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हेमरी॥
भावना यदि कि
स्खलित
वर्ष १४
पं० भागचन्द्र जी तब तक आवश्यकता है जब तक मैं कर्मबन्धनसे न छुट हो रही है, अब मेरे अन्तरमें समता रस रूप मेघझरी बरस जाऊँ । मैं चाहता हूँ कि मेरी दृष्टि दोषवादमें (दूसरों के दोष रही है जिससे परपदार्थोकी चाह -पी अग्नि जो मुझे कहने में) न जाय, किन्तु मैं मौन रहूं और सभी प्राणियोंके निरन्तर सम्तापित करती थी और जो मुझे कुपथगामी बनाने प्रति मेरा व्यवहार आत्मीय जैसा हो, सबसे हित मित प्रिय में सहायक होती थी, वह सहज ही शान्त हो गई, अब वचन बोलू पावन पुरुषों के गुणोंका गान करूँ, और वीत- स्वात्मोत्थ उप निरंजन निराकुल पदसे मेरी प्रीति बढ़ रही राग भावकी अभिवृद्धि करनेमें समर्थ हो म । बाह्य दृष्टिले है, और मुझे अब दृढ़ निश्चय हो गया है कि मैं निश्चयसे परे होकर में अन्तरिटमें लीन रहे और चिरकाल तक स्वर. संसार-बन्धनको काटनेमें समर्थ हो जाऊँगा । जैसा कि कविपानन्दका पान करता रहूँ। हे प्रभो! यह वरदान मुझे वरके निम्न पद्यले प्रकट है :दीजिये । और मेरी बुद्धिको निर्मल बनानेमें सहायक हजिये। धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिन धुनि श्रवन परी।
कविवर सोचते हैं कि वास्तवमें निष्काम भक्रि कर्म- त्त्व प्रतीति भई अब मेरे, मिथ्या दृष्टि टरी॥ बन्धनको ढीला करनेमें उसी तरह समर्थ है जिस तरह जड़ते भिन्न खी चिन्मरति, चेतन स्वरस भरी। चन्दनके वृक्ष पर मोरके आने पर कूपमणमोक बन्धन ढीले अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, पर में सब परि हरी ।। होकर नीच विसकने लगते हैं। भावद्भक्रिमें लीन हा पाप गुन्य विधि बंध अवस्था भासी अति दुख भरी। मानव पाषाणकी प्रतिकृतिरूप उस प्रशान्त पारमतिमें अन- वातराग विज्ञान भावमय परिणति अति विस्तरी॥ न्त गुणोंक पिण्ड उस मूर्तिमान परमात्माके दिव्यरूपको
चाह-दाह विनसी वरसी पुनि समता मेघ झरी । देखता है उन्हींक गुणोंका चिन्तन-याराधन और मनन करता बाढी प्रीति निगकुल पदसों भागचन्द्र हमरी।। है, वह उसीमें तन्मय हो भक्तिरमका पान करता हुआ हर्षा- कवि की यह अन्तर्भावना यदि किसी कारण वश मलिन, तिरेकसे पुलकित हो उठना है। वह उसी प्रकार प्रमुदित स्खलित और विनष्ट न हुई तो वह दिन दूर नहीं जब वे होता है जैसे कोई रंक-गरीब व्यकि अमूल्य चिन्तामणि स्वातम रस में रमेंगे ही नहीं किन्तु अानन्द विभोर होकर रत्नको पाकर खुश होता है । जिसने भकि गंगामें स्नान कर स्वरूपानन्दी बन जायगे, अस्तु । निर्मलता प्राप्त की है उसकी सब अभिलपित बांछाएं पूरी एक दिन पंडित जी मामायिक से उटे, तब उनकी हो जाती हैं। कविवर कहते हैं कि मुझे जिम अविचल दृष्टि यकायक एक ऐस भोगी व्यकि पर पड़ी, जो भोगों में शिवधामक पानकी उत्कट अभिलापा थी वह अब अनायाम मस्त हो रहा था। उन्हें ही अपना सर्वस्व मान रहा था, पूरी हो रही है।
दिन भर स्त्री के ही पास बैठे रहना और भागों में अपने जिन-गिरा-स्तुति और स्वरूपकी झलक को खपा दना ही जिमका काम था, और अन्य किसी भी
कविवर कंवल जिनभन ही न थे किन्तु अापने काम में अपना समय ही नहीं लगाता था। उसे देखते ही जिनवाणीकी स्तुति करते हुए उसे मोहनधूलिको दबाने पंडित जी सहसा कह उठे मोहके उदयमें इस अज्ञानी वाली तथा क्रोधानल (क्रोधाग्नि) को बुझाने वाली जीव की परिणति दुख-दायक होती है, परन्तु यह जीव प्रकट किया है । भगवानकी वह पावन ध्वनि मुझे भ्रमवश सांसारिक विषयों में इतना तन्मय हो जाता है, बड़े भारी भाग्योदयसे प्राप्त हुई है इतना ही नहीं किन्तु कि अपने स्वरूपको भूल जाता है और पर पदार्थोंको बुधजन रूप केकीकल जिसे देखकर चित्तमें हर्षित होते हैं। अपनाता चला जाता है। पर पदार्थो का परिणमन क्योंकि वह वाणी मेरी तत्त्व प्रतीतिका कारण है, और उससे अपने आश्रित नहीं है यह उनकी प्रतिकूल परिणति को मेरी मिथ्या दृष्टि दूर हुई है। और उसके द्वारा ही मैंने दम्वकर अत्यन्त आकुलित होता है और रागादि विभाव स्वरससे परिपूर्ण चैतन्य रूप निज मूर्तिको जड़स भिन्न दखा भावोंका सेवन करता हुआ कर्म-बंध की परम्पराको बढ़ाता है, अनुभव किया है इससे ही परमें होने वाले अहंकार हुआ चला जाता है। यात्माक हितके कारण सम्यग्दर्शन, ममकार रूप बुद्धिका विनाश होता है, और अब पाप-पुण्य ज्ञान, वैराग्यकी ओर दृष्टि प्रसार कर भी नहीं देखता, रूप कर्मबन्ध व्यवस्था अत्यन्त दुःख-जनक प्रतिभासित हो किन्तु इन्द्रिय-विषयों के संग्रह और उनके भोगने में तत्पर रही है और वीतराग विज्ञानरूप प्रारमपरिणति सुखद प्रतीत रहता है । भोगोंस उस जरा भी ग्लानि नहीं होती है।