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________________ २४६] अनेकान्त [वर्ष १४ जसु तणियकित्ति गय दस दिसासु, बामेय थल्हा जिण भत्ति सुत्तामु, जो दितु ण जाणइ सइ सदासु । तें भणिउं का इक्क दिय इम्मि सिरिधामु । जसु गुण कित्तणु कइयण कुणंति, जियणाह कम मूलि सिरु थाइ थिर रातु, अथवरउ बंदियण बिरु थुण ति । अक्खेह णिय काज सिरिमंतु सु-महंतु । जो गुण-दोसई जाणइं वियारु, भो पंडिया लद्ध वर कब्व-कय-सत्ति, जो परणारी-रह-णिग्वियारु। श्रणवरय पइंविहिय आजम्म जिणभत्ति जो स्यणत्तय-भूसिय-सरीरु, भव-दुह-तरंगाल-सायर-तरंडस्स, पडिवएण-वयण धुर धरण धीरु । एवं महिय रहणाहु गुणमणि करंडस्स । रेहह थोल्हाणामेण साहु, बहुभेय दु-कम्मारि-इय जेण, गुरुभत्ति गाविय तिश्लोक याहु । परिधविय भन्वयण दयधम्म अमिएण। तस्साणुय अवरुवि मल्लिदासु, छंडवि उण तव तिब्व दित्ती दिणंदस्स, को वरिणवि सक्कइ गुण-सहासु । पाइडहि वर कन्बु संभव-जिणिदस्स । जिणु कुंथुदासुम भाइ, तं णिसुणि विभासइ सरि विसरासह तेजपालु जयमि तु बहु । जिण पुज्ज पुरंदर गुण विहाइ । तव-वय कप-उज्जमु पालिय संजमु अवहत्थिय गिहदंड दुहु(?)।६ ता भणई थील्हु ते धरणवंत, भो णिसुणि थोल्ह वर सुद्धवंस, कुल-बल-लच्छी-हर याणवंत । णिय-कुल-कमलायर रायहंस । प्रणवरउ भमह जणि जगि जाहं कित्ति, मणिमलिण वि दुस्समु कालुएहु, धवलंती सयरापर घरत्ति। दुय माण विवज्जिउ दुक्ख-गेहु। ता पुणु हवेइ सुकहत्तणेण, हर हरवइ एवहि धम्महीण, अहवा सुहि पुत्त सुकिनणेण । बहु पावयम्म विहवेण खीण। घणु दित कित्ति पसरेड लोह, जो जो णरु दीसय सो दु मित्तु , वि दिज्जइ तो जस-हाणि होह । किंह अत्थि पयइ मा चित्त । अहं किं पुत्त धणुहम्मि जाम, जिण संभवहो चार एम, कित्तणु विहाइ धरणियलि ताम । णायण्णु कहवि कहमि केम । सुकाइत जा गिरि-सरि-धरत्ति, ससि सूरि मेरु णक्खत्त पंति। इस सभव-जिणचरिए सावय-विहाणफल भरिए पडियसुकरच वि पसरवि भवियणम्मि, सिरितेजपालविरहए सज्जणसंदोह-मणअणुमरिणए सिरिसंसग्गे रजिय सज्जणम्मि । महाभब्व थील्हा सवण-भृसणे सिरिविमलवाहणिव-धम्मश्रह सावय कुल तो महु पहाणु, सवण-वएणणो णाम पढमो परिच्छेना समत्तो ॥१॥ लेहावमि संभव-जिण पुराणु । अन्तिम भागएतहिं गुण सायर जण तोल्लायर जिय सासण भर णिग्वहणु अयरवाल कुल-णहि दिवसाहिउ, सावय-वय पालउ सुद्ध सुहालउ दीणाणाह रोस-हरणु ॥१॥ मीतणु गोत्तु गुणेण य साहिउ। धम्मेण तव पुत्तु समसब सुहयारि, णावडिकुल देवय संतुहर, चाएण कण्णु बल-रूबेण कंसारि । धण...''घणधार पउट्ठ । समदिदिठ वर वंसि णियगोशि गहि-चंदु, सोता संघ हिउ चिरु हुँतड, जिणधम्मवर मुक्ति सावय मणाणंदु । णिय विढत्तु मिरिहलु भुजंता । लखमदेव सोमव्व सुष्युत्तु महि धण्णु, चडविह संघभत्ति जे दाविय, महादेवही माइवर अंगि उप्पएणु । जे जिणबिंब पाठ कराविय।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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