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________________ - - - किरण ] पीड़ित पशुओंकी चिकित्सा [२०७ भी उनका हमारे प्रति ऐमा निप्टर निर्दय व्यवहार क्यों? वैरागी हैं, उन्हें किसीका पक्षपात नहीं। अतः उन्हींकी घोड़ा बोला-भाई देवो न, मनुष्य मेरी ही पीठ पर चढ़ बात प्रमाणित माननी होगी। इमलिये सब मिल कर कर बनी शानसे इठलाते इतराते चलते हैं और मंग्राममें उनके चरणों के समीप शान्ति पूर्वक जा बैठे। महात्मा जव शत्रुओंको परास्त कर विजयी बनने हैं, पैदल चलने ध्यानसे उठे तो उन्होंने अपनी रामकहानी कही। समतावालोंको बडी घृणाकी दृषिसे देखते हैं. हमींस गौरव प्राप्त रस भोगी साधुने उन्हें सान्त्वना देते हुए बतलाया किकरते हैं यदि हम न हों तो उनको यह शान कैसे बढ़े ! देखो, भाई ! पूर्व जन्ममें तुम लोगोंने छल कपटकी फिर भी हमको ही कोडों-चाबुकोंसे पीटते हैं ? हमने उनका वृति रक्खी, बहुतसं पाप कर्म किये, लोगोंको धोखा दिया, श्राग्विर क्या अपराध किया है ? अन्याय किया, पर धन चुराया, विश्वासघात किया, मांसयह सुन कर गाय, भैंस भी बोल उठीं- हां, भय्या! भक्षण किया, अपना शीक पूरा करनेके लिये दूसरोंका देवो न, हमारे बच्चोंको दृध पीनेसे छुडा कर एक तरफ शिकार किया, निःकारण कौतुहलवश अनेक निरपराध खडा कर देते हैं जो उस दूधक पूरे हकदार हैं और जिनके पशु-पक्षियोंको सताया, तोते श्रादि जानवरोंको कैदमें-पिंजरेलिये हम दूध पिलाने बेलाकी घण्टोंकी प्रतीक्षा करती हैं में बन्द रक्खा, उसीके फल स्वरूप तुम्हें यहांसे दुख उन दुधमुंहे बच्चोंको घपीट कर एक तरफ बांध कर खडा उठाने पड़ रहे हैं यदि कुछ भी धर्मपाधन किया होता कर देते हैं और हमारा दृध दुई कर श्राप बड़े शौकसे तो आज मनुष्योंकी तरह तुम भी मुम्बी होते। अब भीदुध, चाय ग्बोया, रबद्री, रमगुल्ले चमचम आदि तरह हम पर्यायमें भी छल-कपट ईयां कलह, द्वेषका त्याग तरहकी स्वादिष्ट मिठाइयां बना कर खाने और मौज उडाने करो हिंमाको छोड़ो, समता भाव धारण करो जिससे हैं । भला कहो न, क्या बात है जो वे इतना अन्याय फिर तियंच जातिमें जन्म न हो और तज्जन्य दुःखोंसे हमारे प्रति करें और हम चुप चाप उसे सहन करते रहें, निवृत्ति हो। जैसे वे खाते पोते सोते हैं और अपनी मन्तानके प्रति मोह आज जो मनुष्य तुम पर अन्याचार कर रहे हैं और रखते हैं, वैसे ही हम भी तो करते हैं? असह्य यातनाएं दे रहे हैं, उसका फल अागामी जन्ममें यह मन कर एक-एक कर सभी बोल उठे--अरे उन्हें भी तुम्हारे ही समान भोगना पड़ेगा। इसलिए इस उन्हें भी तम्हारे ही समान भोगना पडेर भाई। मनुष्योंकी तो बात ही क्या, हमारे विना तो तीर्थ- कम लोग शान्ति पर्वक अपने उदय वन तुम लोग शान्ति पूर्वक अपने उदयमें पाये हुए कर्मों के करोंकी भी पहचान नहीं होती। जिनके चरण कमलोंमें फलको भोगो और पूर्वजन्ममें किये हुये दुष्कर्मोंकी निन्दा राजा, महाराजा इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती श्रादि सभी करो, तथा आगेके लिए प्रतिज्ञा करो कि हम अब भूल सिर झुकान हैं और जिनके चरणोंकी शरण प्राप्त करने में करके भी ऐसे पाप कर्म नहीं करेंगे। इस जन्ममें तुम अपना अहोभाग्य समझते हैं उन तीथंकरोंके सन्निकट रहते लोग यद्यपि असहाय हो, तथापि परस्परमें जितनी भी हए भी ये हमारी कद्र करना नहीं जानते। हम तो अब जिस किमी प्रकारसे एक दूसरेकी सहायता कर सको, उसे इस तरह संकटापन्न जीवन नही विताएँगे। अब तो करो। इससे तुम्हारे पाप कर्म जल्दी दूर हो जायेंगे और अन्यायका प्रतीकार करना ही होगा कि हम तो रात दिन मनुष्योंके अन्याचारोंसे तुम्हें मुक्ति मिल जावेगी। साधुकी दुख उठा और सब आनन्द उड़ा! प्रेमभरी मधुर वाणी सुन करके मभी पशु पक्षियोंकी भीतरी अब प्रश्न यह हुआ कि यह निर्णय कैसे हो? अन्तमें प्राग्वें खुल गई और उन्होंने अपने-अपने मनमें प्रतिज्ञा की सभीने कहा कि चलो, उपवनमें जो महान्मा ध्यान लगाये कि प्रागेसे हम किमीको भी नहीं सतायेंगे और जितनी बैठे हैं उनसे ही यह निर्णय करवायें। क्योंकि वे त्यागी बनेगी दूसरोंकी सहायता करेंगे।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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