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________________ किरण २] पश्चात्ताप और इस प्रकार उन्होंने गृहस्थोंके दिन पर दिन गिरते साथ वर्णन की हैं। वहाँ बतलाया गया है कि गृहस्थ हुए आचारको बनाये रखनेका एक प्रशस्त प्रयास किया। गुणानुरागसे प्रेरित होकर संयमी जनोंके ऊपर आई अन्तमें एक और भी बातकी ओर पाठकोंका ध्यान हुई आपत्तियोंको दूर करे, रोगी और चर्यासे क्लान्त आकर्षित करना आवश्यक है कि जहाँ अन्य प्राचार्यो- साधुओंकी पग-चम्पी करे, सेवा-टहल और सारने श्रावकका बारहवाँ व्रत 'अतिथिसंविभाग' और संभाल कर सर्व प्रकारसे उनकी वैयावृत्य करे । इसके छठा आवश्यक 'दान' बतलाया, वहाँ समन्तभद्र अतिरिक्त उन्होंने 'जिन-पूजन' को भी वैयावृत्य के ही स्वामीने उन दोनोंके स्थानपर 'वैयावृत्य' नामके अन्तर्गत करके श्रावकाचारोमें सर्वप्रथम नित्य देवव्रतका विधान किया है। इस व्रतका स्वरूप-निरूपण पूजाका विशेषरूपमे विधान किया है । इस प्रकार काले उन्होंने 'अतिथिसंविभाग' और 'दान' का प्रावकके इस बारहवें व्रतका 'वैयावृत्त्य' नाम देकर समावेश तो कर ही लिया है, साथ ही उसके सम्बन्ध- समन्तभद्राचार्यने इम ब्रतको और भी व्यापक वं में उन्होंने कुछ और भी आवश्यक बातें विस्तारके महत्वपूर्ण बना दिया है। पौराणिक कथा पश्चात्ताप (पं0 जयन्तीप्रसादजी शास्त्री) आज कामलता मदास थी। रत्नोंके उस हारको विद्युतके मामने सदा विकसित रहने वाला देखकर अपनी हार मान रही थी, जीवन बेकार सा आज मुरझा रहा था, उससे न रहा गया। बोलामालूम पड़ने लगा। हर समय हार पानेकी चिन्नामें प्रिये, उदास क्यों हो? मेरे रहते हुए इतनी पदासीनता सब कुछ भूल गयी थी । मानो, उस हारने अपनी बोलो-क्या चाहती हो, अपनी प्राणप्यारीके लिये मैं चमकके साथ उमको चमकको खींच लिया हो। फिर क्या नहीं कर सकता ? बोलो-देरी न करो बोलो। भी एक आशा थी,भरोसा था अपने प्रेमी पर । आंखों सुन्दरीके मनका भार कुछ हल्का हुमा, सोचने जार था उसके भाने का । बार बार उस पथको लगी। नारी नरको जब जैसा चाहे वैसा बना सकती देखती थी, उठ उठ कर घूमती थी, पर चैन न था। है। मानव कितना भोला प्राणी है ? नहीं, मैं इसको लहरों की भाँति एक पर एक विकल्प माता और भोलापन नहीं, विषयान्धता कहूंगी । यह जानता विलीन हो जाता था, पर अन्त न था। हुमा भी कि मुझे पैसोंसे प्यार है मनुष्यसे नहीं, फिर अचानक ही पद-चाप सुनाई दिया, व्याकुल मन भी मेरे लिये सब कुछ करनेको तैयार । इस प्रकार के फिर अपने स्थान पर लौट आया, परन्तु उदासीनता विचार क्षणमें पाए और चले गये। कुछ संभल और बढ़ गई । सब कुछ कहनेकी इच्छा रखते हुए भी कर भौहें चढ़ाकर बोली- मेरे लिये सब कुछ कर कुछ न कह पाई, एक बार उसको देखकर फिर देखा सकते हो, इसमें कितना झूठ और कितना सच है ? मैं भी नहीं और देखा भी तो अधिक देर न देख सकी। तो अब तक इसे बनावटी प्रेम ही समझती हैं। कहाँ बहुत सी बातें कहनेको सोच रही थी, सोचना विद्युत ऐसा सुनकर पुतलेकी भांति खड़ा का अब भी जारी था पर कह न सकी । उसको उस समय खड़ा रह गया। यह सब उसे सपना दिखाई दिया देखकर ऐसा मालूम पड़ता था, मानो, सारी बातें हवा- जो आँख खोलनेके बाद कुछ भी नहीं रहता,फिर भी के रूप में परिणित होकर ब्लैडरमें भर गई हों। विचार करने लगा, शायद मेरी ओरसे कुछ गलती
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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