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________________ आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक (श्री पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री) संन्यासका स्वरूप संन्यासकी उपयोगिता जब कोई साधक भावक या मुनि अपने जीवनके अंतिम प्रारम-हितका साधन करनेवाला श्रावक या साधु निरसमय में यह अनुभव करता है कि मेरी इन्द्रियां दिन-पर-दिन' तर बारमाके हित-साधन करने में ही उद्यत रहता है। वह शिथिल होती जा रही हैं और यह शरीर अब धर्मका साधक शरीरकी उतनी ही सम्भाल करता है, जितनी कि धर्मन होकर बाधक होरहा है, तब उसे शास्त्रोंमें सन्यास-ग्रहण साधनके लिए अत्यन्त आवश्यक होती है। वह कुशल करनेका विधान किया गया है। यह संन्यास-धारण करनेका व्यापारीके समान सदा इस बातका ध्यान रखता है कि व्यय उत्सर्गमार्ग है। किन्तु यदि शरीर पुष्ट भी हो, इन्द्रियां कम हो और प्राय अधिक हो । यही कारण है कि साधक बराबर अपना कार्य कर रही हों, फिर भी यदि कदाचित् शरीरकी सम्भाल करनेके लिए उत्तरोत्तर उदासीन और कोई ऐसा उपसर्ग बाजाय, जिसके कि दूर होनेकी सम्भावना प्रात्म-सम्भालके लिए उत्तरोत्तर जागरूक रहता है। साधाही न रहे, कोई ऐसा ही रोग शरीरमें उत्पन्न हो जाय, कि रणतः संन्यासग्रहण करनेका मार्ग वृद्धावस्थामें जीवन के जिसका इलाज सम्भव न रहे, भयानक दुर्भिक्ष प्रापड़े, सन्ध्याकालमें बतलाया गया है। यह वह समय है, जब अथवा इसी प्रकारका कोई अन्य कारण पा उपस्थित हो. जीवके आगामी भव-सम्बन्धी प्रायुका बन्ध होता है और जिससे कि धर्म-साधनमें बाधा उत्पन्न हो जाय तो भी भावी जीवनका निर्माण होता है। अतएव जीवनको अन्तिम संन्यास-ग्रहण करनेकी आशा शास्त्रकारोंने दी है। यह वेलामें यह उपदेश दिया गया है कि वह अन्य सब ऐहिकसंन्यास ग्रहण करनेका अपवाद मार्ग है । उत्सर्गमार्गमें दैहिक कार्योंसे मुख मोड़कर भास्मिक कार्योंके सम्पन्न करनेके यावज्जीवन के लिये संन्यास धारण करनेका और अपवाद लिए सदा सावधान रहे। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मार्गमें कालकी मर्यादाके साथ संन्यास-धारण करनेका विधान अनुकूल हैं, तो वह इसी भवसे ही सर्व कोका क्षयकर किया गया है। यतः संन्यासका अन्तिम लक्ष्य समाधिपूर्वक अजर-अमर पदको प्राप्त कर सकता है और यदि उन दम्यशरीरका त्याग करना है, अतः इसे समाधिमरण भी कहते क्षेत्रादि अनुकूल नहीं है तो कम-से-कम वह अपने भविष्यहै। तथा संन्यास-ग्रहण करनेके अनन्तर शरीर-स्याग करनेके का तो सुन्दर निर्माण कर ही सकता है और यही संन्यासअन्तिम क्षण तक साधक अपने काय और कषायोंको क्रम- धारण करनेकी सबसे बड़ी उपयोगिता है। क्रमसे कृश करता रहता है, अतएव इसे सल्लेखना भी कहते संन्यासका फल हैं। 'संन्यास' शब्दका अर्थ है-वाहिरी शरीर-इन्द्रियादिककी क्रियाओं और प्रवृत्तियोंको रोक कर, तथा मनके संकल्प संन्यासका साक्षात् या परम्पराफल मोक्ष-प्राप्ति बतलाया विकल्पोंको रोककर अपने प्रात्मस्वभावमें अपने आपको गया है। जो उत्कृष्ट संहननके धारक है और जिनके सर्वस्थापित करना । पंडितप्रवर भाशाधरजीने अपने मागारधर्मा सामग्री अनुकूल है, वे जीव तो संन्यासके द्वारा इसी भवसे मृतके आठवें अध्यायमें संन्यासका लक्षण बहुत ही सुन्दर मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो हीन संहननके धारक हैं और जिनके अन्य सामग्री अनुकून नहीं है, वे भी यदि एक रूपसे दिया है बार भी सम्यक प्रकारले संन्यासको धारण करके समाधिपूर्वक संन्यासो निश्चयेनोक्तः स हिनिश्चयवादिभिः। शरीरका त्याग करते हैं, तो भी सात-पाठ भवमें संसारयः स्व-स्वभावे विन्यासो निर्विकल्पस्य योगिनः ||६३॥ मागरके पार उतर जाते हैं, इससे अधिक समय उन्हें संसारमें जब योगी बाहिरी संसारसे सम्बन्ध तोड़कर तथा वास नहीं करना पड़ता है। संन्यास-धारक जीव अपनी इन्द्रिय और मनके शुभाशुभ विषयोंसे भी मुख मोड़कर, प्रात्माका ध्यान करता हुमा प्रतिक्षण पूर्व संचित प्रचुर कोसर्व संकल्प-विकल्पोंसे रहित हो भारम-स्वभावमें स्थिर होता की निर्जरा करता रहता है। यही कारण है कि जो जीव है, तब उसे तत्वके निश्चय करनेवाले महर्षियोंने 'संन्यास' सन्यासके संस्कारोंसे अपनी प्रास्माको सुसंस्कृत कर लेता है, कहा है। वह उत्तरोत्तर प्रात्म-विकाश करता हुमा अल्पकाल में ही सर्व
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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