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________________ ७६ ] %25E अनेकान्त [वर्ष १४ नत-नरासुर-निर्जर-नायकं करण-मुक्त-सुसात-विधायकम्। सुनय-नीत-चिदात्मसुसिद्धये प्रवियजे जिन शिवसिद्धये ॥६॥ अकल-नीरस नीरव-निर्भवं, हरि-हरेन्दु-नुतं शिवद शिवम् । निखिल-काल-कलाकृति-जग्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥१०॥ इत्थं शुभेन्दुवदना शुभचन्द्रयोगैाता दिशंतु जिनपाः शुभसिद्धिवृद्धाः। सिद्धिं विशुद्धिमरमृद्धिममन्दबुद्धिं स्वान्ते शुभाःशुभकराश्च चिदुद्यता वः ॥ ११॥ : (अजमेरके दि. जैन पंचायती मन्दिर शास्त्र-भंडारके एक गुटकेसे उधृत) क्यों तरमत है ? (बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) क्यों तरसत है क्यों चिन्तित तू, क्यों श्राशाहत क्यों याचक तू॥ मधु-अमृत की पूरण निधि तू शान्ति सुधा का सागर । सुषमा का भण्डार भरा तू मालोकों का भाकर ॥१॥ जग की सारी लीला शोभा . ___ मंगल-गाथा तुझ से। कालचक्र के युग-युग की है नाम-महत्ता तुझ से ॥२॥ देव-असुर-नर-पशु अरु पंछी मीन-मकर-कृमि-भौर। . अग्नि-वायु-जल-भूमि वनस्पति रूप विविध है तेरे ॥३॥ हास-उदय उत्कर्ष-पतन के इतिवृत्तों का कर्ता। भव्य-विभूति अतुल-वैभवमय तू भविष्य का धारा परमेश्वर का वास बना तू ऋद्धि-सिद्धि का साधक । मूल्यांकन सबका तुमसे तू झूठ-सत्य का मापक ॥ ज्ञान कला विज्ञान व दर्शन - दान अतुल हैं तेरे। धर्म-कर्म सब पथ जीवन के काम कल्प हैं तेरे ॥६॥ सत्य महोन मार्ग अह ज्योती तू पौरुष का धाता। पाप-पुण्य दुख सुख-तथ्यों का .. तु है भाग्य-विधाता Rom
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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