरकी वैधता सिद्ध करनेके लिए भ. बद्धके साथ-साथ जैन मद्दवं नाम रसायनविधि, तं पन रसायनत्थे आगधर्म और भ० महावीरको घसीटनेका अति साहस श्वेताम्बरीय शास्त्रोंके कुछ उद्धरण और कुछ व्यक्तियोंके
अर्थात् कई लोग कहते हैं कि पंचगोरससे बनाये हुए मौखिक हवाले देकर किया गया है। प्रस्तुत पुस्तकके
मृदु अनका यह नाम है, जैसे गवपान एक विशेष पकवानका लेखक श्राज दिवंगत हैं और उन्होंने अपने जीवन-कालमें नाम है। कोई कहते हैं 'सूकरमद्दव' एक रसायन था और ही दिगम्बर सम्प्रदायके विद्वानों द्वारा उनका ध्यान आकर्षित रसायनके अर्थमें उस शब्दका प्रयोग किया जाता है।' करने पर अपनी भूलको स्वीकार कर लिया था और इस उल्लेखसे यह बात बिलकुल साफ दिख रही है पुस्तकके नवीन संस्करणमें उसके स्पष्ट करनेका आश्वासन कि बुद्धघोषाचायके पूर्व 'सूकर मद्दव' का अर्थ 'सूकर-मांस' भी दिया था। वे अपने जीवन-कालमें अपनी भूलको न नहीं किया जाता था। 'महव' शब्दका अर्थ किसी भी सुधार सके। परन्तु शासनका तो यह कर्तव्य था कि खास कोषके भीतर 'मांस नहीं किया गया है, किन्तु सीधा प्रचारके लिए ही तैयार किये गये संस्करणको एक वार और स्पष्ट अर्थ 'मार्दव' ही मिलता है । वस्तुतः बुद्धघोष किसी निष्पक्ष या धर्म-निरपेक्ष समितिसे उसकी जांच करा जैसे स्वयं मांस-भोजी भिक्षुओंने अपने मांस-भोजित्वके लेते कि कहीं किसी धर्मके प्रति इसके किसी वाक्यसे औचित्यको सिद्ध करनेके लिए उन शब्दको मन-माना अर्थ घृणा, अपमान या तिरस्कारका भाव तो नहीं प्रगट होता है, लगाकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि स्वयं बुद्ध पर जब हमारी सरकारको जो कि मांस-भक्षणके प्रचार पर भगवानूने भी अपने जीवन-कालमें मांस खाया था। तुली हुई है, और जिसके पक्षका समर्थन पुस्तकके उस अंश- यथार्थ बात यह है कि बुद्धने पार्श्वनाथके सन्तानी जैन से होता है, तब वह ऐसा क्यों करती?
प्राचार्यसे जिनदीक्षा ग्रहण की थी और वे एक लम्बे समय दिगम्बर और श्वेताम्बर समस्त आगमों में जीवघात और तक उसका पालन करते रहे हैं। उस समयकी अपनी तपमांस-भक्षणको महापाप बताकर उसका निषेध ही किया श्चर्याका उल्लेख करते हुए उन्होंने सारिपुत्रसे कहा हैगया है। भगवती सूत्रके जिन शब्दोंका मांस-परक अर्थ (१) वहां सारिपुत्र ! मेरी यह तपस्विता (तपश्चर्या) किया जाता है, जो भ. महावीर पानी. हवा आदिके सूक्ष्म थी-मैं अचेलक (नग्न ) था, मुक्काचार सरभंग), हस्ताजीवों तककी रक्षा करनेका औरोंको उपदेश देते हों, वे स्वयं पलेखन (हाथ-चहा), नएहिभादन्तिक (बुलाई भिक्षाका पंचेन्द्रिय पशुओंका पका हुआ मांस खा जायें, यह नितान्त त्यागी), न तिष्ठ भदन्तिक (ठहरिये कह दी गई भिक्षाका असंभव है।
त्यागी) था न अभिहट ( अपने लिये की गई भिक्षा)को, ___ 'भगवान बुद्ध' पुस्तकके लेखक बौद्ध भिक्षु धर्मानन्द न (अपने ) उद्देश्यसे किये गयेको (और) न निमंत्रणको कौशाम्बीने मांस-भक्षणकी वैधता सिद्ध करनेके लिये प्रस्तुत खाता था xoxन मछली, न मांस, न सुरा, (अर्क पुस्तकके ग्यारहवें परिच्छेदमें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया उतारी शराब), न मैरेय ( कच्ची शराब ), न तुषोदक है कि बुद्ध स्वयं मांस-भोजी थे और उनके अनुयायी भिक्षु (चावलकी शराब) पीता थाइत्यादि। भी मांस-भोजन करते थे। कौशाम्बीजीने जिस 'सूकर माव' (मज्झिमनिकाय, १२ महासीहनाद, पू. ४८-४६)
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फरवरी'५७]
भगवान बुद्ध और मांसाहार
उपयुक उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि बुद्ध मांस और और जिस धर्मके पालन करने वाले गृहस्थोंके लिए मांसमथका सेवन नहीं करते थे। फिर थोड़ी देरके लिये यह मचका परित्याग अनिवार्य है, क्या उस धर्मके धारक और मान भी लिया जाय, कि पीछे उन्होंने अपनी उक्र तपस्विता- अहिंसाके पाराधक प्रमोंके द्वारा क्या स्वयं मांसाहार को बोड़ दिया था और मध्यम मार्गको स्वीकार कर मांसा- संभव है। दिका सेवन करने लगे थे, तो भी उनके समर्थनमें या उनके इतना सब कुछ होते और जानते हुए भी कौशाम्बी
कर जीने भ. महावीरको भी मांसाहारी सिद्ध करनेका निध महत्वको नहीं गिरने देनेके लिये श्रीकौशाम्बीजीने 'जैन जा
प्रयास किया है। वे अपनी उसी पुस्तकके पू०२५ पर श्रमणोंका मांसाहार' शीर्षक देकर जो यह लिखा है कि
लिखते हैं'जैन सम्प्रदायके श्रमण भी मांसाहार करते थे। यह तो
'अब तो इस सम्बन्धमें भी प्रचुर प्रमाण उपलब्ध उनका जैन साधुओं पर एकदम असत्य दोषारोपण है और
हो गये हैं कि स्वयं महावीर स्वामी मांसाहार करते थे।' यह लेखकके अति कलुषित हृदयका परिचायक है।
कौशाम्बीजीने श्वेताम्बरीय भगवती सूत्र आदिके कुछ ___संसारके बड़े-बड़े विद्वानोंने एक स्वरसे यह स्वीकार
अवतरण देकरके अपने पक्षकी पुष्टि करनी चाही है। पर किया है, कि जैनियोंके अहिंसा धर्मकी छाप वैदिक धर्म पर
धम पर उन शब्दोंका वह अर्थ कदाचित् भी नहीं है जो कि पड़ी है और उसके ही प्रभावसे याज्ञिक हिंसा बन्द हुई, औशाखी जीने किया है। भगवतीसूत्रका वह अंश इस उस हिसा धर्मके मानने वाले साधुनोंकी तो बात ही दूर करे है. गृहस्थ तक भी मांमका भोजन तो बहुत बड़ी बात है, तं गच्छहणं तुम सीहा, मेढियगामं नगरं उसके स्पर्श तकसे परहेज रखते हैं। गृहस्थोंके जो आठ रेवतीए गाहावतिणीए गिहे। तत्थ णं रेवतीए मूलगुण बतलाये गये हैं, उसमें स्पष्ट रूपसे मथ, मांस गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कबोय सरीरा और मधुके सेवनका त्याग आवश्यक बतलाया गया है। उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो। अस्थि से अन्नपारित यथा
यासिए मज्जारकडएकुक्कुडमंसए त आहराहि, मद्य-मांस मधुत्यागैः सहाणुव्रत पंचकम्। एएवं अट्ठो।' अष्टौमूल गुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः॥
अर्थात् जब भ. महावीरको गोशालकके द्वारा छोड़ी अर्थात् मद्य, मांस और मधुके त्यागके साथ-साथ गई तेजो लेश्यासे सारे शरीरमें जलन होने लगी, तब अहिंसादि पांच अणुव्रतोंको धारण करना, ये गृहस्थोंके उन्होंने अपने सिंह नामक शिष्यसे कहापाठ मूल गुण महान् श्रमणोंने बतलाये हैं।
'तुम मेंढिय ग्राममें रेवती नामक स्त्रीके पर जामो, जिस सम्प्रदायके श्रमण अपने अनुयायी गृहस्थोंको सानो कबोट शरीर' बनाये मांस न खानेका उपदेश देते हों, वे क्या स्वयं मांस भोजी हो ,
लाना, किन्तु 'मार्जारकृत कुक्कुट मांसक' लाना । उससे सकते हैं ? कभी नहीं, स्वप्नमें भी नहीं।
मेरा रोग दूर हो जायगा। और भी देखिए । आचार्य समन्तभद्रने अपने उसी उक्त उद्धारणमें पाये कपोत मादि शब्दोंका क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें जिनधर्मको स्वीकार करने वालोंके वास्तविक अर्थ है, इसके लिए मार्चके जैन सन्देशमें लिए मद्य, मांस और मधुका त्याग आवश्यक बताया है। प्रकाशित निम्न अंश मननीय हैयथा
कपोत' 'मार्जार' 'कुक्कुट' और 'मास' ये चारों शब्द सहति परिहरणार्थ क्षौद्र पिशितं प्रमाद परिहृतये। वनस्पतिवाचक शब्द है, बसपाणीवाचक नहीं। श्वेताम्बर मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरण मुपयातैः॥ सूत्रके अनुसार जो रोग भगवान् महावीरको बताया जाता है
प्रति जो लोग जिन भगवानके चरणोंकी शरणमें वह रोग क्या था, यह विचार करें, और फिर यह विचार जाना चाहते हैं, उन्हें इस हिंसासे बचने के लिए मांस करें कि उक्त रोगकी औषधि क्या हो सकती है, और मधका, तथा प्रमादके परिहारके लिए मयका याव- 'पित्तज्जरं परिगण्य सरीरे दाह वतीए या वि विहरह ज्जीवन के लिए परित्याग करना चाहिए।
भवियाई लोहिय बच्चाई पि पकरे।' जिस धर्मकी नींव ही अहिंसा के आधार पर रखी गई है
(भग सूत्र -. १८९)
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अनेकान्त
वर्ष १४
अर्थात् भगवान के पित्तज्वर हो गया, शरीरमें जलन हैं। वनस्पतिके भी अङ्ग निम्न प्रकार माने गये हैं। जड़, होने लगी और खूबके दस्त होने लगे।
पींद. पत्ते, फूल, फल । सुश्रु तमें प्रतिपादित उल्लेखमें भी इन रोगोंको जो दूर कर सके वह पौषधि हो सकती यहबतायागया है कि 'श्वेत-कापोती समूलपना भक्षयितव्या' है। मांस इस रोगके सर्वथा प्रतिकूल है। देखिए-पायुर्वेदके अर्थात् जड़ पत्तों सहित खानी चाहिये। शब्दसिन्धुकोष पृ.७०१ और •३६ में मांस व मछलीका पाठक विचार करें कि यथार्थ में कपोत या कपोती शब्दगुणधर्म इस प्रकार बताया है कि वह 'रक्तपित्तजनक तथा से और शरीर शब्दसे उस रोगोत्पत्ति नाशक प्रकरणमें उष्णस्वभाव है' मांस खानेका जिसे परहेज नहीं है ऐसा 'कपोती वनस्पति' का अर्थ लिया जायगा या कबूतरके हिंसक और और अवती भी ऐसे रोगके समय मांस खानेसे मांस का' .. परहेज करेगा, क्योंकि वह रोगवद्धक है. रोगके उपचारसे मायुर्वेद में सैंकड़ों वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनका नाम विरुद्ध है। भगवतीसत्रके उल्लेख में आये कपोत शन्द्रका प्राणीके प्राकार, रूप रज परसे उस प्राणी जैसा ही नाम अर्थ कबूतर नहीं है किन्तु कपोती एक वनस्पति कर रख दिया गया है । पर उससे प्रकरण तो प्राणीके खानेका जैसा कि निम्न प्रमाणसे स्पष्ट है, देखिए सुश्रुतसंहिता ना
32 नहीं, वनस्पति सेवनका है। पृष्ठ २१:
प्रकरणवशादर्थगतिः
शब्दका अर्थ प्रकरणके वश लगाना चाहिये। भोजनार्थी ___ श्वेत कापोती समूलपत्रा भक्षयितव्वा गोनस्य जगरा। कृष्ण कापोतीनां सनखयुष्ठिम् खण्डशः
यदि भोजनके समय 'सैंधवमानय' अर्थात् 'सैधव लायो' कल्पयित्वा क्षीरे विपाच्य परिस्रावितभिहुतव्च ।
ऐसा कहे तो उस प्रकरणमें सैन्धवका अर्थ सैंधा नमक ही
होगा 'घोड़ा' नहीं। यद्यपि 'सैंधव' शब्दका अर्थ सेंधा नमक सकृदेवापभुञ्जीत ॥
भी है और घोड़ा भी । यात्राके प्रसंग पर यदि वह वाक्य वनस्पती श्वेत-कापोती और कृष्ण-कापोती ऐसी दो।
बोला गया होता तो सँधवका अर्थ 'घोड़ा' होता, नमक प्रकारकी कही गई है। बेत कापोतीका लक्षण इस ग्रन्थमें
नहीं। इसी प्रकार कपोत शब्दका कबूतर भी अर्थ है और इस प्रकार बताया है:
कापोत नामक वनस्पति भी। औषधिके प्रकरणमें उसका निष्पत्रा कनकाभाषा. मूलं द्वयं गुणसम्मिता। सर्पाकारा लोहितान्ता, श्वेत-कापोति रुच्यते ॥
औषधि अर्थ लिया जायगा कबूतर नहीं। अब आगे अर्थात् श्वेत-कापोती सुवर्ण-वर्ण बिना पत्तेकी, मूलमें
देखिए
कृष्ण कापोतीको 'रोमवाली' कहा है सो रोम तो दो अंगुल प्रमाण सर्पाकार, अन्तमें लाल रंगकी होती है।
बालोंको कहते हैं और बाल पशु पक्षीके शरीरमें होते हैं कृष्णा-कापोतीका स्वरूप बताया है.
पर क्या 'रोम' शब्द पढ़ कर उसे पक्षी समझ लिया जाय। सक्षीरां रोमशां मृद्वी, रसेनेचरसोपमाम् ।
कदापि नहीं, वहाँ तो सुश्र तकार स्वयं रोमवाली' कह कर एवं रूपरसाव्चापि. कृष्णाकापोतिमादिशेत् ॥
भी उसका अर्थ वनस्पति को पहिचान मात्र कहते हैं। जिसमें दूध पाया जाय, रोम वाली, नरम, गन्ने समान कापोती कहाँ पाई जाती हैं इस सम्बन्धमें सुश्रुतकार मीठा जिसका रस हो वह कृष्णा-कापोती है।
लिखते हैं:कापोत या कापोती साधारणतया कबूतर और कबूतरीके कौशिकी सरितं तीा संजयानयास्तु पूर्वतः। अर्थमें प्रसिद है, पर सुश्त नामक आयुर्वेद ग्रन्थके उन क्षिति प्रदेशो वाल्मीकै राचितो योजनत्रयम् । रलोकोंमें वर्णित कापोती क्या वनस्पति (औषधि) के विज्ञेया तत्र कापोती श्वेता वल्मीक मूर्धसु । लिये नहीं पाया है ? पाठक विचार करें।
अर्थात् श्वेत कापोती-कौशिकी नदीके पार संजयंती'कवोय-शरीरे' इसमें 'कपोत-शारीर' शब्दसे जड़ और के पूर्व योजनकी भूमि है जो सर्पकी बांवियोंसे विस्तृत है, पत्ते समेत कपोत फल ऐसा अर्थ है। 'शरीर' शब्द वनस्पति वहाँ बौषियोंके ऊपर पैदा होती है। प्रकरणमें फल, पत्र, जद सबको ले लेनेके अर्थमें प्रयुक्त उ दरणसे यह दर्पणकी तरह स्पष्ट है कि औषधिहोता है। अनेक औषधियों में यह बताया गया है कि वह के प्रकरणमें 'कापोती' का अर्थ उक्त वनस्पति है, 'शरीर' 'पञ्चांग खेनानाहिसा और शरीर शब्द एकार्थ वाचक का अर्थ समूखपत्रांग है न कि 'कबूतर के शरीर'।
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किरण]
भगवान बुद्ध और मांसाहार
[२४१
दूसरी बात 'मज्जारकृतकुक्कुट-मांस' शब्द पर विचार शब्दसिंधु पृष्ट-२५९,सुनिषण्णःसूचिपनश्चतुष्पत्रोवितम्मुकः। करना है।
श्रीवारकः सितिवारः स्वास्तिकः कुक्कुटः सितिः ॥ मज्जार-मार्जार बिल्लीका वाचक है, सत्य है। बिल्ली
अर्थात् सुनिषण्णकके इतने नाम हैका वाचक 'विडार' भी है। विडारके नाम पर प्रसिद्ध
सुनिषण्ण-सूचीपत्र-चतुष्पत्र, वितुनक, सिविचार, औषधि है जिस विदार' या 'विदारीकन्द' कहते हैं।
स्वास्तिक, 'कुक्कुट' सिति । इसमें सुनिषण्ण बनस्पतिको कुछ प्रमाण देखिए
'कुक्कुट' यह नाम भी दिया है। जिससे यह स्पष्ट है कि (१) "विडाली स्त्री भूमिकूष्माण्डे'
यह भी एक वनस्पति है। शब्दसिन्धुमें इसे 'शाल्मलि
-शब्दार्थ चिन्तामणि लिखा है। अर्थात् 'विडाली' शब्द स्त्रीलिंग है और भूमिमें होने
मांस शब्द जिस तरह मनुष्य पशु पक्षीके स्थिर रक्त वाले 'कूष्माण्ड' जिसे हिन्दीमें 'कुम्हड़ा' या 'काशीफल
रूप' अर्थमें आता है वैसे ही अनेक ग्रन्थों में फलके गूदेको कहते हैं उस अर्थमें आता है।
भी मांस नामसे लिखा है। (२) विडालिका स्त्री भूमिकूष्माण्डे'।
अनेक प्रमाण इसके हैं-वैद्यक शब्दसिंधु।
रोम शब्द-वनस्पतिके रेशोंमें, रक्त शब्द-वनस्पतिके इसका अर्थ ऊपर प्रमाण ही है।
रसमें, मांस शब्द-वनस्पतिके गूदेमें, अस्थि शब्द-वनस्पतिके (३) 'विदारी द्वयम् विदारी क्षीर विदारी च।'
बीजोंमें प्रयुक्त किये हैं। ___ अर्थात् विदारी या विडारी दो प्रकार है एक सामान्य
कुछ उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जायगा। विदारी एक क्षीर विदारी। क्षीर विदारीका अर्थ है जो
'मूले कंदे छल्ली पवाल साल दल कुसुम फल बीजे' क्षीर कहिये दृधको विदारण कर दे। चूकि बिल्ली दूधको बचने नहीं देती इस अर्थसे विदारीकन्द जो दूधको दूध
___ --गोमटसार जीवकांड (दिगम्बर जैन करणानुयोग) नहीं रहने देता, उसका विदारण कर देता है इस अर्थ
इस श्लोकमें सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित बनस्पतिके साम्यक कारण उसे क्षीर विदारी या विदारी या विडारी
प्रकरणसे छल्ली शब्दका संस्कृत शब्द 'स्व' बताया कहते हैं। लोकमें विडारी या विटारिकाका अर्थ बिल्ली
गया है। माना जाता है । पर इस प्रकरणमें ग्रन्थकारने उसे 'भूमि
'तणुकतरा' शब्दमें पतनाल्नु माने पतली पाण अर्थ कृप्मांड' या विदारीकन्दके नामसे स्वयं उल्लेख किए हैं।
किया गया है।
त्या शब्द चमके अर्थ में भी पाता है और यहां 'गजवाजिप्रिया वृप्या वृक्षवल्ली विडालिका'
'छाल' के अर्थ में पाया है। यह विडालिका' नामक वृक्षकी बेल हाथी और घोड़ोंको प्रिय है, वे खाते हैं और वह पुष्टिकारक है।
देखिए वाग्भट (वैधकप्रन्थ) में
स्वक् तिक्रकटुका स्निग्धा, मातुलिंगस्य बातजित् । वृहणं इस श्लोकके पढ़नेके बाद विडालिका' का अर्थ वृक्षकी मधुरं मासं वातपित्त हरं गुरु । अर्थात् मातुलिंग (विजौरा) बेल स्पष्ट हो जाता है न कि बिल्ली। शब्द प्रयोगमें कमी की छालके लिए त्वक' शब्द पाया है जो चमके अर्थ में कभी श्लोकमें यदि विडालिका चार अक्षरका शब्द नहीं भी आता है। मातुलिंगका गूदा पुष्टिकर मीठा और बनता तो पर्यायवाची 'मार्जार' शब्दका भी प्रयोग कर वातपित्तनाशक है। यहां गूदाके लिये 'मास' शब्द लिखा दिया जाता है। संस्कृत साहित्यमें इसके सैकड़ों उदा- गया है।
इस तरहके अनेक प्रकरण है जिनसे यह स्पष्ट है कि कुक्कुट शब्दका विचार
अस प्राणीके शरीरके वर्णनमें 'स्व' शनका अर्थ चमका सुनिषण्णक नामक वनस्पतिका दूसरा नाम कुक्कुट है। रकका अर्थ खून और मांसका अर्थ जमा हुआ खून है। देखिये
है। अस्थिका अर्थ हही है। किन्तु वनस्पति प्रकरणमें इन कुक्कुटः कुक्कुटकः (पुजिंगः) सुनिष्षणकशाके - सभी शब्दोंका क्रमशः अर्थ स्वबाल । रक-रस । मांस
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२४२ अनेकान्त
[वष १४ गूदा याने फलका गर्भ भागा प्रस्थिका अर्थ फलके बीज है। पर यह प्राज्ञा दी किदशवकालिक (श्वे. सूत्र) में वर्णित-
मेंद्रियग्राममें रेवतीके घर जानो। उसने मेरे रोगबहुमठियं पुग्गलं प्रतिनिसं बहुकार्य प्रादि वाक्योंमें शमनार्थ जो दो कपोतफल समूल-पत्र बनाकर रखे हैं, वे बहुत 'अस्थि' वाले पुद्गल अर्थात् फल, बहुत कांटे वाले न लाना । कारण वे मेरे निमित्तसे बनाये हैं। उनके खाने में फल प्रादिके खानेका निषेध किया है। यहां अस्थि शब्द उहिष्ट दोष होगा। तुम उमसे 'बिडारी कन्दके द्वारा कृत बीजका वाचक है तथापि तोकमें साधारणतया अस्थि नाम यानी उसकी भावना दिए हुए शाल्मली वृक्षके फलके हीका है।
गूदेको लाना, जो उसके पास पहलेसे तैयार रक्खा है। इस प्रकारके शब्दों के प्रयोग ग्रंथकारोंने किये हैं। क्यों जिससे उद्दिष्टका दोष न भावे । किए ? इसका भी एक कारण है। उस प्राणीके शरीरमें यह उस प्रकरणका संगतार्थ है। पर कौशाम्बीजीने जो स्थान चमड़ा, रक, मांस और हड़ीका है, फलके निर्माण अपने प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिए जानबूझ कर उन शब्दोंमें भी उसी प्रकार छाल, रस, गूदा और बीजका भी है। के अर्थका अनर्थ कर भ० महावीर और जैन लोगोको रचना प्राणि-जगत्में करीब-करीब समान पाई जाती है। लांछित करनेका घृणित एवं निंद्य प्रयास किया है। उस लिहाजसे अनेक स्थानोंमें न केवल श्वेताम्बर जैन जैनोंके सभा सम्प्रदायवालोंका इस समय यह परम आगमों में बल्कि आयुर्वेदके प्रधानतम ग्रन्थोंमें सर्वत्र ऐसे कर्तव्य है कि वे एक स्वरसे उक्त अंशका प्रबल विरोधकर शब्दोंका प्रयोग पाया जाता है।
उसे उस पुस्तकमेंसे निकाल देनेके लिए भारत सरकारके उन सभी शब्दके अर्थको विचार करने पर फलितार्थ शिक्षा विभागको बाध्य करें। अन्यथा यह पुस्तक भविष्यमें यह होता है कि-'गोशालकके द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने अहिंसाको परम धर्म मानने वाले जैनियोंका मुख ही पर भ. महावीरको पित्तज्वर-दाह आदि रोग होगया और कलंकित नहीं करेगी, अपितु जैन संस्कृतिको ही समाप्त उसके दूर करनेके लिए उन्होंने सिंह नामक शिप्यकी प्रार्थना करने वाली सिद्ध होगी:
पार्श्वनाथ वस्ति-शिलालेख दक्षिणभारत जैनकला, स्थापत्य और साहित्य, राजा, तस्य कुल वनिता राजमंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुनियों, भहारकों और त्रिवर्ग ससाधनसावधाना साध्वी शुभाकारयुतासुशीला श्रावकोंको धर्म-प्रेमकी गाथाओंसे गौरवान्वित है।वहांके जिनेन्द्रपादाम्बज भक्तियुक्ताश्रीचिकतायीति महाप्रसिद्धा विशाल मदिर मूर्तियां, गुफाएँ और कलात्मक अवशेष प्लवादेऽप्याश्विने शुक्ल दशम्यां गुरु वासरे जैनधर्मको गरिमाके प्रतीक हैं। यहां चामराजनगरकी कनकाचल-पार्वेश-पूजार्थ पच्च-पर्वसु । पार्श्वनाथ वस्तिके भव्य प्राङ्गणमें छप्पर पर मण्डपके मुनीनां नित्य दानार्थ शास्त्रदानाय सन्ततं, पाषाणपर निम्न शिलालेख उत्कीर्णित है जो शक वर्ष।१०३ चिक्क-तायीति विख्याता दत्तश्री किन्नरी पुरा॥ प्लव संवत्सरका है। वह पाठकोंकी जानकारीके लिए एपि- तयोः पुत्रः ग्राफिका कर्नाटिका जिल्द से नीचे दिया जाता है - विद्यासारस्सदाकारस्सुमना बन्ध-पोषकः । श्रीविद्यानन्द स्वामिनः ।चिकतायि गलु।
हृदयः पूज्यो भिषग-राजस्तत्त्वशीलो विराजते । श्रीमदच्युत राजेन्द्राद् दीयमान सुतोवरः ।
ई.शामनद शक वर्ष ११०३ ने प्लव सं० श्रामदच्युत-वीरेन्द्र शिक्ययाख्या नृपानीः ॥? इस शिलालेखमें धरणी नामके वैद्यराजकी धर्मपत्नी तस्य भिषग्वरः ।
चिकतायीके द्वारा पंचपर्व दिनों में कनकाचलके पार्श्वनाथकी कमलन-कुल जातो जैन धर्माब्ज-भानु
पूजा, मुनियोंके नित्य (आहार) दान और शास्त्र दानके विदित-सकल शास्त्रस्सद-बुध-स्तोम-सेव्यः।
लिये किसारीपुरा नामका ग्राम उन शक संवत्की आश्विन मुनिजन पद भक्तो बन्धु-सत्कार-दक्षों।
शुक्ला दशमी गुरुवारके दिन दानमें दिया गया है। धरणि-पवर-वैद्यो भाति पृथ्वीतलेऽस्मिन् ॥
-परमानन्द जैन
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
ते सुभद्याय-देवि जगसारी,
महु प्रवराहु खमउ भंडारी । दय-धम्म-पवत्तणु विमल सुकित्तणु णिसुणतहो जिणइंदहो। जं होइ सुधरण उ हर मणि मण्णउ तं खुद जगि हरिइंदहो। इति श्री वर्धमानकाम्ये श्रेणिकचरित्रे एकादशमः संधिः।
प्रति जेनसिद्धान्तभवन आरा लि. सं. १६०० २७-भविसयत्त कहा (भविष्यदत्त-कथा)
कवि श्रीधर, रचनाकाल सं. १२३० भादिभाग:ससि-पह जिणचरणइं सिष-सुइकरणई पणविवि गिम्मल
गुण-भरिउ। आहाममि पविमलु सुन्न पंचमिफलु भविसयत्त-कुमरहो चरित
सो णदउ जो लिहह लिहावइ, रस-रसदु जो पढइ पढावा । जो पयत्थु पयडेवि सुभग्वह, मणि सरहणु करेइ सुभम्वहं। यंदउ देवराय यंदण धर, होलिवम्मु कएणु च उएणय कर। एहु चरित्तु जेण विस्थारिउ, लेहाविव गुणियण उवयारिउ । होउ संति शीसेसह भन्वहं, जिय-पय-भत्तह वियलिय-गब्वहं । वरिसउ सयल-पहुमि घरवारह, मेह जालु पावम-वसुहारहं। घरि-घरि मंगल होउ सउण्णउ, दिणि-दिणि धण धरणहं संपुण्णउ । होड मंति चउविह जिण-संघहु, देसवास गारणाह दुलधहु। णंदउ सासणु वीर-जणिदहो, साणयराय-रिद-णिवासहो। मंदर-सिद्धार होउ जम्मुच्छल, घरि-घरि दु'दुहि-सद्दु अतुघउ । होउ सयल पूरंतु मणोरह, परमाणंद पवउ इह पह। अभिय-विड उसहएवहं यंदणु, जगि जगि मित्त वि दुरिय-णिकंदगु । विण्णवेइ सम्मत्त दय किज्जउ, मासय-सुह-णिवासु महु दिज्जउ ।
आल्हा साहु साहसु महुणंदणु, सज्जण-जणमण-णयणाणंदणु । होहु चिराउस थिय-कुल-मंडणु, मग्गहा-जण दुह-रोह विहंडणु।। होउ संति सयलहँ परिवारह भत्ति पबद्दउ गुरु-त्रय-धारह । पउमणंदि मुणिणाह गर्णिदहु, चरण सरणु गुरु कइ हरिइंदहु । जं होगाहिउ कव्वु-रसह,
पउ विरइउ सम्मइ अवियदृहँ। । यह पाठ जैनसिद्धांत भवन प्राराको प्रतिमें नहीं है।
सिरि चंदवार-णयर-टिएण, जिला-धम्म-करण उक्कटिएण । माहुरन्कुल-गयण तमीहरेण. विबुहयण सुयण मण घण हरेण । णारायण-देह समुन्भवेण, मण-चयण-काय-णिदिय-भवेश । सिरि वासुएव गुरु-भायरेण, भव-जन्नणिहि-णिवढण-कायरेण । गोसेसें सविलक्ख गुणालएण, मइवर सुपट्ट णामालएण। विणएण भणिड जोडेचि पाणि, भत्तिए कह सिरिहरु भवपाणि । इह दुल्लहु होइ जीवह हरत, णीसंसह सं साहिय परत्तु । जइ कहव बहा दइयहो वसेय, चउगइ भमंतु जिउ सहरसेपण । ता विजड जाइ गम्मे वि तेमु, वायाइउ गहेसर पन्भु जेमु। मह बहइ जम्मु ता बहु-विहेहिं,
रोयहिं पीडिज्जइ दुह-गिहेहिं। जह णियि मायरि अय-खामोयरि अवहेरह बियमणि अणसु पय-पाण-विहीणउ जायह दीउ तासो पवि जीवेह सिसु ॥२
हायह मायइ मह मइए, सई परिपालिड मंथर-गाइए।
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२४४] अनेकान्त
[वष १४ कप्पयरूव विउलासए सयात्रि,
२८ संभवणाह चरित (संभवनाथ चरित)
कवि तेजपाल दुल्लहु स्यणु व पुण्येण पावि ।
आदिभाग:नई एयहिं विरयमि गोक्यार,
पणविमणिदहो चरिम जिणिदहो वीरहो दंसणणाणवहा । उग्धाडिय सिव सड हलय वारु ।
सेणियहु णरिंदहो कुवलयचंदहो णिसुबहु भवियहो पवरकहा ताकिं भणुका मइ आयएण,
सेणियरायहो लच्छि सहायहो सयलु सउणउं सुहयरु । जम्मक-मह पोडा-कारएण। पर जाणि वि सुललिय पहिं सत्यु,
कुवलय पासासणु तमणिण्णासणु जयड चरितयं हि मयरु
वसंततिलका-संबद्ध सत्तमधरा णियजीवके वि, विरयहि बुहयण मणहरु पसत्थु ।
सीसेण ............ पाउलहि विवेड। महु तशिय माय णामेण जुत्त,
गोतु णिबद्ध अरुहस्स फलेण जस्स, पायडिय जियेसर भणिय सुत्त ।
सहसणस्स महिमा पयडेमि तस्स छ। वणिवा भक्सियत्तहो चरितु,
महो भवियहो णिसणहु थिरु कुणेहु, पंचमि उववासहे फलु पवित्त ।
सेणियचरित्तु जह तह सुणेहु । महु पुरउ समक्खिय वप्प सेम,
चिरु पयडिउ गोयमसामि जेम, पुष्वायरियहि भासियउ जेम।
बहु रस रसड्दु हउं भणमि तेम । हिसुसविणु कइणा पउत्त,
इह दीवि भरह खेतंतराल, मो सुप्पढ पई वज्जरिउ जुसु ।
हिउ मगहदेसु गिरि सरि विसाल । जइ मुज्म समस्थि गड करेमि
कशाहव जो एंदण वणेहि, हडं अज्जु कहब णिरु परिहरेमि ।
तरु सहलिय कुसुमिय पल्लव धणेहिं । ताकिं भायह महु बुद्धियाई,
रयणायरुब्व रयणायरेहि, कीरह विउलाए स-सुद्धियाइ।
उरणय घणुछ बहु-जल-सरेहिं। पत्ता-किंबहुका पुणु-पुणु भणिएं साबहाणु विरएवि मणु ।
कय कन्वु व बहुरस-पोसणेहिं. मोसुप्पट महमद जाणिय भवगण गणमि हउंमणे पिसुख-यणु वल्लह व कय हलकरि सणेहिं ।
कण्हु व कंसा शिक्कंदणेहि,
अरहु व सेविवु सक्कंदणेहिं । इय सिरि-भविसयत्त-चरिए विह-सिरि सुकह सिरिहर
बहुधगवेसुव कय-विक्कएहिं, विरइए साहु पारायण-भज्ज रुप्पिणि-णामंकिए भविसयत्त
मीमंसु व पोसिय तक्कएहिं। उप्पत्ति-वण्यायो याम पढमो परिच्छेनो समत्तो ॥ संधि
अज्जव महिव्व जण भोइएहि, अन्तिम भाग:
समसरणु व संठिय जोइएहिं । गरणाह विक्कमाइच्च काले,
जं सोहह पुरु तहिं गयगेहु, पवहतए सुहयारए विसाले। वारहसय वरिसहि परिगएहि,
जय पास वर भास पूरिय जणाणास, फागुण-मासम्मि बलक्ख पक्खे,
जयवीर जिवाइंद शिह णिवास । दसमिहि दिणे तिमिरुक्कर विवक्खे ।
बारसंगि समयग्गय जिणमुरुणिमाय छहसण पोसिय णिस्य। रविवार समाथिउ एउ सत्यु,
दुविहालंकारहिं णेय पयारहिं सा भयवइ सह जयउ सय ॥१॥ जिह मई परियाबिउ सुप्प सत्थु ।
पुणु पणवेमि मुणि तब-तेय-चारु, भासिट भविस्पयत्तहो चरित्तु,
चिर चरियकम्म दुक्खावहारु । पंचमि उववासहो फलु पवित्त ।
मुणि सहसकित्ति धम्माणुवट्टि, -प्रति आमेरभंडार लिपि सं०१५३०
गुणकित्ति गुणायरु ताह पहि।
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किरण]
जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
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तहो सीसु सेय-बच्छी-शिवासु,
अठहदवसि दुग्गाह गाहि (2) जसकित्ति जिणायम पह-पयासु ।
शामें पसिद्ध हाउत्साहि । वहो पट्टि महामुहि मलयाकित्ति,
पञ्चत बासि मंडलु असेसु, उद्धरिय जेश पारित वित्ति।
शियलि सहेविणु पुष्वदेसु । तहो सीसु णमंसमि शय-सिरेण,
तिहुअणि ण कोवि जे समु पर्यड, परमप्पड साइड पर जेश।
दक्खिणदिसि पेसिट शियय दंड। दो पढम माण दूरीकएण,
पच्छिम दिसि परवड जे जियंति, दो काहिं थियम दिए जेण ।
सेवंति चार अवसरु शियति । गुणभ महामह महमुणीसु,
उत्तर दिस गरवा मुइ वि दप्पु, जिएसंगहो मंडणु पंचमीसु।
माणंति प्राण डोक्ती कप्पु । जे केवि भन्च कंदोह-वंद,
किं किं गुण वरणमि पयड तासु, पणवेप्पिशु तह परविंदु निंद ।
शं तोयणिहिम्य गंभीरमासु । मुणि गुणकित्तिमहारउ तच्च वियारउसव्व सुहकर विगयमनु
मण इच्छिय-यह कप्परक्यु, मह पय पथवतहो भत्ति कुणंतहो कम्व-सत्ति संभवड फलु ॥२॥ अपदिणु जण वयहो विसुतु दुक्तु । इह इत्थु दीवि मारहि पसिद्ध,
तहिं कुल गयणंगहि सियपयंगु। यामेण सिरिपहु सिरि-समिछु ।
सम्मत्तवि-दूसण-भूसियंगु। दुग्गु वि सुरम्मु जण जणिय-राउ,
सिरि अयरवाल कुल कमल-मिनु, परिहा परियरियड दोहकाउ ।
कुलदेवि एवड मित्ताण गोतु । गोउर सिर कत्नसाहय पयंगु,
इह लखमदेव बामेय पासि, शाणा बच्छिए प्रालिंगि पंगु ।
अह सिम्मलयर-गुण-रयानासि । जहि-जण गयणादिराई,
वाल्हाही णा तासु मज्ज, मुणि-यश-गण-मंडिय-मंदिराई।
सीखाहरणालंकिय सलज्ज । सोहंति गउर-बर कइ-मणहराई,
तहो पाम पुतु जब-गयाराम, मणि-जडिय किवादई सुंदराई।
हुभ प्रारक्खिय तस जीव गामु। जहि वसहिं महायण चुय-पमाय,
शामें खिउसी जब-जक्षिय-काम, पर-रमणि परम्मुह मुक्क माय ।
वोयड होलू सुपसिद्ध सामु। जहिं समय करडि घट घड हडंति,
तहो वीह बरंगण ति-अवसार, पडिसह दिसि विदिसा फुटंति ।
सामेण महादिव्ही सुनार । नहिं पवण-गमन धाविय तुरंग,
तेहिमि दोहिमि सुहलक्खाहिं मजहिं सोहा सेट्टि पर। एवं वारिपासि भंगुर-तरंग।
जिम णंद सुर्णदहि मणहरहि रिसहु जिसरु तिजब पहु॥४॥ जो भूसिड णेत-सुहावणेहि,
तह दिवही पुत् चयारि चारु, सग्यब्व धवल-गोहण गोहिं।
वियत्तवि वि सिज्जिय-धीर-माह । मुरयण वि समीहहि जहिं सजम्मु,
दिउसी शामें जण-अविष-सेट, मेल्लेविणु सग्गालउ सुरम्मु ।
गुरु-मसिए संबड-अहह दे । रिड-पीस-विहहणु पविउलु पट्टयु सिरिपह यामे रवि-विहि।
तस्सागुड बंधड अवरु जाड, वहिणि सह महिवह रूवे सुरवह इतरु परहं पयंदु सिहि ॥३ विण्याहरणावं कियर कार। किं वयमि अह रवि-सरिस-तेड,
जो दितु दाशु बंदीयवाई, महि-मलि पयही कय-विवेड ।
विरए विमासु खहरिस-मसाई।
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२४६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
जसु तणियकित्ति गय दस दिसासु,
बामेय थल्हा जिण भत्ति सुत्तामु, जो दितु ण जाणइ सइ सदासु ।
तें भणिउं का इक्क दिय इम्मि सिरिधामु । जसु गुण कित्तणु कइयण कुणंति,
जियणाह कम मूलि सिरु थाइ थिर रातु, अथवरउ बंदियण बिरु थुण ति ।
अक्खेह णिय काज सिरिमंतु सु-महंतु । जो गुण-दोसई जाणइं वियारु,
भो पंडिया लद्ध वर कब्व-कय-सत्ति, जो परणारी-रह-णिग्वियारु।
श्रणवरय पइंविहिय आजम्म जिणभत्ति जो स्यणत्तय-भूसिय-सरीरु,
भव-दुह-तरंगाल-सायर-तरंडस्स, पडिवएण-वयण धुर धरण धीरु ।
एवं महिय रहणाहु गुणमणि करंडस्स । रेहह थोल्हाणामेण साहु,
बहुभेय दु-कम्मारि-इय जेण, गुरुभत्ति गाविय तिश्लोक याहु ।
परिधविय भन्वयण दयधम्म अमिएण। तस्साणुय अवरुवि मल्लिदासु,
छंडवि उण तव तिब्व दित्ती दिणंदस्स, को वरिणवि सक्कइ गुण-सहासु ।
पाइडहि वर कन्बु संभव-जिणिदस्स । जिणु कुंथुदासुम भाइ,
तं णिसुणि विभासइ सरि विसरासह तेजपालु जयमि तु बहु । जिण पुज्ज पुरंदर गुण विहाइ ।
तव-वय कप-उज्जमु पालिय संजमु अवहत्थिय गिहदंड दुहु(?)।६ ता भणई थील्हु ते धरणवंत,
भो णिसुणि थोल्ह वर सुद्धवंस, कुल-बल-लच्छी-हर याणवंत ।
णिय-कुल-कमलायर रायहंस । प्रणवरउ भमह जणि जगि जाहं कित्ति,
मणिमलिण वि दुस्समु कालुएहु, धवलंती सयरापर घरत्ति।
दुय माण विवज्जिउ दुक्ख-गेहु। ता पुणु हवेइ सुकहत्तणेण,
हर हरवइ एवहि धम्महीण, अहवा सुहि पुत्त सुकिनणेण ।
बहु पावयम्म विहवेण खीण। घणु दित कित्ति पसरेड लोह,
जो जो णरु दीसय सो दु मित्तु , वि दिज्जइ तो जस-हाणि होह ।
किंह अत्थि पयइ मा चित्त । अहं किं पुत्त धणुहम्मि जाम,
जिण संभवहो चार एम, कित्तणु विहाइ धरणियलि ताम ।
णायण्णु कहवि कहमि केम । सुकाइत जा गिरि-सरि-धरत्ति, ससि सूरि मेरु णक्खत्त पंति।
इस सभव-जिणचरिए सावय-विहाणफल भरिए पडियसुकरच वि पसरवि भवियणम्मि,
सिरितेजपालविरहए सज्जणसंदोह-मणअणुमरिणए सिरिसंसग्गे रजिय सज्जणम्मि ।
महाभब्व थील्हा सवण-भृसणे सिरिविमलवाहणिव-धम्मश्रह सावय कुल तो महु पहाणु,
सवण-वएणणो णाम पढमो परिच्छेना समत्तो ॥१॥ लेहावमि संभव-जिण पुराणु ।
अन्तिम भागएतहिं गुण सायर जण तोल्लायर जिय सासण भर णिग्वहणु
अयरवाल कुल-णहि दिवसाहिउ, सावय-वय पालउ सुद्ध सुहालउ दीणाणाह रोस-हरणु ॥१॥
मीतणु गोत्तु गुणेण य साहिउ। धम्मेण तव पुत्तु समसब सुहयारि,
णावडिकुल देवय संतुहर, चाएण कण्णु बल-रूबेण कंसारि ।
धण...''घणधार पउट्ठ । समदिदिठ वर वंसि णियगोशि गहि-चंदु,
सोता संघ हिउ चिरु हुँतड, जिणधम्मवर मुक्ति सावय मणाणंदु ।
णिय विढत्तु मिरिहलु भुजंता । लखमदेव सोमव्व सुष्युत्तु महि धण्णु,
चडविह संघभत्ति जे दाविय, महादेवही माइवर अंगि उप्पएणु ।
जे जिणबिंब पाठ कराविय।
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किरण-]]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[२४७
%3
-
तेजा तासु पुन धणरिद्धट, जोवण सिय लावण्ण समिबउ । तासु-वरंगणि हिव-मिय भासिपि, थिर गजही दिन जिण-सासणि। लखमदेउ तहो सुभ गुणरिद्धर, णिय स्वोह हगिणय मयरड । बाल्हाही तहो पामें पत्ती, मुणिवर वयण निणागम भत्ती। खिउसी तासु पुत्तु गुणसायरु, बच्छराजही ऐह कयावरु । रणमिदासु तहां सुउ संजायउ, देवदातु अवरुवि विक्खायउ । खिउसी अण्णु होलु नहो भायर, छाल्हाही पिययमु सुक्खायरु । देवपालु तहो पुत्तु पसिद्धउ, श्राचरह अवरु गुण-रिदउ। लखमएव गिह बीय यरंगण, महादवही णट सुरंगण । दिवसी तामु पुत्तु गुण-सायरु,
गंगदेवही गाइय भज्जरु । पत्ता-तहो पुत्तु कुमारसीह अवरु दिउचदु जाणित्तउ ।
णागराजु चउत्थउ धम्ममह पुणि पंचायणु पंचमउ ॥२६॥ दुवई-णिदण कुट मंट वि दाणं देइ सहउ लवणे थोरहा।
तासु बंधु कुल मंडणु,दुह-सिहि-समणु णवघणे ॥६॥
कोल्हाही खामें तहो भामिणि, सुहलक्खण सधम्म रु सामिणि । तासु कुक्खि उप्पण्णु मणाहरु, तिहणपाल गामें कुल-ससहरु । थीलक्षा भज्जु अवरु बहुयारी, मासराजही बहुगुण सारी। तासु कुच्छि रणमलु उप्पण्णड, पुण्णवंतु महिमंडाल धण्णउ । थोल्हा बहुउ बंभु गुण दहउ, जिणवर मलिदासु सुपसिद्ध । भावणही नहोीय महाइय, रेहद पुत्त चारि विराइय। हमराजु पढमउं जण-पुज्जिड, पुणु जगसी णरपति ती) तहज्जउ ।
तुरियउ महणसीहु उपाय करू, णंदहु ताम जाम ससि दिया । लखमदेव सुउ पचमु सारउ, जिणवर कुंथुदासु हय गारउ । जसुचाएण दुहिय-सोक्खं-करु, छिण्ण माजम्मु वि जायउ गरु । जा सुत्तउ पेच्छेग्विणु वंगड, लज्जा कामु वि जाउ भयगड । जसु गंभोरिय गुण असहंतड, अंभोणिहि खारत्तणु पत्तउ । जो जिणभासिय धम्म धुरंधरु, गिय जसेण धवजिय गिरिकंदरु। तहो पिय धणयाही धर पराउ, भोज्जू तासु पुत्त उप्पण्णउ । राजा अवरु जाड दिदियारउ,
सज्जण-जण-मण-यण-पियारउ । पत्ता-पवयण सुवण्णमउ म रइउ अमलीकय दिसिमंदलु
साथील्हा मवणि परिविउ संभवजिण कह कुडलु । दुवई-जयगुरवयण सिहिय संजोएं असुद्धिंधण णियत्तणं । हिय मियत्तसिरम्म सोवरणहं लेहणिकर पवत्तणं ॥६॥
णिय विण्णाणएण णेवाविउ, सोहग्विणु मुणिणाहहो दाविउ । साहु साहु तासु यणहो भामिउ, रयणत्तय गुणेण संवासिउ । णाणा-छंदुविंद मणि जडियड, संभवजिण गुण-कंचण घडियउ। एहु चरिउ कुडलु सोहिल्लड, थील्हा सवणाहणु अमुल्लउ । चढउ जिणवर धस धुरंधरु, चणि वरणीय पयासण सुदरु । सम्मद सय गुणेण पुरंदर, णियरूवें सव्यंगे सुदरु । जिह धम्मु विवाढिय दयजुत्तिय, जिय उवसम भावण जि खातय । जिह पुराणें दहलच्छिय हुत्तणु, तिहथीन्हा मंताण पवत्तणु । अमुणंतेण एह प्राहासिउ, जिणवाहे जो भागम-मासिउ ।
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२४.]
अनेकान्त
[वर्ष १४
मुणिवर बाहेण निसोहिम्बड
अंतिम भाग:महुलहु बुदिए दोसु म दिवउ ।
सय पमाय संवरकर खीणह, पत्ता-अण मंगलया एहुमणं माहासिउ जियधम्म पहुब्वण । पुणु सत्तग्गल सरवोलीबह । ......"पवड धरणियति णिमल्ल-बोहि-समाहि-महो । वसाहहो किराह विसत्तम दिणि, इस संभवजिय-चरिए सावयायार विहाण-फलाणुसरिए
किउ परिपुरणउ जो सुह महुर-णि । कहतेजपाल वरिणदे सजण-संदोहमणि अणुमरिणदे सिरि
विउलकित्ति मुणिवरहु पसाएं, महामन्व-धील्हा सण भूमणो संभवजिरा शिवाण गमगो
रहयड जिणमत्तिय अणुराए। शाम छहो परिच्छेमो समत्तो सिंधि ॥
मूलसंघ गुणगण परियरियड, -प्रति ऐ..दि. जैन सरस्वतीभवन यावर
रयणकित्त हूयउ मायरियउ । लिपि सं०१५-३
भुवकित्ति सीसु वि जायठ, २६ वाचरित (वगंगचरित)
खम-दमवंतु वि मुणि विक्खायउ । कवि तजपाल रचनाकाल सं० १५००
तासु पट्टि संपय विशिविहिट्ठड, मादिभाग:
धम्मकित्ति मुणिवरु वि गरिट्टर। पणविवि जिणईसहो जियवम्मीसहो केवलणाण पयासहो।
तहो गुरहाइ विमलगुण धारउ,
मुणि सुविसालकित्ति तव सारउ । सुर-गर-खेयर-बुह-णुय-पय-पयरूह. वसु कम्मारि विणासह ।।
सो अम्हहं गुरु जहि महु दिरियाय, वसु-गुण-समिद्ध पावेवि सिद्ध,
पाइय करण बुद्धि मइ गिरिहय । पायरिय गमो जगि जे पसिद्ध ।
जिणभत्ति-पसायं मइ अणुराय कियउ कम्वु कय तमु विलउ उज्झाय-साहु पविवि तियाल, सिव-पहु दरसाविव गुण-विसाल ।
पुणु गुरुणा सोहिउ हरह विरोहिउ विउकित्ति बयण-तिलड वापसरि होड पसरण-बुद्धि,
सर पियवासउ पुरसुरसिद्धत, जिणवर वाणिय कय-विमल-बुद्धि ।
धण-कण-कंचण-रिद्धि-समिट। हउँ खेड छंद जक्खन-विहीणु,
वरसावडहवंसु गरु थारउ, वायरणु ण जागमि बुद्धि-हीणु ।
जालहउ णाम साहु वणिसार । बड जाणमि संषि समास किपि,
तासु पुत्तु सूजउ दयवंतर, चिट्ठत्त करेसमि कम्खु तंपि ।
जिण धम्माणुरत्त सोहंतड। हउं जाथमि जिणवर भत्ति जुत्ति,
तासु पुत्त जहि कुल उद्धरियड, वित्थर जेश पविमल सुकित्ति ।
रणमल बामु मुबहु गुणभरियड । जे विउल बियक्खण बुद्धिवंत,
तहो लहुयउ वल्लालु वि हुँतउ, जिशभत्ति-जीण पटिय महंत ।
जिण कल्लाइ अत्त कुणतउ । तेहपाहिउ पर मुशिवि कम्वु,
पुणु तह लहुयट ईसरु जायउ, परिट्टबहु थारु पड परम भब्यु ।
सपा प्रत्यह दय गुणरायउ॥ सुरसरणयरहिं शिवसंत संत,
पोल्हणु सामु चउत्थु पसिद्धर, महु चिंतउ परिणय मणि महंत ।
शिय-पुण्णण दग्व बहुलबुड । महु णाम पसिद्ध तेयपालु,
इय चत्तारि वि बंधव जायणु, मह गमिउ णिरस्थउ सयजु कालु।
वर खंडिलवाल्त विक्खायणु ॥ एवहि हउ करमि चिरमलु हरमि रायवरंग चाह चरिउ । रणमल णंदणु ताल्हुय हुंतउ, जणु जवि याबहु तमुहयर्च कोकाल-सएहि भरिट ॥३॥
तासु पुत्त हका -गुण-जुस ।
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किरण]
जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[२४४
तेयपालु महुणामुय सिम्बर,
सो पणवेप्पिणु रिसहमिण भक्खय-सोक्ख-बिहाणु ॥ जियावर-मत्ति विबुह-गुण-बड।
ध्रुवकं-पणवेवि भडारउ रिसह याहु, कम्मक्खय कारण मल भवहारण मरहमति मह हपउ।
पुणु अजिउ जियेसरु गुण सणाहु। जो पढाइ पढावह शियमणि भावह येहु चरिउ तुइ सहियउ॥ x x x x एहु सत्थु जो सुबइ सुणावइ,
अन्तिमभाग:एहु सत्थु जो बिहइ लिहावा ।
इय भरहखेत्त संपण्ण देसु, एहु सत्थु जो महि वित्थारइ,
ठिउ गुज्जरत्तु णामेण देसु । सोणरु लहु चिरमल अवहारह ॥
तासु वि मज्महं ठिड सुपसिबू, पुणु सो भवियणु सिवपुरि पावइ,
शायर-मंडल-धण-कण-समिछु । जहि जर-मरणु ण किंपि वि प्रावह ।
तहि पयरु बाट संठिबउ ठाणु, यंदउ परवह महि दयवंतउ,
सुपसिद्ध जगत सिय पहाणु । यंदउ सावय जणु वय-वंतउ ।।
सिरि वीरसूरि तहिं पचर-प्रासि, महि जिण-शाहहु धम्मु पवउ,
विणयालंकित गुण-यण-रासि । खेमु सम्व जणवह परिवड्ढउ ।
मुणिभर सीसु नहिं जाउ संतु, कालि कालि वर पावसु वरिसर,
मोहारि-वियासणु थिम्ममत् । सच लोउ दय-गुण उकरिसड ॥
तासुवि सुकमारुह पयाड, अज्जिय मुशिवर संधु वि वंदड,
सिरि कुसुमभ६ मुणीसहु सीसु जाड । सयलु कालु जिणवरु जणु वंदउ ।
तासुवि भविषण-यण भास पूरि, जं किपि वि होणहिट साहिड,
संजायउ सीसु गुणभइसूरि। हीण-बुद्धि कव्वु वि गिब्वाहिड ।।
हउँ तासु सीसु मुणि पुरणभात तं सरसइ मायरि सम किज्जड,
गुणसील-विहूसिउ गुण-समुह । भवर विपडिय दोसु म दिज्जा ।
मइ बुद्धि विहीणेउ पहु कव्वु,
विरयउ भवियरा विसुर्णत सम्वु । जो गरु दयवंतड गिम्मन चित्तउ शिरचु जि जिणु भाराहा।
पत्ता-जा मज्जय-सायरु सबइ दिवायर सो अप्पड माइवि केवल पायवि मुत्ति-रमणि सो साहा।
जाम मेरु महि-वलय धिरु। हय वरंग-चरिए पंडियत्यपाल-विरइए मुणिविठल
जाहवह णहंगणु जणमण रंजणु कित्तिसुपसाए वरंग-सम्वत्थसिद्धि-गमयो णाम घडत्य संधी
ता एउ सत्थु जइ होइ चिरु॥१८॥ परिच्छेनो सम्मत्तो, संधि
इय सिरि सुकुमालसा.म चरिए भन्बयणाणंदयरे सिरि -प्रति ,महारक हर्षकीर्ति शास्त्रभंडार, अजमेर
गुण माह सीसुमुणि पुरणमा-विरहए सुकमालसामि सम्वत्थ. लिपि.सं. १६००
सिद्धि गमणो णाम छट्टो परिच्छेमो समतो। ३० सुकुमालचरित (सुकुमाल चरित)
-प्रति पंचायती मंदिर शास्त्र भंडार विल्सी। मुनि पूर्णभद्र
लिपि से०१६३२ आदिभाग:पढमु जियवरु यविवि भावे जउ-मउड
३१ णेमिणाह चरित (नेमिनाथ चरित) विहूसियउ विसय विण्हु मयणारि-णासणु ।
अमर कीर्ति रचनाकाल सं० १२४४ असुरासुर-पर-थुय-चलणु सत्त तच्च
आदिभागागव पयत्य खव यहि पयासणु॥
बिजयंतु हेमि पह-शाह-ससिया पुराण-पहा पयोहता। बोयालोयपयासपर बसु उप्परगट थाणु । कुमु राय हरिमडा सिपमणि परिबिम्ब-सक्सया बिच ।
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२५.] अनेकान्त
वर्ष४ विजयंतु पास-तणु-मिलिय-धरण-फण-मणि मयूर-णिउरंया।
जहिं सरि सरवर चउदिसि र-वगण, घणा-घाइ-कम्म-वा-डहण-सुद्ध माणग्गि-जाल पुजब्बा ॥२
पाणंदिय पहियण तदि विसरण । रयकसि बग्गसुतणुप्पहाए धम्मोवएस समयम्मि ।
जहिं चेईहर मणाहर विसाल, स जयउ वि सो जस्सहि सरमम-तडिव विप्फुरियं ॥३॥
एं मेरु जियालय महिय साल । हरिणको शिदोसो सम्पो (१) मय-णास विहाउसो ।
तिहुश्ण मंदिर गिह मणि बिहार, सञ्चित्तस्स वियासो संति जिणे सो जये जयउ॥४॥
फेडिय पुयंतण-यंधयार। अन्तिमभागः
अहिं पढमु जाउ घायरण सारु, ताहं रज्जि वतए विक्कमकालि गए
जो बुहियण कंठाहरणु चारु । बारह सय घउ आलए सुक्ख ।
मितिय जइवर हुबह तत्थ, सुहि वक्खमए भहवयहो सियपक्वेयारिसिदिणि तुरिउ ।
जहिं भवियण लीइय मोक्व-पंथ ॥ सक्कडिणक्खत्तए समप्पिउ सिरिणमिणाइ चरिउ ।
जहि णिच्च महोच्छव जण गेहि, उत्तर माहुर संघायरियहो चंदबित्ति णामहो,
कय भवियहिं भव प्रासंकिएहि । सुहचरियहो पाय-पणासिय परवाक दहो।
तहि शिवसहरयण गरुह भन्दु, सगुणाणंदिय कण्हणरिंदहो, सीसें अमरकित्ति णामके ।
परणारि सहोयरु गलिय-गन्छ । जिणवर दमण गयगा मयंकहो णाहिउ विरुन्द्र, अमुणा तं ॥ लखमणामहं तह तणठ पुत्तु, जं महु भामिड कच्चु कुणते तं महु स्वमहु मरासइ ।
लक्खम सराउणामे विसयहिं विरुत्तु । मार्मािण जिणवयणुड भव-सिव संभाहिणि ।
पुरबाड महिसउर तिलउ णाणि. असाच वुहिहिं समंजप चितहि मज्मन्धेहिं ।
सो अह-णिसि जीणउ जइणि-वाणि ॥ -प्रति भट्टारकभंडार मांगागिर
पत्ता-तहिं जोयउ वह रायउ, अवलोएविणु भवगइ ।
लिपि सं. १९९२ तं किज्जद हिउ अत्थु, जेण जीउ । मइ गइ ॥२६॥ ३. मिणाह चरिउ (नेमिनाथ चरित)
पउरवाल-कुल-कमल-दिवायरु, कवि लक्षमण
विणयवंसु संघहु मय सायरु । आदिभ गः
धण-कण-पुत्त-अत्थ-संपुण्णउ, विस-रह-धुर-धारउ विस्स वियारउ विसय विसम विसंकउ विडड
श्राइस रावउ रूव-रवराउ । पसममि वसु गुणहरु वसुधर तिय-बरुवारिय लंदण गुण-णिलउ नेण वि कयउ गंथु अकसायइ, (चतुविशति तीर्थकरोंको स्तुतिके बाद प्रथ प्रारम्भ
बंधव अंबएव सुसहायइ । किया गया है।)
कम्मक्खा णिमित्तु माहासिउ,
अमुणतेण पमाणु पयामिड । इति णेमिणाहचरिए अबुहका-यण-सुत्र-लक्खणेश
ज होणाहिउ किड बाएसार, विरहए मम्वयणमणाशंदे णेमिकुमार संभवो गाम पदमा
माणदेवि तं खमइ परमेसरि । परिच्छेयो समत्तो
लक्खम-छंदहीणु जं भासिड, अंतिम भाग:
तं बुहयण सोहेवि पयासिठ । मालवय विसय अंतरि पहाणु,
प्रारभिउ प्रासाढहिं तेरसि, सुरहरि भूसिउ शं तिमय-ठाणु ।
भउ परिपुण्ण चइतिय तेरसि । शिवसह पट्टणु णामई महंतु,
पढइ सुणइ जो लिहइ लिहावा, गोणंदु पसिद्ध बहु रिद्धिवंतु ।
मया-बलिय तं सो सुह पावह ॥ श्राराम गाम परिमिड धणेहि,
पत्ता-जं हीणाहिड मत्त-विहुणिउ साहिउ गयउ अयाणि । गा भू-मंडलु किउ णियय-दहि ।
संमज्मु खमिम्बउ लहु दय किज्जड साहलोउम्गमणि ॥२२
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचि-पूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन मूल-ग्रन्थोंकी पयानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिमन्य
उड़त दूसरे पोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पथ-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूण महत्वकी ७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत,. कालीदास नाग, एम. ए, डी. लिट् के प्राध्यन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए.डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बा साइज,
सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
मरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारोलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिस
युक्त, सजिल्द । (३)न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । ... (४) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्गभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, पम्पदरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महस्वकी गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठको प्रस्तावनासे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्वारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित। ... (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित।
" ॥) (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था। मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अजकृत, जिल्द । ... १) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ॥) (६) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-सहित । ... (१०) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जीके विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावनासे युक, सजिल्द ।। (११) समाधितंत्र और इष्टोपदेश--श्रीपूज्यपादाचार्य की अध्यात्म-विषयक दो अनूठी कृतियां, २० परमानन्द शास्त्रीके
हिन्दी अनुवाद और मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनासे भूषित सजिल्द । (१२) जैनग्रन्थप्रशसि.संग्रह-संस्कृत और प्राकृतके १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व
संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और ६० परमानन्दशास्त्री की इतिहास-साहित्य-विषयक परिचयात्मक प्रस्तावनासे अलंकृत, सजिल्द ।
...
.... (१३) अनित्यभावना-या. पदमनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । (१५) श्रवणबेलगोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन (१६) कसाय पाहुड सची -हिन्दी अनुवाद सहित (वीरशासन संघ प्रकाशन)
... २०) (१७) जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश महावीरका सर्वोदय तीर्थ ), समन्तभद्र-विचार-दीपिका ),
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरचक
१०१)बा० लालचन्दजी जैन सरावगी कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता
१०१) बा• शान्तिनाथजी * २५१) वा० छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१.१) बा• निर्मलकुमारजी २५१) वा सोहनलालजी जैन लमेचू ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता
१.१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , ५१) वा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन,
१.१) बा• काशीनाथजी, ... * ०५१) वा० दीनानाथजी सरावगी ,
१.१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) मा. रतनलालजी झांमारी....n
१.१) बा. धनंजयकुमारजी ५. २५१) वा बल्देवदासजी जैन सा .
१.१)बा• जीतमलजी जैन ५ २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल :
१०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २५१) सेठ सुत्रालालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची )बा मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली ) सेठ मांगीलालजी
१०१)ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देवली
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन ,
१०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा . २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली भू. २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा• फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता * २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली
१०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १.१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर + २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार J०५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता - भ. २५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता
१०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय.कानपुर सहायक
१०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली १०१) वा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) श्री जयकुमार देवीदास जी, चवरे कारंजा १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहली ) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
'वीर सेवामन्दिर १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१ दरियागंज, दिल्ली
२०५२ 3५
प्रकाशक-परमाननाजी जैन शास्त्री बीर सेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । मुहक-सवासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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पाता
अप्रैल १९५७
विषय-सूची
वर्य १४ किरण
मम्पादक-मंडल 'जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट
परमानन्द शास्त्री
१. श्री वीर-जिन-संवत-
[युगवीर
२५१ २. अध्यात्म-दोहावली- [श्री रामसिंह, पं० हीरालाल शास्त्री ३५२ ३. भगवान महावीर और उनके दिव्य उपदेश-[4. हीरालाल शास्त्री २१॥ ४. रूपक-काव्य-परम्परा
(परमानन्द शास्त्री २५६ ५. अभिनन्दन पत्र ...
...
... २६७ ६. शान्तिकी खोज- [प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य २६६ . आनन्द सेठ
पं० हीरालाल सितशास्त्री २५॥ ८. कलाका उद्देश्य- [प्रो० गोकुल प्रसादजी जैन, एम. ए. ... १. वीरसेवामन्दिरका प्रचार कार्य
२७३ १०. संस्कारोंका प्रभाव
[पं०हीरालास सिद्धान्तशास्त्री २७४ ११. जैन-प्रन्य-प्रशस्ति संग्रह १२. बीर-सेवा-मंदिरमें भी कानजी स्वामी
टाइटिन पे०२ १३. अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे
टाइटिल पे० ३ १४. सौ सौके तीन पुरस्कार
टाइटिल पे. ३
. वीर पेचा मन्दिर,देहली .......... "मूल्यः ।।
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वीर-सेवा-मन्दिरमें श्री कानजी स्वामी
तीर्थ क्षेत्रोंकी यात्रा करते हुए श्री कानजी स्वामी अपने संघके साथ ता. ४ अप्रैलके प्रातःकाल दिल्ली पधारे। जैन समाजकी ओरसे आपका शानदार म्वागत किया गया और आपको वीर-सेवामन्दिरमें ठहराया गया। प्रति दन प्रात: 5 से है बजे तक और मध्यान्हमें २॥ से ॥ तक आपका प्रवचन परेडके मैदानमें बनाये गये विशाल मण्डपमें होता था। हजारोंकी संख्यामें नर-नारी प्रापका प्रवचन सुनने के लिये प्राने थे। लगातार ३ दिन तक कांग्रेसके अध्यक्ष श्री उ. न.देवर भी प्रवचन सुननेके लिए आये । ना० ७.४-५७ को दिनके १ बजे वीर-सेवामन्दिरके संस्थापक श्रा० जुगलकिशोरजी मुख्तार के सभापति-बमें वीर-सेवामन्दिर और भा०व०दि. जैन परिषदकी पोरसे श्री कानजो स्वामीको अभिनन्दन पत्र समर्पण किया गया जो कि अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। मुख्तार सा. ने संस्थाके समस्त प्रकाशितग्रन्थोंकी, तथा कमायपाहुडसुत्त और जैन साहित्य और इतिहास पर विशद-प्रकाशकी एक-एक प्रति भेंट की। संघके समस्त यात्रियोंके लिए सन्मति विद्या प्रकाशमालासे प्रकाशित हुई समस्त पुस्तकोंके ५० सेट तथा अनेकान्तके चालू वर्षको पाठों किरणोंके ५० सेट भेंट किये गये । इस समय नगरके प्रायः सभी एय-मान्य महानुभाव उपस्थित थे। इसी समय जैनावाच कम्पनी वाले बाप्रेमचन्द्रजीने दिल्ली-निवासी कुछ प्रमुख लोगोंका परिचय कानजी स्वामीको कराया | तथा संघके संचालक श्री. नेमीचन्द्रजी पाटणीने संघके प्रमुख व्यक्रियोंका परिचय उपस्थित जनताको कराया।
श्री कानजी स्वामीके निमित्तसे ता. ३ अप्रैलको वीर-सेवान्दिरके अध्यक्ष श्रीमान् बा. छोटेलालजी भी हवाई जहाजके द्वारा कलकत्तासे दिल्ली प्रागये थे। स्वागत-समारोहका संचालन आपने किया। और अन्तमें आपने सभी समागत बन्धुत्रोंका आभार माना। श्री कानजी स्वामीसे मिलने और उनसे शंका-समाधान करनेके लिये स्थानीय और बाहिरके अनेक नगरोंसे सैकड़ोंकी सन्ध्यामें लोग प्रतिदिन आते रहे। ता. १ अप्रैलके प्रातः काल १ बजे श्री कानजी स्वामीने अलवरके लिए अपने संघके साथ प्रस्थान किया। इस प्रकार पाँच दिन तक वीर-सेवामन्दिरमें आनन्दमय वातावरण रहा।
-प्रेमचन्द्रजैन बी. ए. संयुक्रमन्त्री-वीर सेवामन्दिर
अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे जैन पत्रों में प्रकाशित अपनी सूचनाके अनुसार हमने विद्वानोंको अनेकान्त अमूल्य मेजना प्रारम्भ कर दिया है। जिनके पत्र २१ मार्चके पूर्व भागये थे, उन्हें २१ मार्चको अनेकान्त-प्रकाशनके दिन ही पाठवीं किरण भेज दी गई थी। तथा बादमें भाने वाले पत्रोंके अनुसार बुकपोप्टसे उन किरण भेजी गई।
हमारी सूचनाका लाभ उठाकर कितने ही ऐसे लोगोंने जिनकी संख्या १०० से भी ऊपर है-अनेकान्तको अमूल्य भेजनेके लिए पत्र भेजे हैं, जो विद्वानोंकी श्रेणीमें न आकर समर्थ व्यवसायी प्रतीत होते हैं। उन लोगोंको ज्ञात होना चाहिए कि यह पत्र प्रतिवर्ष काफी घाटा उठाकर निकाला जा रहा है चालू वर्षमें भी काफी घाटा रहेगा-जिसे वर्षकी अन्तिम किरणसे सर्व लोग ज्ञात करेंगे। ऐसी स्थितिमें हम अपने अनेकान्तके इन प्रेमी पाठकोंको अनेकान्त अमूल्य भेजने में असमर्थ हैं। फिर भी उनके अवलोकनार्थ पाठवीं और नवीं किरणको नमूनेके तौर पर भेज रहे हैं । आशा है कि पत्र उन्हें पसन्द आवेगा, और वे उसके वार्षिक मूल्यके ६) भेजकर ग्राहक श्रेणीमें अपना नाम लिखाकर हमें अनुग्रहीत करेंगे। जो भाई वर्षके प्रारंभसे ग्राहक नहीं बनना चाहते हों, वे ३) भेजकर छह मासके लिए ही ग्राहक बन जावें।
साथ ही अमूल्य अनेकान्त प्राप्त करने वाले विद्वानोंसे हम खास तौरसे आशा करेंगे की वे अपने सम्पर्कमें पाने वाले धनी एवं सम्पन्न व्यक्रियों को प्रेरणा करके अनेकान्तके ग्राहक बनाकर उसके वार्षिक या अर्धवार्षिक मूल्यको अग्रिम भिजवाकर वीर शासनके प्रचारमें हमारा हाथ बटावेंगे।
जो विद्वान चालू वर्षकी प्रारंभिक किरणोंको प्राप्त करना चाहें. पोष्टेजके लिए.) मनीआर्डरसे भिजवानेकी कृपा करें।
म्यवस्थापक-अनेकान्त
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भईम
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-स
नवतत्त्व-प्रकाशक
mummRABERRIERammeRemies
वार्षिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य ।)
X
नीतिविरोषध्वसीलोकव्यवहारवर्तकसम्बन्। परमागमस्यबीज भुबनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त।
।
वर्ष १४ किरण,
वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली वैशाख, वीरनिर्वाण-संवत् २४८३, विक्रम संवत २०१४
अप्रेल सन १९५७
श्रीवीर-जिन-स्तवन मोहादि-जन्य-दोषान्यः सर्वाजित्त्वा जिनेश्वरः । वीतगगश्च सर्वज्ञो जातः शाम्ता नमामि तम् ॥१॥ शुद्धि-शक्त्योः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमुत्तमाम् । देशयामास सद्धर्म तं वीरं प्रणमाम्यहम् ॥२॥ यस्य सच्छासनं लोके स्याद्वादाऽमोघलाञ्छनम् । सर्वभूतदयोपेतं दम-त्याग-समाधिभृत् ॥३॥ नय-प्रमाण-संपुष्टं सर्व-बाध-विवर्जितम् । सर्वमन्यैरजेयं च तं वीरं प्रणिदध्महे ॥४॥ यमाश्रित्य बुधाः श्रेष्ठाः संसारार्णव-पारगाः। बभूवुः शुद्ध-सिद्धाश्च तं वीरं सततं भजे ॥५॥
-युगवीर
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अध्यात्म-दोहावली (श्री. रामसिंह सूरी)
(4. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
१
अप्पायत्तउ जंजि सुह, तेण जि करि संतोसु। पर मुहु वढ चितंतह, हियइ ण फिट्टइ सोसु ॥
जो सुख स्वारमाधीन है, उससे कर सन्तोष । पर-सुख चिंतत हृदयके दूर न हो अफसोस।
.
जं मुहु विसय-परंमुहउ, णिय अप्पा मार्यतु । तं सुहु इंदु वि एउ लहइ, देविहिं कोडि रमंतु ॥
जो सुख विषय-विरक्रके, श्रातम ध्यान धरंत। सो सुख इन्द्र न पा सके, देवी कोटि रमंत ॥
आभुजता विसय-सुह, जेण वि हियइ धरति । ते सासय-मुहु लहु लहहि, जिणवर एम भांति ।।
मोगत भी जो विषय-सुख, नहिं मन मोह धर्राय। वे शाश्वत सुग्व लहु लहें, जिनवर यों बतलाय॥
५
ण विमुजंता विसय-सुह, हियडइ माउ धरंति। सालिसित्थु जिम वप्पुडउ,णरणरयह णिवर्डति ।।
नहिं भोगत भी विषय-सुग्व, जो मन मोह धरंत । शालिसिक्थ्य ज्यों दीन वह, नरकों मांहि पढत ।।
आयई अडवड वडवडइ, पर जिज्जइ लोउ। मणसुद्धई णिचल ठियई, पाविजह परलोउ।
विपदामें बड़बड़ करें, अनुरंजित हों लोक । निश्चल मनकी शुद्धिसे, पर सुधरे पर-लोक ॥
धंधई पडियउ सयलु जगु, कम्मई करइ अयाणु। मोक्खह कारणु एक्कु खणु,ण विचितइ अप्पाणु।।
धंधोंमें पड़ सकल जग, कर्म करे अनजान । मोक्ष-हेतु पर एक क्षय, धरै न पातम-ध्यान ।।
अण्णु म जाहि अप्पणउ, घर परियणु तणु इदछु। कम्मायत्तउ कारिमउ, आगमि जोइहि सिठ्ठ॥
घर परिजन तन इष्ट ये पर हैं, निरा मत मान । नदी नाव संयोग ज्यों, मिले कर्मसे जान।
मोक्खु ण पावहि जीव तुहुँ धणु परियणु चिंततु।। तो इ विचितहिं तउ जि तउ, पावहि सु+खु महंतु ॥
मोक्ष न पावे जीव तू. धन परिजन चितंत। तो भी चिंतै उन्हींको मानत सौख्य महंत ।
घर वास मा जाणि जिय, दुक्किय-वासउ एहु । पासु कयंते मंडियउ, अविचलु ण हु संदेहु ।
गृहावास मत जान जिय, पाप-वास है एह । यम-मंडित थिर पास है. इसमें नहिं सन्देह ।।
मुढा सबलु वि कारिमउ में फुड तुह तुस कडि। सिवपइ णिम्मलिं करह रह, धरु परियणु लहु छडि ।।
कर्म-जाल यह सर्व है, मत तुषको तू कूट। विमल मोक्षसे प्रीति कर, घर परिजनसे छूट ।।
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भ. महावीर और उनके दिव्य उपदेश
(श्री हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
चैत्रका महीना अनेक दृष्टियोंसे अपना खास महत्त्व लगे। तथा ब्रह्माके मस्तक मादि चार अंगोंसे बाहाबादि रखता है। भ. ऋषमदेव-जिन्हें लोग युगादि महामानव, चारों वर्गोंको उत्पन हुमा कह कर अपनेको सबसे श्रेष्ठ सष्टा, विधाता कहते हैं-का जन्म इसी चैत्र मासके मानकर औरोंको हीन या तुच्छ समझने लगे। कृष्णपक्षको नवमीके दिन हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री श्रमण लोग इन बातोंके प्रारम्भसे विरोधी रहे हैं। रामका जन्म चैत्र शुक्रा नवमीके दिन हुमा । अहिंसाके वे सन्यास, प्रात्म-चिन्तन, सयम, समभाव, तप, दान, परम अवतार भ. महावीरका जन्म भी इसी चैत्र मासकी प्रार्जच. अहिंसा और सत्य-वचनादिके उपर जोर देते थे एवं शुखा त्रयोदशीको हुा। तथा श्रीरामके सातापहरखके आत्मशुद्धिको प्रधान मानते थे। उनका बषय बौकिक समय उनके संकटमें सहायक होनेसे संकट मोचन नामसे वैभव या स्वर्गादि अभ्युदयकी प्राप्ति न होकर परम प्रसिद्ध, वज्रांगवली श्री हनुमानका जन्म भी इसी चैत्र पुरुषार्थ निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्तिका रहा है। मासको शुक्रा पाणमाकै दिन हुआ। इस प्रकार चार महा- भाजसे बदाई हजार वर्ष पूर्व जब भ• महावीरका परुषोंको जन्म देनेका सौभाग्य इसी इस चैत्र मासको प्रात जन्म या. उस समय ब्राह्मण संस्कृतिका बोलबाला था है । भारतवर्ष के प्रसिद्ध दो संवत्सर-विक्रम संवत् और और वह अपनी चरम सीमा पर पहुंची हुई थी। म. शक संवत्-भी इसी इसी चैत्र मासके शुक्र और कृष्ण पक्षसे
महावीरने ज्योंही होश संभाला, तो देखा कि धर्मके नाम प्रारम्भ होते हैं । इस प्रकार यह चैत्र मास भारतीय इतिहास- पर माता-पूर्ण क्रियाकाण्डका कितना आडम्बर रचा जा रहा में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है
है। यज्ञ-यागादिको धर्म मानकर उनमें भूक पशुओंकी जिन्होंने भारतीय इतिहासका अध्ययन किया है, वे बलि दी जा रही है, लोग अपनी रसना इन्द्रियको तृप्स जानते हैं कि महाभारत और रामायण कालसे पहले करनेके लिए जीवोंकी हिंसा कर रहे हैं, और उन्हें तापते भारतवर्षमें ब्राह्मण और श्रमण नामकी दो संस्कृतियों एवं चीत्कार करते हुए भी यज्ञाग्निमें जिन्दा भून कर उनके प्रचलित थी । जैन आगमोंसे भी इसकी पुष्टि होती है। मांमका आस्वाद लेकर प्रसन्न हो रहे हैं। देवी-देवताओंके भ. शषभदेवने सर्वप्रथम स्वयं प्रवृजित होकर श्रमण नाम पर कितना अन्ध-विश्वास फैला हुआ है, तथा सबसे संस्कृतिका श्रीगणेश किया, तथा उनके ज्येष्ठ पुत्र एवं दयनीय दशा स्त्री और शूद्रोंकी हो रही है कि जिन्हें प्राद्य सम्राट् भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणोंकी स्थापना कर उन्हें वेदादिके पठन-पाठनकी तो बात ही दूर है, सुनने तकका क्रियाकाण्डकी प्रार अग्रसर किया है। ये दोनों ही भी अधिकार नहीं है। शुद्धोंके वेदध्वनि श्रवण करने धाराएँ तभीसे बराबर प्रवाहित होती हुई चली आ रही पर उनके कानोंमें शीशा और लाख भर दिये जाते हैं,® हैं। किन्तु बीच-बीच में उन दोनोंके भीतर विकृतिके गन्दे वेदोच्चारण करने पर उनके शरीरके दो टुकड़े कर दिये जाते नाले भी मिलते रहे और उस समय होने वाले मध्यवर्ती हैं। शूद्रोंको निंद्य एवं घृणित समझनेके लिए यह मान्यता २२ तीर्थकरोंने उभय-धाराघोंको संशोधित करनेके भी प्रचलित की गई थी कि शूद्ध का अब खा लेने पर उस प्रयत्न किये हैं।
वी लोगोंको सूभरका जन्म लेना पड़ता है। प्रातःकाल भरत चक्रवर्ती-द्वारा प्रस्थापित ब्राक्षम संस्कृतिका बाहिर कहीं जाते-आते समय शुद्धका देखना अपशकुन पतन भ• मुनिसुव्रतनाथके समयसे प्रारम्भ हुश्रा। इसी समझा जाता है, उनके दस
। समझा जाता है, उनके देखनेसे अपवित्र हुई आंखोंको समबके धामपास वेदोंकी रचना प्रारम्भ हुई। भगवान्
शुद्ध करनेक लिए उन्हें पानीसे धोना और शुद्धके शरीरका
शुद्ध करनक लिए उन्ह पाना नेमिनाथ और पार्श्वनाथके समयमें ब्राह्मण संस्कृतिने अपनी स्पर्श कर लेने पर सचेल स्नान तक करना प्रावश्यक विकृतिका उग्र रूप धारण कर लिया ग्राहय लोग वेदोंको माना जाता है। एक ओर तो म. महावीरने माहाय ईश्वरीय वाक्य मानने लगे। इन्द्र, सोम, यम, वरुण
संस्कृतिका यह बोलबाला देखा। दूसरी ओर देखा कि
सस्कृतिका यह बालबान भादि देवताओं की पूजा कर और यज्ञों में पशु-बलि देकर श्रम-संस्कृति भी अस्त-व्यस्त सी हो रही है और साथउससे स्वर्ग-प्राप्ति एवं सांसारिक ऋद्धियोंकी कामना करने गौतमधर्मसूत्र, १२-४-६ + वशिष्ठय सूत्र, ६-२01
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२५४] अनेकान्त
[ वर्ष १४ संन्यासी जन भी मूढ़ता-पूर्ण कायक्लेश करनेको ही तप तितो च सुत्तस्स च जागरस्स च सतत समित्तं मान कर अपनेको कृतकृत्य अनुभव कर रहे हैं। कहीं कोई णाणं दंसणं पच्चुपठिति।" धूनी रमा रहा है, तो कहीं कोई पंचाग्नि तप कर अपने हे श्रायुष्मन् ! निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी साथ दूसरे प्राणियोंको-काष्ठ-गत जीव-जन्तुओंको-भी हैं, वे अपने ज्ञान और दर्शनके द्वारा अशेष चराचर जगत्जिन्दा ही जला रहा है। कहीं सती होनेके नाम पर जीवित को जानते और देखते हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोतेकोमलांगी ललनाए जलाई जा रहीं हैं, तो कहीं कोई जागते समस्त अवस्थानों में उनका ज्ञान और दर्शन सदैव पर्वतसे गिर कर या नदीमें कूद कर प्रात्म-घात करनेको ही उपस्थित रहता है। धर्म मान रहा है।
वेदोंमें भी भ. महावीरका स्मरण किया गया है । यथाइस प्रकार दोनों संस्कृतियोंकी दुर्दशा देख कर और देव बहिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्ण राये सुमर वेदस्याम । चारों ओर अज्ञानका फैला हुआ माम्राज्य देखकर भ. घतेनाक्तंवमव:मीदतेदं विश्वेदेवा आदित्या जियासार महावारका हृदय दुःख और करुणास द्रवित हो उठा, हे देवोंके देव व मान. श्राप सवीर हैं. व्यापक हैं। उनके विचारों में उथल-पुथल मच गई और उन्होंने सत्य हम सम्पदाओंकी प्राप्तिके लिये घृतसे आपका आवाहन धमक अन्वेषण एवं प्रचालत धमाक सशाधन करनका करते हैं। इसलिए सब देवता इस यज्ञमें श्रावें और अपने मनमें दृढ़ निश्चय किया । फल-स्वरूप भरी जवानी. प्रसव हो।
-तीस वर्षको उम्रम-राजला वभव एव सुन्दर परिवार- भ. महावीरकी नग्नता और तपस्विताको भी वेदोंमें को छोड़ करके प्रवृजित हो गये। उन्होंने निश्चय किया कि स्वीकार किया गया है। यथामेरे कत्तव्य-पथमें कितनी ही विघ्न-बाधाएँ क्यों न आवे, आतिथ्यं रूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः । तथा कितने ही घोर उपसर्ग और संकट क्यों न उपस्थित रूपमुपसदामेतत्तिस्रा रात्रीः सुरामुता.३ ॥ हों, किन्तु मैं सबको धैर्यपूर्वक शान्त भावसे सहन करता अतिथि-स्वरूप, पूज्य, मासोपवामी, नग्नरूपधारी हा अपने सकल्पसे कभी चल-विचल न होऊँगा और महावीरकी उपासना करो, जिससे संशय, विपर्यय और सत्यकी शोध करूंगा।
अनध्यवसायरूप तीन अज्ञान और धनमद एवं विद्यामदकी भ. महावीरने प्रवृजित होनेके पश्चात् अपने लिए उत्पत्ति नहीं होवे। कुछ नियम निश्चित किये । वस्त्रोंके परिधानका यावज्जीवन- भ. महावीरके उपदेशोंसे प्रभावित होकर इन्द्रभूति, के लिए परित्याग किया, दिनमें दमरोंके द्वारा प्रदत्त, श्रम- वायुभूति, अग्निभूति आदि बड़े-बड़े वैदिक विद्वानोंने अपने कल्पित, निर्दोष आहार जल एक बार लेने, जमीन पर सेकड़ों शिष्यों के साथ भगवान्का शिष्यत्व स्वीकार किया। सोने और निर्जन जंगलों में मौन-पूर्वक एकाको जीवन
भ. महावीरने कैवल्य-प्राप्तिके पश्चात् भारतवर्ष के बितानेका संकल्प किया। उन्हें अपने इस साधक जीवन में विभिन्न भागोंमें विहार कर ३० वर्ष पर्यन्त धर्मोपदेश अनेकों बार अतिभयानक कष्टोंका सामना करना पड़ा दिया। उन्हान अपन उपदशाम पुरुषार्थ पर ही सबस परन्तु वे एक वीर योद्धाक समान अपने कर्तव्य-पथसे अधिक जोर दिया है। उनका स्पष्ट कथन था कि श्रारम
विकासकी सर्वोच्च अवस्थाका नाम ही ईश्वर है और कभी भी विचलित नहीं हुए। पूरे बारह वर्ष तक मौनपूर्वक प्रात्म-चिन्तन एवं मननके
इसलिए प्रत्येक प्राणी अपनेको सांसारिक बन्धनोंसे मुक्त पश्चात् भ० महावीरको कैवल्य प्राप्त हश्रा और वे सर्वज्ञ कर और अपने आपको श्रास्मिक गुणोंसे युक्र कर नरसे और सर्वदर्शी बन गये।
नारायण और आत्मासे परमात्मा बन सकता है। इसी भ. महावीरकी इस सर्वज्ञता और सर्व-दर्शिताको सिलसिलम उन्हाने बताया कि उक्र प्रकारके परमात्मा स्वयं महात्मा बुद्ध ने भी स्वीकार किया है और एक अवसर परमेश्वरको संसारकी सृष्टि या संहार करनेके प्रपंचोंमें इनेपर अपने शिष्योंसे कहा है।
की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। जो यह मानते "णिग्गंठो, आवुसो नाथपुत्तो सव्वज्ञ मव्वदस्सावी । मज्झिमनिकाय भाग १, पृष्ठ १२ । २ ऋग्वेद, मंडल अपरिसेसं.णाण-दसणं परिजानाति : चश्तो च मे २, अ० १, सुक्र ३ । ३ यजुर्वेद, प. १६, मंत्र १४
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किरण
भ. महावीर और उनके दिव्य उपदेश
[२५५
हैं कि कोई एक अनादि-निधन ईश्वर है, और वही जगत- लोक और परलोक दोनों में सुखी होता है। का कर्ता, हर्ता एवं व्यवस्थापक है, उसके सम्बन्धमें भ. उन्होंने बतलायामहावीरने बनाया कि प्रथम तो ऐसा कोई ईश्वर किसी भी अप्पागमेव जज्बाहि किं ते जुज्मेण बज्मी । युक्रिसे सिद्ध ही नहीं होता है। फिर यदि थोड़ी देरके लिए अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ७ ॥ वैसे ईश्वरकी कल्पना भी कर ली जाय तो वह दयालु है विकन विचारों वाली अपनी प्रात्माके गथ ही युद्ध या कर यदि ईश्वर दयालु है, सर्वज्ञ है, तो फिर उसकी करना चाहिए बाहिरी दुनियावी शत्रुओंके साथ युद्ध करनेसे सृष्टि में अन्याय और उत्पीडन क्यों होता है ? क्यों सब क्या लाभ अपनी पारमाको जीतने वाला हा वास्तवमें प्राणी सुख और शान्तिसे नहीं रहते ? यदि ईश्वर अपनी पूर्ण सुखको प्राप्त करता है। सृष्टिको, अपनी प्रजाको सुखी नहीं रख सकता तो, उससे अपने बुरे विचारोंको म्याग्ख्या करते हुए न. महावीरने क्या लाभ ? फिर यही क्यों न माना जाय कि मनुष्य कहाअपने अपने कर्मोका फल भोगता है, जो जैसा करता है, पंचिंदियाणि कोहे माणं मायं तहेय लोहं च । वह वैसा पाता है। ईश्वरको कर्त्ता माननेसे हम दैववादी दज्जयं चेव अप्पाण सेव्वमप्पे जिजियं ॥ बन जाते हैं। अच्छा होता है. तो ईश्वर करता है, बुरा अपने पांचों इन्द्रियोंकी दुर्निवार विषय प्रवृत्तिको तथा होता है, तो ईश्वर करता है, आदि विचार मनुष्यको कोध मान, माया और लोभ इन चार करायों को ही जीतना पुरुषार्थहीन बनाकर जनहितसे विमुख कर देते हैं । अतएव चाहिए। एकमात्र अपनी आत्माकी दुष्पवृत्तियोंको जंत भ० महावीरने स्पष्ट शब्दोंमें घोषणा की
लेने पर मारा जगत जीत लिया जाता है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।
प्रामाको व्याख्या करते हुए भ० महावीरने बनायाअप्पा मित्तमित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठियो४ ॥ केवलणारगमहावो केवलदंसण-सहाव सुहमइओ।
प्रात्मा ह। अपने दुखों और सुखों का कर्ता तथा भोका केवलसत्तिसहावो मोऽहं इदि चिंतए गाणीमा है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला अपना प्रात्मा ही मित्र है प्रारमा एकमात्र केवल ज्ञान और केवल र्शन-म्वरूप और बुरे मार्ग पर चलने वाला अपना आत्मा ही शत्रु है। है अर्थात् संसारके सर्व पदार्थों को जानने-देखने वाला है। उन्होंने और भी कहा
वह स्वभावतः अनन्त शकिका धारक और अनन्त मुखमय है। अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसाल्मली।
परमात्माकी व्याख्या भ. महावीरने इस प्रकार कीअप्पा काम-दुहा घेणू अप्पा मे नंदनं वनं॥ मलहिओं कल चत्ती अििदया कवलो विद्धप्पा।
बुरी विचारधारा वाली प्रारमा ही नरककी बतरणी परमप्पा परर्माजणो सिवकरो मामओ सिद्धी०॥ नदी और कूटशाल्मला वृक्ष है और अच्छी विचारधारा
जो सर्वदोष-रहित है, शरोर-विमुक्न है इन्द्रियोंक बाली प्रात्मा ही स्वर्गकी कामदुहा धेनु और नन्दन वन है। अगोचर है. और सर्व अन्तरंग-बहिरंग माम मुक्त होकर
इसलिए तुम्हारा दूसरेको भला या बुरा करने वाला विशुद्ध स्वरूपका धारक है, ऐसा परम निरंजन शिवंकर, मानना ही मिथ्यात्व है, प्रज्ञान है। तुम्हें दूसरको सुख- शाश्वत सिद्ध प्रात्मा ही परमात्मा कहलाता है। दुख देने वाला नहीं मानकर अपनी भली बुरी प्रवृत्तियोंको
वह परमात्मा कहां रहता है, इसका उत्तर उन्होंने ही सुख दुखका देने वाला मानना चाहिये। इसके लिये ।
दियाउन्होंने समस्त प्राणिमात्रको संबोधन करके कहा
णविएहिं जंणविज्जइ, झाइज्जइ झाइएहि अणवरय अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुहमो।
थुव्वंतेहि थुणिज्जइ देहत्थं किं पितं मुणह ११॥ अप्पा दतोसुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य६॥ जो बड़े-बड़े हन्द्र, चन्द्रादिस नमस्कृत है, ध्यानियोंके
बुरे विचारों वाली अपनी आत्माका ही दमन करना द्वारा ध्याया जाता है और स्तुतिकारोंके द्वारा स्तुति किया चाहिये । अपने बुर विचारोंको दमन करनेसे ही प्रात्मा इस .
