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________________ पं० भागचन्द्र जी जीवन-परिचय जैसो मुख देखो तेसो है भासत, पं० भागचन्द्रजी ईमागढ़ (ग्वालियर) के निवासी थे। जिम निर्मल दर्पन में। इनकी जात असताल और धर्म दिगम्बर जैन था । श्राप तुम कपाय विन परम शान्त हो, 'दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अभ्यापी थे। कहा जाता है कि तदपि दक्ष कर्मारि-इतनमें । आप श्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टमही अच्छे विद्वान थे। जैसे अति शीतल तुषार पुनि, संस्कृत और हिन्दी भाषामें अच्छी कविता करते थे। जैन जार देत द्रम भारि गहनमें। सिद्धान्तक मर्मज्ञ विद्वान थे। शास्त्र प्रवचन और तत्वचर्चा अब तुम रूप जथारथ पायो, में आपको विशेष रस आता था । श्राप मोनागिर (दनिया) अब इच्छा नहि अनकुमतनमें । क्षेत्र पर वार्षिक मेले समय यात्रार्थ जाते थे और वहां भागचन्द्र अमृतरस पीकर, फिरको चाहे विप निजमनमें। शास्त्र प्रवचन तत्वचर्चा और शंका समाधानादि द्वारा धर्मा अर्थात हे वीतराग जिन! आपकी महिमाका तीन मृतकी वर्षा भी किया करते थे। श्राप पदसंग्रहका बारीकीसे कास लोकमें कौन वर्णन कर सकता है क्योकि वह अनन्त है और अध्ययन करने पर आपके जीवनसम्बन्धमें अनेक बातोंके , दोषाभावक कारण अन्यन्त निर्मल है। हे स्वामिन् ' आपने जाननेका साधन प्राप्त हो जाता है और उससे अापके जीवन अपने उपयोगको-ज्ञान दर्शनरूप चैतन्य परिणतिकोपर पड़नेवाले प्रभावका भी सहज ही परिज्ञान परिलनित अपने ज्ञानानन्द निश्चल रूपमें गाल दिया है-उसीमें रमा होता है। आपको जैनधर्म में पूरी निष्ठा, भक्ति और जीवनमें दिया है-तन्मय कर दिया है, अतः वह उपयोग अब आचार-विचारके प्रवाहका यत्किंचित् दिग्दर्शन होता है। बाहर निकलनेमें सर्वथा असमर्थ है-वह प्रारम-प्रदेशों में जिनदर्शन इस तरह घुल गया है जिस तरह नमक पानीमें घुल जाता एक समय आप जिनालयमें जिनतिक समक्ष अपनी है। हे भगवन् ! अापक भक्त अपनी निष्काम भक्ति द्वारा दृष्टि लगाये हुए स्तुति करनमें तल्लीन थे शरीरकी क्रिया परम सुखी होते हैं किन्तु अापक गुणं कि निन्दक श्रभवजन निस्तब्ध थी; परन्तु वचनोस जिनगुणोंका वर्णन करते हुए स्वयं ही अपने कर्तव्यों द्वारा अनन्त दुःपक पात्र बनने हैं, कह रहे थे कि हे नाथ! श्राप धीतरग है। सारमें या किन्तु आपकी परम उदासीनता-राग द्वेषका अभाव रूप कौन पुरुष है जो आपकी महिमाका गुणगान कर सके। हे समता-परम वीतरागलाको प्रकट करती है, जैसा मुख होगा जिन ! अापक दीप और प्रापरणक विनारास अनन्त चतुष्टय वैमा ही दर्पणमें झलकना। दर्पणकी यह स्वच्छना है कि उसी तरह प्रकट हुए हैं जिस तरह मेव-पटलके विधटनसे उसमें रंगीन या विकृत यस्तु ज्यों की त्यों झलकती है। आकाश में सूर्यका प्रकाश प्रकट हो जाता है। इसी तरह प्रान्म-दर्पणमें भी वस्तु ज्यों की त्यों प्रतात होती है । हे जिनेन्द्र ! अापने कषाय मलको नष्ट कर दिया है। वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सकै को जन त्रिभुवनम् । अतः आपको आत्मा परम शान्त है, तो भी वह कशत्रुओं के विनाश करनेमें दक्ष है जिस तरह शोत ऋतुमें अति भीषण शीतल तुषार वृक्ष समूहको जलानेमें समर्थ होता है। निज उपयोग आपनै स्वामी, हे नाथ ! अब मुझे अापक यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति हुई है गाल दिया निश्चल आपनमें । इस कारण अब मुझे अन्य देवोंक देखनेकी जरा भी इच्छा है असमर्थ बाह्य निकसनको, नहीं है और यह ठीक भी है, ऐसा कौन मनुष्य होगा जो लवन घुला जैसे जीवन में । श्रमतको पीकर विषपानकी इच्छा करेगा। तुमरे भक्त परम सुख पावत, कामना परत अभक्त अनन्त दुखनमें । कविवर कहते हैं कि हे भगवन् ! मुझे श्रापकी भक्तिकी
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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