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________________ २८] अनेकान्त [ वर्ष १४ ३२ है; परन्तु आठवाँ पत्र नहीं है। समात चैतज्जीतसारसमुच्चयमिति।" इस ग्रन्थके प्रायश्चित्त-विपयका अधिकांश संबंध प्रशस्तिके ये पद्य कहीं कहीं पर कुछ अशुद्ध उस अति जीर्ण-शीर्ण पुस्तिकासे है जो 'जीतोपदेश. प्रतीत होते हैं, पर इनमें जिस गुरु-परम्पराका दीपिका के रूपमें श्रीकोंडकुदाचार्यके नामाङ्कित थी, उल्लेख है वह इतना ही जान पड़ता है कि रुक्षाचार्यजिसे मान्यखेट में सिद्भभूषण नामके सैद्धान्तिक के शिष्य रत्नी रामनन्दी, रामनन्दीके शिष्य नन्दनन्दी मुनिराजने एक मंजूषामें देखा था, प्रार्थना करके और नन्दनन्दीके शिष्योंमें प्रस्तुत ग्रन्थकार प्राप्त किया था और जो उसे प्राप्त करके संभरी- वृपभनन्दी हुए हैं। यहां नन्दनन्दीके शिष्यों में अपने स्थानको चले गये थे। उन्हीं मुनिराजने वृपभनन्दी- पूर्ववर्ती दो गुरुभाईयों श्रीकीर्ति और श्रीनन्दीका के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका इस ग्रन्थ- नामोल्लेख किया गया है, जो पूर्वदीक्षित में अनुसरण किया गया है, ऐसा ग्रन्थके निम्न होनेसे गुरुकोटि में स्थित हैं, और अपने उत्तरवर्ती प्रशस्ति-वाक्योंसे जाना जाता है: एक गुरुभाई 'हर्पनन्दी'का अनुज-रूपमें उल्लेख "मान्याखेटे मंजूषेक्षी सैद्धान्तः सिद्धभूषणः । किया है, जिसने इस ग्रन्थकी सुन्दर प्रतिलिपि लिख सुजीर्णा पुस्तिका जैनां प्रार्थ्याप्य संभरी गतः ॥३॥ कर तय्यार की थी। इस तरह प्रशम्तिमें श्रीनंदनंदी श्रीकोंडकुदनामांकां जीतोपदेशदीपिकां । मुनिराजके, जिन्हें शास्त्रार्थज्ञ, पंकधारी, तपांक, व्याख्याता मदुहितार्थेन मयाप्युक्ता यथार्थतः ॥३॥ सिद्धांतज्ञ, सेव्य और गणेश जैसे विशेषणोंके साथ सद्गुरोः सदुपदेशेन कृता वृपभनन्दिना । स्मृत किया है, चार शिष्योंका उल्लेख मिलता है; जीतादिमारसंक्षेपो नंद्यादाचंदुतारकं ॥३६॥" परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य 'गुरुदासाचार्य' भी इन पद्योंके बाद ग्रन्थकारने एक पदामें, अपनी रहे हैं, जिन्हें ग्रंथकी आदिमें निम्नवाक्यके द्वारा मन्दबुद्धिादिका उल्लेख करते हुए, रचनामें जो स्मृत किया गया है:दोष रह गया हो उसके संशोधनकी प्रार्थना की है "श्रीनंदनंदिवसः श्रीनंदिगुरुपदाब्ज-षट्चरणः।। और तदनन्नर अपनी गुरुपरम्परादिका जो उल्लेख श्रीगुरुदासो नंद्यातीचणमतिः श्रीसरस्वतीसूनुः ॥२॥" किया है वह इस प्रकार है: इस वाक्यमें गुरुदासको स्पष्टरूपसे श्रीनंद: पुरतः । चर्याधुर्यों रुक्षाचार्यों रुक्षयात्कर्मभी। नन्दीका 'वत्स' (शिष्य) बतलाया है, साथ ही यह शिप्यो रत्नी रामनंदी लक्षणासूणचक्षुः । भी सूचित किया है कि वे श्रीनन्दिगुरुके चरणअंतेवासी शास्त्रार्थज्ञः पंकधारी तपांकः कमलोंके भ्रमर थे, और इससे यह जाना जाता है सिद्धांतज्ञः सेग्योस्य स्यात् नंदनंदी गणेशः॥३८॥ कि नन्दनन्दीके शिष्यों में जिन श्रीनन्दीका प्रशस्तिमें श्रीकीर्तिः स शिप्यो दक्षः दुःख (स)मे विदी (१) उल्लेख है और जिन्हें जोत(प्रायश्चित्त)शास्त्रमें तस्य भ्राता श्रीनंदी ध्यानजीताविदग्धः विदग्ध तथा सिद्धान्तज्ञ लिखा है वे गुरुदाससे पूर्वसिद्धांतज्ञस्तस्य भ्राता वृषभनंदी समीर्य वर्ती बड़े गुरुभाईके रूप में हुए हैं, वृपभनन्दी गुरुदासजीताद्यर्थ श्रीकोंडकुदीयं जीतसारांबुपायी ॥३॥ से भी उत्तरवर्ती शिष्य हैं। यहाँ गुरुदासको अनुजहर्षनंदिना सुलिख्य जीत 'तीक्ष्णमति' तथा सरस्वतीसुनु' लिखा है और इससारशास्त्रमुज्वलोतं ध्वाजापते । से पूर्ववर्ती पद्यमें उनके लिये विशिष्ट गुणरलभू जैसे वृषभनंदि कोंडकुद-वंश-कोटि विशेषणपदका प्रयोग किया गया है। साथही, ग्रन्थवासिभानुभवनिस्तमसायते । कर्तृत्वका उल्लेख करते हुए प्रायश्चित्त-विषयक ग्रंथजगति भव्यजीवलग्नघातिकर्म कर्ताओंकी परम्पराको उस वक्त उनतक ही सीमित वादिदर्पभंजिशुप्कपंडितायते। किया है; जैसाकि ग्रंथके निम्न वाक्यसे प्रकट हैविमलबोधवीरवाक्यदुग्धवाधि तीर्थकृद्गणभृत्कर्ता तच्छिप्याचयतः क्रमात् । निर्जरद्धिमस्य सूरिहंसायते ॥४०॥ यावच्द्रीगुरुदासोथ विशिष्टगुणरत्नभूः ॥४॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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