• उत्त.. गा० ३५। ८ उत्त० अ० १ गा. ३६। " उत्तरा. अ. २० गा० ३०५ उत्त० अ०२ गा०३६। ..नियमसार गा.६६।१०. मोक्षप्राभूत गा० १.३ । ६ उत्त.अ. १, गा० २५ ।
१. मोक्षप्राभूत गा० ।
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अनेकान्त
[वर्ष १४ जाता है, वह परमारमा कहीं इधर-उधर बाहिर नहीं है। इस एक सूत्र के द्वारा ही भ० महावीरने अपने समयको किन्तु अपने इसी शरीरके भीतर रह रहा है।
ही नहीं, बल्कि भूत और भविष्यकालमें भी उपस्थित होने मावार्थ-वह परमात्मा दूसरा और कोई नहीं है, किंतु वानी असख्य समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर दिया। मात्मा ही अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेने पर परमात्मा पहला और सबसे बड़ा हल तो उन्होंने अपने समय के कर्महो जाता है अतः अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेका कावडी क्रिया-प्रधान वैदिक और अध्यात्मवादी वैदिकेतर
सम्प्रदायवालोंका किया और कहा____ वह शुद्ध परमात्म-स्वरूप कैसे प्रास होता है, इस हत ज्ञान क्रियाहीन हता चाज्ञानिनां क्रिया। विषय में भ० महावीर ने कहा
धावन किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः१५॥ कम्म पुराइट जो खबइ अहिणव वेसण देह।
क्रिया या सदाचारके बिना ज्ञान बेकार है, कोरा ज्ञान परमणिरंजणु जो णवइ सो परमप्पड हाइ सिद्धिको नहीं दे सकता । और अज्ञानियोंकी क्रियाएं भी
जो अपने पुराने कोको-पाग, द्वेष, मोह आदि निरथकह, व भा प्रारमसुखका नहीं द सकना । जैसे किसी विकारी भावोंको दूर कर देता है, नवीन विकारोंको अपने
बीहद जंगलमें भाग लग जाने पर चारों ओर मागता हुमा मीतर प्रवेश नहीं करने देता है और सदा परम निरंजन बंधा पुरुष जबन विनाशको प्राप्त होता है और पंगुबामाका चिन्तवन करता है, वह स्वयं ही मामास परमात्मा बंगड़ा आदमी बचनेका मार्ग देखते हुए भी मारा जाता है। बन जाता है।
म. महावीरने दोनों प्रकारके लोगोंको संबोधित करते भावार्थ-जैन सिद्धान्तके अनुसार सरकी सेवा- हुए कहाउपासनासे पात्मा परमात्मपद नहीं पाता किन्तु अपने संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञाः न ह्य कचकण रथःप्रयाति । ही अनुभवन और चिन्तनसे परमात्मपदको प्राश करता है। अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौती संप्रयुक्तीनगरं प्रविष्टी१६
संसारमें प्रचलित सर्वधमोके प्रति समभाव रखका ज्ञान और क्रियाका संयोग ही सिद्धिका साधक होता उपदेश देते हुए भ. महावीरने कहा
है, क्योंकि एक चक्रसे रथ कभा नहीं चल सकता । यदि जोण करेदि जुगुपं चेदा सम्बोसिमंव धम्मा।
दावाग्निमें जलते हुए वे अन्धे चार बंगड़े दोनों पुरुष मिल
जाते हैं, और अन्धा, जिसे कि दीखता नहीं, किन्तु चलनकी सो खलु बिदिगिच्छो सम्माइसी मुणयन्वा॥
शक्ति है, वह बदि चलनेकी शकिसे रहित, किन्तु दृष्टिजो किसी भी धर्मके पति ग्लानि वा पवा नहीं करता,
सम्पन्न पंगुको अपने कंधे पर बिठा देता है तो वे दोनों किन्तु सभी धर्मों में समभाव रखता है, यह निविचिकित्सित
दाणग्निसे निकल कर अपने प्राय बचा बंते हैं। क्योंकि सम्पष्टि वयार्थ वस्तु-दशी जाना चाहिए।
भन्मेके कंधे पर बैठा पंगु मनुष्य चलने में समर्थ अन्धेको सर्व धर्मों के प्रति समभाव रखने के विमिच भ. महावीरने
बचनेका सुरक्षित मार्ग बतलाना जाता है और अन्धा उस न्यवाद, अनेकान्तवाद वा समन्वयवादका उपदेश दिया
निरापद मार्ग पर चलता जाता है और इस प्रकार दोनों और कहा
नगरको पहुंच जाते हैं और दोनों बच जाते हैं। जातो वयववहा तावतो वाण्या विसहानी। इस प्रकार परस्परमें समन्वय करनेस जैसे अंध और ते चेवय परसमया सम्मत् समुदिया सन्दे
शु नी बीवन-रक्षा हुई उसी प्रकार म. महावीरके इस समजितने भी मार्गमिव मि पंच-संसारमें न्यवादने सर्व दिशाबों में फैल कर उलझी हुई असत्य दिखाई दे रहे है उतने ही नर है और वे ही फरसमय या समस्याओं को सुबमाने और परस्परमें सौहार्दभाव बढ़ानेमें मत है। सब अपने अपने रिकाबोंसे ठीक हैं। और लोकोतर कार्य किया। उन सबका समुदाय ही सम्बकत्व देवानी सत्वमा पार्व इस प्रकार भ. महावीरने परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंवा सावक स्वरूप
का समन्वय किया। उनके इस सर्वधर्म सममावी समन्वय
---- जनक बनेकान्तवादसे प्रभावित होकर एक महान प्राचार्य१२. पारदोहा ..। १३ समयसार मा.२३१ . सन्मतितर्क
पत्वाचाठिक पृ०१. वयाचार्तिक...
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किरण]
भ० महावीर और उनके दिव्य उपदेश ने कहा है
कम्मणा बंभणो होइ, कम्मणा होइ खत्तियो। नेण विणा लोगस्स वि ववहारों मव्वहा ण णिव्वडइ। कम्मणा वइसो होइ सुदो हवइ कम्मणा २१ ॥ तम्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ मनुष्य कमसे ही ब्राह्मण होना है, कर्मसे ही क्षत्रिय
जिसके बिना लोकका दुनियादारी म्यवहार भी अच्छी होता है, कर्मसे ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने तरह नहीं चल सकता, उस लोकके अद्वितीय गुरु अनेकान्त- किये कर्मसे होता है। बादको नमस्कार है।
___ भ. महावीरने केवल जाति या वर्णका मेर करने भ० महावीरने धर्मके व्यवहारिक रूप अहिंसावादका वालोंको ही नहीं, किन्तु साधु संस्थाके सदस्यों तकको उपदेश देते हुए कहा
फटकारा .. सव्वे पाणा पियाउआ सुहसाया
ण वि मुडपण ममणोरा ओंकारेण बंभयो। दुक्खपडिकूला अप्पिय-बहा। ण मुणो रण्णवासेण ण कुसचीरेण तापसो २२॥ पियजीविणो जीविउकामा
सिर मुडा लेने मात्रसे कोई श्रमण या साधु नहीं णातिवाएज्झ किचण॥ कहला मकता, ओंकारके उचारण करनेसे कोई ब्राह्मण नहीं सर्व प्राणियोंको अपना जीवन प्यारा है, सबही सुखकी माना जा सकता, निर्जन वनमें रहने मात्रसे कोई मुनि इच्छा करते हैं, और कोई दुःख नहीं चाहता। मरना सबको नहीं बन जाता, और न कुशा (डाभ) से बने वस्त्र अप्रिय है और सब जीनेकी कामना करते हैं । अतएव किसी पहिननेसे कोई तपस्वी कहला सकता है । किन्तुभी प्राणीको जरा भी दुःख न दो और उन्हें न सतायो। समयाए समणो होइ, वंभचेरेवा बभणो।
लोगोंके दिन पर दिन बढ़ती हुई हिंसाकी प्रवृत्तिको णाणे मुणी होइ, तवेण होइ तापमो २३॥ देखकर भ० महावीर ने कहा
जो प्राणि मात्र पर साम्य भाव रखता है वह श्रमण सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउंण मरिज्जि। या माधु कहलाता है, जो ब्रह्मचर्य धारण करता है, वह तम्हा पाणिवह घोरं णिगथा वज्जयति ॥ ब्राह्मण कहलाता है। जो ज्ञानवान है, वह मुनि है और
सभी जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता। और जो इन्द्रिय-दमन एवं कषाय-निग्रह करता है वह इसलिये किसी भी प्राणी का वध करना घोर पाप है। तपस्वी है। मनुष्यको इससे बचना चाहिए । जो धर्मके आराधक हैं, वे
इस प्रकार जाति, कुल या वर्णके मदसे उन्मत्त हुए कभी किसी जीवका घात नहीं करते।
पुरुषों को भ० महावीरने नाना प्रकारसे सम्बोधन कर कहाउच्च-नी वकी प्रचलित मान्यताके विरुद्ध भ. महावीरने स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान विनाशयः। कहा
सोऽत्येति धर्ममात्मीय न धर्मो धार्मिकैविना ॥२४॥ जन्म-मित्तण उच्चो वा णीचो वा वि को हवे। जो जाति या कुलादिक मदसे गर्वित होकर दूसरे सुहासुहकम्मकारो जो उच्चो गीचो य सो हवे २ ॥ धर्मात्मानोंको केवल नीच जाति या कुलमें जन्म लेने
ऊँची जाति या उच्च कुलमें जन्म लेने मात्रसे कोई मात्रमे अपमानित एवं तिरस्कृत करता है वह स्वयं अपने उच्च नहीं हो जाता और न नीचे कुलमें जन्म लेनेसे कोई ही धर्मका अपमान करता है। क्योंकि धर्म धर्मात्माके नीच हो जाता है। जो अच्छे कार्य करता है, वह उब है बिना निराधार नहीं ठहर सकता। और जो बुरे कार्य करता है, वह नीच है।
अन्तमें भ. महावीरने जाति-कुल मदान्ध लोगोंसे इसी प्रक र वर्णवादका विरोध करते हुए भी उन्होंने कहा कहाकिसी वर्ण-विशेषमें जन्म लेने मात्रसे मनुष्य उस वर्णका कासु समाहि करहु को अंचल, नहीं माना जा सकता । किन्तु
छोपु अछोपु भणिवि को वंचउ । १७ अनेकान्त जयपताका । १८ प्रहात नाम २१ उत्तराध्ययन । २२ उत्तराध्ययन, ०२५, गा०३३ १६ दशबैक लिक, गा."
२३ उत्तराध्ययन, अ० २५, गा० ३. ..अज्ञात नाम
२४ रत्नकरण्डक, रखोक २६
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२५ ] अनेकान्त
[वर्ष १४ हल सहि कलह कण सम्माण उ,
इसलिए हे संसारी प्राणियो,यदि तुम आरमाके जहिं जहि जीवहु तहिं अप्पाणउ ॥२२॥ वास्तविक सुखको प्राप्त करना चाहते हो, तो समस्त परिग्रहसंसारके जाति कुल-मदान्ध हे भोले प्राणियो, तुम का परित्याग करो। क्योंकिकिस छूत या बदा मान कर पूजते हो और किस अछूत सम्वथविमुक्को सीदीभूदो पसएणचित्तो या मान कर अम्मानित करते हो? किस मित्र मान कर
जं पावइ पीइसुहं ण चक्वट्टी वि तं लहदि ॥२७॥ सम्मानित करते हो और शत्रु मानकर किसके साथ कलह करत हो हे देवानां प्रिय मेरे भन्यो, जहाँ जहाँ भी में
सर्व प्रकारके परिग्रहसे विमुक्त होने पर शान्त एवं देखता हूँ, वहीं वहां सब मुझे श्रात्मत्व ही-अपनापन ही प्रसन्ना
प्रसन्नचित्त साधु जो निराकुलता-जनित अनुपम आनन्द प्राप्त दिखाई देता है।
करता है, वह सुख अतुल वैभवका धारक चक्रवर्तीको नहीं भ. महावीर के समयमें एक और लोग धन-वैभवका मिल सकता है। संग्रह कर अपनको बड़ा मानने लगे थे और अनिश यदि तुम सर्व परिग्रह छोड़नेमें अपनेको असमर्थ उसक उपार्जनमें लग रहे थे। दूसरी और गरीब लोग पाते हो, तो कमसे कम जितनेमें तुम्हारा जीवन-निर्वाह श्राजीविकाके लिए मार-मारे फिर रहे थे। गरीबोंकी सन्तान चल सकता है, उतनेको रख कर शेषके संग्रहकी तृष्णाका गाय-भैंमाके ममान बाजारों में बेची जाने लगी थीं और तो परित्याग करो। इस प्रकार भ. महावीरने संसारमें धनिक लोग उन्हें खराद कर और अपना दासी-दास बना विषमताको दूर करने और समताको प्रसार करनेके लिए कर उन पर मनमाना जुल्म और अत्याचार करते थे। अपरिग्रहवादका उपदेश दिया। भ. महावीरने लोगोंकी इस प्रकार दिन पर दिन बढ़ती इस प्रकार भ. महावीरने लगातार ३० वर्षों तक हुई भोगल-लमा और धन-तृष्णाकी मनोवृत्तिको देख अपने दिव्य उपदेशोंके द्वारा उस समय फैले हुए अज्ञान कर कहा
और अधर्मको दूर कर सज्ज्ञान और सद्धर्मका प्रसार जह इंधणेहिं अग्गो लवणसमुद्दा णदी-सहस्सेहिं किया। अन्तमें याजसे २४८३ वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा तह जोवास तित्ती अस्थि तिलोगे वि लद्धम्मि:॥ अमावस्याके प्रात.कालीन पुण्यवेलामें उन्होंने पावासे निर्वाण
जिस प्रकार अग्नि इन्धनस तृप्त नहीं होती है, और प्राप्त किया। जिस प्रकार यमुद्र हजारों नदियोंको पाकर भी नहीं प्रघाता भ. महावीरके अमृतमय उपदेशोंका ही यह प्रभाव है. उसी कार नीन लोककी सम्पदाके मिल जाने भी था कि आज भारतवर्षसे याज्ञिकी हिंसा सदाके लिए बन्द जोनको इच्छा कभी नृप नहीं हो सकती हैं।
हो गई, लोगोंसे छुवाछूतका भूत भगा और समन्वय२५ पाहुडदोहा. गा.
कारक अनेकान्त-रूप सूर्यका उदय हुआ। २६ भग० श्राराधना, गा० १५४३
२. भग. पाराधना, गा० ११२ 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष-४-५, और वर्ष से १३ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं, जिनमें समाज के लब्ध-तिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका यत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें। चारकी दृष्टिसे अनेकान्त हाल की ११वें १२वें १३वें वर्षकी फाइलें दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें अर्ध मूल्यमें दी जायगी और शेष वर्षोंकी फाइलें लागत मूल्यमें दी जायेगी । पोस्टेज खर्च अलग होगा। -मैनेजर
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रूपक-काव्य परम्परा
(परमानन्द शास्त्री) भारतीय साहित्यमें रूपात्मक साहित्य अपना महत्व एवं पोभत्स रूपमें किया गया है। ग्रन्थका अध्ययन करनेसे पूर्ण स्थान रखता है। उसमें अमूर्तभावोंका मूर्तरूपमें चित्रण ग्रंथकर्ताको प्रतिशोधात्मक उग्र भावनाका सहज ही परिचय किया गया है। हृदयस्थित अमूर्तभाव इतने सूक्ष्म और मिल जाता है । वैसे काव्य सुन्दर है और उसमें पात्रोंका अदृश्य होते हैं कि उनका इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार नहीं चयन भी अच्छा हुआ है। हो पाता । परन्तु जब उन्हें रूपक उपमाके सांचेमें ढालकर रूपक-काव्य केवल प्राकृत संस्कृत भाषाओं में ही नहीं मृतब्य दिया जाता है। तब इन्द्रियों द्वारा उनका सजीव लिखे गए, किन्तु अपभ्रंश और हिन्दी भाषामें भी अनेक रूपसें प्रत्यक्षीकरण अथवा साक्षात्कार होता है । फलतः कवियों द्वारा रूपक खण्ड-काव्योंकी रचना की गई है । उनमें एक अदभुत शनि संचरित हुई प्रतीत होने लगती जिनका एकमात्र प्रयोजन जीवात्माको विषयसे पराङ्गमुखहै। और ये भाव इतने गम्भार, उदात्त और सजीव होते करके स्वहितकी अोर लानेका रहा है। हैं कि उनका प्रभाव हृदयपट पर अंकित हुए बिना नहीं अपभ्रंश भाषाके रूपक-काव्य रहन्न । रूपक माहिन्यकी सृष्टिका एकमात्र प्रयोजन पाठक
संस्कृत भाषाके समान अपभ्रश में भी रूपक काव्योंकी और श्रीनाओंका उत्र. काव्यमें निहित अन्तर्भावोंकी ओर
परम्परा पाई जाती है । परन्तु अपभ्रंश भाषामें तेरहवीं श्रारुष्ट करने हुए उन्हें आत्म-साधनकी ओर अग्रसर करना
शताब्दीसे पूर्वकी कोई रचना मेरे देग्वनेमें नहीं आई। रहा है। क्योंकि रागी और विषय-वासनामें रत श्रात्माओं पर
सोमप्रभाचार्यका 'कुमारपाल-प्रतिबोध' प्राकृत प्रधान रचना यस काई प्रभाव अंकित नहीं होता, अतः उन्हें अनेक रूपों है और जिसका रचनाकाल संवत् १२४१ है । परन्तु उसमें एवं उपमानोंका लोभ दिग्वाकर स्व-हिनकी अोर लगानेका
कुछ अंश अपभ्रंशभाषाके भी उपलब्ध होते हैं । उपक्रम किया जाता है। रूपक-काव्योंकी सृष्टि-परम्परा
उपका एक अंश 'जीवमनः करण मंलाप कथा' नामका भी प्राचीनकानसे ही श्राई हुई जान पड़ती है, परन्तु वर्तमानमें
है। जो उक्त ग्रन्थमें पृ० ४२२ से ४३७ तक पाया जाता जो उपमान उपमेय रूप साहित्य उपलब्ध है उससे उसकी
है। यह एक धार्मिक कथाबद्ध रूपक काव्य है। इसमें प्राचीनताका स्पष्ट आभाम मिल जाता है।
जीव, मन और इन्द्रियोंके मलापकी कथा दी गई है इतना जैन समाजमें रूपान्मक जैन साहित्यके सृजनका सूत्र- ही नहीं किन्त इसमें रूपकान्तर्गत दमरे रूपकको भी जोड़ पान कब हुआ यह विचारणीय है । परन्तु अद्याविधि
दिया गया है। ऐसा होने पर भी उक अंशकी रोचकतामें उपलब्ध साहित्य परसे ऐसा जान पड़ता है कि उसका
कोई अन्तर नहीं पड़ा। इस रूपक कायमें मन और
. प्रारम्भ हवीं शताब्दीमे पूर्व हो गया था। सं० ६६२ में
इन्द्रयोंके वार्तालापमें जगह-जगह कुछ मुभाषित भी दिये सिद्धपिने 'उपमितिभ्व प्रपंचकथा' का संस्कृतमें निर्माण
पचकथा का संस्कृतम निमाण हुए हैं जिनसे उक्र काम्य-ग्रन्थकी परमता और भी अधिक किया था, कविवर जयरामने प्राकृतमें 'धम्म परिक्वा' नामक
बढ़ गई है। ग्रन्थकी रचना प्राकृत गाथों में की थी, जो आज अपने मूल- जं पण तह जंपेसि जड़! तं असरिसु पडिहाइ। रूपमें अनुपलब्ध है। किन्तु मं० १०४४ में निर्मित धक्कड़- मण निल्लकवण किं महइ, नेअरु उड्ढह पाइ ॥७॥ वंशीय हरिषेणकी 'धम्म परिक्खा' उपलब्ध है जिसे भाषा अर्थात हे सर्व । तमतो कहते हो कि वह तुम्हारे योग्य परिवर्तनके साथ अपभ्रशमें रचा गया है। प्राचार्य अमित- नहीं प्रतीत होता, हे निर्लक्षण मन ! क्या ऊँटके पेरमें गतिकी धर्मपरीक्षा भी उसके बाद बनी है। धूर्नाख्यान, नूपुर शोभा देते हैं। मदन पराजय, प्रबोधचन्द्रोदय, मोहपराजय और ज्ञान- कथाभाग सूर्योदय नाटक श्रादि अनेक रूपक-प्रन्थ लिखे गए।
काया नगरीमें लावण्यरूप लचमीका निवास है। उस इन रूपक-ग्रन्थों में 'प्रबोध चन्द्रोदय नाटक' प्रतिशोध. x शशिजलधिसूर्य वर्षेशुचिमासे रवि दिनेसिताप्यम्याम की भावनासे बनाया गया जान पड़ता है। क्योंकि उसमें जिनधर्मः प्रतिबोधः क्लप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे ।। बौद्ध भिक्षु और क्षपणक दि. जैन मुनिका चित्रण विकृत
-कुमारपाल प्रतिबोध
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२६० ]
नगरीके चारों ओर आयुकर्मका भारी प्राकार है, उसमें सुख-दुःख, सुधा, तृषा, हर्ष, शोकादिरूप अनेक प्रकारकी नाड़ियाँ एवं मार्ग हैं। उस काया नगरीमें जीवात्मा नामक राजा अपनी बुद्धि नामकी पत्नीके साथ राज्य करता है । उसका प्रधानमंत्री मन है. और स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियाँ प्रधान राजपुरुष हैं। एक राजसभा में परम्परमें विवाद उत्पन्न हो गया, तब मनने जीवोंके दुःखोंका मूल कारण अज्ञान बतलाया, किन्तु राजाने उसी मनको दु खका मूल कारण बतलाते हुए उसकी तीव्र भामना की, पर विवाद बढ़ता ही चला गया। उन पांचों प्रधान राज पुरुषोंकी निरंकुशता और अहंमन्यताकी भी आलोचना हुई और प्रधान मंत्री । मनने इन्द्रियोंको दोषी बतलाते हुए कहा कि जब एक-एक इन्द्रियकी निरंकुशतासे व्यक्तिका विनाश हो जाता है, तब जिसकी पांचों ही इन्द्रियों निरंकुश हों, फिर उसकी फेम कुशन कैसे हो सकती है ? जिन्हें जन्म कुलादिका विचार किये बिना ही भृत्य (नौकर) बना लिया जाता है तो वे दुःख ही देते हैं। उनके कुलादिका विचार होने पर इन्द्रियोंने कहा- हे प्रभु! चित्तवृत्ति नामकी महाघवी महामोह नामका एक राजा है उसकी महामूढा नामक पत्नीके दो पुत्र हैं, उनमें एकका नाम रामकेशरी है जो राजस चिसपुरका स्वामी है और दूसरा द्वेष गयंद नामका है, जो तामस चित्तपुरका श्रधिपति है । उसका मिथ्यादर्शन नामका एक प्रधानमंत्री है। क्रोध, लोभ, मत्सर, काम, मद आदि उसके सुभट हैं। एक बार उसके प्रधानमंत्री मिथ्यादर्शनने कर कहा कि हे राजन! बड़ा आश्चर्य है कि आपके प्रजाजनोंको चारित्र्य धर्म नामक राजाका संतोष नामक पर, विवेकगिरि पर स्थित जैनपुर में ले जाता है। तब मोहराजाने सहायता के लिये इंद्रियाँको नियुक्र किया। इस तरह कविने एक रूपकके अन्तर्गत दूसरे रूपकका कथन देते हुए उसे और भी अधिक सरस बनानेकी चेष्टा की है ।
किन्तु मन द्वारा इन्द्रियोंको दोषी बतलाने पर इन्दियों ने भी अपने दोषका परिहार करते हुए मनको दोषी बत
ॐ इय विषय पलकयो,
अनेकान्त
इहु एक्के कुदिजगडइ जगसयलु । जेसु पंचवि एयई कवबहु खेयई, खिल्लद्दि पहु! तसु क कुसलु ॥ २६॥
[ वर्ष १४
लाया और कहा कि जीव जो रागद्वेष प्रकट होते हैं वह सब मोहका ही माहात्म्य है। क्योंकि मनके निरोध करने पर हमारा (इन्द्रियोंका व्यापार स्वयं रुक जाता है | इस तरह प्रथमें क्रमसे कभी इन्द्रियों को, कभी कर्मोंको और कभी कामवासनाको दुःखका कारण बतलाया गया है। जब वाद-विवाद बढ़कर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया तब आत्मा अपनी स्वानुभूतिसे उन्हें शान्त रहनेका उपदेश देता है।
अन्तमें मानव जीवन की दुर्लभताका प्रतिपादन करते हुए तथा जीवदया और तक अनुष्ठानका उपदेश देते हुए कथानक समाप्त किया गया है।
* जंतसु फुरइ रागो दोमा वा तं मरणास माहप्पे | विरमइ मम्मि रुद्धे जम्हा अम्हाण वावारो ||४६ मयण पराजय
मदन पराजय एक छोटासा अपभ्रंश भाषाका रूपक-काव्य है, जो दो संधियों में समाप्त हुआ है। इसके कर्ता कवि हरदेव हैं। हरदेवने अपनेको बंगदेवका तृतीय पुत्र और साथ ही अपने दो ज्येष्ठ भाइयोंके नाम किंकर और कराह (कृष्ण) बतलाये हैं। इसके अतिरि प्रथमें कपिने अपना कोई अन्य परिचय एवं समयादिककी कोई सूचना नहीं की। इस प्रथ में पड़िया के अतिरिक्त रद्दा छन्दका भी प्रयोग किया गया है । जो इस ग्रन्थकी अपनी विशेषता है । यह एक मनोमोहक रूपक काव्य है, जिसमें कामदेव राजा, मोहमंत्री, अहंकार और अज्ञान आदि सेनापतियोंके साथ भावनगर में राज्य करता है। परिपुरके राजा जिनराज उनके शत्रु हैं; क्योंकि ये मुक्रिरूपी कन्यासे अपना पाणिमय करना चाहते हैं। कामदेवने राग-द्वेष नामके दूध द्वारा जिनराजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुहि कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्धके लिये तैयार हो जय जिनराजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें कामदेवको पराजित कर अपना मनोरथ पूर्ण किया।
I
ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। किन्तु धामेरभण्डारको यह प्रति विक्रम संवत १५०६ की लिखी हुई है जिससे यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उससे पूर्वका बना हुआ है। किन्तु भाषाकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल १२वीं शताब्दी जान पड़ता है। अन्यकी शैली परिज्ञानके लिये
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किरण]
रूपक काव्य परम्परा
[२६१
ग्रन्थकी दूसरी सन्धिका ७वां कडवक दृष्टव्य है जिसमें है। कविने ग्रंथ रचनाका फल बतलाते हुए लिखा है कि कामदेवसे युद्ध करनेवाले युन्द्रोद्यत सुभटोंके वचन अकित हैं- इस ग्रन्थके अध्ययन करनेसे भव्य जीव काम-विजयके द्वारा वज्जघाउकोसि रिणपडिच्छइ असिधारापहेणकोगच्छइ अात्माका विकास करनेमें समर्थ हो सकते हैं । और आत्मा कोजम करण जंतु आमंघड, को भवदंडई सायरु लंघइ उस पानन्दको पा लेता है जिसमें जन्म जरा और मरणकी कोजम महिसमिंग उप्पाडइ विप्फुरंतु को दिणमणितोडइ कोई वेदना नहीं होती. किन्तु श्रात्मा अपने अनन्त ज्ञान, को पंचायणु सुत्तउखवलइ, काल कुट्ट को कवलहिंकवलइ अनन्त दर्शन, सुख और वीर्यमें लीन रहता है। आमोविस मुहिकोकरुच्छाहइ,धगधांतकोहयवहिसोखइ संस्कृत और अपभ्रंश भाषाके रूपक-काव्योंके समान लोहपिंडुको तत्तु घवक्कड, को जिण संमह संगरिचक्का हिन्दीभाषामें भी अनेक रूपक-काव्य लिखे गए हैं। जिनमें णय घरमझिकरहिहुबधट्टिय,महिलहं अग्गइतेरीटिव कविवर बनारसीदासका नाटक समयसार भैया भगवतीदासकवि नागदेवने हरदेवके इस 'मयण पराजय' को
र का 'चेतनचरित्र' और पंचेन्द्रिय सम्बाद सूवावत्तीसी, पंचेप्राधार बनाकर तथा उसमें यथास्थान संशोधन परिवर्तनकर
न्द्रियकी बेल आदि हैं। इनमेंसे यहां सिर्फ भगवतीदासके संस्कृतमें मदनपराजय नामक ग्रन्थकी रचना की है । नागदेव
चेतनचरित्र' पर प्रकाश डाला गया है, अगले लेखमें अन्य
ग्रन्थों पर प्रकाश डालनेका यत्न किया जायगा । हरदेवकी परम्पराका हा विद्वान है। यह रचनाभी बड़ी लोकप्रिय है।
हिन्दीभापाका रूपक-काव्य दूसरी कृति 'मन करहा है। जिसके कर्ता कवि पाहल
चेतन-चरित्र हैं। कविने अपनी रचनामें उसका रचनाकाल नहीं दिया
भैया भगवतीदापका 'चेतन चरित्र' एक सुन्दर रूपाहै । पर सम्भवतः यह रचना १४वीं १५वीं शताब्दी की है। स्मक काव्य है, जिसकी रचना बड़ी ही सरस और चित्ता क्योंकि जिस गुटके परसं इसे नोट किया गया है उसका कर्षक है । उसे पढ़ना शुरू करने पर पूरी किये बिना लिपिकाल सं० १९७६ है। अतः यह रचना सं० १५७६ जी नहीं चाहता, उसमें कोरा कथा-भाग हो नहीं है किन्तु से पूर्ववती है। कितने पूर्ववर्ती है यह अभी विचारणीय है। उसमें चेतन राना और मोहके चरित्रका ऐसा सुन्दर चित्रण रचना सुन्दर और शिक्षाप्रद है। इसमें ८ कडवक दिये हए किया गया है जिसका प्रभाव हृदय-पटल पर अंकित हुए हैं। जिनमें पांचों इन्द्रियोंकी निरंकुशतासं होनेवाले दुर्गतिके बिना नहीं रहता , वह इस मोही प्राणीको अपने स्वरूपकी दुःखोंका उद्भावन करते हुए मन और इन्द्रियोंको वशमें झांकी प्रस्तुत करता ही है। चरित्रका संक्षिप्त प्रसार इस करने और तपश्चरण-द्वारा कर्मोको खिपानेका सुन्दर उपदेश प्रकार हैदिया गया है।
चेतनराजाकी दो रानियां हैं, सुमति और कुमति । तीसरी कृति 'मदन-जुद्ध' है। जिसके कर्ता कवि वूचि
. एक दिन सुमति चेतन श्रान्माकी कर्मसंयुक्त अवस्थाको देख
कर कहने लगी-हे चेतनराय ! तुम्हारे साथ इन दुष्ट कर्मोराज हैं जिनका दूसरा नाम 'बल्ह' भी था । ग्रन्थमें उसका रचनाकाल सं. १५८१ आश्विन शुक्ला एकम शनिवार
का संग कहाँसे आगया ? क्या तुम अपना सर्वस्व खोकर भी
प्रबुद्ध होना नहीं चाहते । जो व्यकि अपने जीवनमें सर्वस्व दिया हश्रा है, जिससे यह ग्रन्थ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके
गमाकर भी सावधान नहीं होते, वह कभी भी समुन्नत नहीं उत्तरार्धका बना हुआ है । इस ग्रन्थमें इच्वाकु कुलमण्डन
हो सकता । अतः अनेक परिस्थितियों में फंसे रहने पर भी नाभिपुत्र ऋषभदेवके गुणोंका कीर्तन करते हुए उन्होंने
उनकी वास्तविक स्थितिको समझने, उन्हें पूरा करने, उनसे कामदेवको केसे जोता ? इसका विस्तारसे कथन किया गया
छुटकारा पाने या अपने स्वरूपको प्राप्त करनेके लिये जाग® राह विक्कमतणों संवत् नम्वासीय पनरसह सरदरुत्ति रूक होनेकी जरूरत है । अपनी असावधानी ही अपने
आसु बखाणु। पतनका कारण है। तिथि पडिवा सुकल पख मनीचरवार कर णक्खत्त जाणु । चेतन हे महाभाग ! मैं तो मोहजाल में ऐसा फंस तिनु दिन वल्ह जु संठयो मयणजुज्झ-सविवेस । गया हूँ कि उस गहन पंकसे निकलना मुझे अब दुष्कर पठन सुणत रिक्खाकरो जयो स्वामि रिसहेस १५७ जान पड़ता है। मैं यह जानना चाहता कि इनसे मेरा
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२६२]
अनेकान्त
[वर्ष १४
उद्धार कैसे होगा और मैं अपने निज स्वरूपको कैसे पा वाकबाणोंसे कुमसिका हृदय-कुसुम छिन्न-भिन्न हो गया और सकूँगा?
वह कुपित होकर अपने पिताके पास चली गई । और सुमति-हे नाथ ! आप तो अपना उद्धार करनेमें अपने पितासे अपने पानेका कारण बतलाया। मोहराजने स्वयं समर्थ हैं, जो व्यक्ति अपने स्वरूपको भूल जाता है वह पुत्रीकी बात सुनकर अपनी प्यारी बेटीको समझाते हुए सहज ही पराधीन हो जाता है । ज तक हम अपनी यथार्थ कहा-बेटी, चिन्ता मत करो, मेरे रहते हुए संसारमें ऐसा परिस्थितिको नहीं समझते हैं, तब तक ही दूसरा हमें पराधीन कौन सुभट है जो तेरा परित्याग कर सके ? में तुम्हारे पति कर हम पर शासन किया करता है और हमारा यद्वा-तद्वा की बुद्धिको अभी ठिकाने पर लाता हूँ, अभी अपने सरदारों शोपण करता है। किन्तु जब हमें अपने अधिकार और को बुलाकर चेतनके पास भेजता हूँ, जब तक वह सुमतिको कर्तव्योंका यथार्थ परिज्ञान हो जाता है तब उस शोषण निकालकर तुमको अपने घरमें स्थान नहीं देगा, तब तक करनेवाले शासनका भी अन्त हो जाता है। इसके लिये भेद- मैं चुप होने का नहीं। मेरी और मेरे योद्धाओंकी शक्ति विज्ञान और विवेक ही अमोघ अस्त्र हैं, उन्हींसे श्राप रण- अपार है, वह उसे क्षणमात्रमें अपने श्राधीन कर लेगी। नेत्र में युद्ध करनेके लिये समर्थ हो सकते हैं और शत्रुको इस तरह बेटी कुमतिको समझा-बुझाकर मोहने अपने चतुर पराम्न कर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जैसे मोहनधूलिके दूत काम कुमारको बुलाकर श्रादेश किया कि तुम चंतन सम्बन्ध अान्मा अपनेको भूल जाता है, परको निज मानने राजासे जाकर कहो कि तुमने अपनी स्त्रीका परित्याग लगता है उसी प्रकार याप कुमतिके कुम्पंगसे अपने स्वरूपको क्यों कर दिया है ? या तो हाथ जोडकर क्षमा याचना करो, भूल गए हैं । अतएव पदच्युत हैं । और इधर-उधर भ्रमण अन्यथा युद्धके लिये तैय्यार हो जाओ। कर रहे हैं। अब सावधान हो समर-भूमिमें आइये, अपनी दूत कर्ममें निपुण काम-कुमारने मोहराजाका सन्देश दृढ़ता और विवेकको साथ रखते हुए कर्तव्य-पथसे विचलित चेतनराजासे कह दिया । और बहुत कुछ वाद-विवाद के न होइये, आपकी विजय निश्चित है । सुमतिकी इस बात- अनन्तर चेतन भी मोहसं युद्ध करनेके लिये तैयार होगया । को सुनकर चेतनरायने मौन ले लिया।
दूतने वापिस जाकर राजाचंतनकी वे सब बातें मोहसे ___इतनेमें महमा कुमति श्रागई और सुमतिसे बोली-री कह सुनाई, और निवेदन किया कि यह युद्धक लिय नैयार दुष्टा तू क्या बक-धक कर रही है, तू कुल-कलंकिनी कौन है। तब मोहने अपने वार सुभटोंको चेतनराजाको पकड़नेके है, मेरे सामने बोलनेका तेरा इतना साहस, तू नहीं जानती लिये आमन्त्रित किया। है कि में लोक-प्रसिद्ध सुभट मोहकी प्यारी पुत्री हूँ। मुझे मोहके राग-द्वेष दोनों महा मभट वीर मन्त्रियोंने जो इस बातका अभिमान है कि मैंने अपने प्रभावसे अनेक वीर मोहकी फौजक सरदार हैं । अनेक नरहसे परामर्शकर चेतनसुभटोंको परास्त किया है-हराया है। तू क्यों इतनी बढ़ को अपने प्राधीन करनेका उपाय बतलाया । ज्ञानावरणने बदकर बातें कर रही है, यहांसे क्यों नहीं चली जाती? मन्त्रियोंको प्रसन्न करने हुए कहा कि-'प्रभो ! मेरे पास
चेतनने हँसकर कहा कि अब तुम पर मेरा स्नेह नहीं पांच प्रकारकी सेना है । एक चतनकी तो बात क्या मने है। तुम क्यों इस प्रकारकी बातें करके परस्प में झगड़नेका सारे संमारको अपने श्राधीन बना लिया है, आप जिस तरह प्रयत्न कर रही हो और अहंकारके नशे में चूर हो समता कहें मैं चेतनरायको बन्दी बनाकर श्रापक मामने ला सकता और शिष्टताको गमा रही हो।
हूँ। मेरी शक्ति अभार है, जहाँ जहाँ श्रापको प्रज्ञानके दर्श: सुमति-इतने सुमति बोली-आपने खूब कहा, मैं होते हैं वह सब मेरी ही कृपाका परिणाम है । मेरी निका और यहांसे चली जाऊँ, और तुम अकेली ही क्रीड़ा करो, कोई मुकाबिला नहीं कर सकता। और चेतनरायको परमें लुभाये रखनेका प्रयत्न करती रहो, उसी समय दर्शनावरण अपनी डींग हांकते हुए बोलाजिससे वह अपनेको न जान सके । न-न यह कभी नहीं हो देव ! मैं अपने विषयमें अधिक प्रशंसा क्या करूँ । मैंने सकता । अब तेरी वह मोह माया अपना कार्य करने में समर्थ चेतनरायकी बहुत बुरी अवस्था कर रक्खी है, इतना ही नहीं हो सकेगी, अब मेरे रहते हुए तेरा अस्तित्व भी संभव नहीं किन्तु मेरे कारण मंमारके सभी जीव शान्धे जैसे हो गई है। तू दुराचारिणी है, हट जा यहां से। सुमतिके इन रहे हैं वे प्रारम-दर्शन करनेमें सर्वथा असमर्थ है, यह सब
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किरण] रूपक-काव्य परम्परा
[२६३ मेरा ही प्रमाद है। मेरे नो पराक्रमी सुभट हैं जो जगतको कभी घरसे निकालनेका दुःसाहम हो सकेगा। उसने जो उन्माद उत्पन्न करते रहते हैं।
भारी अपराध किया है, उसका दगड दिय विना में नहीं इतनेमें वेदनीय अपनी धौंस जमाते हुए बोला-देव! रह सकता । अब चेतन पर शीघ्रहः चढाई कर देना चाहिये। मेरी महिमा तो लोकमें प्रसिद्ध ही है, मेरे दो वीर सुभट हैं राजा मोहकी समस्त सेना आनन्दभेरी बजाती हुई, जिनसे चतुर्गतिके जीव प्राकुल-व्याकुल हो रहे हैं। अन्यकी राग और द्वेषको सबसे धागे करके चेतनको जीतनको तो बात ही क्या, जिनकेपाम परमाणु मात्र भी परिग्रह नहीं चली। जब सैन्यदल चेतनके नगरक समीप पहुँचा तब है, जो ज्ञान-ध्यान और तपमें निप्ठ रहते हैं, जो समदर्शी नगरसे दूरही पडाव डाल दिया गया।
और विवेकी हैं, जिनका उपदेश कल्याणकारी है। उन्हें भी इधर जब चेतनराजाको मोहक सैन्यदलके अानका समामैंने नहीं छोड़ा, क्षण-क्षणमें सुख-दुःखका वेदन कराना ही चार मिला. तब चेतनरायने भी अपने सभी नियों और मेरा कार्य है।
सेनानायकों को बुलाया । और उनसे मोहक मैन्यदल महित अब आयुकर्मकी पारी आई, और वह अपनी ताल
भाने का ममाचार कहा । ज्ञान नामक मत्रीस चेतनरायने ठोककर बोला-दवसभी संभारी जीव मेरे श्राधीन हैं, कहा-वीर! मैं तुम पर पूगविश्वास करता हूँ। क्योंकि में उन्हें जब तक रखना है तब तक वे रहते हैं अन्यथा अनेक युद्धोंमें में तुम्हारी वीरता देख चुका हूं। तुम जैसे मृत्यूके मुखमें चले जाते है। मेरे पास चार मुभट हैं उनसे वीरोंको ही इस समय श्रावश्यकता है। तुम्हारी श्रान ही युद्ध करने के लिये कौन समर्थ है ? चारों गतिके सभी जीव मेरी शान है अतः शीघ्र ही अपना मन्यदल तैयार कर मेरे दाम हैं, मैं उन्हें छोडूं तब वे शिवपुर जा सकते हैं। उसे यहाँ लामो, भयको कोई बात नहीं है। शायद तुम्हें
इतनेमें नामकर्म बोला-देव ! मेरे बिना संसारको स्मरण होगा कि तुमने पहले कितनी ही वार मोहराजा पर कौन बना सकता है? में पुदुगलक रूपका निर्मापक हैं। विजय पाई है अतः घबराने की कोई बात नहीं है शीघ्र जिसमें पाकर चेतन निवाम करता है। मेरे तेरानवे सुभट जाइये। हैं, जो विविध रूपरंग वाले और रसीले हैं, उनका जो कोई ज्ञानदेवके निर्देशानुसार सभी सामन्त और निक सज, मुकाबिला करनेका साहम करता है तो वे उसे मरने पर धज कर श्रागए । उनमें सबसे पहले स्वभाव नामका मामंत भी नहीं छोड़ते।
बोला-- देव ! मेरी अरदास मुनिये। मुग शत्रुक नीर अब गोत्रकर्मकी पारी आई और वह बड़े दर्पके साथ नहीं लग सकते, और मैं जणमात्रमें शत्रुको गर्व रात कर बोला-देव ! मेरे दो वीर सुभट हैं, जिनका ऊँच-नीच सकता हूँ। इसलिए चिन्ताकी कोई बात नहीं है । इतनेमें परिवार है, सुर वंशका यह स्वभाव है कि वे क्षणमें रंक दूसरा मामत मुद्ध यान बड़े दपंक साथ बोला-देव ! और क्षणमें राजा करते हैं।
श्राप मुझे आज्ञा कर नो में शत्रु-मैनाको परास्तकर सकता ___ अवसर पा अन्तराय बोला, प्रभो! आप चिन्ता न करें, हूँ। मेरे आगे वह मैन्यदल वैसे ही नाशको प्राप्त होगा मेर पांच सुभट देखिये, जो रणक्षेत्रमें सबसे आगे रहते हैं, जैसे कि सूर्योदयसे ममस्त अधंकारका नाश हो जाता है। तथा हाथमें अम्त्रोंको भी ग्रहण नहीं करने देते, और चेतन- तीसरा चारित्रमूर बोला-मराराज ! मैं तण भरमें अरिका की सब सुध-बुध हर लेते है । इस तरह मोहराजाके १२० नाश कर सकता हैं । अब विवेककी पारी आई, उसने प्रधान मुभट हैं, जिनके गुणोंको जगदीश ही जानते हैं। अपना प्रभाव व्यक्त करते हुए कहा कि---मुझे देख कर ही इनके सात प्रकारके वीर हैं, जो शत्रुदल-भंजक और महा- शत्र घबरा जायगा और नाशको प्राप्त होगा, निर्भयता और सुभटकी उपाधिसे अलंकृत हैं।
शान्ति जैसे मेरे पराक्रमी वीर हैं अतः श्राप इसकी चिन्ता ____जन राना मोड़ने अपने सभी सुभटोंको सदल-बल न करें। इतने में संवेग मूर अपनी डींग हांकते हुए बोलादवा, तो उसके श्रानन्दकी सीमा न रही, वह अपनी हे देव ! में शत्रुदलके साथ घमासान युद्ध करने के लिये तैयार अपरमित शक्रि देखकर फूला न समाया और बोला- है। इसी तरह समभाव, संतोष, दान, पत्य, उपशम, और मेरे जैसे प्रतापी राजाके शासन करते हुए चेतन राजा क्या धीरज नामक अनेक शूरवीर सामन्तोंने अपनी अपनी कभी अनीति कर सकंगा और उसे मेरी पुत्रीको फिर विशेषाएँ बतलाई।
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२६४ अनेकान्त
[वर्ष १४ ज्ञानदेवने चेतनरायसे कहा कि हमारी फौज भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते क्योंकि अब मैंने अपने स्वरूपसज-धजके तैय्यार हैं। चेतनने देखा कि सैन्यदल तैय्यार का ठीक परिज्ञान कर लिया है और अपनी अदृश्य चैतन्य होगया है । ज्ञानदेव-प्रभो ! में आपसे एक निवेदन कर शकिको भी पहिचाननेका यन्न किया है। परन्तु तुम्हें मेरा देना चाहता हूँ यदि आप नाराज न हो तो कहूँ।
साथ अवश्य देना होगा। वीरवर ! यदि तुमने दृढ़ताके चेतनराजा- वीरवर ! संग्राममें शत्रु पर विजय प्राप्त साथ मेरा साथ दिया, और मेरे विवेकका संतुलन बराबर करना तुम्हारे ही ऊपर निर्भर है इस समय तुम्हारे मुख- सुस्थिर रहा तो मोहका सैन्यदल मेरा कुछ भी बिगाड़ मुद्राकी अप्रसन्नता मेरे कार्यमें कैसे साधक हो सकती है? करनेमें समर्थ नहीं हो सकता। अत विवेक दूतको मोह अतएव तुम जो कुछ भी कहना चाहो निस्संकोच होकर राजाके पास भेज देना चा हये, पर अपने घर में शत्रुका कहो, डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं। युद्धक समय वीरों- बुलाना उचित नहीं है जब हममें अनन्त शक्ति और अनन्त की बात कभी अम्वीकृत नहीं होती। रणनीति भी ऐसी सुख है, तब फिर इतना भय क्यों ? अस्तु ही है, रण विज्ञ राजा युद्धके अवसरों पर अपने वीरोंको
ज्ञानदेवने विवेक दृतको बुलाया और कहा कि तुम कभी अप्रसन्न नहीं होने देते। अत: तुम निर्भयताके साथ मोह पर जाओ, और यह कहो कि- यदि तुम अपना अपनी बात कही।
भला चाहते हो तो यहांस चले जाओ, यदि वह अन्यथा ज्ञानदेव-प्रभो! संग्राममें आक्रमण करनेस पूर्व दूत कहे तो तुम भी उस अपनी धोल बता दना और कह देना भेजकर शत्रुके प्रधानमंत्रीको या उनके किसी अन्य प्रतिनिधि कि तरा जितना जोर चले तू उतना जोर चला ले, वे सब को बुलवा लीजिये, तथा जहां तक बने इस समय संधि जीवक ही चाकर है. जो क्षणमात्रमें नष्ट कर देंगे। ज्ञानकर लेना ही उचित होगा।'
दे ने तो तुम्हारी भलाईक लिये ही मुझे तुम्हारे पास भेजा चेतन राजा-ज्ञानदेव ! श्राज तुम युद्ध के अवसर पर था. अतः यदि तुम जीवन चाहने हो तो चेतनपुरको छोड़ कायर क्यों हो रहे हो? हमें अपनी शक्ति पर पूरा विश्वास दो। विवेक मोहक पास पाया श्रीर उसने मोहसे कहा कि है, संग्राममें हमारी अवश्य विजय होगी, पर तुम्ही बताओ, यदि तुम अपना भला चाहते हो तो यहां से भाग जाओ। घरमे क्या दुश्मनको बुलवाना उचित है ? राजनीति बड़ी दतक वचन सुनकर माह भाग बबूला हो गया और लाल गढ और विलक्षण होती है, अब मधिका कोई अवसर लाल आंखे निकालता हुआ गरज कर बोला-मैं शत्रुका नहीं है। इस समय युद्ध करना ही हमारे लिये उचित है। क्षणमात्रम नाश करूंगा। मेर अागे तरी क्या विमात,
ज्ञानदेव-प्रभो! आप माहराजाकी अपरमित शक्लिसे मेरे एक ही वीर सुभट ज्ञानावीन केवल तुम्हें हा दुखी परिचित होकर भी इस प्रकारकी बातें कर रहे हैं। मैं नहीं किया किन्तु संसारके सभी प्राणियोंको परेशान कर जानता हूँ कि जब आपके सामने मोहके प्रधान सचिव, राग रक्खा है, फिर भी तुम्हें लाज नहीं पाती, जो मुझ जैसे
और द्वेष नाना प्रलोभनों और अनेक सुन्दर नवयुवतियोंके राजाके आगे यहांसे हट जाने को कहते हो । अनन्तकालसे हाव-भावों नथा चंचल कटाक्ष बाणोंके साथ प्रस्तुत होंगे। तुम कहां रहे, अब तुम्हारी यह हिम्मत, कि तुम मुझसे उस समय क्या आपकी दृढ़ता सुस्थिर रह सकेगी ? यह लड़नेको तैयार हो गये। तुम चौरासी लाख योनियों में संभव नहीं जान पड़ता । श्राप मोहके लुभावने भयंकर अनेक स्वांग धारण कर नाचते रहे, उस समय तुम्हारा अस्त्रोंसे अभी अपरिचित हैं। इसीसे ऐसा कहते हैं। पुरुषार्थ कहां गया था, क्या कभी तुमने उस पर विचार
चेतन राजा ज्ञानदेव ! यह तुम्हारा कहना ठीक है। किया है ? मैंने तुम्हें इतने दिन पाल-पोष कर पुष्ट किया है, मोह राजाने भ्रममें डालकर ही मेरे साथ अपनी पुत्रीका सो तुम उल्टे मुझसे ही लड़नेको तैयार हो गए हो, तुम पाणिग्रहण किया था। जिसके कारण मैंने क्या क्या कुकर्म नीच हो, तुम्हें लज्जा पानी चाहिये, तुम तो गुणलोपी नहीं किये हैं ? परन्तु अब हमें अपनी अतुलित शक्ति पर दुष्ट हो, ओ चेतनके पापी गुण, तुम सब अभी चले जाओ, पूरा विश्वास है। हम संग्राममें अवश्य विजयी होंगे, अब मुझे अपना मुख मत दिखायो । विवेक-गाजा मोहके तीक्षण उसके वे लुभावने अस्त्र-शस्त्र सब कुठित हो जावेंगे । रही वाक-बाण सुनकर किसी तरह ज्ञानदेवके पास आया और 3 युवतियोंके कटाक्ष वाणोंकी बात, सो वे अब मेरा मोहका सब समाचार कहा, कि मोह यहांसे नहीं भागता,
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किरण )
रूपक-काव्य परम्परा
२९५
वह अपनी फौजोंको जोडकर युद्ध करना चाहता है । दृतके ओर लगा दिया, और अप्रत्याख्यान नामक योद्धाको अपने वचन सुनकर ज्ञानदेव मनमें कुछ मा और कहा कि तुम परिवार सहित उत्रनगरकी रक्षाका भार सौंप दिया। उक्र शीघ्र ही 'अवतपुर' जात्रो और शत्रुदलको घेर कर उसे सरने अवतपरमें स्थित होकर प्रतदेवक कार्योमें विघ्न डालने नष्ट करो, अब शानकी समस्त सेना गढ़से निकल कर का यत्न किया। परन्तु चेतनरायने अपने ज्ञान और विवेककी शत्रुको घेरनेके लिए चली और विवेक सेनानी उसके सहायतासं 'देश व्रतपुरके' मार्गको अवरुद्ध करने वाले मुभटोंआगे चला।
को धर्मध्यानकी आराधना द्वारा और मवेग वैराग्यकी दृढ़ता इधर शानदेयके प्रधान सेनापतित्वमें चेतनरायकी सेना,
से क्षणमात्रमें मूर्छित कर दिया । और मोहके अन्य अविवेक और कामकुमारके सेनापतिम्नमें मोराजाकी सेनामें परस्पर प्रात-रौद्र रूप मभटोंको भी पराजितकर देशवतपुर पर अपना घमासान युद्ध होने लगा , युद्ध में दोनों बारसं वीर एक अधिकार कर लिया। यद्यपि अविवेकने अपना भारी पुरुषार्थ दूसरे योद्धाको ललकारते हए एक दूसरे पर बाणवां दिग्वलाया, और अपने घातक बाणोंकी वर्षा द्वारा शत्रुदलको करने लगे, यद्यपि ज्ञानदेव युद्धनीतिम अतिशय निपुण था हानि पहुँचानेका भारी यन्न किया; किन्तु उस किंचत्भी तथापि कामकुमार भी उससे कम नहीं था पर वह शरीरसे सफलता न मिला, क्याकि अत्यन्त मुकुमार था और ज्ञानदेय कठोर, तथा पराक्रमी, रूप चक्रसे शत्रु-सेनाको पराजित कर दिया, और अवशिष्ट ज्ञानदेवने सुकुमार कामकुमारको एक ही बाणमें पृथ्वी पर शत्रु सेनाको भी देशव्रतपुरस निकाल कर भगा दिया। सुला दिया, कामकुमारने अपने पौरस दिखाने में कोई कमी चेतनको देशवतपुरकी विजयस हर्षातिरेक तो हुअा, परंतु नहीं की, किन्तु ज्ञानदेव समन्न उसकी एक भी चाल साथ ही आगे बढ़ने और अपने समस्त प्रदेशसि मोह सेनाके सफल न हो सकी । ज्ञानदेवने केवल कामकुमारका ही हनन निष्कासन करने का विचार भीस्थिर हुआ और देशवत नगरक नहीं किया. किन्तु मोहसनाक अन्य सात सुभट वीरोंका एकादश श्रावक भावरूप व्रतको पुष्ट करने तथा शत्रुओंसे भी काम तमाम कर दिया, जो चेतनके मार्गको रोक उनकी रक्षा करनकी महती पालनाको कार्यमें परिणत किया। हुए थे। मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व और इतना ही नहीं किन्तु धर्मपानरूप कुठारसे शत्रुपक्षका अनतानुबंधी क्रोध, मान. माया-लोभ । इन सातों मुभटों- दमन करते हए चेतनने 'प्रमत्तपुर' को जीननेका विचार के विनष्ट हो जानेस मोहने युद्ध की स्थितिको बदलते स्थिर किया। क्योंकि उस नगरका मार्ग मोहके प्रबल देख अपने सैन्यदलको पुनः सम्हालनेका यन्न किया पर ।
सेनानी प्रत्याग्व्यान नामक कषाय मूरने अपने परिवार महित वहांसे उसे हटना ही पडा । पश्चात ज्ञानदेवने चक्रव्यूह- अवरुद्ध किया था । और मध्य में प्रमाद जैसा सुभट भी की रचना कर अपने मैन्यदलको संरक्षित कर लिया और उसकी रक्षा करनेक लिये तत्पर था : साथ ही मोहके अज्ञाउस चक्रव्यूहके द्वारके संरक्षणका कार्य वनदेवको मौंप नादि अन्य सुभट भी उनकी सहायनाके लिये उद्यत थे। दिया ।
ऐसी स्थितिमें 'प्रमत्तपुर' को अधिकृत करना तुमुल संग्राम किन्तु यहां शानदेवने जिम विपम चक्रव्यूहका निमाण के विना सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक मोह भी स्वयं किया था, और उसमें अपने मैन्यदलको इस तरहसे अपने मनस्त परिवारके माथ उसकी रक्षा करनेके लिये कटिसन्यवस्थित किया जिसमें शत्रुदलका उममें प्रविष्ट होना बद्ध था। उसने चेतनको पकडने के लिये अपने अनेक वीर अशक्य हो गया-शत्रु-सेनाका एक-एक मुभट अपनी-अपनी मैनिक इधर-उधर छिपा रखे थे जो अवसर पाने ही चेतनशक्ति पचाकर माहमहीन होगया परन्तु कोई भी उसकामेन की शक्रिको नष्ट करनेका प्रयत्न कर सकते थे। साथ ही करने में समर्थ न हो सका । इधर वनदेवने अपने धनुष-बागासे मोहका यह आदेश था कि यदि चेतन 'देशवतपुर' से आगे अवितिको भी जा पवाडा जिससे वह युद्ध-भूमिसे उठनेमें बढे तो उसे उसी समय गिरफ्तार कर लिया जय । और सर्वथा अम्मर्थ हो गया। इस तरह मोहक वे सभी योद्धा फिर मैं उसे मिथ्यात्वमें डालकर अपने वरका मनमाना जिन पर मोहको सदा नाज रहा करता था एक एक कर बदला ले सकृगा। मारे गए । अतः मोहने 'अवतपुरको छोड दिया' और देश इधर चेतन भी अपने सेनानी शान और विवेकके साथ व्रतपुर' जा घेरा । तथा वहां अपनी सेनाको सुदृढ़ मोर्चेको अपनी दृढ़ताको बराबर बढ़ा रहा था, और मोहको जीतनेसे
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२६६ ]
चेतनका धैर्य एवं सास अपनी चरम सीमा पर पहुँच रहा था। उसने अपने शम-दम और समाधिरू अमोघ अस्त्रोंका भली-भांति अभ्यास कर लिया था और भेद विज्ञानरूप पेनी देवीका प्रयोग भी उसे सुगम था उसकी । उद्दाम वासनाएं शिविल एवं जर्जरित हो गई थी, संवेग और वैराग्यकी शक्ति बन रही थी और वह समय भी तूर नहीं था जब वह मोहके प्रास्या जैसे वीरको मात्र में विनष्ट करदे। को अपनी अतुल शक्ति पर पूरा विश्वास था, वह कारकं साधन सम्पन्न था। इतनेमें सुमनने कर चेतनसे कहा कि- महाराज! आप सावधान रहें, मोहने अनेक जान फैज़ा है, यदि कदाचित् आप उनमें फस गएको र बाकी बहुत बुरी दशा होगी, मैंने आपको मानकी चेतावनी दे दी है, अतः मेरा कोई
नहीं है। ऐनको सुनकी बातों पर कुछ भी श्राव नहीं हुआ । अब चेतनने पुनः अपनी धनन्तशनिकी ओर देखा, इधर सैनिक वालोंको ध्वनि हो रही थी, उसी समय चेतनने भेद विज्ञानरूप छेनीस प्रत्याख्यान नामक सूरका निशत किया. और ममतारूपी लंगोटी तथा ग्रन्थिको उखाड कर फेंक दिया, और परम शान्त दिगम्बर गुड़ाको चाrn fear । यद्यपि मोहके धारणा किया सेनापतियोंने काफी प्रतिरोध किया, और अपने अनेक अस्त्र-शस्त्रों द्वारा गनको दानि पहुँचाने का प्रयत्न भी किया परन्तु ऐननने अपने नेत्र-विज्ञानरूर दुफारेसे मवका प्रतिकार करते हुए अमनपुर में प्रवेश किया। इस नगर में मोहका प्रबल सेनानी प्रमाद अभी श्रवशिष्ट था और वह चेतनके कार्यो में भारी विघ्न करता था । श्रतः चेतनने समाधिपती असे प्रमादका भी क्षणमात्रमें नियाग कर दिया, प्रसारके गिरनेही विकथा निद्रा, प्रणय श्रादि उसके अन्य वीर साथी भी धराशायी हो गए। प्रमा हनन होजानेसे मोहका सेनामें खलबली मच गई, और अशिष्ट शूरगण अपनी-अपनी जान बचाकर भागनेको उद्यत हो गए और प्रमणपुर शत्रुओंसे खाकी हो गया। अब चेतन अपनी परि ग्राम विशुद्धिको बढ़ाता हुआ 'श्रप्रमतपुर पहुंचा। अब मोह चूंकि शक्रिहीन हो गया था। यतः अपनेको इधर-उधर का दिवाकर रहने लगा। वह ऐसे अवसर की प्रतीक्षामें था, कि चेतन अपने स्वरूपसे जरा
अनेकान्त
[ वर्ष १४
भा शिथिल हो तो मैं उसे धर दबाऊँ । परन्तु चेतन महा विवेकी, अपने अतुल साहसका धनी, सदा अपने में सावधान रहता था इस कारण शत्रुदलको यह अवसर ही नहीं मिलता था जिससे वह अपने उद्देश्यमें सफल हो सके ।
अब चेतन निज स्वरूपमें सावधान हो आहार-विहार आदि सभी बाधक क्रियाओंका परित्यागकर पद्मासन मुद्रामें अब स्थित हो भेद-विज्ञान, विवेक और समाधि इन अस्त्रोंको
साथ ले ध्यान में सुस्थिर हो गया और क्षणमात्र में तीन शत्रुओंका नरक, वियंच और देवधायुका विनाशकर अनगर में आकर यहां उसने अपनी अपूर्वकरण परिणतका विका किया । तथा तृतीय करके सहारे नवमपुरको प्राप्त किया और वहां दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मक ती सुभटोंको पराजिनकर चेतन दशमपुरमें प्राप्त हुआ। यहां भी उसने सुषम लोभ नामक सुभटको क्षणमात्रमें विजितकर और ग्यारहवें उपशान्त नगरका उल्लंघनकर अपनी भेदविज्ञान रूपी परमपनी पैनीसे मोह शत्रुका सर्वाविनाशकर क्षीणमोहपुरमें पास किया। यहां चेननकं यथान्यात नामका सुखमय चा स्त्रगुण प्रकट हुआ । श्रनन्तर चेतनरायने घानियाकर्मकी प्रकृति रूप मोलह सुभटोंको विनष्टकर लोकचलोकको देखनेवाले अनुपम केवलज्ञानकोशको प्राप्त किया।
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अब चेतनकी सम्पूर्ण धात्म-शत्रिका विकास हो गया। जो अनन्त गुण अनादिकालसे प्रच्छन्न हो रहे थे वे सब प्रकट हो गये चेतनकी जो आन्तरिक शनि प्रकट हुई वह इतनी महान् और चारचर्यकारक थी कि उसका इस लेपनी बयान नहीं हो सकता । चेतनने इस सयोगिपुर में दीर्घकाल तक अवस्थान कर जगतका महान कल्याण किया - लोकको दुःखनिवृत्तिका साधन बतलाया, और मोहरात्रु पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है उसका एक थादर्श रूप उपस्थित किया । अनन्तर चेतनने योगनिरोधकर और प्रयोगपुरमें पहुँच कर क्षणमात्रमें अशिष्ट बहतर और तेरहपचासी - कर्म-शत्रुनोंका --निपात किया और सिद्धालय में निज स्वरूपमें सुस्थिर हो गया जहांसे फिर कभी धाना नहीं हो सकता, और जो अनन्तकाल तक अपने चिदानन्द स्वरूपमें निमग्न रहता है।
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(क्रमशः )
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अनेकान्त
श्रीकानजीस्वामीक अभिनन्दन-समय
वीरसेवामन्दिरमें लिया गया एक चित्र
AR
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माय में बैठे हुए दाहिनी प्रोग्म-श्री आ: जुगलकिशोर मुख्तार, श्री कानजी स्वामी, चु० पूर्णसागर । तपरकी पक्रिम खडे हुए-श्री ला प्रेमचन्द जैनावाच, दिल्ली के प्रतिष्ठिन व्यक्तियांका परिचय देते हुए,
बाबु प्रेमचन्द बी०१८, मंयुक्त मन्त्री वारसेवा मन्दिर, बाबु छोटेलाल कलकना,
अध्यक्ष वाग्मेवान्दिर, ताराचन्द प्रेमी। नाच को पंक्रिम बट हुए. -गय मा. लाउल्फनराय. ला. जुगलकिशोर कागजी, बाबु रघुवरदयाल एम:
वगैलबाग, वागज पं. महावीर प्रसाद और श्री नेमीचन्द पाटनी ।
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मात्मार्थी, आजन्मब्रह्मचारी, अध्यात्म-रसिक, अध्यात्म प्रसारक
श्री कानजी स्वामीको सेवामें अभिनन्दन-पत्र
आत्मार्थिन ! पारम-धर्मके परम पाराधक और प्रसारक होते हुए भी आपने सम्यग्नर्शनकी विशुद्धिके साधन-भूत सिन्द्वक्षेत्रोंकी बदनार्थ एक विशाल सबके साथ यात्रा प्रारम्भ की और परम तीर्थाधिराज सम्मेदशिखर, पावापुर, राजगिर, चम्पापुर धादि अनेकों तीर्थस्थानोंकी वंदना करते हुए इस दिजीमे पदार्पण किया है, जिसे स्वतन्त्र भारतकी राजधानी होनेका गौरव प्राप्त है। अपनी खोज-शोधके लिये प्रख्यात, प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद्, साहित्य तपस्वी, प्र.मा. जुगलकिशोर जी मुख्तार, 'युगवीर' द्वारा संस्थापित इस वीरसेवामन्दिरमें ठहर कर आपने हम लोगों पर जो अनुग्रह किया है वह हम सबके लिये परम हर्षकी बात है।
आजन्म ब्रह्मचारिन् । भ० नेमिनाथके पाद-पदमसे पवित्र हुए और वीरवाणीके ममुद्धारक श्रीधरसेनाचार्यकी तपोभूमि होनेके कारण अपने 'सुराष्ट्र' नामको सार्थक करने वाले सौराष्ट्र देशमें आपने जन्म लिया। गृहस्थाश्रममें सर्व साधन सम्पच होते हुए भी आपने बाल्यकालसे ही ब्रह्मचर्यको अंगीकार किया, और अत्यन्त अल्प वयमें संसारसे उदास होकर साधु दीक्षा ग्रहण की। पूरे २० वर्ष तक स्थानकवासी जैन सम्प्रदायमें रह कर श्वेताम्बर आगम-सूत्रों-प्रन्योंका विशिष्ट अभ्यास किया, और अपने सम्प्रदायके एक प्रभावक वक्ता एवं तपस्वी बने । उस समय अनेकों राजे-महाराजे और सहस्रों जेन आपके परम भक्त थे, तथा आपको 'प्रभु' कह कर वंदना-पूर्वक साष्टाङ्ग नमस्कार करते थे।
अध्यात्म-रसिक ! श्वे. जैन श्रागम-सूत्रोंके पूर्ण अवगाहन करने पर भी आपकी प्राध्यात्म-रस-पिपासा शान्त न हो सकी। सौभाग्यसे दो सहस्र वर्ष पूर्व प्रा. कुन्दकुन्द-निर्मित परम अमृतमय समयमार आपके हस्तगत हुआ, आपने अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे उपका स्वाध्याय प्रारम्भ किया। स्वाध्याय करते ही आपको यथार्थ दृष्टि प्राप्त हुई और विवेक जागृत हुआ। आपने अनुभव किया कि अाज तक मैंने शालि-प्राप्तिके लिये तुष-खंडनमें ही अपने जीवनका बहु भाग बिताया है। उस समय अपके हृदयमें अन्तर्द्वन्द मच गया। एक ओर प्रापके सामने अपने सहस्रों भकों द्वारा उपलब्ध पूजा-प्रतिष्ठा प्रादिका माह था, और दूसरी ओर मत्यका आकर्षण । इन दोनोंमेंसे अपनी पूजा-प्रतिष्ठाके व्यामोहको ठुकराकर आपने दिगम्बर धर्मको स्वीकार किया, और महान साहस और दृढ़ताके साथ विक्रम संवत् १६ में चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वोर जयन्तीके दिन बीरता-पूर्वक अपने वेष-परित्यागकी घोषणा करदी। घोषणा सुनते ही सम्प्रदायमें खलबली मच गई और नाना प्रकारके भय दिखाये गये । परन्तु आप अपने निश्चय पर सुमेरुके समान अटल और अचल रहे । तबसे आप अपने आपको आत्मार्थी कह कर प्रा. कुन्दकुन्दके प्रति गहन आध्यात्मिक ग्रन्थोंकी गूढतम प्रन्थियोंके सूक्ष्मतम रहस्यका उद्घाटन कर कुन्दावदात, अमृतचन्द्र-प्रस्यूत, पीयूषका स्वयं पान करते हुए अन्य सहस्रों अध्यात्म-रस-पिपासुनोंको भी उसका पान करा रहे हैं और अत्यन्त सरल शब्दों में अध्यात्म तत्त्वका प्रतिपादन कर रहे हैं।
. आत्म-धर्म-पथिक। जिस सौराष्ट्रमें दि० जैनधर्मका प्रभाव-सा हो रहा था, वहाँ आपके प्रवचनोंको श्रषण कर सहस्रों तत्त्व-जिज्ञासुत्रोंने दि. जैनधर्मको धारण किया, सैकड़ों नर-नारियों और सम्म घरानोंके कुमारकुमारिकाओंने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया। तथा जिस सौराष्ट्रमें दि० जैन मन्दिर विरल ही थे, वहाँ आपकी प्रेरणासे २० दि. जैन मन्दिरोंका निर्माण हो चुका है और इस प्रकार अापने धर्मकी साधना और प्रारमाकी माराधनाके साधन वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिये प्रस्तुत किये हैं।
अध्यात्मप्रसारक ! कुछ शताब्दियोंसे जैन सम्प्रदायके प्राचार-व्यवहारमें जब विकार प्रविष्ट होने लगा और त्रिवर्णाचार एवं चर्चामागर जैसे ग्रन्थ प्रचारमें आने लगे तब १९वीं शताब्दीके महान विद्वान् पं. टोडरमलजी ने उस दषित व्यवहारसे जनताके बचाव के लिये मोक्षमार्ग प्रकाशकी रचनाकर जैनधर्मकं शुद्ध रूपकी रक्षा की। उनके परचात् इस बीसवीं शताब्दी में मवहार-मूढ़ता-जनित धर्मके विकृत स्वरूपको बतलाकर 'प्रात्म-धर्म' के द्वारा उससे बचनेक मागका माप
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शान्तिकी खोज
(प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य एम० ए०) राजकुमारी मल्लिका अनिन्द्य सुन्दरी थी । रति भी एक एक करके राजकुमारोंको उन कमरों में आमन्त्रित किया अकचका गई थी उसको रूपछटा देखकर | उसके रूप-लावण्य जिनमें वे मूर्तियां सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सजित हो अलग-अलग और सौंदर्यकी चर्चा इन्द्रकी अप्पराएँ भी करती थीं । खड़ी थीं। उसने प्रत्येक राजकुमारको उनके अंग-प्रत्यंगके उसका शरीर जितना सुन्दर था हृदय भी उतना ही स्वच्छ लावण्यरसका पान कराके कहा कि आप जिस प्रकार इसके अन्तःकरण उतना ही पवित्र और आत्मा उतनी ही निर्मल बाह्यरूप पर मुग्ध हो क्या उसी तरह इसके अन्तरंगको भी थी। सांसारिक भोगोंमें उसकी जरा भी प्रासक्ति नहीं थी। चाहते हो या केवल बाह्यछटाके ही लोलुपी होराजकुमारोंने वह बचपनसे ही जगत्की क्षणभंगुरता, देहकी नश्वरता और जब यह कहा कि हम तो इस रूप-माधुरी पर पूरी तरह विभूतिकी चंचलताका विचार कर प्रारमनिमग्न रहती थी। निछावर है तो राजकुमारीने एक-एक राजकुमारके मामने यौवनने अंग-अंगमें कब प्रवेश किया इसका पता यद्यपि
एक एक मूर्तिका ढक्कन क्रमशः खोले । ढक्कन खुलते ही कुमारीको नहीं था, पर उस लौ पर शलभ श्रा-आकर मॅडराने
सड़ा गला अन पानी बाहर भरभरा पड़ा और समस्न प्रकोष्ठ लगे। अनेकों राजकुमार उस पर अपनेको निछावर करनेके
अपह्य दुर्गन्धसे भर उठा । राजकुमार अपनी नाक दबाकर लिये उसकी कृपाकोरके भिखारी बन रहे थे।
ज्योंही भागने लगे, त्योंही कुमारीने उनसे कहा ठहरो अभी रूपसी मल्लिकाने देखा कि मेरा यह सौंदर्य स्वयं मेरे
तो इन मूर्तियोंका एक ही ढक्कन खोला गया है तो भी लिये भार हो रहा है और मां-बाप तथा बन्धुजन चिन्तित
श्राप सब नाक-भौं सिकोड़ कर विरक्रिसे भर उठे हैं । कदाहो रहे हैं। उसने जब यह समझा कि उसका ही रूप उसे
चित यह पूरी मूर्ति अनावृत कर दी जाय तो..। सच खाये जा रहा है तो उसने एक दिन पितासे कहा कि जो-जो
मानिए जो भोजन, पानी गत मप्ताह मैंने लिया है वही इन राजकुमार मुझसे विधाह करना चाहते हैं, उन सबको बुला
मूर्तियोंमें डाला गया है। क्या इस चर्म शरीरकी बहुत इये । मैं स्वयं उनसे बात करके निश्चय करूंगी। स्वयंवरका दिन निश्चित हुा । कुमारीने पाठ दिन
अच्छी दशा है। अपनी वामनाओं, कामनाओं और अभिपहले ठीक अपनी ही प्राकृति और रूपकी अनेक पोली
लाषाओं के प्रतिच्छाया स्वरूप इस मुग्धा योषा रूपमी रति स्वर्णमूर्तियां बनवाई। जो भोजन पानी वह लेती थी वही
अंगना कामिनी, विलासिनी और रामाका अन्तःसार दवा ! भोजन पानी उन मूर्तियोंके भीतर ढक्कन खोलकर वह
विषयकीट, जरा जी भरकर इसे देखो, चाटो, सू'धो और डालती जाती थी।
छुयो। समस्त राजकुमार सिर नीचा किये सुन रहे थे और नियत दिन पर सब राजकुमार शोभा-सज्जाके साथ उप- लोगोंने देखा कि कुमारी मल्लिका चुपचाप आत्म-साधनाके स्थित हुए। सबके मन प्राशासे उत्तरंग हो रहे थे। कुमारीने पथकी पथिक वन शान्तिकी खोजमें जा रही थी।
निर्देश कर रहे हैं । अापके तत्वावधानमें आज तक तीन लाख पुस्तकोंका प्रकाशन हुआ है जिससे लोगोंको अपनी 'मूलमें भूल' ज्ञात हुई है।
अध्यात्म-संघनायक! आपने सोनगढ़में रहकर और श्रमण-संस्कृतिके प्रधान कार्य ध्यान-अध्ययनको प्रधानता देकर उसे वास्तविक अर्थमें श्रमण-गढ़ बना दिया है। श्राप परम शान्तिके उपासक हैं और निन्दा-स्तुतिमें समवस्थ रहते हैं।
आपके हृदयकी शान्ति और ब्रह्मचर्यका तेज आपके मुख पर विद्यमान है। आप समयके नियमित परिपालक हैं । भगवद्भक्ति पूजा करनेकी विधि, प्राध्यात्मक-प्रतिपादन-शलो और समयकी नियमितता ये तीन श्रापकी खास विशेषताएं हैं। अध्यात्मका प्रतिपादन करते हुए भी हम आपकी प्रवृत्तियों में व्यवहार और निश्चयका अपूर्व मम्मिश्रण देखते हैं। आपके इन सर्व गुणोंका प्रभाव आपके पार्श्ववर्ती मुमुचुत्रों पर भी है । यही कारण है कि उनमें भी शान्ति-प्रियता और समयकी नियमितता दृष्टिगोचर हो रही है। आपकी इन्हीं सब विशेषताओं से प्राकृष्ट होकर अभिनन्दन करते हुए हम लोग अानन्द-विभोर हो रहे हैं।
हम हैं आपके-चीर-सेवा-मन्दिर, सदस्य, भा. दि. जैन परिषद सदस्य
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अानन्द सेठ
(पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) आजसे अढ़ाई हजार वर्ष पूवकी बात है, पटना इसमें भी अपनेको असमर्थ पावे, वह वर्तमानसे दूने, (विहार का एक बहुत बड़ा धनिक सेठ आनन्द तिगुने परिग्रहको रखनेका नियम कर उससे अधिकअनेक लोगोंके साथ भ. महावीरके समवसरणमें की इच्छाका परित्याग करे, यह जघन्य प्रकार है। गया। सबने भगवानका उपदेश सुना और उपदेश आनन्दने मनमें सोचा-मेरे बारह कोटि स्वर्ण मनकर अनेक मनुष्य प्रवृजित हो गये । आनन्द भी दीनार हैं, पाँच सौ हलकी खेती होती है, चालीस भगवानके उपदेशसे प्रभावित हुश्रा । पर वह घर- बगीचे हैं, दस हजार गाएँ हैं, पाँच सौ रथ और बारको छोड़नेमें अपनेको असमर्थ पा भगवानसे गाड़ियाँ हैं, और इतना इतना धान्यादि है । इतने बोला
प्रचुर धन-वैभवसे मेरा जीवन निर्वाह भली-भांति भन्ते, मैं आपके उपदेशका श्रद्धान करता हूँ, हो रहा है, अतः अधिककी इच्छा करना व्यर्थ है। प्रतीति करता हूँ, वह मुझे बहुत रुचिकर लगा है। और. आज जितना वैभव है, उसका मैं आदी हो पर मैं घर-बारको छोड़ने में अपने आपको असमर्थ गया है. अतः उसे कम भी नहीं कर सकता। ऐसा पाता हूँ। अतएव भन्ते, मुझे श्रावकके व्रत देकर विचार कर भगवानसे बोलाअनुगृहीत करें।
__ भन्ते, 'मैं मध्यम परिग्रह-परिमाणवतको अंगी. भगवानकी दिव्यध्वनि प्रकट हुई-आयुष्मन ,
कार करता हूँ', ऐमा कहकर उसने वर्तमानमें प्राप्त जैसा तुम्हें रुचे, करो; प्रमाद मत करो।
धन-सम्पत्तिसे अधिक एक भी दमड़ी नहीं रखनेका भगवान्की अनुज्ञा पाकर आनन्दने कहा
संकल्प कर अपरिग्रहव्रतके मध्यम प्रकारको स्वीकार भन्ते, मै यावज्जीवनके लिए स जीवोंकी सांक
किया। इस प्रकार पंच अणुव्रत धारण किये। तदल्पिक हिंसाका त्याग करता है. लोकविरुद्ध, राज्य
नन्तर सप्त शीलोंको भी धारण कर और भगवान्विरुद्ध, आगम-विरुद्ध एवं पर पीड़ा कारक असत्य
को नमस्कार कर वह अपने घरको वापिस लीट वचन नहीं बोलू गा; बिना दी हुई पर-वस्तुको नहीं
आया। ग्रहण करूंगा और अपनी स्त्रीके अतिरिक्त अन्य
घर आकर उसने अधिकारियोंको अपने ब्रत, सबको माता, बहिन ओर बेटी समझूगा । इस
ग्रहणकी सूचना दी और अपना समस्त सम्पत्रिके प्रकार चार अणुव्रतोंको ग्रहण कर परिग्रह-परिमाण
चिट्ठा बनानका आदेश दिया। अधिकारियोंने चिट्ठा व्रतको ग्रहण करनेके लिए उद्यत होता हुआ अपने
बनाकर बताया कि आजके दिन आपका चार कोटि विशाल वैभवको देखकर चकराया कि अपरिग्रह
सुवर्ण दीनार व्यापारमें लगा हुआ है। चार कोटि नामक पंचम व्रतको कैसे ग्रहण करू? जब अन्तरसे कोई ममाधान नहीं मिला तो भगवानसे बोला
सुवर्ण दीनार व्याजपर लोगोंको पूंजीके लिए दिया भन्ते, अपरिग्रह व्रत किस प्रकार ग्रहण किया ?
हुआ है और चार कोटि सुवर्ण दीनार समय-स
मयपर काम आने के लिए भण्डार में सुरक्षित है। जाता है?
