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________________ वर्ष १४] कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ हुये इस ग्रन्थ को संवत् १५८० में प्रथम श्रावण गया। बेचारा अलि उसीमें मर गया ४ । इसी सुदि छठके दिन पूर्ण किया है | तरह यह अज्ञप्राणी अपने घ्राण इंद्रियके विषयमें पंचेन्द्रिय बेल मूढ़ हुआ अपने प्राण खो वैठता है। जब एक-एक कवि की तीसरी कृति पंचेन्द्रिय की बेल हैं यह इन्द्रियका विपय प्राणोंका उच्छेदक है तब पाँचों इन्द्रियोंके विपयोंमें आसक्त इस मानवकी क्या दशा खण्ड रचना भी कवि की बड़ी ही रसीली कृति है। होगी सो विचार देख। जिसमें जीवको पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे छुड़ाने का यत्न कविने अपनी इस रचनाको विक्रम संवत् १५८५ किया गया है। इस ग्रन्थमें एक एक इन्द्रियके विषयसे होने वाली हानि को दिखलाते हुये पाँचों इन्द्रियों में कातिक सुदि तेरसके दिन समाप्त किया है जैसा के विपयों से विरक्त होने का अच्छा उपाय बतलाया कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट है: "कवि घेल्ह सुतनु गुणगाऊँ, जगि प्रगट ठकुरमी नाउँ । गया है। यहाँ पाठकों की जानकारी के लिये घ्राण इन्द्रिय का एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है तिणि पणरह सेर पिच्यासी, कातिक सुदि तेरसि मासी । जिससे पाठक उक्त खण्ड रचना का आस्वाद कर करि वेलि सरस गुण गाया, चित चतुर पुरिस समझाया।" सके। नेमीसुरकी वेल "कमल पयट्टो भमर दिनि घाण गंध रस रूढ । ___ कविकी चतुर्थ कृति 'नेमीसुरकी वेल' है, जिसमें रमणि पडीतो संवुड्यौ नीमरि सक्यौ न मृदु । जैनियोंके २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और सो नीमरि सक्यौ न मूतौ प्रतिघ्राण गंधरस रूढी। राजुलके जीवनका परिचय और उनकी सुन्दर मनचित रयणि गवाई, रमलेस्सु आजि प्रवाई। संक्षिप्त झांकीका दिग्दर्शन मिलता है जो बड़ा ही जब ऊगै लौ रवि विमनी, सरवर विगसै लो कमली। शिक्षाप्रद है । कविकी इम रचनामें कोई समय नहीं तव नीसरिस्यौं यह बोदै रसुलेस्यों भाइ बहोडे । पाया जाता, सम्भवतः वह भी उक्त समयके भीतर चितति ति गजु इकु अायौ दिनकरु उगिया न पायौ। या बाद में रची गई होगी। जलु पैठि परोपर पीयौ नीमरत कमल पावडी लीयो । इस तरह कवि की इन चार रचनाओं का संक्षिप्त परिचय है। कविने अन्य क्या रचनाएँ गहि सूरि पवितलि चाप्यो अलि मारयो थरहर कंप्यौ । रची, यह कुछ मालूम नहीं होता, पर ज्ञात होता यह गंध विष वसि हुयो अलि अहल अग्वटी मूवो। अलि मरण करण दिटि दीजै अनि गयुनोभु नहि काजै ।" है कि कवि की अन्य कृतियाँ भी जरूर रहीं होगी। आशा है विद्वज्जन कवि की अन्य कृतियों का पता इसमें बतलाया गया है कि गंधलालुपी एक लगाकर उन्हें प्रकाश में लाने का यत्न करेंगे। भंवर कमलकी परागका रम लेता हुआ उममें इतना कवि की इन कृतियों की भाषा अपभ्रंश नहीं श्रासक्त हुआ कि कमल कलीसे समय पर निकलना , कही जा सकती; क्योंकि इनमें हिन्दी शब्दोंकी भूल गया, जब दिनास्त होनेसे कमलकली संपुट बहुलता के साथ कहीं कही कोई शब्द अपभ्रंश और (बन्द ) हा गई तब वह साचता है कि रात्रि व्यतीत देसी भापा का पाया जाता है। यह रचना पुरानी होगी. सूर्यादय होगा, यह कमल पुनः खिल जायगा, हिन्दी का विकमित रूप कहा जा सकता है। रचना तब मैं रस लेकर इसमें से निकल जाऊँगा। इतना साधारण होते हुये भी भावपूर्ण हैं, और अपने विचार ही कर रहा था, कि इतने में एक हाथी सरो सरा. विपय का स्पष्ट विवेचन करती है। वरमें जल पीने आया, और जल पीकर उस कमल x इस कथा का संक्षिप्त रूप निम्न पद्यमें अंकित है:नालको जड़से उखाड़कर पाँव तले दाब कर उसे खा रानिर्गमिप्यति भविष्यति सुप्रभातं । xहाथु व साह महत्ति महते, पहाचन्द गुरु उयएसंते। भावानु देश्यति हसिप्यति पंकजश्री। पणदह सइजि असीते अग्गल सावण मासि छठिखियगल | एतद् विचिंतयति कोष गते द्विरेके, मेघमालात कथा। हा, हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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