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________________ ०७२] अनेकान्त [वर्ष १४ ऐसी विचारधाराएँ भी विद्यमान थीं जो कलाको यथार्थवाद-आहार, निद्रा, भय और मैथुन कल्पनामूलक मानकर 'कला कलाके लिये' के सिद्धान्त ये प्राणीमात्र की मल वृत्तियाँ मनुष्य में भी विद्यमान का पोषण करती थीं। इनमें फ्रायडका स्वप्नसिद्धांत हैं। उसकी शेष उदात्त वृत्तियाँ तो सभ्यता प्रसूत है। कांचेका अभिव्यंजनावाद तथा यथार्थवाद प्रमुख है। अतः मनुष्यकी साहित्यिक कृतियों में उसकी मूल फ्रायडका स्वप्नसिद्धान्त-फ्रायडके मता- वृत्तियोंका साकार होना स्वाभाविक ही है। यह नुसार मनुष्य जिन-जिन वस्तुओंको इस जगतमें प्राप्त मान्यता भी पूर्णतया सुस्थित नहीं है। मानवक नहीं कर पाता, उन्हें वह स्वप्न में प्राप्त करता है। विवेक शील प्राणी होनेके कारण वह उपरोक्त साहित्यका मूल आधार कल्पना है और मनुष्यकी स्वाभाविक पाशव वृत्तियों पर नियंत्रण रखता है। अवरुद्ध वासनाओंकी पृत्ति काल्पनिक जगतमें होती उसे लोक कल्याणकी भावनासे प्रेरणा मिलती है है अतः साहित्यमें उनका चित्रण स्वाभाविक है। जिसका आधार सदाचार हे । अतः उसकी कृतियोंप्रत्येक साहित्यमें शृगार भावनाका प्राधान्य इसी में सभ्यता जनित सदाचार सम्बधी उदात्त कृतियाँ कारणसे है। उसकी प्रगतिके साथ आती ही रहती हैं। क्योंकि इस सिद्धान्तका पर्याप्त आलोचन-प्रत्यालोचन कला सभ्यताका प्रतीक है। पाशव वृत्तियोंसे उसका हुआ तथा पूर्ण परिनिरीक्षाके परिणामस्वरूप यह निरन्तर संघर्ष सभ्यता एवं प्रगातका द्योतक है। सिद्धान्त भ्रमपूर्ण पाया गया। संसारकी अबतककी "मनुष्य हृदयमें अनुभव करता है और मस्तिष्कसे श्रेष्ठ कलाकृतियाँ अधिकांशतः विवेकवान और मनन करता है। अतः हृदय और मस्तिष्कके संयोग श्राचार निष्ठ पुरुषोंकी देन हैं। कलाकारकी आत्मा से प्रसत कलाकृति जीवनसे दूर कैसे रह सकती है महान होती है। लोककल्याणकी भावनासे उसे प्रेरणा और जीवनसे प्रथक उसका मूल्यभी क्या होगा ?" मिलती हैं। कलाकारका व्यक्तित्व असाधारण होता अतः यह दृष्टिकोण भी सर्वथा एकांगी और है कलाकृतिका प्रणयन करते समय लोक मंगलकी अपूर्ण है। भावनाही उसकी प्रेरक शक्ति होती है । अतः उसकी इन तीनों मतोंके विपरीत हम यह देखते हैं कि कलाकृतिको देखकर ही उसके वास्तविक और पूर्ण अत्यन्त प्राचीनकालसे संसारके प्रत्येक वाङ्गमयमें कवित्वका अनुमान नहीं किया जा सकता। यह कलाको उपयोगिताकी कसौटी पर कसा जाता रहा सिद्धान्त एकांगी है। है। भारतीय मनीषियों के अनुसार कला जीवनका अभिव्यंजनावाद-क्रोचे केवल अभिव्य- एक अभिन्न अंग माना जाता रहा है तथा कला क्तिको ही कला मानता है। वस्तुका उसकी दृष्टिमें उनके लिये जीवनकी कलात्मक अभिव्यक्ति रही है। कोई मूल्य नहीं । किन्तु यह मान्यता भी सुसंगत अतः साहित्यकार अथवा कलाकार 'कान्ता सम्मित प्रतीत नहीं होती। वास्तव में साहित्यके दोनों पक्षों- उपदेश देने वाला कहा गया है कलाकारका उद्देश्य भाव-पक्ष और कलापक्ष मेंसे भावपक्षका सम्बन्ध समाजके अधार स्वरूप सदाचारका कलात्मक भाव या अनुभतिसे तथा कलापक्षका सम्बन्ध इसकी स्वरूप उपस्थित कर समाजमें सत्के प्रति आसक्ति अभिव्यक्तिकी रोनिविशेषसे है। अतः अनभति और असत् और विषमताके प्रति विरक्ति उत्पन्न और अभिव्यक्ति अर्थात मध्यपक्ष और कलापक्ष करना है। अतः कला और प्राचारका सम्बन्ध दोनों ही अनिवार्यतः सम्बद्ध हैं। अभिव्यक्तिका नैसगिक-सा हो गया है। मम्बन्ध जोवनसे होने के कारण उसमें जीवनका पाश्चात्य विद्वान भाव पक्षके वजाय कला पक्ष प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति तो पर अधिक जोर देते रहे हैं किन्तु अब तो उन पर साधन या आवरणमात्र है जिसका आधार भाव भी इस विचार धाराका प्रभाव पड़ा है। एजिल्सके या अनुभूति ही है । अतः यह मत भी संगत नहीं मतानुसार साहित्यमें कही हई बात आकर्षक हो। ठहरता। यह मिद्धान्त भी एकांगी है। किमचंद्रभी उसी मतका समर्थन करते हैं। उनके
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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