उत्तर मिला-आयुष्मन, परिग्रहका परिमाण खेतों में बाने के लिए मर्वप्रकारके धान्योंकी २५ हजार तीन प्रकारसे किया जाता है-वर्तमानमें जितना बारियाँ काष्ठागारमें रखी हुई हैं। दश हजार परिग्रह हो, उसमें से अपने लिए आवश्यकको रख गायों में से एक हजार दूध दे रही हैं, और लगभग कर शेषका परित्याग करे, यह उत्तम प्रकार है। इतनी ही गाभिने हैं। इसी प्रकार शेष अन्य समस्त जो इसे म्वीकार करने में अपनेको असमर्थ पावे, सम्पत्तिको सूची आनन्दके सामने उपस्थित की गई। वह वर्तमान में उपलब्ध परिग्रहसे अधिक न रम्बने- आनन्दने अधिकारियोंसे कहा-आज मैंने का नियम करे, यह मध्यम प्रकार है । और जो श्रमणोत्तम भगवान् महावीरके पास श्रावकके व्रत
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२७.]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
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ग्रहण किये हैं। उनमें परिग्रह-परिमाण व्रतके अन्त- वाले उन गरीब परिवारोंके घर भिजवा दिया, र्गत आजके दिन मेरे जितना परिग्रह है, उतनेसे जिनके कि घर दूध नहीं होता था। अधिकका परित्याग किया है। अतएव आगे प्रतिदिन वर्षके अन्तमें मुनीमोंने व्यापारका वार्षिक होनेवाली आमदनीसे मुझे सूचित किया जाय। चिट्ठा तैयार किया और बतलाया कि विभिन्न मदोंसे
दूसरे दिन बगीचोंसे फलोंसे भरी हुई अनेक सब कुल मिलाकर इतने लाख रुपयोंकी नकद श्रामगाड़ियाँ आई । आनन्द फलोंको देखकर मनमें दनी हुई है। आनन्द तो प्राप्त पूंजीसे अधिक रखनेविचारने लगा कि उन्हें बाजारमें बिकवानेसे तो का त्याग कर चुका था । अतएव उसने अपने ग्राम धनकी निर्यामत सीमाका उल्लंघन होता है। अतएव और नगरके सारे निर्धन साधर्मी बन्धुओंकी सूची इनका वितरण कराना ही ठीक होगा, ऐसा विचार तैयार कराई और उनमेंसे प्रत्येकको यथायोग्य पू जी कर घरके लिए आवश्यक फलोंको रखकर शेष प्रदानकर उनके जीवन-निर्वाहका मार्ग खोल दिया। फलोंको नौकर-चाकर. पुरा-पड़ौस और नगर- इस प्रकार वर्ष पर वर्ष व्यतीत होने लगे और निवासियोंके घर भेंट-स्वरूप पहुँचा दिये । यह क्रम आनन्दका यश चारों ओर फैलने लगा। लोग उसने सदाके लिए जारी कर दिया और बगीचोंसे भगवान महावीरके धर्मकी प्रशंसा करने लगे। प्रतिदिन आनेवाले फल नगर में सर्वसाधारणको आनन्दके दिन भी आनन्दसे व्यतीत होने लगे। वितरण किये जाने लगे। इमा प्रकार जरूरतसे आनन्द करोड़ोंके अपने मुलधनको सुरक्षित रख अधिक बचनेवाला दध भी गरीबोंको वितरण किये करके भी महादानी और ग्राम, नगर एवं देश जानेकी व्यवस्था की गई।
वासियोंके प्रेमका पात्र बन गया। कुछ समयके पश्चात खतोंसे धान्यकी फसल काश, यदि भाजके धनिक लोग अानन्द सेठका तयार होकर आई। उसमें से जितना बीज बोया प्र
या अनुसरण करें, अपने को प्राप्त वैभवका स्वामी न गया था, आनन्दने उतना भण्डारमें भिजवा दिया। ममझकर उसका ट्रष्टी या संरक्षक समझ, तो कुछका वर्षभरके लिए घरू खर्चको रखकर शेष समाजमें जो विषमता और असन्तोष है, वह सहज धान्य नगर-निवासी गरीब परिवारोंके घर भिजवा ही दर हो जाय । धनिकोंका धन भी सुरक्षित बना दिया। अकेले-दुकेलोंके लिए सदावर्त बटवानेकी रहे और वे सर्वके प्रेम-भाजन बनकर सुख-शान्तिव्यवस्था की, तथा वृद्ध, अनाथ अपंग, रोगी और मय जीवन-यापन कर सकें। ऐसा करनेसे परिग्रहअपाहिजोको खाने-पीने के लिए स्थान-स्थान पर को जो पाप कहा गया है, उसका प्रायश्चित्त भी भोजन-शालाएँ खोल दी।
सहज में हो जाता है । नथा सम्पत्तिका संग्राहक और कालक्रमसे गायोंके जननेके समाचार प्राने उपभोक्ता सहजमें दातार बनकर यशोभागी बनता है लगे। तब आनन्दने अपने लिए नियत संख्याकी और एक महान पुरुष बन संसारके सामने आता गाएँ रखकर शेष दूध देनेवाली गायोंको बाल-बच्चों है।
अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन है कि जिन ग्राहकोंने अपना वार्षिक चन्दा ६) रुपया और उपहारी पोष्टेज ११) कुल ७१) रुपया मनीआर्डरसे अभी तक नहीं भेजा है, वे किरण पाते ही शीव्र मनीआर्डरसे भेज दें जिन प्राहकोंकी बो. पी. उनको अनुपस्थितिमें वापिस हो गई है, उनसे निवेदन है कि वे अपना वार्षिक मूल्य शीघ्र ही मनीआर्डरसे १० मई तक भेजकर अनुग्रहीत करेंगे।
मैनेजर अनेकान्त-वीर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज दिल्ली।
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कला का उद्देश्य
(प्रो. गोगुलप्रसादजी जैन एम० ए० साहित्यरत्न) कला एक अखण्ड अभिव्यक्ति है अतः उसका ६-कला श्रात्मानुभूतिके लिये ( Art for कोई वास्तविक वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । self realisation). कलाका मूल अनुभूति है जिसकी स्थिति प्रत्येक उपर्यत प्रयोजन एक दुसरेसे नितान्त भिन्न नहीं कलाकारके हृदय में समान रूपसे रहती है। उसकी है। उनमें केवल दृष्टिकोणकी भिन्नता है । प्रथम अभिव्यजनाकी विभिन्न प्रणालियोंके कारण से ही ध्येय प्रयोजन कलापक्षके तथा शेष चार उपयोगिता
भिन्नता प्रतीत होती है। उपयोगिता और पक्षके द्योतक हैं प्रथम पक्ष कलाको जीवनके लिये सौन्दर्यकी भावना तो कलाके मूल में सर्वत्र रहती ही आवश्यक तथा प्राचार और नैतिकताका कलात्मक है । उपयोगी कलाद्वारा मनुष्यके लौकिक और माध्यम नहीं मानता जबकि दूसरा वर्ग कलाको ललितकलाद्वारा उसके मानसिक एवं अलौकिक जीवनकी उन्नति और नैतिक सदाचारकी स्थापनाके मानन्द पदको सिद्धि होती है। इसी कारणसे लिये अत्यावश्यक और अनिवार्य मानता है। एकमें कलाके अनेक विभाजनों में 'ललित और उपयोगी लोकहितकी भावना तिरोभूत रहती है तथा दूसरेमें का विभाजन ही सर्वाधिक सार्थक और वैज्ञानिक उसका प्राधान्य होता है। प्रतीत होता है। ____ उपकरणोंकी दृष्टिसे ललितकलाओंके वास्तु,
प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक कलाको जीवनकी प्रति
कृति मानता था। वह कला और जीवनक नित्य मृति और चित्रकला (दृश्य वर्ग) तथा संगीत
और घनिष्ट सम्बन्धका प्रतिपादक था जबकि प्लेटो और काव्यकला (श्रव्य वर्ग) ये पांच भेद किये गये
इसके विपरीत कलाको जीवनकी अनुकृति मात्र हैं । पाश्चात्य मीमांसकोंन भी काव्यको ललित
मानकर चलता था। उसके अनुसार कला कृतियां में कलाओंके अन्तर्गत माना है। इसी कारणसे काव्य
जीवनका केवल अनुकरण सम्भव है प्रतिकरण नहीं। के प्रयोजनोंका विवेचन व्यापक रूपसे कलाके अनेक
अतः कला जीवनकी प्रतिकृति नहीं बन सकती। प्रयोजनों के साथ चलता है। कलाके अनेक प्रयो
अपने यथार्थवादी सिद्धान्तके अनुमार अरस्तू कला जनों में निम्न लिखित : प्रयोजन अधिक प्रसिद्ध हैं
जीवनके लिये सिद्धान्तका प्रवर्तक तथा पोषक है जब कला पक्ष
कि प्लेटोका आदर्शवाद कला कलाक लिये के १-कला कलाके लिये (Art for Art's Sake)
Ke) सिद्धान्तका प्रतिष्ठापन करता है। इन दोनों सिद्धांतों २-कला जीवनसे पलायनके लिये (Alt us
का कालान्तरमें इंग्लैण्ड तथा फ्रांसमें पालन-पोषण an escape from life). ३-कला आनन्दके लिए ( Art for jor).
हुआ तथा वहींसे इनका सिद्धान्त रूपमें प्रतिपादन ४-कला मनोरंजनके लिये ( Art for Rec
हुआ। फलतः विचारकोंमें भी दो वर्ग हो गये।
कला पक्षके समर्थकोंमें पास्करवाइल्ड, ब्रडले, reation ). ५-कला सृजनकी आवश्यकतापूर्तिके लिये क्लाइब वेल, वाल्टर पेटर आदि प्रमुख थे जब
कि उपयोगिता पक्षके समर्थकों में (Art as creative necessity ).
रस्किन, अम्बरकावी आदि प्रसिद्ध हैं। प्रथम वर्गमें उपयोगिता पक्ष
केवल सौन्दर्य ही सब कुछ था तथा कलाके क्षेत्र में ६-कला जीवनके लिये (Art for Life's Sake ).
सद असदु, सभ्य असम्यका विवेक कोई महत्व नहीं ७-कला जीवन में प्रवेशके लिये (Art as
रखता । आचार और कलामें भी कोई सम्बन्ध नहीं an escape into life ).
है दूसरे वर्गमें लोकपक्ष, उपयोगितावादी लोक-कला सेवाके लिये ( Art for servica's कल्याण अदिकी भावनाका प्राधान्य है। Sake).
साहित्यिक क्षेत्रके अतिरिक अन्य क्षेत्रों में कुछ
- NMMM मचायाs.
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०७२] अनेकान्त
[वर्ष १४ ऐसी विचारधाराएँ भी विद्यमान थीं जो कलाको यथार्थवाद-आहार, निद्रा, भय और मैथुन कल्पनामूलक मानकर 'कला कलाके लिये' के सिद्धान्त ये प्राणीमात्र की मल वृत्तियाँ मनुष्य में भी विद्यमान का पोषण करती थीं। इनमें फ्रायडका स्वप्नसिद्धांत हैं। उसकी शेष उदात्त वृत्तियाँ तो सभ्यता प्रसूत है। कांचेका अभिव्यंजनावाद तथा यथार्थवाद प्रमुख है। अतः मनुष्यकी साहित्यिक कृतियों में उसकी मूल
फ्रायडका स्वप्नसिद्धान्त-फ्रायडके मता- वृत्तियोंका साकार होना स्वाभाविक ही है। यह नुसार मनुष्य जिन-जिन वस्तुओंको इस जगतमें प्राप्त मान्यता भी पूर्णतया सुस्थित नहीं है। मानवक नहीं कर पाता, उन्हें वह स्वप्न में प्राप्त करता है। विवेक शील प्राणी होनेके कारण वह उपरोक्त साहित्यका मूल आधार कल्पना है और मनुष्यकी स्वाभाविक पाशव वृत्तियों पर नियंत्रण रखता है। अवरुद्ध वासनाओंकी पृत्ति काल्पनिक जगतमें होती उसे लोक कल्याणकी भावनासे प्रेरणा मिलती है है अतः साहित्यमें उनका चित्रण स्वाभाविक है। जिसका आधार सदाचार हे । अतः उसकी कृतियोंप्रत्येक साहित्यमें शृगार भावनाका प्राधान्य इसी में सभ्यता जनित सदाचार सम्बधी उदात्त कृतियाँ कारणसे है।
उसकी प्रगतिके साथ आती ही रहती हैं। क्योंकि इस सिद्धान्तका पर्याप्त आलोचन-प्रत्यालोचन कला सभ्यताका प्रतीक है। पाशव वृत्तियोंसे उसका हुआ तथा पूर्ण परिनिरीक्षाके परिणामस्वरूप यह निरन्तर संघर्ष सभ्यता एवं प्रगातका द्योतक है। सिद्धान्त भ्रमपूर्ण पाया गया। संसारकी अबतककी "मनुष्य हृदयमें अनुभव करता है और मस्तिष्कसे श्रेष्ठ कलाकृतियाँ अधिकांशतः विवेकवान और मनन करता है। अतः हृदय और मस्तिष्कके संयोग श्राचार निष्ठ पुरुषोंकी देन हैं। कलाकारकी आत्मा से प्रसत कलाकृति जीवनसे दूर कैसे रह सकती है महान होती है। लोककल्याणकी भावनासे उसे प्रेरणा और जीवनसे प्रथक उसका मूल्यभी क्या होगा ?" मिलती हैं। कलाकारका व्यक्तित्व असाधारण होता अतः यह दृष्टिकोण भी सर्वथा एकांगी और है कलाकृतिका प्रणयन करते समय लोक मंगलकी अपूर्ण है। भावनाही उसकी प्रेरक शक्ति होती है । अतः उसकी इन तीनों मतोंके विपरीत हम यह देखते हैं कि कलाकृतिको देखकर ही उसके वास्तविक और पूर्ण अत्यन्त प्राचीनकालसे संसारके प्रत्येक वाङ्गमयमें कवित्वका अनुमान नहीं किया जा सकता। यह कलाको उपयोगिताकी कसौटी पर कसा जाता रहा सिद्धान्त एकांगी है।
है। भारतीय मनीषियों के अनुसार कला जीवनका अभिव्यंजनावाद-क्रोचे केवल अभिव्य- एक अभिन्न अंग माना जाता रहा है तथा कला क्तिको ही कला मानता है। वस्तुका उसकी दृष्टिमें उनके लिये जीवनकी कलात्मक अभिव्यक्ति रही है। कोई मूल्य नहीं । किन्तु यह मान्यता भी सुसंगत अतः साहित्यकार अथवा कलाकार 'कान्ता सम्मित प्रतीत नहीं होती। वास्तव में साहित्यके दोनों पक्षों- उपदेश देने वाला कहा गया है कलाकारका उद्देश्य भाव-पक्ष और कलापक्ष मेंसे भावपक्षका सम्बन्ध समाजके अधार स्वरूप सदाचारका कलात्मक भाव या अनुभतिसे तथा कलापक्षका सम्बन्ध इसकी स्वरूप उपस्थित कर समाजमें सत्के प्रति आसक्ति अभिव्यक्तिकी रोनिविशेषसे है। अतः अनभति और असत् और विषमताके प्रति विरक्ति उत्पन्न और अभिव्यक्ति अर्थात मध्यपक्ष और कलापक्ष करना है। अतः कला और प्राचारका सम्बन्ध दोनों ही अनिवार्यतः सम्बद्ध हैं। अभिव्यक्तिका नैसगिक-सा हो गया है। मम्बन्ध जोवनसे होने के कारण उसमें जीवनका पाश्चात्य विद्वान भाव पक्षके वजाय कला पक्ष प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति तो पर अधिक जोर देते रहे हैं किन्तु अब तो उन पर साधन या आवरणमात्र है जिसका आधार भाव भी इस विचार धाराका प्रभाव पड़ा है। एजिल्सके या अनुभूति ही है । अतः यह मत भी संगत नहीं मतानुसार साहित्यमें कही हई बात आकर्षक हो। ठहरता। यह मिद्धान्त भी एकांगी है।
किमचंद्रभी उसी मतका समर्थन करते हैं। उनके
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किरण कलाका उद्देश्य
[२७३ अनुसार कलाकार सौन्दर्यकी चरम सृष्टि करके और शिवमें कोई अन्तर नहीं है। अतः सत्य और संसारकी चित्त शुद्धि करता है। कवि या कलाकार शिव स्वतः सुन्दर भी होते हैं। इस प्रकार सौन्दर्य सुधारको बात भी सौन्दर्यके आवरणसे कहता है। प्रधानवस्तु कलामें जनकल्याणकी भावना स्वभावतः कलाको कान्ता सम्मित उपदेश माना जाता है। ही रहती है । अतः कला जोवनसे भिन्न कोई वस्तु
संसारके प्रायः सभी सुधारकों, साहित्यकारों नहीं। तथा नेताओंने कलाको उपयोगिताकी कसौटी पर भारतमें कला कलाके लिये का नारा योरोपसे कसा है। डक्सन, आस्कर वाइल्ड, महात्मागांधी, आया है तथा अतिवादिताका द्योतक है। कलाकों रवीन्द्रनाथ, टाल्मटाय आदि सभी इसी मतके सम- केवल कलाके लिये अथवा केवल जीवन या लोक र्थक हैं। महात्मागांधीके अनुसार कलासे जीवनका हितके लिये मानने वाले अतिवादी हैं। कलाका महत्व है। जीवन में वास्तविक पूर्णता प्राप्त करना न तो जीवनसे सम्बन्ध ही टूट सकता है और न वह ही कला है। यदि कला जीवनको सुमार्ग पर न सदाचारकी प्रचारक मात्र बनकर ही रह सकती लाये तो वह कला क्या हुई। लेकिन वे कज्ञामें है। कला-प्रसूत सामग्रीमें मानव जीवनकी महज एवं उपयोगिताके पूर्ण समर्थक थे । टालस्टायके मतसे भावनाओं तथा प्रवृत्तियोंका मूर्तिरूप कलाको समय, कला समभावके प्रचार द्वारा विश्वको एक करनेका देश और जातिके बन्धनमें न बांधकर उसे सार्वसाधन है। बकेके अनुसार आत्म-प्रकाशकी भावना देशीय तथा सार्वशासकी बना देता है जिसके ही हर प्रकारकी कलाका मूल है। सृष्टि ब्रह्माकी कारण उसके प्रणेता कलाकार भी अमर हो जाते कला है और कला मानवकी सृष्टि है।
हैं। प्रसादजी, तुलसी, सूर अदि इसी कारण अमर ___ सत्य संसारमें सर्वत्र व्याप्त है । ईश्वरभी सत्य- हैं। कलाकारकी कृतिमें लोकहितकी भावना अनस्वरूप है । इसी सत्यकी उपलब्धि ही कलाका जाने ही में आ जाती है। अतः मध्यम मार्गही उद्देश्य है । कला द्वारा हम उसी सत्यकी उपासना सर्वोतम है । वह न तो जीवनसे पृथक हो और न करते हैं किन्तु सुन्दर रूपमें। चेतन, अमूर्त और प्रचारका साधन मात्र ही बनकर रह जाय। हम भावमय होनेके कारण ब्रह्म सबसे बढ़कर सुन्दर उसे केवल जीवनको सुन्दर अभिव्यक्ति मानकर ह। अतः सुन्दर सत्यका ही रूप है। माथ ही सत्य ही चलें।
वीर-सेवा-मन्दिरके विद्वानों द्वारा प्रचार-कार्य जैन समाज सरधन के विशेष आग्रह पर ता० ११-४-१७ को पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्री सरधना गये। यहाँ जैनियोंके लगभग १५० घर हैं ५ पाँच दि. मन्दिर हैं और १ श्वे. मन्दिर है । खरधना सहरके लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पर जैन हायर सैकण्डरी जैन हायर सेकण्डरी गर्ल्स स्कूल आदि अनेक संस्थायें सुचारु रूपसे चल रही है जिनके प्रमुख कार्यकर्ता श्री. ला. चतरसेनजी जैन खहर वाले तथा श्री ला. हुकमच द्रजी जैन मा. वर्तमान मैम्यूफेक्चरिंग फैक्टरी सरधना है।
रथोत्सवके दिन सभी जैन बन्धुओंने पेंठका दिन होते हुए भी दुकानें बन्द रवीं तथा जैनेतर समाजने भी रथोत्सव में सहयोग प्रदान किया। त्रिको श्री ला• सुन्दरलालजी प्रौनरीही मजिट्रेट मेरठकी अध्यक्षतामें और दूसरे दिन श्री बा. कृष्णस्वरूपजीकी अध्यक्षता विद्वानोंके प्रभाविक भाषण हये, श्री. बा० विजयकुमारजी सुपुत्र श्री. ला. चतरसनजी जैन रईसने १.१) एक सौ एक रुपया प्रदान कर अनेकान्तक सहायक बने और १०) अन्य सज्जनोंसे कुल सरधनासे १५१) हुए। जैनपमा कि आमंत्रण पर श्री. पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री खतौली (मेरठ) गये, वहां अापके दो भाषण एवं प्रवचन हुये। जनता बहुत प्रभावित हुई और ११) रुपया वीर-सेवा-मम्मिरकी सहायतार्थ प्राप्त हुये। एतदर्थ दातारोंको हार्दिक धन्यवाद ।
दिल्ली में-ता. १२ अप्रेलको श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशाम्त्रीने भाकाशवार्ण से महावीर-जयन्तीके दिन 'भगवान महावीरके अमूल्य प्रवचन' प्रसारित किये। तथा जैनमित्रमण्डल द्वारा प्रायोजित समारोहमें बापने और श्री. प. परमानन्दजीशास्त्रीने प्रभावक भाषण दिये
मंत्री-बीरसेवा मन्दिर
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संस्कारोंका प्रभाव
(श्री पं० हीराबास सिद्धान्त शास्त्री) __ संस्कारोंका प्रभाव कितना प्राव और जम्म-जन्मान्तरों इसी प्रकार यदि कोई शिशु जन्म लेनेके पश्चात् तक साथ रहने वाला होता है, इस बातका कुछ जिक्र गत भूखा होने पर रोनेके बजाय अपने हाथ या पैरके अगृटेको किरण में किया जा चुका है। यदि मनुष्य स्थिर और एकाग्र मुहमें देकर चूसने लगता है, तो समझना चाहिए कि वह चित्त होकर अपने या दूसरेको प्रवृत्तियों की ओर दृष्टिपात उच्च योनिसे पाया है। देखनेमें ये बात छोटी प्रतीत होती करे, तो उसे विदित होगा कि प्रत्येक प्राणीके साथ अनेक हैं, पर उनके भीतर कुछ न कुछ रहस्य छिपा रहता है। संस्कार पूर्व जन्मसे हो साथमें लगे हुए पाते हैं। तत्काल जिन्होंने शास्त्रोंका स्वाध्याय किया है, वे जानते हैं कि उनमें उत्पन हुए बच्चेको भूख लगते हो वह चिल्लाता है और स्वर्ग और नरकसे पाकर मनुष्योंमें जन्म लेने वाले जीवों के माके द्वारा अपना स्तन उसके मुख में देते ही वह तत्काल मी चिन्ह बच्चादिका निरूपण किया गया है। उसे चूसने लगता है। तत्काल-जात बालकको यह क्रिया
पुराने संस्कारोंका एक ताजा उदाहरण लीजिये। उसके मनुष्योचित पूर्व जन्मके संस्कारोंका पोषण करती है।
२५ दिसम्बर सन १६ के नव भारत टाइम्स'में निम्नलिखित कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि कितने ही बच्चे
समाचार प्रकाशित हुमा हैजन्म लेनेके पश्चात् भूखसे पीड़ित रोते-चिल्लाते तो है, पर माके सतत प्रयत्न करने पर भी उसके स्तनको मुंहमें नहीं
_ 'रोम २४ दिसम्बर। समाचार है कि इटालियन दबाते हैं। अन्त में हताश होकर ऐसे बच्चोंके मुंहको किसी
बाडकास्टिंग कारपोरेशनका कार्यालय भूत-ग्रस्त हो गया चीजसे खोलकर और उसमें चम्मच श्रादिके द्वारा दूध
है। लोगोंका कहना है-यह भूत प्रातः और सायं लगभग डालते हैं, जब बच्चा उसके स्वाद प्रादिसे परिचित हो
तीन बजे सीड़ियों परसे उतरकर घूमता है। एक पहरेदार जाता है, नो मां फिर अपने स्तनके पास बच्चे के मुहको
जिसने इस भूतको देखा, भयभीत हो गया है उक
पहरेदारको मृतकी प्रामाणिकता पर पूरा भरोसा हो गया के जाकर और उसके खुले मुंहमें अपने स्तनके दूधकी
है। कुछ लोगोंका विश्वास है कि यह 'नीरो' है। कुछ धारको छोड़ती है, और उसको धीरे-धीरे अपने स्तन पानकी ओर अग्रसर करती है। इस प्रकारके बच्चोंको जन्मते
खोगोंका यह भी कथन है कि यह एक मेहमान था जिसकी ही स्तन-पानकी ओर अग्रसर न होना भी प्रकारशक नहीं
मृत्यु ... वर्ष पूर्व होटल में हो गई थी। अब यह होटल समझना चाहिए । हो सकता है कि बहुतसे बच्चोंके गलेकी
भाई. बी. सी. के कार्यालय में तबदील हो गया है। खराबी भादि दूसरे-दूसरे कारण रहे हों, पर जिस बालकके
अभी कुछ मास पूर्व जैन पत्रोंमें एक समाचार छपा शरीरमें किसी भी प्रकारको खराबो नहीं है, स्वास्थ्य अच्छा
था कि अमुक मुनिराज जो कुछ दिन पूर्व सम्मेदशिखर जीकी है,गर्भके पूरे दिन बिताकर ही बाहर पाया है, उसके स्तन- वन्दना करने के भाव रखते हुए समाधि मरणको प्रात हुए पानकी गोर प्रवृत्ति न होना तो रहस्यसे रित नहीं माना थे, वे सम्मेदशिखरजी पर यात्रियोंके द्वारा ध्यानस्थ देखे जा सकता है। ऐसे बच्चोंके लिए हमारे शास्त्रों में वर्णित गये हैं। ज्ञात होता है कि उनकी प्रारमामें शिखरजीकी अनेक कारणों में से एक कारण यह भी संभव है-संभवती बन्दनाके संस्कार घर कर गये। मरकर वे देव हुए और नहीं, मैं तो निश्चित भी कहने के लिए साहस कर सकता है अपने पूर्व जन्मोपार्जित संस्कारसे प्रेरित होकर तीर्थराजकी कि वह बच्चा किमी ऐमी योनिसे पाया है, जहां पर उसे वन्दनार्थ पाये हों, और ताजे संस्कारोंके कारण मुनिका माताके स्तमसे दूध पीने के सस्कार ही नहीं पड़े हैं। संभव पूर्व वेष रखकर ध्यानादि करते हुए गिरिराज पर प्टिगोचर है कि वह नरकसे निकल कर मनुष्य हा हो. यापेमी हुए हा। पशु-पक्षियों की योनिसे माया हो, जहां पर कि माताके स्तन उपर्युक दोनों घटनाएँ पूर्व जम्मके संस्कारों के ज्वलन्त हीन होते हों, और अण्हे प्रादिसे उनकी उत्पत्ति रही हो।
दृष्टान्त हैं और वे यह प्रकट करती हैं कि प्राणी जैसे अथवा यह भी सम्भव है कि वह सम्मूर्षिकम मत्स्य,
संस्कार लेकर मरता है, वे संस्कार आगामी पर्यापमें कच्छप, मेंडकादि योनिका रहा हो।
प्रकट होते हैं।
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
इय णेमिणाहचरिए अबुह-का-रयण-सुअ-लक्खम- गोयम-एवें जा कहिय सेणियस्स सुह-दायणि । णेण विरइए भन्वयण-जणमणाणंदो सावय-वय-वएणणो जा बुहयण-चिंतामणिय धम्मारमह तरंगिण ॥२॥ णाम चउत्यो परिच्छेश्रो समत्तो ॥ संधि ४॥
महिवीढ पहाणउ गुण-वरिट्ट, पंचायती मंदिर शास्त्रभंडार दिल्ली, लिपि सं १५६२
सुरह वि मण-विभउ जणइ सुह । ३३-अमरसेन चरिउ (अमरसेन चरित)
वर तिरिण-साल-मंडिउ पवित्त, कवि माणिक्कराज, रचनाकाल सं० १५७६
णंदह पंडिउ मुर पार पत्तु । आदिभाग-प्रथम पृष्ठ नहीं
महियासु वि णामें चणिउ इटु, ए सयलवि तिन्थंकर कुलहोसहिधर ते सव पणविवि पुमिवर
अरियर जणाह हिय-मल्नु कछु । पुणु अरुह सुवाणी ति जय पहाणी, णिय मणि धरि वि कुमइ-हर
जहि सहाई णिरंतर जिग-णिकेय, पुणु गोयमुगाहरु णमउ शाणि,
पंडुर-सुवरण-धय-सुह-ममेय ॥ जे अक्खिउ सम्मइ-जिण वाणि।
सट्ठाल म-तोरण जत्थ हम्म, पुणु जेण पयन्थइ भासियाई,
मण मुह मंदायए णं सुकम्म । भव-उबहि-नरण-पोयण-सुदाई ॥
चउहर-वस्तर दाम जन्थ, पुणु तासु घणुका मि मुवि पहाणु,
वणिवर यवदहि वि जहिं पयस्थ ॥ मिाय चयणन्थ तम्मउ सुजाणु ।
मग्गण-गण-कोलाहल समन्थ, हुय बहु सद्दश्यह-मुइ-णिहाणु,
जहिं जण णिसहि पुण्ण प्रत्थ | जिंइ दुद्धरु णिज्जिय-पंचवाणु ।
जहिं श्रावगाम्मि थिय विवह भंड, विएणाय-कलालय-पारुपत्त,
कमवडिक्सयहि भम्मखंड॥ उद्धरिय भन्न जे सम-विसत्त । संतइय ताह मुणि गच्छणाहु,
जहिं चमह महायण सुन्छ-बोह,
णिचंचिय पूया-दाण-सोह। गय-राय-दोस मंजइय साहु॥
जहि वियरहिं वर चउ वरण लोय, जे ईरिय गंथह कइ-पवीणु,
पुण्णेण पयामिय दिव-भोय ॥ णियमाणे "रमप्पयह लीणु ।
ववहार चाग संपुण्णव, तव-तेय गियत्तणु कियउ बाणु,
जहिं गत्त वसण-मय-हीण भव्य । गिरि-खकित्ति-पट्ट िपत्रीणु । सिरि हेगकत्ति जि हुयउ धामु,
मोवरण-चूढ मडिय-विसेम,
सिंगार-भार-किय-णिरविसेम ॥ तहुं पट्टधि-कुमर वि सेणु णामु । णिग्गंथु दयालउ जइ-वरितु,
सोहग्ग-णिजय जिणधम्म-सील, जि कहिउ जिणागम-भेउ सुट्ठ॥
जहिं मामिण-माण-महग्य-लील । तहु पट्ट-णिविट्ठउ बुह-पहाणु
जहिं चार-चाड-कुसुमाल दुछ, मिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु ।
दुज्जण स-खुद खल पिसुण धिट्ठ तं पट्टि धुरंधर वय-पवीणु,
रावि दीपहि कहि महि दुहिय-होगु, वर पोमणंदि जो तबहिं खीणु ॥
पेमाणुरत्त सन्च जि पवीणु । तं पणविवि शियगुरु सील वाणि,
जहि रहहि य-पय दलिय मग्गु, णिग्गंधु दयान उ अमिय वाणि ।
नंबोल-रंग-रंगिय-धरग्गु ॥ पुणु पतणमि कह सवणाहिराम,
सुहलच्छि जमायरु णं रयणायरु बुहयण गुड णं इंदउरु । आयएगहु जा सहस्थ-राम ||
सस्थत्यहिं सोहिउ जण-मण-मोहिउ यं वरणय रह एहु गुरु ॥
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२७६
अनेकान्त
[वष १४
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तहिं साहि सिकंदरु सामिसालु,
पर-स्यणह णं उप्पत्ति-खाणि, खिय पहपालइ अरियण भयालु।
जा वीणा इव कलयंठि वाणि। तं रज्जि वसइ वणिवरु पहाणु,
सोहमा-रूव-चेलणि य दिछ, दुक्खिय-जण-पोसणु गुण-णिहाणु ।
सिरि रामहु सीया जिह वरिष्ठ । जो अयरवाल कुल-कमल-भाशु,
सहि वीर उवण्णा स्यण चारि, सिंघल-कुवलयहु वि सेय-भाणु ।
णं गत चउक्क सुरूव-धारि । मिच्छत्त-वसण-वासण विरत्तु,
तम्मज्मि पढमु वियसियसुवर्ग, जिण-सासणि गंथह पाय-भत्तु ॥
नक्खण-लक्खंकिउ वसथ-चत्तु ॥ चउधरिय णाम चीमा सतोसु,
अतुलिय-साहसु सहसेकणेहु, जो वंसह मंडणु सुयण-पोसु ।
चाएण कण्णु संपइहिं गेहू। तं भामिणि गुण गण-सील-खाणि,
धीरें गिरि गंभीरें सायरु, मल्हाहीण में महुर-वाणि ॥
णं धरणीधरु णं रवि-ससि सुरु । तंगंदणु णिरुवम गुण शिवासु,
णं सुरतरु पइ पोसणु सुहहरु, चउधरिय करमचंदु अरहदासु।
णं जिणधम्मु पयहु थिउ वसु वरु। जिणधम्मोवरि जें बद्धगाहु,
जि शियजसि परिय दाणि महि, णिव हिया इटु पुरयणह याहु ।।
जो णिव सुह पालउ सुयणसुहि ॥ जिण वरणोदएण वि जो पवित्त,
दिउराजु णामु चउधरिय सुर्दि, मायम-रस-भत्तउ जासु चित्तु ।
जिणधम्म-धुरंधरु धम्मणिहि । उद्धरिड चडग्विह-संघभारु,
विण्णाण कुसमु बीयउ सुपुत्तु, पायरिड विसावय-चरिउ चार॥
जो मुणइ जिणेसर धम्मसुत्तु । पडदाणवंतु णं गंध-हरिथ,
सुपवीणराय-वावार-कज्जि, वियरेह णिच्च जो धम्म-पंथि ।
गंभीर जसायरु बहुगुणिज्ज । सम्मत्त-यण-लंकिय सरीरु,
माझू चउधरिय विसुद्ध भाइ, कणयायलु म्व णिक्कंपु धीरु ॥
जो णिव-मणु रंजइ विविह भाइ । सुहि परिया-कहरव-वहिं हंसु,
अपणु वितीयउ रिसिदेव-भत्तु, जिणवर-सहमज्में लबू-संसु।
गिह-भार-धुरंधरु कमल-वत्तु । तं भामिणि दिउचंदहि मियच्छि,
चुगनाणामें चउधरित उत्तु, जिण-सुय-गुरु भत्तिय सील सुमिछ।
जो करह णिच्च उवयारु त:॥ तं जायउ णंदणु सील खाणि,
पुणु चउथउ णदणु कुल-पयासु, चउमहणा यामें श्रमिय-वाणि ।
अवगमिय सयल-विजा-विलासु । धण-कण-कंचणु-संपुण्णा संतु,
जिण-समयामय-रस-तित चितु, पंडियह वि पंडियगुण-महंतु ॥
छुट्टाणामें चउरिय उत्तु । दुहि-यण-दुह-गासलु बुह कुल-सासणु जिण सासण-रह-धुर-धवलु एचड भाइय जिणमइ-राइय, दिउराजुणामु गरुवड सुपई बिज्जा बच्छी घर स्वें पायरु मह णिसु किण विह उद्धरण॥ याणासुह विलसइ कइयण पोसइ पियकुल कमजज्जु पुहई ५ तं पणइणि-पणह-णिबद्ध-देह,
भएणहि दिणि जिणवर गंथदत्यु, शामें खेमाही पिय-सणेह।
सम्मत्त-रयण-लंकयहि पत्थु । सुर-सिंधुर-गह सहवाह-विलील,
गड अरुह-गेहि दिउराज साहु, परिवारहु पोलय सुबसील ॥
पठधरिय रायरंजयपयाहु ॥
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किरण]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
भावें वैदिउ तहं पासणाहु, पुग जिय-गंथाणं गविवि साहु । सिद्धत-प्रस्थ भाविय मणेण, पुरयण सुहयारउ सुरधणेण ॥ तहं दिट्ठउ पुणु सरसह-णिवासु, माणिक्यराज जिण गुरहं दासु। तेणवि संभासणु कियउ तासु, जा गोहि पयासह बहु सुपासु ॥ संजिण अंचण पसरिय भुवेण, अक्खिउ बुहसूरां णंदणेण । भो! अयरवालकुल कमलसूर, बुहयण जणाह मण श्रास पूर ।। जिणधम्म-धुरंधर गुण-णिकेय, जसपूर दिसतर किय ससेय । चउधरिय खेमहणासुय सुणेहिं, कलिकालु पयलु णियमण धरेहिं ।। दुजण अवियहवि दोस गाहि, वति पउर पुणु पुहह माहि । इय सुकइत्तणि पुणु बद्धणाहु, णिय हियइ धरेप्पिणु पासणाहु । सत्थत्थ-कुसल लइ रसह भरिट, सिरिअमरवइरसेणहु वि चरिउ । भउ वंसु गरिठहु पुहइमजिक, णं प्राइसाह हीणंह दुसज्मि ।। जह जाय पुरिसवर तवहं धारि,
वरसीहमल्ल पमुहाइ सारि । तं वयणु सुणेप्पिणु मणि पुलएविणु अक्खइ देवराज बुहहो भो माणिक पंडिय सील अखंडिय वयणु एक महसुणहिं लड अन्तभाग:
णंदहु जिणवर सासण सारउ, जिणवाणी वि कुमग्ग-वियारउ । णंदउ बुहयण समय परिट्ठिय, शंदउ सज्जण जेवि सविटिठ्य ।। गंदउ परवह पय रखेंतउ, गाय-मग्गु लोमहं सदरिसंतड । सति वियंभउ पुष्टि वियंभउ, सुट्टि वियंभठ, दुरिउ णिसुभत ।।
सेमिउ णिग्गड गरय शिवासहु, जिराधम्मु वि पयडउ भव-वासहु । जिमच्छर मोहवि परिहरियड, सुहयज्झणि जें शियमशु धरियउ ।। हेमचंदु आरिउ वरिट्ठड, तहु सीसु वि तव-तेय-गरिठ्ठउ । पोमणंद धरणंदउ मुणिवरु, देवणंदि तहु सीसु महीवरु ॥ एयारह पडिमड धारंतर, राय-रोस-मय-मोह-हणंतउ । सुहमाणे उवसमु भावंतउ, णंदर बंभलोलु समवंतउ ।। तह पास जिणेदह-गिहनवरण, बे पंडिय णिवसहिं करायवरण । गरुवउ जसमलु गुणगण गिहाण, बीयड बहु बंधउ भब्व जाणु । सिरि संतिदास गंथत्य जाणु, चवह सिरिपारसु विगय-माणु ।। णंदउ पुणु दिवराउ जसाहिउ,
पुत्त-कलत्त-पउत्तु वि साहिड । पत्ता-रोहियासि पुरि वासि, सयलु जोड सह यंदउ ।
पास जिणहु पय-सरणु, णाणा थोत्तहिं वंदिङ १
पुणु णामावलि भणउ विसारी, दायहु केरी वरण विसारी। अइरवालु सुपसिद्ध विभासिड, सिंघल गोत्तिउ सुयण-समाहिउ ॥ बूल्हा णिवि अहिहाणे भणिउ, जे णिय-तेए कुलु संताणिउ । करमचन्दु चउधरिय गुणायरु, दिवचंदही भजहि वि मणोहरु ।। तस्स तणुरुह तिरिण वि जाया, णं पंडव इव तिरिण समाया । पढमड सत्थ-अत्थ-रस-भायणु, महणचंदु णं उड्यउ धरहणु॥ तह वणिया पेमाही सारी, पुत्तबउ किं जुव मणहारी। अग्गिमु वाणे जिड सेयंसिड, उज्जन जसरियो दि जयंसिठ॥
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२७८]
अनेकान्त
[ वर्ष १४
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असुवइ परहर तियहि विरत्तउ, जं असच्च कइया उ उत्तउ । दिउराजु जि जिण सहहि महल्लउ, णोणाही तिय रमणु वि भल्लड । तहु कुक्खि सिप्पि मुत्ताहलाई, उप्पणइं वेसु परिउ सलाई। पहिलारउ णिय कुलहं वि दीउ,
हरिवंसु णामु गुणगण विदीउ ।। पत्ता-तहु भज्जा गुणहिं मणुज्जा, मेल्हाही पणिज्जए। गउरि गंग णं उहि सुया तहु कस उप्पन दिज्जई ॥१२
पुवहि अभयदाणु असु दिएणउ, तह सुउ अभयचंदु सुणि संणिउ । अवर वि गुण-रयणहिं रयणायर, देवराज सुउ सयल दिवायरु ।। रतणपालु गामें पणिज्जइ, तहु भूराही ललण वि गिज्जइ । देवराय पुगु श्रीयउ जायउ, भाभूणामें जग विक्लायड ।। तह चोवाही भज्ज काहज्जद्द, तो तेंयहु णेहें जो छिज्जह । पढमउ गायराउ तहु का मणि, सूवटही णामें जणराणि । बीयउ गेल्हु वि श्रवर पयासिउ, झाझू तीयउ पुत्तु पयासिउ। चाओ णामें जण विक्खायउ, महणासुर चुगणा पिय भास ।। डूंगरही तहु भामिणि सारी, खेतासिंघणंदण जुयहारी। सिरियपालु पुणु रायमल्लु पुणु कुंवरपालु भासिउ जडिल्लु ॥ महणा अवरु चउत्थउ णंदणु, छुटमल्लु वि जो धम्महु संदणु । फेराही अंगण मण-हारउ,
दरगहमल्लु वि पंदणु रह सारउ ॥ पत्ता-करमचंदु पुणु पत्तु , बीयर जी जुवि भणिउ । साहा हिय पिय उत्तु गुरु-पय रत्त वि पाणिउ ॥१३
तहो अंतहो अंगोभव तिरिण जोय, विसुसुय पवणंजउ अज्जुणो य ।
पहलारउ रावण तस्स हारि, रामाही जाया अहि वियारि ॥ तहु सरीरि सुत्र चारि उवण्णा , पुहइमल्लु वि पढमु सुवण्णा । तस्स भज्ज बहु णेहालंकिय, कुलचंदही जाया बहु संकिय । कित्तिसिंघु तहु कुक्खि उयएणउ, गग्गिर गिरु णव कंचण वएणउ | पुणु जस चंदुव चंदुभणिज्जइ, लूणाही पिय यम अणुरंजह ॥ तह वि तणंधउ लक्रवण लंकित, मदणसिंघ जो पावह संकिउ । अवरुवि वीण कटु वीणावरु. पोमाही तहु कामिणि मणहरु । गरसिंघु वि तउ सुउवि गरिदृड, लच्छि पिल्लु णं पियरहं इट्टउ । पुणु लाडणु रूवें मयरद्वउ, तहु वीवोकता वि जसद्धउ । पुणु जोजा बीयउ पुत्तु सारू, णियरूवें जित्तर जेण मारु । दोदाही कामिणि अणुरंजइ, में सुहि मरणें ग्गि गमिज्जइ ॥ . जोजा अवरवि णदणु सारउ, लखमणु णाम मंडिय हारउ । मल्लाहा कार्मािण बहु णंदणु,
हारू णामें जण-मण-णदशु । धत्ता-अवरुपिणंदणु तीयउ ताल्हू णामे भासिउ । बाल्हाही भणहार वे मुय ताह समासिउ ॥४॥
पढमउ पामति दामू सुहो, इच्छाही भामिणि दिएणउ सुहो । महदासु वि तहु पुत्तु पियारउ, पुणु दिवदासु बीयउ मणहारउ ।। साधारणही भज्ज मणोहरु, घणमलु णंदणु तहु पुणु सुहयरु । जगमलही कार्मािण तहु सारो, चायमल्लु सुय पासण हारी ॥ इय दिवराजहं वंसु पासिउ, काराविउ सत्थु जि रस सारउ ।
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किरण ]
जैनग्रन्थ- प्रशस्ति संग्रह
कोह-मोह-भय-माण-वियारउ, जं क्खरू या किंपि विण्यासिउ ||
सुपसाएं वि विरुद्ध भासिउ,
".....?
हं सरसइ महु खमइ भंडारी ॥ वीर जिराहो मुहु णिग्गय सारी, जे धारें ते भव-सरि-तारी । हेम-पम श्रारिविसेसें, बंभुज्जाणं गुणगरिगीसें ॥ मइ कम fer aणधरेष्पिणु, कन्व सुवहु लीहवि देष्पिणु । मत्त श्रत्थ- सोहग्ग खिवेविणु, श्रथ विरुद्ध किट्टि क े विणु ॥ सांहि एहु विमगु लाएविगु, होउ चिराउसु कब्वु रसायणु । विक्कम रायहु घवगय कालई, लेसु मुणीस विसर कालई ॥ धरण अंक सहु चतवि मार्से, सवारे सुय पंचमि दिवसें । कित्तिय क्ख सुह जोए, हुउउप्पर सुवि सुद्द जोए ।।
हो वीर जिपर जग परमेसर एत्तिउ लहु महु दिज्जड । जं हि कोहु ण मागु श्रावण जागु, सासय-पय महु दिजउ ॥ १५
इय माराय-सिरिश्रमरसं ए-चरिए चउबग्ग-सुकह कहासमरण-संभरिपु सिरिपंडियमाणिकु विरइए साधुसिरिमहणायचउधरि-देवराजणा मंकिए सिरि श्रमर से मुनि पंचमग्ग-गमणवणां ग्राम सवमं इमं परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥ ७ ॥
X
रव सह मंड सन्च भासि, गोहाण गौहु सुय सील-रासि । चंदुब्व भुवण-संतावहारि वर रूव स उण णं मुरारि ॥ छह अंग सिउ महेसु, मंदारय पुज्जिउ णं महेसु । जिण पयसी संकिउ खील केसु ।। रस दंसण पालउ सुया- तोमु, मिरि ठाकुराणि जिण बम्म धुरंधर । सुरवद्द करभुय जयलहि विमलु, सिरि इसवाल इक्खाकु वंसु ॥ सिरि जगसा दगु सुद्धवसु, टोडरुमल पा घर पयलु । जं किति तिलोयह पूरि थिरु ||
- प्रति आमेर भंडार सं० १५७७ कार्तिकवी चतुर्थी रविवार सुवर्णपथ ( सुनपत ) में लिखित ।
ते श्राइ वि जिणहरि रायणादणि श्रइयाहु जिणवंदियउ । दिट्ठ पंडि भनियम मउिउ श्रह विषयं श्रब्भत्थियउ ॥ x X X इय-चय- पंचमि सिरिणायकुमारचरिए विबुह चित्ताणुरंजिणे सिरिपडिय - माणिक्यराज - विरइए चडधरिय-जगसी ग्रन्थ प्रति श्रादिके दो पत्र न होनेसे उससे श्रागेका सुग-राय-रज-चउघरि टोडरमल्लणामं किए जयंधर- विवाहभाग दिया जाता है
३४ – गागकुमारचरिउ (नागकुमारचरित) कविमाणिक्यराज रचनाकाल सं० १५७६
आदिभागः
:
aणणो णाम पढमो संधि परिच्छेश्रो समत्तां । अन्तिम भाग :
X
[ २७६
X
तहिं जिणमदिरु धवलु भन्वु, सिरि थाहाह जियबिंब दिन्वु । विस पंडिय सद्दखणि, मिरि-जयसवाल - कुल-कमल- तरणि ॥ इक्खाकुवंस मद्दियलि वरि बुह सूरा णंद सुउ गरि । उप्पण्यउ दीवा उरि रवण्णु, बहु माणिकु णामें बुहहि मगु || तत्यंतर साव इक्कु पत्त वय दाण-सील - यि मेण जुत्त । हयग्रंजणु गुण गण विमालु, विच्छिण वत्थ दिपंत भालु ॥ धम्म काम सेतु मंतु,
तस जीव दयावरु सिरिमहंतु । मेव धीरु गुरागण-गहीरु, जिण गंधोपय णिम्भज सरीरु ॥
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२८०]
अनेकान्त
वर्ष १४
शंदड जिणवरिंद जिण-सासणु, दय-धम्मु वि भब्बह पासासणु । यंदउ गरवह पइ पालंतउ, शंदउ मुणिगणु सुत-तउ-वंतउ । णंद जिण सुहमग्गि चरंतर, भवियणु दाण-पूय विरयंतउ । कालि काति धाराहलु वरिसर, दुक्ख-दलिह, दुहिक्खु विणिरउ । घरि-घरि हारिउ रहस रावउ, घरि घरि मगलु गीड पदरिसर । घरि-घरि संखु समुद्दलु वज्जड, घरि-घरि लोड सुहेहें रंजउ ॥ चउविह संघह दाणह पोसणु, जिणवरिंद-सुय-गुर-पय अरचणु । णंदउ टोडरमल्लु दयालउ, पुत्त-कलत्त-सुयण-पह-पालउ ।। जावहि मेरुचदु रवि णहयलि, णंदउ एहु गथु ता महियलि । भवियण लोयह पाढिज्जतउ, णंदउ चिरु दुक्खिड विहुणंतउ ।। विक्कमरायह ववगय-कालें, ले समुणीस विसर अंकालें। पणरह सइ गुण्णासिह उरवालें, फागुण चंदिण पक्खिससिवालें । णवमी सुह पक्खित्त, सुहवाले, सिरि पिरथीचन्दु पसायं सुदरें। हुउ परिपुएलु कम्वु रस-मदिर, सज्जण-लोयह विणउ करेप्पिणु ॥ पिसुण-क्यण कहमेण भरेप्पिणु, विरयउ एहु चरित्तु सुबुद्धि। जह यहु अत्य-मत्त होणउ हुड, ता महु दोसु भन्दु म गहियउ॥ विणवह माणिक्क कई इम, महु खमंतु विबुह गुण मंतिम । अण्णुवि अमुणते होणहिड, मइ-जलेण जं कायमि साहिउ ॥ तं जि खमउ सुयदेवि भडारी, कइयण-जण तिल्खोयहु सारी ।
बुहयण रोसु ण करहु महु उप्परि, अह रोसें सोहिज्जहु गंथु वरि ॥ विसमठ गामिणि वज्जउ मंदलु, गच्च कामिणि होउ सुमंगलु । गुरयण वच्छल्लें पंडिएण, माणिक्कराज वज्जिय-मएण ॥ तं पुराणु करेप्पिणु एहु गंथु, टोडरमल्ल हत्थे दिएणु सत्थु । णिय सिरह चढाविउ तेण गंथु, पुणु तुट्ठउ टोडरमल्लु हियह गंपि ॥ दाणे सेयांसह कण्णु तं पि, पंडिड वर पट्टर्हि थविउ तेण । पुणु सम्माणिउ बहु उक्कवेण, वर वत्थई कंकण-कुंडलेहिं । अंगुलियहि मुहिम णिय-करहिं. पुजिउ आहारहि पुणु पुणु तुरंतु । हरि रोविव सजिड विणायं णिरुत्तु, गड णियधरि पंडिउ गंथु तेण । जिण-गेहि णियउबहु उच्छवेण ॥ तहि मुणिवर बंदहि सुक्क गंथु, दिएणउ गुरु-हत्थे सिवह-पंथु । वित्यारिउ अत्यु वियारि तेण,
भव्वयाह सुहगइ दावणेण ॥ पुणु टोडरमल्लहं णिवसरि पुरणह लिहयइ गंध बहुसुच्छशिरु जिणगिह मुणिसंघहं तव-वय-वंतहं णाण दाणु तं दिएणु वरु॥
शुभंभूयात् । थाम्र ३३०.
प्रति आमेरभंडार लिपि सं १९९२ सम्मइ-जिणचरिउ (सन्मति-जिन-चरित्र) कवि रहध ___आदिभागजय सररुहभागहुँ वढियमाणहु वड्ढमापतित्थेसरह । पणविवि पय-जमलं गह-पह-विमलं चरिउ भणमि तहहय सरह वीरस्साएत वित्ति अमर-वदि-णुदं धम्मभूयादभई, गट्ठा कम्मठवित्तिं परमगुणस्साहिरामं जिणस्स । वंदित्ता पाय-पोमं ति-जय मणामुयं धम्मचक्काहिवस्स, वोच्छ भम्वत्थजुत्त प्रणह-सुहहरं तच्चरित्त पवित्त ॥१॥
केवलयाण-सतणु-पहवती, साय-वाय-मुह-कमल हसंती।
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किरण ]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[२८१
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विरिण पमाण-एयण-जोवंती,
परिहरिहि मण चिंतकरि भवणिरु कम्यु, दो-दह-णिय अंगई गोवंती॥
खलयण मा डरहिं भउ हरिउ मइ सम्बु । बे-णय कोमल पहिं चलंती,
तो देविवयणेश पडिउ विमाणंदु, चउदह-पुन्बाहरण-धरती।
तक्खणेण सयणाउ उदि ठड जि गय-संदु ।। ति-जय-चित्ति विन्ममु विहुणंती,
दिसवहणियतोय पुणु तुट्ठ चित्तमि, भत्थ-पसत्थ-वयण-भासंती ॥
संपत्तु जिगोहि सुहगई णिमित्तम्मि । कुणय-विहंडणि संतावंती,
पणवेवि जिणणाहु बहुविह विसंथुत्ति, णाणा-सह-दसण सोहंतो।
मुणिपाय वंदेवि जाथक्कु जसमुत्ति ।। छंद-दुविह-भुयडाल-रवएणी,
ता तम्मि खणिबंभ-वय-भार भारेण, वायरणंगु णाहि सुयवरणी॥
सिरि अइरवालंकवंसम्मि सारेण । जियमय-सुत्त-वत्थ-पंगुरणी,
संसार तणु-भोय-णिग्विण्णचित्तण, सोल-महाकुल-हर-हर-धरणी।
बरधम्म-माणामएणेव तित्तय ॥ दुविहालंकारेण पहाणी,
सस्थत्थरयणोह-भूसिय-सदेहेण, होउ पसरण जिणेसहु वाणी॥
दहएग पडिमाण पालण स-णेहेण । सुयदेवि भडारी ति-जय पियारी दुरियवहारी सुद्धमइ ।
खेल्हाइ हाणेण एमिउण गुरुतेण, कइयण-यण-जणणी सुहफल-जणणा सा महु दिज्जउ विमलमई जसकित्तिविण्णात्तु मंडय गुणोहेण ।। संसारोवहि-पोय-प्रमाणा,
भो मयण-दावग्गि-उल्हवण-वणदाण, विगय-दोस वे मुणिय पमाणा।
संसार-जलरासि-उत्तार-वर-जाण । पाण-घउक्को जोय दिवायरु,
अम्हा पसाएण भव-दुह-कयंतस्स,
ससिपहजिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स ॥ थावर-तस सत्ताहं दयावर ॥ जे हुय गोयमु पमुह भडारा,
काराविया मई जि गोवायले-तुंग, ते असेस पणविवि सरहारा ।
उबुचाविणामेण तित्यम्मि सुह-संग। ताई कमागय तव-तवियगो,
आजाहिया हाण महु जणाण सुपवित, पिच्चब्भासिय-पवयणसंगो॥
जिणदेव मुणि पायगंधोवसिरसित्त ॥ भब्व-कमल-सर-बोह-पयंडो,
दुल्लंभु गर-जम्मु महु जाइ इहु दिएणु, वंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो।
संगहिवि जिण-दिक्ख मयणारि जिं छिएणु । तस्स पसाएं कन्वु पयासमि,
तहि पढिय उवयारं कारणेण जिण-सुत्ति, चिर भवि-विहिउ असुह णिण्णासमि ॥
काराविया ताहि सुणिमित्त ससि-दित्ति ।। जह कह भवि मणुयत्तणु बम,
कलि-कालु जिणधम्मधुर धारपूढस्स, देस-जाइ-कुल-वस-विसुदउ।
तिजयालए सिहरि जस सुज्झरूढस्स । तं हेलइ विहलउ ण गमिज्जई,
सिरि कमलसीहस्स संघाहिवस्सेव, सत्यभामे सहलो किज्जइं॥
सुसहायएणावि तं सिद्ध इह देव ।। गोवग्गिरि दुग्गमि शिवसंतउ, बहु सुहेण तहिं । जणणी उवयारहु पर-भवयारहु. हुवउ तस्स गिम्भार हउ । पणमंत गुरु-पाय पायडंतु जिण सुत्तु-महिं ॥३॥ एज्वहिं मुणि-पुगम बहु-सुय-संगम माहासमि णिरुविगय-भट। जिन-धम्म कम्मम्मि कय उज्जमो जाम,
महु मणम्मि सल्लेक्कु पया, गिय गेह सयण यलि सुहि सुत्तु बहु ताम ।
तुम्ह पसाएं सोऊ हहह। सिविणंतरे ट्ठि सुयदेवि सुपसरण ।
चित्ति परम वइराउ धरितें पाहासए तुज्म (१) हठं जायसु पसरण ।
सु-तव-भारि विमाहु धारते॥
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२८२]
अनेकान्त
[वर्ष १४
गिय जण रणग्गइं भासिउ जंते,
चहुँ गोउर लोहहिं विप्फुरति. ििच किंचि मणि मोहु कुणंते ।
अरियण मणमागाहु अवहरति । णाणावरण-कम्म-खय-कारणि,
दु लिक्खणहं जुनवर जस्थ हम्म, प्रासि विहिय कलि-मल-वहारणि ।
कम-चट्टिहि कसियहिं जहि जन्थ भम्म । सिरि चरमिल्ल जिणिदहु केरउ,
जिण-चेईहरु जहिं मज्झिमाइ', चरिउ करावाम सुक्खजणेरउ ।
जिण पडिमाहि जुडं सुर-हरु वणाई ।। जइ कुवि कइयणु पुण्णे पावमि,
जहिं मोहई सरुवरु सलिल-पुण्णु, ता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि ||
परिमलजुएहि कमलेहि छण्णु । तड्याइ ममाइ तामु पउत्तउ,
रायालउ सोहइ जहिं विचित्तु, तेण जि अणुमरिणयउ णिरुत्तउ ।
वर-पंचवरण रयणेहिं दित्त ॥ तं जि सहल करि भो मुणि पावण,
तिक्वालियणहि-भरिय-हट्ट, एन्धु महाकइ णिवसइ सुहमण ।।
छुह-पकिय जहिं दीसहि विपट्ट । रइधृणामें गुण गण धारउ,
बावार करहिं जहिं वणिय-विद, सो गो लंघह वाण तुम्हारउ ।
मच्चे सउच्चे जे अणिद ।। तं णिसुणिवि गुरुणा गच्छहु गुरुणाई सिहसेणि मुणेवि मणि खडतामयवणि जहिं सुहि वसति, पुरु सठिउ पंडिउ सील अखंडिउं भर्माणउ तेण तं तम्मि खणि
वितागुमारि दाणाईदिति। भो सुणि कइगण-कुल तिलय-तार
अण्ण जहिं साक्य विगयवियावय णिवहिं जिणपयतिरया। शिवाहिय णिच्च कइनभार ।
छक्कम्महि जुत्ता चमण-विरत्ता पर उवयारहं णिच्च रया ॥६॥ जिण-सामण-गुण वित्थरण दच्छ
जो अयरवाल-कुल-कमल-भागु, मिच्छत्त-परम्मुद्द भाव-सच्छ ।
वियसावणि गुण-किरणहिं पहाणु । महु तणउं वरण प्रायण्गि वप्प,
गरपति णामें संघहु सहारु, अवगहिं बहु विह मण-वियप्प ।
संघाहिउ धरिय उ संघभारु ॥ जोयरिणपुराउ पच्छिम दियाहि,
तह णंदणु बील्हा साहु जाउ, सुपमिद एयरु बहु सुह-जुयाहि ॥
जिणधम्म धुरंधरु विगय-पाउ | णामें हिसारपिरोज अस्थि,
सम्माणिउ जो पेरोजसाहिं काराविउ पेरोसाहिज सस्थि ।
तहु गुण वरण को सक्कु अाहिं ॥ वण-उबवणेहिं चउपास-किराणु,
तहु णंदगु हूवा वेवि इत्थ, पंथिय-जणाहं पह-खेउं छिण्णु ।।
बाधू साधू णामें पपत्थ। चित्तंग तरगिणि ग्रइ गहीर,
बाधू सुनो जाउ दिवराजु सुपसण्णु, वय-हंस-चक्क-मंडिय स तीर ।
दालिद्दतिमिरतयरु णंह रविधिमण्णु ॥ जहिं वहा सुहामु स जलु मुणिन्छु, सयलहं जीव पोमण समिटु ॥
8 तहिं मुणिवरु हुउ चिरु सिद्धसेणु, परिहा-जल लहरि-तरंगरहि
जो सिद्ध विलासिणि तणउ कंतु । जा सेवइ सालहु अहमणि पहिं ।
तहो सीसु जाउ मुणि कणयकि (तु) सप्पुरिसहु सणिहु णाइण रि,
जो भब्व-कमल-बोहण-दिणिंदु ।। थक्की अवह डिवि सुकम्वयारि ॥
ये चारों पक्कियां नयामंदिर धर्मपुराकी अपूर्ण प्रतिमें जहिं पायार वि सुज्झजियपयत्य,
और सेठके कूचा मन्दिरके शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें नहीं रेहति तिरिण उत्त ग जत्थ ।
हैं। किन्तु पारा सिद्धान्त भवनकी प्रतिमें पाई जाती हैं।
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सौ सौके तीन पुरस्कार
निम्न तीन विषयों पर विद्वानोंके निबन्धोंकी जरूरत है। जिनका जो निबन्ध अपने विषयको भले प्रकार स्पष्ट करता हुआ सर्वश्रेष्ठ रहेगा उन्हें उस निबन्ध पर सौ रुपये नकदका पुरस्कार वीरसेवामन्दिरकी मार्फत भेंट किया जायगा । प्रत्येक विषयका निबन्ध फुलिस्केप साइज २५ पच्चीस पृष्ठों अथवा आठसौ ८०० पंक्तियोंसे कमका न होना चाहिये और वह निम्न पते पर वीरसेामन्दिरमें ३०-६-१७ तक पहुँच जाना चाहिये। जिस निबन्ध पर पुरस्कार दिया जायगा उसे प्रकाशित करनेका वीरसेनामन्दिरको अधिकार रहेगा ।
१. मोक्षमूल और शुद्ध दृष्टि
इन्द्रभूति गौतमके सम्मुख विषयको स्पष्ट करके बतानेके लिये रक्खा गया एक प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है:त्रैकाल्यं द्रव्यषङ्कं नवपदसहितं जीव-षटकाय-लेश्या:
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समितिगति ज्ञान चरित्र भेदा । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनम हितैः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः
प्रत्येति श्रद्धधाति स्पृशति च मतिमान यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥
इस श्लोक के पूर्वार्ध में जिन विषयोंका उल्लेख है उन्हें मोक्षमूल बतलाया गया है। ये क्या वस्तु हैं और कैसे मोक्षका मूल है, इसका निबन्ध में अच्छी तरह से सहेतुक स्पष्टीकरण और व्याख्यान किया जाना चाहिये । और फिर यह खुलामा करके बताना चाहिये कि उस मोक्षमूलका प्रत्यय, श्रद्धान और स्पर्शन क्या है और उसे करके कोई कैसे शुद्ध दृष्टि बनता अथवा बन सकता है।
२. शुभरागकी महिमा और वीतरागको सर्वोपरिता
इस निबन्धमें शुभरागकी कृतियों, कृतिप्रकारों और उनकी उपयोगिता तथा महिमाको ऐसे अच्छे प्रभावक ढंगसे स्पष्ट करके बतलाना चाहिये जिससे वे मूर्तिमती-सी नजर आने लगें। साथ ही शुभरागके अभाव में संमारकी क्या दशा हो, इसका थोड़े शब्दों में सजीव चित्रण भी किया जाना चाहिये। और फिर वीतरागताकी महत्ताको कारण सहित ऐसे में प्रदर्शित करना चाहिये जिससे वह सबके ऊपर तैरती हुई दृष्टिगोचर हो और उसके सामने शुभरागअन्य सारे हो महिमामय विषय फीके पड़जय ।
३. सरस्वती - विवेक
इस निबन्धमें सरस्वतोके विषयका अच्छा ऊहापोह होना चाहिये और यह स्पष्टरूपसे बतलाना चाहिये कि सरस्वतीदेवी कोई व्यक्ति-विशेष है या शक्ति-विशेष, यदि व्यक्ति-विशेष है तो वह कब कहां उत्पन्न हुई ? उसके रूप तथा जीवनको क्या विशेषताएँ हैं ? अब वह कहां अवस्थित है और उसकी पूजा क्यों की जाती है ? यदि शक्ति-विशेष है तो उसका आधार कौन है और उस आधारका रूप क्या है ? मानवाकृतिकं रूपमें उसके जो विभिन्न चित्रादि तथा परिधान पाए जाते हैं उनका तथा वाग्देवी, भारती शारदा और हंसवाहिनी जैसे विशिष्ट नामोंका क्या रहस्य है ? साथ ही सरस्वतीकी सिद्धिका अभिप्राय बतलाते हुए यह व्यक्त करना चाहिये कि सरस्वतीके स्तोत्रों और मंत्रों में जो उसे सम्बोधन करके प्रार्थनाएं की गई हैं उनका मर्म क्या है ? और ये कैसी फलवती होती अथवा पूरी पड़ती हैं ? इस निबन्धके लिये सरस्वतीके कुछ जैन- जैतर स्तोत्रों तथा मन्त्रोंका भी खाम तौरसे पहले अवलोकन किया जाना चाहिये ।
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
संस्थापक - वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली ।
महान-वियोग
दिल्लीकी प्रसिद्ध फर्म हुकमचन्द जगाधरमलके मालिक श्रीमान् पं० महबूबसिंहजी का ७३ वर्षकी आयुमें ता० २६ मार्चको समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास होगया । श्राप दिल्ली जैन समाजके प्रतिष्ठित और धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे । आप जैन संस्था के पदाधिकारी और सेठके कूचा जैनमन्दिरकी गद्दीके शास्त्र प्रवक्ता थे । श्राप एक सम्पन्न परिवारको छोड़कर दिवंगत हुए हैं । हम स्वर्गीय श्रात्माकी शान्ति-कामना करते हुए कुटुम्बीजनोंके इष्टवियोगजन्य दुःखमें समवेदना प्रकट करते हैं। वीरसेवामन्दिर परिवार
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४४४KKK
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरचक
१०१) बा०] लालचन्दजी जैन सरावगी १०१) बा० शान्तिनाथजी
१०१) बा० निर्मलकुमारजी
१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन, २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी ..
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. कलकत्ता
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२५१) सेठ गजराजजी गंगवाल २५१) सेठ सुमालालजी जैन २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी २५१) सेठ मांगीलालजी २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद २५१) ला० रघुबीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची २५१) सेठ वीचन्दजी गंगवाल, जयपुर २५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले
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Regd. No. D. 211
१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
कलकत्ता
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१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्त ।
१०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, १०१) बा० काशीनाथजी,
१०१ बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी
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१०१) बा० धनंजय कुमारजी
१०१) बा० जीतमलजी जैन
१०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची १०१) ला• महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला• रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतेहपुर जैन समाज कलकत्ता १०२) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा १०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० वंशीधर जुगल किशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१ ) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार १०१ ) ला• बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार १०१) सेठ जोखीम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय, कानपुर १०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली १०१) श्री जयकुमार देवोदास जी, चवरे कारंजा १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली
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सहायक
१०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०९) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला० चतरसेंन विजय कुमार जी सरधना १०१) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
'वीर - सेवामन्दिर'
२१. दरियागंज, दिल्ली
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प्रकाशक - परमानन्दजी जैन शास्त्री वीर सेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । मुद्रक रूपवासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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मलकाता
मई १९५७
वर्ष १४ किरण १० ११
सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार
छोटेलाल जैन जयभगवान जैनएडवोकेट
परमानन्द शास्त्री
वाय-सूची . १ श्रीमहावीर-जिन-स्तवन- [प्रहात कहक २ श्रमण परम्परा और चांडाल-डा. ज्योतीप्रसाद एम.ए. २८५ ३ विक्रमी सम्बत्की समस्या-प्रो० पुष्यमित्र न २५० ४ राजस्थानके जैन शास्त्र-भंडारोंसे हिन्दीके नये साहित्यकी।
खोज-[कस्तूरचन्द काशलीबाल २८ ५ अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त-[प्रो० देवेन्द्र कुमार एम० ए० २१२ ६ ग्वालियरके तोमर वंशका एक नया उल्लेख
[प्रो०विद्याधर जोहरापुरकर १६ क्या कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु भुतकेवीके शिष्य नहीं हैं।
-[भी हीरालाल सिद्धान्त-शास्त्री + शाह हीरानन्द तीर्थयात्रा विवरण और सम्मेवशिकर
चैत्य परिपाटी-[श्री भगरचन्द नाहटा ३०० सन्देह (कहानी)-श्रीजयन्तीप्रसाद शास्त्री १.जैन-प्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह ११ बीर शासन-जयन्ती-[परमानन्द जैन - टाइटिल ०१
वीर पेचा मन्दिर,देहली, .......... मूल्यः ॥
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वीरशासन जयन्ती
वीरशासन-जयन्तीका पावन दिवस इस वर्ष १२ जुलाई सन् १६५७ शुक्रवारके दिन अवतरित हुआ है । श्रावण कृष्ण प्रतिपदा भारतवषकी एक प्राचीन ऐतिहासिक तिथि है। इस तिथिसे ही भारतवर्ष में बहुत पहलेसे नव वर्षका प्रारम्भ हुआ करता था। नये वर्ष की खुशियाँ मनाई जाती थीं। देशमें सावनी और आषादीके विभागरूप जो फसली साल प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन प्रथाका संसूचक जान पड़ता है। जिसकी संख्या आज कल गलतरूपमें प्रचलित हो रही है। इतना ही नहीं किन्तु युगका प्रारम्भ, सुखमा-सुखमादि विभागरूप कालचक्रका अथवा उत्सर्पिणी अपसर्पिणी नामक कालोका प्रारम्भ भी इसी तिथिसे होता है। वीरशासन-दिवसकी झांकी विक्रमकी ५वीं शताब्दीके आचार्य यतिऋषभकी तिलोय. पएणत्तीकी उस गाथासे होती है। जिसमें बतलाया गया है कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभिजित नक्षत्रबालवकरण और रुद्रमुहतमें युगका प्रारम्भ होता है, ये नक्षत्र करण और मुहर्त ही. नक्षत्रों, करणों तथा मुहूर्तोके प्रथम स्थानीय होते हैं इन्हींसे नक्षत्रादिकोंकी गणना प्रारम्भ होती है वह गाथा इस प्रकार है:
सावण बहुले पाडिव रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो।
अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं ॥ -तिलोयपण्णत्ती १-७० __ इस तिथिकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि उक्त श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके पवित्र दिन बाजसे अढाई हजार वर्ष पूर्व विश्वके समस्त जीवोंके द्वारा अभिनन्दनीय, अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त, पूर्णज्ञानी भगवान महावीरकी दिव्यवाणीका ससारके त्रसित और पीडित जनोंको विपुलाचलके पावन मैदानमें स्थित समवसरण सभामें लाभ हुआ था, उस सभामें मनुष्य और पशु-पक्षियों आदि सभी जीवोंको कल्याण मार्गकी प्राप्ति हुई थी। उनके दुःखोंका अन्त हुआ था-उन्हें अभय मिला था। तब अहिमाकी दुन्दुभा लोकमें विस्तृत हुई थी। "सुख पूर्वक स्वयं जियो और दूसरोंको भी सुख पूर्वक जीन दा के नादसे उस समय विश्व गुजित हुआ था। लोकमें धर्म-मागकी सृष्टि हुई थी। और जनसमूह अपने कर्तव्य अकत्त व्यको समझने लगे थे। स्वार्थ भावनाकी होलोजलाई गई थी। स्व-पहितकी साधनाका मार्ग प्रशस्त हो गया था और जनसमूह दुःखोंसे उन्मुक्त होने लगे थे।
इन्ही सब कारणांसे इस वीरशासनकी महत्ता और ऐतिहासिकता प्रसिद्ध है। अतः हमारा कर्तव्य है कि इस दिन हम अपने-अपने नगर, ग्राम और शहरादिमें उत्साहके साथ महोत्सव मनायें, सभाओंकी याजना करें। योग्य विद्वानोंके भाषण करायें और वारशासनकी महत्ताको लोकहदयोंमे अकित करें। ..
-परमानन्द जैन निवेदन जिन महानुभावोंको अनेकान्तकी १० किरणें फ्री भेजी गई हैं। और जिन्होंने उसका वापिक मूल्य अभी तक भी नहीं भेजा है, उन्हें आगामी संयुक्त किरण वा पी. से भेजो जावेगो । अतः वे सज्जन इस किरणके पहुँचते ही अपना वाषिक मूल्य छह रुपया मनिडर द्वारा भेजकर अनुगृहीत करें।
--मैनेजर 'अनेकांत' वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागञ्ज, दिल्ली।
दुखद वियोग आरा-निवासी बा० निर्मल कुमारजीको स्वर्गवास हुए अभी कुछ समय भी व्यतीत नहीं होने पाया, कि ता०३ मई को उनकी धर्मनिष्ठा पूज्यनीया माताजीका धम-साधन करते हुए स्वर्गवास हो गया है। बीरसेवामन्दिर-परिवार आपके कुटुम्बी जनोंके साथ इस इष्टवियोग-जन्य दुःखमें समवेदना व्यक्त करता है और दिवंगत आत्माको सुख-शान्ति प्राप्त होने की कामना करता है।
शोक-सन्तप्त
वीरसेवामन्दिर-परिवार
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महम
घस्वतत्वासघातक
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य 1)
MAAL
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्ता
वर्ष १४ किरण, १०
। ।
वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली ज्येष्ठ, वीरनिर्वाण-संवत् २४८३, विक्रम संवत २०१४
सन् १९५७
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श्री महावीर-जिन-स्तवन
त्राताऽत्राता महात्राता, भर्ताऽभर्त्ता जगत्प्रभुः ।
वीरोऽवीरो महावीरस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥१॥ त्रायते रक्षति जीवानिति त्राता, न विद्यते कोपि माता यस्यासौ अत्राता । त्रातृणां रक्षकानां मध्ये महान् योऽसौ महात्राता। विभर्ति-पोषयति भन्यजनं केवलामृतवर्षणैः पुष्याति वा उत्तमे स्थाने धरतीति भर्ता। इन्द्रियसुखानि न विति न पोषयति इति अभर्ता । जगतस्त्रैलोक्यस्य प्रभुः स्वामीः। विशिष्टाईलचमी राति-ददातीति भक्तानां वीरः । न विद्यते विशिष्टापि राज्यादिका ई लक्ष्मीस्तस्याऽग्रहणं यस्यासौ अवीरः। कर्माराति-पूतना-जयने महान् वीरः सुभटः महावीरः । प्रसि भवसि, नमस्कारोऽस्तु भवतु ते तुभ्यम् ॥१॥
कर्ताऽकर्ता सुकर्ता च धर्मोऽधर्मोश्च धर्मदः।
पूज्योऽपूज्योऽतिसंपूज्यस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥२॥ सुखं इति गच्छतीति कर्ता, निश्चयेन कर्मणामकर्ता वा अं शिवं परमकल्याणं करोतीत्यकर्ता शोभनाक्रियाकारकः सुकर्ता । संसार-समुद्र निमज्जतो जन्तून् उद्ध त्योत्तमे पदे देवेन्द्रादौ विषये धरतीति धर्मः। धर्मध्यानरहितत्त्वादधर्मः। शुक्बध्यानध्यायकत्वाद्वा त्रयोदशमगुणस्थानापेक्षया धर्म चारित्रं ददातीति भव्यानां धर्मदः । पूजायाँ नियुक्रः पूज्यः, पा पूज्यः परमाराध्यः, न विद्यते कोऽपि पूज्यो यस्यासौ अपूज्यः॥२॥
सिद्धोऽसिद्धः प्रसिद्धश्च बुद्धोऽबुद्धोऽतिबुद्धिदः ।
धीरोऽधीरोऽविधीरश्च त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥३॥ सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्य स सिद्धः । सिद्धापेक्षया असिद्धः । वा अधातिकर्मसहितवादसिदः । बुध्यते जानाति समिति बुद्धन केनापि संसारिणा जीवेन ज्ञातो यः प्रबुद्धः।बुद्धि ददातीति बुद्धिदः। धिय राति
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२८४]
अनेकान्त
[वर्ष १४ ददातीति भक्तानां धीरः । वा धियं प्रति ईरति प्रेरयति धीरः । न विद्यते धी हा यत्र तदधीमूर्खता,तस्या शोषणे ः वहिरूपो योऽसौ [अधीरः] अविशिष्टा केवलज्ञानबुद्धिः राति गृहातीति अविधीरः ॥३॥
हिंसकोऽहिंसकोऽहिस्यः सधनोऽसधनो धनी।
रूप्यरूपोऽसमोरूपस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥४॥ कर्मणां हिनस्ति विध्वंसयतीति हिंसकः । हिंसातोऽवरहितो योऽसौ अहिंसकः । अहिस्यः केनापि मारयितु अशक्यः । सत्समीचीनो शानधनो यस्य स सधनः । न विद्यते असमीचीनो हिरण्यादिवस्तुर्यस्यासावसधनः । धनोऽस्यास्तीति धनी, समवसरणविभूनिस्वात् । रूपो यस्यास्तीति रूपी सौरूप्यः, अतिशयगुणत्वात् । अरूपसिद्धत्वापेक्षया अरूपः, वा जीवस्वापेक्षया । असमो रूपः असदृशोऽप्रतिमो रूपो यस्य सः ॥४॥
देवोऽदेवो महादेवो निधनोऽनिधनः प्रधीः ।
योग्यो ऽयोग्योऽतियोग्यश्च त्वं देवासि नमोऽस्तु ते॥५॥ स्वकीय-ज्ञाने दीव्यति क्रीडतीति देवः, न विद्यते कोपि देवो यस्य स अदेवः । महद्भिरिन्द्रादिभिराराध्यतेऽसौ देवः । अकिंचनवादयाह्याभ्यंतर-परिग्रहरहितत्वात निधनः । अनिधनः मरमरहितः । प्रधीःप्रकृष्टा धीः ज्ञान विद्यते यस्यासो प्रधीः । योगो नैयायिकः, भगवास्तु ध्यानयोगायोगः, योगस्य भावः योग्यः । न विद्यते योगो मनोवाकायब्यापारो यस्येति अयोगः, अयोगस्य भावः अयोग्यः । प्रतियोग्यः यथाख्यातचारित्रे प्रतियोग्यः, पासबभव्यत्वात् ॥२॥
ध्याताऽध्याता महाध्याता सदयोऽसदयोऽदयः ।
नाथोऽनाथो जगन्नाथस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥६॥ मोक्षमार्गस्य प्रकरणत्वात् ध्याता, वा शुक्लध्यानध्यायकः। केनापि मिथ्यादृष्टिना ध्यातुमशक्योऽध्याता । वा यः अन्येषां परद्रव्यादीनां न ध्यायतीति अध्याता । सर्वेषां ध्यातृणां मध्ये महान्सर्वोत्कृष्टः योऽसौ महाध्याता | दयासंयुक्तः, वा सत्समीचीनोऽयः स्वभावो यस्यासौ सदयः । असद् अविद्यमानो अयः पुण्यस्वभावो यस्थासौ असदयः, पुण्य पापनिराकरणस्वात् । नाथ्यते याचते सर्वैरिंद्रादिभिरिति नाथः । न विद्यते कोऽपि नायो यस्यासौ अनाथः । सर्वेश्वरत्वात् जगतां अधो-मध्योलभेदानां नाथः स्वामी जगनाथः ॥६॥
वक्ताऽवक्ता सुवक्ता च सस्पृहोऽसस्पृहोऽस्पृहः ।
ब्रह्माऽब्रह्मा महाब्रह्मा त्वं देवासि नमोस्तु ते ॥७॥ वदतीति वक्रा, सप्ततत्त्वानां पदार्थानां च कथकः । न वतीति प्रवक्ता, छमस्थत्वात् मौनसहितः । सुष्टु शोभनो वक्ता सुवक्ता, मनुष्यतिर्यग्सुरलोकभाषासंवादितत्त्वात् । स्पृहया मुक्रि-वांछया सहितो सस्पृहः, छमस्थत्वात् । ए आत्मनि परमब्रह्मणि स्पृहासहितो विद्यते योऽसौ असस्पृहः । न विद्यते स्पृहा वांछा यस्यासौ अस्पृहः । वृहन्ति वृद्धिं गच्छन्ति केवलशानादयो गुणा यस्मिन् स ब्रह्मा । अं परमात्मानं वृहति वढू यति वा वृद्धि गच्छति योऽसौ प्रब्रह्मा, गृहस्थावस्थायां परमारमस्वभावरहितत्त्वात् । ब्रह्मणां केवलज्ञानवतां मध्येऽपि महान् योऽसौ महाब्रह्मा ॥७॥
देाऽदेहो महादेहो निश्चलोऽनिश्चलोऽचलः ।
रत्नोऽरत्नः सुरत्नान्यस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥८॥ देहोऽस्यास्तीति देही, चरमशरीरत्वात् वा सकलसिद्धत्त्वात् । न विद्यते देहो यस्यासौ भदेहा, सिद्धत्त्वात् वा निर्ममत्वात् । महानुत्कृप्टो देहो शरीरो यस्य सः महादेहः, परमौदारिकशरीरवान् । स्वस्थानाम चलतीति निश्चल:, स्वास्मस्थत्वात् । अनिश्चलः चतुर्दशगुणस्थाने प्राणान्मुक्त्वा मालोकान्तं ब्रजति तस्मादनिश्चलः । यः केनापि परीषहादिना न चाल्यते प्रचलः. शुक्लध्यानाहा व्रतात् । महयंत्त्वात्सर्वेषां मध्ये पूज्यत्वात् रत्नवदनः । [न सन्ति पौद्गलिकरलानि बस्यासौ मरनः । सुष्टु प्रतिशवेन सम्यग्दर्शनादिरस्नैः पापः परिपयों योऽसौ सुरमायः ॥८॥
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श्रमण-परंपरा और चांडाल
( डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ) सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । रामचन्द्रसे उसे प्राण-दण्ड दिलवाया। महर्षि वेदव्यासकी देवा देवं विदुर्भस्मगुढाकाराऽऽन्तरौजसम॥ महाभारतके अनुसार एकलव्य भीलको पांडवों एवं कौरवों
भगवान् समन्तभद्र (शककी प्रथम शताब्दी) ने के गुरु द्रोणाचार्यने उसके सर्वप्रकार योग्य एवं बिनयशील अपने रस्नकरंडश्रावकाचारकी इस २८ वीं का रकामें सम्य- होते हुए भी अपना शिष्य नहीं बनाया, और जब वह ग्दर्शनकी महिमाका वर्णन करते हुए बताया है कि 'सम्य- अपने मनोनीत गुरुकी मिट्टीकी मूर्तिके समक्ष ही अभ्यास ग्दर्शनसे सम्पन होने पर एक जम्म-जात मातंग (श्वपाक करके धनुर्विद्यामें द्रोणाचायके साक्षात् शिष्यों अर्जुन या चांडाल) भी देवतुल्य पाराध्य या श्रद्धासद हो जाता आदि क्षत्रिय राजकुमारों-से भी अधिक कुशल सिद्ध है। साथ ही यह स्पष्ट करने के लिये कि यह मत स्वयं उनका हुया तो उन्हीं ब्राह्मण गुरुने उसके दाहिने हाथका अंगूठा अपना ही नहीं है, यह भी लिख दिया कि 'देव' अर्थात् गुरु-दक्षिणाकी भेंट चढ़वाकर, भील होनेके कारण ही उस प्राप्तदेव, तीर्थकरदेव या गणधरदेव ऐमा कहते हैं। वीरको सदैवके लिये अपंगु बना दिया। मनुस्मृति आदि
स्वामी समन्तभद्रकी गणना जैनधर्मके सर्व महान् धर्मशास्त्रोंने तो विधान बना दिये कि कोई शूद्ध यदि वेदप्रभावक प्राचार्योंमें की जाती है। उनके सम्बन्धमें जो अनु- वाक्य सुनता हुश्रा भी पाया जाय तो उसके कानों में शीशा श्रुतियां प्राप्त हैं, उनसे विदित होता है कि उन्होंने पंजाब- पिघलाकर भर दिया जाय, उच्चारण करता पाया जावे तो से बेकर कन्या कुमारी पर्यन्त और गुजरात मालवासे उसकी जीभ काट ली जाय, इत्यादि। लेकर बंगाल पर्यन्त सम्पूर्ण भारतवर्ष में विहार करके जैन- इसके विपरीत श्रमण-परम्परामें अनेक ऐसी अनुधर्मका अभूतपूर्व प्रचार किया था। श्रमण तीर्थकरोंके सच्चे श्रुतियां एवं कथाएँ मिलती हैं जिससे भली प्रकार स्पष्ट प्रतिनिधिके रूपमें वे यह मानते थे कि धर्म तो जीवमात्रका है कि सभी वर्गों के स्त्री पुरुष स्वेच्छासे गृहस्थ श्रावक ही कल्याणकारी है और जीवमात्र उसके अधिकारी हैं । वर्ण, नहीं, मुनि आर्यिका या भिन्तु भिक्षुणी तक बन सकते थे। वर्ग, जाति, जिंग, भायु आदि मेह किसी भी व्यक्निके धर्म- एक ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न श्रमण साधु और शुकुलमें धारण करने और उसका पालन करने में बाधक नहीं होते। उत्पन श्रमण साधुके बीच न साधु-संघमें कोई भेद किया
वस्ततः वैदिक आर्योंकी ब्राह्मण-संस्कृति और अध्या- जाता था और न श्रावक-समाजमें। श्रमण साधु सभी स्मवादी तीर्थकरोंकी श्रमण-संस्कृतिके बीच इसी प्रश्नको वौँ, वों और जातियोंके स्त्री पुरुषोंको समान रूपसे लेकर सबसे बड़ा मौलिक मत भेद था। तीर्थकरोंके अनु- धर्मोपदेश देते थे और धर्ममार्गमें श्रारूद करते थे। जैसी सार धर्म पर प्राणिमात्रका समान अधिकार है, धर्माचरण
जिसकी वैयक्तिक योग्यता, क्षमता या परिस्थिति होती, उसे एवं धार्मिक कृत्योंके करनेमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्र, वसा ही नियम, बत आदि धारण करांत । एक सर्वभक्षी समर्थ एवं अधिकृत है। वैदिक-परंपराके ब्राह्मण भावार्योक भील या चांडाल यदि मांसाहारका भी सर्वथा त्याग न कर मतानुसार प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, स्त्री, पुरुष, विभिन सका, बल्कि अधिकांश पशु-पक्षियोंके भक्षणसे विरत होने में
आश्रम (अवस्था) वाले व्यक्तियों, सबके लिये धर्मका किसी न किसी कारणसे तैयार न हो सका तो उसे केवल विधान अलग-अलग है। किसी एकके द्वार दूसरेके धर्मका कौएके मांसका सर्वथा त्याग करनेका वत लेनेके लिये ही पालन करना अधर्म है एवं वह दण्डनीय है।
मुनिराजने राजी कर लिया। किन्तु इस अति नगण्य अस्तु, वाल्मीकि ऋषिकी रामायणके अनुसार जब त्यागके फलस्वरूप ही उस सर्वभक्षी चांडालके मनोबल एवं शंबूक नामक शूद्र राजाने अपनी मर्यादासे आगे बढ़कर श्रात्मवलमें वृद्धि होने लगी। परीक्षा आई, वह सफल ब्राह्मण और क्षत्रियोंका धर्म पालन करना शुरू कर दिया सिद्ध हुआ, परिणाम-स्वरूप आरमोशतिके मार्ग पर तेजीसे वह वेद-पाठ और यज्ञ-याग करने लगा तो ब्राझय लोग बढ़ने लगा। बड़े कुपित हुए और उन्होंने उसकी इस पृष्टता एवं प्रध- श्वेताम्बर जैन उत्तराध्ययन सूत्रमें हरिकेशिवल चांडालमांचरणके लिये परम न्यायवान् मर्यादा पुरुषोत्तम महाराज की कथा आती है। वह चांडाल-पुत्र होने पर भी जैनेश्वरी
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२८६]
अनेकान्त
[वर्ण १४
दीक्षा लेकर बड़ा तपस्वी जैन मुनि हुआ। एक बार एक द्वारा वर्णित यज्ञ करता है। धर्म ही मेरा सरोवर है और मासोपवासके उपरान्त पारणाके लिए भिक्षाटन करते हुए ब्रह्मचर्य ही मेरा शान्ति तीर्थ है। इसीमें निमज्जन करके वह एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ कुछ ब्राह्मण एक विम विशुद्ध महामुनि उत्तम पदको प्राप्त करते हैं।' महा यज्ञ कर रहे थे। उसका कृश मलीन शरीर देखकर बौद्ध संघाचा परिचय (पृ०२५३-५६) के अनुसार याजक ब्राहाणोंने उसकी भर्त्सना की और वहांसे चले
बुद्धके भिक्षु-संघमें श्वपाक नामक चांडाल और सुनीत जानेके लिये कहा। इस पर समीपके एक तिंदुक वृक्ष पर ।
नामक भंगी महान् साधु हुए थे। दिव्यावदान, उदान, रहने वाला यक्ष गुप्तरूपसे हरिकेशिबलके स्वरमें उन ब्राह्मणों-
अंगुत्तर निकाय प्रादि प्राचीन बौद्ध धर्मग्रन्थोंसे भी यही
गता से बोला, 'हे ब्राह्मणों! तुम तो केवल शब्दोंका बोझ ढोने
प्रकट होता है कि किसी भी वर्णका व्यक्ति भि हो सकता वाले हो। तुम वेदाध्ययन करते हो किन्तु वेदोंका अर्थ नहीं था और भिन्च होनेके उपरान्त उसका पूर्व कुन जावि गोत्र जानते ।' उन अध्यापक ब्राह्मणोंने इसे अपना अपमान नष्ट हो गये माने जाते थे। इसी प्रकार जैन मूलाचार, समझा और अपने तरुण कुमारोंको आज्ञा दी कि वे उस
भगवती आराधना, प्राचारांग सूत्र आदिसे भी यही प्रकट दुष्टको पीट दें। अतः वे युवक मुनिको डंडों, छड़ियों, होता है कि जैन मुनिका कोई वर्ण, जाति, कुल या गोत्र कोड़ों भादिसे पीटने लगे। यह देख कर कोसलिक राजाको नहीं होता. ग्रहस्थ अवस्थाके ये मेद-प्रभेद उसके मुनि होने पर कन्या एवं पुरोहितकी स्त्री भद्राने उन्हें रोका। इतनेमें नष्ट हो गये माने जाते हैं। अनेक यक्षोंने आकर उन ब्राह्मण कुमारोंको मार-पीट कर बौदोंके 'मातंग जातक' (नं. ४१७) में गौतमबुद्धके लहू-लुहान कर दिया। ब्राह्मण डर गये, उन्होंने हरिकेशिबल जन्मसे बहुत पूर्व कालकी मातंग ऋषि नामक एक चांडालमुनिसे क्षमा मांगी और चावल आदि उत्तम अनाहार उन्हें
कुलोत्पन्न श्रमण मुनिकी कथा पाई जाता है। वाराणसी समर्पित किया।
नगरीके बाहर एक चाण्डाल कुल में उसका जन्म हुआ था। आहार लेनेके उपरान्त, हरिकेशिबल मुनि उनसे बोले, जब वह युवा हुआ तो उसने एक दिन मार्गमें वाराणसीके 'हे ब्राह्मणो! तुम आग जलाकर अथवा पानीसे बाह्यशुद्धि नगर-सेठकी दृष्टमंगलिका नामक सुन्दरी कन्याको देखा। प्राप्त करनेकी चेष्टा क्यों कर रहे हो? दार्शनिक कहते हैं वह अपने उद्यानमें याचकोंको भिक्षा देने जा रही थी। यह कि तुम्हारी यह बाह्यशुद्धि योग्य नहीं है।'
ज्ञात होने पर कि मातंग चाण्डाल है, वह उसका मिलना एक इस पर ब्राह्मणोंने पूछा, 'हे मुनि हम किस प्रकारका अपशकुन मानकर मार्गसे ही वापस लौट गई । निराश यज्ञ करें और कर्मका नाश कैसे करें?
