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________________ किरण ] जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [२८१ - - - विरिण पमाण-एयण-जोवंती, परिहरिहि मण चिंतकरि भवणिरु कम्यु, दो-दह-णिय अंगई गोवंती॥ खलयण मा डरहिं भउ हरिउ मइ सम्बु । बे-णय कोमल पहिं चलंती, तो देविवयणेश पडिउ विमाणंदु, चउदह-पुन्बाहरण-धरती। तक्खणेण सयणाउ उदि ठड जि गय-संदु ।। ति-जय-चित्ति विन्ममु विहुणंती, दिसवहणियतोय पुणु तुट्ठ चित्तमि, भत्थ-पसत्थ-वयण-भासंती ॥ संपत्तु जिगोहि सुहगई णिमित्तम्मि । कुणय-विहंडणि संतावंती, पणवेवि जिणणाहु बहुविह विसंथुत्ति, णाणा-सह-दसण सोहंतो। मुणिपाय वंदेवि जाथक्कु जसमुत्ति ।। छंद-दुविह-भुयडाल-रवएणी, ता तम्मि खणिबंभ-वय-भार भारेण, वायरणंगु णाहि सुयवरणी॥ सिरि अइरवालंकवंसम्मि सारेण । जियमय-सुत्त-वत्थ-पंगुरणी, संसार तणु-भोय-णिग्विण्णचित्तण, सोल-महाकुल-हर-हर-धरणी। बरधम्म-माणामएणेव तित्तय ॥ दुविहालंकारेण पहाणी, सस्थत्थरयणोह-भूसिय-सदेहेण, होउ पसरण जिणेसहु वाणी॥ दहएग पडिमाण पालण स-णेहेण । सुयदेवि भडारी ति-जय पियारी दुरियवहारी सुद्धमइ । खेल्हाइ हाणेण एमिउण गुरुतेण, कइयण-यण-जणणी सुहफल-जणणा सा महु दिज्जउ विमलमई जसकित्तिविण्णात्तु मंडय गुणोहेण ।। संसारोवहि-पोय-प्रमाणा, भो मयण-दावग्गि-उल्हवण-वणदाण, विगय-दोस वे मुणिय पमाणा। संसार-जलरासि-उत्तार-वर-जाण । पाण-घउक्को जोय दिवायरु, अम्हा पसाएण भव-दुह-कयंतस्स, ससिपहजिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स ॥ थावर-तस सत्ताहं दयावर ॥ जे हुय गोयमु पमुह भडारा, काराविया मई जि गोवायले-तुंग, ते असेस पणविवि सरहारा । उबुचाविणामेण तित्यम्मि सुह-संग। ताई कमागय तव-तवियगो, आजाहिया हाण महु जणाण सुपवित, पिच्चब्भासिय-पवयणसंगो॥ जिणदेव मुणि पायगंधोवसिरसित्त ॥ भब्व-कमल-सर-बोह-पयंडो, दुल्लंभु गर-जम्मु महु जाइ इहु दिएणु, वंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो। संगहिवि जिण-दिक्ख मयणारि जिं छिएणु । तस्स पसाएं कन्वु पयासमि, तहि पढिय उवयारं कारणेण जिण-सुत्ति, चिर भवि-विहिउ असुह णिण्णासमि ॥ काराविया ताहि सुणिमित्त ससि-दित्ति ।। जह कह भवि मणुयत्तणु बम, कलि-कालु जिणधम्मधुर धारपूढस्स, देस-जाइ-कुल-वस-विसुदउ। तिजयालए सिहरि जस सुज्झरूढस्स । तं हेलइ विहलउ ण गमिज्जई, सिरि कमलसीहस्स संघाहिवस्सेव, सत्यभामे सहलो किज्जइं॥ सुसहायएणावि तं सिद्ध इह देव ।। गोवग्गिरि दुग्गमि शिवसंतउ, बहु सुहेण तहिं । जणणी उवयारहु पर-भवयारहु. हुवउ तस्स गिम्भार हउ । पणमंत गुरु-पाय पायडंतु जिण सुत्तु-महिं ॥३॥ एज्वहिं मुणि-पुगम बहु-सुय-संगम माहासमि णिरुविगय-भट। जिन-धम्म कम्मम्मि कय उज्जमो जाम, महु मणम्मि सल्लेक्कु पया, गिय गेह सयण यलि सुहि सुत्तु बहु ताम । तुम्ह पसाएं सोऊ हहह। सिविणंतरे ट्ठि सुयदेवि सुपसरण । चित्ति परम वइराउ धरितें पाहासए तुज्म (१) हठं जायसु पसरण । सु-तव-भारि विमाहु धारते॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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