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संस्कारोंका प्रभाव
(श्री पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) मनुष्य ही क्या, प्राणिमात्रके उपर उसके चारों ओरके दूसरा उदाहरण मास्टर मनहर का लीजिये-जो वातावरणका प्रभाव पड़ा करता है। फिर जो जीव जिस बचपन में ही संगीत और वाद्यकलामें निपुण हो गया था। प्रकारकी भावना निरन्तर करता रहता है, उसका तो असर उसकी बचपनमें प्रकट हुई प्रतिभा उसके पूर्वजन्मके संस्कारोंउस पर नियमसे होता ही है। इसी तथ्यको दृष्टिमें रख __ की आभारी है। तीर्थकरोंका जन्मसे ही तीन ज्ञानका धारी कर हमारे महर्षियोंने यह सुकि कही
होना पूर्वजन्मके संस्कारोंका ही तो फल है। किसी व्यकि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति। तादृशी।' विशेषमें हमें जो जन्म-जात विशेषता दृष्टिगोचर होती है,
अर्थात् जिस जीपकी जिस प्रकारकी भावना निरन्तर वह पूर्वजन्मके संस्कारोंका ही फल समझना चाहिये। रहती है, उसे उसी प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य- आज हम जो जैन कुलमें उत्पन्न हुए हैं और जन्मकी भावनाओंका प्रभाव उसके दैनिक ज वन पर स्पष्टतः कालसे ही हमारे भीतर जो मांस-मदिराके खान-पानके प्रति दृष्टिगोचर होता है । मनुष्य जिस प्रकारके विचारोंसे निरन्तर घृणा है, वह भी पूर्वजन्मके संस्कारोंका प्रभाव है। हम प्रोत-प्रोत रहेगा, उसका आहार-विहार और रहन-सहन भी निश्चयतः यह कह सकते हैं कि पूर्वजन्ममें हमारे भीतर वैसा ही हो जायगा। यही नहीं, मनुप्यके प्रतिक्षण बदलने मांस-मदिराके खान-पानके प्रति घृणाका भाव था और हम वाले विचारोंका भी असर उसके चेहरे पर साफ-साफ पूर्व भवमें ऐसे विचारोंसे श्रोत-प्रोत थे कि जन्मान्तरमें भी नजर आने लगता है। इसीलिये हमारे प्राचार्यो को कहना हमारा जन्म मद्य-मांस-भोजियोंके कुलमें न हो। उन पड़ा कि
विचारोंके संस्कारोंका ही यह प्रभाव है कि हमारा जन्म 'वक्त्रं वक्ति हिमानमम' अर्थात् मुख मनकी बातको व्यक्त कर देता है। प्रति
हमारी भावनाओंके अनुरूप ही निरामिष भोजियोंक कुलमें
हुअा। अब यदि वर्तमान भवमें भी हमारे उक्त संस्कार क्षण होने वाले इन मानसिक विचारोंका प्रभाव उसके वाचनिक और कायिक क्रियाओं पर भी पड़ता है। और उनके
उत्तरोत्तर दृढ़ होते जायेंगे और हमारे भीतर मद्य-मांस
सेवनके प्रति उत्कट घृणा मनमें बनी रहेगी, तो इतना द्वारा लोगोंके भले बुरे विचारोंका पता चलता है।
निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि हमारा भावी जन्म भाजके मनोविज्ञानने यह भले प्रकार प्रमाणित कर
भी निरामिष-भोजी उच्चकुल में ही होगा। यही बात दिया है कि विचारोंका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ा करता
रात्रिभोजनके विषयमें भी लागू है। पूर्व जन्ममें हमारे है। विचार जितने गहरे होंगे और प्रचुरतासे होंगे. अात्माके
भीतर रात्रिमें नहीं खानेके संस्कार पड़े, फलतः हम अनस्तऊपर उनका उतना ही दृढ संस्कार पड़ेगा। किसी भी प्रकारके विचारोंका संस्कार जितना दृढ़ होगा, उसका प्रभाव
मित-दिवा-भोजियोंके कुल में उत्पन्न हुए। पर यदि आज
हम देश-कालकी परिस्थितिसे या स्वयं प्रमादी बनकर मात्मा पर उतने ही अधिक काल तक रहता है। जिस
रात्रिमें भोजन करने लगे हैं और रात्रि-भोजनके प्रति हमारे प्रकार बचपनमें अभ्यस्त विद्या बुढ़ापे तक याद रहती है,
हृदयमें कोई घृणा नहीं रही है, केवल मांस-मदिराके खानउसी प्रकार बुढ़ापेमें या जीवनके अन्तमें पड़े हुए संस्कार
पानके प्रति ही घृणा रह गई है, तो कहा जा सकता है कि जन्मान्तरमें भी साथ जाते हैं और वहां पर वे जरा सा ।
इमारा भावी जन्म ऐसे कुलमें होगा-जहां पर कि मांसनिमित्त मिलने पर प्रकट हो जाते हैं। उदाहरणके तौर पर
मदिराका तो खान-पान नहीं है, किन्तु रात्रि-भोजनका हम बालशास्त्रीको ले सकते हैं। कहते हैं कि वे १२ वर्षकी
प्रचलन अवश्य है। इसी प्रकार भिन्न भिन्न संस्कारोंकी अवस्थामें ही वेद-वेदाङ्गके पारगामी हो गये थे। इतनी बात जानना चाहिए । छोटी अवस्थामें उनका वेद-वेदाङ्गमें पारगामी होना यह पूर्व जन्मकी घटनाओंका स्मरण होना भी रद संस्कारोंसिद्ध करता है कि वे इससे पहले भी मनुष्य थे और का ही फल है। इसलिये हमें अपने भीतर सदा अच्छे पठन-पाठन करते हुए ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके संस्कार डालना चाहिये, जिससे इस जन्ममें भी हमारा पठन-पाठनके संस्कार ज्योंके त्यों बने रहे, और इस भवमें उत्तरोत्तर विकास हो और आगामी भवमें भी हमारा जन्म वे समस्त संस्कार बहुत शीघ्र बालपनमें ही प्रकट होगये। उत्तम सुसंस्कृत कुलमें हो।