याचकोंने मातंगको बहुत मारा । इस अपमानसे दुखी मुनिने उत्तर दिया, 'साधु लोग षट्कायके जीवोंकी होकर मातंगने उस सेठीके द्वारपर धरना देदिया और कहा हिंसा न करके, असत्य भाषण और चोरी न करके, परिग्रह, कि सेठ-कन्याको लेकर ही वह वहाँसे टलेगा। अन्ततः सेठने स्त्रियाँ, सम्मान एवं माया छोड़कर दांतपनसे प्राचरण उसे अपनी पुत्री सौंप दी। मातंगने उसके साथ विवाह कर करते हैं । वे पांच महाव्रतोंसे संवृत होकर, जीवनकी अभि- लिया किन्तु थोड़े समय पश्चात् ही वह उसे छोड़कर वनलाषा न रख कर, देहकी आशा छोड़कर देहके विषयोंमें में चला गया और घोर तपस्या करने लगा। इस बीचमें अनासक्त बनते हैं और इस प्रकार श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। उसकी स्त्रीने एक पुत्र प्रसव किया जिसका नाम माण्डव्य
ब्राह्मणोंने फिर पूछा, तुम्हारी अग्नि कौन सी है। हा। इस बालकको पढ़ानेके लिये स्वेच्छासे बड़े-बड़े अग्निकुण्ड कौनसा है? सवा कौनसी है ? उपले कौनसे वैदिक पण्डित आये, फलस्वरूप माण्डव्य-कुमार तीनों वेदों हैं, समिधाएँ क्या हैं । शान्ति कौनसी है ? किस होमविधि- में पारङ्गत होगया और ब्राह्मणोंकी बढ़ी सहायता करने से तुम यज्ञ करते हो? और तुम्हारा सरोवर कौनसा है, लगा। एक दिन मातंग ऋषि माएडम्य कुमारके द्वार पर शान्तितीर्थ क्या है।
भिक्षा माँगनेके लिये श्राया। पुत्रने पिताको पहिचाना नहीं हरिकेशिवलने उत्तर दिया, तपश्चर्या मेरी अग्नि है, और उसके कृश मलिन शरीर आदिके कारण उसका जीव अग्निकुण्ड है, योग स्नु वा है, शरीर उपले हैं, कर्म अपमान किया और धक्के देकर बाहर निकलवा दिया । समिधाएँ हैं, संयम शान्ति है। इस विधिसे मैं ऋषियों दरिद्र तपस्वीके प्रभावसे माण्डव्य और उसके साथी
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किरण १०]
विक्रमी सम्वतकी समस्या
[२८७
ब्राहमयोंकी बनी दुर्दशा हुई और वे मरणासन हो गये। अर्थात्-इस बातके जानने के लिये मैं एक उदाहरण एष्टमंगलिकाने तपस्वी पतिको पहिचान लिया और अपने देता हूँ। कुत्तेका माँस खाने वाले ( श्वपाक ) चाण्डालका पुत्रकी भसना की तथा उसे ऋषिसे क्षमा मांगनेके लिये एक पुत्र मातंग नामसे प्रसिद्ध था। उस मातंगको अत्यन्त कहा । मातंग ऋषिका जूठन खाकर माण्डव्य और उसके श्रेष्ठ एवं दुर्लभ यश प्राप्त हुआ था, अनेक क्षत्रिय एवं साथी प्रामण रोग-मुक्त हुए । किन्तु नगरमें सर्वत्र इस ब्राह्मण उसकी सेवा करते थे। विषय - बासनाके क्षय-रूपी अपवादके फैल जानेसे कि वे ब्राह्मण चाण्डालकी जूठन महान मार्गसे देवयान (समाधि मरण )पर प्रारूद होकर खाकर ठीक हुए है, उनका वाराणसीमें रहना कठिन हो वह ब्रह्मलोकमें गया । ब्रह्मलोककी प्राप्तिमें उसकी जाति या गया, अतः वे ब्राह्मण मेज्म (मध्य राष्ट्रमें) चले गये। जन्म बाधक नहीं हुआ। मातंग ऋषि भी घूमता-घामता मेज्म राष्ट्रमें जा पहुंचा। उपरोक्त कथाओं और कथनोंसे प्रकट है कि श्रमणउन ब्राह्मणोंको जब इस बातका पता चला तो उन्होंने उसके परंपरा मूलतः जातिभेद-विरोधिनी थी, कम-से-कम धर्माविरुद्ध वहकि राजाको भड़का दिया। राजाने अपने सिपा- चरण एवं धर्म-फल-प्राप्तिमें वह जाति और कुलको बाधक हियों द्वारा मातंगका वध करवा दिया, राजाके इस कुकर्मसे नहीं मानती थी। उसके अनुसार निम्नतम कोटिका मनुष्य देवता बड़े कुपित हुए और उन्होंने उस राष्ट्रको उजाड़ भी सन्मार्गका अनुसरण करके उच्चातिउच्च पद प्राप्त कर दिया। इस घटनाके उल्लेख अन्य कई जातकों में भी पाये सकता था। वह न केवल मृत्युके उपगन्त देवत्व ही नहीं बताये जाते हैं। मातंग-देहज मातंग ऋषिकी पूजा ब्राह्मण प्राप्त कर सकता था, वरन् इस जीवन में भी लोक-प्रतिष्ठा, तथा क्षत्रिय भी करते थे। उसे विषय-कषायों पर विजय पाने- पूजा और सत्कार प्राप्त कर लेता था। के कारण देवत्व प्राप्त हुआ था, यह बात बौद्धोंके 'वंसल- ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमण-परम्परामें महावीर और सुत्त' की निम्नलिखित गाथाओंसे भी प्रकट है
बुद्धके जन्मके बहुत पूर्वसे ही चाण्डालोंसे सम्बन्धित इस तदमिनापि जानाथ यथा मेद निदस्सन । प्रकार कुछ अनुश्र तियाँ प्रचलित थीं, कालान्तरमें उनमें और चण्डालपुत्तो सोपाको मातंगो इति विम्सुतो॥ भी वृद्धि हुई होगी। पूर्वोक्त श्लोकमें स्वामी समन्तभद्र सो यस परमं पत्तो मातंगो ये सुदुल्लभं । द्वारा 'मातंग' शब्दका प्रयोग सामान्यसे कुछ अधिक महत्व आगच्छु तस्सुपट्टानं खत्तिया ब्राह्मणा बहू ॥ रखता प्रतीत होता है । क्या आश्चर्य है जो उन श्लोककी देवयान अभिरुयह विरजं सो महापथं, रचना करते समय उनके ध्यानमें सम्यग्दृष्टि एवं तपस्वी कायरागं विराजत्वा ब्रह्मलोक पगोत्रह। चाण्डाल कुलोत्पन गृहस्थों और साधुओंसे सम्बन्धित कुछ ननं जाति निवारेसि ब्रह्मलोकू पपत्तिया॥ ऐसी ही अनुश्रुतियाँ भी रही हों।
विक्रमी सम्वत् की समस्या
(प्रो० पुष्यमित्र जैन, आगरा) विक्रमी सम्वतके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। श्री दिसम्बर 11 वाल्यूम • नम्बर २ के जनरलमें ऑनराखालदास बनर्जीके अनुसार इस सम्वत्का प्रवर्तक नह- रेरी सदस्य डब्ल्यू किंग्स मिल तथा रायल एसियाटिक पान है, तथा पनीरके अनुसार इसका श्रेय कनिष्कको है। सोसाइटीके वाइस प्रेसीडेन्ट चापनाने एक विस्तारपूर्वक लेख जनरल रायल एसियाटिक सोसाइटी १६१४ पृष्ठ १७५ प्रकाशित किया है, उन्होंने कुशान-वंशीय महाराज कनिष्कपर सर जान मार्शल और रेप्सनने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न को ही विक्रमादित्य निश्चित किया है। इस राजाके लेख किया है कि विक्रम सम्वत्का प्रवर्तक अजेस है । किन्तु मथराके कंकाली टोलेसे प्राप्त जैन मूर्तियों पर पाये गये हैं स्टेनकोनो विचारमें इसका श्रेय उज्जयिनीके विक्रमादित्य- जिनसे सिद्ध होता है कि विक्रमादित्य जैन था। बाबू परको है। श्री काशीप्रसाद जायसवालके मतानुसार गौतमी- मेशचन्द्र बन्ध्योपाध्याय, एम० ए.बी. एल. सब जजने पुत्र शतकी ही विक्रम सम्वत्का प्रवर्तक है।
भी इसी किरणमें 'विक्रम सम्वत्' शीर्षक लेख प्रकाशित किया इस सम्वत्के निर्णयार्थ बंगाल एसियाटिक सोसाइटीकी था। उसके पढ़नेसे भी यही सिद्ध होता है कि प्रचलित
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२८] अनेकान्त
[वर्ष १४ विक्रम सम्वत्के प्रवर्तक विक्रमादित्य थे । भविष्यपुराणके उन्होंने आठ वर्ष तक बाल-क्रीड़ा की और सोलह वर्ष अनुसार भी इस सम्वत्की स्थापमा विक्रमने की थी। अब तक देशमें भ्रमण किया, पन्द्रह वर्ष तक अन्य धर्मका प्रश्न उठता है कि यह विक्रमादित्य कौन था और उसका पालन करते हुए यज्ञ किया और चालीस वर्ष तक जैनसमय क्या है?
धर्मका पालन करके स्वर्ग को प्रस्थान किया। इससे सिद्ध कालकाचार्यके कथानकसे भी विक्रमादित्यके अस्तित्व
होता है कि राज्यारोहण के १५ वर्ष पश्चात् विक्रमादित्यने पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। कहते हैं कि कालकाचार्यने
जैनधर्म ग्रहण किया था। वि० सम्बत् विक्रमादित्य के उज्जयिनीके राजा गर्दभिल्लसे अपनी बहिन सरस्वतीकी
जन्म कालसे माना जाता है, राज्य-कालसे नहीं। जिस मुक्निके लिये शकराजसे सहायता ली थी । शकराजने
सम्वत् ४७० में विक्रमादित्यके जन्मका उल्लेख है वह गर्दभिल्ल राजाको पराजित करके उज्जयिनी पर अधिकार
वीर सम्वत् है, क्योंकि इसमें इस समय के विक्रम सम्वत्, कर लिया। अभिधान राजेन्द्र भाग ५ पृष्ठ १२८६ पर
२०१३ को जोड़नेसे ४७०+२०१७-२४८३ प्रचलित वीर सं. कालकाचार्यका समय वीर नि. ४५३ माना गया है। सर्व
या जाता है। भगवाह द्वितीयके पट्ट पर बैठनेका समय सम्मतिसे धर्मप्रभसूरिकी हस्तलिखित प्रतियोंके आधार पर
विक्रम राज्य से प्रारम्भ लिखा हुआ है। इससे ज्ञात कालकाचार्यका समय भी वीर सम्बत् १५३ है । इस प्रकार
होता है कि विक्रमादित्य वीर सम्वत् ४६४ में २४ वर्ष की सिद्ध होता है कि कालकाचार्य और गर्दभल्ल समकालीन
अवस्थामें गही पर बैठे । उपरोक गाथाके अनुसार भी यही थे। पुराणोंसे भी ज्ञात होता है कि सात गर्दभिल्ल राजाओं ने राज्य किया। इसके बाद शकोंका राज्य हुआ।
ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य २४ वर्षकी अवस्थामें ४७०+
२४ वीर सं० ४६४ में ही गही पर बैठे थे। उपरोक्त कथनसे ज्ञात होता है कि वीर मंवत् ४६६ में
जैन ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि कारनीरके राजा हिणयमालवामें शकोंका राज्य स्थापित हो गया । डॉ. स्टेनकोनेके ग्रन्थ 'कारपस इन्सक्रिप्शन इनडिकेरमके लेखसे भी इस
के कोई पुत्र न था। उसकी मृत्युके पश्चात् वहां अशान्ति
फैल गई। विक्रमादित्यने वहां शान्ति स्थापित की और बातको पुष्टि होती है कि ई० पू०६० (वीर निर्वाण सम्बत् ४६६ ) में शकोंका राज्य सिंध, काठियावाड़ और
वहां का भी राजा बन गया । उसकी मृत्युके पश्चात् उसके मालवा तक फैल गया था।
पुत्र विक्रम चरित्र एवं धर्मादित्यने ४० वर्ष राज्य किया। जेन मान्यताओं के अनुसार वीर सं०४७० में विक्रमा- धर्मादित्यके पुत्र मत्यने ।। वर्ष राज्य किया। इसके बाद दित्यका जन्म हुआ। इनके पिताका नाम गन्धर्वसेन था। नत्यने १५ वर्ष तथा नहड़ एवं नहदने दस वर्ष राज्य किया। इनकी माता गुजरातके राजा ताम्रलिप्सको कन्या मदनरेखा उसके समयमें सुवर्णगिरि शिखर पर १००८ भगवान महाथी। एक बीर बालकने सारे शक वंशका नाश करके समस्त वीरके मन्दिरका निर्माण किया गया। मालवा पर अधिकार कर लिया। इसीलिए शकोंके नाश हिन्दू मान्यताओंके अनुसार विक्रमादित्यको शकारि करनेके कारण इनका नाम शकारि भी पड़ा । वसुनन्दी भी कहते हैं। इसकी ब्त्युपत्ति दो प्रकारसे की जा सकती श्रावकाचारमें मूलसंघकी पहावली दी गई है। उसमें विक्रम- है, शकानां परिः और शकाः परयो यस्य । इनके सम्बन्धमें प्रबन्धकी निन्न लिखित गाथाएँ विक्रमादित्यके सम्बन्ध में दोनों व्युत्पत्तियां ठीक जंचती हैं, क्योंकि इन्होंने शकोंका लिखी हुई हैं
नाश किया और अन्तमें उन्हींके षड़यंत्रोंसे वीरगति प्राप्त सत्तरि चउसदजुत्तो तिणकाला विक्कमो हवह जम्मो। की। जैन-प्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि शकोंने षड्यंत्र-द्वारा अठ वरस बाल-लीला सोडस वासेहि भम्मिए देसे ॥ समुदपाल योगी द्वारा विक्रमादित्यकी हत्या करा डाली। पथरस पासे र कुणेति मिच्छोपदेस-संजुत्तो। विक्रमादित्यके सम्बन्धमें उपरोक्त वर्णनसे स्पष्ट हो चालिस वासे जिणवर-धम्म पालीय सुरपयं लहियं ॥ जाता है कि विक्रम सम्बत्के संस्थापक विक्रमादित्य है, जिनअर्थात् विक्रमादित्यका जन्म सम्वत् १७० में हुआ। का जन्म वीर निर्वाण सं० ४७० में हुआ था।
नोट-लेखकने विक्रम संवत्को विक्रमके जन्मकालका बतलानेका प्रयत्न किया है। पर वह जन्मका सम्वत् नहीं है किन्तु मृत्युका सम्वत् है जैसा कि निम्न प्रमाणोंसे प्रकट है-विकमरायस्स मरणपत्तम्स-देवसेन,दर्शनसार । 'समारूढे त्रिदिववसतिं विक्रमनपे, सहा वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके ।' आदि-अमितगति सुभाषित. रत्न सन्दोह।
-परमानन्द जैन
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राजस्थानके जैनशास्त्र-भंडारोंसे हिंदीके नये साहित्यकी खोज
(कस्तूरचन्द काशलीवाल, एम. ए. शास्त्री)
भारतीय विद्वानों ने हिन्दी भाषा एवं उसके साहित्यकी इससे हिन्दीकी विस्मृत रचनाओंको प्रकाशमें लानेके कार्यमें जो अमूल्य सेवाएँ की हैं वे इतनी विस्तृत एवं गहरी है कि सफलता मिलेगी। हम अभी तक उस विस्तार एवं गहराईका पता लगानेमें १. तवसार दहाअसमर्थ रहे हैं। वर्तमान शतान्दीकी तरह प्राचीन शता- भट्टारक शुभचन्द्र १६वीं शताब्दीके प्रमुख विद्वान हो ब्दियोंमें भी हजारों साहित्यिकोंने विपुल साहित्य लिखकर गये हैं। ये भट्टारक सकलकीनिकी शिप्य-परम्परामेंसे थे। हिन्दी भाषाकी सांगीण उन्नति करनेमें अथक परिश्रम शुभचन्द्र संस्कृत भाषाके उच्च कोटिके विद्वान थे तथा षट् किया था । १३-१४चीं शताब्दीसे ही विद्वानोंका ध्यान भाषा-चक्रवर्ती, विविध विद्याधर आदि उपाधियोंसे अलंकृत हिन्दी भाषाकी ओर जाने लगा था और उन्होंने हिन्दीमें थे। संस्कृतभाषामें इनकी ३० से भी अधिक रचनाएँ रचना करना प्रारम्भ कर दिया था। भारतके उत्तर प्रदेशको मिलती हैं। इन्हींके द्वारा हिन्दी भाषामें निर्मित तत्त्वसार छोड़ शेष प्रान्तोंकी अपेक्षा राजस्थानमें ऐसे विद्वानोंकी दहा अथवा दोहा अभी जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरके संख्या अधिक रही और वहींके निवासियोंने हिन्दी-साहित्यको शास्त्र-भण्डारमें उपलब्ध हुआ है । रचनामें जैन सिद्धान्तके अधिक प्रोत्साहन दिया । लेकिन दुःखके साथ लिखना पड़ता अनुसार सात तत्त्वोंका वर्णन किया गया है इसलिये यह है कि उनकी सेवाआके अनुसार हम उनका मूल्यांकन नहीं सैद्धान्तिक रचना है। तत्त्वोंके अतिरिक्त अन्य कितने ही कर सके और न उनके प्रति कोई सन्मान ही प्रकट कर साधारण जनताके समझमें आने वाले विषयोंको भी कविने सके । यद्यपि हिन्दी साहित्य के इतिहासमें बहुतसे विद्वानोंका रचनामें लिया है। सोलहवीं शताब्दीमें ऐसी रचनाओं के परिचय दिया जा चुका है तथा इसके अतिरिक्त भी विभिन्न अस्तित्वसे यह प्रकट होता है कि उस समय हिन्दी भाषाका लेखों, रिपोर्टोमें, पुस्तकोमें बहुतसं अज्ञात हिन्दी विद्वानोंका अच्छा प्रचलन था, तथा कथा, कहानी, पद एवं रासामों परिचय दिया जा चुका है किन्तु अब भी सैकड़ों ऐसे विद्वान् एवं काव्योंके अतिरिक्र सैद्धान्तिक विषयों पर भी रचनाएँ हैं जिनके सम्बन्धमें अभी तक कुछ भी नहीं लिखा गया है लिखा जाना प्रारम्भ हो गया था। तथा बहुत सी ऐसी रचनाएँ हैं जिन्हें हम भुला चुके हैं। तत्त्वपार दोहा १ पद्य हैं जिनमें दोहे और चौपाई इसका ममुख कारण राजस्थानमें स्थित जैन ग्रन्थ-भण्डारोके दोनों ही शामिल हैं । भ. शुभचन्द्रका गुजरात प्रमुख महत्त्वको नहीं प्रांका जाना है । इन भण्डारों में संग्रहीत केन्द्र होनेके कारण रचनाकी भाषा पर गुजरातीका प्रभाव साहित्यको प्रकाशमें लानेकी ओर न तो जैनोंने ही ध्यान स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह रचना 'दुलहा' नामक दिया और न जैनेतर विद्वानोंने ही उनके प्रभावको महसूस श्रावकके अनरोधसे लिखी गई थी क्योंकि विद्वान् लेखकने किया । नहीं तो जिन्होंने हिन्दी साहित्यके विकासकी नीव उसको कितने ही दोहोंमें सम्बोधित किया है :लगायी थी उन्हें भुलानेका हम साहस नहीं कर सकते थे। रोग रहित संगीत सुखी रे, सपदा पूरण ठाण । ___गत कुछ वर्षोसे राजस्थानके जैन-भण्डारोंके आलोकन धर्म बुद्धि मन शुद्धिडी, 'दुलहा' अनुक्रमि जाण ॥धा एवं सूची प्रकाशनका जो थोड़ा बहुत कार्य किया जा रहा सोक्षके स्वरूपका वर्णन करते हुए कविने लिखा हैहै उसम हिन्दीकी बहुत सी नवीन रचनाएँ सामने आयी कर्म कलंक विकारनो रे निःशेप होय विनाश। हैं। ये रचनाएँ सभी विषयोंसे सम्बन्धित है तथा जैन एवं मोक्ष तत्त्व श्री जिन कही, जाणवा भावु अल्पास ॥२६ जनेतर दोनों ही विद्वानोंकी लिखी हुई हैं । बहुत दिनोंसे अामाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है किसीकी ऐसी एक लेखमाला प्रारम्भ करनेका विचार था जिसमें अज्ञात प्रात्मा ऊँची अथवा नीची नहीं है, कोंक सम्पर्कके कारण रचनाओंका परिचय होता | लेकिन सूची-प्रकाशन एवं अन्य उसे उच्च, नीचकी संज्ञा दे दी जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, ग्रन्थोंके सम्पादन कार्यमें व्यस्त रहनेके कारण इस लेख- वैश्य एवं शूद कोई वर्ण नहीं है, क्योंकि अान्मा तो राजा मालाको प्रारम्भ नहीं किया जा सका । अब उस लेखमाला- है वह शूद्र कसे हो सकता हैको प्रारम्भ किया जा रहा है । लेखमें प्राचीन एवं महत्वपूर्ण उच्च नीच नवि अप्पा हुचि, रचनाओं का परिचय देने का प्रयत्न किया जावेगा। आशा है
कर्म कलंक तणो की तु सोइ ।
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२६.1
अनेकान्त
Eबंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र,
नहीं किया गया है। कविने अपने विषयमें भी कुछ नहीं अप्पा राजा नवि होय तुद्र ॥७॥ लिखा है। अधिकांश छन्दोंके अन्तिम चरणमें 'चन्द' शब्द प्रारमाके विषय में अन्य पद्यों में लिखा है
का प्रयोग हुआ है तथा अन्तमें 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्द अप्पा धनि नवि नवि निर्धन्त,
कृत कवित्त समाप्त' यह लिखा हुआ है जिससे स्पष्ट हो नवि दुर्बल नवि अप्पा धन्न । जाता है कि यह रचना कविवर रूपचन्द-द्वारा निबद्ध है। मूर्ख हर्ण द्वष नवि ते जीव,
किन्तु १५, १६वें पद्यमें 'तेज कहे' यह भी लिखा हुआ है। नवि सुखी नवि दुखी अतीव ।।७।। कविवर रूपचन्द संसारका स्वरूप वर्णन करते हुये कहते हैं:कविकी यह रचना कब समाप्त हुई थी इसके संबन्धमें एक वट बीज मांहि बुटो प्रतभास्यौ एक, तो शुभचन्द्रने कोई संकेत नहीं दिया है। परन्तु अपने नाम
दिया है। परन्तु अपने नाम एक बूटा माहि सो अनेक बीज लगे हैं। का उल्लेख रचनामें दो तीन स्थानों पर अवश्य किया है। अनेकमें अनेक बूटा, बूटामें अनेक बीज, अन्तमें रचना समाप्त करते हुये इसमें अपना नामोल्लेख असे तो अनंत ग्यान केवलीमें जगे हैं। निम्न रूपसे किया है
भैसी ही अनंतता अनंत जीव माहि देखी, ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
असे ही संसारका सरूप माहि पगे हैं। चीततो मृको माया मोह गेह देहए। कोई समौ पाव के, सरीर पायौ मानव को, सिद्ध तणां सुखजि मल हरहि,
सुध ग्यान जान मोख मारग कुंबगे हैं।२।। आत्मा भावि शुभ एहए।
संसारी प्राणीकी दशाका चित्र निम्न शब्दोंमें उपस्थित श्री विजयकीत्ति गुरु मनि धरी, ध्याऊँ शुद्ध चिद्रप।
पद्रमा किया गया है - भट्टारक श्री शुभचन्द्र भणि था तु शुद्ध सरूप ।।६१॥ जीवतकी आस करै. काल देखै हाल डरै, २. अध्यात्म सवैयाः
डोले च्यारू गति पै न आवै मोछ मग मैं। यह कविवर रूपचन्दकी रचना है जो १७वीं शताब्दीके माया सौं मेरी कहै मोहनीसौं सीठा रहै, एक उच्च माध्यात्मिक कवि थे। यद्यपि कविकी कितनी ही ताप जीव लागै जैसा डांक दिया नग मे ।। रचनाएँ तो पहिले ही प्रचलित हैं, तथा पंच मंगल जैसी घर की न जाने रीति पर सेती मांडे प्रीति, रचना तो सभीको याद है। किन्तु यह रचना अभी तक वाटके बटोई जैसे आइ मिले वग मैं॥ प्रकाशमें नहीं आयी थी, तथा कविकी अभी तक उपलब्ध पगल मौं कहै मेरा जीव जानै यहै डेरा, पंच मंगल, परमार्थ दोहा शतक, परमार्थ गीत तथा, नेमिनाथ कर्म की कुलफ दीयै फिरै जीव जग मैं ॥३०॥ रासो आदि से यह भिन्न रचना है। यह रचना भी जयपुरके
सज्जन पुरुषका कविने जो वर्णन किया है वह कितना ठोलियोंके मन्दिरके शास्त्र-भण्डारमें उपलब्ध हुई है।
सुन्दर एवं स्पष्ट है इसे देखियेअध्यात्म सवैया कविकी एक अच्छी रचना है जो अध्यात्म रससे प्रोत-प्रोत है । अध्यात्मवादका कवि द्वारा
सज्जन गुनधर प्रीति रीति विपरीत निवारै। इसमें सजीव वर्णन हुआ है। विषयको दृष्टिसे ही नही सकल जीव हितकार सार निजभाव संभारे॥ किन्तु भाषा एवं शैलीकी दृष्टिसे भी यह उच्च रचना है। दया सील संतोष पोष सुख सब विध जाने। कविने श्रात्मा, परमात्मा, संसार-स्वरूप आदिका जो उत्कृष्ट सहा
सहज सुधारस स्रवे तजै माया अभिमानै॥ वर्णन किया है वह कविकी प्रगाढ़ विद्वत्ताकी ओर संकेत
जानै सुभेद पर भेद सब निज अभेद न्यारौ लखै। करता है। ऐसा मालूम होता है कि मानो कविवर रूपचन्द कहे 'चंद' जहां आनन्द अति जो शिव सुख पावैअखै इस विषयके माहिर विद्वान् थे । रचनामें १०० पथ हैं एक स्थान पर समाकी प्रशंसा कविने जो लिखा है जिनमें सवैया इकतीसा, सवैया तेईसा. कुण्डलिया प्रादि वह भी कितना रुचिकर हैछन्दोंका प्रयोग हुआ है।
खिमा अलख है खेम खिमा सज्जन षट् काइक । कविने यह रचना कब लिखी थी इसका कहीं उल्लेख खिमा विषै परभाव खिमा निज गुन सुखदायक।। रस्न सन्दाह
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किरण १०]
खिमा हल पद लहै खिमा चंचल पद त्यागे । खिमा क्रोध रिपु नै खिमा निज मारग लागे ॥ जागे जग तज आप मैं भागे चम मिथ्यात मल । खिमा सहज सुख सासतो अविनासी प्रगटै अचल ॥६६
हिन्दी विस्तृत साहित्यकी खोज
२६१
अधिक कहनेकी कितनी क्षमता है यह इस रचनाले मालूम पड़ जाता है। सभी दोहे सुन्दर एव अर्थ-बहुलताको लिबे हुये हैं । कविने इसे सम्बत् १७२५ में समाप्त किया था जैसा कि शतकके निम्न दोहोंसे जाना जा सकता हैउपजौ सांगानेरि कौं, अब कामांगढ वास । वहाँ हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास ||८|| कामांगढ़ सूबस जहां, कीरतिसिंह नरेस । अपने खडग बल बसि किये, दुर्जन जितके देस ॥ ६ सतरह से पचीस कौं बरतै संवत सार । कातिग सुदि तिथि पंचमी पूरन भयो विचार ॥ १०० ॥
एक आग रे एक सौ कीये दोहा छंद । जोहित बांचे पढ, ता उरि बढे आनन्द ॥१०१॥
कविने देहको दुर्जन मनुष्यसे उपमा दी है । जैसे दुर्जनको चाहे कितना ही खिलाया पिलाया जावे, अथवा प्रसन्न रखा जाये, किन्तु अन्तमें वह अवश्य धोखा देता है उसी तरह इस शरीरको भी दशा है। इसे चाहे कितना ही स्वस्थ रखा जावे, पर यह भी एक न एक दिन अवश्य धोखा देता है
असन विविध विंजन सहित, तन पोक्त थिर जानि । अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यौं अफास है ॥१॥ दुरजन जनकी प्रीति ज्यौं, देहे दगौ निदानि ॥१२॥ (३) उपदेश दोहा शतक
भगवानके दर्शनोंके लिये यह मनुष्य स्थान-स्थान पर घूमता है किन्तु परमात्मा उसके घटमें विराजमान है जिन्हें वह कभी देखनेका प्रयत्न नहीं करता । ठौर ठौर सोधत फिरत, काहे अंध अबेव । तेरे ही घट वसो, सदा निरंजन देव ||२५||
हेमराज १७-१८वीं शताब्दीके हिन्दीके श्रेष्ठ गद्य लेखक हो गये हैं। इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, गोमट्टसार कर्मकाण्ड, परमात्मप्रकाश श्रादि कितनी ही रचनाओंकी हिन्दी गद्यमें टीकाएँ लिखी हैं। इनकी भाषा सरल, सुसंस्कृत एवं भावपूर्ण है । अब तक इनकी १२ रचनाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त कुछ पद एवं गीत भी मिले हैं। हेमराज सांगानेर (जयपुर) में उत्पन्न हुए थे तथा कामांगद जाकर रहने लगे थे जहाँ कोर्तिसिंह नामक नरेश शासन करता था । साधारणतः कविका साहित्यिक जीवन सम्बत् १७०३ से १७३० तक माना जाता है। लेकिन सम्वत् १७४२ में इन्होंने रोहिणीव्रत-कथाको समाप्त किया था जिसकी एक प्रति मस्जिद खजूर देहलीके जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डार में मिलती है।
'उपदेश दोहा शतक' नामक रचना अभी कुछ समय
पूर्व जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिर में शास्त्र- सूची बनाते समय मिली है। उपदेश दोहाशतक एक सुभाषित रचना है जिसमें सभी विषयों पर दो-चार दोहे लिखकर कविने avat fere परिचय दिया है। हेमराजमें थोड़े शब्दों में
इस तरह से अध्यात्म सवैया हिन्दी भाषाकी एक अच्छी रचना है जिसका मनन करनेसे व्यक्तिका भटकता हुआ मन शुद्धोपयोगकी ओर लग सकता है। कविने प्रारम्भिक पथमें भी मंगलाचरण न करके उसमें भी अध्यात्मकी ही गंगा बहायी है तथा 'अनुभव' अर्थात् चिंतन, मनन ही starके विकासका एक मात्र साधन है तथा उसीसे स्वपरका विवेक हो सकता है यही सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है अनुभौ अभ्यास में निवास सुध चेतन कौ, रूप सुध बोध को प्रकास है । अनुभौ अनूप उपरहत अनत ग्यान,
-
अनुभौ अनीत त्याग ग्यान सुख रास है । अनुभौ अपार सार आप ही को आप जाने,
आपही में व्याप्त दीसै जामैं जड नास है । अनुभौ रूप है सरूप चिदानंद चंद
कवि कहता है कि जन्म, मृत्यु और विवाह इन तीनोंमें ही समान बातें होती हैं। लोग मिलने जाते हैं, बाजे बजते हैं, पान खाये जाते हैं और इत्र एवं गुलाल लगाई जाती है इसलिये क्यों फिर एकके प्राप्त होने पर प्रसन्न होते हैं तथा दूसरे समयमें विषाद करते हैंमिलै लोग बाजा बजै, पान गुलाल फुलेल जनम मरण अरु ब्याह में, है समान सौं खेल ||३६||
कविने कंजूसको दानीको पदवी किस व्यंग्यके साथ दी हैखाइ न खरचै लच्छि कौ, कहै कृपन जग जांहि । बडौ दानि वह मरत ही, छोडि चल्यो सब तांहि ॥ ६६ इसी तरहके सभी दोहे कविने चुन-चुन करके अपने दोहा शतक में रखे हैं ।
(श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजीके अनुसन्धान विभागकी प्रोरसे)
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अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त
(प्रो० देवेन्द्रकुमार, एम० ए० )
महाकवि स्वयंभू के बाद, पुष्पदन्त ही अपभ्रंश के महान कवि हुए। अपने विषयमें कविने अपनी कृतियों में जो कुछ लिखा है, उसके साक्ष्य पर इतना ही कहा जा सकता है कि वह कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे और उनके माता-पिता का नाम मुग्धादेवी और केशव भट्ट था । प्रारम्भ में कवि शैव थे, और उसने भैरव नामक किसी शैव राजाकी प्रशंसा में काव्य रचना भी की थी, परन्तु बाद में वह मान्यखेट आने पर, मंत्री भरतके अनुरोधसे जिनभक्ति से प्रेरित होकर काव्य-रचना करने लगे। ( महापुराण १ पृ० ७ ) । उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती, परन्तु उनकी उक्तियोंसे यही अनुमान होता है कि वह उम्र स्वाभिमानी और एकान्त-प्रेमी जीव थे । जन्मभूमि और समय अपने जन्म-स्थान और समयके सम्बन्ध में भी कविने कोई विशेष सूचना नहीं दी, उन्होंने केवल इतना ही लिखा है कि मान्यखेट में ही मैंने अधिकांश साहित्य रचा। श्री नाथूराम प्रेमी उन्हें 'दक्षिण' में बाहर से आया मानते हैं, उनका कहना है कि एक तो अपभ्रंश साहित्य उत्तरमें लिखा गया और दूसरे पुष्पदन्तकी भाषा में द्रविड शब्द नहीं है १ । कुछ मराठी शब्द होने से उन्हें विदर्भका होना चाहिए।' पर इसके लिए ठोस प्रमाणकी आवश्यकता है। अपभ्रंश एक व्यापक काव्य भाषा थी, अतः किसी भी प्रांतका निवासी उसमें लिख सकता था। डॉ० पी० एल० वैद्य 'डोड, बोड' आदि शब्दों को द्रविड समझते हैं । कविने यह तो लिखा है (म० पु० ११०३०८,३१२) कि वे मान्यखेट पहुँचे, पर कहांसे यह नहीं लिखा । इस काल में विदर्भ साघनाका केन्द्र था, हो सकता है वे वहीं से आये हों। सौभाग्यसे कविके समयको ठीक रूप से निश्चित करनेकी सामग्री उपलब्ध है। उन्होंने धवल और जयघवल प्रन्थोंका उल्लेख किया है, जयधबला टीका जिनसेन ( वीरसेनके शिष्य) ने अमोघवर्ष प्रथम (८३७ ) के समय में
१ (जैन-साहित्य और इतिहास पू० ३०२ )
पूर्ण की थी । गायकुमार चरिकी प्रस्तावना में मान्यखेट नगरीके वर्णन प्रसंग में कवि कहता है कि वह राजा कन्द्रराय 'कृष्णराज' की कृपारणजल-वाहिनी से दुर्गम है। वैसे राष्ट्रकूट वंशमें कृष्ण नामके तीन राजा हुए हैं, परन्तु उनमें पहला शुभतुरंग उपाधिधारी कृष्ण नहीं हो सकता; क्योंकि उसके बाद ही अमोघवर्णने मान्यखेटको बसाया था। दूसरा कृष्ण भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसके समय गुणभद्रने उत्तरपुराणकी रचना की थी, और यह पुष्पदंतके पूर्ववर्ती कवि हैं। अतः कृष्ण तृतीय ही इनका समकालीन था । कविके वर्णित कई विव रण इसके साथ ही ठीक बैठते हैं। उन्होंने लिखा है "तोडेप्पणु चोडहो ताउ सीसु" । इतिहास से यह भलीभाँति सिद्ध है कि कृष्ण तृतीय ने 'चोल देश' पर विजय प्राप्त की थी। कविने धारा-नरेश द्वारा मान्यखेटकी लूटका उल्लेख किया है १ । यह घटना कृष्ण तृतीयके बादकी और खोट्टिगदेवके समयकी है । धनपालकी 'पाइयलच्छी' कृतिसे भी सिद्ध हैं कि वि० सं० १०२६ में मालव- नरेशने मान्यखेटको लूटा २ । यह धारा-नरेश हर्षदेव था जिसने खोट्टिगदेवसे मान्यखेट छीना था । ३ अतः कविका कृष्ण तृतीयके समकालीन होना निर्विवाद है । शंका यह है कि जब महापुराण शक सं०८ में पूरा हो चुका था और उक्त लूट शक स० ८६४ में हुई तब उसका ल्लेउख कैसे कर दिया गया। हम समझते हैं उक्त संस्कृत श्लोक प्रक्षिप्त हैं ४ । यशस्तिलक
१ धारानाथ - नरेन्द्र- कोप- शिखिना दग्धं विदग्धं प्रियं क्वेदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदंतः कविः । २ विक्कमकालस्स गए उछत्तिसुतीरे सहस्सम्मि मालव-मरिंद घाडीए लुडिए मरणखेडम्मि" ३ ग्वालियरका शिलालेख एपि ग्राफिका इंडिका जि० १ पृ० २२६ )
४ श्री जुगलकिशोर मुक्तारने जसहर चरिउकी अंतिम प्रशस्तिके आधार पर, कविको बहुत बादका माना था। पर अब उक्त प्रशस्ति प्रक्षिप्त सिद्ध हो चुकी है।
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अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त
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चम्पूके लेखकने जिस समय अपना प्रन्थ समाप्त ग्रहण की थी, शेष, इस वंशके ऐतिहासिक राजा हैं। किया था, उस समय कृष्ण तृतीय मेलपाटीमें पड़ाव
- इनकी कुल तीन रचनाएँ डाले पड़ा हुआ था। सोमदेवने भी उसे चोल. प्राप्त हैं. महापुराण, णायकुमारचरिउ और जसहरविजेता बताया है अतः पुष्पदंत और वह समकालीन चरितप्रेमीजीका अनुमान है कि हेमचन्द्रने अपनी सिद्ध होते हैं। कवि शक सं०८८१ में मेलपाटी देशी नाममालामें 'अभिमान-चिन्ह' नामके जिस पहुँचे थे, तभीसे उन्होंने अपनी साहित्य-साधना शब्द-कोषकारका उल्लेख किया है, वह पुष्पदन्त शुरू की।
ही होना चाहिए। क्योंकि इनकी भी यह एक उपाधि आश्रय और आश्रय-दाता-कवि क्रमशः थी, संभव है इन्होंने कोई शब्द-कोष लिखा हो, पर भरत और नन्नके आश्रयमें रहे। ये दोनों ही महा- अभी इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला । महापुराणमात्य वंशके प्रतापशाली और प्रभावशाली मंत्री थे। में कविने वेसठ शलाका पुरुषोंका वर्णन किया है। कवि जो इनकी प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते उसमें यह ग्रन्थ श. सं.८८१ में शुरू कर ८८७ में पूरा कुछ सचाई अवश्य है, क्योंकि वे शस्त्रज्ञ और किया, 'जसहर चरिउ' की समाप्ति तक मान्यखेट शास्त्रज्ञ दोनों थे। भरतमें दो गुण बहुत अच्छे थे लूटा जा चुका था। महापुराणमें मुख्य रूपसे एक तो उन्हें साहित्यसे प्रेम था और दूसरे मानव- आदिनाथ, राम और कृष्णका जीवन विस्तारसे स्वभावकी अच्छी परख थी। पुष्पदंत जैसे उप्रभा- है। पर इसमें कथा-सूत्र न तो सम्बद्ध है और न वुक और स्वाभिमानीको अपने घर रखकर उनसे धारावाहिक । चरित्रोंके आधार पर इसके कई इतना काम ले लेना भरतके लिए ही संभव था। खंड हो सकते हैं। संधिके संकोच विस्तारका भी मेरी धारणा यह है कि मान्यखेट आनेके पहले ही कोई नियम नहीं है । कोई संधि ११ कड़वकोंमें पूरी वह साहित्य जगत्में कीर्ति अर्जित कर चुके थे तभी होती है तो कोई ४० में। वस्तुतः पुराण-काव्योंकी उन्हें भरतने अपने पास रखा। समय-समय पर शैलीमें कथा-विकासका उतना महत्त्व नहीं है जितना वह कविको प्रेरणा भी देते रहते थे। इन दोनोंकी कि पौराणिक आख्यानोंको काव्यका पुट देकर संवेकैसी पटती थी, एक घटनासे इसका पता चल दनीय बनानेका । काव्यात्मक वर्णनोंके सिवा काव्य जायगा। आदिपुराण लिखनेके अनंतर कविका मन रूढियोंका समावेश भी इसमें है। पुराण काव्य अनेक काव्यसे उदासीन हो उठा। इस पर भरतने उनसे चरित्रोंका संग्रह ग्रन्थ है, और कवि उनको इसलिए कहा, "तुम सन्मन और निष्प्रभ क्यों हो. तुम्हारा निबद्ध करना चाहता है क्योंकि वे धर्मके अनुशासनमन प्रन्थ-रचनामें क्यों नहीं है ? क्या किसीने तुम्हें के आनन्दसे भरे हुए हैं। यह श्रोत वक्ता शैलीमें विरत कर दिया है, या मुझसे कोई अपराध हो गया है। समूचा काव्य १०२ परिच्छेदों और ३ खंडों में हैलो मैं हाथ जोड़कर तुम्हारे आगे बैठा हूँ, तुम्हें पूरा हुआ है। णायकुमारचरिउ रोमांटिक कथा वाणी-रूपी कामधेनु सिद्ध है, तुम उसे क्यों नहीं काव्य है, इसकी रचनाका लक्ष्य अनपंचमीके व्रतका दुहते।' यह सुनकर कविने लिखना स्वीकार कर लिया। महत्व दिखाना है। राजा जयंधरका सापत्न्य पुत्र भरतके बाद उनके पुत्र नन्नके आश्रय में कवि रहे। नागकुमार इसका नायक है, वह सौतेली माँके यह राजा वल्लभका गृहमंत्री था। जसहर चरिउकी व्यवहारसे तंग आकर घरसे चला गया। प्रवासमें रचना इसीके घर हुई। कविने जो 'डिग' राजा- उसने बहतसे रोमांटिक और साहसिक कार्य किए। का उल्लेख किया है, वह असलमें कृष्णका घरेलू अन्तमें कवि बताता है कि कुमारको यह लोकोत्तर नाम था। इसके अतिरिक्त उसने वल्लभराय, रूप श्रुतपंचमीव्रतके अनुष्ठानसे प्राप्त हुआ! जसहरवल्लभनरेंद्र, शुभतु गदेवका भी उल्लेख किया है चरिउ, वस्तुतः संवेदनीय काव्य है। यौधेय देशका इनमें 'वल्लभराय' राष्ट्रकूट नरेशोंकी उपाधि थी राजा मारिदत्त भैरवाचार्यके कहनेसे नर-बलि देने जो उन्होंने चौलुक्य-नरेशोंको जीतनेके उपलक्षमें लगा। इसके लिए कुमार साधु अभयरुचि और
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२४ अनेकान्त
[ वर्ष १४ उसकी साध्वी बहिनको राज-कर्मचारी पकड़ कर काव्य-संबंधी धारणा स्पष्ट हो जाती है। वह कहते ले आए। उन्होंने यज्ञ-स्थल पर ही अपनी पूर्व हैं, 'कोमल पद पर कल्पना गढ़ हो, भाषा प्रसन्न कथा सुनाई, उससे जब मारिदत्तको यह ज्ञात हुआ किन्तु गंभीर होनी चाहिए। छंद और अलंकार कि ये उसके सम्बन्धी हैं तो वह विरक्त हो उठा। काव्यकी गतिके आवश्यक साधन हैं शास्त्र और इस काव्यकी सबसे बड़ी विशेषता यही है अर्थ तत्त्वकी गंभीरता होनी चाहिए, (म. पु०१, कि कथानकका विकास नाटकीय ढंगसे होता पृ०१) इस कसौटी पर कविकी रचनाएँ खरी है। सारी कथावस्तु बालक अभिरुचि अपने मुखसे उतरती हैं। पुष्पदंत बार-बार अलंकृत और रसकहता है, इसका सारा कथानक धामिक और दार्श- भरी कथा की उपमा देते हैं (जैसे म०पु.२ पृ० निक उद्देश्योंसे भरा है कथाके चलते प्रवाहमें १८, ४३, १३७, १५८, २१२, ३५५ । उससे यही अर्थ
आध्यात्मिक संकेत भी हैं। लेखक एक हद तक निकलता है कि कथाका निर्वाह ठीक हो, उसमें रस मानवीय करुणाको स्पंदित करने में समर्थ है। हो, अलंकार होणायकुमार चरिउमें भी (पृ० ३२, आदर्श ऊँचा है और उत्तम पुरुषमें होनेसे शैली ४४, ४६) इसी प्रकारकी उपमाएँ हैं । जसहर आत्मीय है।
चरिउमें उसकी एक बहुत ही सारगर्भित उपमा है, उद्देश्य और विचार :- कविने अपने वह कहता है "उसके पुत्र उत्पन्न हुआ वैसे ही जैसे साहित्यका उद्देश्य स्पष्ट रूपसे रखा है, उनकी कविबुद्धिसे काव्यार्थ" ५। इससे स्पष्ट है कि कवि साहित्य-संबंधी धारणा भी सुलझी हुई है, निश्चय काव्यमें अनुभूतिको महत्त्व देता है । यहाँ अनुभूति ही उसका उद्देश्य धार्मिक है। कविका कथन है कि आत्मा है और कल्पना शरीर । अनुभूतिकी प्रसवभैरव-नरेशकी स्तुति-काव्य बनानसे जो मिथ्यात्व
वेदनासे जब कविकी बुद्धि छटपटाती है तभी कल्पना उत्पन्न हुआ था, उसे दूर करनेके लिए उसने (म० उसे मूर्त रूप देकर वह काव्यार्थके शिशुको जन्म पु. १, पृ०४) महापुराणकी रचना की। उनकी दता है। समस्त रचनाएँ जिनभक्तिसे उसी तरह श्रोत व्यक्तित्व और स्वभाव :- कविका घरेलू प्रोत हैं जिस तरह तुलसीकी रामभक्तिसे। कवि नाम खंड या खंडू था, ऐसे नाम महाराष्ट्रमें अभीमन्त्री भरतसे कहते हैं "लो तुम्हारी अभ्यर्थनासे तक प्रचलित हैं। पुष्पदंतका स्वभाव उग्र और खरा मे जिन-गुणगान करता है, पर धनके लिए नहीं, था। राज्य और राजासे उन्हें चिढ़ जैसी थी। भरत केवल अकारण स्नेहसे"३ | एक स्थल पर वे कहते और बाहुबलीके प्रसंगमें उन्होंने राजाको लुटेरा है कि जिन-पद-भक्तिसे मेरा काव्य उसी तरह फूट और चोर तक कह दिया है। उनके उपाधिके नाम पड़ता है जिस प्रकार मधुमासमें कोयल आम्र-कलि- ढेर थे, अभिमान-चिन्ह कवि-कुल तिलक, सरस्वती. काओंसे कूज उठती है। उपवन में भ्रमर गूंजने निलय और काव्य पिसल्ल आदि। महापुराणके लगते हैं और कीर मानन्दसे भर उठते हैं। अंतमें कविने जो परिचय दिया है, उससे कविके कविने सरस्वतीकी जो बंदना की है उससे उसकी व्यक्तित्वका जीता जागता चित्र झलक उठता है।
------ --- - - ----- "सूने घरों और देव-कुलिकाओंमें रहने वाले, १ देखो म.पु.१, पृ०४।
कलिमें प्रबल पाप-पटलोंसे रहित, बेघर-बार, पुत्र२ मण कइत्त जियपद भत्तिहि पसरह उणिय- कलत्र-हीन, नदी, वापिका भार सरोवरोंमें स्नान जीविय-वित्तिहि।
करनेवाले, पुराने वल्कल और वस्त्र धारण करने३ धनु तय-समु मन्सुण तं गहणु णेहु शिकारणु वाले, धूलि-धूसरित अंग, दुर्जनके संगसे दूर रहने इमि।
वाले, जमीन पर सोने वाले, अपने हाथोंका तकिया बोक्खा कोहल अंबय कलियहि कामणि चंचरीड लगाने वाले, पंडितमरणकी इच्छा रखने वाले मान्यरुपया
-(म.पु.१.पू. ) ५ शुरुह कम्वत्युव कइमईए (जस०१०पृ. १८)
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किरण १०] अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त
[२६५ खेट-वासी अरहतके उपासक, भरत-द्वारासम्मानित, आश्रयमें रहे एक राजनैतिक व्यक्तिके। अपनी इस काव्य-प्रबंधसे लोगोंको पुलकित करनेवाले, पापरूपी विरोधी प्रकृतिके कारण उसके काव्यमें भी विरोधाकीचड़को धोनेवाले, अभिमान-मेरू पुष्पदंसने यह भास और श्लेषकी शैलियां व्यवहृत हुई हैं। यह काव्य जिनपद-कमलों में हाथ जोड़े हुए भक्ति - पूर्वक कहा जा सकता कि वह शैवसे जैन बने थे, या क्रोधन-संवत्सर में प्रसाद सुदी दसमीको बनाया।" राज-स्तुतिसे जिन-भक्तिकी ओर मुके थे। उनका
यह विरोधी स्वभाव शिवभक्तिका प्रसाद था, या ___ उक्त पंक्तियों में कविका साहित्यिक और व्यक्तिगत यह दोनों तरहका जीवन अंकित है। प्रेमीजीके शब्दोंमें
जिनभक्तिका प्रभाव, यह बताना हमारा काम नहीं। "इसमें कविकी प्रकृति और निःसंगताका एक चित्र
मून्यांकन-कवि स्वयंभूकी रामकथा (पउम सा खिंच जाता है।" इसमें संदेह नहीं कि कविकी
चरिउ) यदि नदी है, तो पुष्पदन्तका महापुराण एक ही भूख थी और वह थी निःस्वार्थ प्रेमकी।
समुद्र । सचमुच उनकी वाणी भलंकृता रसवती और भरतने भी उनकी इस भखको अपनी सजनता और जिनभक्तिसे भरित है। दर्शन और शास्त्रीय ज्ञानका शांत प्रकृतिसे शांत कर दिया। वे एक दूसरेके मानों उनके काव्यमें प्रदर्शन है, दर्शन और साहित्यकी पूरक थे । कविमें अभिमान था तो भरतमें विनय। पिछलो परम्पराके वे कितने विद्वान थे यह इसीसे एक भावुक था तो दूसरा विचारशील, एकमें काव्य- जाना जा सकता है कि उन्होंने अपनी प्रज्ञता प्रकट प्रतिभा थी दूसरेमें दुनियादारी।पुष्पदंतका फक्कड़
करनेके लिए, सभी दर्शनों इतिहास, व्याकरण, पन देखिए कि जीवन भर काव्य-साधना करके
पुराण तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियोंवह अपनेको काव्य-पिसल्ल (काव्यका पिशाच) -
की लम्बी सूची दी है। (म. पु०१ संधि १ कडा कहनेसे नहीं चूके। अपनी प्राकृतिक संबंध में उनकी पुरा) । उनके काव्यमें ओज और प्रवाह है, पर यह व्यंग्योक्ति हैं 'दुबला-पतला सांवला शरीर एक- अनुभूतिमें वह पीछे नहीं है। प्रकृतिके उभय रूप दम कुरूप, पर स्वभाव हंसमुख, और जब बोलता उन्हें आकृष्ट करते हैं, ठाठ-बाटसे कहानी कहने में तो दंत-पक्तियोंसे दशों दिशाएँ धवलित हो उठतीं वह निपुण है, श्लिष्ट और सरल, कोमल तथा हैं।" इससे बढ़कर अपने संबंधमें निरहंकारी और कठोर-सभी तरहकी शैलियोंका प्रयोग वह कर स्पष्टवादी कौन हो सकता है। सचमुच उनके श्यामल
सकते हैं। छन्दोंकी कलामें वह अद्वितीय है। शरीर में सफेद दांत किसी लता में कुसुमकी भाँति
जीवन-काल में ही उनकी प्रतिभाकी धाक जम गई लगते होंगे।
थी, कोई उन्हें काव्य-पिसल्ल कहता था तो कोई
विद्वान् (म० पु०२ पृ०६)। हरिषेणने अपनी विरोधाभास :-कविके व्यक्तित्व में कई धर्मपरीक्षा' में लिखा है कि पुष्पदन्त मनुष्य थोड़े विरोधी बातोंका विचित्र सम्मिलन था । एक ओर ही है, सरस्वती उसका पीछा नहीं छोड़ती। कुछ वह अपनेको सरस्वती-निलय मानते हैं और आलोचकोंने पुष्पदंतकी पहचान इसी नामके दूसरे दूसरी ओर यह भी कहते थे कि मैं कुक्षिमूर्ख हूँ। व्यक्तियोंसे की है १ । पर यह निराधार कल्पना है। एक ओर तावमें आकर कवि सरस्वतीसे कहता प्रेमीजीने शिवमहिम्न स्तोत्रके लेखक पुष्पदंतसे है कि तुम जानोगी कहाँ मुझे छोड़कर, तो दूसरी इनकी एकता होनेकी संभावना व्यक्त की है, (जैन
ओर वह यज्ञ-यक्षणियोंसे काव्य-रचनाके लिए इतिहास और साहित्य पृ०३०२), पर यह भीख भी मांगते हैं। वे विलास और ऐश्वर्यसे जीवन अनुमान है, अत: विचार करना व्यर्थ है। दूसरे डा. भर दूर रहे, पर उनके काव्यमें इनका जीभर वर्णन हजारीप्रसादने लिखा है 'इनको ही हिन्दीकी भूली है। वे दुनियाके एक कोने में रहना पसद करते हुई अनुभुतियोंमें राजा मानका पुष्प कवि कहा थे, पर शायद दुनियाकी सर्वाधिक जानकारी गया है। (हिन्दी साहित्य पृ.२०)। पर यह उन्हींके काव्यमें है। वह राज्यके उम विरोधी थे, पर एकदम निमून और असंगत पहिचान है।
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अनेकान्त
[वर्ण १४ उसमें थोड़ा भी तथ्य नहीं । इसमें कोई सन्देह नहीं और कल्पनाकी वह अक्षयधाराथी जिससे अपभ्रंश कि बाणभट्टके बाद राजनीतिका इतना उग्र आलो- साहित्यका कानन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत चक, कोई दूसरा कवि नहीं हुआ। सचमुच मेल- माली थे और कविका हृदय काव्य-कुसुम । उनके पाटीके उद्यानमें, भरत और पुष्पदंतकी किसी स्नेहके बाल-बालमें सचमुच ही कविका काव्यअज्ञात मुहूर्तमें हुई वह भेंट भारतीय साहित्यके कुसुम खिल उठा। इतिहासकी बहुत बड़ी घटना है । वह भेंट अनुभूति ग्वालियरके तोमर वंशका एक नया उल्लेख
(ले०-प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर, नागपुर) मध्ययुगीन जैन इतिहासमें ग्वालियरके तोमर राजवंशका स्थान महत्वपूर्ण है । इस वंशके पांच प्रसिद्ध राजा हुए- .रावारिधिख्यातगुणोऽच्छकीतिः। वीरमदेव, गणपतिसिंह, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह तथा मानसिंह। निर्नाशितानंगमहामयोमा इनके समय अर्थात् विक्रमको ५वीं-१६वीं सदीमें ग्वालियर श्रीमान यशःकीतिरनल्पशिष्यः॥६॥ बहुत ही समृद्ध दुर्ग था और वहां जैनधर्मका पर्याप्त प्रभाव कुथ्वादिजीवामना विमान था । विशेष रूपसे माथुरगच्छके भट्टारकों द्वारा मूर्ति-प्रतिष्ठा, आत्मस्वरूपानुभवाभिलाषः । शास्त्र-लेखन श्रादि धर्मकार्य यहां संपन हुये थे।
तेजोनिधिः सुरिगुणाकरोऽस्ति गत वर्ष कारंजाके सेनगण मन्दिरके प्रसिद्ध शास्त्र- पट्ट तदीये मलयादिकीर्तिः ॥जा भंडारमें आचार्य कु दकुदके ग्रन्थोंकी इस्त-लिखित प्रतियों- समततो भद्रगुणानुरक्तः समंतभद्रांघ्रियुगे सुभक्तः । का अवलोकन करते समय हमें तोमर वंशके महाराज इंगर- पट्ट ततोऽस्यारिरनंगसंग-भंगः कलेःश्रीगुणभद्रसूरिः। सिंहके समयकी समयसारकी एक प्रति उपलब्ध हुई। यह आम्नाये वरगर्गगोत्रतिलकं तेषां जनानादकृत (?) प्रति वैशाख शुक्ल तृतीया, संवत् ११० को माथुरगच्छके यो (१) अन्वयमुख्यसाधुहितः श्रीजैनधर्मावृतः। भद्दारक गुणभद्रके आम्नायके भावक गर्गगोत्रीय मोलिक दानादिव्यसनो निरुद्धकुनयः सम्यक्त्वरत्नाम्बुधिद्वारा लिखवाई गई थी। इसकी प्रशस्ति काफी विस्तृत है जज्ञेऽसौ जिनदाससाधुरनघो दासो जिनांघ्रिद्वयोः॥ और सस्कृत भाषाकी दृष्टिसे भी पठनीय है। इससे उस
गुणगणरत्नखनिः पतिभक्ता समयके ग्वालियरके वैभवका अच्छा प्राभास मिलता है,
जिनवरचरणशरणपरचित्ता। तथा राजा दंगरसिंहके समय पर भी कुछ और प्रकाश
परिहतपंककलंकविनीताऽपड़ता है। यह पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है
भवदबलास्मिन् शुभगतिडाली ॥१०॥ येषामंघ्रिनतेर्भव्या नम्यते जगता श्रिया । आलिंग्यते नमस्तेभ्यो जिनेभ्यो भवशांतये ॥१॥
उदारचित्तः परदारबन्धुगुणौघसिन्धुः परकार्यसंधः। गगनावानभूतेंदुगण्ये (१५१०) श्रीविक्रमागते अभूद्धवि प्राप्तगुरुत्वमानः खेताहयस्तत्तनुजो जनेष्टः।। अब्दे राधे तृतीयायां शुक्लायां बुधवासरे ॥२॥
चित्त यस्या विरक्तंभवसुखविषयेजन्मभीरुर्विमान्या(१) जिनालयैराव्यगृहैर्विमानसमैर्वरैश्च बितवायमार्गः। सौमानिन (?) पुत्रवल्लभवचनाकर्णने दत्तकर्णा। अदीनलोकोजनमित्रसौख्यप्रदोऽस्ति गोपादिरिहद्धिपर
पात्रे दानावधाना धनजननिचये भावितानित्यभावा श्रीतोमरानूकशिखामणित्वं
भावादेवी निधाना परिजनहृदयानंददात्री तदीया॥१२ यः प्राप भूपालशतार्चितांघ्रिः।
तदात्मजो जननयनामृतप्रदो दिव्य (?) श्रीराजमानो हतशत्रुमानः
कृताखिलकुमतिः सुसंगतिः। श्रीदुगरेंद्रोऽत्र नराधिपोऽस्ति ॥४॥
कलावलो गुरुपदपद्मषट्पदोऽस्ति दीक्षापरीक्षानिपुणःप्रभावान् प्रभावयुक्तोद्यमदादिमुक्तः । मोलिको निजकुलपकजायम
.मोलिको निजकुलपंकजार्यमा ॥१३॥ श्रीमाथुरानूकललामभूतो भूनाथमान्यो गुणकीर्तिसूरिः५ . वाल्हाही (१) ॥ श्री श्री श्री ॥
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क्या कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिष्य नहीं हैं ?
(श्रीहीरालाल सिद्धान्त-शास्त्री) यद्यपि प्राचार्य कुन्दकुन्दने बोधपाहडके अन्तमें रची जिसे उन गाथामें 'सहवियारो हो भासासुत्त सुज हुई दो गाथाओंके द्वारा स्पष्ट शब्दों में अपनेको द्वायशा- जिणे कहिया इन शब्दोंके द्वारा सूचित किया गया हैवेत्ता, चतुर्दश पूर्वघर और श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य वह अविच्छिन्न चला पाया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके घोषित किया है, तथापि अन्य कितने ही कारणोंसे कुछ समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्रु सज्ञान ऐतिहासिक विद्वान उन्हें पंचम अतकेवली प्रथम भदवाहका लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था, वह अनेक भाषासाक्षात् शिष्य माननेको तैयार नहीं है और उन्हें विक्रमकी सूत्रों में परिवर्तित हो गया था। इससे ११वीं गाथाके भद्रप्रथम शताब्दीमें होने वाले द्वितीय भद्रबाहका शिष्य सिद्ध बाहु, भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं।" करनेका प्रयास करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ मैं परन्तु श्रीमुख्तार साहबने 'सद्दवियारो हूओ' का ऐतिहासिक विद्वानों द्वारा दी गई, या दी जाने वाली जो अर्थ कल्पित करके कुन्दकुन्दको द्वितीय भद्रबाहुके शिष्य दलीलोंकी उलझनोंमें न पड़कर सबसे पहले उन दोनों बनानेका जो प्रयत्न किया है. वह ठीक नहीं है, क्योंकि गाथानों पर विचार करूंगा, जिनमें कि उन्होंने स्वयं ही गाथाका सीधा-सादा अर्थ मेरी समझके अनुसार इस अपनेको भद्रबाहुका शिष्य और उन्हें अपना गुरु प्रकट प्रकार हैकिया है। बोध पाहुडके अन्त में दी गई वे दोनों गाथाएँ
जो अर्थ जिनेन्द्रदेवने कहा है, वही गणधरोंके द्वारा इस प्रकार है
द्वादशांगरूप भाषात्मक सूत्रोंमें शब्द विकार अर्थात् सहवियारो हुओ भासासुत्त सु जे जिणे कहिय।। सो तह कहियं णायं सीसेण य भहबाहुस्स ॥६॥
शब्दरूपसे अथित या परिणत हुआ है और भद्रबाहुके बारस-अंगवियाणं चउदस-पुव्वंग-विउल-वित्थरणं।
शिष्यने उसी प्रकार जाना, तथा कहा है। सुयणाणि भदबाहू गमयगुरू भयवश्री जयश्रो ॥६॥ अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालासे प्रकाशित अष्टपाहुबकी
इन दोनों गाथाओंमेंसे प्रथम गाथाके पूर्वार्धकार्य भूमिकामे स्व. श्री.पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने भी संस्कृत कुन अस्पष्ट है। शु तसागर सूरिकी संस्कृत टीका और छायाके साथ अन्वय करते हुए इसी प्रकारका अर्थ किया पं० जयचन्द्रजीकी भाषा वचनिकासे भी उसका स्पष्टीकरण ।
है। यथानहीं होता। अतएव माजसे ठीक तीन वर्ष पूर्व मैंने जैन
ज-यत् जिणे-जिनेन कहिय-कथित, सो तात् समाजके गण्य-मान्य ८-१० विद्वानोंको उक्त दोनों गाथाए
भासासुत्त सु-भाषासूत्रेषु ( भाषारूप-परियात-द्वादशाह लिखकर उनका स्पष्ट अर्थ जानना चाहा था। पर उनमेंसे
शास्त्रेषु) सद्दवियारो हो-शब्दविकारो भूनः ( शहरपाचे विद्वानोंने तो जवाबी पत्र तकका भी उत्तर नहीं
विकार म्पपरिणतः ) भद्दबाहुस्स-भगवाहोः सीसेण यदिया। कुछ विद्वानोंने पत्रका उत्तर तो देनेकी कृपा की,
शिवेनापि तह-तथा णाये-ज्ञातं, कहियं कथितम् । परन्तु अर्थका कुछ भी स्पष्टीकरण न करके मात्र यह लिख उक अर्थ बिलकुल प्रकरण-संगत है और भा० कुन्दकरके मेजा कि हम भी इन गाथाओंके अर्थके विषय में कुन्दने उसके द्वारा यह प्रकट किया है कि जो वस्तु-स्वरूप संदिग्ध हैं। दो-एक विद्वानोंने वही अर्थ लिख करके भेजा, अर्थरूपसे जिनेन्द्रदेवने कहा, शब्दरूपसे जिसे गणधर जो कि पं0 जयचन्द्रजोने अपनी भाषा-वचनिकामें किया है। देवोंने भाषात्मक द्वादशांग सूत्रोंमें रचा, वहो भद्रबाहुके
श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने पुरातन जैन- शिष्य इस कुनकुन्द ने तथैव जाना और तथैव कहा । वाक्य सूचीकी प्रस्तावनामें बोधगहुडका परिचय देते हुए इस प्रकार ५१वीं गाथाका अर्थ स्पष्ट है और उसके
उत्तरार्धसे मा० कुन्दकुन्दने बहुत स्पष्ट शब्दों में अपनेको "इस प्रन्थकी ६१वीं गाया कुन्दकुन्दने अपनेको भद्र- भद्रबाहुके शिष्य होनेकी घोषणा की है। यहां यह आशका बाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः द्वितीय भद्रबाहु की जासकती थी कि भले ही तुम भद्रबाहुके शिष्य होमो? जान पड़ते हैं, क्योंकि भद्रबाहु श्रुतवलीके समयमें जिन पर भद्रबाहु नामके तो अनेक प्राचार्य हुए हैं, उनमें तुम कथित श्रु तमें कोई ऐसा विकार उपस्थित नहीं हुआ था किसके शिष्य हो ? सहजमें उठनेवाली इस माशंकाका समा
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२६]
अनेकान्त
[वर्ष १४
धान मा. कुन्दकुन्दने १२ वीं गाथा बनाकरके किया और यत: कुन्दकुन्दका जन्म दक्षिण भारतमें हुआ था बताया कि
और उन्होंने किन्हीं दाक्षिणात्य प्राचार्यसे दीक्षा ग्रहण "जो द्वादशलके वेत्ता, चतुर्दश पूर्वोके अर्थका विपुल- की थी, जिसकी विश्व ति भी सर्वत्र थी, अतः उनका अपने रूपसे विस्तार करनेवाले और अ तहानी (श्र तकेवली.) भद्रबाह लिए 'सीसेण या भद्रबाहुस्स' इतना मात्र उल्लेख सन्देहप्राचार्य हुए हैं. वे ही भगवान भद्रवाह मेरे गमक-गुरु, जनक या भ्रम-कारक होता। उसे दूर करनेके लिए व (ज्ञानगुरु या विद्यागुरु) है। और ऐसा कह करके उनका उन्होंने 'गमयगुरु' पद दिया और उसके द्वारा यह बात जयघोष किया है।
स्पष्ट कर दी कि यद्यपि मेरे दीक्षागुरु अन्य हैं, तथापि मेरे इस गाथामें दिये गये तीन पद खासतौरसे विचारणीय ज्ञान-(विद्या-) गुरु भद्रबाहु स्वामी ही हैं। दूसरी बात यह एवं ध्यान देने योग्य है-द्वादशाह वेत्ता चतुर्दश पूर्वधर भी हो सकती है कि कुन्दकुन्दको भद्रबाहुके साक्षात्
और श्रुतज्ञानी । इन तीनोंमेंसे प्रत्येक पद या विशेषण शिष्यत्वकी साक्षी देनेवाले सहाध्यायी या सहदीक्षित अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुके बोध करानेके लिए पर्याप्त प्राचार्यों से उस समय कोई भी विद्यमान नहीं हों और था, क्योंकि जो द्वादशाका वेत्ता है, वह चतुर्दश पूर्वोका सभी स्वर्गवासी हो चुके हों। ज्ञाता होता ही है । अथवा जो चौदह पूर्वोका ज्ञाता होता है, (२) दूसरी पाशंका भी समुचित प्रतीत होती है, वह द्वादशाङ्गका वेत्ता होता ही है। इसी प्रकार दोनोंका उसका कारण यह है कि नन्दिसंघकी पट्टावलीके अनुसार वेत्ता पूर्ण श्रुतज्ञानी या श्रतकेवली माना ही जाता है। भद्रबाहुके पश्चात् विशाखाचार्यका काल १० वर्ष, प्रोप्ठिलका फिर क्या वजह थी किया. कुन्दकन्दको अपने गरुके नाम- १६ वर्ष और क्षत्रियका १७ वर्ष है। यदि ये तीनों ही के साथ तीन-तीन विशेषण लगाने पदेशासका कारण स्पष्ट प्राचार्य कुन्ककुन्दके जीवन-कालमें दिवंगत हो चुके हों, और
और वह यह कि वे उक्त तीनों विशेषण देकर और उसके उसके बाद चौथी पीढ़ीके प्राचार्य जयसेन वर्तमान हों तो पश्चात् भी 'भयवनो' (भगवन्त ) पद देकर खलेरूपमें भी कोई असंभव बात नहीं है। इसका कारण यह है कि जोरदार शब्दोंके साथ यह घोषणा कर रहे हैं कि उनी भद्रबाहुके बाद होने वाले उक्त तीनों प्राचार्योका काल भद्रबाहुका शिष्य हूँ, जो कि द्वादशाह वेत्ता, या चतुर्दश
४६ वर्ष ही होता है। श्रा० कुन्दकुन्दकी आयु अनेक पूर्वधर या अन्तिम श्रुतकेवलीके रूपसे संसार में विख्यात आधारोंसे ८४ वर्षकी सिद्ध है। और उन्होंने बाल-वयमें
दीक्षा ली थी, यह बात भी उनके 'एलाचार्य' नामसे प्रकट इसी ६श्वी गाथामें दिया गया 'गमगुरु' पद भी हैं। भगवती आराधनाकी टीकामें 'एलाचार्य' का अर्थ 'बालअत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और गहराईसे विचार करने पर उससे दीक्षित साधु' किया गया है। अतएव यदि दीक्षाके समय कितनी विशेष बातोंका आभास मिलता है और ऐसा प्रतीत कुन्दकुन्दकी आयु १६ वर्षकी भी मानी जावे और पूरे .. होता है कि उनके सामने आई हुई, या आगे मानेवाली वर्ष साधु-जीवन यापन करनेके पश्चात् उन्हें भद्रबाहुके पास उस प्रकारकी सभी शंकाओंका समाधान प्रा. कुन्दकुन्दने पहुंचनेकी कल्पना की जाये तो भी उन्हें भद्रबाहुके चरणउक तीनों पदोंके साथ 'गमकगुरु' पद देकर किया है। सानिध्य में बैठकर १०.१२ वर्ष तक ज्ञानाभ्याप करनेका भेरी कल्पनाके अनुसार जिन आशंकामोंको ध्यानमें रखकर अवसर अवश्य मिला सिद्ध होता है। इस सर्व कथनका मा० कुन्दकुन्दने उक्त पदका प्रयोग किया है. वे इस प्रकार- निष्कर्ष यह निकला कि यदि श्रुतकेवली भद्रबाहुके स्वर्गकी होनी चाहिए:
वासके समय कुन्दकुन्दकी अवस्था ३५-३६ वर्षकी मानी (१) यतः कुन्दकुन्दाचार्यके दीक्षा-गुरु अन्य थे। जाय, और तदनन्तर उनके पट्ट पर आसीन होने वाले तीन
(२) यतः बोधपाहुबकी रचनाके समय भगवाहुको पीढ़ी के प्राचार्योंका समय ४६ वर्ष व्यतीत हुधा भी मानें, दिवंगत हुए बहुत समय हो गया था और उस समय तो भी चौथी पीढ़ीके प्राचार्य जयसेनके पट्टपर बैठने के समय संभवतः उनके या दोनोंके पट्टों पर तीसरी या चौथी कुन्दकुन्दकी आयु ८१-८२ वर्षकी सिद्ध होती है। और पीढोके प्राचार्य बासीन थे।
यदि इसी समयके लगभग कुन्दकुन्दने बोध-पाहुडकी रचना उन दोनों आशंकाओंके औचित्य पर क्रमशः विचार की हो, तो लोगों में इस शंकाका उठना स्वाभाविक था कि किया जाता है:
भद्रबाहुको दिवंगत हुए तो ३ पीढ़ियां व्यतीत हो चुकी है, ---- -- -
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किरण १०]
क्शाकुन्दकुन्द भद्रबाहु अलकेवलीके शिब नहीं है।
[२६८
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फिर तुम उनके शिष्य कैसे हो सकते हो, संभवतः इसी भी योग्य नहीं थे, अथवा कोई अन्यही कारण है। लिए उन्हें रवीं गाथा रचकर स्पष्ट करना पड़ा किये बाचार्य कुन्दकुन्दको दोनों परम्परामोंमेंसे किसी भी परम्परामेरे दीक्षागुरु नहीं है, किन्तु ज्ञानगुरु है।
के प्राचार्यत्वके अयोग्य होनेकी तो कल्पना की नहीं जा खोग कुन्दकुन्दको द्वितीय भद्रबाहुका शिष्य सिद्ध सकती. क्योंकि उनके अन्य ही इस बातके सबसे बड़े साक्षी करने के लिए यह भापति उपस्थित किया करते हैं कि यदि हैं कि वे एक महान् भाचार्य हुए है। फिर दूसरा क्या कुन्दकुन्द प्रथम भद्रबाहुके शिष्य थे, तो फिर उनके पश्चात् कारण हो सकता है, इस मुद्दे को लेकर अब हम कुन्दहोने वाली श्रुत-परम्परा या प्राचार्य-परम्परामें उनका नाम कुन्दाचार्यकी संभवतः सबसे पहली रचना मूलाचारकी क्यों नहीं दिया गया। इन दोनों शंकाओंका भी समाधान छानबीन करते हैं तो हमें इसका समाधान बहुत अच्छी उपयुक्त विवेचनसे भलीभांति हो जाता है, प्राद-यतः तरह मिल जाता है। भद्रबाहु के स्वर्गवासके समय कुन्दकुन्द अल्पवयस्क थे और मूलाचारके समाचाराधिकारकी १५५वीं गाथा-द्वारा यह संभवतः उस समय तक वे अंगों और १० पूर्वोके पूर्ण प्रकट किया गया है कि साधुको उस गुरुकुल में या संघमें वेत्ता नहीं हो सके थे, अतः स्वयं भद्रबाहुने या संघने नहीं रहना चाहिये जिसमें कि प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, श्रुतगुरुके रूपमें विशाखाचार्यको जोकि उस समय अंग स्थविर और गणधर, ये पांच भाधार न हों। तदनन्तर पौर १० पूर्वोक वेत्ता और वयोवृद्ध थे प्रतिष्ठित कर दिया। १५५वी गाथामें उन पांचों आधारोंके लक्षण दिये हुए हैं। तथा भद्रबाहु के पश्चात् उनके साक्षात् दीक्षित शिष्यों में भी पाजले तीन वर्ष पूर्व अनेकान्त में प्रकाशित अपने लेखोंसे उनका उल्लेख नहीं किया जा सका, क्योंकि ये अन्य मैं यह प्रमाणित कर चुका है कि मूलाचारके कर्जा प्राचार्य प्राचार्यसे-श्रुतसागरके उल्लेखानुसार जिनचन्द्रसूस्सेि- कुन्दकुन्द ही है और वे उपयुक्त पांच प्राधारों से प्रवर्तक दीक्षित थे।
पदके धारक थे, यह बात भी उनके वट्टकेराचार्य (वर्तकउपयुक्र कारणोंसे ही उनका नाम, भद्रबाहुके पश्चात् एलाचाय) नामसे सिद की थी। मूलाचारमें वर्तक या न तो श्रु तावतार-प्रतिपादक ग्रन्थों में ही मिलता है और न प्रवर्तकका अर्थ संघ-प्रवर्तक किया है, और वृत्तिकारने गुरु-शिष्यरूपसे दीक्षाचार्योंकी पहावलियों में ही। और यह 'वर्यादिमिल्पकारक' अर्य किया है। तदनुसार आचार्य इम पहले बतलाही चुके हैं कि दोनों प्रकारके प्राचार्य- कुन्दकुन्द संभवतः भद्रव हुके जीवन-काल में ही इस प्रवत्तकपरम्पराकी तीन पोड़ियां बीतने तक भी संभवत कुन्दकुन्दा- के पद पर आसीन हो गये थे। और यह पद उन्हें इतना चार्य जीवित रहे हैं। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि अधिक पसन्द माया प्रतीत होता है कि उन्होंने उसे जीवन अपने जीवन के अन्त तक दोनों परम्परामोंमेंसे किसी भी पर्यन्त स्वीकार किये रहने में ही दिगम्बर-परम्पराका कल्याण परम्पराके प्राचार्यपदका भार उन्होंने नहीं सम्हाला। समझा। अथवा तात्कालिक संघने उन्हें उस पर भासीन
यहाँ यह पूछा जा सकता है कि यदि आपकी उक रहनेके लिए जीवनान्त तक बाध्य किया और अपने कल्पनाको सत्य मान लिया जाये तो दोनों परम्परामों से जीवन-पर्यन्त मुनिसंघकी बागडोर अपने हाथमें लेकर उसका किसी भी परम्पराके प्राचार्य-पदको स्वीकार न करनेका क्या सम्यक् प्रकारसस कारण हो सकता है ? क्या वे उन दोनोंमेंसे किसी एकके
इस प्रकार उपयुक्त विवेचनसे यह सिद्ध है कि भन्ने
ही कुन्दकुन्दका नाम भद्रबाहुके तुरन्त बाद ही उनकी ७ वयावृद्ध कहनका कारण यह है कि विशाखाचार्य साक्षात शिष्य-परम्परामें होने वाले प्राचार्योंके भीतर न मद्रपाहुके स्वर्गवासके पश्चात् केवल १० वर्ष ही जीवित मिलता हो, पर उससे उन्हें प्रथम भगवाहुके साक्षात् शिष्य
__ होनेमें कोई बाधा नहीं पाती।
विद्वानोंकी सेवामें भावश्यक निवेदन अवपंचमीके दिन आप अपने यहाँक शास्त्र-मंगरों की बान-कीन कीजिये, जो नवीन अन्य मि., उनले हमें सम्बित कीजिए और जिन जीर्ण-शीर्थ पुराने खंडित पत्रोंको कार समककर प्रसग बस्ते में बंध रक्षा हो, उन्हें समाजकी अनुमति कर हमारे पास मेजिये।
अधिष्ठाता-श्रीकार्य
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और
शाह शेरानन्द तीर्थ यात्रा-विवरण सम्मेतशिखर चैत्य परिपाटी
( श्री• अगरचन्द नाहटा) .
