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________________ २४२ अनेकान्त [वष १४ गूदा याने फलका गर्भ भागा प्रस्थिका अर्थ फलके बीज है। पर यह प्राज्ञा दी किदशवकालिक (श्वे. सूत्र) में वर्णित- मेंद्रियग्राममें रेवतीके घर जानो। उसने मेरे रोगबहुमठियं पुग्गलं प्रतिनिसं बहुकार्य प्रादि वाक्योंमें शमनार्थ जो दो कपोतफल समूल-पत्र बनाकर रखे हैं, वे बहुत 'अस्थि' वाले पुद्गल अर्थात् फल, बहुत कांटे वाले न लाना । कारण वे मेरे निमित्तसे बनाये हैं। उनके खाने में फल प्रादिके खानेका निषेध किया है। यहां अस्थि शब्द उहिष्ट दोष होगा। तुम उमसे 'बिडारी कन्दके द्वारा कृत बीजका वाचक है तथापि तोकमें साधारणतया अस्थि नाम यानी उसकी भावना दिए हुए शाल्मली वृक्षके फलके हीका है। गूदेको लाना, जो उसके पास पहलेसे तैयार रक्खा है। इस प्रकारके शब्दों के प्रयोग ग्रंथकारोंने किये हैं। क्यों जिससे उद्दिष्टका दोष न भावे । किए ? इसका भी एक कारण है। उस प्राणीके शरीरमें यह उस प्रकरणका संगतार्थ है। पर कौशाम्बीजीने जो स्थान चमड़ा, रक, मांस और हड़ीका है, फलके निर्माण अपने प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिए जानबूझ कर उन शब्दोंमें भी उसी प्रकार छाल, रस, गूदा और बीजका भी है। के अर्थका अनर्थ कर भ० महावीर और जैन लोगोको रचना प्राणि-जगत्में करीब-करीब समान पाई जाती है। लांछित करनेका घृणित एवं निंद्य प्रयास किया है। उस लिहाजसे अनेक स्थानोंमें न केवल श्वेताम्बर जैन जैनोंके सभा सम्प्रदायवालोंका इस समय यह परम आगमों में बल्कि आयुर्वेदके प्रधानतम ग्रन्थोंमें सर्वत्र ऐसे कर्तव्य है कि वे एक स्वरसे उक्त अंशका प्रबल विरोधकर शब्दोंका प्रयोग पाया जाता है। उसे उस पुस्तकमेंसे निकाल देनेके लिए भारत सरकारके उन सभी शब्दके अर्थको विचार करने पर फलितार्थ शिक्षा विभागको बाध्य करें। अन्यथा यह पुस्तक भविष्यमें यह होता है कि-'गोशालकके द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने अहिंसाको परम धर्म मानने वाले जैनियोंका मुख ही पर भ. महावीरको पित्तज्वर-दाह आदि रोग होगया और कलंकित नहीं करेगी, अपितु जैन संस्कृतिको ही समाप्त उसके दूर करनेके लिए उन्होंने सिंह नामक शिप्यकी प्रार्थना करने वाली सिद्ध होगी: पार्श्वनाथ वस्ति-शिलालेख दक्षिणभारत जैनकला, स्थापत्य और साहित्य, राजा, तस्य कुल वनिता राजमंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुनियों, भहारकों और त्रिवर्ग ससाधनसावधाना साध्वी शुभाकारयुतासुशीला श्रावकोंको धर्म-प्रेमकी गाथाओंसे गौरवान्वित है।वहांके जिनेन्द्रपादाम्बज भक्तियुक्ताश्रीचिकतायीति महाप्रसिद्धा विशाल मदिर मूर्तियां, गुफाएँ और कलात्मक अवशेष प्लवादेऽप्याश्विने शुक्ल दशम्यां गुरु वासरे जैनधर्मको गरिमाके प्रतीक हैं। यहां चामराजनगरकी कनकाचल-पार्वेश-पूजार्थ पच्च-पर्वसु । पार्श्वनाथ वस्तिके भव्य प्राङ्गणमें छप्पर पर मण्डपके मुनीनां नित्य दानार्थ शास्त्रदानाय सन्ततं, पाषाणपर निम्न शिलालेख उत्कीर्णित है जो शक वर्ष।१०३ चिक्क-तायीति विख्याता दत्तश्री किन्नरी पुरा॥ प्लव संवत्सरका है। वह पाठकोंकी जानकारीके लिए एपि- तयोः पुत्रः ग्राफिका कर्नाटिका जिल्द से नीचे दिया जाता है - विद्यासारस्सदाकारस्सुमना बन्ध-पोषकः । श्रीविद्यानन्द स्वामिनः ।चिकतायि गलु। हृदयः पूज्यो भिषग-राजस्तत्त्वशीलो विराजते । श्रीमदच्युत राजेन्द्राद् दीयमान सुतोवरः । ई.शामनद शक वर्ष ११०३ ने प्लव सं० श्रामदच्युत-वीरेन्द्र शिक्ययाख्या नृपानीः ॥? इस शिलालेखमें धरणी नामके वैद्यराजकी धर्मपत्नी तस्य भिषग्वरः । चिकतायीके द्वारा पंचपर्व दिनों में कनकाचलके पार्श्वनाथकी कमलन-कुल जातो जैन धर्माब्ज-भानु पूजा, मुनियोंके नित्य (आहार) दान और शास्त्र दानके विदित-सकल शास्त्रस्सद-बुध-स्तोम-सेव्यः। लिये किसारीपुरा नामका ग्राम उन शक संवत्की आश्विन मुनिजन पद भक्तो बन्धु-सत्कार-दक्षों। शुक्ला दशमी गुरुवारके दिन दानमें दिया गया है। धरणि-पवर-वैद्यो भाति पृथ्वीतलेऽस्मिन् ॥ -परमानन्द जैन
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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