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________________ किरण] जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह - - तहो सीसु सेय-बच्छी-शिवासु, अठहदवसि दुग्गाह गाहि (2) जसकित्ति जिणायम पह-पयासु । शामें पसिद्ध हाउत्साहि । वहो पट्टि महामुहि मलयाकित्ति, पञ्चत बासि मंडलु असेसु, उद्धरिय जेश पारित वित्ति। शियलि सहेविणु पुष्वदेसु । तहो सीसु णमंसमि शय-सिरेण, तिहुअणि ण कोवि जे समु पर्यड, परमप्पड साइड पर जेश। दक्खिणदिसि पेसिट शियय दंड। दो पढम माण दूरीकएण, पच्छिम दिसि परवड जे जियंति, दो काहिं थियम दिए जेण । सेवंति चार अवसरु शियति । गुणभ महामह महमुणीसु, उत्तर दिस गरवा मुइ वि दप्पु, जिएसंगहो मंडणु पंचमीसु। माणंति प्राण डोक्ती कप्पु । जे केवि भन्च कंदोह-वंद, किं किं गुण वरणमि पयड तासु, पणवेप्पिशु तह परविंदु निंद । शं तोयणिहिम्य गंभीरमासु । मुणि गुणकित्तिमहारउ तच्च वियारउसव्व सुहकर विगयमनु मण इच्छिय-यह कप्परक्यु, मह पय पथवतहो भत्ति कुणंतहो कम्व-सत्ति संभवड फलु ॥२॥ अपदिणु जण वयहो विसुतु दुक्तु । इह इत्थु दीवि मारहि पसिद्ध, तहिं कुल गयणंगहि सियपयंगु। यामेण सिरिपहु सिरि-समिछु । सम्मत्तवि-दूसण-भूसियंगु। दुग्गु वि सुरम्मु जण जणिय-राउ, सिरि अयरवाल कुल कमल-मिनु, परिहा परियरियड दोहकाउ । कुलदेवि एवड मित्ताण गोतु । गोउर सिर कत्नसाहय पयंगु, इह लखमदेव बामेय पासि, शाणा बच्छिए प्रालिंगि पंगु । अह सिम्मलयर-गुण-रयानासि । जहि-जण गयणादिराई, वाल्हाही णा तासु मज्ज, मुणि-यश-गण-मंडिय-मंदिराई। सीखाहरणालंकिय सलज्ज । सोहंति गउर-बर कइ-मणहराई, तहो पाम पुतु जब-गयाराम, मणि-जडिय किवादई सुंदराई। हुभ प्रारक्खिय तस जीव गामु। जहि वसहिं महायण चुय-पमाय, शामें खिउसी जब-जक्षिय-काम, पर-रमणि परम्मुह मुक्क माय । वोयड होलू सुपसिद्ध सामु। जहिं समय करडि घट घड हडंति, तहो वीह बरंगण ति-अवसार, पडिसह दिसि विदिसा फुटंति । सामेण महादिव्ही सुनार । नहिं पवण-गमन धाविय तुरंग, तेहिमि दोहिमि सुहलक्खाहिं मजहिं सोहा सेट्टि पर। एवं वारिपासि भंगुर-तरंग। जिम णंद सुर्णदहि मणहरहि रिसहु जिसरु तिजब पहु॥४॥ जो भूसिड णेत-सुहावणेहि, तह दिवही पुत् चयारि चारु, सग्यब्व धवल-गोहण गोहिं। वियत्तवि वि सिज्जिय-धीर-माह । मुरयण वि समीहहि जहिं सजम्मु, दिउसी शामें जण-अविष-सेट, मेल्लेविणु सग्गालउ सुरम्मु । गुरु-मसिए संबड-अहह दे । रिड-पीस-विहहणु पविउलु पट्टयु सिरिपह यामे रवि-विहि। तस्सागुड बंधड अवरु जाड, वहिणि सह महिवह रूवे सुरवह इतरु परहं पयंदु सिहि ॥३ विण्याहरणावं कियर कार। किं वयमि अह रवि-सरिस-तेड, जो दितु दाशु बंदीयवाई, महि-मलि पयही कय-विवेड । विरए विमासु खहरिस-मसाई।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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