कविता वासी बात थानक प्राप्त सम्मेत सिखर चैत्य परिपाटीके अनसार नामक आत्मकथामें हीरानन्द मुकीमके प्रयागसे आगरेसे यह संघ यात्रा करने निकला था वहाँके संवत १६६१ चैत्र सदी२ को सम्मेत शिखर यात्राके नौ मन्दिरोंकी पूजा कर माघ सदि १३ को आगे लिये संघ निकालने और उसमें उनके पिता
पता चला। शहिजादपुरमें खमण-वसहीकी जिन खड्गसेनके सम्मिलित होनेका वर्णन इस प्रकार मूतियांकी वंदना कर एक दिन वहाँ रह कर प्रयाग दिया है--
की ओर संघ चला। प्रयाग जैन और शैव दोनोंका दोहा-आयौ संवत इक सठा, चैत मास सित दूज ॥२२३॥
तीर्थ है। गंगा जमुना सरस्वतीका संगम वहाँ हुआ साहिब साह सलीम को, हीरानन्द मुकीम ।
है। जैन ग्रन्थोंके अनुसार आचार्य अनिया पुत्रने ओसवाल कुल जोहरी, वनिक वित्तकी सीम ॥२२॥ गंगाजलमें केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पाया और तिन प्रयागपुर नगर सौं, कीजो उद्दम सार ।
आदीश्वर भगवानने अक्षयवडके नीचे दीक्षा ली। संघ चलायौ सिखरको, तरथो गंगा पार ॥२२॥ यहाके मन्दिरके मुंहरेमें जैन मूर्तियोंकी वंदना की ठौर और पत्री वई, भई खबर जित तित्त ।
और आदिनाथकी पादुकाकी पूजा की। तीन दिन चीठी माई सैन कौं, भावहु जात निमित्त ॥२२॥
वहाँ रह कर संघ बनारस गया। यह भी जैन और खरगसेन तब उठि चले, ह तुरंग असवार ।
शिव दोनों का तीर्थ है। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वजाइ नन्दजी को मिले, तजि कुटम्ब घरबार ॥२२७॥
नाथका जन्म यहाँ हुआ। यहाँके २ मन्दिरोंकी
यात्रा की। श्रेयांस नाथकी जन्मभूमि सिंहपुरीकी यात्राकी समाप्तिका प्रसंग निम्न रूपसे चित्रित है।
यात्रा की। सूरजकुडके पास १६ दिन रहे। चौ०-संवत सोलहस इकसठे, आये लोग संघ सौं नठे। शा.हीरोनन्द साह सलेमको प्रसन्न कर उसकी
केई उबरे केई मुए, केई महा जहमती हुए ॥२३६॥ आज्ञासे अपने परिवारके साथ यात्रा करनेको
खरगसेन पटने मौ भाइ, जहमति परे महादुख पाइ। प्रयागसे बनारस आये उनके साथ हाथी, घोड़े, उपजी विया उदरके रोग, फिरि उपसमी पाउ बल जोग ॥ रथ, पैदल और तूपकदार थे। चैत्रवदी नवमीको संघ साथ पाए निज धाम, नंद जौनपुर कियो मुकाम । इनका संघ बनारसमें आगरेके खरतर संघके साथ खरगसेन दुख पायौ बाट, घर मैं प्राइ परे फिर खाट ॥ जाकर सम्मिलित हुआ। बनारससे सघ चन्द्रपुरी हीरानंद लोग मनुहार, रहे जौनपुर मौं दिन व्यार। गया और चन्द्रप्रभुके पादुकाकी पूजा की। फिर पंचम दिवस पारके बाग, छठे दिन उठि चले प्रयाग ॥ पटने पहुंचे। वहाँ नेमिनाथ और बहुतसी मूर्तियोंदोहा-संघ फूटि चहुँ दिसि गयौ, आप आपको हो। को नमस्कार कर बाहर एंगरीमें सेठ सुदर्शनकी
नदी नाव संजोग ज्यौं, विछुरि मिलै नहिं कोई ।।२५३ पादुकाकी भी पूजा की। पांच दिन संघ वहाँ रहा
शाहीरानन्द जीके संघका विशेष विवरण फिर विहार नगरके तीन मन्दिरोंकी वंदना की। अभीतक अनुपलब्ध था कि वह संघ कौनसे रास्तेसे वहाँ दो दिन स्वामी वच्छल हुए फिर पावापुरीमें किस-किस तीर्थकी यात्रा करने गया। सौभाग्यवश महावीर भगवानके पादुकाओंकी पूजन किया। अभी हालमें ही एक हस्तलिखित गुटका मिला, फिर शिवपुरके राजाने कपट करके संघसे बहुत जिसमें खरतर गच्छके मुनि तेजसारके शिष्य अदाषट की पर अन्तमें उसे मुकना पड़ा । उसके वीर विजयने संवत् १६६१ में निकले हुए इस तीर्थ- मंत्रीको साथ लेकर वन और खालनालके भयंकर यात्री संघने कौन-कौनसे तीर्थोकी यात्रा की, इसका दोनों ओर पर्वत और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, मद करते विवरण दिया है।
हये हाथी वाले विकराल रास्तेसे संघ आगे बढ़ा
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किरण १०
सम्मेत शिखर चैत्य-परिपाटी
___[ ३०१
[३०१
तो भीलके टोलोंने बाधा उपस्थित की। शा० हीरानन्दने उन्हें वांछित देकर काम निकाला। बीच में किसी तीर्थकी भी वंदनाका उल्लेख है पर नाम स्पष्ट नहीं हैं । दस दिन वहाँ रह कर पालगंजके राजाको संतुष्ट कर वैसाख सुदि १२ को समेत सिखरकी २० टुक और बहुत सी मूर्तियोंकी वंदना की। वहाँ से लौटते हुये नवादाके रास्ते एक बड़ा जंगल पड़ा। जेठ वदी शेष राजगृहीके पांच पर्वतोंकी यात्रा की । यहाँ मुनिसुव्रतका जन्म, धन्नाशालीभदका स्थान है। यहाँ से बड़गाँव में गौतम गणधरका स्तूप और बहुतसे जैन मन्दिर व मूर्तियोंकी पूजा करते हुये संघ पटना पाया। १५ दिन वहाँ रहे । सब संघको पहिरावणी दी गई। वहाँसे संघ जौनपुर आया । वहाँ के एक मन्दिरकी बहुतसी मूर्तियोंका दर्शन कर संघ अपने नगर लौटा।
अयोध्यामें पॉच तीर्थकरोंके कल्याणक रत्नपुर में धर्मनाथ, सौरीपुर, हस्तिनापुर और अहिच्छत्र पाश्वनाथकी वीरविजयने यात्रा की । इस प्रकार संघने संवत् १६६१ में बहुतसे पूर्व के तीर्थोकी यात्राके वर्णन वाली समेत शिखर चैत्य परिपाटीकी रचना की । जो आगे दी जा रही है।
वीरविजय सम्मेतशिखर चैत्य-परिपाटी पणमि-गुण वास सिरि पास-पय-कयं,
रचिसु संमेयगिरि, थवण निसंकयं । आगरा नगर थी, संघि जाना करी,
तेमहुँ वीनवु, हरख हियदह धरी ॥॥ आगरइ पूजि नव, देहरा इक मनई,
माह सुदि तेरिसई, चालि नइ सुभुदिनई। अनुक्रमइ नगर सहिजाद पुरि प्राविनइ,
खमण वसही सु जिण बिंबवर बंदिनई ॥२॥ श्रेक दिन रहिय सहु, संघ भगताविना,
तिहां थको चालि, प्रयाग पुरि प्रावित्रा। संवत् १६६०६२ के बीच खरतरगच्छके जै निधानने भी पूर्वदेशके बहतसे तीर्थोंकी यात्राके स्तवन बनाये हैं। वे शायद इस संघसे स्वतन्त्र रूपमें गये हों।
तासु महिमा सुजिन, सैवमइ बहु भई,
बहह इकथानि, गंगा जमुन सरमा ॥३॥ जैन सिद्धांत मह, वात ए परगड़ी,
पायरिय अग्निमा-सुत तणी एवड़ी। गंग जल माहि, केवल लही सिव गयड.
तयणु बहु जैन सुर, मिलिन उच्छव कया ॥४॥ तेणि प्रयाग इणि, नामी तीरथ काउ,
भादि जिण दिव्य, बदमखय पिण इहां बाड, देहराइ भूहरह, जैन बिंब दिइ ।
प्रादिजिण पादुका पूजि अभिनंदिन ॥॥ दिन तीनि तिहां रहि, बाणारिसि पुरि पत्ता,
सुरिज कुंड पासह, दिन उगणीस वसंता । एपिण वड तीरथ, जिन सिवमति सुकहति,
इहां पास सुपास, जिणेसर जनम भणंति ॥ निरमल अलि जिहां नित, गंगा बहइ विसाला,
दुइ जिणका दिहरा पूजइ सघ रसाला । नितसंघ जिमावण, मुखि धमि दिवसु लहंति,
नाड़ा जिण सेअंस, सीहपुरी पूजंति ॥७॥ हिच साह हीरानंद. रंजवि साहि सलेम,
तसु दूश्रा पामी, लेई बहु धन तेम। हय गय रथ पायक, विम बहु तूपकदार,
निज पुत्र कलत्र सहु, साथई करि परिवार ॥८॥ प्रयाग थकी चलि, बाणारिसि पुरि श्रावह,
वदि चेत नवमि दिनि, खरतर सोभ वजावइ । तिहां थी चलतां हिब, चंदपुरी छह पंथि,
चंदप्रभु पगला, पूज्या निज-निज हाधि ॥६॥ सहु संघ साथई करि, प्रावइ पट्टण ठामि,
दिहरइ बहुबिसु नेमीसर सिर नामी। बाहिरि गरि नव, पासइ पूज्या पाय,
श्रीसेठ सुदरसया, सील सिरोमणि राय ॥१०॥ दिन पंच लगइ तीहां, सहु संघकु भगतावी,
तिग जिपहर बंथा, नगर विहारई भावी। दिह हुह संघ वच्छज दोइ कोस पाणंद,
पावापुरि पूज्या, पगला वीर जिणंद ॥११॥ ढाल गऊड़ी कीहिव सिव उर कइ राइ, कपट करि लेई,
अदावद तिणि बहु कोयड ए, साहस पुन्य पसाय, तेहल का थयउ,
साह ईधन सुबहु दीपडए।
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सन्देह
(श्रीजयन्तीप्रसाद शास्त्री 'रल')
सन्तानके लिए नारीका हृदय कितना अशान्त यही विचार पं० रमाशंकर और उनकी धर्म रहता है, सूना रहता है, उसमें बिना सन्तानके कोई पत्नी सुशीलाके हृदयमें बार-बार पाकर उमंगोंको रस नहीं, जीवन ही भार हो जाता है। नारी सूना बनाये हुए थे। उनके विवाहको आज ठीक जीवनकी, सफलता एवं शोभा ही सन्तान है, सन्तान- अठारह वर्ष हो गये थे। उनकी अवस्था भी अड़का न होना पति और पत्नीके सुखमय जीवनमें तीस वर्ष की हो चुकी थी । घर-बार धन-धान्यसे कसक बनकर खटकता रहता है । यहाँ तक कि परिपर्ण होते हए भी जीवन बेकार-सा लगता था। गरीबकी झोपड़ी तथा धनिकोंके राजमहल सभी कभी-कभी सुशीला छोटे-छोटे बच्चोंको देखकर कुछ बेकार हैं।
बड़ा ही आनन्द मानती थी, पर देखते-देखते ही तसु मंत्री संगि लीध, हिव पंथड़ कर,
डाल इकतीसाकीबहु दुख जंजालहं भरयड ए, जेठ नवमी रे वदि माल्या राजगृही, खाल नान सुविसाल, वन अंगी घणी,
पंच परवत रे पेल्या गढ सेती बही। देखी कायर मन डरायड ए॥२॥ वेभारह बंधा बावन जिणहरु, ऊँचा रूस भनेक, दुइ दिसि गर,
धन सालिभद्र रे वीर इग्यारे गणहरू। मयगत माता मद मरह ए,
गणहरू पगला, नम्या रोहण, गुफा थी दूरह पका घटवाला विकराल, भूमी अ भोलड़ा,
गिरि विपुल प्राइक, उदह जिणहर, ____टोला मिलि पाढा फिर ए।
कनक गिरि सोलह पछह । सीह हीरानंद साह, तसु वंचित दिइ,
दुइ रतनि हिव पोसाल सालिभद्र, कूत्रा हेठि मनोहरा पसुकी परिते सहु गया ए,
मुनि सोबत वीसम सामि जिण चंद, जनम करि सोभछरा हिव निरभय पाणंदि, तीरपि प्राविना,
वडगामई रे, गौतम गणधर थंभ छह, देखत दुख हरह थया ए॥१३॥ दिन दस-करीम मुकाम, दुइ पालगंज मइ,
बहु जिणहर रे, बहु बिंब तिहां पूज्यां पछछ । तसु राजा संतोषिमा ए,
पुर पट्टणि रे, पनहर दिन भावी रही, हय वर बहु धन दोष, सुदि वयसाख की,
पहिराज्यउ रे, सयन संघ साहइ सही। चवदिसि दिवसिड पोषिमा ए। साहह सही हिव तिहांधकी चति.जोगपरिसंघ प्राविना प्राति वख्यागिरि गि, रंगई पेखिमा,
इक चैत्य बहु बिंब साथि सामी, पास जिण माविमा । वीस टूक सोमानिखा ९, हिवे तिहां थकी चलि संघ सिगला, निज नगरि निज-निज धरह अदभुत विद्य अनेक, वीस जिणेसर,
पाणंदि उछरंगि तुरत पहुता, कुसब खेमइं सादरई ॥१७॥ पूज्या बंद्या पावताए ॥
दोहा-अधइ पणमुपंच जिण, रयणपरी भ्रमनाथ । विषय कषाय अठार, पातक थान ९,
सोरीपुरि हथणाउरई अहिछति पारसनाथ ॥१८॥ मोह मिथ्यातइं भव भवइ ए,
हम सोलसइंइक सठा वरसई, बहुत तीरथ वंदिया, कीधा पाप अपार, ते तिकरय सूधा,
परदेस पूरवका अपूरव, भविकजण प्राणंदिया। मिच्छ दूकड़ मुक हिवाए। इम पालोह पाप, जनम सफल करी,
सिरि तेजसार सुसीस मावई, वीर विजय पयंपए, निवादा पथि पाला बल्या ए,
नित पढ़त गुणतां हुवह मंगल, मिलइ नवनिधि संपए॥१॥ विचि इक पटवी बार, कोस मजल पिच,
इति श्रीसम्मेतशिखरचेतपरवारिस्तवन समाप्तं । सुखि बंधी दुख निरादरला ए॥२॥ कमाईदास लिखतं ॥
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किरण १.]
सन्देह कसक हृदयसे आकर मुँह पर छा जाती थी, उसकी है, उसे हमारी ज्योतिष आनती है । कुछ इधर-उधरइस प्रकारकी उदासीनता देखकर रमाशंकर भी के दृष्टान्त दे देकर उनके दिलमें बड़ा भारी दुखी होते थे और उसे हर तरहसे समझाते हुए विश्वास पैदा कर दिया । कुछ बनठनकर पोथी-पन्ने
आजकलके सुपुत्रोंका जो व्यवहार माता पिताओंके उलट.पुलटकर हिसाब-किताब लगाकर बोले-कि साथ हो रहा है, कहते थे कि देखो सुशीला भाज- आपकी मनोकामना पूर्ण होगी। ज्योतिषाचार्यजीके कलको सन्तानसे तो बिना सन्तानके ही भले। वृद्ध हो बचन सुनते ही सुशीला चौकी और सोचने लगी जाने पर सन्तान वालोंकी कितनी दुर्दशा हो जाती कि यह क्या ? बता तो रहे थे हमारे आनेकी बातें, है इसको तुमने सामने ही देखा है कि हमारे और कहने लगे हमारी मनोकामनाएँ। पड़ोसी ला लक्ष्मीचन्द्रका बुढ़ापेमें लड़कोंने क्या सुशीला इस प्रकार सोच ही रही थी, कि यह हाल कर रक्खा है । विवाह हुआ कि बहूको लेकर भापने में उन ज्योतिषीजीको कोई देर नहीं लगी। अलग हो गये। पढ़ा लिखाकर योग्य बना दिये तो तत्काल ही बोले-माप घबड़ायें नहीं, मैं वही बतानौकरी लगने पर दूर चले गये। फिर पूछा भी नहीं ऊँगा जिसके लिए आप आये हैं ? तो फिर आपने कि माँ-बाप कहाँ है। इस प्रकार समझाते रहने पर इस सामने लगे बोर्डको देख ही लिया होगा। पं सुशीलाका हृदय मातृ-स्नेहसे उमड़कर और भी रमाशंकरजी बोले-हाँ, यह लीजिये आप अपने दुखित हो जाता और सांस भरकर कहती कि चाहे प्रश्नके दस रुपये। ज्योतिषाचार्यजी रुपया लेते हुए मेरी सन्तान मुझे कितना ही दुख दे, पर..."" बोले, देखिये पंडितजी पहले बताई कड़वी बातें भी कहते-कहते निराशाके शोक-सागरमें निमग्न हो पीछे अच्छी रहती हैं। कितने ही महानुभाव प्रश्न जाती थी।
तो कितने ही पूछ लेते हैं पर प्रश्नकी फीस देने में सन्तानकी लालसामें जिसने जो-जो बताया परेशान करते हैं, इसलिए कहना पड़ता है। और सुशीलाने सब कुछ किया। न जाने किन-किन देवी- फिर आप तो भले आदमी मालूम पड़ते हैं। देवताओंको पूजा, पीरको पूजा, हनुमानको पूजा; हाँ तो फिर आप सन्तान न होनेके कारण शिव और पार्वतीको मनाया, महावीरजी जाकर दुखी हैं, पर कुछ कहते-कहते सोचमें पड़ गये. भी पूजा की, दर्शन किये सब कुछ किया। पर सब रुक गये, विचारने लगे, कुछ देरके लिए आँखें बन्द ओरसे निराशा ही मिली। किसी देवी-देवतामें की, अंगुलियों पर, स्लेट पर हिसाब-पर-हिसाब शक्ति नहीं निकली जो सन्तान उत्पन्न कर देता। लगाये और सुशीलाका हाथ तथा जन्म-कुण्डली जगके काजी-मुल्ले भगत वगैरह सबका ढोंग दिखाई देखकर बोले-कि आपके तो सन्तानका योग है, देने लगा। धर्ममें इस प्रकारके ढोंगको देखकर परन्तु रमाशंकरजीकी कुण्डलीमें सन्तानका भारी खेद और निराशा हुई।
योग नहीं है। फिर भी आपके सन्तान जरूर होगी। एक बार ऐसा हाकि ये दोनों पति-पत्नी लम्बे श्राप पाठवें दिन पाकर एक तावीज मुझसे ले तिलकधारी ज्योतिषाचार्य पं. बद्रीप्रसादजीके पास
जाँय और फिर उसका विधि-विधान मेरे बताये पहुँचे । उनका हृष्ट-पुष्ट शरीर, चौड़ा माथा और अनुसार कीजिये, सन्तान जरूर होगी। उस पर लम्बा तिलक । आसन जमाये बैठे थे। सुशीला और पं. रमाशंकरजी पांच रुपया इन दोनोंको आता देख समझने में देर नहीं लगी। और ताबीजके देकर घर चले आये, पर उन बड़े आदर-सत्कारके साथ प्रासन दिया। बच्चा ज्योतिषाचार्यजीकी बातोंसे दोनों दिलमें एक भी कोई साथ नहीं था और फिर सुशीलाके बिना दूसरेके प्रति संदेहात्मक भाव उत्पन्न होने लगे। सन्तानके शरीरको भापने में भी कोई देर नहीं लगी, रमाशंकरजी सोचने लगे-मेरे सन्तानका योग फौरन ही समझ गये। पूछा-कहिये, आनन्द तो नहीं है और इसके सन्तानका योग है और सन्तान है अच्छा तो बापने जिस कातके लिए कष्ट किया होगी भी, या क्या है। बड़ी भारी समस्या थी
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३०४]
अनेकान्त
वर्ष १४ जिसने हृदयमें ऐसा घर कर लिया कि निकाजेसे भी ज्योतिषाचार्यजीको समझते देर नहीं लगी कि नहीं निकलती थी।
मेरी मंजिल अपने भाप ही मेरे पास आती जा इधर सुशीलाकी भावनाएँ कुछ और ही और रही है, मेरा कितना अच्छा वैज्ञानिक प्रयोग है। होती जा रही थीं। अब उसे यह विश्वास हो चना मेरे पूज्य गुरुदेवका यह कैसा अनोखा मंत्र है। था कि मेरे पतिदेवमें कुछ न कुछ कमी अवश्य है, फिर मुस्कराते हुये बो -हाँ आप मेरी सारी जिसके कारण सन्तानका योग नहीं है और मेरे बातोंका मतलब तो समझ ही गई हैं। बात यह है सन्तानका योग है आखिर यह क्या है ? एक कि जिस समय आपका विवाह हुश्रा उस समय समस्या उठ कर खड़ी हुई। क्या मुझे सन्तानके आपकी और आपके पतिदेवकी जन्म-कुण्डली लिए दसरा मार्ग अपनाना पड़ेगा? नहीं नहीं, मैं ठीक-ठीक नहीं मिलाई गई। या फिर पं. रमाशंकर ऐसा नहीं कर सकती। पर सन्तान ..."। जीने उस ज्योतिषीको कुछ रुपये देकर आप जैसी
ज्योतिषाचार्यजीने सुशीलाके अनुपम रूपको अप्सराको पानेका पूरा-पूरा प्रयत्न किया, और देख कर अपनी मनोकामना पूरी करनेके लिए सफल हो गए। अब उसमें इतना है कि आपके उसके सामने एक सरल एवं आकर्षक समस्या रख
सन्तानका योग है और आपके पतिदेवके नहीं है, दा थी और यह निश्चय कर लिया था कि यह फिर भी सन्तान अवश्य होगी। इस मामलेको तो सुन्दर चिड़िया चंगुल में जरूर ही फँसेगी । पाठवें आप समझ ही रही होंगी। साथ ही यह ताबीज दिनका इन्तजार था। इस प्रकारको कई घटनाएँ इसमें पूरी-पूरी सहायता करेगा। मैंने इसको कई उनके जीवनमें आ चुकी थीं। वे सोचते थे कितना दिन रातके परिश्रमसे तैयार किया है। इतने हवन अच्छा है ज्योतिषका एक ही नुसखा, जिसमें भोग किसीके ताबीजके तैयार करने में नहीं किये। भी है और पैसा भी।
आइये इसे बांध दूं। ___ आखिर पाठवां दिन आ ही गया मौर सुशीला सुशीला सब कुछ भले प्रकार समझ गई थी। भी सज-धज कर ताबीज लेने ज्योतिषाचार्यके पास सन्तानकी लालसा न जाने उसे किस अनजाने पथ चल दी, क्योंकि आजकी नारी अपने अंग-प्रत्यंगोंको पर ले जाना चाह रही थी। वह क्या करे ? क्या न सजा कर दूसरोंको दिखानेमें ही आनन्दका अनुभव करे ? कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था। करती है। उसे इस प्रकार देख कर ज्योतिषाचार्य- उसकी भावना और विचारोंमें द्वन्द्व मचा हुआ को सारी कल्पनाएँ साकार नजर आने लगीं। आज था। कुछ निर्णय न करनेके बाद भी उसने अपनी उनके मन में उमंग थी और भविष्यकी कल्पनाएँ बांह ज्योतिषाचार्यजीकी ओर बढ़ा दी और ताबीज आनन्दातिरेक पैदा कर रही थीं। सोचने लगे- बंधवा लिया। देखो नारीमें सन्तानको पैदा करनेकी इच्छा कितनी ताबीज बंधवानेके बाद बोली-ज्योतिषी जी! बलवती होती है। सन्तानके लिए वह सब कुछ यह ताबीज क्या करेगा! ताबीज कहीं सन्तान पैदा कर सकती है, यहाँ तक कि.........।
कर सकता है ? यह तो सब आप लोगोंका पैसा सशीलाको देख कर सल्लासके साथ ज्योतिषीजी बटोरनेका ढंग है । लोगोंको फुसलानेका आपके बोले-५० रमाशंकरजी नहीं पाए आप अकेली पास अच्छा तरीका है। ही आई हैं।हाँ, मैं अकेली ही आई हूँ, कार्य-वश ज्योतिषाचार्यजी बोले-तो फिर आपके वे कहीं बाहर चले गये हैं। उस दिन मैं आपकी सामने एक वही रास्ता है, जिस पर आप अब तक बातोंको स्पष्ट रूपसे नहीं समझ पाई थी। ऐसा निर्णय नहीं कर पा रही हैं। अगर आपको संतानमालूम पड़ता था मानो श्राप कहना तो चाहते थे से मोह है तो इस रास्तेको अपनाना ही पड़ेगा। कुछ और, कह कुछ और ही रहे थे। मेरे विचारों- वरना आपके सन्तान नहीं हो सकती। में उस दिनसे बड़ी उथल-पुथल मच रही है। सुशीला बिना सब कहे सुने ही वहाँसे चल
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किरण १०
[३०५ दी। दिन-रात उसके विचारोंमें उन ज्योतिषाचार्य को गम्भीरतासे देख रही थी और उनकी उदासीजीके शब्द गूंजते रहते कि 'अगर आपको सन्तान- नताको समझ रही थी। उसका कारण भी उसकी से मोह है तो यह रास्ता अपनाना ही पड़ेगा, वरना दृष्टि से दूर नहीं था। उसका भी दिल पतिदेवसे सन्तान नहीं हो सकती। उस दिन घर देरसे पहुँचने दूर-दूर रहने लगा था इसीलिये उसने उन्हें मनानेपर पतिदेवने टोक ही दिया कि इतनी देर कहाँ की भी कोई चेष्टा नहीं की । दूसरे वह ऐसा करती लगाई?
भी क्यों ? क्योंकि पहले वह नाममात्रको भी रूठती . सुशीला उनके इस कौतुहलपूर्ण प्रश्नको सनकर थी तो उसके पतिदेव उसे मना लिया करते थे । चौकी और बातको बनाते हुए बोली-यही पडोसमें फिर आज वह कैसे उस नियमको भंग कर दे ला० लक्ष्मीचंदके यहाँ गई थी। बात कुछ टल गई। दिन पर दिन बीतते गये । एक दिन सुशीलाका पर थोड़ी देर बाद ही उसकी बाह पर बन्धे ताबाज भाई पाया अपनी बहिनकी बिदा करानेके लिये। पर उनकी दृष्टि गई तो सन्न रह गये। उनको यह परमाशंकरजीने पहले जैसा हंसी-खुशीक साथ समझने में देर नहीं लगी कि यह ज्योतिष के यहाँ उसके प्रति वर्ताव करना चाहा, बहुत कोशिश की गई थी और मुझे धोखा दे रही है, कहती है पड़ोस लेकिन सन्देहने उमंगको नष्ट कर दिया था। फिर में गई थी। तूफान पर तूफान उठने लगे और भी उनका साला उनकी आन्तरिक चेष्टाओंका न सुशीलाके प्रति घृणा पैदा हो चलो। वे उद्विग्न रहने
पढ़ सका। दो तीन दिन रहनेके बाद उसने पं. लगे और हंसीका स्थान सन्देहने ले लिया। जीके आगे सुशोलाको लिवा जानेका प्रस्ताव रखा।
सुशीलासे अब कोई बातचीत भी करता था तो जहाँ पहले पं० जीने आजतक उसे भेजनेमें मनाई उनको सन्देह दिखाई देता था। उसका किसीके नहीं की, ससुरालकी बातको टाला नहीं, वहाँ आज साथ हंसना तो विष ही घोल देता था और श्रृंगार बोले-मि० जगदीशजी, इस समय कुछ ऐसी बातें करना तो बुरी तरह खटकने लगा था। जहां पहले हैं जिनकी वजहसे मैं भेज नहीं सकता। वैसे मैने वे सुशीलाको घुमाने बाजार ले जाते थे, नई-नई जीवनमें आजतक कभी आपको मना नहीं किया, फैशनेबुल चीजें पहना पहना कर, और बिना उसके पर मुझे दुख है कि इस समय नहीं भेज सकता। कहे ही सब चीजें लाते रहते थे यह सोचकर कि
सुशीला रसोईघरमें बैठी यह सब कुछ सुन यह कहीं दिलमें यह न सोचे कि ये मुझसे प्यार नहीं करते अर्थात उसके मनका बहलाव नाना
रही थी। कहते हैं कुछ ऐसी बातें हैं,' चोटीस पैरों प्रकारसे करते रहते थे। सिनेमा ले जाते थे हर
___ तक आग लग गई। बेलना कहीं और अंगीठी कहीं रविवारको। वहाँ आज शृंगारकी चीजें समाप्त हो
: पटक दी और फौरन ही कमरेमें पहुंची जहाँ
उसका भाई और पं० रमाशंकरजी थे । भौहें गई हैं। सुशीलाके कहने पर भी वे नहीं लाई जा रही
चढ़ाकर और चिल्लाकर बोली-उसकी वाणीमें हैं। सिनेमा उनकी दृष्टि में पतन करने वाला सिद्ध
गौरव था, स्वाभिमान था। आज वह अपनेको नष्ट हो गया है और तिलकधारी ज्योतिषियोंके तो नामसे
करके सदाके लिये सुखी होना चाहती थी। उसके ही घृणा हो गई है। कभी-कभी तो वे यहां तक रूपको देखकर ही लोगोंने महाकालीका रूप बनाया सोचते कि अगर मेरे हाथमें राजसत्ता हो जावे तो होगा ऐसा प्रतीत होता था । बोली-क्या कहते मैं सबसे पहले इन दुराचारी पाखण्डी ज्योतिषियों
हो-'इस समय कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी वजहसे को जेलोंमें बन्द कर द' और उन साधुओंको भी,
भेज नहीं सकता।' वे कौन-कौन सी बातें हैं खोलते जो हमारी माता-बहिनोंको सन्तानकी लालसामें
क्यों नहीं, उबले-उबलेसे रहते हो, एक दिन मुझे फुसलाकर पतित करते रहते हैं।
मारही डालो इस तरहसे क्या होगा । इतना सुशीला भी अपने पतिदेवकी इन सारी क्रियाओं- कहते-कहते जोर-जोरसे रोने लगी।
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३०६] बनेकान्त
[वर्ष १४ पं. रमाशंकरजी उसकी इन हरकतोंको एक दिन पं० रमाशंकरजी कोई नई चीज खाने देखकर बोले-कि यह सब त्रिया-चरित्र है, को लाये. लाकर रख दी। चीज रक्खी थी पर बा० जगदीशजी, अगर आप इन बातोंको ही पूछना कोई भी एक दसरेसे न कह सका कि आप खाइये ? चाहते हैं तो सुनें, मैं आज स्पष्ट रूपसे आपसे कह मनमें दोनोंके आ रही थी, पर पहले कहे क देना चाहता हूं इसके ऊपर उस ज्योतिषीकी बातोंका दोनों कभी मुस्करा जाते थे, कभी-कभी आंखोंसे पूरा-पूरा असर हो गया है, उसने कहा था कि आँखें भी मिल जाती थीं। जब सुशीला अपने 'तुम्हारे तो सन्तानका योग है और इनके नहीं है, आंचलसे अपने मुँहको ढक लेती, तब रमाशंकरपर तुम्हारे होगी जरूर' एक ताबीज ले जाना, बस जीको एक अदभुत ही आनन्द आता था मानो वे उस दिनसे ही इसमें इतना परिवर्तन हो गया कि क्षण उन दोनोंको सुहागरातकी याद दिला रहे थे। क्या पूछते हो? आठवें दिन यह उस ज्योतिषीके।
आखिर सुशीलाने उसमें से एक ग्रास रमाशंकरयहाँ गई और बहुत देर में आई । मैने पूछा-कहाँ गई थीं तो बोली कि यहीं पड़ोसमें गई थी। मैंने
जीके मुँहमें दिया और वे बिना आनाकानी किये इसके बाजू पर ताबीज बँधा देखा, दूसरे मैंने थोड़ी
ही खा गये फिर तुरत ही उन्होंने सुशीलाको देर बाद ला० लक्ष्मीचन्दजीके यहाँ भी पूछा, पता
खिलाया । फिर क्या था बोलचाल प्रारम्भ हो गई।
उस दिन इतनी लाड़-प्यारकी बातें हुई मानो पिछले लगा कि यहाँ तो आज आई नहीं है और फिर उस
महीनोंकी कमी पूरी कर रहे हों। दिनसे क्या कहू, घरका सारा काम ही ऊटपटांग करती है।
___ उस दिनसे दोनोंका जीवन पहलेसे भी अधिक सुशीला रोती ही रही और अपनी इस भूलपर
- सुखमय हो गया। नरक स्वर्ग बन गया था और पछताती रही कि मैं ज्योतिषीके पास इनको लेकर
भूला पंछी फिर लौट कर अपने घरको पाकर खुश क्यों नहीं गई ? उसका भाई बिना कुछ कहे सुने
हो रहा था। थैला हाथमें लेकर चला गया। अधिक देर तक वह
____ तभी सुना कि एक बहुत ही होशियार लेडी इन बातोंको सहन नहीं कर सका और न वास्तवि
डाक्टर यहाँक सरोजिनी नायडू अस्पतालमें आई कता समझ ही सका कि आखिर सत्य क्या है?
है। उसने कितने ही सन्तान-हीन मां-बहिनोंके छः महीनेका समय इसी प्रकार बीत गया, प्रसिद्धि बढ चकी थी।
सन्तान कर दी है। दूर-दूरसे लोग आने लगे। न कोई हँसी थी और न कोई किसी प्रकारकी चहल
रमाशंकरजीने भी सुना और अपनी सुशीलाको पहल । पर अन्दर-ही-अन्दर दोनों परस्पर मिलाप- के
लेकर अस्पताल पहुंच गए । लेडी डाक्टरने सारी के लिए उत्सुक हो रहे थे । पहले कौन आगे
देखभाल की दवाएं दी और दो तीन महीनोंके बाद आये, यह समस्या थी । पं० रमाशंकर तो यह सोचते थे कि यह मनाये, क्योंकि मैं इसका पति
ही सुशीलाकी जीवन अभिलाषा बीजरूपमें अंकुरित हूं और फिर इसकी गलती है। और सुशीला यह
हो गई। माँ बननेके लक्षण उसमें आ चुके थे। सोचती थी कि ये पहन मनायें. क्योंकि उन्होंने मेरे सुशीलाने अपरिमित खुशी लेकर रमाशंकरजी ऊपर झूठा सन्देह मनमें जमा रक्खा था इसलिये से कहा तो उनकी खुशीका भी ठिकाना न रहा। इनकी गलती है और फिर ये सदा मुझे मनाते आये
आज उन दोनोंके दिलसे वह सन्देह दूर हो हैं। पर समस्या हल नहीं हो पा रही थी। चुका था।
अनेकान्सकी आगामी किरण संयुक्त होगी ग्रीष्मावकाशके कारण वीरसेवामन्दिरके विद्वान् पाहिर रहनेसे 1वी किरण जूनमासमें प्रकाशित नहीं हो सकेगी। किन्तु वह जुलाईमें १२वीं किरणके साथ संयुक्त रूपले प्रकाशित होगी। अतएव पाठक नोट कर लेवे और धैर्यके साथ अगली संयुक्त किरणको प्रतीक्षा करें।
-व्यवस्थापक अनेकान्त
सय जनाको परिवार को करेगी।
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
एमाइ बहु वणिय-कुज भूरे दिवसंति, जिण-पूय-उच्छव सुदाणाई ववसति । हिम्मलु कुखुम्भूय जुबईड जियहम्मि, कर पूय संजुति कय जंति सुहकम्मि । तं यह को वरणणेई सुकालो,
सुरगुरु वि वगणंतु संदेह मह होइ । तहि पट्टणि अरिदल वणि जिण-पय-पयरुह भमरणिहु । बुद्धिए मेहव थिरुसहजपालणिरुपयरवालकुल गयाविहु
तहु पंदणु मुणियण-पायभत्तु, विहलियजणासपूरण सुसत्तु । संघाहि सहएव जि पसिबु. पउविह-खधहं चाए सणिन्द्र । णियकुल-कुवलय-अरुणीस-तुल्लु, पर-उवयारहं जो मणि अमुल्लु । काराविवि जिणाहु पइट जेण, लच्छिहिं फलु गिरिहड मुहमणेश । तिस्थयरु गोत्तु दुल्लहु बिबु, महिमंडल शिम्मलु सुजस लड । तोसउ पामें तहु लहु बंधु, सस्थस्थ-कुसल जो सध्वसंधु । जियाचरणकमल-गंधोवएण, तणु सिंचिवि कलिमलु हणिड जेण । संसार-महावय-णासणाई, पविहियइ जेण सुह-भावणाई । सग-वसण-तिमिर-घण-चंडरोइ, जिणधम्म-धुरंधरु एत्थु लोह। सम्मत्त रयण-भूसिय-णियंगु, जे पालिउ सावय-वय अभगु । बुहयण-जणाण जो भत्तिवंतु, बहु सील-सउच्चे श्रइमहंतु । दाणेण गुणेण । अइपवीणु, धम्मामएण जल चित्तु लीणु।
आजाही पिययम-सुह-णिहाण,
वणिवर विंदहं लद्माणु । तहुँ पुष तहो भम्बहुँ वियलिय गम्वहुँ णामु चढावहि कम्युणिक जेम जि कालंतरि, इह भरहंतरि परिवहई मोतं जि चिरु
जहं पयपास-जिणेदह केरड, चरिउ रइड बहु सुक्ख जोरउ । पुणु मेहेसर चमुबइ चरित्रं, लोय पयासिउ बहुरस-मरिडं। खेमसीह वणिणाहहु थामें, किं पई पूरिब चित्तहु कामें। पुणु तेसट्टि पुरिस-रयणायरु, पवर महापुराणु महसायरु । कुथु यास विरणतिषसे जिहं, पई विरयडं पुणु भो पंरिय तिह। सिद्धचक्कविहिं पुणु जि पउत्ती, हरसीसाहु णि मत्त शिरुत्ती। पुणु.बलइह-चरि सुक्खासिङ, तहेव सुदसण-सीलकहासिङ । धणयकुमार-पमुह बहु परियई, जिह पय विहियई भूरिरस-मरियई। सिंह कर वड्ढमाण जिणणाहहु, चरि जि केवलणाण पवाहहु । महु वयणे तोसउहु णिमित्, चयहिं तंदु मणि विहिय ममति । तं णिसुणिवि हरसिंहहु पुत्त, खण-भंगुर-संपार-विरत। गुरु पथ-कमल-हत्य धारेप्पिणु, काणा बोलिउ ता पवेप्पिणु । हउं तुच्छमई कम्वु किह कीरमि, विणु घलेग किम रणहि धीरमि । गोपायरिणय वायरण तक्क, सिदत चरिय पाहुड प्रवक्क । सुडायम परम पुराण गंथ, माणप-ससय-तम-तिमिर-मंथ । किह कम्बु रयमि गुण-गण-समुद्र, को उग्घाई जिण-समय-मुह । अम्हारिसेहि णिय घर कईहि, बुह-कुलह मजिम उज्मिय-मईहिं । णामस्स वि धारणि गहशु मम्बु, भो किंकीरिज्जइंचार कम्यु।
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३०८]
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चउमुह
ता सूरि भाइ सुकिलाम भो रयधू विस्वय बंद गाम । बुद्धि रंगिथिए समुह, मिच्दावाद भयवर रद्द इस परियाणिवि मा होहिं मंदु, अराएं थुज्जिड ति- जयवंदु । या सुकद भराई भो धम्म नाय, दुल्लंघणिज्जमहु तुम्ह वाय । दो सुख सयंभुकद्द, पुण्फयंतु पुच बीर भड ते गाणदुमणि उज्जोययरा, हउं दीवोवसु होण-गुलु ॥६॥ पुग्नु विहप्पिणु सूरि पपई, एह चितर्माणि मावद्दि संपई । जग्गे पहल गयु सनई, ताम उरु किं खिय कमु वज्जई । जइ सुरतरु इच्छिय फल अप्पई, ता कि इयरु चयइं फल संपई । जहं रवि किरहि तमभर खंडह ताजोट सप किं । जय मलयाणिलु भुवा वहु वासई, ताकि इयरु म वह स सई । जसु मह पसरु अरिथ इह जेराउ, दोसु यन्थि सो पथ तेठ । इय शिसुविवि जस मुबिहु पचोरा, कइया ता मरियडं विरुत्तरं । करयाहि मह कहतु जि जामहि, हुव दुग्न सक्कमयि तामहिं ।
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पवणासणुध्व दुज्जया -दुरासु, अवगरिवि भव्वहं पूर आस । उ किन मथि भउं किंपि ताहं, सेटं ययारिय थिरका । अइ खल सबंक अंकुस ए होंत, ता बुद्द गइंद यो सज्झ ठंत । कम्युरो विड्ढा गुण कहहु होइ । जं विदिया गिम्मिय खल चलज, बहु उवयारु जि विहिय सज्ज । ता कइया सुहमद मंदिरे, दुम्मा-कपलीयरे परिवार तेथ आरंभिडं सच्छ जि सुद्द दिशेण ।
अमिय तियालाद्दिल विमिन मुखिया संजीव जायमित्त ।
पर्याय केवलु जगि वड्ढमाणु, वंदेवि चरमजिणु वड्ढमाणु तहु चरिउं भणमि पय कियइ मोह,
अन्य विभत्तिए सोह खेभ पयज्ज पुण्य करेमि ह तुरिया ।
जाता बहू
अग्गेण श्रासि विहिय तिगुण- भरिया ॥ ११ ॥
पर-गुण दोस- करण-गयतंदा, सासु सति व्यविमेदा
अन्तिम भाग :
यात अहित कुप्प खीर विविधि विसु अप्पई । अमिय को विजिइ सिंच, कडवत्तणु तो वि या मुच ।
सो
जं या वह ण सुविज्जइ, मणि य मुणिज्जई
दालंकारेश्रणेय, वहंगमा जि पह अमुते मई एहु विरुत्तउं, चिरि पविच । तं गुथिया मधु दोन समि अरिंहीयाहि सोहिज्जहु । यंद वड्डमारा जि-सास बंदउ गुण-रण तरच पयास । कालिका देव ज
यादि सच्च वियहं पुखु यया ।
हिन्दूरि सो रिस
तं पचि पहि दुज्जण, णिच्च मलिय
मालविया ॥ १० ॥ त्यंतर या विडिय ता
गुरु मास पंडिय जया ।
अनेकान्त
[ वर्ष १४
भप्रसंगें महरंदरोई, किं वच्य विम्मल दिति हो । परदोस विवर मुह लक्खु, परम सकुटिल गह दुल
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किरण १.]
जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३०॥
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शंदउ राणउ जीवियाणउं,
रूचे ण सरु, कंतिय समहरु, पय पुणु णंदउ पाउ-णिकंदछ ।
सच्छिहि श्रायरु, णावइ सायरु, सावय वग्गुवि पुण्या समग्गुवि,
कर करवाले, अरि-खय काले।
तोमर वंसहु, ति-जय-पसंसहु, घरि घरि वीयराउ अंचिज्जउ,
उज्जोयणयरु, कुल संतय धरु । मिच्छातम भरु भम्वहं खिज्जउं ।
णामें डोगरु, भरि-यण-खयया, मुणि जसकित्तिहु सिस्स गुणायर,
तासु जि रज्जर्हि, मह हिरवजहि । खेमचंदु हरिसेगु तवायरु ।
जिणहरि ठते, सुहमहवते । मुणि तह पाल्हबंभुए गदहु,
विरयड कम्वे, एहु जि भन्वे । तिणि वि पाबहु भारु णिकंदहु ।
पुग्वायरियहि, पट्टि गुणायरु, देवराय संघाहिव णंदणु,
मणुकमेण संठिउ, वयसायरु । हरिसिंघु बुहयणं कुल-आणंदणु ।
मिछत्त-तिमिर हरु णाई सुहायरु, आयमत्थहरु तव-णिलउं पोमावइ-कुल-कमल-दिवायरु,
णामेण पयडु जणि देवसेणु गणि, संजायउ चिरु बुह-तिलडं सो वि सुणंदड एन्थु जसायरु । जस्म घरिज रइधू बुहु जायउ,
तासु पट्टि णिरुवम गुण-मंदिरु, देव-सस्थ-गुरु-पय-अणुरायड ।
पिच भग्वजय-चित्ताणंदिरु। चरिउ एहु णंदउ चिर भूयलि,
विमन मई केडिय मल-सगमु, पाहिज्जंतु पवह इह कलि ।
विमलसेणु णामें रिमि-पुंगमु । पता-गोवगिरि दुग्गहि, खय असि गार्हि, सुक्खयरे ।
वत्यु-सरूव धम्म-धुर धारलं, गोउर चदारहिं, तोरण-फारहिं. बुहयण-मण-संतोस-यरे।२८
दह-विह-धम्मु भुवणि वित्थारट । भयलिह मेहहिं, जिणवर गेहहिं,
वय-तव-पील-गुणिहि जे सारड, मणिगण चंदिरि, गययाणंदिरि।
वज्मभंतर संग-शिवारउ । जिण पुज्जिज्जह धम्म सुणिज्य
धम्मसेणु मुणि भवसर तारउं, गिच्च जि जत्यहि, यक्क प्रवत्यहि ।
............। तउ ता विज्जइं भव-मलु-खिज्जई,
भावसेणुपु णु भाविय णिय-गुणु, जहं पुणु घरि घरि, धण कंचण भरि ।
दमण-णाण-चरण तहं चेयणु । मंगल गिज्जहि, उच्छह किजहि,
दोविह तविण जेण ताविउ तणु, सावप लोयहि, मणहु पमोयहि ।
धम्मामइं पोसिउ भम्वहं गणु। तिविहहं पत्तह, गुण-गण-जुत्तहं,
मूलुसर-गुणेहिं जो पावणु, दाणई दिज्जहि, पुण्णइं लिजहि ।
सुखप्पहु सरूउ संभावणु। घरि घरि सहसणु, भाविज्जई मयु,
कम्म-कलंक-पंक-सोसण इणु, तसु भावणइ, कम्म-मलु-खिज्जई।
सहसकित्ति उब्बासिय-भव-वणु। आवणि भावणि, वर कंचव मणि,
तासु पहि उदयहि-दिवायरु, विक्कहिं वणिवर, रूवें जियसर ।
बज्मभंतर-तव-कय-प्रायस् । करि-वर-दाणे, जहिं अप्पाणे,
बुहयण-साथ-प्रत्य-चिंतामणि, पंथई सित्तई, अलि पासत्ताई।
सिरि गुर्णाकत्ति-सूरि पायउ जणि । दह दिस धाविय, काय य पाविय,
तहु सिंहासणि मिहरि परिट्रिड, तहं पुह-ईसरु, थाह सुरेसरु ।
मुत्ति-रमणि राएणोक्कंठिट।
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३१.]
अनेकान्त
[वर्ष १४
सुजस पसर वासिय दिव्वापउं,
सहजपाल पढमउं जयवल्लहु, सिरि जमकित्ति णाम दिन्वामउं ।
तेजू इयरु विबुहजण दुल्लहु । तहु प्रासणि गुण-गण-मणि-सायरु,
णिम्वम-स्व-मील-वय-सज्जा, पवयणत्थ-अब्भासण-सायरु ।
झामेही य पढमिल्लहु भज्जा। दो-विह-तव-तावें तवियंगो,
पुरिस-रयण-उप्पायण-खाणी, भन्च कमल-वण-बोह-पयंगो।
सच्चित्त जि परहुव-सम वाणी। बज्झम्भतर-मंग-अमंगो,
तह उवरि उवण्णा लक्खण-पुण्णा छह णंदण पाणंद-भरा । जें दुज्जउ णिज्जियउ अणगो।
णं जिणवर भासिया दन्व सुहासिया, णं रस छह जण पोस-भरा ॥ पुब्वायरियहं मग्ग पयामणि,
ताहँ पढमु वर-कित्ति-लयाहरु, सच्चेयण मउरंदुव णिरु जणि ।
दुहिय जणाण दुक्ख धण खययरु । णिग्गथुवि अत्यहं संजुत्तउ,
दागुण्णय-करु णं सुरकरि-करु, सत्थाणवि इयरहं परिचत्तउ ।
परिवारहु पोमणि सुर भूरुहु । छंद-तक्क-वायरणहिं वाइय,
जिण-पूयाविहि-करण-पुरंदर, जिणि निणि विस-सिक्खा दाविय ।
णियकुल मंदिर बहु साहायरु । उत्तम-खम-वासेण अमंदउं,
भूरि दम्वु ववसाएं अजिवि, मलयाकत्ति रिमिवरु चिर णदउँ ।
लच्छि सहाउं चवलु पडिजिवि । तहो वर पट्ट वइरिउंइ अजनमु,
जिणणाहहु पइट्ठ काराविवि, धरिय चरित्तायरणु स-मंजमु ।
मण-इछिय दाणइ बहु दाविवि । गुरु-गुणयण-मणि-पाइय-भूसणु,
तिन्थयरत्त-गोत्तु जि बद्धर, वयण-पउत्ति-जणिय-जण-तूपणु ।
संघाहिउ सहदेउ जसद्धउ । कय-कामाइय-दोस विमज्जणु,
धामाहिय तहु भामिणि भामिय, दंसिय माण-महागय तज्जणु ।
जिणदासहु सुर्वण हाथिय । भवियण मण-उप्पाइय-बोहणु,
कुमरपाल हिय जिरणदामहु पिय, मिरि गुग्णभद्द महारिस साहणु ।
कहु उवमिजात सोलहु पिय । धत्ता-यह मुणिविदह भवतम-चंदहं पय-कमलहं जे भत्त हुया
झाझगु झाइय जिण-पय-कमल, ताई जिणामावलि पयडमि भूयलि, वंदिगणहिं जा णिच्च थुया
पढमउं बीयउं तीयउ अमल । णिय जस-पसर-दिसा मुह-वामिय,
वच्छराज साभृणा माल, वर-हिंसार-पट्टहि णिवासिय ।
तिषिण पुत्त हुय नाहं गुणाल । अयरवाल कुल-कमल दिवायर,
सहजपाल सुउ बीयउ पुणु हूयउ, छीनमु गयनमु विमलजसु गोयल गोनि पयउ णियमायर ।
दुहियह दुख-खंडणु णि यकुलमंडगु गुण-वण्णणिको ईसु तसु।२३ प्रासि पुरिस जे अगणिय जाया (यड),
तहु पिया विम गुण सील अतुल्ली, ताह जि किं वरणम्मि विक्खायउ ।
जायण-जण अामा तर-वल्ली। जिण-पय-पकयाहें शिरु कप्पड,
खिउ धरली अहिहाणे साहिलं, परियाणिउ सचित्ति परमप्पउ ।
ताहि गब्भि हुउं पुन गुणाहिउँ । जाल्हे णाम साहु चिरु वुत्तउं,
छह पमाण भूलि मु-पमाणिय, पुन जुयलु तहु हुवउ णिरुत्त।
गुग्यण जेहि णिच्च सम्माणिय । सह जोन्मण गुण मणिरयणायर,
वणिवर-थहं जो मुक्खेमरु, तिविह पत्तदाणेण कयायरु ।
वीयराय-पय-पंकय-महुयरु ।
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किरण १.]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३११
वीरदे पढमउं गुणमंदिर, दागुण्णय करु जो जगि सुदरु । बीयउं हेमाहे भुव दुल्लहु, णिय-परियण-जणम्मि अइवल्लहु । लउदिउणामें भामिड तइयउं, देव-मन्थ-गुरु-पाय-विणीयर्ड । रूपा रूवें जिम मयरद्धलं, जे हिम्मलु जसु महियलु लद्धउं । अन्थि थिरा पंचमु धर्मम्गो, णिच्च विहिय बुहयण-जण-संगो। गिरणारहु जत्तहं मघाहिउं, चरविह सधभारु णिवाहउ । छहउ जाला मुवणिय जाणणु, परिवारहु भत्तउ मलाणणु । सहजपाल गंदणु पुग्णु तीयउं, जिण मामण वि जण मणि भाविउ । मणछिय-दायण-चितामणि खेमद णामें विक्वायर जणि । भीम्बुहीय तहो पिययम-सारी, पुन च उहि मोहा-धारी। पढम पुन खना खेमकरु, बीयउ चाचा चाणं मुंदर । ठाकुरु णाम तीयउं णंदणु,
भोजा चउथउ जण पाणंदणु । सहजपाल सुसं तुरिउ पुग्णु हुउं, डाला णामें पीण भुउं । श्राभाहिय तहु पिया णं रामहु मिया चारिपुत्त मंजाय धुउं ॥३३
जिण देव-भत्तु दृढणु गरिठ्ठ, परियार भत्तु दरवेसु सिट्ठ संख णामें तिय सपुगणु. जासा चउन्ध णं दाण-कराणु । पुणु महजपाल सुउ पचमिल्लु, थील्हा गामें बहु-गुण-गरिल्लु । केमा हिय भामिय तहु कलत्त, तहु तिरिण पुत्त जाया पवित्त । पहराजु पसिद्धउ मज्म लोइं. चविहदाणे भो भव जोई। हरिराजु जि पडिय गुण-पहाणु, छक्कम्म-रत्तु गुण-गया-णिहाणु ।
जगमीहु जयम्मि मई पहाणु, णिय-कुल-कमलस्स वियास-भाणु । सिरि सहजपाल सुउ भणिउ छट्ट, संसार-महण्णव-पडश भटु । सग-वसण-विरत्तउं धम्मि रत्त, पालियउं जेण मावय-चरित्त । गेहम्मि वसंति अइ पवित्त, धणु अजिजउ जिं दाणहु णिमित्त । तोसउ णामें तोमिय जणोह. आजाही तह पिय जणिय मोह । णं कुलहर-कमल-निवास-लच्छि, सुर-मिधुर-गामिणि दीहरच्छि । सुर वल्लि व परियण-पोसयारि, जुबई-यण सयलहं मजिक सारि । दाणि पीणिय णिरु तिविह पत्त, मह मील पइन्वय णाह-भत्त । तहिं गम्भि समुभव पुत्त दुरिण, ण महिं पयरवउं वर्ड य विरिण । जेण्हु सण-रग्रणहु करंदु, कुल-कमल-वियासण-किरण चंड। खेल्हण गामें गुणसेण मंड, मिच्छत्त सिहरि-सिर-वज्ज-दंड । कुरुखत्त दमवासिय पवित्त, सावय-वय पालणा-विमल-चित्त । जिण-पूयाइवि-छक्कम्म रत्त, परिवारहु मडग गुण-णिउत्त । जिण-धम्म-धुरंधर एल्थु लोई, तहं गुण को बरगाण सक्कु होह । सहजा माहहि पमह जि रवणु, भायर चउक्कजङ पुणु वि अण्णु । मिरि सट्टिवम उप्पण्णु धम्मु, तेजा माह जि णामें पमण्णु । तहु पिय जालपहि य वरणगीय, परिवार-भत्त मीण सीय। नहि गम्भि उवएण। सुव मपुरिण, राजाय पालु ढाका जि निरिण। तुरिया वि पुत्तिजा पुण्णमुत्ति, पिच्च जि विरहय जिमशाह-भत्ति।
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३१२]
खीमीयामा वरसीन थत्त, को कई वरण तहि गुणहं कित्ति। सा परिणिय तेण गुणायरेण, बहुकालें जं तें सायरेण । शिय भायर णंदण गुण णिउत्त, मागेप्पिणु गिरिहढं कमलवत । हेमा णामें परिवार-भत्त, तहो धरहो भारु देप्पिणु विरतु । विसयहं सुह मणिवि दुह-णिमित्त,
अनेकान्त
वर्ष १४ सीलें सोहग्गे सिय-समाणु, णिरु पत्तह चउविह देय दाणु । तहिं णंदण हुया विरिण सज्ज, झांडू भोजा णामें मणोज्ज । पंच जि भायरहं वि अण्ण सूय,
जाल्ही वीरो पमुहाइ हूय । इहु परियणु वुत्तउं, मजम पबित्तउं, जा कणयायलु सूर ससि । जावहि महिमंडलु, दिवि मारलु,णंदउ तावहिं सजसबसि ॥३५
इय-सम्मा-जिण-चरिए, शिरुवम-संवेय-रयण-संभरिए, परचउवग्गपयासे, बुहयण-चित्तस्स जणिय-उल्लासे, सिरिपंडिय-रइधू-विरहए, साहु सहजपालु-सुय सिरि संघाहिव सहएव-बहुय-भायर-महाभम्व-तोसउ-साहुणाम-णामकियकालचक्क तहेव दायारस्स वसणिस-वएणणो णाम दहमो संधी परिच्छेत्रो समत्तो । मंधि लिखितं पांडे केसा॥
वि० सं०१६०० प्रति सिद्धान्त भवन, पारा, नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली।
जिण-वय-धारण-उक्कंठएण, संसारु अमारउं मुणिमणेण । जगणो जणणुवि परिवार-लोउं, सयलहं वि समावणु करिवि सोडं अप्पगु वि खमेप्पिणु तक्खणेण, जिणवेसु धरिउं पीसल्लएण। जसकित्ति मुशिंदहु गविवि पाय, अणुवय धारिय ते विगय-माय । तोसउ णंदणु दिवराज अण्णु, साधाहिय पिय गेहें पसगा। परिवार-भत्तु गुणसेणि-जुत्तु, णिय-वय-गयण-उज्जोइ-मित्तु । सच्चावभासि सञ्चयलीणु, जिणधम्म कम्मु कारण पवीण। तहु णंदणु जाया दुरिण वीरू, जिणधम्म धुरंधर गुण-गहीरु। चंदुग्व कलायरु सिहरुचंदु, पढमउं सज्जणजणइं अणंदु। बीयर्ड पुणु गामें मल्लिदास, वीसेगूणह जियवरहुँ दास । तोस हु पुत्ति तुणु विरिण जाय, जियधम्म-कम्मि रय विगय-माय । जेठी गामें जीवो जि उत्त, जिण-पय-गंधोवह णिच्च सित्त। वय-बियम-सील-पालव-सममा, जिण-समयहुभरु धरणि प्रभग्ग । लहुरी पामें सेल्ही पवित, वि परिवार जा गिन्ध भत्त।
३६ सुकोसल चरिउ रचनाकाल सं० १४६६ (सुकोशल चरित्र) पंडित रइधू
आदिभागजिणवर-मुणिविंदहु थुव-सय-इंदहु चरण-जुवलु पणवेवि तहो कलिमल-दुहनासणु सुहयण-सासणु चरिउ भणमि सुकोसलहो
तिहु मेय पसिद्ध जि भुवणि सिद्ध, णिकल तहसयल विसह-रिद । वसुगुण-समिद्ध वसुकम्म-मुक्क, वसुमी वसुहहिं जे णिच्च थक्क । परमाणंदालय अप्पलीण, उप्पत्ति-अरा-मरण-त्ति-हीण । वर हाणमए गरसेण सिच्च, ते णिक्कल सिद्ध गवेवि णिच्च । जे पायइं कम्म विपासणेण, महि विहरहिं केवल-जोयणेण । भड पारिहेर अइसय सु-सोह, भावस्थि विभासणि भवणिरोह । अहि-गर-सुर-वाणा णमिय-पाय, सन्वहं हिय मागहि जाह वाय । ते सकल सिद्ध तहं पुणु णवेवि पुणु वारसंग सुय पथ सरेवि ।
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जैनमन्थ-अशस्तिसंग्रह
किरण १० ] जिस-यय-निगग्गड वगण-पिंड, तं सह सिद्ध भाइवि प्रखंड | एसिद्ध तिविह पणविवि गिरोह, मिच्छत-माय-विलय सीह वह गयर सामिय सुद गहू गामिय भव-सर सोस-दिवेसर जे सन्त सतसय पयडिय महिदय, तेवयय हियं विहय सर ॥१
तुम भोमि हर पे तं करविज्जु अवसु दुह-खासखु । ज पर रोमि 'जिगिदहु केरउ, चरिउ र बहु सुक्खायेर । अवि पासहु चरिउपपासित खेऊ साहु सिमित सुद्दासिउ ।
ते पण विधि बहु मचिए गाहर, साहं पट्टि पुछ जे हुब मुखिवर | विजयसेर पमुहाय गुणायर,
बलहहहु पुराण पुणु तीयउ, शियम अराएं परं कीयठ । हु सुकोसल चरिउ सुरु, विरयहि भव-सय- दुक्ख-खयंकरु । तं सुणिवि हरसिंघहु णंद,
श्रयम-सत्थ-प्रस्थ-रयाायर । तेहि कमि सूरि पहाण, छंद - तक्क वायरण ठाउं ।
खेमकित्ति यामेया स महि जेय दुम्म लिई सह | तासु पचासथि कलिमल-च शिव चित्त भाविउ स्यात्तउ ।
पहिलं किमजि-पय-चंद सत्त-प्रत्थ-ही हउ सामिय, किम पंगुल हवंति यह गामिव ।
A
बारह-विह तब भेष सुरु, हेमकत्ति मदिरा दुश्यिहरु । तासु पट्टि तब लच्छिदि मंदिर, श्रह अकंपु य छटु मंदिरु । दुम-इंद्रियबल-दमयावर,
किम अंतरं तरह पुणु सावर, किम भिड रणं गणि-कायरु | वोक्कड धूल करिहु किं बोल्लर, किम व धवल हर भरु भिल्लइ । सिकदहि र ज भासत कह विरयमिह तं गेहामि ।
भग्वह-मण-सय-तम-भायरु | मसिय-विसहर - विप- विणिवारउ, तेरहविध चारित जो धारउ ।
पिंगल विहन्ति च जायनि किम अप्प कन गुवि माद्यवि । यहं तुम्ह वयद्यहं करम सन्धु सुहस्य पर |
पर कार सामिय तव पह गामिय, एकु अत्थ संसब-हर ॥३
श्राम रस रसेगा जो सित्तउ, अणि जें भाविउ रयणसउ ।
अंतिमभाग
जंगा मताही परि मम भणि किंपि इहु गुण पवितु ।
कुमरसेगु णामें कलि गणहरु, पद्यविधि नियमाण- सुद्धिए भव-दरु। अवर वि जे हिग्गंथ महामुखि, कोडि वि लिहू ऊणिय बहु गुधि । दिदि जियहरिवर र बहु-ह-माय-नचो जिवावर दिड रायण मणिटुड मिरु घर धरियय वाउ को ॥२
तं कोसलमुह णिग्गय सुवाणि, महु खमहु भंडारी अत्थ-वाणि ।
बुयण मा गिरहहु किंपि दोसु,
सोहेज्जहु हु विरोसु । भवि भवि होज्जड मद्द धम्म बुद्धि,
तहिं वंदि गच्छ परमेसरु, कुमरसेगु परम जईसरु | श्रीवादिणुतहुराए,
संपज्जड तह दंसया - विसुद्धि । भवि भवि दुलभ समाहि बोहि, संपजड मटु भव-तम-विरोधि ।
येहु समप्पि व अविरत धार पुणु गुरुणा जपि भो पंडिय रशियाहि साल प्रखंडिय ।
राणंद सुहि वसउ देसु. जिय-सालय यद विगय-लेसु ।
[ ३१३
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D
३१४ ] अनेकान्त
[वर्ष १४ सावय-यण बदहु किय सुकम्म,
वीधो णामा गेह-जच्छि, जे वय-भह धारहि गट्ट-छम्म ।
चउविह-संघह दाणेण दच्छि। शंदउ रणमलु पुणु साहु धरण,
तहि उवरि उवण्णा गुण संपुण्णा, पुत्त तिणि लक्खाह जुवा जिं चरिड कराविउ हु वएणु ।
ताह जि पुणु पढमउणं ससि पढमउ, पीथा णामें दीद भुवा मुणियण सहसारहो तब-वयधारहो
तासु पिया पियचित्त सुहायरि, मरुसेण सामिहु तणमो। ,
भणिय कुवेरदेव णं सुरसरि । उवएससुहरु थासिय-भव-दुहु
बीयउ णंदणु फुड जस जसयरु, महु मणि णिच्च थुत्ति कुलभो ॥
णिय-कुल-कमल वियासण-भायरु । सिरि विक्कम समयंतरालि,
पल्हण सी (सा) हु वसण-मण-चत्तल, वतई दुस्सम विसम कालि।
जिण-चरणारविंद-रय-रत्तउ । पउदइ सय संवच्छरह अएण,
कउर पालही तहु [सुह] भामिणि, छण्णउन अहिय पुतु जाय पुण्ण ।
बाहहु चित्त णिच्च अणुगामिणि । माह दुजि किएह दहमा दिणम्मि,
तीयउ सुउ पुणु बहु लक्खण धर, अणुराहुः रिक्खि पयडिय सकम्मि ।
जो पाराहइ अह-णिसु जिणवर । गोवागिरि गोवग्गिरि) डूंगर णिवहु रज्जि,
देव-सत्य-गुरु पायहि लीणउ,
कहमवि वयणु ण जंण्इ दीणउ | पह पालतइ अरिराय तज्जि ।
रणमलु णामु महिहि विक्खायउ, जिण-चरण-स्मल खामिय सरीरु,
जालपही पिययम-अणुरायउ । सावय-वय-रहधुर-धरण-धीरु।
ति सुक्कोसल चरिउ कराविउ, सिरि अयरवाल कुल गयण चंदु,
गिच्च चित्ति पुणु तहु गुण भाविउ । सधवीर विधा जण जणिय णंदु ।
जामहि रयणायणहि ससि भायरु, कुलगिरि-वर-करणयहि वरा वे पक्खुज्जल सात णिय भज्ज,
तावई जं तउ बुहहि णिरुत्तउ चरिउ पवट्टङ गुहु धरा ॥२३ अभणी णामा वय-सील-सज्ज । तहि उवरि उवरणउ पर-पहाणु, .
इय-सुकोसल-मुणिवर-चरिए णिरुवम-सवेय-रयणबह-णिसु भाविउ जिधम्म-माणु ।
संस (भ. रिए सिरि-पंडिय-रइधू विरइए सिरि-महा भन्चमहलगि दिउ णामें साहु धण्णु !
आणासुत-रणमल-णाम-णामंकिए सुकोसल-णिवाणणिय जसेण महि वीढ छण्णु ।
गमणं णा। चउत्थो संधी परिच्छेत्री समत्तो॥छ। संधि ॥
प्रति देहली पंचायती मन्दिर लिपि सं. १६३३ तहु भज्जा दुक्खिय-जण जणेरि, मह सील तीर वहणेक्क धीरि ।
सिरि पासणाह चरिउ (पार्श्व पुराण) वीरोणामा वर चाय-लीण,
पं० रइधू गइ हंसिणोव सहेण वीण ।
आदिभागतहु पुत्तु पठमु जिण-पाय-भत्तु,
पणविवि सिरिपासहो, सिवउरि-वासहो, भाणाहिहाणु गिह-धम्मि रत्तु ।
विहुणिय पासहो गुण-भरिश्रो। तहु धरिणि गुणायर सुद्ध सील,
भवियह सुह कारणु, दुक्ख णिवारण, जिण-धम्म-रसायणि जाहि कील ।
पुणु माहासमि तहु चरित्रो ।
पुणु रिमहणाहु पणविवि जिणिंदु, ®-सिरि अयर वाल वंसहि पहाण,
भव-तम-णिण्णासणि जो दिणिदु । सिरि विधा संघह (ई) गुण बिहाशु ।
सिरि अजिउ वि दोम-कसायहारि, सुकौरान चरित --
संभड विजयत्तय-सोक्खकारि ।
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचि-पूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-मची--प्राकृतके प्राचीन ४६मूल-ग्रन्थोंका पचानुक्रमणी, जिपक माय ४८ टीकादिग्रन्थ
उद्धृत दृमरे पद्योंकी भी अनुक्रमणो लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यांकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी पृष्ठकी प्रस्तावनास अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. प., डी. लिट् के प्राकथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) मे भूषित है. शोध-खोजके विद्वानों के लिये प्रतीव उपयोगी, यदा माइज,
जिन्द ( जिसकी प्रस्तावनाटिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) श्राप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वापज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
परम पार मजीव विवेचनको लिए हए. न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिस
युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक संस्कृटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांस अलंकृत, सजिल्द। .. (५) स्वयम्भूम्तात्र-ममन्तभद्रभारनीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, -पदार
चय, ममन्तभद्र-परिचय और भनियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयांगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापणा
१०६ पृष्ठकी प्रस्तावनास मुशोभित । (७) स्तुनिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनाग्बी कृति, पापांक जीतनेकी कला, मटीक,सानुवाद और श्रीजुगलकिशार
मुन्नारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित। " (६) अध्यात्मकमलमानण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहिन और मुग्तार श्रीजुगलकिशारकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित।
" ) (1) युक्त्यनुशामन-तत्त्वज्ञान परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति. जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुअा था। मुख्तारश्रीकं विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिन्न अलत, मजिन्द। " ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्नात्र-श्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ॥) (६) शामनचतुम्निशिका-(नीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वो शताब्दीकी मुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-पहित ।
m) (10) मनीचोन धर्मशास्त्र--स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक अन्यत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुग्टनार श्री जुगजकिगार
जीक विवंचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावनास युक्र, मजिल्द । (११) मनाधितंत्र और इष्टापदेश--श्रीपज्यपादाचार्य की अध्यात्म-विषयक दो अनूठी कृतियां. ६० परमानन्द शाम्बीक
हिन्दी अनुवाद और मुग्तार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनाम भूपित मजिल्द । (१२) जेनग्रन्थप्रशरि मंग्रा:-संस्कृत और प्राकृनक १७१ अप्रकाशित ग्रन्योंकी प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व
•संग्रह, उपयोगी ११ पशिष्टों और ६० परमानन्दशास्त्री की इनिहाय-पाहिन्य-विषयक परिचयात्मक प्रस्तावनास
अलंकृत, सजिल्द । १३. अनित्यभायना-श्रा. पदमनन्दी की महत्वका रचना. मुख्तार श्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावाय हित ।) (१४) नत्त्वाथमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुख्तारधीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यान युक्त। (१५ श्रवणबल्गाल और दक्षिणक अन्य जनतीथ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन (६) कमाय पाट मच-हिन्दी अनुवाद महिन (धारशासन मंघ प्रकाशन)
... २०) (१७) जनमाहित्य और इतिहाम पर विशद प्रकाश महावीरका सर्वोदय तार्थ ), समन्तभद्र-विचार-दीपिका ),
ज्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
SHRAM.99232222RFROM22212
संरक्षक
१०१) वा. लालचन्दजी जैन कलकत्ता
१.१) बा. शान्तिनाथजी * १५००) वा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता
१.१) बा. निर्मलकुमारजी २५१) वा० छोटेखालजी जैन ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. सोहनलालजी जैन नमेचू , १२५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ,
१.१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी,
१.१) बा. काशीनाथजी, ... १) बा अपभचन्द (B.R.C.) जैन , २५१)बादीनानाथजी सरावगी
१.१)बा० गोपीचन्द रूपचन्दी
१.१) बा. धनंजयकुमारजी २५१) पा० रतनलालजी झांमरी ,
१.१) या जीतमलजी जैन * २५१) बा० बल्देवदासजी जैन * २५१) सेठ गजराजबी गंगवान
१.१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दनी
१०१) ला• महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) ला• रतनलालजी मादीपुरिया, देवली
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज. कलकत्ता २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन
१०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) ला०कपूरचन्द धपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, दहली २५१)बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी. देहली
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१)बा० मुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१)बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १.१) बा०वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला. त्रिलोकचन्दजी, महारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास पात्मारामजी मरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद
१.१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१)ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी. देहली।
१०१) बा.महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार
१०१) ला• बलवन्तसिंहजी, हांसी जि. हिसार २५१) रामबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची
१.१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता ४१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर ) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर कलकत्ता
१०१) ला. प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली सहायक
१०१) श्री जयकुमार देवीदासजी, चवरे कारंजा ११) माराजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला• रतनलालजी कालका वाले, देहली १०१) मा० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला. चतरसैन विजय कुमारजी सरधना १०१) सेठ लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
'वीर-सेवामन्दिर' 3१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१ दरियागंज, दिल्ली
प्रकाशक-पामामासी वीरसेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । महा-कपबासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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विषय-सूची .. जिनस्तुति-पंचविंशतिका
[महाबन्द्र २. पा. कुन्दकुन्द पूर्ववित् और श्रुतके प्राय प्रतिष्ठापक है।
[श्री पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री३१७ वर्षे १४
३. जैनधर्म में सम्प्रदायों का माविर्भाव [श्री ५० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री " १. समन्तभद्रका समय
[डा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. ३२४ किरण १२ १. सम्पादकीय नोट
[जुगलकिशोर मुख्तार ३२७ ६. जीवन-यात्रा (कविता) [लचमीचन्द्र जैन 'सरोज' ३२६ सम्पादक-मंडल
७. अविरतसम्यग्दृष्टि जिनेश्वरका लघुनन्दन है [गणेशप्रसादजी वर्णी ३३० जुगलकिशोर मुख्तार
८. नालन्दा का वाच्यार्थ, सुमेरुचन्द दिवाकर B.A. LL. B. छोटलाल जैन
। हिन्दीके नये साहित्यकी खोज [कस्तूरचन्द काशलीवाल ॥ जयभगवान जैन एडवोकेट
१०. वीरशासन जयन्तीका इतिहास [जुगलकिशोर मुल्तार । परमानन्द शास्त्री
११. वीरशासन जयन्ती और भवनोत्सव मन्त्री-बीरसेवा मन्दिर ३.. १२. माहुजीके प्रति (कविता)
ताराचद प्रेमी ३४२ १३. नदिसंघ बलात्कार गण. [पं० पचालालजी सोनी ३१३ १४. स्व० ला० महावीर प्रसादजी ठेकेदार ११. पिडा हिसाब अनेकान्त ३३ १६. सम्पादकीय ३५४
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वामानहानी
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दोनों ग्रन्थ दशलक्षण पर्व तक पौने मन्यमें
जैनियोंका सबसे प्राचीनतम ग्रंथ
कसाय पाहुड सुत्त प्रत्येक मंदिर, शास्त्रभण्डार, और घरमें एक प्रति प्रभावनाके लिए अवश्य रखें
जिस २२३ गाथामक मूल ग्रन्थकी रचना पाजसे दोजार वर्ष पूर्व श्रीगुणधराचार्यने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्यने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसत्र लिखे और जिन दोनों पर श्री वीरसेनाचार्यने बारह सौ वर्ष पूर्व साठ हजार श्लोक प्रमाण विशाल टीका लिखी तथा जिसके मूल रूपमें दर्शन और पठन-पाठन करनेके लिए जिज्ञासु विद्ववर्ग आज पूरे बारह सौ वर्षोंसे लालायित था जो मूलग्रन्थ स्वतन्त्र रूपसे अाज तक अप्राप्य था, जिसके लिये श्री वीरसेन और जिनसेन जैसे महान प्राचार्योने अनन्त अर्थ गर्मित कहा, वह मूल प्रन्यराज 'कसाय पाहुइ सुत्त' भाज प्रथम बार अपने पूर्ण रूपमें प्रकाशमें आ रहा है इस ग्रन्थका सम्पादन और अनुवाद समाजके सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० होरालालजी सिद्धानशास्त्रीने बहुत वर्षोंके कठिन परिश्रमके बाद सुन्दर रूपमें प्रस्तुत किया है। आपने ही सर्वप्रथम धवन सिद्धान्तका अनुवाद और सम्पादन किया है यह सिद्धान्त अन्य प्रथम बार अपने हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकट हो रहा है इस प्रन्धकी खोज पूर्ण प्रस्तावनामें अनेक प्रश्रतपूर्ण प्राचीन बातों पर प्रकाश डाला गया है जिससे कि दिगम्बर-साहित्यका गौरव और प्राचीनता सिद्ध होती है। विस्तृत प्रस्तावना, अनेक उपयोगी परिशिष्ट और हिन्दी अनुवादके साथ मुलमन्थ १०००से भी अधिक पृष्ठों में सम्पन हया है। पुष्ट कागज, सन्दर छपाई और कपड़ेको पक्की जिल्द होने पर भा मुख्य कवल २०) रखा गया है। इस प्राचीनतम मन्थराजको प्रत्येक जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डार पुस्तकालय तथा अपन सग्रहम अवश्य रखना चाहिये। भाद्र मास तक वह केवल १५ रुपए में ही दिया जायगा। पोस्टेज का २॥) अलग पड़ेगा।
जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश
प्रथम भाग माजसे ५० वर्ष पूर्व जिम्होंने जैनगजट और जनहितैषीका सम्पादन करके जैन समाजके भीतर सम्पादन कलाका मागणश किया। जिनके तात्काधिक लेखोंने सुप्त जैन समाजको जाग्रत किया. जिनके क्रान्तिकारी विचारोंने समाजक भीतर क्रान्तिका संचार किया जिनके 'जिनपूजाधिकार मीमांसा' और 'जैनाचार्योके शासन भेद' नामक लेखोंने समाजक पदरी और विचारक लोगों में खलबली मचाई, जिनकी मेरी भावना और उपासनातस्यने भन और उपासकोंके हृदयम श्रद्धा और भक्रिका अंकुरारोपण किया, जिन्होंने स्वामी समन्तभद्रका इतिहास लिखकर जैनाचार्योंका समय सम्बन्धी प्रामाणिक निर्णय एवं ऐतिहासिक अनुसन्धानकरके जैन समा के भीतर नूतन युगका प्रतिष्ठान किया, जिन्होंने 'घनेकान्त' पत्रका सम्पादन और प्रकाशन करके भगवान महावीरके स्यावाद जैसे गहन और गम्भीर विषयका प्रचार किया । और जिन्होंने स्वामी समन्तभद्रके अदितीय गहन एवं गन्भीर अनेक प्रन्यों पर हिन्दी अनुवाद और भाष्य लिख कर अपन प्रकार पांडित्यका परिचय दिया, उन्हीं प्राच्य विद्यामहार्णव आचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार 'युगवीर' के ३२ लेखोंका संशोधित, परिवर्धित एवं परिष्कृत सग्रह है। इन लेखोंके अध्ययनसे पाठकोंके हृदय-कमल जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाशसे आलोकित एवं पाहादित होंगे। पृष्ठ संख्या ७१०. कागज और छपाई सुन्दर, पक्की जिल्द होने पर भी लागतमात्र २) मनिभाईरसे मुल्य अग्रिम भेजने वालोंको १॥) रु. डाकखर्चको बचत होगी।
एक साथ मंगाने वालोको दोनों ग्रन्थ २०) में मिलेंगे।
मिलनेका पता-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली
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अनेकान्त
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News
माह शान्तिप्रमादजी वीर-संवामन्दिरके नृतन भवनका उद्घाटन कर
श्रा० देशभृपणजी महाराजको भीतर प्रवेश करा रहे हैं।
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* अहम
वस्ततत्त्व-सघातव
विश्व तत्त्व प्रकाशक
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वाषिक मन्य )
एक किरण का मूल्य 1)
-
-
नीतिविरोषवसीलोकव्यवहारवर्तक सम्पन्। परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।
वर्ष १४ । वीरसेवामन्दिर, २१, दरियागंज, देहली
जून-जुलाई किरण, ११-१२ । आपाढ-श्रावण वीरनिर्वाण-संवत २४८३, विक्रम संवत २०१४ । सन १६५७
जिनस्तुति-पञ्चविंशतिका [यह पच्चीस पद्यात्मक जिनस्तुति अजमेर के भट्टारकीय भण्डारसे प्राप्त हुई है। इसके रचयिता महाचन्द्र नामक कोई प्रौढ निद्वान हैं। नामका सूचन श्लेषरूपमै पच्चीसवें पद्यमें किया गया है। इस स्तुतिको सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके पच्चीमों ही पथ पर चीस छन्दोंमें रचे गये हैं। स्तुनि प्रौढ़, प्राञ्जल एवं प्रसाद-गुणासे
युक्र है नथा मुन्दर भक्रि भावको लिए हुए है । स्तुतिक अन्तमें छन्द नाम-सूचक दो पद्य दिये हुए हैं। युगवीर] स्रग्धरा
संमारासारपाथोधिगतभवभृतां मजन यो विदित्वा, तद्धतून कर्मशत्रून जगदसुखकृतान् ध्यानखग न हत्वा । त्रैलोक्यादर्शम्पप्रकटितचरमज्ञाननेत्रेण वीक्ष्या
स्पृष्टम्नद्वशजातामिव ममवमृति मोऽस्तु मे ज्ञानभृत्य ॥१॥ इन्द्रवत्रा- मिथ्यात्वहालाहलघृणितं यज्जगत्सुधर्मामृतपानतम्तन ।
उल्लाघनां नीय सुबोधकं च शिवाध्वगं येन कृतं स्तुवे तम् ।। मत्तमयूर- गत्वा कोः खे पञ्चसहस्रोन्ननदण्डान सोपानानां विंशतिसाहससुरम्यान ।
रेजे शाला श्रीदकृता यस्य हि लोके तं वन्देऽहं शक्रनमस्य जिनदेवम ॥३॥ वसन्ततिलका- सक्-सिंह-पङ्कज-शुभाम्बर-वैनतेया, मातङ्ग गोपतियुता अथ वैनतेयाः।
चिन्हपु केकि-सुरथाङ्ग-सुराजहंसा, लक्ष्मीविधात्वनुपमा इति यस्य सन्ति । औपपूर्व छन्दः-- मुनिकल्पसुराबला नुता ऋतिका भूम-सुनागभामिनी ।
भुव-भीमन कल्पजा नरा: मदसि स्थाः पशवोऽपि तं यजे || शार्दूलविक्रीडितं- चचकचन्द्रमरीचिचामरलसत् श्वेतातपत्रे पत्
त्रैलोक्यप्रभुभावकीत्तिकथके शुम्भत्सुभृङ्गारकम ।
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कान्चत्कुम्भधुनद्ध्वजी च विलसत्तालः सदादर्शकम् ।
येऽस्योद्भान्ति च सुप्रतीकसहितास्तस्मै जिनेशे नमः ॥६॥ प्रहर्षिणी - सेनानी स्थपतिगजाश्वचक्रदण्डस्त्रीचर्मासिमणिपुरोधकाङ्किणीनाम् ।
नाथा हर्यपतिसछत्रसंयुनानां वन्दन्ते यममलबाधिनं भजे तम् ।। हरिणी- भववनधिगानां यो धर्मः प्रतारणनीसमोऽमृतपथगतानां पायेय नराम्तु त आसताम।
तारपि यदीयं तं श्रुत्वा व्यशोकमितो जगदुदयनि रवी किं नो एति प्रबोधमगैः सह ।।८।। शिखरिणी- सुरा यन्माहात्म्यानुभवभवसंहर्पमनसो विधीयन्ते तेऽवाङ्मुखसुमनसा वृष्टिमनघाम ।
धरित्री प्राप्तां तां सकलसुखदां वीक्ष्य च हदीति चेतन्तीयं नो विधिर्धारपुगते रीतिरनया से पृथ्वी- यदीयहृदयाम्बुधेर्गतमहागिरम्तन्वते, जनस्य जननादिरोगशमने मुधारूपताम् ।
अनन्तसुखमीप्सवम्तनुमुवं य उत्सगिण, पिबन्ति हि विमानि नोऽमरपदं हि गच्छन्ति ते॥१८ मालिनी- विधुकर-धवलाभोऽम्वप्नधृतचामरौघो, यदमलगुणकीत्यु द्योतनोद्यत्प्रभावः ।
कथयति भविनां मध्येऽहमागत्य गत्वाऽमृतगतमनमश्चेत्तर्हि सेवध्वमेनम् ॥११॥ रुचिरा- गंभीरवागनुपमगर्जनं जिनं मणिप्रभाचलशुभविप्टरस्थितम ।
व्यलोचयन घनमिव भव्यचातकाः शुभाद्रिगं शिववृपबिन्दुमिच्छवः।१२।। प्रमिताक्षरा- द्य तिमण्डलेन सहितः सहितः सदसः प्रकृष्टतममा तममा।
भवतु प्रबोध भवतां भवतां तरणिप्रकाशविभवे विभवे ।।१३।। पुष्पिताया भुवनधिमिहिरादिशब्दलची नदति सुताडितलेखदुन्दुभिः खे।
वदनि भवभृतोऽत्र मन्य उच्चैः शिवपदगा यदि चेद्भजध्वमेनम ।१४।। जलधरमाला-नानारत्नेः खचितमनीपम्य यन स्वैस्तेजोभिः कृतरवितेजीमन्दम।
तदाच्छत्रत्रयमनघं त्रैलोक्ये न त्वस्य द्योतकमिव चिन्हं ह्यन्ति ।।१५।। द्रविलम्बितं- इति पुरस्सरनियता जगज्जनहितो विधिदम्युमहान्तकः ।
भवतु यो भववारिधिमज्जतः प्रवहणस्य समानगतः स मे । १६।। आर्या- भवति गते गुणराशी भवति गते जनपदे च सफलो ती।
भवति गते चन्द्र इव भवति गतेरुभयमाफल्यम् ॥१७॥ त्रोटक- परमं पवनं मकलं यमिनं मिनं दमिनं भवदार्वनिलम् ।
तममा रहितं विशरीररिपु मुनिराजमनन्तगुणामृतधिम् ॥१८॥ भुजङ्गप्रयातं- चिदेकं त्वनेक महायोग्यसेव्यं वदन्ति प्रभो योगिराजा इति त्वाम।
त्वमेवेन भूयाज्जगन्मुक्तिदाताऽपि मे जन्म-जन्मन्यनेकं शरण्यम् ॥१६॥ अनुष्टुप्- विडोजसा कृता यस्येति स्तुति त्रिजगत्प्रिया।
स ईशोऽवतु मां शश्वल्लोकालोकविलोकनः ॥२०॥ रथोद्धता- ताडनादासुखराशिनर्कतो (१) यो वपुर्भूत उद्धृत्य चामृते ।
स्थापयत्यगणशर्मवारिधी यवृपः स हृदि तं दधेऽनिशम ॥२१॥ वंशस्थं- चमूमवस्कन्द विभिन्द तगिरि लुनीहि शस्त्राणि गृहाण सद्धनम् ।
विगृह्य चक्र भटमोहभूभृता य इत्थमस्वास्थ्यमिनः स पातु माम ॥२२॥ मन्दाक्रान्ता- बध्नोस्रय यदमलगिरां तुल्यतां यद्वदन्ति, लोकव्यापि प्रकटसुतमो नाशने तन्न युक्तम् ।
राहुप्रस्तास्त अहनि परं द्योतकाश्चाब्दरुद्धा, मिथ्याद्यन्ततमस इति नो नाशने तत्प्रभावः ॥२३ शालिनी- क्लप्ता यस्येति स्तुतियों मया हि भक्त्या तन्नामाक्षरेण प्रपथ्या।
भव्यानां चाहं तया याव्चयामि, भावे भावे तां तदीयोसेवाम ॥२४॥
एतदनूनं जैन स्तोत्रं प्राज्ञाः पठेयुरमलं ये।। तेषां कुमुदनिभानां स जिनो भूयान्महाचन्द्रः ॥२४॥
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आ० कुन्दकुन्द पूर्ववित् और श्रुतके आद्य प्रतिष्ठापक हैं।
(श्री० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री) श्रुतावतार-प्रतिपादक ग्रन्योंके अनुसार क्रमशः कम रयणसार, १२ तत्वसार, १३ भावपार, १४ अंगपाहुड, होने वाले श्रतके धारक प्राचार्योकी ६८३ वर्षकी गणनामें १५ क्षपणपाड १७ बोधपाहुड, १८ क्रमपाहुड," यद्यपि प्रा० कन्दकन्दका नाम नहीं मिलता, तथापि उनके प्रयपाहद, २० विद्यापाहड २१ उघातपाहड. २ द्वारा रचे गये और स्वय ही रखे गये ग्रन्थोंके नामोंसे यह पाहुड, २४ लोयपाहुड, २५ चरणपाहुड, २६ समवाय. स्पष्टतः सिद्ध होता है कि वे पूर्व-श्र तके विशिष्ट अभ्यासी पाहुड, २० नयपाहुड, २८ प्रकृतिपाहुड, २६ चूणिपाहुड,
और ज्ञाता थे। जो पाठक श्र तज्ञानके भेद-प्रभेदोंसे परिचित ३० पंचवर्गपाहुड, ३१ एयमपाहुड, ३. कर्मविपायपाहुड, हैं, वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि पूर्वोके अन्तर्गत जो ३३ विहियापाहुड, ३४ वस्तुपाहुड, ३५ सूत्रपाहुड, ३६ अधिकार होते हैं, उन्हें वस्तु कहते हैं और वस्तुके अन्तर्गत बुद्धिपाहुड, ३० पयद्धपाहुड, ३८ उत्पादपाहुड, ३६ दिच्चजो अधिकार होते है, उन्हें पाहुड कहते हैं। कुन्दकुन्दके पाहुड, ४० सिक्खापाहुड, ४. जीवपाहुड, ४२ प्राचारग्रन्थ पाहुडोंके नामसे प्रसिद्ध ही नहीं हैं, अपितु उन्होंने पाहुइ, ४३ स्थानपाहुड, ४४ प्रमाणपाहुड, ४५ पालापस्वयं ही अपने अनेक ग्रन्थोंका पाहड' नाम दिया है और पाहुड, ४. चूलीपाहुड, ४७ पट्दर्शनपाहुड, ४८ नोकम्मउसका किसी ग्रन्थके श्रादिमें, किसीके अन्तमें और किसी- पाहुड, ४६ संठाणपाहुड, ५. निलयपाड, ११ साल्मीकिसीके अादि व अन्तमें नाम-निर्देश किया है।
पाहुड इत्यादि। आदिमें नामोल्लेख
उक्र नामोंमेंसे १,२,३, ४.५और नं0 के पाहुड (१) दंमणमग्गं वोच्छामि । (दमणपाहुड, गा.१) तो श्राज उपलब्ध हैं और अपनी टीकाओंके साथ प्रकाशित (२) वोच्छामि समणलिंग पाहुडमस्थं समासेण । भी हो चुके है । शेष पाहुड़ोंकी रचना यदि सचमुच मा.
