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________________ - किरण । पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय [१६५ जनित एक अनिर्वचनीय अनुभूति होती है। इस अवस्थामें स्नान आवश्यक है, उसी प्रकार मानसिक सन्तापकी शांति कर्मोक श्रावध म्क कर परम संवर होता है, इस कारण और हृदयकी स्वच्छता या निर्मलताकी प्राप्तिके लिए प्रतिध्यानसे लयका माात्म्य कोटि-गुणित भी अल्प प्रतीत दिन पूजा-पाठ आदि भी आवश्यक जानना चाहिए। स्नान होता है । मैं नो कहेंगा कि संवर और निर्जराका प्रधान यद्यपि जलसे ही किया जाता है, तथापि उसके पांच प्रकार कारण होने से जयका माहात्म्य ध्यानकी अपेक्षा असंख्यात- हैं-१ कुएसे किसी पात्र-द्वारा पानी निकाल कर, गुणित है और यही कारण है कि परम समाधिरूप इस बालरी आदिमें भरे हुए पानीको लोटे प्रादिक द्वारा शरीर चिल्लय (चतन में लय । की दशामें प्रतिक्षण कमोंकी पर छोड़ कर, ३ नलके नीचे बैठ कर, ४ नदी, तालाब अगग्व्यातगुणी निर्जरा होती है। आदिमें तैरकर और ५ कुश्रा, बावड़ी श्रादिके गहरे पानीमें ___ यहा पाठक यह बात पूछ सकते हैं कि तत्वार्थसूत्र दुबकी लगाकर । पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि कुएं से पानी श्रादिमें तो सवरका पर कारण ध्यान ही माना है, यह निकाल कर स्नान करनेमें श्रम अधिक है और शान्ति कम । जप और लयकी बका कहमि आई? जन पाठकों को यह पर हमकी अपेक्षा किसी वर्तनमें भरे हुए पानीसे लोटे द्वारा जान लेना चाहिए शुभ ध्यानक जो धर्म और शुक्ररूप दो म्नान करनेमें शान्ति अधिक प्राप्त होगी और श्रम कम भेद किये गये है, उनमेम धर्मध्यानक भी अध्या म दृष्टिसे होगा। इस दूसरे प्रकारके स्नानसे भी तीसरे प्रकारके पिण्डस्थ, पदम्ब, रूपस्य, और रूपातीत ये चार भंद किये स्नानमें श्रम और भी कम है और शांति और भी अधिक | गये हैं। इनमेंस बादिक दो भेदोंको जप मंज्ञा और इसका कारण यह है कि लोटंसं पानी भरने और शरीर अन्तिम दो भदोंकी ध्यान मझा महपियांने दी है । तथा पर डालनेके मध्यमें अन्तर पा जाने से शान्तिका बीचशुक्ल ध्यानको परम समाधिरूप 'लय' नामस व्यवहृत बीचमें प्रभाव भी अनुभव होता था, पर नलसे अजस्त्र किया गया है । ज्ञानार्णव अादि योग-विषयक शास्त्रों में जलधारा शरीर पर पड़नेके कारण स्नान-जनित शान्तिका पर-समय-वणित योगा अष्टाङ्गका वर्णन स्याद्वादक सुमधुर लगातार अनुभव होता है। इस तीसरे प्रकारके स्नानसे समन्यया द्वारा मो रूपमें किया गया है। भी अधिक शान्तिका अनुभव चौथे प्रकारके स्नानसे प्राप्त उपयुक पृजा. म्तोत्रादिका जहां फल उत्तरोत्तर होता है, इसका तैरकर स्नान करने वाले सभी अनुभवियोंअधिकाधिक है, यहां उनका समय उत्तरोत्तर हीन-हीन है । को पता है। पर तैरकर स्नान करनेमें भी शरीरका कुछ न उनक उनरोनर समयकी अल्पता होने पर भी फलकी महनाका कारण उन पांचोंकी उत्तरोत्तर हृदय-सब्द-स्पर्शिता कुछ भाग जलसे बाहिर रहने के कारण स्नान-जनित शांतिहै। पूजा करने वाले व्यक्निक मन, वचन, कायकी क्रिया का पूरा-पूरा अनुभव नहीं हो पाता । इस चतुर्थ प्रकारके अधिक बहिमुखी एव चंचल होती है । पूजा करने वालेस स्नानस भी अधिक श्रानन्द और शान्तिकी प्राप्ति किसी स्तुति करने वाले के मन, वचन, कायकी क्रिया स्थिर. और गहर जलके भीतर डुबकी लगानमें मिलती है। गहरे पानीमें लगाई गई थोड़ी मी दरकी दुबकीस मानों शरीरका अन्तमुवी होती है। आगे जप, ध्यान और लयमें यह स्थिरता और अन्तमुखना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, सारा मन्ताप एकदम निकल जाता है, और दुबकी लगाने यहां तक कि लयम व दोनों उस चरम सीमाको पहुँच वालेका दिल श्रानन्दमे भर जाता है। जाती है, जो कि छद्मस्थ वीतरागके अधिकसे अधिक उन पांचों प्रकारके स्नानाम से शरीरका सन्ताप संभव है। उत्तरोत्तर कम और शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता उपयुक्र विवेचनसे यद्यपि पूजा, स्तोत्रादिकी उत्तरोत्तर जाता है, ठीक इसी प्रकारसे पूजा, स्तोत्र आदिके द्वारा भक्त महत्ताका म्पप्टीकरण भली भांति हो जाता है, पर उस या पाराधकके मानसिक सन्ताप उत्तरोत्तर कम और और भी मरल रूपमें सर्वसाधारण लोगोंको समझाने के लिए आत्मिक शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता है। स्नानयहां एक उदाहरण दिया जाना है। जिस प्रकार शारीरिक के पांचों प्रकारोंको पूगा-स्तोत्र श्रादि पांचों प्रकारके क्रमशः सन्तापकी शान्ति और स्वच्छताकी प्राप्तिक लिए प्रतिदिन हप्टान्त समझना चाहिए। -
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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