(लिंगपाहुड गा०१) कुन्दकुन्दने की है, तो निःसंदेह यह स्वीकार करना पड़ेगा अन्तमें नामोल्लेब
कि वे अगों और पूर्वोके बहुत बड़े ज्ञाता थे। ऊपर दिये गये (१) एवं जिणपण्णत्त मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए। पाहुडौंक नामोंमेंस अनेक तो उनके अगथ त पर लिखे
(मोक्खपाहुड गा. १०६) गये ग्रन्थोंकी ओर संकेत करते हैं । यथा-- (२) इलिगपाहुडमिणं । लिंगपाहुइ, गा. २२) १-प्राचारपाहुड अाचारांगका द्योतक है। संभव है कि आदि और अन्तमें नामलेलेख
मूलाचारको ही प्राचारपाहुडके नामसे उल्लेख किया गया हो। (१) आदिमें-चारित्तं पाहुडं वोच्छे । (चारिनपाहुड, गा) ५-मुत्नपाहुड सूत्रकृतांग नामक दूसरे अंगका सूचक है।
अन्तमें-फुडु रइयं चरणपाहुडं चैव । (,, गा.४४) ३-मटागपाहुड स्थानांग नामक तीसरे अंगकी ओर (२) श्रादिमें-बाच्छामि भावपाहुड । (भावपाहुढ, गा.१) मंकन करता है।
अन्तमें-इयभावपाहुडमिणं । ( ., गा. १६३) -समवाय गड चौथे समवायांगका बोधक है। (३) आदिमें-वोच्छामि समयपाहुड-(समयवाहुइ, गा.३) -कर्मविपाकपाहड ग्यारहवे विपाकसूत्रांगका द्योतक है।
अन्तमें-जो समयपाहुडमिणं । ( , गा. ४१५) शेप पाहडॉकी रचना उनके पूर्व श्रु तधरवकी परिचायक इन उल्लेखोंसे यह सिद्ध होता है कि प्रा. कुन्दकुन्द है। विम पाहुडकी रचना किप पूर्वक किम वस्तु और पूर्व-गत प्राभृतांक ज्ञाता थे। कहा जाता है कि श्रा० कुन्द- पाहुडके आधार पर की गई है, यह जाननेका यद्यपि भाज कुन्दने ८४ पाहुडोंकी रचना की है। यद्यपि श्रान वे सब हमारे सामने कोई सीधा साधन नहीं है, तथापि पूर्वोके उपलब्ध नहीं है, तथापि अनेक पाहुडोंकि नाम अवश्य मिलने नामोंके साथ कुकुन्द-रचित पाहुडोंके उद्गमस्थानरूप हैं, जो कि इस प्रकार है
पूर्वोका श्राभाम अवश्य मिल जाता है । यथा१ समयपाहुद, २ पंचस्थिकायपाहुद, ३ प्रवचनमार, समयपाहुडके विषयको देखते हुए वह प्रात्मप्रवाद नामक ४ अप्टपाहुड, ५ नियमसार, ६ जोणिसार, ७ क्रियासार, सप्तम पूर्वकी किमी वस्तुके समयपाहुइ नामक अधिकारका 2 माहारणापाहुड, लब्धिपाहुड, १० बन्धपाहुन," उपसंहार ज्ञात होता है। समयसारकी मंगन-गाथासे भी
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३१८ ]
अनेकान्त
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इसकी पुष्टि होती है । इस मंगल-गाथामें दिया हुआ हितार्थ उसकी व्याख्या की और तदनुसार वृषभनन्दीने 'सुयकेवली-भणियं' पद तो और भी अधिक महत्त्व-पूर्ण है। प्रस्तुत जीतसारसमुच्चयकी रचना की है। ये वृषभनन्दी इस पदके द्वारा प्रा. वृन्दकुन्द इस बातको बहुत अधिक नवीं शताब्दीके उत्तराद्ध में हुए हैं ऐसा श्री मुख्तार सा० ने जोरदार शब्दों में प्रकट कर रहे हैं कि मैं उसी समयपाहुड- उक्र परिचयमें मप्रमाण सिद्ध किया है। को कहूँगा, जिसे कि श्र तकेवलीने कहा है। उनके इस उन कथनसे यह अर्थ निकला कि आजसे ग्यारह सौ उल्लेखपे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रा० कुन्दकुन्द भद्र- वर्षके पूर्व प्रायश्चिन-विषयक एक अति प्राचीन ग्रन्थ मिला बाहु श्रुतकेवलीक सम्पर्क में रहे है। इसी प्रकार इसी समय- था, जो अति जीर्ण-शीर्ण दशामें एक पेटीके भीतर रखा सारकी नवीं और दशवीं गाथामें जो श्र तकेवलीका स्वरूप था और जो श्रा. कुन्दकुन्दका बनाया हुआ था। इससे भी दिया हुआ है वह भी उक्र कथनका ही पोषण करता है। श्रा० कुन्दकुन्दके प्रत्याख्यान पूर्वके वेत्ता होनेकी बात सिद्ध
श्रागम-निरूपित उत्पादपूर्वके स्वरूपको देखते हुए होती है। पंचस्तिकायपाहुडको उसके अन्तर्गत माना जा सकता है। ऊपर जो कुन्दकुन्द-रचित अनेक पाहुडोंकी नामावली प्रवचनसारकी रचना यद्यपि अनेक पाहडोंकी आभारी प्रतीत दी है, उससे एक महत्वपूर्ण बात यह भी सिद्ध होती है होती है, तथापि स्याद्वादका प्ररूपण करने वाली, 'अस्थि कि कुन्दकुन्दने किसी भी नवीन नामसे किसी ग्रन्थकी त्ति य ात्थि ति य' आदि गाया 'यस्तिनास्तिप्रवाद रचना नहीं की है, किन्तु जो अंग और पूर्वके रूपमें श्रतनामक चौथे पूर्वकी याद दिलाती हैं। नियमसारके अन्तर्गत ज्ञान प्रवाहित होते हुए भी उत्तरोत्तर क्षीण हो रहा था, जो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, श्रालोचना और प्रायश्चित्त उसीका उन्होंने अपनी रचनायों में उपसंहार किया है। नामक अधिकार रचे गये हैं, उनका अाधार प्रत्याख्यान यही कारण है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ पूर्वगत पाहुडोंनामक नौवां पूर्व है ऐसा प्राभाय उन अधिकारों के अभ्याममे के नाम पर ज्यों की न्यों अकित हैं । और जिन रचनाओंमें मिलता है।
अनेक अगों या पूर्वोका मार खींचा गया है, वे नियमसार, इसके अतिरिक्र से भी प्रमाण अब सामने आ रहे हैं, प्रवचनसार, श्रादिके रूपमें सारान्त नाम वाली है, जो यह जिनसे यह पता चलता है कि प्रा. कुन्दकन्दने प्रायश्चित्त प्रकट करती है कि श्रा. कुन्दकुन्द परमागमके बहुत बड़े विपयक कोई स्वतन्त्र अन्य भी रचा था । अनेकान्त वर्ष १४ ज्ञाता थे और उन्होंने ही भ. महावीरके प्रवचनोंका सार किरण १ में 'पुराने साहित्यकी खोज' स्तम्भके अन्तर्गत गाथाओंमें रच कर सर्वप्रथम श्रु नकी प्रतिष्ठा इस युगमें 'जीतमारसमुच्चय' नामक एक नवीन उपलब्ध ग्रन्थका यहाँ पर की है। हमारे इस कथनकी पुष्टि श्रवणबेल्गोलके परिचय दिया जा चुका है। उसके कर्ता उपभनन्दीनं उसक शिलालेम्बमें उत्कीर्ण निम्न श्लोकस भी होती है । यथासम्बन्धमें लिखा है
वंद्या विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः मान्याखेटे मंजूपक्षी सैद्वान्तः सिद्धभूपणः ।
कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीति-विभूपिताशः । सुजीण पुस्तिका जेनी प्रार्थ्याप्य संभरी गतः ।। ३४ ।। यश्चारुचारणकराम्बुजचञ्चरीकश्राकाण्डकुन्दनामाङ्कां जीतोपदेशदीपिकाम ।
श्चक्र श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥ व्याख्या सा मद्धितार्थेन मयाप्युक्ता यथार्थतः ।।५॥
(श्रवणवेल्गोल, शिलालेख नं०१४) सद्-गुरोः सदुपदेशेन कृता वृपभनन्दिना ।
जिनकी कुन्द कुमुमकी प्रभाके समान शुभ्र एवं प्रिय जीतादिसारसंक्षेपो नंद्यादाचन्द्रतारकम् ।। ३६ ।। कीर्तिसे दिशाएँ विभूषित हैं-सब दिशाओं में जिनका
अर्थात् सिदभूपण नामक एक सैद्धान्तिक मुनिने उज्ज्वल और मनोमोहक यश फैला हुआ है-, जो पशस्त मान्यखेट नगरमें श्री कोण्डकुन्दाचार्यके नामसे अकित चारणोंके-चारण ऋद्धिधारक महामुनियोंके-कर-कमलोंके जोनोपदेश दीपिका' नामकी एक अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण भ्रमर हैं और जिन्होंने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी-प्रागमशास्त्रकपुस्तिकाको एक मंजूपामें रखी हुई देखा उसे उन्होंने उसके प्रतिष्ठा की है, वे पवित्रामा कुम्दकुन्द स्वामी इस पृथ्वी पर स्वामीसे मांग करके प्राप्त किया और उसे लेकर संभरी किनसे वंदनीय नहीं हैं, अर्थात् सभीके द्वारा (सांभर) चले गये। उन्हीं मुनिराजने वृषभनन्दीके वन्दनीय है।
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किरण ११-१२
जैनधर्म में सम्प्रदायोंका आविर्भाव
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इस शिलालेखमे यह सिद्ध होता है कि इस युगों को प्रमाणित करनेकी आवश्कता प्रतीत हुई है, वहां उन्होंने भरतक्षेत्रके भीतर सर्वप्रथम कुन्दकुन्दाचार्यने ही श्रतकी प्रायः 'जिणेहि भणियं, केवनि-भणियं, सुयकेवलि-भणिय' प्रतिष्ठा की है।
अथवा 'सुत्ते वबहारदो उत्ता, दमिदा सुत्त' प्रादि पदोंका शास्त्रके प्रारम्भमें जो मगलश्लोक पढ़ा जाता है, उससे प्रयोग किया है । इन प्रयोगों में दो बातें स्पष्ट दिग्वाई देती भी इस बातकी पुष्टि होती हैं कि गौतम ग्रथित श्रु तके आद्य हैं-एक तो यह कि उन्होंने उस बातको साक्षान् केवली या प्रतिष्ठापक कुन्दकुन्दाचार्य हुए है। वह मंगल पद्य इस श्रुतकेवलीसे जाना है। श्रु नकेवली भद्रबाहुके वे साक्षात् प्रकार है
शिप्य थे, यह तो गत किरणमें प्रकाशित लेखपे प्रमाणित मंगलं भगवान वीरो मंगलं गीतमो गणी। किया जा चुका है। और केवली-भणिय' आदि पद उनके मंगलं कुन्दकुन्दा- जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ विदेह में जाकर सीमंधरस्वामीके मुग्वसे साक्षात् उपदेश सुनने
इस मगल-पद्यमें भ. महावीर और गौतम गणधरके की पुष्टि करत है । इसक अतिरिक सूत्रके उल्लेख भी खाम पश्चात् प्रा. कुन्दकुन्दके नामका उच्चारण अकारणक नहीं
महत्व रखते हैं। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने सूत्र पदका अर्थ है बल्कि वह एक महत्त्वपूर्ण अर्थका सूचक है । श्वेताम्बर- अरहन्त या तीर्थकर-भापित और गणधर-प्रथित द्वादशांग परम्परामें 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' के स्थान पर 'मगलं स्थूल- श्रुतको ही सूत्र माना है (देग्यो सूत्रपाहुड गा० १ और भद्रार्यो' बोला जाता है, उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है भावपाहुड गाथा १०)। तथा एक स्थल पर तो 'मुत्तमंग. कि जिस प्रकार भद्रबाहुश्रुतकवलीके पश्चात् श्वे. परम्परा पुब्बगयं' (समयमार गा० ४०४) कह कर सरप्ट शब्दों में में स्थूलभद्र माधु-संघक नायक हुए हैं. उसी प्रकार दिगम्बर कहा है कि अंगश्र न और पूर्वश्र त-गत वचन ही सूत्र हैं। परम्परामें कुन्दकुन्द साधु-संघके नायक या संचालक हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है, कि उनके समय तक अन्य सूत्रमूलाचार, दर्शनपाहुड, बोधपाहुड और भावपाहुइमें उन्होंने अन्यों की रचना नहीं हुई थी, किन्तु द्वादशाङ्ग नका पठनजिस नेजके साथ माधुओंको फटकार बतलाते हुए सम्बोधित पाठन उनके सामने चल रहा था। किन्तु दिन पर दन किया है, उनसे उनकी संघ-संचालन-योग्यता और तेज- लोगोंकी ग्रहण-धारण शक्तिको हीन होती हुई देव कर अंगस्विताका सहज ही पता लग जाना है।
पूर्व गन श्रनका उपसंहार गाथामें करके उन्होंने सर्व प्रथम प्रा. कुन्दकुन्दको अपने ग्रंथों में जहाँ कहीं अपने कथन- श्रुत-प्रतिष्ठानकं मार्गका श्रीगणेश किया।
जैनधर्ममें सम्प्रदायोंका आविर्भाव
(श्री पं० कैलाशचन्द्रजी, शास्त्री) जव विश्वका कोई धर्म सम्प्रदाय मत या पन्थ भेदसे वाला सम्प्रदाय श्चताम्बर सम्प्रदाय कहा जता है। दोनों अलना नहीं रहा नब जैनधर्म ही कसे अमृता रहना। सम्प्रदाय भगगन ऋपभदवसे लेकर भगवान महावीर पर्यन्त भगवान महावीरके पश्चात् इसमें भी दो सम्प्रदाय स्थापित चौवीय तीर्थरीको अपना धर्म-प्रवर्तक और पूज्य मानते हए । एक सम्प्रदाय दिगम्बर कहलाया और दूसरा सम्प्रदाय हैं। दोनोंक मन्दिरी में उन्हींकी मूर्तियां स्थापित हैं। किन्तु श्वेताम्बर । दिगम्बर शब्दका अर्थ है-दिशा ही जिसका अम्बर उनमें भी वही भेद पाया जाता है। अर्थात् दिगम्बरोंको (वस्त्र) हे अर्थात् वम्ब-रहित नग्न । और 'श्वेताम्बर' का मूर्तियां दिगम्बर रहती हैं और श्वेताम्बरोंकी मूर्तियां सवस्त्र अर्थ है-मन द बम्ब वाला। दिगम्बर मम्प्रदायक साधु होती हैं। इस नम्ह दोनों सम्प्रदायों में गुरुओंके वस्त्रनग्न रहते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदायके माधु सनद वस्त्र परिधानको लेकर मत-भेद है और मुख्य रूपसे इसी मतधारण करते हैं । अतः दिगम्बर (नग्न) जैन गुरुओंको भेदने सम्प्रदाय-भेदको जन्म दिया है। दोनों सम्प्रदायोंके मानने वाला सम्प्रदाय दिगम्बर जैन सम्प्रदाय कहा जाता अनुयायी अपने अपने सम्प्रदायको प्राचीन और प्रतिपक्षी है और श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्र धारी) जैन गुरुओंको मानने सम्प्रदायको अर्वाचीन बतलाते श्राते हैं। दोनोंके साहित्यमें
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३२०]
अनेकान्त
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इस विषयमें जो कुछ लिम्वा गया है वह भी इसी दृष्टिकोण- है। तथा दुर्भिक्षके कारण भद्रबाहु तथा साधु संघके देशान्तर से लिखा गया है। किन्तु विचार-शील पाठकोंको यह गमनकी भी चर्चा है, किन्तु उसके लेखकके अनुसार भद्रबाहु समझानेकी श्राश्यकता नहीं है कि दोनों सम्प्रदायोंका नेपाल चले गये थे। प्रस्तु, जो कुछ हुआ हो, किन्नु इतना
आविर्भाव समकालीन है, उनमेंसे कोई एक न अर्वाचीन सुनिश्चित है कि श्रु तकेवली भद्रबाहु के समयमें बारह वर्षका है और न दूसरा प्राचीन । क्योंकि इन दोनों सम्प्रदायोंके भयंकर दुर्भिक्ष पड़ना और भगबाहु तथा साधुसंघका देश अविर्भावसे पहले जैन तीर्थक्करोंके द्वारा प्रतिपादित धर्म त्यागकर अन्यत्र चले जाना दोनों परम्पराओंको मान्य है जैनधर्म या पाहतधर्म कहा जाता था। न उपके साथ दिगम्बर और इसमें कोई मत भेद नहीं । दुर्भिक्षके बाद संघ-भेद कसे विशेषण जुड़ा हुआ था और न श्वेताम्बर विशेषण । अतः हुआ। इसके सम्बन्ध में हरिपेण-कृत वृहत्कथाकोशमें तथा जिस दिनसे उस एक पक्षने दिगम्बर जैनधर्म कहना प्रारम्भ देवसेनकृत भावसंग्रहमें वर्णन पाया जाता है। दोनों ही ग्रन्थ किया उसी दिनसे अपर पक्ष उसे श्वेताम्बर जैन धर्म कहने विक्रमकी दसवीं शतीके रचे हुए हैं, किन्तु दोनों के वर्णनमें लगा। और इस नरहसे भगवान ऋषभदेवसे लेकर महावीर बहुत अन्तर है। भावसंग्रहका वर्णन साम्प्रदायिक अभिपर्यन्त श्रवण्ड रूसे प्रवाहित होने वाली जैनधर्मकी धारा निवेशको लिये हुए है किन्तु कथाकोशमें दत्त भद्गबाहुकी महावीर भगवान के पश्चात् दो खण्डों में विभाजित होगई। कथामें तथ्यकी झलक है। कथाका उत्तरार्ध इस प्रकार है
वह कब विभाजित हुई और कसे विभाजित हुई, ये सभिक्ष होने पर भगवाहुका शिष्य विशाग्याचार्य अपने प्रश्न जैनधर्मके इतिहासमें बड़े महत्त्वके हैं, किन्तु इनका संके साथ दक्षिण पथसे लौट आया और रामिल्ल, स्थविर निश्चित उत्तर खोज निकालना भी सरल नहीं है। फिर
स्थूलभद्र सिन्धुदेशसे लौट आये। सिन्धुदेशसे लौटनेवालोंभो जनधर्मक अभ्यामियोंके लिये इन प्रश्नों पर प्रकाश
ने बतलाया कि वहांके श्रावक दुर्भिक्ष पीदिनोंके भयसे गत्रिमें डालनेका प्रयत्न किया जाता है । दिगम्बर-परम्पराके अनुसार
भोजन करते थे और उनके प्राग्रहसे हम लोग रात्रिमें जाकर यह विभाजन मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्य त्यागनेके पश्चात् भोजन ले पाते थे और दिनमें बाते थे। एक दिन रात्रिमें हुया। उस समय तक जैनधर्मकी धारा अखण्ड रूपमें
जैसे ही एक क्षीणकाय निर्ग्रन्थ साधुने एक श्रारक घरमें प्रवाहित थी और उसके एकमात्र नायक श्रुतकेवली भद्रबाहु
प्रवेश किया उसे देखकर एक गर्भिणी स्त्रीका भयवश गर्भथे। श्रतकेवली भद्रबाहुकं समयमें उत्तरभारतमें बारह वर्ष पात होगया। तब श्रावकोंने साधुओंसे प्रार्थना की कि आप तक भयंकर दुर्भिक्ष पडा, अनः भद्रबाहु एक बहुत बड़े दक्षिण हाथमें पात्र लेकर बाएँ हाथसे अर्धफालक (वस्त्रमुनिसंघके साथ दक्षिण देशको प्रस्थान कर गये । सम्राट्
खण्ड ) को आगे करके भोजनके लिये पाया करें। तबसे चन्द्रगुप्त भी राज्य न्याग कर उनके साथ चले गये। वहां
हम अर्धफालक धारण करते हैं। उन्हें समझाने पर कुछ वनमान मंसुर राज्यके श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर
अर्धफालक छोड़कर पूर्ववत् निर्ग्रन्थ होगये और कुछ नहीं भद्रबाहुका मंन्याम मरण होगया। चन्द्रगिरि पर्वत (श्रवण
माने। उन्होंने दो भेद कर दिये-एक जिनकल्प और एक वेलगोलामें स्थित) पर उत्कीर्ण शिलालेखोंमें इस घटनाका
स्थविरकल्प। इस तरह शक्रिहीन कायरोंने नये पन्थको विवरण दिया हुआ है और पुरातत्वविदोंने उसे ऐति- जन्म दिया। सौराष्ट्र दशके वल्भीपुराकी रानी अर्धफालकाहासिक सत्यके रूपमें स्वीकार किया है।
की बढ़ी भक्त थी। एक दिन राजाने अर्धफालक साधुओंको श्रतवली भद्रबाहके समयमें वारह वर्षका भयंकर देखकर कहा कि या तो आप लोग निग्रन्थ हो जाय, या दुर्भिक्ष पड़नेकी घटनाका वर्णन श्वेताम्बरर साहित्यमें भी अपने शरीरको वस्त्रसे बेष्ठित करलें । राजाके कहनेसे -भारतका प्राचीन इतिहास ( वी. स्मिथ ) तृतीय।
उन्होंने वस्त्र-धारण कर लिया और काम्बल तीर्थ स्थापित संस्करण, पृ. १४६ । मि. राईस द्वारा सम्पादित 'श्रवण
होगया । इसी काम्बल तीर्थसे दक्षिणा पथके सावलिपत्तन बेलगोलके शिलालेख' । जर्नल आफ विहार उड़ीसा रिसर्च '
नगरमें यापनीय संघ उत्पन्न हा । देवसेनने भी वलभी सोसायटी, जिल्द ३ में स्व. के. पी. जायसवालका लेख।
पा. जायसवाजका लेख। छत्तीले वारिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्म । २-परिशिष्ट पर्व, सर्ग, श्लो.१५.१८।
सोरट्ठ वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥१॥दर्शनसार
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किरण ११-१२ ]
जैनधर्म में सम्प्रदायोंका आविर्भाव नगरी में ही श्वेतपट सबकी उत्पत्ति विक्रम सम्वत् १३६में रस्नकम्बल भेंट दिया। प्राचार्यके मना करने पर भी शिवबतलाई है।
भूतिने उसे लेकर छिपा लिया। ज्ञात होने पर गुरुने उसके श्वेताम्बर-साहित्यमें दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्रमें टुकड़े करके साधुओंको पैर पूछनेके लिये दे दिये। शिवमुनियों के एक सम्मेलनकी चर्चा है. जिसमें ग्यारह अंग भूति बुरा मान गया । एक दिन गुरु जिनकल्पी साधुओंका संकलित किये गये। किन्तु भववाहस्वामीके नेपाल देशमें वर्णन कर रहे थे। उसे सुनकर शिवमूनि बोला-जिनकल्प स्थित होनेसे बार उवां अंग मंकलित नहीं होमका । संघसे ही क्यों नहीं धारण करते , गुर बोल-जम्यू स्वामीके तब दो मुनियोंको महबाहको बलाने के लिये भेजा गया। पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न हो गया। शिवभूति बोलाध्यान रत होनेसे उन्होंने पाना स्वीकार नहीं किया। इस मेरे रहते जिनकल्प विच्छिन्न कैसे हो सकता है। गरुके परसे मुनिसंघ और भद्रबाहक बीचमें कछ खींचातानी भी समझाने पर भी वह नहीं माना और वस्त्र त्यागकर दिगहोगई। इसीसे डा. याकोबीने कल्पमत्रकी प्रस्तावनामें म्बर होगया तथा दो शिष्योंको दीक्षित करक वाटिकमत लिखा है कि पाटलीपुत्रमें जैन संघने जो अग संकलित चलाया। किये वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय हए. समस्त जैन संघके नहीं, दोनों सम्प्रदायोंकी उन कथाांका निष्कर्ष इस क्योंकि उस संघमें भद्रबाहु सम्मिलित नहीं हुए। अस्तु,
प्रकार हैजो कुछ हो, इतना सुनिश्चित प्रतीत होता है कि श्रतकेवली -दिगम्बरोंका कहना है कि भद्रबाह धनकवलीके भद्रबाहुक समयमें बारह वर्ष भयंकर दुर्भिक्षके कारण कोई समय तक सब जन साधु दिगम्बर ही रहते थे। भद्रबाहुके ऐसी घटना अवश्य घटी जिमने आगे जाकर स्पष्ट संघ-भेद समयमें अशक्क साधुओंको दुर्भिक्षकी कठिनाइयोंकि कारण का रूप लेलिया और अखण्ड जैन संघ दो खण्डोंमें अर्धफालक (वस्त्र-खण्ड) स्वीकार करना पड़ा । भागे विभाजित होगया।
चलकर विक्रम राजाकी मृत्युके १२६ वर्ष बाद दम अर्धश्वेताम्बर-परम्परामें भ० महावीरके तीर्थकाल में सात
फालक सम्प्रदायसे श्वेताम्बर सम्प्रदायका जन्म हुआ। निहिन माने गये हैं । भागमकी यथार्थ बातको छिपाकर
-वेताम्बरोंका कहना है कि जम्बूम्बामीके पश्चात् अन्यथा कथन करनेका नाम निन्हव है। और इस तरहकी।
जिनकल्प विच्छिन्न होगया। अर्थात् जम्वृस्वामी नक तो घटनाएँ सम्प्रदायोंके आविर्भावमें कारण होती है। किन्तु
जैन साधु दिगम्बर रह सकते थे, दिगम्बर रहना सबक लिये इन निन्हवोंके कारण कोई नया माम्प्रदाय उत्पन्न नहीं हुश्रा
अनिवार्य नहीं था। उनके पश्चात् माधुके लिये दिगम्बर और एकके सिवाय शंप सभी निन्हवोंक कर्ता प्राचार्य सम
रहना निषिद्ध हो गया। किन्तु वीर निर्वाणक ६.६ वर्ष झानेसे मान गये । स्थानांग मूत्रमें मानों निन्हवोंके नाम,
पश्चात् शिवभूति नामके साधुने उसे चलाकर दिगम्बर स्थान और कर्ता प्राचार्योंका निर्देश है । आवश्यक,
मतको जन्म दिया। नियुकिमें काल भी दिया है। किन्तु उममें पाठ निन्हवों उन निष्कर्षमें निहित समस्याको मुलझानेके लिये का काल दिया है। भाष्यकारके अनुसार यह पाठवां साधओंके वस्त्र-परिधान अथवा त्यागके सम्बन्धमें विचार निन्हव बोटिकमन या दिगम्बर मत है. जो वीर निर्वाणके करना आवश्यक है । श्वेताम्बर भागोंके अवलोकनसे ६०६ (वि० सं० १३६) वर्ष पश्चात प्रगट हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि भ० महावीरने पार्श्वनाथके धर्ममें
इस पाठवें निन्हव दिगम्बर मतको जन्म देने वाला कुछ सुधार किये थे। भगवती सूत्रमें कलम बेसीयपुत्त जो शिवभूति नामका एक श्रावारा राज-सेवक था जो घरसे पार्वापन्येय था और महावीरके शिष्य में विवाद होने की चर्चा झगड़ कर आर्य कृष्ण नामक प्राचार्यक पाद-मूलमें स्वयं है। अन्तमें कलस प्रार्थना करता है कि मैं तुम्हारे पासमें ही दीलित होकर साधु बन गया। एक बार राजाने उसे चातुर्याम धर्मसे पंच महावत रूप सपतिक्रमण धर्मकी दीक्षा
लेकर विहार करूँगा। अर्थात् पार्श्वनाथके धर्ममें चार यम 1-छब्बाससयाई नवुत्तराई तइया सिद्धिं गयम्स वीरस्स । तो वोडियाण दिट्टी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ।।२५५०।। 'तुझं अंतिए चानुज्जामातो धम्मातो पंचमहब्वियं
-विशे० भा० सपदिक्कमनं धम्म उवसंपज्जिता विहरित्तए ।
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३२.] अनेकान्त
[ वर्ष १४ थे- ब्रह्मचर्यव्रत परिग्रह-न्यागमें सम्मिलित था। महावीरने सम्प्रदायमें ज्यों-ज्यों वस्त्र-पात्रवादका जोर होता गया त्योंउसे अलग करके पांच महाबन कर दिये। तथा पार्श्वनाथ- त्यों 'अचेतक' शब्द का अर्थ भी बदलता गया । हरिभद्र'. का धर्म प्रतिक्रमण-रहित था-किन्तु महावीरका धर्म सूरिने नग्न जैसे स्पष्ट शब्द के उपचार नग्न और निरूपचरित सप्रतिक्रमण था। दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचारमें भी कहा है कि नग्न दो भेद करके कुचलवान साधुको उपचरित नग्न और भगवान् ऋषभदेव और महावीरके सिवाय शेप बाईप जिनकल्पीको निरुपचरित नग्न कहा है। इसी तरह अचेतीर्थकरोंने छेदोपस्थापना चारित्रका उपदेश नहीं दिया। लका अर्थ अल्पचेल और अल्पमूलचेल किया गया है। कारण यह है कि मामयिक वनमें दृषण लगने पर छेदोप- यही बान 'सान्तरोत्तर' शब्दक सम्बन्धमें भी हुई । अचेलका स्थापनाकी आवश्यकता होती है । किन्तु उस समयके अर्थ 'अल्पमूल्यचल' करने वाले टीकाकार नेमिचन्द्रने मनुष्य ऋजु और प्राज्ञ होनेके कारण व्रतमें दूषण नहीं 'सान्तरोत्तर' का अर्थ किया है-'पान्तर' अर्थात् वर्द्धमान लगाते थे। इसी उनके लिये प्रतिक्रमणकी भी आवश्यस्वामी के साधुनों की अपेक्षा प्रमाण और वर्ण में विशिष्ट, कता नहीं थी, क्योंकि लगे हुए दोषोंकी विशुद्धि के लिये और 'उत्तर' अर्थात महा मृल्यवान होनेके कारण प्रधान, प्रतिक्रमण किया जाता है । भ० ऋषभदेवके समय लोग ऐसे वस्त्र जिसमें धारण किये जाते हैं । इसका यह मतलब ऋजु किन्तु जड़ (अज्ञानी) थे और महावीरक समयके हा कि पार्श्वनायके माधुनोंको महा मृल्यवाले और चित्र मनुष्य वक्र (कुटिल) और जड़ थे। इसलिये आदि और विचित्र कपडे पहिनने की अनुशा धी और भ० महावीरक अन्तके तीर्थंकरोंके धर्मस शेप बाईस तीर्थंकरोंक धर्ममें कुछ साधु नोंको अल्पमूल्य वाले वस्त्र पहिनने की । किन्तु दोनों अन्तर होता है-मा श्वेताम्बर साहित्यमें लिखा है।
लिम हान्तिक नहीं हैं। उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है कि जब पाव नाथकी प्राचारांग सूत्रक विमोक्षाध्ययनमें भी वस्त्रके प्रकरण परम्पराके अनुयायी केशीने गौतमसे प्रश्न किया कि भगवान् (सू. २०१ ) में 'संतस्त्तर' पद श्राया है। श्राचार्य महावीर और पार्श्वनाथका धर्म जब एक ही है तो क्या शीलांकने इसका अर्थ किया है-सान्तर है उत्तर-प्रोढना कारण है कि महावीरने अपना धर्म 'अचलका रखा और जिमका । अर्थात् जो वस्त्र को अवश्यकता होने पर प्रोढ़ता पाच नाथने 'सान्तरोत्तर' ? नब गौतमने उसर दिया भगवान
है और फिर उतार कर पाममें रख लेता है। अंचलकके पार्श्वनाथके समयके मनुष्य मरल और बुद्धिमान् थे, भग
वास्तविक अर्थ वस्त्र-रहितके साथ इस अर्थकी संगति ठीक वानका ठीक-ठीक श्राशय समझते थे और उसमें अर्थका
बैठ जाती है। महावीर स्वामीका धर्म अचेलक था उनक अनर्थ नहीं करते थे। किन्तु भगवान महावीरके समयके
साधु निर्वस्त्र रहते थे और पार्श्वनाथका धर्म 'मान्तरोत्तर' मनुष्य मन्दबुद्धि और कुटिल हैं अतः भगवान्ने स्पष्ट
था, उनके साधु आवश्यकता होने पर वस्त्र प्रोढ लेते थे। रूपसे अपने धर्मको 'अचेलक' रक्खा । हरिभद्रमरि ने इसीलिये श्वेताम्बर साहित्यमें महावीरके धर्मको श्रचेल 'पञ्चाशक' में भ० महावीरक धर्मको 'दुरनुपालनीय' बत. और पार्श्वनाथके धर्मको संचल और अचेल कहा है। वस्त्र नागासा
को धारण करने के तीन कारण बतलाये हैं। एक ही-प्रत्यय, हुए लिखा है-अन्तिम जिनके साधु वक्रजड होते हैं जिम- लज्जाक कारण, एक जुगुप्सा-प्रत्यय-लिंग दोप होने पर तिस बहानेसे हेय पदार्थोका भी सेवन करते हैं।
लोकनिन्दाके कारण और शीतादि परीषहके कारण । श्रतः अतः पार्श्वनाथ और महावीरके धर्ममें यदि कुछ अन्तर
२-पाचारांग सू. १८२ टीका शीलांक में। था तो पालक मनुष्योंकी मनःस्थितिके कारण ही अन्तर
३-अल्पमूल्यं चेलमप्यचेलम्-उत्तरा० टी० नेमिथा-अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं था। चूंकि प्रकृत चर्चा चन्द्र पृष्ठ १७॥ वस्त्रके सम्बन्धमें है अतः उसे ही लेना उचित होगा।
४-सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, चित्प्राकेशी-गौतम-संवादमें महावीरके धर्मको 'अचेलक' और
वृणोति कचित् पार्श्ववनि विभति। पानाधके धर्मको 'सान्तरोत्तर' बतलाया है। श्वेताम्बर
१ तिहि ठाणेहिं वरथं धरिज्जा-'होरिवत्तिय दुगुच्छा-दशवकालिक टीका।
वत्तियं, परीसहवत्तिय ।
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किरण ११-१२] विचार-कण
[ ३९३ हो सकता है कि अपने अनुयायियोंको सरल हृदय और डालकर उसे आगे कर लेते थे। मथुराके कङ्काली टीलेसे जो विवेकशील समझकर पार्श्वनाथने उक्त तीन स्थितिमें वस्त्र आयाग पट्ट मिला है उसमें एक माधुकी मूर्ति है बनी जो धारण की आज्ञा दे दी हो। किन्तु स्वयं तो वे महावीरकी बायें हाथ में एक वस्त्र खंडके द्वारा अपनी नग्नताको छिपाये तरह अचेलक-नग्न दिगम्बर ही रहे थे-जैसा कि जिनभद्र- हुए है । उसे, आर्य' कण्डको मूर्ति कहा है और सम्बत् १५ गणिने अपने विशेपावश्यक भाष्य में सभी तीर्थङ्करोंके की बतलाई है । यह श्रार्यकएह वे ही जान पड़ते हैं जिनके लिये लिया है कि ये वैसे तो वस्त्र-पात्र ग्रहण नहीं करते, पास शिवभूतिने दीक्षा ली थी। चूंकि मथुराले प्राप्त शिलाकिंतु मवस्त्रतीर्थका उपदेश देनेके लिये एक वस्त्र ग्रहण लेखोंमें जो प्राचार्य प्रादिके नाम पाये हैं वे श्वेताम्बर कल्पकरते हैं और उसके गिर जाने पर अचेलक हो जाते हैं, सूत्र के अनुसार हैं, अतः उक्त मूर्ति श्वेताम्बर साधु कण्ह अस्तु ।
____ की हो सकती है और ऐसी स्थितिमें यह मानना होगा कि ___फिर भ० महावीरके समयमें पार्श्वनाथको हुए २५० वर्ष विक्रमकी प्रथम शतीमें श्वेताम्बर साधु भी एक तरहसे हो गये थे। अत: यह भी संभव है कि इतने समयमें उनके नग्न ही रहते थे। उसके पश्चत् ही वस्त्रकी वृद्धि हुई । अनुयायी साधुओं में भी शिथिलाचार आगया और यद्यपि हरिभद्रसूरिने सबोधप्रकरणमें अपने समर्थक शिथिलाचारी उन्होंने महावीरका धर्म अंगीकार किया, किन्तु शिथिलाचार- साधुओंकी चर्चा करते बतलाने हुए लिखा है कि वे बिना की प्रवृत्ति न गई हो और आगे चलकर उनक संसर्गने ही कारण कटिवस्त्र बाँधते हैं। विशे० भा० (गा. २५६६) की महावीरके साधु-संघमें मी वस्त्रकी पोर अभिरुचि उत्पन्नकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है कि माधु कांछ नहीं लगाते, हो । कुछ दशी और विदेशी विद्वानोंका भी ऐसा विचार है। दोनों कूपरोंके अग्र भागम ही चोल्लाहक धारण करते हैं। भद्रबाहुके समयमें दुर्भिक्षकी भयानकतासे उक्त प्रवृत्तिको अतः विक्रमकी पाठवीं शतावे और उसके बाद भी श्वेताप्रोत्साहन मिलना तो साधारण बात है । अत: उस समय म्बर धुपायों में वस्त्र का अनावश्यक उपयोग नहीं होता था। मानसिक प्रवृत्तिका बाह्य रूप लेलेना असंभव नहीं है। किन्तु धीरे धीरे उसमें वृद्धि होती गई और इस तरह जैन
हरिषेणकी कथा बनलाती है कि पहले अर्धफालकके धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायमें विभाजित रूपमें वम्त्रकी प्रवृति पाई। अर्थात् बायें हाथ पर वस्त्र होगया । २ गाथा २५८१-२५८३ ।
१-२ देखो जैन माहिन्यनो इतिहासमें लगा चित्र, पृ. १२४
विचार-कण ससारमें दुःखादिका कारण परिग्रह पिशाच है। यह उसका खेद मत करो। उममें निजत्वकी कल्पना भी जहाँ आया अच्छे अच्छे महापुरुषोंकी मति भ्रष्ट मत करो। करदेता है। परिग्रहकी मूर्छा इतनी प्रबल है कि परकी आलोचनासे सिवा कलुपताके कुछ हाथ
आत्माको आत्माय ज्ञानसे वंचित कर देती है। जब नहीं आता। परन्तु अपने उत्कर्षको व्यक्त करने की तक इसका सद्भाव है आत्मा यथाख्यातचारित्रसे वंचित जो अभिलाषा है वह दूसरोंकी आलोचना किये बिना रहता है । अविरत अवस्थासे पार होना कठिन है। पूर्ण नहीं होती। उसे पूर्ण करने के लिये मनुष्य जब
जब परिग्रह नहीं तब कलुपित होनेका कोई करण परकी आलोचना करता है तब उमके ही कलुष। नहीं। किन्तु वास्तव में देखा जाये तब हमने परिग्रह परिणाम उसके सुगुण घातक बन बैठते हैं। त्यागा ही नहीं । जिमको त्यागा वह तो परिग्रहही नहीं। निंदामें विषादका होना और प्रशंसामें हर्पका वह तो पर पदार्थ है उसको त्यागना ही भूल है। होना तो प्रायः बहुत मनुष्योंको होता है परन्तु हमको उनका तो आत्मासे कोई सम्बन्ध ही नहीं । आत्मा तो तो निन्दा ही अच्छी नहीं लगती। और प्रशंसा दर्शन ज्ञान चारित्रका पिण्ड हैं। उस मोहके विपाकसे भी खेद होता है। वास्तव में ये अनात्मीय धर्म हैं कलुषता आती है वह चारित्र गुणको विपरिणति है इसमें रागद्वप करना सर्वथा वर्जनीय हैं। उसे त्यागना चाहिये । उसका त्याग यही है परन्तु
-वर्णी वाणीसे
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समन्तभद्रका समय
(डा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए., एल. एल. बी.) आधुनिक युगमें स्वामी समन्तभद्की ऐतिहासिकता शताब्दियोंके मध्यवर्ती किसी समयमें ही वे हुए हैं । स्थूलएवं समयादिका सूचन डाक्टर श्रार. जी. भंडारकर, के, बी. रूपसे विचार करने पर हमें समन्तभद्र विक्रमकी प्रायः पाठक, सतीशचन्द्र विद्याभूषण, ई. पी. राइस, लुइसराइस, दसरी या दपरी और तीसरी शताब्दीके विद्वान् मालूम
आर. नरसिंह प्राचार्य, रामास्वामी अायगर श्रादि प्राच्य होते हैं।न्ति निश्चयपूर्वक यह बात भी अभी नहीं कही विदोंने अपने-अपने लंग्वों एवं ग्रन्थों में सर्वप्रथम किया था। जा सकती। समन्तभद्-सम्बन्धी ये मृचन और विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त और प्रायः चलतऊ थे । अपनी परंपरामें प्रचलित अनुभूति
मुख्तार साहबके इस निबन्धके प्रकाशनके उपरान्त भी
कई विद्वानोंने समन्तभद्रको विक्रमकी श्वीं, छठी या ७वीं के अनुसार जैनोंकी यह धारणा रहती श्राई है कि प्राप्त
शताब्दीका विद्वान् ठहरानेका प्रयत्न किया। दूसरे विद्वानोंमीमांसा स्वयंभूस्तोत्र, स्नकरंडश्रावकाचार प्रादिके रचयिता।
ने इन नवीन मतोंका सफल खंडन भी किया। सन् १९४७ महान् दिगम्बराचार्य स्वामी समन्तभद्र विक्रमकी दूसरी
ई० में हमने भी 'म्वामी समन्तभद्र और इतिहास' शीर्षक शताब्दीमें हुए थे। डा. भंडारकरको शक संवत् ६० (सन्
एक विस्तृत लेख द्वारा ईस्वी सन्की प्रारम्भिक शताब्दियोंके १३८ ई०) में समन्तभद्रके होनेका उल्लेख लिये हुए एक
दक्षिण भारतीय इतिहासकी पृष्ठभूमिमें स्वामी समन्तभद्रका पट्टावली प्राप्त हो गई जिससे उपरोक्त जैन अनुश्रुतिका
समय-निर्णय करने और उनके इतिवृत्तका पुनर्निर्माण समर्थन होता था-संभव है कि वह पदावली ही उक्त
करनेका प्रयत्न किया था। उस लेखका सारांश वर्णी अभिअनुच तिका मूलाधार रही हो। डा० भंडारकरकी उक्त
नन्दन ग्रन्थमें प्रकाशित हुआ था। स्थानाभावके कारण सूचनाके आधार पर अन्य अधिकांश विद्वानोंने समन्तभद्रके
ग्रन्थके संपादकोंने उक्त लेखमेंसे विभिन्न मत-मतान्तरोंकी उक्त परम्परा-सम्मत समयको साधार होनेके कारण प्रापः
मालोचना तथा राजनैतिक इतिहासके विवेचनसे संबन्धित मान्य कर लिया। किन्तु डा० पाठक और डा० विद्याभूषण
कई बड़े बड़े अंश छोड़ दिये थे। इस लेख में हमने समस्त ने उसे मान्य नहीं किया। प्रथम विद्वान्ने उसके स्थानमें
उपलब्ध प्रमाणों एवं ज्ञात मतोंकी आलोचना एवं विवेचन ८वीं शताब्दी ई०के पूर्वार्धमें तथा दूसरेने छठी शताब्दी ई.
करते हुए स्वामी समन्तभद्रका समय १२०-१८५ ई. के अन्तके लगभग समन्तभद्रका होना अनुमान किया।
निर्णय किया था और यह प्रतिपादित किया था कि उनका स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त, उनके इतिहासके जन्म पूर्वी तटवर्ती नागराज्यसंघके अन्तर्गत उरगपुर (उरैयूर अथक गवेषक तथा उनकी वाणीके उत्पाही प्रभावक पं० वर्तमान त्रिचनापल्ली) के नागवंशी चोल-नरेश कीलिकजुगलकिशोरजी मुख्तारने लगभग तीस वर्ष हुए अपने वर्मनके कनिष्ठ पुत्र एवं उसके उत्तराधिकारी सर्ववर्मन प्रायः दो सौ पृष्टके महत्त्वपूर्ण निबन्धमें स्वामी समन्तभद्- (सोर नाग) के अनुज राजकुमार शांतिवर्मनके रूपमें सभवके इतिहासका विवेचन किया था और उस निबन्धके लगभग तया सन् १२० ई० के लगभग हुआ था, सन् १३५ प्राधे भागमें बहुत विस्तार एवं ऊहापोहके साथ उक्त (पट्टावली प्रदत्त शक सं०६०) में उन्होंने मुनिदीक्षा प्राचार्यके ममयको निर्णय करनेका प्रयत्न किया था। उन्होंने ली और १८५ ई. के लगभग वे स्वर्गस्थ हुए प्रतीत होते पाठक, विद्याभूषण प्रभृति उन विद्वानोंकी युक्तियोंको जो हैं। अभी हालमें ही अपने ग्रन्थ 'स्टडीज इन दी जैना समन्तभद्रको अपेक्षाकृत अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते थे, सोर्सेज श्राव दी हिस्टरी आव पुन्शेन्ट इंडिया' के लिये निस्पार सिद्ध कर दिया था। किन्तु स्वयं भी केवल इसी समन्तभद्र-सम्बन्धी समस्त सामग्रीका पुनः प्राडोलन निष्कर्ष पर पहुँच सके थे कि '..समन्तभद्र विक्रम को परीक्षण करने पर भी उपरोक्त मतको संशोधित या परि पांचवीं शताब्दीसे पीछे अथवा ईस्वी सन् ४५० के बाद पर्तित करनेका कोई कारण नहीं मिला। नहीं हुए, और न वे विक्रमकी पहली शताब्दीसे पहलेके अब अनेकान्त वर्ष १४ किरण के पृष्ठ ३-८ पर श्री ही विद्वान् मालूम होते हैं-पहलीसे पांचवीं तक पांच मुख्तार साहबका 'समन्तभद्रका समय-निर्णय' शीर्षक लेख
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किरण ११-१२]
समन्तभद्रका समय
[३२५
DD
प्रकाशित हुआ है। इस लेखमें वे अपने पूर्व निर्णयको संशो- होना सभी विद्वान मान्य करते हैं. प्रमाणबाहुल्य उन्हें इस धित करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि-'यह बात असं- तथ्यको मान्य करनेके लिये बाध्य करता है। किन्तु सिंहदिग्ध रूपसे स्पष्ट हो जाती है कि स्वामी समन्तभद्र विक्रम नन्दि-द्वारा गगराज्यकी संस्थापन-तिथिके सम्बन्धमें भारी की दूसरी शताब्दीके विद्वान थे। भले ही वे इस शताब्दीके मतभेद है। फ्लीट, नरसिंहाचार्य, कृष्णास्वामी प्रायंगर, उत्तरार्धमें भी रहे हों या न रहे हों', तथा 'समन्तभद्र शामाशास्त्री, गोविन्दपै, कृष्णारापो, सिवेल, मोरेड्स, विक्रमकी दूसरी अथवा ईसाकी पहली शताब्दीका समय रामास्वामी श्रायंगर, सालतोर, श्रीकण्ठशास्त्री आदि जितने और भी अधिक निर्णीत और निर्विवाद हो जाता है।' विद्वानोंने भी गगनरेशोंके इतिहास, कालक्रम एवं अभिलेखों
विद्वान लेखकने अपने इस निर्णयका प्रधान आधार पर कार्य किया है उन सबहीने उपरोक कथित शक सम्वत् निन्नलिखित साधनोंको बनाया है
२५ वाले अभिलेखकी उपेक्षा की है और सिंहनन्दि-द्वारा (१) कथित दिगम्बर पट्टावलीका उल्लेख-६० शाके गगवंशकी स्थापना तथा इस वंशके प्रथम नरेश माधव राज्ये दिगम्बराचार्यः १७ श्रीसामन्तभद्रसूरिः।
प्रथम कोंगुणिवर्मनकी तिथि तीसरी शताब्दी ई. के मध्यके (२) कतिपय श्वेताम्बर पट्टावलियों में सामन्तभद्र नामक लगभग निश्चित की है। कुछ विद्वान् तो इस निथिको एक आचार्यके पट्टारम्भकी तिथिका वीर नि० सम्बत् ६४३, चौथी शताब्दी ईस्वीके उत्तरार्ध अथवा पांचवीं शताब्दी तथा उनके पट्टशिष्य द्वारा एक प्रतिष्ठा करानेको तिथिका ईस्वीके पूर्वार्ध तकमें निश्चित करते हैं। स्वयं लुइसराइसने वीर नि० सम्बत् ६१५ में दिया जाना ।
जिसने उक्त शिलालेखको प्रकाशित किया था उसके अाधार (३) लूइसराइस द्वारा दूसरी शती ईस्वीके अन्तके पर अपने मतमें परिवर्तन नहीं किया। राइसके मतानुसार लगभग गंगराज्यकी स्थापना करनेवाले प्राचार्य सिंहनन्दिका गंगराज्यकी स्थापना दूसरी शताब्दी ईस्वीके अन्तके लगभग समन्तभद्र के बादमें होना अनुमान किया जाना।
हुई थी और क्योंकि तामिल इतिहाप ग्रन्थ कोगुदेशराज(४) हुमच (शिमोगा, नगर तालुके ) से प्राप्त ११वीं क्कल' के लेखकने कुछ अन्य प्राधारों पर वह तिथि १८८१२वीं शताब्दी ई. के तीन शिलालेखोंमें गंगराज-संस्थापक मई तथा कांगुणिवर्मन प्रथमका समय १८६-२४०ई० सिंहनन्दिका समन्तभद्रके अन्वयमें होना सूचित किया निश्चित किया था राइमने इन तिथियोंको ही अपनी गंगजाना। और
कलानुक्रमणिकाका आधार बनाया। वस्तुतः अन्य मतोंकी (१) नंजनगूड तालुकेसे प्राप्त और एपीग्राफी कर्णा- अपेक्षा यही मत अधिक संगन एवं मान्य भी हुआ। टिकाकी जिल्द ८ में नं० ११० पर प्रकाशित वह शिलालेख इम (शक २५ वाले) शिलालेखको मान्यता प्राप्त जिसमें प्रथम गंगनरेश-द्वारा शक सम्वत् २५ (मन् १०३ नहानेका कारण यही था कि वह अभिलेख जाली अथवा ई.) में किसी दानके दिये जानेका उल्लेख है। बहुत पीछे लिम्बा गया माना जाता रहा है । भाषा और
उपरोक्त प्रमाणोंमेंसे पहले तीन मुख्तार साहब लिपि तथा उसमें उल्लेग्वित नथ्य उमके दूसरी शती ई० के सन्मुग्व उस समय भी उपस्थित थे जब उन्होंने अपना 'स्वामी प्रारम्भका हान में विरुद्ध पड़ते हैं । शक सम्बन्धी प्रारम्भिक समन्तभद्र' शीर्षक निबन्ध प्रकाशित किया था । अन्तिम दो तीन शताब्दियों में इस सम्बनके शक नामसे प्रयुक्र होने दो भी यद्यपि प्रकाशमें पा चुके थे, किन्तु उनकी ओर का कोई भी श्रसदिग्ध प्रमाण अन्यग्र नहीं मिला है । उनका ध्यान उस समय तक आकृष्ट नहीं हुआ था। अपने उत्तरापथम उदित इम संवत्का २५ वर्ष के भीतर ही प्रस्तुत निर्णयमें सर्वाधिक बल उन्होंने न. ५ वाले प्रमाण मुदर दक्षिण कर्णाटकमें प्रचलित हो जाना भी प्रायः श्रमपर ही दिया है और उसीके आधार पर समन्तभद्को प्रथम म्भव है। कांगणिवर्मन सभी गंगनरेशोंकी वंश-विशिष्ट शताब्दी ईस्वीका विद्वान् निर्णीत किया है।
उपाधि थी और 'काँगुणिवर्म धर्ममहाधिराज' के रूप में उसका किन्तु जहां तक इस शिलालेम्वका प्रश्न है, गंगवंशकी सर्वप्रथम प्रयोग इस वशके सातवें नरेश अविनीत के समय कालानुक्रमणिकाको स्थिर करने में किसी भी विद्वानने इसका से ही मिलना प्रारम्भ होता है । प्राचीन गंग अभिलेखों में से उपयोग या संकेन नहीं किया है। मैसूरके प्राचीन गंगवाडि अनेक जाली या अविश्वसनीय सिद्ध हुए हैं। स्वयं प्रविराज्यकी स्थापनामें जैनाचार्य सिंहनन्दिका प्रेरक एवं सहायक नीतका मर्करा ताम्रपत्र (शक ३८८) भी जाली अथवा
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अनेकान्त
| वर्ष १४
कई शताठिन उपरान्त मूल दानशासनका नवीनीकरणमात्र वरन् उमास्वामी और उनके पश्चात् होने वाले बलाकही माना जाता है। प्रस्तुत शिलालेखके सम्बन्धमें भी यही पिरछके भी उत्तरवर्ती हैं। उमास्वामी कुन्दकुन्दके पश्चात् समझा जाता है कि यदि यह बिल्कुल जाली नहीं है तो हुए हैं और ये दोनों विद्वान पहली शताब्दी ईस्वी के हैं। कम-से-कम यह बात तो निश्चित है कि इसमें से पंचविं- बल्कि उमास्वामीके तो दूसरी शताब्दी ई०के कुछ भागमें शति' के साथ प्रयुक्त होनेवाला शताब्दि सूचक शब्द या भी जीवित रहनेकी संभावना है। स्वयं मुख्तार साहबकी तो नष्ट हो गया है अथवा लेखककी भूलसे हट गया है अभी तककी मान्यता इसके विपरीत नहीं है। और यह लेख किसी उत्तरवर्ती गंग मरेशका है।
(३) दिगम्बर आम्नायके आगमोंके संकलनकर्ता इसके अतिरिक्त, गंग शिलालेखोंके अनुसार सिंहनन्दि आचार्य गुणधर, आर्यमंतु, नागहस्ति और धरसेन, पुप्पद्वारा प्रस्थापित नवीन गंगवाल राज्यकी पूर्वी सीमा तोंडेय- दन्त, भूतबलिका समय भी पहली शताब्दी ईस्वी ही माडु थी । तोंडेयनाडु या तोंडेयमडलम्का उदय ११० निश्चित होता है। उसके उपरान्त रहा मानने वाले विद्वान् के उपरान्त हुअा था। उसकी राजधानी कांचीका निर्माण. तो हैं किन्तु उससे पूर्व रहा प्रायः कोई भी नहीं मानता। विकास एवं प्रसिद्धि भी तभीसे प्रारम्भ हुई । यूनानी
समन्तभद्रने अपना गंधहस्तिमहाभाप्य भूतबलिके पटम्बण्डागम भूगोलवेत्ता टालेमीकी साक्षीके अनुसार १४० ई. तक
अथवा उमास्वामीके तत्वार्थाधिगम पर रचा था ऐसा माना
जाता है। पूर्वीतटकी नागसत्ता विद्यमान थी और उस समय तांडेय
(५) दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय-भेद तथा दक्षिणात्य मंडलका कोई अस्तित्व न था। १५०ई० के उपरान्त नाग- मलमंघका उपसंघों में विभाजन पहली शताब्दी ई. के उत्तसत्ताके विच्छिम होने पर एवं कांचीमें पल्लव वंशकी स्थापना रार्ध में हया था। जिन शिलालेखों (हुमच पंच बसदि होने पर उन नाम प्रसिद्ध हुए।
श्रादि) को सिंहनंदिका समन्तभद्रके अन्वय या माक्षात् गंगवंशकी स्थापना तिथिके लगभग एक सौ वर्ष पीछे शिष्य-परम्परामें होनेके लिये प्राधार बनाया गया है उन्हींले जानेसे सुनिश्चित तिथियों एवं नाम तथा घटना समी- के समकालीन एवं समान थाशय वाले अन्य कई शिलाकरणों के आधार पर गंगवंशकी जो कालानुक्रमणिका स्थिर लेग्यों में सिंहनंदिको मूलमंघान्तर्गत कुन्दकुन्दान्वयके कागरकी जाती है यह सब विच्छिन्न हो जाती है और उसमें
और उसमें गण, मेषपाषणगच्छका प्राचार्य सूचित किया गया है अपरिहार्य बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
(११२२ ई० का मिश्वर बदि हम्ब. ई. मी. VII)| प्राचार्य सिंहनंदिक समय-निर्णयका गंगराज्य स्थापन- सिंहनंदिके इनने निकट पूर्ववर्ती समन्तभद्रका भी यही की घटनाके अतिरिक्त और कोई अन्य सुनिश्चित अाधार गण, गच्छ प्रादि होना संभव है। किन्तु अर्हद्बलि द्वारा नहीं है और इस घटनाके आधार पर उनका समय दुसरी मूलसंघक प्रस्थापित नंदि, देव, सिंह, सेन, भद्र आदि शताब्दी ईलाक अन्तिम दशकस लेकर तीसरी शताब्दी भेदों में काणूर गणका कहीं पना नहीं चलता। इन गणई. के मध्य के बीच स्थिर होता है, उसके पूर्व नहीं। अतः गच्च प्रादिककी उत्पत्ति होने या उनक रूढ होने एवं शाखासिंहनंदिके पूर्वापरके अाधार पर समन्तभद्को पहली शताब्दी प्रशाखाग्राम बैटन लिय एक शताब्दीका समय भी ईस्वी में हुया सिद्ध करना न प्रमाण मंगत ही है और न थोडा ही है। युक्ति-संगत ही।
(२) जहां तक श्वेताम्बर पटापलियांक १७ श्रादि इसके अतिरिक्त प्राचार्य समन्तभद्रको पहली शताब्दी पद्यर श्वेताम्बराचार्य सामन्तभद्रमूरिके साथ दिगम्बराचार्य ई० में हुमा मानने में और भी अनेक बाधाएँ है यथा- स्वामी समन्तभद्रका अभिमन्य सिद्ध करनेका प्रयत्न है, वह
(१) बौद्ध विद्वान नागार्जुन कुषाणकालमें हुअा था निस्सार सा है । एक सम्प्रदायके विद्वानोंने दूसरे सम्प्रदायके और उसकी अंतिम ज्ञात तिथि १८१ई. है। समन्तभद्रका प्रतिभाशाली विद्वानोंकी प्रशंसा और उनके प्रति आदर उस पर और उसका ममन्तभद्र पर साक्षात् प्रभाव दृष्टि- प्रदर्शन तो बहुधा किया है, किन्तु अपने आम्नायके एक गोचर होता है।
कट्टर समर्थक, पोषक एवं प्रभावक विद्वानको दूसरे सम्प्रदाय (२) अनुश्रुतियों एवं शिलालेखोंके अनुसार समन्त- द्वारा अपना लिये जानेके शायद ही कोई उदाहरण मिले, भद्र न केवल कुन्दकुन्द और उनके शिष्य कुन्दकीर्तिके, और जबकि उन्हें अपना लेने पर भी उनको किसी भी
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किरण ११-१२
समन्तभद्रका समय
[३२७
कृतिको न अपनाया जाये। एक नामके एक ही समयमें इस पट्टावलीमें उदारमना संकलनकर्ताने दिगम्बर-श्वेताम्बर एक ही सम्प्रदायमें एकाधिक विद्वानोंके होनेकी बात जैन भेदभावके बिना अपनी दृष्टि में श्री वर्धमान स्वामी प्ररूपित संवमें अनोखी नहीं है तब प्रायः एक ही समयमें दोनों ही शुद्ध धर्मके आराधक प्रमुग्व-प्रमुख अथवा विख्यात जैनाचार्योसम्प्रदायोंमें मिलने सुलते नामके दो विद्वानोंका होना असं- की एक कालक्रमानुसार सूची बनाई प्रतीत होती है। ऐसी भव नहीं है। प्रस्तुत अभिन्नलको सिद्ध करनेका प्रयत्न स्थितिमें उसे किसी विशेष पट्ट-परम्पराका सूचक मानना पहिले भी कतिपय विद्वानों द्वारा हो चुका है। किन्तु ऐसे भ्रमपूर्ण होगा और इसीलिये यही अधिक सम्भव है कि विचार या प्रयत्न यदेच्छा-सूचक मात्र ही हैं। यदि इस जिन जिन था वार्योका उन्होंने उल्लेख किया है उनके संबंध में अभिन्नत्वकी धोरीमें कुछ तथ्यांश मान भी लिया जाय तो जिम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निथिको उन्होंने परंपरा अनुश्र तिसे भी उक्त पदावलियोंक अनुसार समन्तभद्र का समय ११६ प्राप्त किया, उसे ही लिख दिया। किसीकी तिथि निधनकी ई. (वी. नि. सं०६४३) से लेकर १६८ ई. (वी. नि. सूचक हो सकती है, तो किमीकी पट्टारंभकी सूचका दीक्षासं ६६५) जो कि उनके पट्टशिष्यका समय सूचित किया समयकी सूचक, जन्मकी सूचक अथवा अन्य किसी विशेष गया है, तक चलता है और यह ममय हमारे द्वारा निर्णीत घटना या प्रभाषक कार्यकी सूचक भी हो सकती है। अतः समय (१२०-१८५१०) के साथ ही अधिक मेल खाता है। यह आवश्यक नहीं है कि समन्तभद्रकी तिथि (शक सं० (६) समन्तभद्र की तिथि सन् १३८ ई. (शक स ६०)
६०) उनके निधनकी ही सूचक हो, वह उनके दीक्षारंभकी
६०) उनक निधनका हा सूर प्रदान करने वानी जो पहावनी है, जिसे कई स्थलों पर भी सूचक हो सकती है जैसा कि हमारा अनुमान है। दिगम्बर पहावलीके नामसे उल्लम्बित किया गया है तथा उपरोक नथ्योंकी दृष्टिसे समन्तभद्रका समय दूसरी जिसे किमी श्वेताम्बर विद्वान द्वारा संकलित की गई बनाया शताब्दी ई० से पहले ले जाना, श्रथवा १२०-१८५ ई० से हे वह भंडारकरकी रिपोर्टमें संग्रहीन पट्टावलीसे अभिन्न जान अधिक इधर-उधर करना प्रमाण एवं युक्ति दोनोंसे बाध्य पड़ती है।
प्रतीत होता है।
सम्पादकीय नोटइस मारे लेखका मार अथवा फलिनार्थ इतना ही है देखा होता तो उसके सम्बन्ध में जो कल्पनाएँ लेखके कि स्वामी समन्तभद्र का जो समय शक सम्वन ६० (सन् अन्तिम भागमें की गई हैं उनके करनेका उन्हें अवसर ही १३८ ई.) प्रसिद्ध तथा एक पट्टावलीमें अंकित है वह प्राप्त न होता । वह पट्टावली साफ तौर पर किसी श्वेताम्बर उनका निधन-पमय न होकर उनकी दीक्षाका समय है। विद्वानके द्वारा ही संकलित की गई है और उसमें प्रायः परन्तु दीक्षाका समय है इसको स्पष्ट करके बतलाने वाला श्वेताम्बर-श्राचार्योक नामोंका ही उल्लेख है, नं. ६५ तक कोई भी प्रमाण लेखमें उपस्थित नहीं किया गया, जबकि गुरु या पह-परम्परा दी है, फिर अन्य घटनामोंका समयापावली में दिये हए अन्य समयोंकी दृप्टिसे वह प्रायः निधन- विकके साथ उल्लेख किया है। अस्तु । समय प्रतीत होता है। उदाहरणके तौर पर पहावसीम शक संवत् १०(सन् १३८ ई.)को समन्तभद्रका वीरके निवारण के १२ वर्ष बाद गौतमका ममय और भद- निधन समय मानने पर यह तो स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है बाह का १७० वर्ष बाद दिया है। ये दोनों ममय महावीर- कि वे इसाकी दमरी शताब्दीके भी विद्वान रहे हैं और के बाद उन श्राचार्यो के पट्टारोहण के समय न होकर उनके इसलिये विचारणीय लेखमें ईसाकी पहली-चूसरी शताब्दीके पट्ट-समयको समाप्तिके द्योतक हैं। पट्टावलियोंमें श्राम तौर स्थान पर यदि पहली शताब्दी ही छप गया है तो उसे पर पट्टारोहण अथवा पट्ट-समाप्तिका समय ही दिया होता लेकर यह प्रतिपादन करना तथा आपत्तिका विषय बनाना है-दीक्षाका नहीं । दीक्षाका समय जहाँ देना होता है वहाँ ठीक नहीं है कि मेरे द्वारा उस लेखमें समन्तभद्रका समय उ-का स्पष्ट रूपसे उल्लेख किया जाता है । लेखक महाशय- ईमाकी पहली शताब्दी ही सीमित किया गया है। लेखकने डा० भण्डारकरके द्वारा सन् १८८३-४ की रिपोर्टमें ने जो उन समयको दीक्षा-समय अनुमान किया है उसका प्रकाशित उक पट्टावलीको देखा मालूम नहीं होता, यदि प्रधान हेतु समन्तभद्रको नागार्जुनका उत्तरवर्ती बताकर
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३२८11
अनेकान्त
[ वर्ष १४
नागार्जुनका समय सन् १८० निर्दिष्ट करना है, परन्तु राहसने जिसने उक्त शिलालेखको प्रकाशित किया था, उसके नागार्जुनका यह समय उन्होंने वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थमें आधार पर अपने मतमें परिवर्तन नहीं किया' स्वयं उनके दिये हुए अपने समन्तभद्र-सम्बन्धी लेखमें (पृ.३८४) इस कथनके विरुद्ध पड़ता है जो उन्होंने 'वर्णी अभिनन्दन'तत्त्वसग्रह' की जिस भूमिका पर आधारित किया है उस ग्रन्थ में प्रकाशित अपने लेखमें निम्न शब्दों-द्वारा व्यक्त भूमिकाके लेखक उस समयके सम्बन्धमें स्वयं संदिग्ध हैं किया है
"बादमें नागमंगल शिलालेखके आधार पर उन्होंने और उन्होंने जो सन् १८१ समय दिया है वह इस कल्पनाके
(लुइसराइसने इस तिथिको शक २५ (मन् २६३ ई.) आधार पर दिया है कि यदि १२ वें प्राचार्य (कुलगुरु) अश्वघोषकी मृत्युको सन् १२७ में मान लिया जाय
अनुमान किया था। दूसरे विद्वानोंने राइस साहबके प्रथम और उसके बाद होने वाले गुरुओंके समय। औसत
मतको ही स्वीकार किया है।"
शक सम्बनका दक्षिण में प्रचार होनेके लिये २५ वर्षका अन्तराल २७ वर्षका मान लिया जाय तो १४ वें गुरु
समय पर्याप्त है। उसमें असंभवता जैसी कोई बात नहीं नागार्जुनका मृत्यु-समय ई० १८१ और २१ गुरु विश्व
है, जिसकी लेखकने कल्पना कर डाली है। बन्धुका मृत्यु-समय ३.. ई. बैठता है। ऐसे अनिश्चित
श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें नं०१५, १६, अथवा १७ समयको 'अन्तिम ज्ञाततिथि' प्रकट करना और उसके आधार
पर उल्लेखित 'सामन्तभद्र' दिगम्बर-पट्टावल्यादिमान्य पर समन्तभद्रके समयका ठीक निर्णय दे देना कल्पनाकी
'समन्तभद्र' से भिन्न कोई दूसरे ही व्यक्रित्वके प्राचार्य थे, दौड़में वह जानेके सिवाय और कुछ भी नहीं है-उसे
इसका पोषक कोई भी पुष्ट प्रमाण अभी तक सामने नहीं निरापद नहीं कहा जा सकता । नागार्जुनके समय-सम्बन्धमें
लाया गया। प्रत्युत इसके अनेक विचारशीलताम्बर अनेक विद्वानोंका परस्पर मतभेद है। श्री राहुल सांकृत्यायन
विद्वान् भी दोनोंके एक व्यक्तित्वको मानते हैं । मुनि श्री 'वादन्याय' की अपनी काल निश्चायक सूचीमें नागार्जुन
कल्याणविजयजीने अपने द्वारा सम्पादित तपागच्छकी का समय २१.ई. बतलाते हैं और विग्रह-व्यावर्तिनीकी
पट्टावलीके प्रथम भाग (पृ. ८०) में प्राप्तमीमांसा, प्रस्तावनामें विस्रनीजके द्वारा मान्य समय १६६-१९६ ई.
युक्त्यनुशासन, स्वयंम्भू और जिनस्तुति शतकको अपने को ठीक बत जाते हैं। ऐसी स्थितिमें समन्तभद्रका समय सामन्तभद्रके पथ बतलाया है और लेग्वक महाशय इन्हीं शक संवत् ६० अर्थात ई. सन् १३८ नागार्जुनसे कितने
ग्रंथोंको अपने दि. समन्तभद्के ग्रन्थ बतलाते हैं, इससे भी ही वर्ष पूर्वका हो जाना है तथा समन्तभद्र नागार्जुनके
समन्तभद्र और सामन्तभद्र दोनोंका व्यक्रित्व एक ठहरता समकालीन होते हुए भी वृद्ध ठहरते हैं और यह बात है और वे दोनों संम्प्रदायोंक मान्य आचार्य पाये जाते हैं। लेखक महोदयके खुदके कथनके विरुद्ध पढ़ती है।
जिस प्रकार उमास्वाति और मिद्धसन प्राचार्योके नाम इसी तरह लखमें अन्य अनेक बातें भी कल्पित उभय-मंदायकी पट्टावलियों में पाए जाते हैं उसी प्रकार आधारों पर स्थित हैं और उनसे प्रकृत विषयका कोई खास समन्तभद्रका नाम भी दोनो सम्प्रदायों में अपने अपने सम्प्रदासमर्थन नहीं होता। जब तक गंगवंशकी स्थापनाका समय यके प्राचार्य रूपमें यदि पाया जाता है तो इसमें प्रापत्तिके इसाकी दूसरी शताब्दीसे भिन्न कोई दूसरा प्रबल प्रमाणोंके लिये कोई स्थान नहीं और न असंभव जैसी कोई बात ही प्राधार पर सुनश्चित न हो जाय तब तक कुछ विद्वानोंके
प्रतीतिमें आती है-खासकर उस हालतमें जबकि ग्रंथ भी कोरे अनुमानों, अटकलों अथवा उनके द्वारा शक सम्बत् दोनोंके भिन्न नहीं है और डा. भाण्डाकर-द्वारा प्रकाशित २५ वाले शिलालेखको उपेक्षाका कोई विशेष मूल्य नहीं पट्टावलीमें श्वे. श्रीचन्द्रसूरि और देवसूरिके मध्य में समझा जा सकता। उपेक्षा तो इसलिये भी हो सकती है सामन्तभद्रसूरिके पट्टका उल्लेख करते हुए उन्हें साफ तौर कि उसके पास उसके विरोधमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं था। पर "दिगम्बराचार्यः' इस विशेषणके साथ उल्लेखित किया है गंगवंशके मिन अभिलेखोंके जाली होने की कल्पना को और इस रूपसे ही उन्हें श्री वर्धमानस्वामीके द्वारा प्ररुपित जाती है उसके समर्थनमें जब तक कोई भी समर्थ एवं पुष्ट शुधर्मके पाराधकोंकी पट्ट-परम्परामें स्थान दिया है। प्रमाण सामने नहीं पाता तबतक उन्हें जाली नहीं माना लेखकका प्राचार्य कुन्दकुन्द, गुणधर, आर्य मंतु, नागजा सकता । लेखक महाशयका यह लिखना कि 'स्वयं लुइस हस्ती और धरसेनादि सभीको निश्चित रूपसे ईसाकी प्रथम
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किरण ११-१२] जीवन-यात्रा
[३२४ शताब्दीका विद्वान् बतलाना भी कल्पना मात्र है। साथमें नहीं दिया गया, न उस लेखमें पाया जाता है जो इनमेंसे किसीका भी निश्चित समय अभी तक स्थिर नहीं वर्णिअभिनन्दनग्रंथमें मुद्रित हुआ है और अपने जिस हो पाया फिर भी धवलादिग्रंथोंसे इतना स्पष्ट है कि पार्यमंतु नवीन ग्रंथका लेखकने उल्लेख किया है वह अभीतक और नागहस्तीको गुणधराचार्यके कसायपाहड़का ज्ञान मुद्रित होकर प्रकाश में नहीं पाया। श्राचार्य-परम्परासे प्राप्त हुया था। वे श्रा० गुणधरके साक्षात्
ऐसी स्थिति में मैंने यह चाहा था कि लेखक महाशय शिष्य नहीं थे, उनसे यतिवृषभने उक्न पाहुड़का ज्ञान प्राप्त
अपने कथनोंकी पुष्टिमें स्पष्ट प्रमाणोंको सामने किया था और इसलिये वे यतिवृषभके गुरु रूपमें
लानेकी कृपा करें-कोरी कल्पनाओं पर ही उनका आधार समकालीन थे, जिनका समय ईसाकी पांचवीं शताब्दी पाया न रक्खें, जिससे लेखमें तदनुसार सुधार कर उसे जाता है । गुणधराचार्यका समय पं. होरालालजी सिद्धान्त छापा जाप, क्योंकि यदि शक संवत् ६. समन्तभद्रका शास्त्रीने कसायपाहुड़की प्रस्तावना (पृ०५८) में विक्रम पूर्व दीक्षा-समय सिद्ध हो और यह भी सिद्ध हो कि एक शताब्दी बतलाया है। तब गुणधरके समय-सम्बन्धमें वे चोल-नरेश कीलिकवर्माके कनिष्ठ पुत्र शान्तिवर्मा थे तो लेखकका यह कहना कि उसे ईसाकी पहली शताब्दीसे पूर्वका मुझे उसको मानने में आपत्ति नहीं होगी। परन्तु वे ऐसा कोई भी विद्वान नहीं मानता, समुचित नहीं कहा जा सकता। नहीं कर सके और लेग्यको ज्यों का त्यों छपाने की ही
लेखमें यह भी व्यक्त किया गया है कि समन्तभद उनकी इच्छा रही । तदनुसार लेखको प्रकाशित करते नागवंशी चोज-नरेश कीलिक वर्मनके कनिष्ठ पुत्र तथा राज्यके समय मुझे यह सम्पादकीय नोट लगाने के लिये बाध्य उत्तराधिकारी सर्ववर्मन (मोरनाग) के अनुज राजकुमार होना पड़ा, जिससे व्यर्थक विचार-भेदको अवसर न मिले। शान्तिवर्मा थे परन्तु इसका भी कोई स्पष्ट आधार-प्रमाण
जुगलकिशोर मुख्तार जीवन-यात्रा
(लक्ष्मीचन्द्र जैन 'सरोज')
कौन जाने किम समयसे पथिक पथमें जा रहा है? राह उसकी दीर्घ यद्यपि, किन्तु फिर भी पार पाने । लिये पाशा नहीं पाशा तो निराशा भी नहीं है। शक्ति उसकी न्यून यद्यपि, किन्तु फिर भी आजमाने ॥ वही ध्वनि श्री टेक भी वह, श्वांस तक वह ही बनी है। सहचरी श्राशा लिये निज-पद बढ़ाता जा रहा है॥1॥ उप सहारे ही बटोही, चला चजना जा रहा है॥६॥ काल उसका पूर्ण जब तक, हो नहीं कुल जायगा। एक मात्र पुकार उसने, हृदय-तन्त्रीकी सुनी जो। मार्ग उसका पूर्ण जब तक, हो नहीं तय जायगा । बाहर वही-भीतर वही, सभी कुछ पूंजी बनी जो॥ जायगा तब तक बढ़ा वह, यही समझे जा रहा है ॥२॥
प्राण सा पकड़े उसीको, जग-बटोही जा रहा है ॥ ७ ॥ बीज अंकुर बन जहाँ तक, खेतमें जब तक बढ़ेगे।
रह जायगा बढ़ जायगा, चला चलना बम काम है। चरण उसके दिवस बेला जान कर जब तक बढ्गे॥
इसी में पाराम उमको, श्रम सा समझता नाम है। जायगा तब तक चला वह, लक्ष्य ले यह जा रहा है ॥३॥ देख लो वह
देख लो वह रह रहा है बढ़ रहा है जा रहा है॥5॥ पवन जबसे चल रहा और सूर्य जबसे जल रहा है। प्रश्न जगका एक ही है और उत्तर एकही है। मलिल जबसे वह रहा ौ बर्फ बनकर गल रहा है । प्रश्नमें उत्तर बना तो प्रश्न-उत्तर एक ही है। पथिक सबसे चल रहा है, चला चलता पा रहा है ॥ ४ ॥ प्रश्नमें उत्तर लिये दर प्रश्न उत्तर पा रहा है । वह किमीकी राहको भी, भूल कर ना जानता है। कह रहा जो आज जग है, कह रही वाणी वही है। बाहिरी संकेत भी ना, पूर्ण कोई जानता है॥ कह रहा अाकाश भी वह, कह रही वसुधा वही है। कह न सकता वह स्वयं कुछ, कहा जो भी जा रहा है ॥५॥ कह रहा वह सुकवि जगका, कहा जो कुछ जा रहा है॥१०॥
जो न सुलझे वह पहेली, बन्धु जीवन यात्रा है।। सन्य समझो नहीं निश्चित, बन्धु जीवन मात्रा है। मैकड़ों दुख सहे सुग्नको, पथिक जीता जा रहा है ॥११॥ कौन जाने किस समयसे-पथिक पथमें जा रहा है।
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अविरत सम्यग्दृष्टि जिनेश्वरका लघुनंदन है
(-श्री क्षुल्ललुक गणेशप्रसादजी वर्णी) जिस द्रव्यका जो गुण होता वह उसका स्व बानकी इच्छा नहीं करता। उसके लिये इच्छा ही कहलाता और जिसका जो स्व होता वह उसका परिग्रह है। महात्रताके और क्या होता है। स्वामी कहलाता है । आत्माका स्व ज्ञान है और सम्यक्त्वीके बहुन परिग्रह है तो मुनिके पीछी.
आत्मा ही उसका स्वामी है पर-द्रव्य अपने कमण्डलु होता है। ये शिष्यों को पढ़ाते और वह स्वगुण-पर्यायोका स्वामी है। इम जीवको जब यह बाल-बच्चाको शिक्षा देता है। लेकिन अंतरंगसे अनुभव होने लगता है तब उसे ससारकी महानसे विचारो तो अभिप्रायमें दोनोंक ही किमी प्रकारकी महान सम्पदा भी नहीं लुभा पाती, चक्रवर्तीकी इच्छा नहीं है । दोनोंके इच्छाको मेटनेका अभिप्राय सम्पदा भी उसे नगण्य प्रतीत होने लगती है। है। मुनि इच्छाको शुभ कार्यों द्वारा मिटा देते और ___ वनदन्त चक्रवर्ती कमल कोशमें मरे हुए भौरेको वह विपयादि प्रवृत्ति-द्वारा अपनी इच्छाको मिटा देखकर विरक्त हो गये और अपने पुत्रोंको बुलाकर देता है। कहा-'राज्य संभालो।' पर उनके पुत्र तो उनसे सिद्धान्तकी प्रक्रिया बनी रहे इौलिये तो वीरभी अधिक विरक्त चित थे. कहने लगे-हम भी
सेन सामीने 'धवलादि' जैसे महान टीका-ग्रन्थ आपके साथ हैं। पिने कहा-'अभी तुम्हारी वय रचे पंटोडरमलजीने सोचा कि आगेके जीव दीक्षा-योग्य नहीं, कुछ समय राज्य-भोग करनेके
हमसे हीन-बुद्धिवाले होंगे तो उन्होंने प्राणियोंक पश्चात् दीक्षा लेना। पुत्र बोले-पिता जी ! यह कल्याणार्थ मूल ग्रन्थों पर हिंदी टीका आदि रच राज्य तो रागका घर है। जिम रागको आप शत्रु दिये। जो काम छटे गुणस्थानवर्ती मुनिने किया, समझके छोड़ रहे हैं, वह हमारे लिये ग्राह्य कैसे हो वही काम चीथे गुणस्थानवी जीयने कर दिया। सकता है ? आपती हमारे हितैषी हैं अतः रागके बतलाइये, अभिप्रायमें क्या अन्तर है ? कारणभूत यह राज्य-सम्पदा हमारे लिये हितप्रद
हमसे पूछते हो जो १३ वें गुणस्थानवर्ती नहीं। हम भी आपकी ही तरह मुक्त होना चाहते
जीवका अभिप्राय है वही अभिप्राय चौथे हैं। मनुष्य-पर्याय इसके अनुकूल है, अब तो इस
गुणस्थानवी जीवका है। तीर्थकरका ठाठ देखो। जीवनमें रत्नत्रयकी आराधना कर सिद्धि प्राप्त करेंगे।
इतना बड़ा समवसरण जिसकी महिमा देखते ही
बनती है। तो क्या तोर्थकर महाराज उसको पिता-पुत्रका यह संवाद किस मनुष्यको एक चाहते हैं ? अव्रत सम्यग्दृष्टिके थोड़ी सी सामग्री क्षणके लिये विरागीन बना देगा। इसलिये रागको होती है तो क्या वह उसे चाहता है ? ज्ञान उनके छोड़ो। अकेली चीज थी, अकेली ही रह जाती अधिक है और इसके कम है, लेकिन है तो है। दूसरेके सम्बन्धसे राग होता तो उस संबंध जाति एक ही। वह समझता है जब यह तुम्हारा को हटाओ, रागको त्याग दिया तो रागक कारण- नहीं तब यह हमारा कैसे हो सकता है ? रागको भूत सामग्रीका तो स्वतः त्याग हो जाता । अब तमने हेय जाना तो हमने भी उसे हेय जान लिया। ये संबंध थोड़े ही दुख देते। इनको हम अपना जिस मार्गका तुमने आश्रय लिया उसी मार्गका बना लेते हैं तभी दुखी हो जाते हैं । अभिप्रायमें तो हमने आश्रम ले लिया, तब क्या हम आप जैसे यह ऐब निकल जाना चाहिये।
___ नहीं हो सकते ? इच्छा रागकी पर्याय है-चाहे वह शुभ हो जो जाणदि अरहतं दम्वत्त-गुणत्त-पज्जयत्त हिं। वा अशुभ । शुभ कार्योंके मूल में भी एक प्रकारकी सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तम्स लयं ॥ इच्छा है । संसारमें धर्म अधर्म-खान, पानकी ही जो अरहंत देवको द्रव्य-गुण-पर्यायसे जानता है तो इच्छा होती है। सम्यग्दृष्टि इनमें से किसी वह निश्चयसे अपनी आत्माके गुण-पर्यायको
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किरण ११-१२ ]
नालन्दा का वाच्यार्थ जानता है। अब थोड़े दिनका उपद्रव है सो काल मल है राग-द्वेष। सम्यग्दृष्टि इसी मलको पाकर मिट जायेगा।
निकालनेका प्रयास करता है । उसका साधन है जैसे शरीर में मल रुक जानेसे अनेकों संयम । अतः संयम-द्वारा रागको मिटाकर सुखी बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। वैद्यको हजारों रुपये बन जाओ। देकर मलको निकलवाते हैं। वैसे ही प्रात्माका
प्रेपक-कपूरचन्द्र बरैया
नालन्दा का वाच्यार्थ
(ले०-सुमेरुचन्द्र दिवाकर B. A. LL. B. सिवनी) प्राचीन भारतवर्ष के शिक्षा केन्द्रों में नालंदा विश्व. नाम श्रत था, २२३ का नाम अर्थ था और २३ वेंका विद्यालयकी बहुत प्रसिद्धि थी। डा. 'बेनीप्रसादने अपनी नाम नालंद था। पुस्तक 'हिन्दुस्तानकी पुरानी सभ्यता' (पृष्ठ ४५३) में उक्त अन्यके पृ०५६ में २३ अधिकारों के नाम इस लिखा है कि 'नालंदामें १० हजार विद्यार्थी पढ़ते थे । वहाँ प्रकार कहे गए हैं। १५१० अध्यापक थे। विद्यार्थियोंके खान-पान तथा औषधि- समय वेदालिके एतो उवसग्ग इत्थिपरिणामे । का पूर्ण प्रबन्ध था। नालंदाके संघारामको १०० ग्रामोंका
णिरयंतर-वीरथुदी कुसील-परिभासिए विरिए॥१॥ कर मिलता था।
धम्मो य अग्गमग्गे समोवसरणं तिकालग थहिदे ।। चीनी यात्री हुएनसांग वीं सदीमें भारतमें पाया
आदा तदित्थगाथा पुडरिको किरियठाणे य ॥२॥ था। वह १६ वर्ष यहाँ रहकर अपने देशको लौटा था । ।
आहारय परिणामे पञ्चक्खाणाणगारगुणकित्ती। नालंदाक बारेमें वह लिखता है कि 'वहाँ कई हजार संन्यासी विद्याध्ययन करने थे। वहाँ निःशुल्क शिक्षा थी। नालंदाके
सुद-अत्था-रणालंदे मुद्दयडज्माणाणि तेवीम ॥३॥ पुस्तकालयके नाम रत्नरंजक रत्नसागर, रत्नदधि थे।
इनमें अन्तिम पंक्रिके ये शब्द ध्यान देने योग्य हैंरत्नदधि पुस्तकालय नौ मंजिलका था।' इसिंग नामक 'सुद-प्रत्था णालदे सुद्दयडज्माणाणि तेवी॥ चीनी यात्रीने वहीं रहकर ४०० ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि की इस पर टीकाकार प्रभाचन्द्र पंडितने प्रकाश डालते हुए थी। हुएनसांगने ६५७ ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि कराई थी। लिखा हैनालंदाके कई ग्रन्थ लंदन और केम्ब्रिजके पुस्तकालयों में 'सुदा-श्रु ताधिकारः श्रुतस्य माहात्म्यं वर्णयति । सुरक्षित हैं। नालंदा बौद्धोंके महायान सम्प्रदायका था। अन्था-अर्थाधिकारः श्रु तस्य फलं वर्णयति ! णालंदेविक्रमकी १३ वीं सदीमें नालंदाका संहार हा था।' नालंदाधिकारो ज्योतिषां पटलं वर्णयति ॥ पृ०५८:
(बुद्ध और बौद्धधर्म-चतुरसेन शास्त्री।) सूत्रकृतांगके श्रुत नामक अधिकार में श्रतका माहात्म्य नालंदा राजगृहके समीप लगभग ६ मील पर है- बताया है । अर्थाधिकारमें श्र तका फल कहा गया है। तथा भारतशासनने अब नालंदामें पुनः एक विद्यापीठकी स्थापना नालंद नामके तेवीसवें अधिकारमें ज्यातिपी-पटलका कथन की है। जिस नालंदाने भारतमें सैकड़ों वर्षों तक शामकी है।' इससे स्पष्ट होता है कि ज्योतिर्लोक सम्बन्धी गंगा वहाई उसका अर्थ क्या है ? भगवान महावीरके शिष्य अधिकारका नाम नालंद था। गौतमगणधर-रचित प्रतिक्रमण-अन्यत्रयीसे इस प्रश्नका प्रतीत होता है देश-विदेशमें ज्ञानकी रश्मियों - द्वारा समाधान प्राप्त होता है। ईमासे छह सदी पूर्व होने वाले अज्ञान अन्धकारको दूर करने वाले विद्याके विख्यात केन्द्रगौतम स्वामीने द्वादशांग नामके पागम ग्रन्थ बनाये थे। का नाम नालंदा उक्र कारणसे रखा गया था। नभोमंडबमें उनमें दूसरे आगम ग्रन्थका नाम 'सूत्रकृतांग' है। इस सूर्य-चन्द्रादि प्रकाश देते हैं. भारतमें तथा चीन आदि सूत्रकृतांगमें २३ अधिकार थे। उसके २१वें अधिकारका देशोंमें ज्ञानका प्रकाश देने वाला वह विद्यापीठ प्रसिद्ध था।
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३३२ ] अनेकान्त
[वर्ष १४ उसका नालंदा नाम सूत्रकृतांगके उक्त प्राधारका प्रभाव उपनिवेशोंसे ज्ञानकी गगा बहाई है। इसलिए यही बहुत सूचित करता है।
अधिक संभव जान पड़ता है कि 'णाणंदा' इसका प्रारंभिक अ. भा० पुगतत्त्व विभागके डाइरेक्टर जनरलको नाम रहा है, और उसका सीधा संबन्ध भ० महावीरके इस सुझाव पर ध्यान देनेका विशेष अनुरोध है। उपदेशोंसे है। पीछे यह नाम बिगड़ कर या उच्चारणकी टिप्पणी
सुगमतासे लोगोंमें 'नालन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुआ प्रतीत
होता है। श्री हीरानन्द शास्त्रीने नालंदा' नामक अपनी पुस्तकमें
श्री दिवाकरजीने जिस सूत्रकृतांगका अपने लेखमें लिखा है कि 'नालंदा' इस नामका निर्वचन क्या है,
हवाला दिया है, उसका वास्तविक अभिप्राय यह है कि यह तो ठीक-ठीक ज्ञात नहीं। नालंदाके आस-पास बहुत सी
नासन्दामें रहते समय भ० महावीरके जो प्रवचन हुए और झीलें हैं, जिनमेंसे बहुतसे 'नाल' निकाले जाते थे और
इन्द्रभूतिने जिन्हें अंगरूपमें प्रथित किया, वे सब
न अब भी निकाले जाते हैं, संस्कृतमें नाल मिस अर्थात्
'नाबन्दीय' अधयनके नामसे सूत्र-ग्रन्थों में उल्लेखित कमलकी जड़को कहते है। यह भूमि नालों को देने वाली
किये गये हैं। श्वे. आगमोंसे भी इसी ब तकी पुष्टि है। यह संभव प्रतीत होता है कि इसीलिए इसे नालंदाके
होती है । यथा
का नामसे अङ्कित किया गया होगा | चीनी यात्री हुएनत्सांगने जो न+अलं+दा (=जगातार दान ) की म्यत्पति दी नालंदाए समीपे मणोरहे भासि इंदभूइग्णा। वह केवल निदान कथा है।"
अज्झयणं उदगस्स उ एवं नालंदइज्जंतु ॥४॥ पर मुझे तो ऐसा प्रतंत होता है कि वस्तुतः इसका नालंदायाः समीपे मनोरथाल्ये उद्याने हवभूतिना नाम 'णाणंदा' रहा है । प्राकृत भाषामें ज्ञानको 'णाण' गणधरेणोदकाल्य - निर्ग्रन्थ-पृप्टेन भाषितमिदमध्ययनम् । कहते हैं। दा नाम देने वालेका है । भ. महावीरने यहाँ
(सूत्र. २ श्रु. ७०) १४ चतुर्मास किये थे-यह बात श्वे. आगम-सूत्रोंसे इतिहासका अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि प्रमाणित है। चतुर्मासके समय लोग उनसे ज्ञान प्राप्त भ. महावीरके निर्वाणके पश्चात् लगभग दो-तीनमौ वर्षों करते रहे और लोग अन्य लोगोंको भी ज्ञान-प्राप्तिके लिए तक जैनाचार्योंके द्वारा उस स्थानसे भगवानके प्रवचनोंका प्रेरणा करते हुए कहते रहे कि जामो-राजगिरके ईशान- प्रसार होता रहा है। पीछे जैन सम्प्रदायमें मत-भेद उठ कोण में बाहिरिकाके समीप ज्ञानको देने वाला विद्यमान है, खडे हए और अधिकांश जैन साधुओंने बिहार प्रान्तस उसके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। संभवतः तभीसे भ. अन्य प्रान्तोंको विहार कर दिया, तब किसी समय वो महावीरका श्राश्रय पाकर उस स्थानका ही नाम 'नाणंदा' औ साधान रहना प्रारम्भ कर दिया और धीरे-धीरे प्रारम्भमें रहा होगा।
उनका प्रभाव वहाँ बढ़ता गया | हुएनन्मांगके लगभग बौद्धग्रन्थोंसे ऐसा कोई खास पता नहीं लगता है कि तीनसौ वर्ष पूर्व फाहियान नामक एक चीनी यात्री पाया बुद्धने वहाँ पर दो चार चतुर्मास किये हों। हाँ एकाध बार था, और उसने भी अपनी भारत-पात्राका वर्णन लिखा है। बुद्ध वहाँ ठहरे अवश्य हैं, पर उस स्थान पर उनके चतुर्मास उसने नालंदामें एक स्तूपके सिवाय किसी खास चीजका करनेके कारण वह स्थान उस समय भ० महावीरके नामसे उरलेख नहीं किया है इससे ज्ञात होता है कि उसके जितना विख्यात हुश्रा, संभवतः उतना बुद्ध के कारण नहीं। पानेके समय तक नालन्दामें बौद्धधर्मका कोई प्रभाव या क्योंकि बबने अपने धर्मका प्रवर्तन सारनाथसे किया है, जो विद्यापीठ प्रादि नहीं था। उसके बाद और हुएनत्सांगके पूर्व कि बनारसके समीपमें है। पर भ. महावीरने राजगिरके १६ वीं शताब्दीके मध्यमें बौद्धविद्यापीठ वहाँ स्थापित समीपस्थ विपुलाचलसे ही अपना श्राप उपदेश दिया है हुआ है ऐसा अनुमान होता है। और राजगिरकी विभिन्न दिशाओं में स्थित गिरि, उपवन और
-हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री
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राजस्थानके जैन शास्त्र-भण्डारोंसे
हिन्दीके नये साहित्यकी खोज
(कस्तूरचन्द काशलीवाल, एम. ए. शास्त्री जयपुर) ४. शील बत्तीसी
विषय भोग विषधर एवं विष तीनों ही मृत्यु के कारण यह रचना कवि अकमल-द्वारा निबद्ध है, जो जयपुरके हैं। किन्तु सर्पके काटने और जहरके खानेसे तो एक बार लूणकरण जी पाण्ख्या वाले मन्दिरके शास्त्र-भण्डारके ही मृत्यु होती है, पर विषयों में फंसनेके पश्चात् उससे एक गुटकेमें संगृहीत है । गुटकेका लेखन-काल संवत् १२१ कितने ही जन्म तक दुःख भोगना पड़ता है। है। कविने रचनामें अपना नामोल्लेखके अतिरिक्त समय विषय
विपय विषधर विपु सरसु लीन एकहि मंतु । एवं स्थानक बारेमें कुछ भी नहीं लिखा है। किन्तु गुटकेके विपु विषधर एकै मरण विपया मरण अनंत ॥ लेखन-कालके अाधारसे यह कहा जा सकता है कि कवि विषया मरण अनंत मंत्र ताहि मूल न लागे। १० वीं या इससे भी पूर्व शताब्दीके थे। कवि जैन थे तथा
मनि मुहरा औपधि अपार तिन देखत विषु भागे। हिन्दीके अच्छ विद्वान थे। शोल-बत्तीसी साहित्यिक दृप्टिसे सोई सजन सोई सगुर देई वंभवतु सिखया। भी अच्छी रचना है । रचनामें शीलधर्मके गुण गान गाये कहै अकु धनि सुदिन त दिन जियत विपया ॥ गये हैं तथा ग्यभिचार, परस्त्री-गमन श्रादि बुराइयों
इस प्रकार बत्तीसी समाप्ति पर भी यही लिखा है । की खूब निन्दा की गई है । रचनामें ३४ पद्य है जो सभी हरि हर इंदु नरिंद नर जस जर्षे यक चित्त । सवैया छन्दमें हैं। प्रत्येक सवैया अन्तमें कविने अपने जे नर नारी सील जल तन मन करहिं पवित्त ॥ नामका उल्लेख किया है । रचनाकी भाषा अलंकारमयी है। तन मन करहि पवित्त चित्त मुमरै चौबीसी। अनुमासोंका तो सर्वत्र प्रयोग हा है। भाषा शुद्ध हिन्दी बढ़त सुगर संतोप सगुण यह सील वत्तं सी। खड़ी बोली है।
काम अंध नहि रुचे कहै कोउ को हूँकारि ॥ __कविने लिखा है कि विधाताने आँखें संसारको निहारनेके संवर करह सुजान तासु जसु जंपे हरिहर ॥३४॥ लिये बनायी हैं, न कि दुसरेकी स्त्रियोंको देखने के लिये। ५. मनराम विलास नेन विधाना निरमाए निरखनकी संसार ।
मनराम १७ वीं शताब्दीके प्रधुग्व हिन्दी कवि थे, वे सेनि सबै कल निरखिजे मत निरखै परनारि॥ कविवर बनारसीदासजीके समकालीन थे। मनराम विलासमत निर परनारि जाणि या विपय तनरसु । के एक पद्यमें उन्होंने बनारसीदासजीका स्मरण भी किया तनक नरम हाहि जन मनु जाय कियै वसि ।। है। उनकी रचनाओंके अाधारमे यह कहा जा सकता है कि जे पालै प्रिय सील ते जु सुणियै सिव जाता। मनराम एक ऊँचे अध्यात्म प्रेमी कवि थे। उन्होंने या तो अकु निरखि चालिये नैन निरमए विधाता॥६॥ अध्यात्म-रसकी गंगा बहाई है, या जनमाधारणको उप
कवि इसीक सम्बन्धमें आगे लिखता है कि पर-स्त्रीको देशात्मक, अथवा नीति-वाक्य लिम्बे हैं। कविकी अब तक देख कर चनुर मनुष्यको कभी भी अपना मन चंचल नहीं अक्षमाला, बड़ाकक्का, धर्म सहेली, बत्तीमा, मनरामकरना चाहिये। क्योंकि चारित्र ही मनुष्यका रत्न है, उसे विलाप एवं अनेक फुटकर पद श्रादि रचनाएँ उपलब्ध कौड़ीके लिये नहीं गमाना चाहिये।
हो चुकी हैं। चतुर न कीजै चपल मन देखि परायी नारि । कवि हिन्दीके प्रौढ़ विद्वान थे इसीलिये कविकी कौड़ी कारण सील से रत्न न गवहि गवार ॥ रचनाएँ शुद्ध बड़ी बोली में लिखी गयी हैं। जान पड़ता है रत्न न गवहि गवार सार संसार मत्थि गिण । कि कवि संस्कृतके भी अच्छे विद्वान होंगे, क्योंकि इन तप अनेक जे करें सुख न वि लहहि सील विनु ॥ रचनाओं में संस्कृत शब्दोंका भी प्रयोग मिलता है और वह सुख पवसि परलोक लोक विस्तर सिव-सुह परि। भी बड़े चातुर्य के साथ । लेकिन संस्कृत शब्दोंक प्रयोगसे कह अक धनि सील सील विनु वाद चतुर नर जा कविकी रचनाएँ क्लिष्ट हो गयी हो, ऐसी बात नहीं है।
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३३४] अनेकान्त
[वर्ष १४ 'मनरामविलास' कविके स्फुट सवैयों एवं छन्दोंका भी व्यर्थमें ही जाता हैसंग्रहमात्र है, जिनकी संख्या १६ है। इनके संग्रह कर्ता रीझत नहीं तउनागर जन, विहारीदास थे। वे लिखते हैं कि विलासके छन्दोंको उन्होंने
मुसकि गवार देत दिगदोइ । छोट करके तथा शुद्ध करके संग्रह किये हैं। जैसा कि अति हीं मगन होत मन मांहि, विलासके निम्न छन्दसे जाना जा सकता है
पुरतिय एक कटाविही जोइ॥ यह मनराम किये अपनी मति अनुसारि। देवहुँ दान बिना गुन समझे, बुधजन सुनि कीज्यौं छिमा लीज्यौ अब सुधारि ।
गुनी पुरुषको हरप न होइ। जुगति पुराणी दद कर. किये कवित्त बनाय। पावत सुख मनगम महा वह, कछुन मेली गांठिकी जानहुँ मन वच काय ।। ६४॥
जो गुन समझ अलप दे कोइ ॥१॥ जी इक चित्त प? पुरुप, सभामध्य परवीन ।
इस प्रकार विलासके सभी छन्द एकसे एक बढ़कर बुद्धि बढ़ संशय मिदै, सबै होय अाधीन ।। ६५॥ हैं। सुभाषित रचनाकी दृष्टिसे विलाम हिन्दीको एक मेरे चितमें उपजी. गुन मनराम प्रकास ।
अच्छी रचना है। विलासके कुछ दोहे और पढ़ियेसोधि बीनए एकठे. किये विहारीदास ॥६६॥ भली होइ छिन मैं बुरी भली ह जाइ।
प्रसंग संगतिका चज रहा है। यह कहा जाता है- लखि विचित्रता करम को सुख दुख मूढ कराइ ॥१॥ जैसी संगति होगी, वैसे ही उसके संस्कार होंगे। किन्तु मन भोगी तन जोग लखि जोगी कहत जिहान । सज्जनोंकी सगति कितनी अच्छी है कि उससे दुर्जनोंके मन जोगी तन भोग तसु जोगी जानत जान ।। ७२॥ दोष भी ढक जाते हैं जैसे बहुतसे पेड़ोंके मुण्डमें एक ही सवै अरथ जुत चाह पर पुरुप जोग सनमान । मलयतरू सभी पेड़ोंकी हवाको सुगन्धित बना देता है, एसमझ मनराम जो बोलत सो जग जान ॥ ७३॥ था उन्हीं मलय-वृक्षों पर सर्प लिपटे हुए होते हैं, किन्तु x x
x
x फिर भी वे वृक्ष अपनी सुगन्धको नहीं छोड़ते हैं।
कहुं आदर अर फल नहीं कहुँ फल आदर नाहि । अवगुनहूँ दृरि जांहि सब, गुनवंताके साथ ।
आदर फल मनराम कहि, बड़े पुरुप ही माहि ।।२।। दुर्जन कोटिक काजके, सज्जन एक समस्थ ॥ सज्जन एक समत्थ बहत द्रमि मलयातर।
६हूगरको बावनीजिते त्रिद्धि ते संग सकल कीए आप सर ।।
कुछ समय पूर्व तक 'बावनी लिखनेका कवियोंको बहुत तजते न अपनी वास रहे विसहर जु लपटि तन। चाव था। इसी कारण हिन्दीमें श्राज कितनी ही बावनियां अचरज यह मनराम गहत नाह उनके अवगुन २६|| उपलब्ध होती हैं। 'डूगरकी बावनी' कवि पद्मनाभ द्वारा
सत्पुरुषोंका दूसरों के साथ कैसा स्नेह होता है इसका संवत् १५४३ में लिखी गई थी। पद्मनाभ हिन्दी एवं वर्णन कविने कितनी सन्दरतासे किया है, उसे पढ़िये- संस्कृतके प्रतिभा सपन्न विद्वान् थे, इसलिये सधपति हूंगरने मिलत खीर को नीर सर्व अपनी गुन दीन्ही। उनसे बावनी लिखनेका अनुरोध किया था और उसीके दूध श्रगान पर धरयो वारि तन छीजन कीन्हो॥ कारण पद्मनाभ यह बावनी लिख सके थे । दंगरसीका परिअंब खेद लखि उफन चल्यों पय पावक वाहियो। चय देते हुए कविने लिखा है कि वे श्रीमाल कुलमें पैदा बहुरयो जल सींचयो इहि विधि सनेह निरवाहियो॥ हुए थे। उनके पिताका नाम रामदेव था और उनके छोटे उपसम निवारि दुख बरस परस तजि कपट मन ॥ पुत्र थे।यह तो प्रमान मनराम कहि है सभाव सतपुरुपजन महियल कुलि श्रीमाल, सात फोफला भणिज्जै।
दान देना मानवका उत्तम गुण है, लेकि . कवि कहता तस अवदात अनंत जहि कहि येह घुणिज्जै ।। है कि दान उमीका श्रेष्ठ है जो उसके गुणावगुणको समझ ल्ह ताल्ह श्री-प्रनण लाल सन दरउ वनकर । कर देता है क्योंकि बिना गुणावगुण जाने बहुत-सा दान रामदेव श्रीसंघभार आचार धुरंधर ।।
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किरण ११-१२)
हिन्दीके नये साहित्यकी खोज
[३३५
दिशा
तस तणइ अंववर तरणि, बारहदेस गारत गुर। इति बावन अखिर बावनी समाप्ता । इति हूंगरसाह तस उवरि उपना है रतन डूगरसी पगर सुयण ॥३॥ बीजत बावनी ।
बावनीकी भाषा शुद्ध हिन्दी नहीं है, तथा उस पर जयपुरके ठोलियोंके मन्दिरके जिस गुटके में यह बावनी राजस्थानी भापाका अधिक प्रभाव है। रचनाके मुख्य विषय संग्रहीत है वह बहुत ही अशुद्ध लिखी हुई है तथा लिपि दयाधर्म, पुरुषार्थ, शीलधर्म, दान एवं त्यागधर्म, विनय- भी स्पष्ट नहीं है। शीलता आदि हैं। ___संसारमें धन ही दुर्लभ वस्तु है, ऐसा कविका मत है।
७. दस्तूरमालिकाऔर इसलिये धनका अधिक संचय किया जाना चाहिये।
दस्तूरमालिका कविवर वंशीधरने संवत् १११ में
समाप्त की थी। कवि शकिपुरके निवासी थे। कविने रचनाके धनके अभावमें राजा हरिश्चन्द्र आदिको क्या दशा हो गई
प्रारम्भमें बादशाह आलम, राजा छत्रसाल, एवं शक्निसिंहके थी, इसे सभी व्यक्ति जानते हैं। कविके विचारोंको पदिये
नामोल्लेख करके उनके शासनकी प्रशंसा की है। धन संचहु धनवंत, धन संसारिहि दुलहा। पातसाह आलम अमिल सालिम प्रबल प्रताप । धन बिणि ताडित महिय खुध्याखिति मंडल ॥ आलम मैं जाको सबै घर घर जापत जाप ॥५॥ धन विण सति हरिचन्द राइ विकणिय दसहाल छत्रसाल भुवसालको राजत राज विसाल । सकुलीणी सयुत जणि जहाँ धन तह दीसति बहु। सकल हिन्दु उगजाल में मनी इंद दुतजाल ॥६॥ संघपति राइ डूगर कहै, धन बिण अकयथ सहु॥ ताकै अंत सोभिजै, सकतसिध बलवान ।
बावनीमें सभी इसी तरहके छन्द हैं। अन्तिम दो उग्रसहै नरनाह के नंद दीह दलवान ॥७॥ छन्दोंमें कविने अपना परिचय प्रादि दिया है वह पढ़नेके सहर सनतपुर राजही सुग्व समाज सब ठौर । योग्य है
परम धरम सुकरम जहाँ सबै जगत सिरमौर ॥८॥ खिमा करवि सुजाण वयण सह को आधारै । संवद् सत्रास करा, पैसठ परम पुनीत । दिड पुण बुलिये वयण मेक विचार॥
करि वरननि यहि ग्रंथ को छइ चरनन कविमीत ॥ मय आपण मनि आलिकि बाध निवदितीय ।
दस्तूरमालिका गणितशाम्बसे सम्बन्धित रचना है श्री डूगर श्रीमालराइ, गुणराय प्रतिय ॥
अर्थशास्त्रसे भी इसका ग्वब सम्बन्ध है क्योंकि हिमाव कवि कहै पदम कर जोडि, प्रतिभणइ कंठ सरस्वती। करनेके गरु दिये हुये है। रचनाका अध्ययन करनेके दश्चात् प्रसिद्ध नाम जपिये ममन संताप खोट उनखरमुपरखिय वस्तुओं की नाप तोल एवं क्रय-विक्रय करनेकी कला सीखी संवत् पंदग्ह चालसै तीनि आगला मुदिताय । जा सकती है। मकल परिव द्वादसी वार रविधिरस मंगल ।
कवि कपड़ा खरीदकी विधिका वर्णन करता है। वह पूर्वपाढ नपित्र जोग हरपिण हरिपगल।
कहता है कि जितने ही रुपये गज उतने ही श्रानोंका एक सुभ लगन सुभ घड़ी.....
गिरह कपड़ा आवेगा, यदि गजका भाव भानों में हो तो सुभ वेला मुभ वचन पदमनभ कहि कवरै।
तो उपकी फैलावटके लिये जो विधि लिखी है वह निम्न बावनी लंद डूगर मृयण बसुधा मंडलि विस्तरै ॥५३॥ प्रकार है
जिते रूपैया मोल की, गज प्रत जो पट लेइ। हॅबड हरिप आणद उछाहनु म मंदिर।
गिरह येक आना तिते लेख लिखारी लेइ ॥१०॥ सजन मति उलास पिसुगा भंजबि गिरिकंदरि। आना उपर होवै गज प्रति रूपिया अंक । दिन चढ़ि ज्यमु प्रताप तेज निहुँभुवण प्रगासै ।। तीन दाम पाठ अंसु बद ग्रह प्रत लिखी निसंक ॥११॥ ससि करति संसारि, ससि जेम विकासै।
इसी प्रकार 'मालिका' में सुवर्ण खरीदका दस्तूर तोराके धन पुत्र लाख मुग्व संपदा कहय पदम जयवंत हुय। लिखेको दस्तूर, मोनेके बानको दस्तूर, थात खरीदको श्री डूगर बालह देय वरु जयवंतर जाइ मेरुधव ॥५४ दस्तूर, केशर खरीदनेकौ दस्तूर, मासिक वेतन बांटने
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अनेकान्त
वर्ष १४
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कौ दस्तूर आदिके नियम दिये हुये हैं। मालिकामें खेत कविने एक स्थान पर आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा नापनेकी विधि भी दी हुई है जो निम्न प्रकार है- है कि स्त्रीको अबला क्यों कहा जाता है। उसने तो भाज दो ऊपर चालीस को, अंगुल गिन बन ताज । तक जगतमें बहुतसे उल्लेखनीय काम किये हैं। इस भावडोरीको गज सो कही, नीकी विधि सौ साज ॥१२॥ को कविके शब्दोंमें पढ़ियेऐसे गज गनि तीन पै, गाढे को गहि बाघ ।
झूठउ अबला नाम काम सबला कीया सुन्दरि । कीजे गाढे बीस की, डोरी करिये नाप ॥१२३॥
सीह लक हारव्यउ गयउ लाजत गिरिं कंदरि । धाप नाप लामी कह, चौरी कर को जान ।
मुख मयंक हारव्यउ गयउ लाज्यो गये णंगणि। जाडोरी जिहि ठा लगे, गुन बीघा उनमान ॥१२४॥ गति गयंद हारव्यउ गयउ लाजि गयउ वीडवणि॥ इस प्रकार 'दस्तूरमालिका' भारतीय प्रथाके अनुसार
प्रथा अनुसार सुर असुर नाग नडिया नरिद सुकवि खेम जंपइ सही गणतका सामान्य ज्ञान करनेके लिये बहुत अच्छी रचना है। जिणि भमह भगि जीतो जगत अबला तसु नवजइ भण्डारमें इसकी पूर्ण प्रति नहीं है केवल १४३ पद्य उपलब्ध
कही ॥ २६ ॥ हुये हैं जिसमें से भी कुछ दोहे पूर्ण नहीं हैं। मालिकाकी
___ बावनीका अन्तिम पद्य निम्न प्रकार हैभाषा सरल है किन्तु कविके अर्थको समझने में कहीं कहीं
क्षमा खग्ग करि ग्रह्या पिसुण दह वाट पुलाइ। अटकना पड़ता है। रचना पर उर्दू भाषाका काफी प्रभाव
कागडाझ उड मंताप जाइ ज्यउ बादल वाइ॥ है। संभवतः अभी तक यह अप्रकाशित है।
क्षमा खग्ग करि ग्रह्या घणा घरि उच्छव मंगल । ८. बावनी (क्षमाहंसकृत)
संप कुटब साथि आथि ऊपजइ अनंगल ॥ राजस्थानी भाषामें निबद्ध 'बावनी के कर्ता कवि क्षमाहंम कवि क्षमाइंस खंतहि खरी वावन्नी कवि ते ते करी।
जानके चकिम प्रदेशको सुशोभित करते थे इसका सब सयण सणंता सीखतां वसुधा पिंगलइ विस्तरा ॥ तो रचनामें कहीं उल्लेख मिलता नहीं है किन्तु इतना राजस्थानी भाषा होनेसे कहीं-कहीं भाषा अति क्लिप्ट अवश्य निश्चित रूपसे लिखा जा सकता है कि क्षमाहंस जैन हो गई है लेकिन फिर भी रचना अच्छी है तथा प्रकाशित श्रावक थे तथा १७वी या उससे भी पूर्वकी शताब्दीके थे। होने योग्य है। उक्र बावनीको छोड़कर अभीतक कविकी अन्य रचना हमार 8 पश्न कल्याणक महोत्सव देखने में नहीं आयी। बावनीकी भाषा जसा कि ऊपर कहा गया है राजस्थानी
कविवर रूाचन्दका पञ्चमंगलपाठ जैन समाजमें अति है। बावनी में ५४ पद्य हैं जो सभी सवैया हैं। रचना
प्रसिद्ध है जिसको प्रारम्भिक पंक्तियां तो प्रायः सभीको याद सुभाषिन है जो संसारी जीवको प्रतियोधनेके लिये लिखी
होंगी। अभी जयपुरके गोधोंके मंदिरके शास्त्र-भण्डारमें गयी है । क्षमाय विषयको स्पष्ट करके समझानेमें कुशल
कवि हरचन्दका पञ्चकल्याणक महोत्सवकी एक हस्तलिखित
प्रति मिली है। कविने इसे सम्बत १८१३ जेठ सुदी सप्तमीथे। कहीं-कहीं पूर्व कथाओं के आधार पर भी विषयका वर्णन
के दिन समाप्त किया था, जो रचनाके अन्तिम पद्यमें किया गया है। कालकी महिमा सब कोई जानता है तथा
निर्दिष्ट हैआज तक उसके सामने सभी महापुरुषोंने हार मानी है।
तीनि तीनि वसु चन्द्र ए संवतसर के अंक । कवि कहता हैईस ईद रवि चंद चक्रधर चउमुह चलाया।
जेष्ट शुक्ल सप्तम दिवस पूरन पढी निसंक ॥११८॥ वासदेव बलदेव कालि पुणि तेही कलाया ॥
कविने अपने नामोल्लेखके अतिरिक्त अन्य कोई परिचय मांधाता बलि कन्न गयउ रद रावण सोई।
नहीं दिया है। लेकिन रचनाकालके आधार पर यह तो सागर सगर गंगेउ गया सो सेन सजाई। निश्चित है कि कवि १८वीं शताब्दी के थे। भूपति भोज विक्रम सरिस भल पुणि भले से पणि गया रचनामें 11८ पद्य हैं जिसमें दोहा, तेईसा सवैया, कवि कहिइ खेम अचरज किसउ कालइ कवसान महानाराच छन्द, पत्ता छन्द श्रादि हैं। अधिकांश पद्य
गंजिया L सवैया तेईसामें लिखे हुये हैं।
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किरण ११-१२] हिन्दीके नये साहिस्यकी खोज
[३३७ रखना छोटी है लेकिन बहुत सुन्दर है। ऐसा मालूम आदिनाथ जहाँ जहाँ विहार करने हैं वहांका वायुमण्डल होता है कि हरचन्द हिन्दीके अच्छे कवि थे तथा अलंकार स्वच्छ बन जाता है। वे मागधी भाषामें अपना पावन उपएवं रस-शास्त्रके पारंगत थे। भगवान् श्रादिनाथके जन्म देश देते हैं जिसको सुनकर सब प्राणी श्रायपके बैर छोड़ कल्याणक पर देवोंने जो उत्सव मनाया था उसका कविने देते हैं। प्रकृति श्रीभगवानके आगमनसे प्रसन्न होकर मानों विस्तारसे वर्णन किया है। केवल अप्सराओं एवं देवियोंके अपनी ६ ऋतुयें एक साथ ले पाती हैं। इसका वर्णन नाच-वर्णनमें ७ सवैया हैं। उनमें से दो पढ़िये
कविके शब्दों में पदिये- भुजगप्रयात छंदहाव भाव विभ्रम विलास युत खडग !
खिरै मागधी भाख सबको पियारी। रिषभ गावै गंधार ।
तजे वैर आजन्म मव देहधारी।। ताल मृदंग किंकिनी कटि पर
फ्ले वृक्ष पट रितु तनै गंध भारी। पग नेवज बाजे झनकार।
करै म दर्पन मनी निर्मलारी।।८३॥ वीन बांसुरी मुरज खंजरी, चंग उपंग बजै सहनारि। वहै पवन मंद सुगंध सखारी। कोडि सताइस दल बल ऊपर रचै अपछरान–अपार
लहै परम सुन्नकंद जिनवंदतारी।। सीसफूल सीसन के ऊपर पग नृपर भूपर सिंगार। करै रत्न भूमी मा देवतारी। केसर कुंकुम अगर अरगजा
झर मेघ निर्भर सुगंध कृतारी।४ मलय सुभग ल्याये धनसार।
इस प्रकार कविने बहुत ही सुन्दर रीतिसे तथा थोडेसे चलनि हंसनि बालनि चितवन करि
शब्दोंमें आदिनाथके पांच कल्याणकोंका वर्णन किया है, रति के रूप किये परिहार । कोडि सताइस दल बल ऊपर
अन्तमें वह विनयी बनकर अपनी रचनामें आये हुये दोपोंके रचै अपछरा नचे अपार ॥
लिये क्षमा मांगता है-मरहटी छंदपर्याज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात ऋषभदेवका वर्णन मो मति अति हीनी नहीं प्रवीनी जिन गन महा महंत करते हुये कविने लिखा है
अति भक्ति भावने हिये चावने नहिं जस हेत कहंत ॥ जाकी वपु कानि दशा दिम भांति
सबके भानन की गुन जानन को मी मन सदा रहंत । महा सुख शांति धरन जगक। जिनधर्म प्रकासन भव-भव पावन जन हरचद चहंत ॥ जाको वपु तेजु हरै र र रवि सेजु
दोहादर दुग्व जे जु करम ठगके। अब सज्जन बुद्धिवंत जे तिनमो विनती रह । जाको शुभ दर्श हरै भव पर्श
भूल चूक अक्षर अमिल करयो मुद्ध सनेह ॥११४।। __ करै शिव शर्श सरम लगके।
क्रमशः जाको गुन ज्ञान धरै मुनि ध्यान
(श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजीक अनुसंधान करै कल्याण परम मगके ।। ७६ ।। विभागकी औरमे)
क्षण विनश्वरता मनत्कुमार चक्रवर्ती अपने युगका सर्वश्रेष्ठ सुन्दर पुरुप था। इन्द्रने अपनी ममामें उसके सौन्दर्यकी बड़ी प्रशंसा की। दो देवोंको भूमगोचरी के शरीर सौन्दर्य पर सन्देह हुआ। वे विप्रका रूप बनाकर सनत्कुमारके रूप मौन्दर्यको देखने के लिये चल पड़े। व्यायामशालामें धूल-धूपरित चक्रवर्तीक शरीरको देखकर देव चकित रह गये। उन्हें इस प्रकार देखकर चक्रवर्तीने कहा-विप्रवर ! सुन्दरताका पूर्ण अवलोकन राज्य मिहामन पर करना।
थोड़ी देर बाद देव राज्य-सभामें पहुंचे, वहां देवोंको उनके शरीर सौन्दर्यमें पहले की अपेक्षा कमी मालूम हुई। वे बोले-स्वामिन् ! वह व्यायामशालाका सौन्दर्य अब नहीं रहा-उसका अपेक्षाकृत हाम हो चुका है। यह सुनते ही चक्रवतीको समारसे वैराग्य हो गया। ये सुन्दर जीवनकी कलियां, नित क्षण-क्षणमें मुरझाती हैं। तुम इन पर क्या इठलाते हो, ये मुरझानेको पाती है।
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वीर-शासन-जयन्तीका इतिहास
श्री वीरभगशनके शासन तीर्थकी जिसे स्वामी समन्त- देखा जाय तो यह तीर्थ-प्रवर्तन-तिथि दूसरी जन्मादि तिथियोंभद्रने 'सर्वोदयतीर्थ बतलाया है, उत्पत्ति पंच शैलपुर से कितने ही अंशों में अधिक महत्त्व रखती है। क्योंकि दूसरी (राजगृह) के विपुलाचल पर्वत पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा- पंचकल्याणक तिथियां जब व्यकि-विशेषके निजी उत्कर्षादिसे को प्रातः सूर्योदयके समय अभिजित नक्षत्र में हुई, जबकि सम्बन्ध रखती हैं तब यह तिथि पीड़ित, पतित और मार्ग: उस नक्षत्रका रुद्र मुहूर्तके साथ प्रथम योग हो रहा । च्युत जनताके उत्थान एवं कल्याणके साथ सीधा सम्बन्ध इस तीर्थको अवतार लिये २४१३ वर्ष बीत चुके है, आज रखती है, और इसलिये अपने हितमें सावधान, कृतज्ञ-जनता उसकी २४१४ वीं वर्षगाँठ है । वीरके तीर्थकी यह उ पत्ति- के द्वारा ख.सतौरसे स्मरण रखने तथा महत्त्व दिये जानेके तिथि ही 'वीरशासनजयन्ती' कहलाती है।
योग्य है। इन विचारोंके आतेही हृदयमें यह उत्कट भावना देश में धवल-जयधवल जैसे पुरातन सिद्धान्त-ग्रन्थोंका उत्पन्न हुई कि हमें अपने महोपकारी वीर प्रभु और उनके पठन-पाठन बहुत वर्षोसे उठा हुअा था, उनका नाम सुना शामनके प्रति अपने कर्तव्यका कुछ पालन जरूर करना जाता था किन्तु दर्शन दुर्लभ था। दैवयोगसे मुझे उनके चाहिये। तदनुसार मैंने १५ मार्च सन १९१६ को 'महावीरअवलोकनका सौभाग्य प्राप्त हुआ और मैंने उन परसे प्रायः की तीर्थप्रवर्तन तिथि' नामसे एक लेख लिखा और उसे एक हजार पृष्ठके नोटस लिये। नोट्सका यह कार्य प्राषाढ़ तत्कालीन 'वीर' के विशेषांकमें प्रकाशित कराया, जिसके द्वारा शुक्ला पूर्णिमा सं० १९१० ता. ७ जुलाई सन् १९३३ को जनताको इस पावन तिथिका परिचय देते हुए और इसकी श्रारा जैन सिद्धान्त भवनके संनिकट श्री शान्तिनाथजीके महत्ता बतलाते हुए इसकी स्मृतिमें उस दिन शुभ कृत्य करने मंदिरमें समाप्त हुआ। नोट्स लेते समय कुछ ऐसी प्राचीन तथा उत्मवादिके रूपमें यह पुण्यदिवस मनानेकी प्रेरणा की गाथाएँ इन ग्रन्थों में उद्धत पाई गई, जिनमें भगवान महा- गई थी और अन्त में लिखा थावीरके शासनकी उत्पत्तिके समय तथा स्थानादिका उल्लेख इस दिन महावीर-शासनके प्रेमियोंका खास तौर पर है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि श्रावण कृष्णा प्रति- उक्र शासनकी महत्ताका विचार कर उसके अनुसार अपने पदाकी उन तिथि वर्षके प्रथम मास और प्रथम पक्षकी प्राचार-विचारको स्थिर करना चाहिये और लोकमें महावीरतिथि है। उनमेंसे दो गाथाएँ इस प्रकार है:
शासनके प्रचारका-महावीर-सन्देशको फैलानेका भरसक वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। उद्योग करना चाहिये अथवा जो लोग शासन-प्रचारक कार्य में पाडिवदपुवदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्मि ॥२॥ लगे हों उन्हें सच्चा सहयोग एवं साहाय्य प्रदान करना सावणबहल परिवदे रुद्दमुहुत्त महोदये रविणो। चाहिये, जिससे वीर-शासनका प्रसार होकर लोकमें सुग्वअभि जिस्स पढम जोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वा ।।३॥ शान्ति-मूलक कल्याणकी अभिवृद्धि हो।'
इन गाथाओं परसे जहां भ. महावीरके शासन तीर्थकी इसके बाद ही २४ अप्रैल सन् १९३६ को उद्धारित उत्पत्तिकी तथि मालूम करके प्रसन्नता हुई वहां यह नई होने वाले अपने वीरसंवामन्दिरमें ५ जुलाई सन् १९३६ बात मालूम करके और भी प्रसन्नता हुई कि भारतमें बहुत को वीर-शासन-जयन्तीके उत्सवका प्रथम प्रायोजन किया प्राचीन समय पहले वर्षका प्रारम्भ इसी तिथिसे हुआ करता गया और उस वकसे यह उत्सव बराबर हर साल मनाया था तथा युगका प्रारम्भ भी इसी तिथिसे होता है और जा रहा है। इसलिये इस तिथिको अनेक दृष्टियोंसे बड़ा ही महत्व प्राप्त बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि उक्त खोजका सभी प्रमुख है। देश में सावनी-अषादीके विभागरूप जो फसली साल विद्वानोंने अभिनन्दन किया, मेरे सुझावको अपनाया, प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन प्रथाका सूचक है, जिसकी उत्सवादिके अनुकूल अपनी आवाजें उठाई और तभीसे यह संख्या अाजकल ग़लत प्रचलित हो रही है और इस बातको पावन तिथि एक महान पर्वके रूपमें उत्सवादिके साथ बतलाती है कि वर्षारम्भ-सम्बन्धी उस प्राचीन प्रथाका किसी भारतके प्रायः सभी भागोंमें मनाई जाती है प्रतिवर्ष पत्रों में समय यह उद्धार किया गया है।
विद्वानों द्वारा इस पर लेख लिखे जाते हैं तथा वीरशासनके कृतज्ञता और उपकार-स्मरण आदिकी प्टिसे यदि अनुकूल आचरण और उसके प्रचारादिकी प्रेरणा की
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किरण ११-१२)
वीर-शासन-जयन्तीका इतिहास
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जाती हैं और इसके मनाने वालोंकी संख्या प्रतिवर्ष तंजीके सन् ११३८ के उत्सवकी यह विशेषता है कि भनेकान्त माथ बढ़ रही है।
पत्र ७-८ वर्षसे बन्द पड़ा था, सभापति लाला तनसुखरायआजसे कोई तेरह वर्ष पहले रामगृह विपुलाचल) जीने उसको पुनः निकालनेकी म्बासतौरसे प्रेरणा की और तथा कलकत्तामें, वीरशासनको प्रवर्तित हुए ढाई हजार उसके संचालन तथा घाटेका भार अपने ऊपर लिया तदनुवर्षकी स्मृति एवं खुशामें, इस उत्सवका एक महान् सार उसे दो वर्ष तक बड़ी शानके साथ दिल्लीसे प्रकाशित प्रायोजन बा. छोटेलालजी और माह शान्तिसादजी किया। कलकत्ताके नेतृत्वमें हुआ था, जिसमें दशके कोने-कोनेसे
मन् १९४३ के उत्मवकी विशेषता यह है कि सभापति प्रचुर संख्यामे विद्वान् तथा प्रतिष्ठित जन पधारे थे। साथ
बाबू छोटेलालजीकी प्रेरणासे राजगृहीमें, जहां विपुलाचल हो कलकत्तामें भगवान महावीरके उपदेशोंको विश्व व्यापी
पर्वतपर वीरशासनका अवतार हुआ, वहीं उत्सव ममानका बनानेक लिये वीरशासन-संघकी भी स्थापना हुई थी।
प्रस्ताव पास हुआ। तदनुसार उत्सव राजगृहीमें प्रादर्शकलकत्तामें यह प्रायोजन ३६ अक्टूबरसे ४ नवम्बर सन्
रूपसे मनाया गया और उसमें कितने ही प्रमुग्व विद्वानाने १६४४ नक बड़ी सफलताके साथ सम्पन्न हुआ था।
भाग लिया। वीरसंवामन्दिरके द्वारा जिस वर्ष, (जुलाई मासमें) जिय स्थान पर और जिनके सभापतित्व में यह उत्सव मनाया गया
१९०४ के राजगृही-उत्सवकी यह बड़ी विशेषता है कि उमकी मूची इस प्रकार है
वहां शासनके प्रभावसे वर्षादिका प्रकोप समय पर एकदम वर्ष स्थान
सभापति
शान्त हो गया और उत्सव बड़ी शानके साथ मनाया गया, ५६३६ सरसावा पं. माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, तथा विपुलाचलके उस स्थान पर जहां भगवानकी प्रथम " "
" देशना हुई थी एक कार्ति-स्तम्भ कायम करने के लिये शिना१६३८ "
ला. तनमुम्बरायजी, दिल्ली न्याम किया गया । १६३६ " ला. हुलामचंदजी, नकुड़ (महारनपुर) सन् १९४८ में मुरारके उत्सवकी यह विशेषता रही
१० मक्खनजाल जी प्रचारक, दिल्ली किबीरसेवामन्दिरकी एक शाम्बा दिल में कायम करनक
मुनि कृष्णचन्द्रजी, पचकूला लिये राय माहब उल्फतरायजीने अपने चैत्यालयके नीचेका १९४२ , ला. प्रद्युम्नकुमारजी, महारनपुर । मकान फ्री दनेकी स्वीकृति दी। तदनुसार करीब दो साल १६४३ " बाछोटेलालजी, कलकत्ता
तक राय माहबके उस मकानमें वीरसंवामन्दिरका कार्यालय १९४४ राजगिरि बा• छोटेलानजी, कलकत्ता
दिल्ली में रहा। दूसरी विशेषता यह रही कि उत्सवमें प्राय १६४५ मरमावा बा. जयभगवानजी, वकील पानीपत
हुए बाबू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता मेरे साथ मा नगर १६४६ " बा. छोटेलालजी, कलक ।
मरमावा पधारे और उन्होंने यह दवकर कि पन्योंकि प्रका४. , बा. नेमचन्दजी वकीन, महारनपुर
शनका कार्य अर्थाभावकं कारण रुका पडा है, उनके प्रका१६४८ मुरार शुल्लक श्रीगणेशप्रमादजी वर्णी ।
शनके लिये १००००) दम हजार रुपयेकी सहायता प्रदान १६४६ दिल्ली , " "
की, जिमा प्राप्तपरीक्षादि किमने ही ग्रन्थ प्रकाशित हुए। 18. परमावा ५. रामनाथजी, परमाग ११५ " बा. छोटेलाल जी, कलकत्ता
मन के उन्मवकी यह विशेषता है कि मैने १०१२ ० रामनाथजी, मरसावा
वीरमेवा पन्दिरके नाम जो ट्रम्ट २ मईको रजिष्ट्री कराया
था वह ट्रमनामा ट्रस्टियोंक मामने पेश किया गया और १९५३ महावीरजी सेठ छदामीलाजजी फिरोजाबाद १९१४ दिल्ली माह शांतिप्रमादजी, कलकत्ता
ट्रम्पक नियमानुपार व्यवस्थादिके लिये प्रस्ताव पास किये
गये और कुछ नये ट्रस्टी भी चुने गये। १९५५ " श्रा० दशभूपणजी महाग
गयमाहब उल्फतरायजी, दिल्ली मन् ११५३ के उन्मवकी यह विशेषता है कि इस १६. , साहू शान्तिप्रसादजी, कलकत्ता अवसर पर मैंन मप्तम धावक व्रत ग्रहण किये और इस
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३४०] अनेकान्त
[वर्ष १४ खुशीमें पांच हजारकी रकम छात्राओं को छात्रवृत्ति देनेके तदनुसार आपसे ३५०००) रुपयेकी सहायता प्राप्त हुई। लिये अपनी दिवंगत पत्नीकी स्मृतिमें दान की।
बाईसवां उस्मत इस वर्ष पुनः साहू शान्तिसन् १५४ के उत्सवकी यह विशेषता है कि साह प्रसादजाके सभापतित्वमें आज मनाया जा रहा है, यह बड़ी शान्तिप्रसादजी कर-कमलों द्वारा वीर-वा-मन्दिरको खुशीकी बात है। इसी अवसर पर वीरसंवामन्दिरके नूतन बिल्डिंगका शिलान्याम हया और चौखटका मुहर्त भवनका उद्घाटन कार्य भी प्रापक ही कर-कमलों द्वारा किया गया। तथा साहुजीने बड़ी उदारताके साथ नीचंकी सम्पन्न हो रहा है यह इस उत्सवको खास विशेषता है। मंजिलका कुल खर्च उठानेको स्वीकारता प्रदान की और
जुगलकिशोर मुख्तार
वीरशासनजयन्ती और भवनोत्सव
श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके प्रात:काल ॥ बजेसे ॥ बजे जी मुख्तार, संस्थापक वीर-सवामन्दिरने वीर शामन जयन्ती तक चार शासन जयन्तीका समारोह भारतके प्रसिद्ध उद्योग- का इतिहास बतलाया। (जो कि इसी किरणमें अन्यत्र पति, श्रावक-शिरोमणि, दानवीर साहू शान्तिप्रसादजा जैन प्रकाशित है) महामा भगवानदीनजीने अवस्थ और कलकत्ताके सभापतित्वमें सानन्द सम्पन्न हुमा। इस अवसर अशक्त होते हुए भी बड़े मार्मिक शब्दों में अपना भाषणा पर ससंघ प्राचार्य देशभूपणजा महाराज, श्रीमती अजित- दिया। आपने इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि प्रसादजी (केन्द्रीय खाद्यमन्त्री) श्रीमती कमला जेन, कथनीकी अपेक्षा करनीका महत्त्व बहुत अधिक है । हमें काका कालेलकर, महात्मा भगवानदीनजी, श्री जनेन्द्रकुमार- अपने भीतर जैनत्व जागृत करना चाहिए और इच्छा जी, श्री यशपाल जी, श्री अक्षयकुमारजी, रा. सा. लाला निरोधरूप तपको जीवनमें उतारना चाहिए । श्री काका उल्फतरायजी, ला० श्यामलालजी, ला. जुगलकिशोरजी कालेलकरने जन साहित्यकी महत्ता पर प्रकाश डाला और कागजी, ला. परसादीलालजी पाटनी, ला. मुशीलालजी, बतलाया कि अहिसाकी श्राज बहुत आवश्यकता है । ला० राजकृष्णजी, ला. तनसुखरायजी, ला. नन्हेंमलजी, आपने अहिमान्मक आन्दोलनकी इस अवसर पर चर्चा करते ला. रतनलालजी बिजली वाले, ला. रतनलालजी मादी- हुए कहा कि हमें वह काम करना चाहिए जिससे मनुष्यका पुरिया, ला. रघुवीरसिंहजी, राय बहादुर उल्फतरायजी प्रारसमें रभाव घटकर परस्पर मनुष्यता बढे । शापने ईजीनियर मेरठ, वंद्य महावीरप्रसादजी, सेठ मोहनलालजी परामर्श दिया कि हमें जातिसे जैनोंकी सख्या न बनाकर कटोतिया, बा. पन्नालाजजी अग्रवाल, डॉ. किशोर, डॉ. हृदयसे जन-भावनाका अादर करने वाले लोगोंको श्रावसी. आर. जैना, वा. श्रादीश्वर लालजी एम. ए., बा० श्यकता है। आपने श्राप के ममारकी स्थितिकी चर्चा करने श्रानन्दप्रकाशजी एम. ए., बा० गोकुलप्रसादजी एम. ए. हए शान्तिवादियांका एक मजबूत मंगठन बनानेकी भी पं० अजितकुमारजी शास्त्री, ५० दरबारीलालजी न्यायाचार्य, इस अवसर पर चर्चा की। अन्तमें आपने बताया कि मैंने पं. बलभद्रजी न्यायतीर्थ, बा० विमलप्रसादजी, श्री शांति- विदशीका भ्रमण किया है, मैं स्वयं निरामिषभोजी हूँ और लालजी वनमाली प्रादि नगरके अनेक गण्य-मान्य श्रीमान् मैंने अनभव किया है कि विदेशी लोगोंमें शाकाहारकी प्रवृत्ति और विद्वान् उपस्थित थे।
बढ़ रही है। पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीक मंगलाचरण करनेके पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने अपनी योजस्विनी पश्चात् बा० छोटेलालजी जैन, अध्यक्ष वीर-सेवामन्दिरने भाषामें वीर-शासनका महत्त्व बतलाते हुए अहिंसा, अनेसाहूजीका परिचय दिया । बा. प्रेमचन्दजी बी०ए०, कान्त, अपरिग्रह, कर्मसिद्धान्त आदि पर बहुत सुन्दर ढंगसे संयुक्र मंत्री वीर-सेवामन्दिरके हार पहनानेके पश्चात् श्री प्रकाश डाला और कहा कि श्रात्मासे परमात्मा बननेका ताराचन्द्रजी प्रेमीने जैन शासन और स्यावाद पर एक मार्ग बतलाना ही जैनशासनकी सबसे बड़ी विशेषता है। बहुत सुन्दर कविता बोली, जिसे सुनकर सभी उपस्थित अपने भापणके अन्तमें आपने खाद्य समस्या पर प्रकाश लोग मानन्द-विभोर हो गये। तदनन्तर पाल जुगलकिशोर डालते हए कहा कि मनुष्य स्वभावतः शाकाहारी प्राणी है
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अनेकान्त
नवभारत टाइम्स के सौजन्य से
वीर शासन जयन्ती महोत्सव
बाएं से हाई- साहू शान्तिप्रमाद जी ( भाषण करते हुए ) २ महात्मा भगवानदीन जी,
३ श्री जुगलकिशोर जी सुकतार, ४ श्री जैनेन्द्र कुमारजी, २०१० प्रेमचन्दजी, ६ सेठ मोहनलालजी कठोतिया ७ श्री काका कालेलकर (भाषण करते हुए)
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किरण ११-१२]
वीरशासनजयन्ती और भवनोत्सव
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गहबान उसके दांन अादिकी बनावटसे ही सिद्ध है। फिर अन्तमें माहनीने अपना भाषण प्रारम्भ किया और भी अपने को अहिंसक कहलाने वाली हमारी भारत सरकार प्राचार्य महाराजके व्याख्यानकी प्रशंमा करते हुए कहाखाध समस्याको हल करने के लिए दिन पर दिन मांस- महागजने धर्मरूप सरोवरसे मभीको जल पीनेका अधिकार भक्ष का प्रचार करने पर तुली हुई है। उसे ज्ञात होना बतलाया है। हमें चाहिए कि हम धर्मरूप सरोवरसे सबको चाहिए कि माम मनुष्यका प्राकृतिक आहार नहीं है, यह जलपान करने देवें। प्रागे श्रापने कहा कि भारतकी राजधानी एक मात्र उन हिम पशुओंका भोजन है जिनके कि दांत होनेके नाते यहांके जैनियोंका कर्तव्य है कि सबका समानश्रादिको रचना शाकाहारी पशुओंसे भिन्न है। आज वैशा- रूपसे कल्याण करनेवाले वीर-शासनके सिद्धान्तोंका अधिकसे निक परीक्षणोंसे यह सिद्ध हो चुका है कि जहां कमाईग्वाने अधिक प्रचार करें। तत्पश्चात् या छोटेलालजी जैनने सर्व अधिक होने हैं, वहाक वातावरणमे रहने वाले मनुष्योंकी ममागत बन्धुओंका आभार माना और साहजीसे वीरसेवाकेमिनना (अपराध करनेकी मनोवृत्ति बढ़ती है और उसमे मन्दिरके नवीन भवनके उद्घाटनकी प्रार्थना की। माहूजी मार-काट, डांकेजनी, अत्याचार और व्यभिचारको प्रोत्तं जना सभा-मण्डपसे वीरसेवा मन्दिर पधारे, वहां पर श्रीमती मिलती है। मनुष्यके स्वभावमें बर्बरता और उग्रता श्राती अजित प्रसादजीने पापको तिलक किया और साहजीके है। इसलिए दिन पर दिन बढ़ने वाले कमाईखाने और आग्रहसे अापने पं० सुमेरुचन्द्रजी उन्निनीपु तथा पं० मांसाहारके विरुद्ध मभी अहिंसा-प्रेमियोंको प्रबल आन्दोलन मिट्ठनलालजीके द्वारा मंत्रोच्चारण किये जानेके साथ वीरसेवा. करना चाहिए और मत्स्य-मुर्गी-पालनके स्थान पर गो-पालन मन्दिरका उद्घाटन किया। सर्व प्रथम श्रा० देशभूपणजी फल, उत्पादन प्रादिके प्रचार-द्वारा शाकाहारके लिए सरकार महाराजने भीतर प्रवेश किया। साहजीने उपर हॉल में
और जनताको प्रेरित करना चाहिए। तथा चमड़ेसे बनी जाकर शेप विधि-विधान सम्पन्न किया। तदनन्तर सभी वस्तुयोंका व्यवहार नहीं करना चाहिये । तत्पश्चात् प्राचार्य भाई-बहिनोंको लाडुओंसे भरे हुए थैले भेंट किये गये। देशभूषण जी महाराज का भाषण हुमा । अापने वीर-शासन- इस प्रकार वीरशासनकी जयध्वनि पूर्वक प्रातःकालीन की विशेषतानीको बनलाते हुए कहा कि यह महान हर्षकी कार्यक्रम समाप्त हुआ। बात है कि श्री जुगल किशोरजी मुख्तार अपने वीर-सेवा- मायंकालको ८ बजेमे श्री टी. एन्. गमचन्द्रन्, संयुक्र मन्दिरके द्वारा वीर-शासन-जयन्ती मना करके वीर-शासनका डायरेक्टर जनरल पुरातत्त्व विभाग भारत सरकारने स्लाइडके प्रचार कर रहे हैं और माहजी उममें पार्थिक सहायता द्वारा जनमुनियों और मन्दिरोंके प्राचीन चित्रोंको दिग्वाते देकर नया जैन या न्यका प्रकाशन वग करके अपनी हप जैन संस्कृति और कलाके विषय पर अंग्रेजीमें बहुत ही लक्ष्मीको सफन कर रहे हैं । अन्नमें आपने बतलाया गम्भीर एव महत्त्वपूर्ण भाषण दिया, जिसका मार हिन्दीमें कि भ. महावीरने जैनधर्मरूपी जिम मरोवरको अपने बा. छोटेलालजी बीच-बीचमें बतलाने जाते थे। अमृतमय उपदेशरूपी जलसे भरा है, उपके जलको पानेका प्रन्येक मनुष्यको अधिकार है। अाज उस तालाबकी दूसरे दिन पा० छोटला
दूसरे दिन या. छोटेलालजी मा. माजी से उनके पाच टूट रही है और उसमेंका जज समाप्त होनेका अंदेशा निवास स्थान पर मिले श्री
निवास स्थान पर मिले और वीरसेवामन्दिरको आर्थिक है। इसलिए प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि उसके स्थिति उनके सामने रखी पार बतलाया कि संस्थाको
पाल में एक-एक नया कपालको मत १५ हजार रुपयोंकी तत्काल आवश्यकता है। साहुजीने बनाये रग्वें, जिससे कि सरोवरमें धर्मरूप जल बराबर भरा १५०००) क० का सहायता के
१५०००)क० का सहायता देना स्वीकार किया। इसके रहे और प्रत्येक प्राणी उममें के जलका पान करके चिरकाल लिए वीर सेवामन्दिर श्रापका बहुत आभारी है। नक अपनी प्यास बुभाता रहे।
मन्त्री-वीर सेवामन्दिर
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चीर शासन-जयतीके उपलक्षमें समारोहके अध्यक्ष साहू शान्तिप्रसादजीके प्रति
रचयिता : ताराचन्द जैन 'प्रेमी
धरा धन्य हो गई किसे पा गया धैर्य भी जीत रे!
लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ___ गाती किसके गीत रे?
बीता तिमिर निशा का प्राची पर प्रकाश की अरुणाई उषा आज पुजारिन बनकर
केशर थाल सजा लाई।
मेघ मगन होकर धरती पर क्यों निझर झर झर झरते? जाने किस वरदानी के
चरणों का प्रक्षालन करते'
मां मूरति का हृदयस्थल भारत भर का आल्हाद है देश जाति का गौरव येही
साहू शान्ति प्रसाद है।
सम्य साधना से विश्वासी गया भाग्य को जीत रे लक्ष्मी और सरस्वती दोनों
गाती इसके गीत
रे।
वृक्षों की डालें मुक झुक कर करती हैं मम्मान रे भ्रमरों की टोलियाँ झूम कर गाती हैं गुण गान ।
(८) गिरि की उँची चोटी जैसा
सूरज को दोपक दिखलाऊँ उन्नत हृदय महान् रे।
क्या कुछ कह कर मात रे? और सिन्धु की गहराई सा
लचमी और सरस्वती दोनों गहरा इनका ज्ञान रे।
गाती इनके गीत रे।
(१०) नहीं मेघ की दूंदें हैं ये
उपवन भी पाना अांचल सुर बालाओं के श्रम कण !
सुरभित फूलों से भर लाया। अथवा पायल के घुघरू हैं
आज सरलता से मिलने को या श्रद्धा के सजल नयन ।
इन्द्र हृदय भर कर पाया। (११) व्या. न हो पाती शब्दों में अन्तर तम की प्रीत रे । लक्ष्मी और सरस्वती दोनों
गाती इनके गीत रे।
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नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण की
शाखा-प्रतिशाखाएं
(श्री० पं० पन्नालाल सोनी) इतस्तत बिखरी हुई मामग्री के आधार पर उक्त के निवासी मुनिजन के समक्ष युग प्रतिक्रमण किया करते शाग्वा-प्रतिशाखाप्रो के मकलन का यह प्रयाम है, जो कि थे। वे जब एक बार युगान्त मे युगप्रतिक्रमण कर रहे थे अत्यन्त दुरूह है, फिर भी यह कदम बढाया जा रहा है। तब उन्होने आगत मुनिजनों से पूछा, क्या सब मुनिजन वह इस लिए कि इनकी कुछ जानकारी हासिल हो सके आ गये ? मुनिजन बोले, हां, भगवन् ! हम मब अपने २ और उनरोनर अधिकाधिक विचार-विमर्श हो सके। सघ के माथ आ गये । उनके इस प्रतिवचन को सुनकर इसके सकलन की सामग्री निम्न प्रकार विभाजित की जा भगवत् अहं दबली ने सोचा, अहो अव मे मागे इस कलियुग, सकती है। १-ग्रन्थ प्रणेताओं के उल्लेख २-उनकी मे यह जैनधर्म अपने अपने सघ भेद के पक्षपात को लिए प्रशस्तिया ३--ग्रन्थ लिखा कर देने वालो की प्रशस्तिया हुए स्थित रहेगा, उदासीन रूप से नहीं। ४-ग्रन्थ-लिपिकारो की प्रशस्तिया ५-शिलालेख ६- इम निमित्त को पाकर भगवान् अर्हबलीने पाच स्थानों प्रतिमालेख, ७-विप्रकीर्ण ८-पट्टावलिया ।
मे पाये हुए मुनिजनो के पांच कुल नियत कर दिए और संघोत्पत्ति
उनकी पृथक पृथक् दश सज्ञाए भी निश्चित कर दी । जो
गुहावास से पाये थे उनमे किन्ही की नन्दी और विन्ही सबमे प्रथम मंधो की उत्पनि कैसे हुई यह जान लेना
की वीर, जो प्रशोकबाट से पाये थे उनमे किन्ही की आवश्यक है । कहते है पूर्व समय मे मुनिजन ज्ञान-विज्ञान
अपगजित और किन्ही की देव, जो पचस्तूप्यनिवास में में प्रवीगा बडे प्राचार्य के पादमूल मे पचवार्षिक प्रतिक्रमण
पाये थे उनमे किन्ही की सेन और किन्ही की भद्र, जो किया करते थे जो प्रति पांचवे वर्ष के अन्त मे सम्पादित
शाल्मलि नाम के महाद्रुम से पाये थे उनमे किन्ही की हुया करता था । इसे युगप्रतिक्रमण भी कहते हैं। इसका
गुग्णधर और किन्हीं की गुप्त नथा जो खडकेमर नाम के दूसरा नाम महिमा या महामहिमा भी है । इममे दूर दूर
द्रममूल से पाये थे उनमे किन्ही की सिंह और किन्ही तक के मुनियो का समुदाय मम्मिलित हुआ करता था।
की चन्द्र । दो युग प्रतिक्रमणों मे दो विशेष घटनाएं घटित हुई। एक मे पाच कुलो या चार मघो की उत्पनि हुई और
इस कथन की पुष्टि में प्राचार्य इन्द्रनन्दी ने एक दूसरे में पटव डागम की उत्पनि का स्रोत प्रस्फुटित ।
प्राचीन पद्य भी उधृत किया है । वे मज्ञापो के सम्बन्ध में अन्य प्राचार्यों का कुछ विभिन्नता का सूचक मतभेद भी
व्यक्त करते है । यद्यपि उनका मजामो के विषय मे कुछ जिसमे कुलो या मघो का नाम मकरण हुआ था
मतभेद अवश्य है किन्तु कुलो के विषय मे कोई मतभेद नही वह युग प्रतिक्रमण भगवत्-
अली के पादमून में हुअा था प्राचार्य प्रवर इन्द्रनन्दी थतावतार नाम के प्रवचन में
है । अन्तिम उपसहार करते हुए वे ही प्राचार्य इन्द्रनन्दी
कहते है-इस प्रकार मुनिजनो के संघो के प्रवर्तक प्राचार्य लिखते है कि प्राचाराग के धारक मुनियो के अनन्तर अगो
__ अहंबली के अन्तेवासी मुनीन्द्र हुए हैं, जो समान कुलाऔर पूर्वो के एक देश के धारक विनयधर, श्रीदत, शिव- जह
चरण के कारण सभी उपासनीय है-माननीय है । नात्पर्य दत्त और अहहत्त ये चार मुनिप्रवर हुए। इनके अनन्तर
पांचों कुलो के आचरण में कोई भेद नहीं है, मभी कुलो पूर्व देश के मध्यवर्ती पुडवर्धनपुर मे मब अंगो और
का प्राचरण एक सा है । प्रत उस ममानाचरण के पूर्वो के देशैकदेश के वेत्ता आचार्य अहंबली हुए | जो इम थत के प्रसारण और धारण करने में ममर्थ थे, विशुद्ध
प्रतिपालक सभी मुनि अभिवंदनीय हैं। ममीचीन कियाओं के प्राचरण मे उद्यक्त थे, अष्टांग नीतिसार के विधाता प्राचार्य प्रवर द्वितीय इन्दनन्दी निमित्तो के ज्ञाता थे, संघ के अनुग्रह-निग्रह करने में समर्थ इस प्रकार कहते हैं कि जब विक्रमनृपनि और भद्र बाहथे। वे उस समय पाँच पांच वर्षों के अननर मौ योजन तक योगीश्वर स्वर्ग चले गये तब प्रजा पार मे विमोहित हई
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३४४]
अनेकान्त
वर्ष १४
स्वच्छन्दचारिणी हो गई और परमार्थ के ज्ञाता और प्रात्म अाकाश में चमकने वाला मूर्य कहते हैं। इस तरह दोनों ने ध्यान मे तल्लीन यतियो में स्वपराध्यवसाय उत्पन्न हो अपनी कुल परंपरा का परिचय देते हुए अपने को गया उस समय जातिसांकर्य से भयभीत हुए महद्धिक लोगों पंचस्तूपान्वयी बतलाया है। परन्तु इन्ही वीरसेन के ने मवके उपकारार्थ ग्राम-नगर प्रादि के नाम मे कुलों की प्रशिष्य और इन्हीं जिनमेन के गिष्य गुरणभद्र भदन्न इन रचना की और उसी वक्त सब निमित्तनों में अग्रणी यति- दोनो को सेनान्वयी कहते हैं और कहते है कि वीरसेन से राज अहंबली ने भी मंघों का मंगठन किया । जो कि संघ जिनसेन हुए और जिनसेन के सधर्मा दशरथ गुरु हुए, मैं स्थान-गहा, शाल्मलीद्रम, अशोकवाट आदि मे स्थित अर्थात् जिनमेन और दशरथ गुरु इन दोनों का जगद्विश्रुत शिष्य निवास के भेद मे मिहमंघ, नन्दिसंघ, सेनसघ और देवसंघ हुअा हूँ। इस पर से ज्ञात होता है कि पंचस्तूप्य कुल इस प्रकार स्पष्ट हैं।
और मेनसंघ दोनों एक ही परंपरा के नाम हैं । अतः दोनो इन्द्रनन्दी ग्राचायों के उल्लेखों के अनुसार स्पष्ट दोनो जुदी जुदी वस्तु नही है। इसी तरह गुहावासी कूल है कि स्थान स्थिति को लेकर पांच कूलों के नामो और और नन्दिसंघ, प्रशोकवाट कुल और देवसंघ, तथा उनकी संज्ञानों का तथा चार संघों का सगठन अष्टाग खंडकेमर कुल और मिहसप भी अभिन्न जान पड़ते है। निमित्त वेता आचार्य अहंबली ने ही किया था। शाल्मलीवृक्षमूल कुल भी इन चार मे से किसी एक मे मंघों के अन्तर्गत नाम भी यत्र तत्र पाये जाते है जिनमें
अन्तर्भूत हो गया दिग्वना है।
इन संवों से अनेक गरण-गच्छ उत्पन्न हुए है, जो कुलों और मपो मे एकीकरण प्रतीत होता है। कुलों की
स्व-पर को मुखोत्पादक है। उनमे प्रवृज्या, चर्या प्रादि में अन्तर्गत मंजाए दी जा चुकी हैं, मंघों की अन्तर्गत मंज्ञाए ये
कोई भेद नहीं है, न प्रतिक मण-क्रिया में भेद है, न है-नन्दिमंघ के मुनियो की नन्दी, चन्द्र , कीर्ति और भूपण,
प्रायश्चितविधि मे भेद है और न ही आचार-वाचना सेनमंघ के मुनियों की मेन, वीर और भद्र सिंह संघ के
प्रादि मे विभिन्नता है, यह भी नीतिसार मे कहा गया मुनियों की मिह, कुभ, मानव और सागर, तथा देवमघ के
है। ये सब सघ और उनके गण-गच्छ मूलसंघ के यतियों की देव, दन, नाग और तुग । कुलो की अन्तर्गत अन्तर्गत है। मूलसंघ नाम परापर पूर्वक्र मवर्ती मुमुक्ष ओ सज्ञानों मे नन्दि. मेन, मिह और देव प्रथम नाम दृष्टिगत के एक वर्ग का है, जो कि भगवान महावीर मे लेकर हो रहे है और मयो की अन्तर्गत मंजारों में भी नन्दि, अविच्छित्र रूप से चला पाया गृहीत यं मंविग्न प्राचार्यो सेन, सिंह और देव प्रथम नाम है । इम पर मे ऐसा प्राभाम का सम्प्रदाय विशेष है।। मिलता है कि कुलो के अन्तर्गत प्रयम नामों पर से सपों (उन गण-गच्छों के नाम भी पुस्तकों मे जहाँ तहा के नाम व्यवहृत हो गये हैं और कुनों के गुहावास, पंच- देखने में प्राते है। जैसे दक्षिणा पथ के नन्दिसंघ में स्तूप्य प्रादि नाम विलुप्त हो गये हैं । फलितार्थ यह कि पुस्तकगच्छ और वक्र गच्छ तथा देशिगण । उत्तरापथ के कुल मौर संघ जुदे जुदे नहीं हैं। गहावास कुल ही नन्दि नन्दिमध में सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण) सेनमंघ मे संघ है, पचस्तृप्य कुल ही सेनसघ है अशकवाट कुल पुष्करगच्छ मूरस्यगण, सिंहसंघ मे चन्द्रकपाटगच्छ काणूरही देवमंघ है और खडकेसर कुल ही मिह मंध है। गण । यह इतिवृत्त उत्तरापथ के नन्दिसंघ के मरस्वतीगच्छ उदाहरण के बतौर, धवल और पूर्वा श जय- मौर बलात्कारगण से सम्बन्धित है, जिसका कि आधार धवल के कर्ता प्राचार्य वीपमेन अपने को चन्द्रमेन के पूर्वोक्त सामग्री है। प्रशिप्य, और मार्यनन्दी के शिष्य बतलाते हुए पंचम्नू- पट्टावलियां मुख्यतया हमारे पास दो हैं एक संस्कृत पान्वय का सूर्य बताते हैं । इन्ही वीरमेन के शिष्य पट्टावली और दूसरी अजमेर पट्टावली । पहली पट्टावली जयधवला के उत्तरांश के कर्ता जिनसेन अपने गुरु संस्कृत भाषा में है और वह पद्यात्मक है । दूसरी मारवाडी स्वामी वीरमेन को चन्द्रसेन का प्रशिष्य और प्रार्थनन्दि हिन्दी भाषा में गद्यात्मक है। इसमें नन्दिसंघ के बलात्कार का शिष्य उद्घोषित करते हुए उन्हें पचस्तूपान्वय रूप गण के पट्टधरों की पट्ट संख्या, उनके जन्म के वर्ष, दीक्षा
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किरण ११-१२]
नन्दिसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण
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वर्ष, पट्ट वर्ष और पूर्ण प्रायु का व्योरा दिया गया है। शिष्य स्वामी जिनसेन यशोबाहु के स्थान मे भद्रबाहु का उसमे पट्टधरों की जातियों का भी उल्लेख है और कौन- नाम देते हैं। यह हो नहीं सकता था कि गुरु द्वारा कौन पट्टधर कहा कहा रहे, यह भी निर्दिष्ट है। इन सब उल्लिखित परंपरा उन्हें ज्ञात न हो, वह उन्हें ज्ञात थी, का उपयोग किया जाना तो मशक्य है, क्योंकि जो प्रति फिर भी वे यशोबाहु न लिखकर भद्रबाहु लिखते हैं। और हमारे पास है वह उक्त विषयो को सर्वथा शुद्धता पूर्वक इन्ही दोनों के प्रशिष्य और शिष्य गुणभद्रदेव भद्रबाहु प्रतिपादन नही करती भौर कई स्थलो पर त्रुटित भी न लिग्वकर यशोबाहु लिखते हैं। इस पर से मालूम है। इस लिए उसमे के उपयोगी विषय ही यथास्थान पडता है कि यशोबाहु और भद्रबाहु एक ही प्राचार्य के बतलाये जा सकेगे। सस्कृत पटावली मे इनके बाद ये पर्याय नाम हैं जो कि एकांग के वेत्ता थे। इस तरह हुए और इनके बाद ये हुए, इतना मात्र उल्लेख है। हां, ६८३ वर्ष तक की परंपरा में भद्रबाहु नाम के दो प्राचार्य प्राचार्य वसन्तकीति से मागे कुछ विशेप परिचय भी । पाया जाता है। दोनो पट्टावलियां सर्वथा एक मत नहीं
विक्रम प्रबन्ध के कर्ता भी दो भद्रबाहुमो का होना है। उनमें कुछ अंशों में समानता भी है और कुछ अंशों
स्वीकार करते हैं । परन्तु वे प्रथम भद्रबाहु को ग्यारह मे असमानता भी। जिनका यथा स्थान उल्लेख किया
अग और चौदह पूर्व के ज्ञाता और दूसरे को दश-नव
अष्ट अग के ज्ञाता कहते है और उनका समय वी०नि० जायगा । सब से पहली बात यही है कि सस्कृत पट्टावली मे प्राद्य पट्टधर आचार्य माघनन्दी को कहा गया है और
५१५ मानते हैं । उनकी मानी हुई परपरा इस अजमेर पट्टावन्दी मे भद्रबाहु को । परन्तु संस्कृत पट्टावली
प्रकार है-अन्तिम जिनके निर्वाण च न जाने के पश्चात् मे मगल रूप मे भद्र बाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त का
गौतम, सुधर्म और जंबू ये तीन क्रमश केवल ज्ञानी भी एम रूप में म्मरण किया गया है कि मानो इस संघ
हुए। इनके काल का परिमाण १२-१२-३८ वर्ष का है, में उनका भी कोई खास सम्बन्ध रहा है । प्रत. यह
जो मिला कर ६२ वर्ष प्रमाण हैं । इनके अनन्तर इतिवृत्त भद्रबाहु से ही प्रारंभ किया जाता है।
१०० वर्ष पर्यन्त ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के धारक
क्रमश १४, १६, २२, १६, २९ वर्षों में विष्णुकुमार १ प्राचार्य भद्रबाहु
नन्दिमित्र अपराजित गोवर्धन और भद्रबाहु ये पॉच मुनि भद्र बाहु नाम के कम से कम दो प्राचार्य हो गये हैं। हुए। इसके पश्चात् १८३ वर्ष पर्यन्त ग्यारह मंग और एक ग्यारह अगो और चौदह पूर्वो के वेत्ता और दूसरे एक दश पूर्व के वेत्ता क्रमश. १०, १७, १८, २१, १७, १८, अग के वेत्ता | कोई कोई प्राचार्य अंगो-पूर्वो के एक देश १३, २०, १४, १६, १६ वर्षों में विशाखाचार्य प्रोष्ठिलाके ज्ञाता भद्रबाहु का और कोई कोई अप्टाग निमित्तो के चार्य क्षत्रियाचार्य, जयसेनाचार्य, नाग सेनाचार्य, मिद्धार्थाज्ञाता भद्रबाहु का भी उल्लेख करते हैं। परन्तु समय के चायं धृतिमेनाचार्य, विजयाचार्य, बुन्नि लिगाचार्य, लिहाज से इनका अन्तर्भाव दूसरे भद्रबाहु मे ही किया जा देवाचार्य, और धर्मसेनाचार्य ये ग्यारह मुनिवर हुए। सकता है। वी० नि० म०६८३ तक के प्राचार्यों की इनके बाद १२३ वर्ष पर्यन्त क्रमश. १८, २०, ३६, १४, जो परंपरा ग्रन्थो मे उपलब्ध है वह किन्ही किन्ही के ३२ वर्षों मे नक्षत्राचार्य, जयपालाचार्य, पाहुप्राचार्य, पर्याय नामो को छोड कर प्रायः समान रूप में है। जैसे ध्रवमेनाचार्य और कंसाचार्य ये पांच प्राचार्य ग्यारह मंग कोई प्राचार्य सुधर्मस्वामी को मुधर्मस्वामी लिखते है तो के पाठी हुए । इनके अनन्तर ६७ वर्ष पर्यन्त क्रमशः ६, कोई उन्हे लोहाचार्य और सुधर्माचार्य दोनों नामो से १८, २३, ५० वर्षों मे सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लिखते है । इसी तरह कोई प्राचार्य एकांग के वेत्ता भद्र- लोहाचार्य ये चार मुनिवृषभ दश नव पाठ अंगों के धारी बाहु को भद्रबाहु और कोई यमोबाहु लिखते हैं। इस हुए है। इनके पश्चात् ११८ वर्ष पर्यन्त कमश. २८, विषय मे पुष्ट हेतु यह है कि प्राचार्य वीरसेन एकाँग के २१, १६, ३०, २० वर्षों मे अहंबली, माघनन्दी, धरमेन पाठी चार मुनियो के नाम क्रम से सुभद्र, यशोभद्र, पुष्पदन्त और भूतबली ये पांच आचार्य एक प्राचाराग यशोबाहु और लोहाचार्य गिनाते है, तो उन्ही के खास के ज्ञाता हुए । उक्त क्रम मे केवल ज्ञानियों, ग्यारह अंग
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अनेकान्त
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चतुर्दश पूर्वधरो, और ग्यारह अंग-दशपूर्वधरों तक के नामों से तो यही सूचित होता है कि द्वितीय भगवद् भद्रबाहु और समय में कोई अन्तर नही है। अन्य प्राचार्य भी इनका विक्रम राजाके समयमे विद्यमान थे। काल क्रमशः ६२, १००, १८३ मिलाकर ३४५ वर्ष मानते भगवत्कुन्दकुन्द भी एक भद्रबाहु श्रुतज्ञानी का जयहैं तो विक्रम प्रबन्ध के कर्ता इनके नाम और समय भी वाद रूप मे स्मरण करते है वे प्रथम भद्रबाहु जान पडते इतना ही मानते है । किन्तु आगे एकादशांगारियो के हैं, क्योकि ग्यारह अग और चौदह पूर्व के ज्ञाता प्रथम नाम तो अन्य प्राचार्य और विक्रम प्रबन्ध के कर्ता वे ही भद्रबाहु ही थे। प्राचार्य शाकटायन अपरनाम पाल्यकीर्ति गिनाते हैं जो कि ऊपर कहे गये हैं। किन्तु समय इनका भी अमोघवृत्ति मे 'ट: प्रोक्ते' सूत्र की व्याख्या मे उदाहरण अन्य प्राचार्य जहा २२० वर्ष कहते है वहाँ विक्रम प्रबन्ध- के रूपमें 'भद्रबाहुना प्रोतानि भद्रबाहवागिण उनराध्ययनानि' कर्ता १२३ बताते हैं । अवशिष्ट ६७ वर्षों मे सुभद्र, यशो- इस प्रकार उल्लेख करते हैं । ये भी संभवत. प्रथम भद्रबाहु भद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य दश नव प्रष्ट अग के घारक ही है । क्योकि इन्होने ही गणधर प्रणीत उत्तराध्ययन हुए ऐसा कहते हैं जिनको कि अन्य कितने ही प्राचार्य सूत्रोका द्वादशागके वेत्ता होनेके नाते परिपूर्ण अन्तिम उपएकांगज्ञाता कहते हैं और समय ११८ वर्ष बताते हैं। देश या व्याख्यान दिया था। विक्रम प्रबन्ध के कर्ता के मतानुसार लोहाचायं तक की तात्पर्य-पूर्वाचार्य अपनी अपनी कृतियोंमे कोई श्रुतकाल गणना ६२, १००, १३, १२३ और ६७ मिलकर केवली भदबार का कोई प्रजग निमितज
केवली भद्रबाहु का, कोई अष्टांग निमितज्ञ भद्रबाहुका ५६५ वर्ष होती है, जब कि अन्य प्राचार्यों के मतानुसार नामस्मरण करते है, कोई इन्हे दश नव प्रष्ट अंगधर, कोई ६२, १००, १८३, २२० और ११८ मिलाकर ६८३ वर्ष
प्राचारांगधर आदि पदों से भी विभूषित करते हैं। इम होती है। विक्रम प्रबन्ध के अनुसार वी०नि० ४७० वर्ष
तरह दो भद्रबाहु हो गये है। अधिक भी हुए हो तो पीछे विक्रम राजा हुया है। लोहाचार्य के ५६५ वी. नि तो निश्चित किया नदीमा निमे से ४७० घटा देने पर लोहाचार्य का वि० स० मनपणासनो मे और प्राचार्यो की नामावलियो प्राटि ६५ पाता है। लोहाचार्य ५० वर्ष तक पट्ट पर जीवित मे दो ही भद्रबाहोंके नाम देखने में प्राते है। प्रथम रहे हैं, अतः वि० सं० ६५ और वी० नि० ५६५ मे से
भद्रबाहु तो ग्यारह अंग चौदह पूर्वके ज्ञाता श्र नज्ञानी थे
भद्रबाह तो ग्यारह अंग ५० वर्ष बाद कर देने पर भद्रबाह का समय वि० सं० इस विषय में तो किमीका भी मतभेद नही है। किन्त ४५ और वी०नि० स० ५१५ के लगभग पाता है।
द्वितीय भद्रबाहुको कोई दश नव अष्ट अंगधर, कोई प्राचापट्टावली मे भद्रबाहु का समय वि. स. ४ दिया गया है
रागधर, कोई अग-पूर्वो के एक देशधर और कोई अष्टागजो अनकरीब पास ही पड़ता है । पट्टावली मे विशेष
निमितज्ञ कहते हैं यह मतभेद अवश्य है। उल्लेख यह भी है कि प्रा० भद्रबाहु की कुल प्रायु ७६
२ श्रा० गुप्तिगुप्त-प्राचार्य गुप्तिगुप्त उक्त प्राचार्य वर्ष ११ माह की थी। २४ वर्ष उनके गृहस्थपने मे ३०
भद्रबाहु मुनिपुगव के पट्ट पर हुए थे। इनके चरण सम्पूर्ण वर्ष दीक्षावस्था मे २२ वर्ष ११ महीने पट्ट अवस्था मे
राजानो द्वारा वन्दनीय थे। वे सबको निर्मल मघवृद्धिको व्यतीत हुए । विक्रमप्रबन्ध मे इनका प्राचार्य-काल २३ वर्ष माना गया है। पट्ट-विषयक वर्षों में विक्रम प्रबन्ध
देवे ऐसी पट्टावली के मंगल वाक्य में कामना की गई है। और पट्टावली एक मत है। नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी
यथा-- के उल्लेखो पर से प्रतीत होता है कि विक्रम नृपति और श्रीमानशेपनरनायकवन्दितांहि श्रीतिगुप्त इति मा० भद्रबाहु समसामयिक थे । दोनो के स्वर्गस्थ हो जाने विश्रुतनामधेय. । यो भद्रबाहु-मुनिपु गवपट्टपद्ममूर्य स वो पर प्रजा स्वच्छन्दचारिणी हो चली थी और योगियो मे दिशतु निर्मलमववृद्धिः । १।। स्वपर का मध्यवसाय रूप भाव उत्पन्न हो गया था। अतः अजमेर की पट्टावली मे इनके सम्बन्ध मे वर्णन तो महद्धिक लोगो ने जाति साकर्य से बचने के लिए ग्रामादिक इस प्रकार दिया गया है कि 'विक्रमार्क सुवर्ष ४ भद्रबाहु के नाम से कुलों की रचना कर दी और प्राचार्य महली शिष्य बैठा (भद्रबाहु) गुप्ति गुप्त तस्य नाम त्रयं ३ गुप्तिगुप्त ने मयो की रचना कर दी थी। अस्तु उक्त प्रमाणो पर महंतुली २ विशाखाचार्य ३ ।' किन्तु पट्ट प्रारम्भ करते
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किरण ११-१२]
नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण
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हुए भद्रबाहु के अनन्तर इनका नाम नहीं दिया है। किन्तु देव के गुरु भी थे। इनका समय अजमेर पट्टावली में वि० जिनचन्द्र का नाम दिया गया है। सोलहवीं शताब्दी के मं० २६ दिया गया है। मध्यवर्ती सूरि श्रीश्र तसागर भी इनके तीन नाम गिनाते ५ पदमनन्दी कुन्दकुन्द-भगवत्पयनन्दी परहैं किन्तु वे इनको प्रथम भद्रबाहु का शिष्य मानते हुए इन्हें नाम कुन्दकुन्द, आचार्य जिनचंद्रके पट्ट पर सुप्रतिष्ठित हुए दशपूर्वघर कहते हैं। इस प्रकार अजमेर पट्टावली इनको थे जो कि पांच नामों के धारक थे। यथाद्वितीय भद्रबाहु का शिष्य और श्री श्रुतसागर प्रथम भद्र
ततोऽभवत् पंचसुनामधामा श्रीपयनन्दी मुनिचक्रवर्ती ।।३।। बाहु का शिष्य बतलाते हैं यह यहां पर भेद है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । ३ श्रा० माघनन्दी-सस्कृत पट्टावली कहती है- एलाचार्यों गृध्रपिच्छ: पद्मनन्दीति तन्नुतिः ॥४॥ श्री मूलसंधेऽज नि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।।
इनका अन्तिम समय वि० सं० ४६ था। पट्टावली नत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्धः ॥२॥
में भी यही समय माना गया है। कितने ही इतिहासअर्थात् मूलमघ मे नन्दिमघ है, उसमें प्रतिरमरणीय वेत्तानों का भी लगभग यही अभिमत है। नन्दिसंघ के बलात्कार गण है, उममे पूर्वपदो के अंगों के वेता श्री पट्टाधीशों ने अपने को कुन्दकुन्दान्वय में होना घोषित माघनन्दी हुए जो कि मनुष्यों और देवों द्वारा बन्दनीय थे। किया है। कई ग्रन्थ-प्रणेतापो ने भी इनको अपनी परम्पग
श्रतावतार के कर्ता प्राचार्य इन्द्रनन्दी लिखते हैं कि का महापुरुष मानकर अपना मौभाग्य व्यक्त किया है। अहंबलीके अनन्तर अनगारपुगव माघनन्दी नामके प्राचार्य यहा तक कि वीरप्रभु, गौतमगणी और जैनधर्म की बराहा । वे भी अंगो और पूर्वो के एक देश को प्रकाशित बरी में इनकी गणना की गई है । जो कि निम्न पद्य पर कर ममाधिद्वारा स्वर्ग को चले गये। अजमेर की पट्टावली से मुस्पस्ट हैमे मावनन्दी प्राचार्यका वर्णन तो इस प्रकार पाया है
मंगलं भगवान् वीगे मंगलं गौतमो गणी। 'नन्दीशमूने (न) वर्षा योगो घृत. स (ह) माघी (घ) नन्दी, नेन नन्दीम वः स्थापित' । नन्दी वृक्ष के मूल में वर्षा
मंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥१॥ योग धारण किया, इस कारण माघनन्दी कहलाये, उन्होंने
भगवत्कुन्दकुन्द चारण ऋद्धि के धारक थे, वे पृथ्वीतल नदीमघकी स्थापना की। परन्तु उसमें पट्ट का प्रारम्भ
मे चार अंगुल ऊंचे गमन करते थे और विदेहस्थ सीमन्धर माघनन्दी मे न मानकर भद्रबाहु से माना है और पट्टधरों
तीर्थकर की वन्दना के लिए विदेह क्षेत्र गये थे ऐसा भी में भी इनका नाम नहीं गिनाया है। विक्रम प्रबन्ध के
जैन वाङ्मय मे देखा जाता है। ज्ञान इनका बहुत ऊंचा कथनानुसार ये एकांग के वेत्ता थे। जैसा कि भद्रबाह के था। अनेक पूर्ण-अपूर्ण प्राभृतोंके ये शाना थे। कम से प्रकरण में कहा गया है।
कम पाचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वको दशवी बस्तुके दश प्राभृतक
के ये परिपूर्ण ज्ञाता तो थे ही। क्योंकि प्रज्झप्पपाहुड पर श्रा० जिनचन्द्र-मंस्कृत पट्टावली में प्राचार्य
मे उन्होंने ममयपाहुड या समयसारकी रचना की थी। माघनन्दी के बाद प्रा. जिनचंद्र का नाम उपलब्ध होता
यह भी कथानक है कि भगवत्कुन्दकुन्ददेव ने ८४ पाहुडों है। महषिपर्युपासन मे पं० प्रागाधरजी ने भी भगवत
की रचना की थी। कालदोप से वे मब इस समय उपलब्ध कुन्दकुन्द के पूर्व में इनका नाम दिया है। श्रुतसागर सूरि ने
नही हैं। कुछ उपलब्ध हैं उनके नाम ये हैं-ममयपाहुड या भी यही मार्ग अपनाया है, इन सब मे यही तात्पर्य हामिल
ममयसार, पवयगणपाहुड या प्रवचनसार, पंचत्यिपाहुड या होता है कि प्राचार्य जिनचंद्र हुए हैं। पट्टावली का वह पंचास्तिकाय दमण पाहुर, चरित्तपाहुड, सूत्रपाहुड, बोधपाहुड, वाक्य यह है
भावपाहड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड, नियमसार, रयणसार, पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादिचंद्रः समभूदतन्द्र. १ इत्यादि। इनके अलावा बारस अरसुवेक्खा, प्राकृतसिद्ध भक्ति,
इस पर मे ज्ञात होता है कि प्राचार्य माघनन्दी के प्राकृत श्रुतभक्ति, प्राकृत चरित्र भक्ति, प्राकृत योगिभक्ति पट्ट पर प्राचार्य जिनचन्द्र हुए थे। जोकि भगवत्कुन्दकुन्द प्राकृत प्राचार्यभक्ति, प्राकृत पंचगुरुभक्ति प्रादि भी इन्ही
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अनेकान्त
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के नाम से प्रसिद्ध हैं। मूलावार भी इन्ही की कृति है गच्छ को प्राचीन साबित कराया। दूसरे पद्य में कुन्दकन्द ऐसा मूलाचार की अनेको प्रतियों के अन्त मे उल्लिखित देवने उसी गिरनार पर्वत पर अंबिका की मूर्ति से दिगम्बर देखा जाता है । कुन्दकुन्द नाम से अकित एक मूलाचार संप्रदाय को प्राचीन कहलवाया । सारस्वत गच्छ निग्रंथ उपलब्धि भी है । मुद्रित मूलाचार और इस मूलाचार में दिगंबरोंका ही तो सत्यपय है । मालूम पड़ता है पद्मनन्दीसे कुछ गाथा सूत्रों की हीनाधिकता और एकाध अध्यायके आगे कुन्दकुन्द देव को समझ लिया गया है और ऐसा समझ पीछेके सिवा कोई विशेप अन्तर नही है । पूर्ण सभव है कि कर कुन्दकुन्द के साथ उस घटना का सम्बन्ध जोड़ दिया मूलाचार भी कुन्दकुन्ददेवकी ही देन हो ।
गया है । नाम साम्य से ऐसा हो जाना स्वाभाविक भी है पद्मनन्दी नामके अनेक प्राचार्य हो गये है। तावतार उसी तरह कुन्दकुन्दपुर पर से पद्मनन्दी को भी कुन्दकुन्द नावाचामनाया वहा वे देव समझ लिया जा सकता है । अत. परिकर्म-कर्ता पद्मभगवत्पुप्पदन्त और भगवत् भूतबलिप्रणीत पटव डागमके नन्दा हा कुन्दकुन्द थे यह अभी निर्णयाधीन है । ऐमी प्राद्य त्रिखडो पर बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकम प्रन्य भावना है कि कुन्दकुन्द देव पट् खडागम के कर्ताओं से भी के कर्ता कहे गये हैं और कहा गया है कि वे कन्दवन्द पुर पहले हो गये हैं। में हुए थे। इस ग्राम नाम पर से इन्ही पद्मनन्दीको कन्द- ६ छमास्वाति या उमास्वामी-ये भगवत्कृन्दकुन्द कुन्द अनुमानित किया जाता है । प.न्तु यह कोई पुट के उत्तराधिकारी हुए हैं। पट्टावलियों मे निम्न पद्यके प्रमाण हो ऐसा लगता नहीं। सभव है और ही पमनन्दी साथ साथ भगवत्कुन्दकुन्दके अनन्तर इनका नाम पाता है। कुन्दकुन्द नामसे प्रख्यात हुए हों। अतः जब तक और कोई अजमेर पट्टावली में इनकी पट्ट सख्या भी छह दी गई है। पुष्ट हेतु या प्रमाण न मिल जाय, तब तक यह अनुमान
वह पद्य यह हैसशयास्पद ही रहेगा। इसी तरह वह एक पद्य भी पटटावनी
तत्त्वार्थसूत्रकर्तृत्वप्रकटीकृतसन्मतः ।। में पद्मनन्दी के प्रकरण में लिग्वा हा मिलता है -
उमाल्वातिपदाचार्यों मिथ्यात्वतिमिराशुमान् ।।५।। पद्मनन्दिगुरुजीतो बलात्कारगरगाग्रणी।
इनका नाम गृध्रपिच्छ भी था. जो कई शिला लेखो मे पापाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।।
व्यक्त किया गया है। प्राचार्य वीरसेन और प्राचार्य विद्या
नन्दी ने भी इनको इसी नाम से स्मरण किया हैं। अजमेर ऊर्जयन्तगिगै तेन गच्छ (.) सारस्वतो भवेत् मतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम श्रीपमनन्दिने ।
पट्टावली में इनका स्वर्ग समय वि. सं० १०१ लिखा है।
इनके तत्त्वार्थसूत्र पर अनेकों छोटी बडी टीकाएं कई ये पद्मनन्दी सकलकीर्ति की परपरा मे हुए है, वे राम
भाषामों में पाई जाती है। इन पर से इसका महत्त्व स्वय कीर्ति के पट्टधर थे, रामकीति का समय प्रनिमालेखो के मिा
सिद्ध है । कहते है तत्त्वार्थ सूत्र पर स्वामिसमन्तभद्रप्रणीत अनुसार सं० १६७२ है और पद्मनन्दी का ममय इससे आगे
८४००० श्लोकप्रमाण एक गन्धहस्ती भाष्य भी था, जो तथा १७१० के पूर्वतक रहा है । क्योकि सं० १७१० के
इस समय उपलब्ध नहीं है। कितने ही जैन ग्रन्यो मे इसके पूर्व किसी समय इनके पट्ट पर देवेन्द्रकीर्ति आ गये थे।
नामका उल्लेख मिलता है। अनेक दिग्गज जैनाचार्योंने उमाउक्त पद्य से मिलता जुलता यह एक पद्य कविवर वृन्दावन
स्वामी खूब ही प्रशसा की है। इनका तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर जी का भी देखा जाता है
और श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायो मे परिपूर्णमान्य है। फिर सघ सहित श्रीकुन्दकुन्दगुरु. बदन हेत गये गिरनार, भी वह दिगम्बर सम्प्रदाय मे अधिक मान्य है जबकि श्वेतावाद परयो तह संशयमतिसो माक्षी बदी अविवाकार। भ्वर मम्प्रदाय में उसके कितने ही विषय उन्ही के आगमो सत्यपंथ निरनथ दिगंबर कही सुरी तह प्रकट पुकार। मे विद्ध करार दिये गये हैं। दिगम्बर सप्रदाय मे यह सो गुरुदेव वसो उर मेरे विघ्नहग्न मगलकरतार बात नहीं है । दिगम्बर सम्प्रदाय में तो उसके पाठ करने
दोनों पद्यों में विशेष अन्तर नही है। पहले पद्य में का फल एक उपवास बराबर और उसका एक एक अक्षर पद्मनन्दी ने ऊर्जयन्त अर्थात् गिरनार पर्वत पर पाषाण प्रमाणभूत माना गया है। घटित सरस्वती देवीकी मूर्ति को बुलवाया और सारस्वत- ७ लोहाचाय-पट्टावली मे कहा गया है कि उमा
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किरा ११-१२]
नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण
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स्वामी के अनन्तर लोहाचार्य हुये । ये जात रूपके धारक शान्त्यष्टक-शान्तिभक्ति प्रादि । इनके सिवाय वैद्यकग्रन्थ, थे अमगे द्वारा मेवनीय पे और सम्पूर्ण तत्वार्थों का ज्ञान सारमग्रह, छन्दोग्रन्थ प्रादि भी पूज्यपाद-कृत सुने जाते हैं । कगने मे विशारद थे । इनमे भागे नन्दि संघ दो पट्टों में ११ गुणनन्दी-संस्कृत पट्टावली में देवनन्दी-पूज्यविभक हो गया जिनके नाम अपाची अर्थात् दक्षिणापथ पादके अनन्तर गुगणनन्दीका नाम आया है । जैसाकि ऊपरके पट्ट (नन्दिमघ) और उदीची अर्थात् उत्तरापथ पट्ट (नंदिसध) पद्य मे दिया गया है। अजमेर की पट्टावलीके अनुसार उनके ये नाम है यह मब निम्न दो पद्यों पर से निश्चित इनका अन्तिम ममय सं० ३५३ था। प्रागे सिर्फ नाम होता है -
और अजमेर पट्टाबलीके अनुसार संवत् दिया जाता है। लोहावार्यस्ततो जातो जातम्पधरौऽ मरे । क्योंकि पागे नामोके सम्बन्ध मे हमे विशेष अनुसन्धान सेवनीय समस्ताविबोधनविशारदः ॥६॥ नहीं है। नन पट्टद्वयी जाता प्रा (पा) च्युदीच्युपलक्षणात् । १२. वचनन्दी ३६४ । १३. कुमारनन्दी ३८६ । तेषा यतीश्वगगा स्यु मानीमानि तत्त्वतः ॥७॥ १४ लोकचन्द्र ४२७ । १५ प्रमाचन्द्र ४५३ । १६.
८ यशः कीर्ति:--लोहाचार्य के अनम्तर यशः कीति नेमि पन्द्र ४७८ । १७. भानुनन्दी ४८७ । १८. सिंहनन्दी हुए । म १५३
५०८ । १६. वमुनन्दी ५२५ । २० वीरनन्दी ५३१ । ६ यशोनन्दी--यग. कीतिके अनन्तर यशोनन्दी
२१ रतनन्दी ५६१ । २२. माणिक्यनन्दी ५८५ ।
२३ मंगचन्द्र ६०१। २४. शान्तिकीर्ति ६२७ । २५. हुये। स. २०६
मेरुकीनि ६४२ । २६. महाकीति ६८६ । २७. विश्वनन्दी १. देवनन्दी पट्टावनी के पद्य मे इनका दूसरा नाम ७०४ । २८. श्रीभूषरण ७२६ । २६. शीलचन्द्र ७३५ । पूज्यपाद दिया गया है और यश कीतिके अनन्तर यशानन्दाका ३०. श्रीनन्दी ७४६ । ३१. देशभ्रषण ७६५। ३२. अनन्तऔर यगोनन्दीके अनन्तर इनका नाम पाया है । यथा
कीर्ति..... ३३. धर्मनन्दी ७८५ । ३४. विद्यानदी ८०८ । यश कीनियंगोनन्दी देवनन्दी महामतिः ।
३५ गमचंद्र ८४० । ३६ गमकीर्ति ५५७ । ३७. अभयपूज्यपादापराख्यो यो गुगणनन्दी गुणाकरः ८॥
नद्र ८७८ । ३८ नरचंद्र ८६७ | ३६. नागचंद्र ६१६ । इस परमे एक तो यह जानकारी मिलती है कि ये ४० नयनंदी ३३६ । ४१. हरिश्चंद्र ९४८। ४२. महीदवनन्दी जनेन्द्रशब्दानुशामन, सर्वार्थसिद्धि, आदि महत्त्वपूर्ण चद्र ६७८ । ४३. माधवचद्र ६६00 ४४. लक्ष्मीचद्र ग्रन्थोके रचयिता प्रख्यात पूज्यपाद ही हैं। दूसरे, इनके १०२३ । ४५. गुरगकीति १०३७ । ४६. गुरणचंद्र १०४८ । गुमका नाम यशोनन्दी था। अजमेर की पट्टावली में देवनन्दी ४७. वागवचन...। ४८. लोकचंद्र १०६६ । ४६. श्रुतकीर्ति और पूज्यपाद रोमे दो पट्ट जुदे जुदे दिखाये गये हैं । इम १०८९ । ५० भानुचंद्र १०९४ । ५१. महाचद्र १११५ । परमे देवनन्दीके पट्ट पर पूज्यपाद हुए हैं यह स्पष्ट प्रतीत ५२ माघचंद्र ११४० । ५३ ब्रह्मपन्दी १६४। ५४. होता है। समयकाल भी दोनोंका जुदा जुदा दिया गया गिवनदी ११४८ । ५५. विश्वचंद्र ११५५ । ५६. हरिनंदी है। देवनन्दीका ममय वि०म० २५८ और पूज्यपादका ११५ । ५७ भावनन्दी ११६० । ५८. सुरकीति ११६७ । ३० । पट्ट मख्या भी क्रमशः १० और ११ दी गई है। ५६ विद्याचद्र ११७० । ६०. सुरचंद्र ११७४ । ६१. यह भी कहा गया है कि देवनन्दी पोरवाल थे और पूज्य- माघनदी ११८४ । ६२. ज्ञाननंदी ११८८ । ६३. गंगनंदी पाद पद्मावती पोरवाल । परन्तु सस्कृत पट्टावलीके अनुसार ११६६ । ६४. मिहकीनि १२०६ । ६५ हेमकीर्ति देवनन्दी और पूज्यपाद एक ही है, जुदे जुदे नही । जैमा १२०६ । ६६. चारनंदी १२१६ । ६७. नेमिनंदी १२२६ । कि ऊपरके पद्यसे प्रतीत होता है। देवनन्दी-पूज्यपादके ६८ नाभिकीति १२३०। ६६. नरेन्द्रकीर्ति १२३२ । बनाये हुए निम्न ग्रन्य गमुपलब्ध हैं-जैनेन्द्रशब्दानुशासन, ७०. श्रीचंद्र १२४१ । ७१. पद्मकीर्ति १२४८ । ७२. वर्षसर्वार्थसिद्धि, ममाधिशतक, इष्टोपदेश, जैनाभिषेक, सिद्धि- मान १२५३ । ७३. प्रकलंकचद्र १२५६ । ७४. ललितप्रियस्तोत्र, मिद्धभक्ति, श्रुनभक्ति. चारित्रभक्ति, योगि- कीनि १२५७ । ७५. केशवचंद्र १२६१ । ७६. चारुकौति भक्ति, पाचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति, १२६२ । ७७. अभयकीर्ति १२६४ ।
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३५०]
अनेकांत
[वर्ष १४
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७८ प्रा. वसन्तकीर्ति--ये ऊपरके क्रमानुसार वादियों में इन्द्रके तुल्य थे, परवादी रूप हाथियोंके मद को अभयकीति के पट्टधर थे। क्योकि निम्न पद्य मे अभय- विद्रावण अर्थात् चूर चूर करने के लिए सिंह सदृश थे, कीतिका नाम पहले है और वसन्तकीति का पश्चात् । इस विद्य विद्याके पास्पद थे, और श्री मंडपदुर्ग में प्रति परसे प्रभयकीतिके पट्ट पर वसन्तकीर्ति हुए यह जान विदित थे या प्रसिद्ध मडपदुर्ग में निवास करते थे । यथालेना अस्वभाविक नही है । यथा
तस्य श्रीवनवासिनस्त्रिभुवने प्रख्यातकीत्तिरभू च्छिष्योसिद्धान्तिकोऽभयकीतिर्वनवासी महातपाः ।
ऽनेकगुगणालयः सम-यम-ध्यानापगासागरः । वसन्तकोतिर्व्याघ्राहिसेवित. शीलसागर. ॥२१॥
वादीन्द्र. परवादिवारणगगप्रागल्भविद्रावण.
सिहः श्रीमति मंडपेऽतिविदितस्पैविद्यविद्यास्पदः ॥२२॥ पद्य का भाव स्पष्ट है कि प्राचार्य प्रभयकीर्ति सैद्धान्तिक थे वनवासी थे और महान् तपस्वी थे। वसंतकीति
इस परिचय पर से ज्ञात होता है कि प्रा० प्रख्यातभी वनवासी थे, तपस्वी थे, व्याघ्रो और सो द्वारा कीर्ति वस्तुभूत त्रिभुवन प्रख्यातकीर्ति थे। मेवाड़ के माडलसबित थे और शीलके सागर थे। पट्टावली मे दोनो का
दोनो का गके जंगलों में वे अपने शिष्य-समूह के साथ रहते थे । समय वि० सं० १२६४ दिया गया है। इस परसे ज्ञात
पट्टावली मे इनका समय १२६८ दिया गया है। इनकी होता है कि दोनों की पट्टावस्था सभवतः एक ही वर्षके
सर्वायु २८ वर्ष ३ माह २३ दिन थी, पट्ट पर २ वर्ष भीतर भीतर समाप्त हो गई थी।
३ माह २३ दिन रहे थे। इनके अवशेष ११ वर्ष गृहस्थपने
मे और १५ वर्ष दीक्षावस्थामे व्यतीत हुए थे, यह भी सोलहवी शताब्दी के मध्यभागीय बहुश्रुत विद्वान् श्री
पट्टावली मे ही उद्धृत है।। श्रुतसागरसूरि जिन्होने अनेक प्रौढ ग्रन्थों की मौलिक
८० प्रा०विशालकीर्ति-ये प्राचार्य श्रीप्रख्यातकीति टीकाएं लिखी हैं और कई मूलग्रंथो की भी रचना की है
. के पट्टधर थे। ये उत्कृष्ट प्रतो की मूर्ति थे और तपोषट्प्राभूत की टीका मे अपवाद वेषका उल्लेख करते हुए एक
महात्मा थे । यथावसंतकीति स्वामीका निम्न प्रकारसे परिचय देते हैं
विशालकीतिर्वरवृत्तमूर्तिस्तपोमहात्मा ........... । कोऽपवादवेष ? कली कि म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टवा
अजमेर पट्टावली और नागौर पट्टावली मे प्रख्यातउपद्रव यंतीना कुर्वन्ति नेन 'मंडपदुर्ग' श्रीवसतकीतिना
कीर्ति के बाद शान्तिकीर्ति का नाम है और समय उनका म्वामिना चर्यादिवेलाया तट्टी सादरादिकेनचर्यादिकं कृत्वा
क्रमशः १२६८ और १२७१ दिया गया है। कितने वर्ष पुनस्तुन्मुन्वतीत्युपदेश. कृतः
शान्तिकीर्ति पट्ट पर रहे यह ज्ञात नही हो पाता है। इस उद्धरण मे जिन वसतकीति स्वामी को अपवाद
कारण प्रागे पाठक्रम नष्ट है । तथा दोनो ही पट्टावलियो वेष का उपदेष्टा कहा गया है । वे प्रकृत वसतकीर्ति ही मे शान्तिकीर्ति के पश्चात् धर्मचन्द्र का नाम दिया गया प्रतीत होते हैं । क्योकि स्वामी वसन्तकीतिने यह उपदेश है। भामेर और सूरत की पट्टावलियों मे शान्तिकीर्ति का मडप दुर्ग मे दिया था। जो कि इस वक्त माडलगढ़ कोई नाम है ही नही। उनमे भी बसन्तकीर्ति, प्रख्यातकीर्ति कहलाता है। उसी मडप दुर्ग मे उनके शिष्य प्रख्यात कीर्ति विशालकीति, शभकीर्ति और धर्मचन्द्र इस क्रमसे नाम का होना कहा गया है । इस परसे यह जान लेना सहज है दिये गये हैं। इस पर से स्पष्ट है कि अजमेरकी पट्टावली कि पट्टावलीके वसतकीति और श्री श्रुतसागरके लक्ष्यभूत मे पाठ भ्रष्ट हो गया है और नागौर की पट्टावली जिसमे वसन्तकीति एक ही अभिन्न महापुरुष हैं।
केवल नाम और सवत्का ही उल्लेख है, उसने भी अजमेर ७६ प्रा० प्रख्यातकीर्ति-ये आचार्य वसंतकीतिके पट्टावली का ही अनुसरण कर लिया है। क्योकि अजमेर पट्ट पर हुए थे । क्योकि पावली मे प्रख्यातकीर्ति को प्रा. और नागौर के पट्ट एक ही परपरा की देन है। वसतकीर्ति का शिष्य बताया है। नीचेके पद्य में इनका भट्टारक विद्यानन्दी जो कि सोलहवी शताब्दी के परिचय इस प्रकार दिया गया है कि उन वनवासी वसत- प्रारंभ में हो गये हैं और जो बहुश्रुत विद्वान् श्रुतसागर कीर्ति के शिष्य त्रिभुवन-प्रख्यातकीर्ति हुए। जो अनेक सूरि तथा भ० मल्लिभूपण के गुरु थे अपनी वंशपरंपरा, गुणों के प्रालय थे, सम यम और ध्यानके सागर ये, विशालकीति से प्रारभ करते हुए सुदर्शनचरित मे इनका
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किरण ११-१२]
परिचय निम्न शब्दो मे देते है
मोगत्रयेषु निष्णातः विशालकीतिः शुडपी श्री कुन्दकुन्दसंताने बभूव मुनिसत्तमः ॥ ६८ ॥ विशालकीत शुद्ध ज्ञान के धारक थे, योगत्रय मे निष्णात थे, श्री कुन्दकुन्द की सन्तान प्रन्वय में हुए थे और मुनियों में प्रशस्ततम ये पट्टावली मे भी विशालकीति उत्कृष्ट चारित्रमूर्ति और अनुपम तपस्वी कहे ही गये है । दोनो पर से इनका होना सुनिर्णीत है । ८१ ० शुभकीर्ति - प्राचार्य शुभकीर्ति प्राचार्य विशालकीति के पट्ट पर हुए थे क्योंकि पावलियों मे शुभकीर्ति का नाम विशालकीर्ति के अनन्तर आया है और कहा गया है कि शुभकीतिदेव एकान्तर घादि उप तपश्चरणों को करने वाले थे धौर सन्मार्ग के विधिविधानमे ब्रह्मा के थे । यथातुल्य शुभकीर्तिदेव. । एकान्तराच तपोविधाता धातेव सन्मार्गविविधाने २३ भ० विद्यानन्दी भी कहते हैं कि शुभकीति विशालकीर्ति के पट्ट पर हुए थे। उनकी बुद्धि पत्राचार के पालन से पवित्र थी, नामानुसार शुभकीर्ति के धारक थे, मुनियो मे श्रेष्ठ थे और शुभ के प्रदाता थे । यथा
नन्दिसंघ सर
*******..
तत्पह अनि विख्यात पंचाचारपवित्रधी' । शुभकीर्तिमुनिष्ठ शुभकीतिः शुभप्रद ॥२६॥ इन दो प्रमाणो पर से शुभकीति नामके आचार्य भी हुए है और वे विशालकीर्ति के पट्ट पर हुए हैं यह सुनिश्चित होता है।
८२ श्र० धर्मचन्द्र - मा० शुभकीर्ति के पट्ट पर आचार्य धर्मचन्द्र हुए। ये हम्मीर भूपाल द्वारा माननीय थे, अच्छे सिद्धान्तवेत्ता थे, संयम रूप समुद्र को वृद्धिगत करने मे चन्द्रमा जैसे थे । उनने अपने प्रख्यात माहात्म्य से अपना जम्म कृतार्थ किया था। इस बात को कहने वाला पट्टावनी का यह एक पथ हैश्रीमंन्द्रोऽजनि तस्य पट्टे हम्मीरभूपाल समर्चनीयः । मिद्धान्तिक समसिन्धुचन्द्र प्रस्थतिमाहात्म्यकृतावतार. ।।
भ० विद्यानदी भी शुभकीर्ति के अनतर इनके नाम का उल्लेख करते हैं । वह श्लोक प्रागे पद्मनदी के प्रकरण मे दिया गया है। इनका समय अजमेर पट्टावली में १२७१ दिया है। परंतु अजमेर पट्ट बली यहां पर मशुद्ध हो गई है। नागौर पट्टावली मे १२३६ दिया गया है।
बलात्कारगण
हम्मीर भूपाल के विषय में मालूम किया तो मालूम हुमा कि वे मेवाड के राजा थे और वि० स० १२४३ ( ई० स० १३०० ) में वे गद्दीनशीन हुए थे । यद्यपि पट्टाबली के सब में धौर उदयपुर राज्य के इतिहास के सवत् मे कई वर्षों का प्रतर है। फिर भी प्रा० धर्म चंद्र और हम्मीर भूपाल के होने मे संदेह नही है । प्रतएव हम्मीर भूपाल द्वारा ये समर्चनीय थे, संस्कृत पट्टावली का यह प्रश तथ्य को लिये हुए है ।
८३ श्र० रत्नकीर्ति – ये पट्ट पर हुए है । इनसे सबंधित निम्नरूप के पाये जाते है
३५१
प्राचार्य धर्मचंद्र के दो पद्य पट्टावली मे
तत्पटेऽजनि रत्नकीर्तियतिप. स्याद्वादविद्याम्बुधिनानादेशविवृत्तशिष्यनिवप्राय हियुग्मो गुरुः ॥ पापप्रभावाषको धर्माधमं कयासु रक्तविण बालब्रह्मतपः प्रभावमहित. कारुण्यपूर्णाशयः ॥ २५ ॥ अस्ति स्वस्तिसमस्तसंघतिलकः श्रीन दिस घोऽतुलो गच्छस्तत्र विशालकीर्तिकलितः सारस्वतीय पर । तत्र श्रीशुभकीति कीर्तिमहिमा व्याप्ताम्बर सन्मति जीयादिदुसमानकीर्तिरमलः श्रीरत्नकीर्तिगुरु ॥२६॥ (१) इनमें कहा गया है कि प्रा० धर्मचंद्र के पट्ट पर यतिनायक रत्नकीर्ति हुए, जो स्याद्वाद विद्या के अथाह समुद्र थे, जिनके दोनो चरण नानदेशों में निवास करने वाले शिष्यों द्वारा पूजित थे, जो धर्म-प्रधर्म मे भेद प्रस्थापक कथाओ के व्यावर्णन करनेमे अनुरक्त चित्त थे, पापके प्रभावके बाघ क-नाशक थे, बालब्रह्म रूप तप के प्रभाव से महित थे, पूजित थे, उनका श्राशय करुणाभाव से परिपूर्ण था । (२) मे कहते है कि सब संघो मे प्रनुपम नदिसघ है। नदिसंध मे विशाल कौति से कलित सार स्वतीय गच्छ है। उस गच्छ मे जिन्होंने शुभकीति की कीर्ति रूप महिमा से प्राकाश को व्याप्त कर रक्खा था, जो प्रशस्त ज्ञानवान थे, जिनकी कीर्ति चद्रमा के समान निर्मल थी, वे श्री रत्नकीर्ति गुरु जयवत होवे । इन दोनों पद्यो मे रत्नकीर्ति की प्रशसा और जयवाद के साथ साथ उनका धर्मचंद्र के पट्ट पर प्रारूक होना कहा गया है, जो उनके व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाला है । पद्य गत शुमकीति पद धर्मं चंद्र के गुरु और विशालकीर्ति पद उनके दादा को भी प्रश्वनित करते है। अजमेर पट्टावली मे सं० १२६६ से १३१० पर्यन्त पट्ट पर इनका स्थित रहना कहा गया है । (क्रमशः )
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लाला महावीर प्रसादजी ठेकेदारका स्वर्गवास
अन्तिम समय ५० हजार का दान देहली जैन समाजके प्रतिष्ठित श्रीमान् ला. महावीरप्रसादजी टेकेदारका ८० वर्षकी वयमें 1 जून, सोमवार सन् १९१७ के मध्यान्हमें स्वर्गवास हो गया ।
बालाजी का जन्म वैशाख वदी १४० ११३५ में हुआ था। साधारण शिक्षा प्राप्त करनेके बाद सर्व-प्रथम आपने देहली नगरपालिका खजांचीका काम किया। कुछ समयके पश्चात् नौकरी छोड़कर ठेकेदारीका स्वतन्त्र व्यवसाय प्रारम्भ किया और अपने पुरुषार्थ, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा आदि गुणों के द्वारा न्यापारक, सामाजिक और धार्मिक
क्षेत्र में अच्छी उन्नति की । आपने अपने जीवनमें अनेक महान कार्य किये । आप बहुत उदार दानी थे। सन् १९५४ में आपने ५० हजार रुपया निकाल कर महावीर प्रसाद चेरिटेबिल ट्रस्ट कायम किया । तथा अन्तिम समयमें भी करीब ५० हजार दान कर गये हैं। जिमको विगत इस प्रकार है
३००००) महावीरप्रसाद चेरिटेबिल फण्डमें १००.०)अयोध्य में विशालमूर्तिके चबूतरेक निर्माणार्थ २०००) भूवनय अन्धकं प्रथम अध्यायक प्रकारानार्थ १०००) देहली जैन मन्दिरोंको २०००) देहली जैन संस्थाओंको १०००) टी० बोट के रोगियोंकी सहायतार्थ
शेष रुपया फुटकर सहायतार्थ आपकी ज्ञानदानमें बहुत रुचि थी। आपने जैन पूजापाठ सग्रह, धर्मध्यान दीपक, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पारमानुशासन आदि प्रकाशित कराके बिना मूल्य वितरण किये।
भापकी मुनियोंमें परम भक्ति थी। दिल्लीमें मुनियोंके
जितने भी चतुर्मास आज तक हुए है, आपने उन सबकी स्व. ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार
सर्व प्रकारसे खूब वैयावृत्त्य की और आहारदान देकर महान् पुण्य उपार्जन किया। मा. वीरसागरजीसे जयपुर चतुर्मासमें आपने ब्रह्मचर्य और दूसरी प्रतिमाके व्रत अगीकार किये। गत ३ माससे भाप बीमार थे। अन्तिम समय जिनेन्द्रदेवका स्मरण करते हुए श्राप स्वर्गवासी हो गये। अपने पीछे आप अपनी धर्मपत्नी, ५ पुत्र, पुत्रियां, पोते, परपोते, घेवते, धेवतियां प्रादि विशाल परिवार छोड़ गए हैं । स्वर्गस्थ भरमाको शान्ति लाभ हो, और उनके कुटुम्बीजनोंको वियोगजन्य दु.खके सहन करनेकी शक्ति प्राप्त हो, ऐसी हमारी हार्दिक भावना है।
-वीर सेवामन्दिर परिवार
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चिट्ठा हिसाब अनेकान्त १४ वें वर्षका (अगस्त सन् १९५६ से जुलाई सन् १६५७ तक)
भाय
८५६-६ ग्राहक खाते जमा जो वी०पी०आदि
के द्वारा प्राप्त हुए। २७७-) सहायता खाते
२०२) सहायकोंसे ७५-) साधारण सहायतासे
व्यय १२६७-६कागज खाते खर्च २०४३०%3D२४%3D
२६%२७ रिम ५१ और ५ दस्ता, टाइटिलमें ४० पौंड मार्ट पेपर ७३१- सेठ विरधीचन्द एण्ड संस ४०४॥)३ रूपचन्द एण्ड संस १३११)३ मुन्शीलाल एण्ड संस
प्रादिके यहाँसे।
२७७-) ४६) अनेकांतकी फाइलों तथा फुटकर किरण
बिक्रोसे प्रास ५१) रही खाते जमा
१२६७००६ १६४०) छपाई खाते खर्च किरण १ से १०तक।
१६१२) रुपवाणी प्रेस २८) सन्मति प्रेस
१२३० )६ १८१)६ कागज खावे जमा ग्रंथ छपनेको लिया
गया। ४३०४॥२ घाटा जा देना है।
१६४०) २१३-८पास्टेज खाते किरण १ से १. तक। ३६)६ब्लॉक भादि में २१-६ यातायात खाते ६) स्टेशनरी खाते
५७२१।। )२
३३४/-) २१००) वेतन खाते जो १२ महीने की बावत
पं०परमानन्दजीको दिये गये। ३८०) सयुक्त किरण ११-१२ की बाबत जो अनुमानतः देना बाकी है।
१५०) कागज २१०) प्रेस छपाई, बाईडिंग आदि २०) पास्टेजमादि
३८०)
ॐ पं० हीरालालजी और पं० जयन्तीप्रसादनीने भी वर्ष भर अनेकाम्तके सम्पादनादिमें कितना ही हाथ बटाया है। यदि उनके बेतनका एक चौथाई भाग भी इसमें जोडा जाता, तो घाटेकी रकम और भी अधिक हो जाती।
५७२१।। )२ मन्त्री-वीर सेवामन्दिर
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सम्पादकीय
इस किरण के साथ अनेकान्तका चौदहवाँ वर्ष १२००) की पाय हुई है, जबकि व्ययको रकम समान हो रहा है। हमने इस वर्ष अनेकांतको ६०००)के लगभग है। इस प्रकार प्रामदनी से
और भी अधिक माकर्षक बनाने और सुन्दर व्यय की रकम साढ़े चार हजारसे भी ऊपर है। पाठ्य सामग्री देनेका भरसक प्रयत्न किया. इसके अतिरिक्त पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री परन्तु विद्वान लेखकोंका सहयोग न मिल सकने और पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्रीने भी वर्ष भर के कारण जैसी पाठ्य सामग्री हम देना चाहते थे, अनेकान्त के सम्पादनादि कार्यों में कितना हो हाथ वैसी नहीं दे सके।
बटाया । यदि उनके वेतनका एक चतुर्थाश भी अनेकान्तके प्राहकोंको संख्या पहलेसे ही इसमें जोड़ा जाता, तो घाटे की रकम साढे पांच कम चली प्रारही थी। हमने समय समय पर हजार से अधिक हो जाती। पाठकगण स्वयं ही अपने प्रेमी प्राहकोंसे निवेदन भो किया कि वे
विचार करें कि इतना अधिक घाटा उठा कर कोई कमसे कम एक एक प्राहक और बनावें । परन्तु
भी संस्था किसी भी पत्र को कितने दिन तक नये प्राहक बनने के स्थान पर कितने ही पुराने
चला सकती है? प्राहकोंने भनेकान्तकी बी० पी० वापिस कर दी
और इस प्रकार हमें कितने ही पुराने ग्राहकोंसे भी उपयोगी पत्रके प्रति भी समाजके अधिकांश वंचित होना पड़ा । इस मय हमने विद्वानोंको
निहालों की मी उदासीन अनेकान्त अमूल्य देनेकी भी सूचना पत्रों में भी प्रगट' की और उसके फल स्वरूप विद्वानों तथा मनोवृत्ति चल रही है जिससे अनेकान्त को सभी वर्गों के लोगोंको २०० से भी अधिक प्रतियां बराबर घाटेमें ही चलाना पड़ा है। प्रतिमास भेजी जाती रहीं। तथा उनसे प्रेरणा भी ऐसी आर्थिक परिस्थितिमें संस्थाके संचाकी गई, कि प्रत्येक विद्वान् एक-दो ग्राहक बनाने लकोंने यह निर्णय किया है कि 'भनेकान्त' को का प्रयत्न करे । पर इस मोर हमारे उन विद्वानों मासिकके स्थान पर त्रैमासिक निकाला जाय और ने भी कोई प्रयास नहीं किया।
६) रु० वार्षिक मूल्य के स्थान पर ३) वार्षिक मूल्य इसी अंकमें अनेकान्त के चौदहवें वर्ष के प्राय- रखा जाय । व्यय का चिट्ठा प्रकाशित किया जा रहा है। पाठक पन्द्रहवें वर्ष की पहली किरण अक्टूबर में देखेंगे कि इस वर्ष ग्राहकी फीस भादि से लगभग प्रकाशित होगी । पाठक गण नोट कर लेवें।
दशलाक्षणी पर्व तक मूल्यमें भारी कमी ___ भनेकान्तके पिछले वर्षोंकी फाइलों को तथा चालू वर्षकी सवे किरणोंको भादों सुदी १५ तक भाधे मूल्य में दिया जायगा । जो सज्जन एक मुस्त २५) रु०मनीमार्डरसे पेशगी भेज देंगे उन्हें अनेकान्तको पूरी फाइल भेज दी जावेगी । जो एक एक वर्षकी फाइल मंगाना चाहेंचे ३) प्रति वर्षके हिसाबसे मनीआर्डर भेजें । वर्ष १, २, ३ और ६वें वर्षको फाइलें स्टाकमें नहीं हैं।
व्यवस्थापक-अनेकान्त
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जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह
अहिवंदसु जिणु पुखु गाय-बायु, सिरि सुमइदेड पोसिब-सपक्खु । पठमप्पहु पठमाऽऽलिंगि चंगु, सिरि जिजु सुपासु पुलु विगव-संगु। चंदप्पहु जिर्ण चंदसु वाणि, सिरि पुष्फयंतु तित्थयरु गाणि । सीपलु वि सील-बय-विहि-पवीनु, सेयंसु वि सिव-पय-णिच्च-लोणु । वासवेण महिड जिगु वासुपुज्ड, विमलुवि विमलयर गुणेहि सुज्जु । तित्थया प्रयतु वि अंत चुक्कु, अरि-कोह-माण-मय-सयन-मुक्कु । सिरिधम्मु वि धम्मामय-णिहाणु, पुणु संति जियोसरु जय-पहाणु । सिरिकुथु वि शंत-चउकठागु, अरणाहु वि लोयालोय-जाणु । सिरि मलिणाहु तित्थयरु संतु, मुणिसुब्बड प्राइसय सिरि महंतु । तह णमि जिणेसु पावाहि मंतु, पुणु रिट्टनेमि राइमइ-कंतु । सिरि पासणाहु विग्त-यारि. पुणु वड्ढमाणु दुग्गइ-णिवारि । तसु तिथ पवट्टा भरह खेत्ति,
पयडिय धम्माहम्म जुत्ति । ये सयल जिर्णसर, हुव होसहि घर, ते सयन वि पवेवि धरा पुणु जिणवर-वाणी लोय-हाणी, णियमणि धारिवि परमपरा
पुणो वि गोयमो मुणी पयासिया जिणझुणी, पयस्थ जेण भासिया सुसब्च जीव भासिया। अणुक्कमेण तासु जे, जई वि जाय सम्व ते, णविवि णाण-धारया भवण्णवोहि-तास्या। मुर्णिदु ताहं संतई, विराय-रोस संजई, जिणेस सुत्त भासमो गुणाण भूरिवासनो। सुचेयणस्थ तम्मनो तवेण सोसिनो वमओ, सहस्सकित्ति पट्टि जो गुणम्सुकित्ति णाम सो सुतासु पटि मायरो वि पापमय-सायरो, रिसीसु गच्छणायको जयत्तसिक्ख-दायको।
जसक्खुकित्ति सुंदरो अकं चाय-मंदिरो, सुसिस्सु तस्स जायत्रो खमागुणेश राइयो । सुखेमचंद पायो जिनो जिकिं गजो भडो,
रिसीस सम्व मज्मु ए मई विसाव दिंतु ते । महिषीति पहायक गिरिरावलं.सुरहं विमणि विभउजबिउं कठ सीसहि मंडित कबहु पंडित, गोयायलु खाने भविउं॥२
जहिं सहहिं चिरंतर जिणयिकेय, पंडुरसुवण्याधयवसु समेय । सहाब-सतोरण अत्य इम्म, मससुह संदायब सम्म । चउहर चव सदाम जत्थ, वधिवर ववहीं वि महि पयत्व। मम्गण ठाव कोलाहल समस्थ, जहिं जण विक्सहिं परिपुरण प्रत्य। जहि प्रावधम्मि थिय विविह भंड कसवहिं कसियहिं भम्मखंड । जहिं बसहिं महायव सुबोह, बिच्चचिय पूया-दाह सोह। जहि वियरहिं पर चउवरण बोय, पुरणेब पवासिय दिवभोय । बबहार-पार-संपरच सम्ब, अहिं सस-बसब मय-हीण भव । सोवण्वचूड मंडिय बिसेस, मिंगार भारकिय शिरवसेस । सोहम्ग-शिखय जिणधम्मसील, जहिं माणिणि माण महग्ध लील। जहिं पर चार कुसुमाल दुह, दुज्जण सखुद खल पिसुश चिट्ठ। णवि दोसहिं कहिमिव दुहिय हीद, पेमाणुरतु सम्वजि पवीण। जहि रेहहिं हव-पय-दखिय-मग्ग, तंबोल-रंगरगिय-घरग्ग। जहि सच्च अणुच्चयाई विहाइ, दुग्गहु अवह पहणाइ। सोवण्यरेख व उवहिं जाय, णं तोमर शिव पुराणेष प्राय ।
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३५६ ]
अनेकान्त
[वर्ष १४
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ताइ विसोहिउ गोयायलक्बु,
यं भज्ज समाणउं पाहु दक्खु । सुहाच्छि जसायरु शं रयणायरु, बुहयण जुहुण इंदटर। सत्थयहि सोहिठ जणमणु मोहिउ, णं वर यरह एहु गुरु
तहिं तोमर कुल सिरि रायसु, गुणगण रयणायरु खसंसु । अण्णायणाय णासण पवीणु, पंचंग मंत सत्यहं पवीणु । अरि-राय-उरत्थति-दिण्ण-दाहु, समरंगणि पत्तउ विजय-जाहु । खग्गग्गि डहिय जें मिच्छ-सु, जसऊरिय ऊरिय जे दिसंतु। शिव-पट्टालंकिय विउल भालु, अतुलिय बल-खल कुल-पलय-कालु। सिरि रिणवगणेस णंदणु पयंडु, ण गोरक्खण विहण वसंडु । सत्तंगरज्ज भरदिण्ण खंधु, सम्माण-दाण-तोसिय-सबंधु । करवाल पहि विष्फुरिय जीहु, पम्वंत शिवह-गय-दलण सोहु । अइ विसम साह सुद्दाम थामु, सायरहु तीर संपत्तु णामु । छत्तीसाउह-पयडण-पसिद्ध,
साहण-सायरु जस-रिद-रिख । पर-बल-संतासणु शिव-पय-सासणु णं सुरवर बहु-धण-धणिउं णव जलहर खस्सा पहुपहुई धरु, डोंगरिंदु णामें भणिउं ।।
तहु पट्ट महाएवी पसिद्ध, चंदादे गामा पणयरिख । सयलंते उर मज्झहं पहाण, णिय-पह-मण-पोसण-सावहाण । तहुशंदणु बिरुवम गुण-णिहाणु, तेयग्गलु णं पचक्खु भाणु । णं शवड जसंकुरु पुहमि जाउ, शं जय-सिरीए पयडियउ भाउ । सिरि कित्तिसिंधु थामें गरिछु, शं चंदु कलायरु जय मणिछ । सिरि डूगरसीह गरिंद रज्जि, वधिवत शिवसह पुणु बहुदु सज्जि ।
दुक्खिय-जण-पोसणु गुण-णिहाणु, जो अयरवाल-कुल-कमल-भाणु । मिच्छत्त-वसण-वासख-विरतु, जिण सत्य शिगंथहं पायभत्तु । सिरि साहु पहुणुजि पहसियासु, तहु णंदणु शिवम गुणणिवासु। सिरि खेमसीह णामेण साहु, जिण धम्मोवरि जें बद्ध-गाहु । जिणचरणोदएण वि जो पवित्, प्रायमनस-रत्तट जासु चित्तु । उरिउ चउब्बिह संघ भारु, पायरिड वि सावय चरित चाह । रिसि दाणवंतु गंध-हत्थि, वियरेह णिच्च जो धम्म-पंथि । सम्मत्त-रयणलंकिय सरीरु, कण्यायलुम्ब णिकपुधीरु। सुह-परिया-कहरव-वणा-हिमंसु, उद्धरिउ पुरण पालहु जि वंसु । धण-कण कंचण-संपुण्णु संतु,
पंडियह वि पंडिउ गुण-महंतु । दुहियण दुह-पासणु बुह-कुल-सासणु जिण-सासण-रहधुर-धरणु विजालच्छीधरु स्वेणं सरु अहणिसु-किय-विह उदरणु ॥५
तहु पणयणि पणय णिबद्धदेह, णामेण धरणोवइ सीलगेह। सुर सिंधुरगइ पायडिय लील, परिवारहु पोसण सुद्ध सील । पर स्याहं णं उप्पत्ति वाणि, गय-हसिग्रीव कलयंठि-वाहि । सोहग्ग-स्व चेल्लणि व दिट्ट, सिरि रामहु जिंह पुणु सीय सिट्ठ । तहिं उवरि उवण्णा रयण चारि, शं णंत चडक्क सरुव धारि । तह मजिक पढमु वियसिय सुवत्त, लक्खणं लक्खंकिउ बसण-चत् । अउलियसाह सहसेकोहु, सिरि सहसराजु णामें मुणेहु । विण्यास कुसलु बीयउ सुपुत्तु, जो मुबह जिणेस-भषि सुत्त ।
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किरण ११-१२]
जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह
[३५७
सुपवीणराय वावार-कनि, गंभीरु जगयर बहु-गुणउिन । पहराजु पहावरु पुहमियाइ, जो णिव मणु रंजह विविह भाइ । अण्णु वि तीयउ रिसि-देव-भत्त, गिह-भार-धुरंधर कमल बत् । सिरि देवसीहु देवावयारु, जो करइ णिच्च उवयारु सारु । चडथड एंदगु पुष्णु कुलु पयासु, अवगमिय णिहिल-विज्जाविलासु । जिश समयामय-रस-तित चितु,
सिरि होलिवम्मु णामें पवित्त । एमहिं चहुं सहियउ गुणगण अहियउ खेउंसाहु जसायरू । णाणासुह विलसह जईयण पोसह णिय-कुल-कमल दिवायरु
अरणहिं दिणि पायम सस्थवृत्यु, सम्मत्त-रयणलकिय समस्थु । गउ जिब-हरि खेडं साहु साहु, भावें वदिड तहिं णेमिणाहु । पुणु पाल्हबंभु पणवियउ तेणु, सिद्धृत्य भाव भाविय मणे।। पुणु तहिं दिट्टउ सरसह-णिवेउ, रइधू पंडिउ पडिय विवेड। तण वि सभामणु कियउ तासु, जो गोट्टि पयामइ बहु सुयासु । ता जिण अच्चण पसरिय भुषेण. जपिट हरसिंघ संघवी सुवेण । भो यरवाल कुल कमलसूर, पंडिय-जणाण मण-आसपूर । जिणधम्म-धुरंधर गुण-णिकेय, जम-पसर दिसंतर किय ससेय । सिरिपजणसाहु णंदण मुणेहि, कलिकालु पयहु शिय-मणि मुणेहि । दुज्जण अवियड्ड वि दोसगाहि, वहति पटर पुणु पुहह माहि । मई सुकाण पुणु बधुगाहु, पणविष अणुराएं पासणाहु। तुहु सस्थु कमलु लेलेहि भारु, मिरि पासचरित्त जणण-तारु ।
तहु क्यण सुणेपिणु मणि-पुलएप्पिणु, जपइ खेडं तासु पुछु । भो रइधू पंडिय सील अखंडिय, तुहु वि एक्कु महु क्यणु सुषु
गिय गेहि उवाउ कप्प-हक्खु, तहु फलु को मउ बंछह ससुक्खु । पुण्णेय पत्तु जह कामधेनु, को हिस्सायइ पुणु विगय-रेणु । तह पह पुणु महु किड सई पसाउ, महु जम्मु सपालु भो अज्जु जाउ । तुहुंधण्णु जासु एरिसउ चितु, कहयण-गुणु दुल्लहु जेण पत्। बहु जोणि प्रणताणंत कालु, भवि भमह जीउ मोहेण बालु । कहमवि पावइ गड मणुष जम्मु, अह पावइ तो पयह कुकम्मु । बालत्तणि असइ प्रभावु-भक्खु, रंगह महि महइ भणंत दुक्खु । कहमवि पावह तारुण्ण भाड, वम्मह-बसेण सेवेह पाउ । एविधाणइं जुत्ताजुत्त-मेड, णउ सत्थु ण सरु अरहंतु देउ । धावइ दहदिहि दविणत्ति खिएणु, णउ भावइ चेयणु परहु-भिएणु । लोहें बहु लियट रसतु, पर-धणु-पर-जुवई मणि सरंतु । मिच्छतु विसम-स-पाण-तत्तु, राउ कहमवि जिणवर धम्मु पत्त । अहवा विपत् या मुखाई तनु, विहलङ हारह पुणु ताण रतु । रयगुब्ब दुबहु सावयहु जम्मु, मह पुगणे मई लट सकम्म । भो पंडिय सिरि पासहु चरित्त, पभणहि हडं सुणमिसु एयचित्तु । ते मवणणि सुशाहि जिशिंद-वाणि,
मदेहु किंपि मा चित्ति ठादि । इय माहह बयणे वियसियवयण पटिएम हरिसेप्पिणु । तें कम्ब रमायणु सुहसयदायगु पारद्धड मगु देप्पिसु ।।८।।
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३५८ ] अनेकान्त
[वर्ष १४ अन्तिमभाग:
ते चत्तारि वि चहु दिसि मंडण, सिरि भयरवाल-कुल-जब-संसु,
जाचय जय-मण-रोस विष्ण। एडिल गोल वरबाई हंसु ।
सहसराजु पढमउ तहं सच्चाइ, जोइणिपुरम्मि शिवसंतु भासि,
जो संघवी गिरनारहु वुचई। सिरि देदासाहु स पुण्ण-रासि ।
स-रतनपालही लामा तहु पिय, पुणु तासु अणुक्काम अछिकोसु,
उधरण सुव उच्छंगिरमियमिय। महियाचा जण जणिय-तोसु ।
पहाराजु जि बीयउ ससिकर-पहु, बहु पदणु पैरूपावहीनु,
दाण भोय उमिज्जइ सो कहु । पुशु तासु तणुम्भउ धम्मि जीणु।
मयणपालही तहु पिय धरणी, अग्धियति जिणवर चरणारविंद,
सोणपाल यंदणेण सउण्णी। मह दागों पोसिय बंदिविंद।
तीउ पुत्तु पुणु रइपति भासिउ, थामेव पुरणपालु जि पउत्तु
गिह-भर-भारु वहशु जसु भासित । चाइडिय याम पुशु तहु कलत्तु ।
कोडी णामा तासु जि मामिणि,
प्रहणिसु सधव-चित्तमण-रामिणि । बहु पुत् विषिय चरक सोह,
ताहि पुत्तु लोहगुणं समहरु, जियधम्म धुरंधर पयह गोह ।
वंजय बक्खण चरिखव मणहरु । वह गरुवउ साहु जा पउत्तु,
पउबउ सुउ विज्जारस भरियड, नाथू साहु वि पुणु तासु पुत्तु ।
होलिवम्मु णा विप्फुरियउ । नाथूसाहुहु सुव विरिण हुव,
बहु कसर सरसुत्ती गामा, मामणु बीधा गुणसारभूव ।
दाण सील सुंदर अहिरामा । बीयड जि पुरणपाल जि पुतु,
तहु पुत्तु गुणापरु याउं कलायरु, चंदपालु णामेण सिसु । जापड भावियड जिमिंद सुत्त ।
इहु वंसु पवित्तड जिय-पय-भत्तउ, गंदड महि-धण कण-वरिसु जिणवरपयभत्तउ गिह-वयरत्तड, जसु जसु वदियणहि गुणि
एयई सम्यहं जो मज्मि सारु, परिया-सुह-दायणु गुणसय भायणु पजणसाहु थामें भणिउं
खेऊ सुसाहु कण्णावयारु । बहु पिय वील्ही याम गुणायर,
ते काराविउ पासहु पुराण, पिययम चित्तहो पिच्च सुहायर ।
भव-तम-पिण्यासणु थाई भाणु । ताहि तणुम्भउ महि विक्खाबर',
कड्या विश्एप्पिणु सुह मणेश अहणिसु पवयन-गुण-अणुरायड ।
रहधू गामेण वियक्खणेण। चडविह-संघ-भार-धुर-धारित,
संपुण्ण करेप्पिणु पयर भत्थु, में मिरछत्त-महागड मोडिट ।
खेऊसाहुहु अप्पियउ सत्थु । संसारहु संसरणे भीयउ,
बहु विशए त गिरिहया तय, दाणे सेयंसु जि बीयउ।
तक्खणि पाणंदिउ थिय-मणेण खेउं शाम साहु विक्खायउ,
दीवंतर-मागय- विविह-वत्यु, देव-सत्य-गुरु-पय-अणुरायठ।
पहिराविव भइसोहा पसत्थु । तासु घणो णामा पियवईमाई,
भाहरणहि मंदिउ पुणु पवित्तु, जिम राहबहु सीय वम्मदुरई।
इच्छादाणे रंजियड चित्तु । गंदण चारि सु जब सारा,
संतुटठड पंडिड णिय-मणमि, सजाया गुणियणहं पियारा।
भासीवाउ वि दिवाउ खणम्मि ।
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किरण ११-१२]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह अविरल-जल-धारहिं यह खिवारहि तप्पड मेइणि णिच्चपरा
पुख वदहमाणु परमिल्स देउ, कनि-मन-दुह खिज्जहु मंगल गिज्जहु पास-पसाए परि जि घरा सो सम्बहं जीवहरय-सेट। शिरुवाहन णिवसर सबलु देसु,
पुणु वाहं वाथि स्माए विचित्त, पय पालड यंदड पुणु खरेसु ।
बोयत्तव-गामिवि वराव दित्ति । जिब-सासणु वंदड दोस-मुक्कु,
पुण इंदभूइ गयहरु बवेवि, मुखिगणु णंदट तहिं विसय-बुक्कु ।
सोधम्मु वि जंबूसामि तेवि ॥ दहु सावय-यख गखिय-गाव,
पुण ताई प्राक्कमि देवसेणु, जो णिसुणहिं जीवाजीव भाव ।
इंदिव-भुजंग-दिवस-वेणु । सिरि खेऊसाहु सुधम्मि रतु,
पुणु विमलसेणु तह धम्मसेणु, दहिं समशंदउ बहुतु ।
सिरिभावसेणु गप-पाव-रेण ।। यंदउ महि गिरसिय असुह कम्मु,
वह सहसकित्ति भायम-पहाण, जो जीव दयावर परम धम्मु ।
सहिं पह-णिसाड गुरु-विहाणु । अहि [तड पास पुराणु एहु,
गच्छह णायकु सिरि गुणमुणिंदु, सज्जण जगाह जि जबिट खेहु ।
सहत्य-पवास विगव-संदु। कंच महिहरु जा ससि दिबिंदु,
सहु पट्ट जईसह णिहय-रईसरु जसकित्ति मुणिषण-तिखड। जा पुणु महियति कुल महिं हरिंदु ।
तह सिस्म पहाणव-पय-ठाप खेमचंदुभायम-णिखडा। जा सक्क सम्गि सुरसिय समिधु,
गोवगिरि थामें गद् पहाणु, वा सस्थ पवड अस्य सिद्ध ।
से विहिणा खिम्मिट रयण-ठाणु । मच्छर-मय-हीण सत्थ-पवीणा पंख्यि-मण-दउ सुचित ।
श्रइ उच्च धवलु हिमगिरिंदु, पर-गुण-महणायह बय-णियमायरु, जिणपयपयरह बाविय सिरु
जहिं जम्मु समिबह मणि सुरिंदु । इस सिरि पासणाह-पुराणे आयम-प्रत्य-सुणिहाणे तहिं डुगरिंदु बामेण राउ, सिरि-पंडिय-रयधू-विरहए सिरि महाभब्य-खेऊसाह
परिगण-सिरग्गि-संदिरण-घाउ । णामंकिए सिरिपापजिण-पंचकल्ला-वएणणो तहेव
तुंवर-वर-वंसह जो दिशिंदु, दायार-वंस-णि सो शाम सत्तमो संधी परिच्छेत्रो सम्मत्तो जि पबलह मिच्छई खणिउ कंदु । ॥२॥ संधि ॥४॥
तह पह घरशिरूव-जछि, प्रति तेरापन्थी बड़ा मन्दिर जयपुर, लिपि सं० १६५५
शामें चंदादे मह-सुदच्छि। ३८-पउमरिउ पद्म पुराण) कवि रइधू
तहु सुत किचिसिंघु जि गुणिल्छु, मादिभागः
जो रायसीह-जावण-बइल । पर णय-विद्धं सखु मुबिसुन्वय जिणु,
पिउ-पाय भत्तु पञ्चक्ख मार, पणविधि बहु-गुण-गण-भरिउ ।
पज्जुएण व महिपालि कुमर सार। सिरिरामहो केरउ सुक्ख जगेरठ,
सहि रजिज बबीसर सुद्धचितु, सह-लक्खण पयडमि चरिउ ।
मंचियउ जेय जिवधम्म-वित्तु । सिरि आइशाह-भव्ययणु इहु.
जसु चित्तु सु-पचहं वाय-तु, पणवेप्पिण लोयत्तय-वरिछ ।
जिहबाह-पूर्व जो गिच्च-भत्तु । पुणु ससि-पहु धम्मामय सवंतु,
माणामएस प्रह-विसिहि खीण, भग्वयणहं भवतरहं संमतु ॥
काउस्सग्गे तणु किया खी। तहि संतिवि जीव-पया-पहाणु,
पायमु-पुराण-पडसहं समत्यु, जिं भासिड महियलि बिमन-वाणु ।
गिय-मनुय-जम्मु जिकिड कयत्यु।
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अनेकान्त
[ वर्ष १४ जो अयरबाल-वंसह मयंकु,
बहु विशए पुणु विएणत्तु तेश, विहु-पक्स-सुर सो ऐय वंकु॥
कर आरोप्पविणु शिय-सिरेण ॥ वाटूसाहुहु णंदणु पवीण,
भो रइधू पंडिय गुण-णिहाणु, बिय-जाणिह-लोइय-विणय ली।
पोमावा-वर-वंसह पहागु । जिण-सासणु-भत्तु कसाय-खीणु,
सिरिपाल बम्ह पायरिय सीस, हरसीहु साहु उद्धरिय-दीणु ॥
महु वयणु सुणहि भो बुह-गिरीस ॥ तहो भज्जा गुण-गण-सज्जा द्योचंदही णामें भणिया।
सोढल-णिमित्त णेमिहु पुराणु, मुणिदाण-पियंकर वय-णियमायर णं पवित्ति स्वहो तणिया. विरयड जहं कइ-जण-विहिय-माणु । बीई तिय वील्हाही गुणंग,
तहं रामचरितु वि महु भणेहिं, भासील-विसुद्ध विणाय-गंग ।
लक्षण समेउ इउ मणि मुणहि ॥ जेठिहि एंदणु सिरि करमसीहु,
महु सायराउ तहु मित्त जेण गिह-भारु धुरंधरु बाहु दीहु॥
विएणत्ति मज्मु अवहारि तेण । मुणिसह शिवसह जसु पढम लोह,
महु णामु निहहि चंदहो विमाणि, जा चय-जणाण पूरिय-समीह॥
इय वयगु सुद्ध णिय वित्ति ठाणु ॥ तसु भजा जीणाही पवीणु,
इय णिसुणिवि वयणई, जंपिय सवणइं पंडिएण ता उत्तउ । गुरदेव सत्थ-पय-भत्ति लीण ।
हो हो किं वुत्तर एत्थु प्रजुत्तर हउं गिह कम्में गुत्तउ ॥ ४ ॥ तहु वहणीऽणंतमती पहाण,
घदएण मवइ को उवहि-तोउ, मह-सील-वीण गिह-लद्ध-माण ॥
को फणि-सिर मणि पयडइ विणोउ । चडविह दाणे पोसिष-सुपत्त,
पंचाणण-मुहि को विवह हत्थु, अह-णिसु जिणवर-कम-कमल-भत्त
विणु सुत्त महि को रयइ वन्थु ॥ लहुईहिं पुत्ति रुवें सुतार,
विणु बुद्धिए तह कय्वहं पसारु, णामेण ननो नेहें सुसार ॥
विरएप्पिणु गच्छमि केम पारु । जिण-चरण-कमल गाविय-सरोक,
इय सुणिवि भणई हरसीहु साहु, वय-तरु-णिवाहण-धीरु वीरु ।
पावियड जैग महि धम्म लाहु॥ अण्णा वासरि चिंतियउ तेण,
तुहं कव्वु धुरंधरु दोपहारि, हरसीह णाम इच्छिय सिवेण ॥
मन्थन्ध-कुसलु बहु-विणय-धारि । किं किज्जा वित्त विहिय मम जेण ण दीगु भरिउजह ।
करि कब्बु चिंत परिहरहिं मित्त, कि तेण जि काए' पयरियराए वय-तह जिण ण धरिजइ ॥३
तुह मुहिं शिवमह मरमइ पवित्त ॥ णरभउ पाविव करणीउ एम.
तं वयशु सुणिवि भरिणयउ तेण, भवदहि शिवडणु णो होइ जेम ।
पारद्ध सत्थु पुणु पडिएण। चितिम्वड दसणु णाणु इटु,
तह विहु दुज्जण महु भउ कति, चरणु वि पुणु लोयत्तय-वरिछु ।
धूयह जह दुमणिय भय उर्वति ॥ धम्मु जि दहलक्खणु लोयसारु,
जहं काय-निंद मडयहु सरीरु, सविस्वड एत्थु भवण्णतार ।
सेयंति पेय-वणि लोय भीरु। विष्णु धमें जीड ण सुक्खि थाइ
तह अवगुणु गुणु ते पाव लिंति, तविणु कर चडिड वि मयलु जाह ॥
गिय पयदि सहाउ जि पायडंति ॥ इय चितिवि पुणु गठ साहु तत्थ,
सज्जण अलममि इंड सतुम्ह, अच्छह पंडित जिणगेह जत्थ ।
पाथेव खमेयर दोसु अम्ह।
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किरण ११-१२]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३६१
इहु तुम्ह पसाएं करमि कन्वु,
मिरिराम-णिवाण-गमणो णाम एकादसमो संधि परिच्छेश्रो हउं मह विहीणु सोहेहु सम्वु ॥
ममत्ती १॥ जसु मह इह जात्तिय सो पुणु तेत्तिय पयडउ दोसुण अत्यि इह प्रति आमेर भंडार, लिपि सं०१५५१ णिय धणु अणुमारे सहु परिवार ववसावि सो करउ तिहा ॥५ (स. १५४६ की लिग्वित नया मन्दिर धर्मपुराकी x x x
अपूर्ण प्रतिसे संशोधित ) इय बलहह-पुराणे बुहयणविदेहि लख-सम्माण
३६-मेहेसर चरिउ सिरिपढिय-रहधू-विरइए पाइय-बंधेण अस्थि विहि-सहिए (मेघेश्वर चरित) कवि रइधू मिरि हरिसीहु साहु-कंठ-कठाहरणे उहय-लोय-सुह-सिद्धि- आदिभागकरणे वंस-णि प-रावण उप्पत्ति-वण्णणो णाम पक्षमा मंधि- सिरि रिसह जिणदह धुवसय इदह भवतम चदहु गणहरहु । परिच्छी समतो॥
पय-जयलु णप्पिणु चित्ति णिहणेप्पिणु चरित भणमि मेहेसरहु चरम भाग :
जय रिसहणाह भव-तिमिर-सूर, भन्वहं गुण णदउ किउ मुकम्मु,
जय णासिय तासिय कुमइ दूर । अरु णंदउ जिणवर-भाउ धम्मु ।
जय करण हरण गणहरि अपाव, रा: वि पदउ सुहि पय पमाणु,
जय ति-जय-सुहंकर सुद्धभाव । णंदउ गोचम्गिार अचलु ठागु ॥
जय तियस-मउड-मणि-घिट्ट-पाय, सावय जणु णंदउ धम्म-लीगु,
जय श्राइ जिणेपर वीयराय । जिणवाणी अायण्णण पचीणु ।
जय णिम्मल केवल णाण वाह, देसु विहिरवहउ मुहि-वसेउ,
जय अठवह दोस-विगय प्रवाह ॥ घरि घरि अच्चिजउ अाइदउ ।
जय भासिय तरचं रूबमार, णदउ पुणु हरसीसाहु एन्धु,
जय जणगोवहि णिरु पत्त पार । जि भाविउ चयण-गुण पयत्थु ।
जय वाएमरि वह हिम-गिरिद, मई अंगिमंतु जमु फुरइ चिनि,
जय घरह निरामय महि अगिंद ॥ कलिकाल-धरिय जिं झाण सति ॥
जह निहय पमाय भयंत संत, सिरि रामचरितु वि जेण एहु,
जय मुत्ति-रमणि-रजण-सुकंन । काराविउ सम्बई जणिय णेहु ।
जय धम्मामय ससि सुजस सोह, तहु णंदणु णामें करमसीहु,
जय भन्हं दुग्गह-पह-निगेह ॥ मिच्छत्त महागय-दलण-सीहु॥
पुगु मिरि वार जिणेंदु पणविवि भत्तिए मुदउ । मो पुणु पदउ जिण-चलण-भत्तु,
मम्ममा सारु जामु तित्त्थे मह लद्भउ ॥१॥ जो राय महायणि मागु पत्तु ।
साय-बाय-मुह कमल-हयंती, मिरि पोमावइ परवाल वंसु,
वे पमाण-णयणहिं पेच्छनी। गदड हरिसिंघु सघवी जासु संसु ॥
पवयण श्रत्य भणइ गिरि कोमल, वाहोल माहणसिह चिरु णंदन
णाणा सह दमण-पह-हिम्मत ।। इह रइधू कइ तीयड विधरा ।
व उवोय करण जुमु संविउ, मोलिक्क समाणउ कल गुण जाणउ
नासा बंप सुचरित परिटिउ । णंदउ महियलि सोवि परा ॥ १७ ॥
हा विग्गह तह गल काल, इय बलहह-पुराणे बुहयण-विदेहि लख-सम्माणे
वे णय उरकह सहहि उरस्थलि । सिरि पंडिय-रह-विरहए पाइय-बंधेण अत्य-विहि-महिए
वायरणंगु उपरु णिरु दुग्गमु, सिरिहरिसीह-साइ-कंठ कंठाहरणे उहयलोय-सुह-सिद्धि करणे णाहि अन्य गंभीर मणोरम ।
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३६२]
अनेकान्त
[वर्ष १४
दुविह छंद भुयदंड रवण्णी , जिण मय सुत्त सुवयाहिं छण्णी॥ सुकह पसार शिबंधु विसाला, अंग पुश्वमो सु रमालर । संधि-विहत्ति-पयहि गिरु गच्छा, रस शव पहभाव सु पयरछह ॥ पंचयाय माहरणहिं लंकिय, मिच्छावाइहि कहि व व पकिय । विमल महाजस पसर विहूसिय,
जम्म-जरा-मरबत्ति प्रदूसिय ॥ सा होउ महुप्परि सुटुमणा, कुमइ-पडन पिण्णासणि। तिल्लोय पयासणि गाणधरा रिसहहु वयण शिवासिणि ॥२
पुणु सिरि इंदमूह गणसारउ, पविवि जिण-गाहहु गिरिंधारउ । तासु मणुक्कमेण पुणि पावणु, जायउ बहु सीसुविण उ रावणु ॥ पं सरसह सुरसरि रयणायरु, सत्य-अस्य-सु-परिक्ख-शायरु । सिरि गुणकित्ति णामु जइ-गमु, तउ तवेइ जो दुबिहु असंगमु ॥ पुणु तहु पट्टि पबर जस-भायणु, सिरि जसकित्ति भन्न-सुह-दायणु । तहु पय पंकयाई पणमंतर, जा बुइ णिवसह जियपयभत्तड । ता रिसिणा सो मणिड विणोएं, हत्थुणिए वि सुमहु तेजोएं। मो रहधू पंडिय सुसुहाएं, होसि वियक्खणु मज्मु पसाएं। इय भणेवि मंतक्खरु दिएणउ, तेणाराहिउ त जि अच्छिण्णउ ॥ चिर पुण्ण कहत गुण सिद्धर,
सुगुरु पसाएं हुवउ पसिद्ध । पुत्थस्थि वि मुंदरु रयराणिहि भूलि पायडु सुक्खयरु । दे यह कूडव अयलु शिरु गोपायलु णामें यह ॥३॥
पर रयणाहरु मंमयरहरु, भरियण भयहरु णं वज्जहरु । णं णाय कणय कसवट्ट पहु, में पुहइ रमणि सिरि सेहरहु ।
वण उववण छण्ण गाइ भडु, ण्यणहं रुहदातण हाइंगड । सोवरण रेखण जहिं सहए, सज्जण वयणु व सा जलु वहए। उत्तुगु धवलु पायारु तसु, णं तोमर शिव संताण जम् । जहिं मणहरू रेहह हह पहु, पीसेस वत्थु संचय जि बहु । वर कणय रयण पद्द विष्फुरिउ, णं महियलि सुरधणु वित्थरिउ । जहिं जण शिवसहि उवयार-रया,
धण-कण-परिपुरण-सधम्मसया। सहि राउ गुणायरु पवर जसु अरियण-कुल-संतावरु । सिरिद्ध गरिंदु थामें भणिक स-पया जिउ सहमयर ॥४॥
णीह तरंगिण णावइ सायरु, सपल-कजालउण वि दोमायरु । वे पक्खुज्जलु णिय पय पालड, मिलच्छ-शरिंद-वंस-खय-काल उ । एयच्छत्तु रज्जु जि जो भुजइ, गुणियण विदह दाणे रंजइ । सयल-तेउराह णिरु सेवी, पट्ट महिसि तहु चंदाएवी। तहु णंदणु भूयलि विक्खायड, रयदाणे कलिकराणु समायउ । कित्तिसिंह णामेण गुणायरु, तोमर-कुल-कमलायर भायरु । सिरि डूंगणिव रज्जि वणीसरु, अस्थि दुहियजण-मण-चिंताहरु । अयरवाल बंसं वर-भायरू, दाण पूय-बहुविहि-विहियायरु । पजणु साहु जिणपय-भत्तिल्जाउ, पर-उवयार-गुणेण अभुल्लउ । तहु णंदणु दमवल्ली सुर-तरु, जें णिग्वाहिउ जिणसंघहु भरु । अप्पा-पर सस्व-गुण-जाणणु, कुणय-गईद-विंद-पंचायतु । गुणमंडिय विग्गहु जम-लुद्धउ, रयणतड मणि भावह सुद्धउ ।
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ॐ अहम्
अनकान्त सत्य, शान्ति और लोकहितका संदेश-वाहक नोति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाज-शास्त्रके प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण
सचित्र मासिक
सम्पादक-मंडल
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवार' छोटेलाल जैन कलकत्ता जयभगवान जैन एडवोकेट पानीपत परमानन्द जैन शास्त्री
चौदहवाँ वर्ष
(श्रावण शुकला ७ वीर नि० स० २४८१ से आपाद शुकला १५ धीर नि०म० २४८४
वि० सं० २०११, १४ अगस्त सन् १९५६ से जुलाई सन् १९५७ तक)
प्रकाशक
परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली
वार्षिक मूल्य
जुलाई
(एक किरणका मूल्य
छह रुपया
१६५७
आठ भाना
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अनेकान्तके चौदहवें वर्षकी लेख- सूची
लेखक
लेख
लेखक
पृष्ठ
| प्रतिचार रहस्य - [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री २२१
५ अतिथि संविभाग और दान
- [पं० हीरा लाल सिद्धान्तशास्त्री
3 अध्यात्म गीत (कविता) - [ 'युगवीर' i) अध्यात्म दोहावली
२१२
- [ श्री रामसिंह - पं० हीरालाल शास्त्री 5 अनुसंधानका स्वरूप -- [ प्रो० गोकुलप्रसाद जैन, एम. ए. ४६ अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे । कि० ६ टाइटिल पेज २
कवि पुष्पदन्त - [प्रो० देवेन्द्रकुमार, एम. ए. २१२ अभिनन्दन पत्र ( श्री कानजी स्वामी) २६७ अविरत सम्यग्दृष्टि जिनेश्वरका लघुनन्दन है।
- [जुगलकिशोर मुख्तार ऋषभदेव और महादेव --- [ हीरालाल सद्धान्त शास्त्री कलाका उद्देश्य - [प्रो० गोकुलप्रसाद जैन एम. ए. कवि ठकुरी और उनकी रचनाएँ
६
- [श्री पुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी ३३० हिंसा और अपरिग्रह - [ श्री भरतसिंह उपाध्याय हिंसा और हिंसा - [जुल्लक सिद्धिसागर ० कुन्दकुन्द पूर्ववत् और श्रुतक धाद्य प्रतिष्ठापक हैं - [प० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
३१७
श्राचार्य द्वपका संन्यास और उनका स्मारक - [to हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री mera Forte और ह्य दो रूप - [जैन गीतासे श्रानन्द सेठ - [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ऊर्जयन्त गरिके प्राचीन पूज्य स्थान
- [ परमानन्द शास्त्री कविवर भगवतीदास - [ परमानन्द शास्त्री कसा पाहुड और गुणधराचार्य -- [ परमानन्द शास्त्री best जैन समाजका स्तुत्यकार्य
कोप्पलके शिलालेख - [पं० बलभद्र जैन
क्या कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु श्र ुतकेबली के शिष्य नहीं हैं ? - [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री क्या मांस मनुष्यका स्वाभाविक आहार है ?
६२
१४०
२३७
७७
१२०
२६६
२१६ ११२
१० २२७ ८
६६ २०
२६८
लेख
क्यों तरसत है ? ( कविता )
[बाबू जयभगवान एडवोकेट ७६ खान पानादिका प्रभाव - [ हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री १६८ ग्वालियरके तोमर वंशका एक नया उल्लेख
- [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री २३५ क्या भ० बर्द्धमान जैनध के प्रवर्तक थे ?
- [ परमानन्द शास्त्री २२४
पृष्ठ
- [ डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, एम. ए. १६६ २७१जैनधर्ममें सम्प्रदायोंका प्राविर्भाव
- [पं" कैलाश चन्द्र शास्त्री ३१६
- [प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर २३६ चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तुति चिट्ठा हिसाब किताब अनेकान्त
४३ ३५३
छन्दकोष और शील संरक्षणोपाय छप चुके
- [ श्री अगरचन्द नाहटा २०६ जगतका संक्षिप्त परिचय -- ( पं० अजितकुमार शास्त्री २३० जिनपति स्तवन - [ भी शुभचन्द्र योगी जिनस्तुति पंचविंशतिका - [ महाचन्द्र
७ ३१५ ३२६
जीवन-यात्रा (कविता) - [ लक्ष्मीचन्द्र जैन सरोज जैनकलाके प्रतीक और प्रतीकवाद - [ए० के० भट्टाचार्य, डिप्टी कीपर राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली,
अनुवादक-जयभगवान एडवोकेट 158 जैनकला प्रदर्शनी और सेमिनार - [ हीरालाल शास्त्री १४५ - ग्रन्थ- प्रशस्ति-संग्रह ३३, ६७, ११५, १४७, २११, २४३ २०१, ३०७, ३५५
F
जैन दर्शन और विश्व शांति
- [ प्रो० महेन्द्रकुमार, न्यायाचार्य १०७ जैन-परम्पराका श्रादिकाल
एवकार मंत्र- माहात्म्य
- [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री १५६ तुकारी ( कहानी ) - [पं० जयन्तीप्रसाद शास्त्री १०३ तुम - [ श्रीराधेश्याम बरनवाल धारा और धाराके जैन विद्वान् - [ परमानन्द शास्त्री ६८ नन्दिसंघ बलात्कार गया की शाखा प्रशाखाए
६७
- पं० पन्नालाल सोनी ३४३
नालंदा का वाच्यार्थ
- [ सुमेरचन्द्र दिवाकर, बी. ए. एल एल. बी. ३३१ नियतिवाद - [प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य एम. ए. ८१ पं० भागचन्दजी -[ परमानन्द शास्त्री
१४
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लेख लेखक पृष्ठ लेख
लेखक
पृष्ठ पंचाध्यायीके निर्माण में प्रेरक-जुगलकिशोर मुख्तार १॥ विश्व शान्तिके साधन पश्चात्ताप (कहानी)-[पं० जयन्तीप्रसाद शास्त्री ६१
-[६० राजकुमार जैन साहित्याचार्य १४२ पुराने साहित्यकी खोज
वोर-शासन जयन्ती [श्रीजुगलकिशोर मुख्तार २५, ६५, ६३,१७३२०३ -परमानन्द जैन कि. १० टाइटिल पे०२ पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और बय
वोर-शासन-जयन्तीका इतहास -[पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ११३
-[जुगलकिशोर मुख्तार ३८ पीड़ित पशुओंको सभा (कहानी)
वीर-शासन-जयन्ती और भवनोत्सव -[श्रीमती जयवन्ती देवी २०७
-[मत्री-वीरसेवमन्दिर ३४० पार्श्वनाथ वस्तिका शिलालेख-[परमानन्द शास्त्री २४२ वीर-सेवामन्दिरका प्रचार कार्य
२०३ प्रद्युम्न चरित्रका रचनाकाल व रचयिता
वीर-सेवामन्दिर दिल्लीकी पैसा-फण्ड-गोलक -[श्रीअगरचन्द्र नाहटा १७०
-जुगलकिशोर मुख्तार १७७ भ० वुद्ध और मांसाहार-[हीरालाल सिद्धान्तशास्त्रो २३८ वीर-सेवामन्दिरमें श्री कानजी स्वामी-किरण , भगवान् महावीर और उनके दिव्य उपदेश
टाइटिल पे० २ -[५. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री २५३ शान्ति की खोज-[प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य २६८ मनको उज्वल धवल बना (कविता)
शाह हीरानन्द तीर्थयात्रा विवरण और सम्मेतशिम्बर -[बा० जयभगवान एडवोकेट हा
चैत्यपरिपाटी-[श्री अगरचन्द नाहटा ३०. महाकवि स्वयम्भू और उसका तुलसीदासजीकी
श्रमणगिरि चलें - [मू० ले. जीवबन्धु टी. एम. रामायण पर प्रभाव -[ परमानन्द शास्त्री ५६, श्रीपाल, अनुवादक.पी. वी. वासवदत्ता जैन न्यायतीर्थ १२५ महाब रके विवाह सम्बन्धमें श्वे. की दो मान्यताएँ श्रमण-परम्परा और चांडान -[ परमानन्द शास्त्री 100
-[डा. ज्योतीप्रसाद एम. ए. २८५ राजमाता विजयाका वैराग्य
श्रीनेमि-जिन-स्तुति-[पं० शालि -[सुमेरचन्द दिवाकर, शास्त्री १६३ श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्र-[धर्मघोषमूरि
१२४ राजस्थानक जैन शास्त्र-भण्डारोंमे हिन्दोके नये
श्रीबाया लालमनदामजी और उनकी तपश्चर्याका साहित्यकी खोज
____ माहात्म्य [परमानन्द जैन -[श्री कस्तूरचन्द काशलीवाल, एम. ए. २८६, ३३३ श्रीमहावीर-जिन-स्तवन-[अज्ञात कर्तृक २०३ रूपक-काव्य परम्परा -[पर-नन्द शास्त्री २५६ श्रीवर्धमान-जिनस्तुति ला. महावीर प्रसादजी ठेकेदारका स्वर्गवास २ श्रीवर्धमान-जिन-स्तोत्र विक्रमी संवत्की समस्या -प्रो. पुष्यमित्र जैन २८७ श्रीवीर-जिन-स्तवन ['युगवीर' विचार-कण
३२३ श्रीसन्तराम बी. ए. की सुमागधा विदर्भ में गुजराती जैन लेखक
-[मुनीन्द्र कुमार जैन १७ -[प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर २०१ सस्कारों का प्रभाव-[हीरालाल सिद्धांतशास्त्री, २०८-२७४ विश्व-शान्तिका सुगम उपाय-आत्मीयता
सन्त विचार (कविता)-[५० भागचन्द्रजी २० -[श्री अगर चन्द नाहटा २३२ सन्देह (कहानी)-[श्री जयन्तीप्रमाद शास्त्री ३०२ विश्व-शान्तिके अमोघ उपाय
समन्वयका अद्भुत मार्ग अनेकान्त -श्री अगरचन्द नाहटा १६६
-[श्री अगरचन्दजी नाहटा १९ विश्व-शान्नि उपायोंके कुछ मंत
समन्तभद्र स्तोत्र (कविता)-['युगवीर' -[4. चैनमन्बदामजी जयपुर १३८ समन्तभद्रका समय-निर्णय-[जुगल किशोर मुख्तार ३
१८७
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पृष्ठ
लेख
पृष्ठ संख
लेखक समन्तभद्रका समय
माहित्य परिचय और समालोचन -डा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए. एल. एल. बी. ३२४
-परमानन्द जैन कि० ६. टा. ३, २१० सम्पादकीय
११ सुप्रभातम्तोत्र-[नेमिचन्द्रयति
सौन्दर्यको क्षण-विनश्वरतासम्पादकीय
सौ सौ के तीन पुरस्कार कि. ६ टाइटिल पे.३ सम्पादकीय नोट-[परमानन्द जैन
२० हडप्पा और जैनधर्म सम्पादकीय नोट-[जुगलकिशोर मुख्तार
उ
-[.टी एम. रामचन्द्रन अनुवादक सरकारद्वारा मांस भक्षणका प्रचार
बा. जयभगवानजी एडवोकेट १५७
हमारा माचीन विस्त वैभव -[पं० हीरालाख सिद्धान्तशास्त्री २२५
-पं. दरबारी लासजी न्यायाचार्य ३०
३२४
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सभी ग्रन्थ दशलक्षण पर्व तक पौने मून्य में
. वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ४६मूल-अन्योंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ
उद्धृत दूसरे पोंकी भी अनुक्रमणी जगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पच-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठको प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए, डी. लिट् के प्राकथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. सी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
मरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिस
युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । " (५) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, अल्पदरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित ।
" (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिब्द-सहित। ...
10) (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्छकी सुन्दर प्राध्यास्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७E पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित।
" m) (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुधा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे आजत, सजिल्द । " 11) (5) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्दरचित, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ) () शामनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वो शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-सहित । (१०) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक अन्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जीकं विवेचनामक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावनासे युक्र, सजिल्द । (११) समाधितंत्र और इष्टोपदेश-श्रीपूज्यपादाचार्य की अध्यात्म-विषयक दो अनूटी कृतियां, पं० परमानन्द शास्त्रीक
हिन्दी अनुवाद और मुग्य्तार श्री जुगलकिशोरजीकी प्रस्तावनासे भूषित सजिल्द । (१०) जैनप्रन्थप्रशसि.संग्रह-संस्कृत और प्राकृनके १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व•संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं. परमानन्दशास्त्री की इतिहास-साहित्य-विषयक परिचयामक प्रस्तावनामे अलंकृत, सजिल्द ।
...
... (१३) अनित्यभावना-प्रा. पदमनन्दी की महत्वको रचना. मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यास युक्त । (१५) श्रवणबेल्गोल और दक्षिणक अन्य जेनतार्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन (१६) कमाय पाहुड मचूर्णी-हिन्दी अनुवाद सहित (वीरशासन संघ प्रकाशन) (१७) जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश महावीरका सर्वोदय तीर्थ ), समन्तभद्र-विचार-दीपिका 2),
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
, १०१) बा० लालचन्दजी जैन कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता
१०१) बा• शान्तिनाथजी P२५१) बा० छोटेलालजी जैन
१०१) बा. निर्मलकुमारजी ,
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) वा० सोहनलालजी जैन समेचू ,
१.१. बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ..
१.१) बा. काशीनाथजी, ... २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C.) जैन , ५१) पा० दीनानाथजो सरावगी
१.१ बा० गोपीचन्द्र रूपचन्दजी , २५१) मां रतनलालजी झांझरी'
१.१) बा. धनंजयकुमारजी *२५१) बा० बल्देवदासजी जैन
१.१) बा. जीतमलजी जैन
१०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी *२५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
, , 2 २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा. रतनलाल 'चांदमलजी जैन, रॉची २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार. देहली
१०१)-ला. रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) साहू शान्तिप्रसादजी जैन
१०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी. एटा २५१) ला०कपूरचन्द धपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) ला• मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली भ२५१) बा०जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकचा २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १.१) बा०वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ना०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद
१०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार
१.१) ला• बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार। २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची
१.१) सेठ जोखीरामबैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता * १) सेठ वधीचन्दजी गमवाल, जयपुर १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर *२५१) सेठ तुलारामजी नथमलजी लाडनूवाले १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर कलकत्ता
१०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली सहायक
१०१) श्री जयकुमार देवीदासजी, चवरे कारंजा Fct.१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१)ला. रतनलालजी कालका वाले, देहलो
१०१)ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी. देहली १०१) ला. चतरसैन विजय कुमारजी सरधना ८१०१) सेठ लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन
'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
२१. दरियागंज, दिल्ली .
प्रकाशक-परमानन
शास्त्री वीरसेवामंदिर, २१ दरियागंज, दिल्ली । महक-पवासी प्रिटिंग हाउस, देहली
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