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________________ १६] अनेकान्त [वर्ग १४ और न यही विचार आता है कि बड़े बड़े महापुरुषों ने भावना है । ऐसा विचारते हुए कविवर स्वरूपमें निमग्न हो भव भोगों को भुगक समान जानकर उनका त्याग कर गए, उस समय उनकी मुद्रा बड़ी ही शान्त और निश्चल दिया और आत्म-पाधना द्वारा स्पद प्राप्त करने का प्रतीत होती थी। कुछ समयके बाद जब उनकी समाधि उद्यम किया है। परन्तु यह यह मोही जीव कितना अज्ञानी टूटी तब कविवर कहते हैं किहै, कि अपने स्वभावका परित्याग कर पर-पदार्थो में जो आत्मानुभवकी महत्ता इसकी जाति के नहीं है, इससे अत्यन्त भिन्न हैं उन्हें अपना मान रहा है । उनके वियोगमें दुःख और संयोग में सुग्व जब निज आतम अनुभव श्रावै, और कछ न सुहावै । सब रस नीरस हो जाय ततच्छिन,अक्ष-विषय नहि भावे मान रहा है। मैं भी जब अपनी पूर्व अवस्थाका विचार करता हूँ तो मुझे यह भान होता है कि हे प्रात्मन् ! तूने गोष्ठी कथा कौतूहल विघट, पुद्गल प्रोति नमाव ।।२। अपने ये दिन यों ही विना विवेक के खोये है। अनादि से राग द्वेष द्वय चाल पक्ष जुत मन पक्षी मर जावे ||३|| ही मोह मदिरा का पानकर चिर कालसे पर-पद में सोना ज्ञानान-द सुधारम उमगै, घट अन्तर न सभावै॥४॥ रहा है, किन्तु सुख कारक उस चिपिण्ड रूप आत्म पद भागचन्द ऐसे नुभवके हाथ जोरि सिा नाय ।।। की ओर झांक कर भी नहीं देखा, जो अनन्त गुणों का वास्तबमें स्वानुभवकी दशा विचित्र है वह किन्हीं पिण्ड है, बहिर्मुख होकर राग-द्वेषादि के द्वारा करूपी ज्ञानी पुरुपोंको प्राप्त होती है। उसमें अान्तरिक सुधारसका बीजों का वपन किया है, और उसके परिण माप सुख-दुख जो झरना बहता है वह आत्म-प्रदेशोंमें नहीं समाता । वह वचनका विषय भी नहीं है-वचनातीत है, उसमें सुदृष्टि सामग्री को देखकर चित्तमें हंमता-रोजा रहा हूँ। किन्तु को जो आनन्दानुभवन होता है वह कल्पनाके बाहिर की शुक्लध्यानके पवित्र जल-प्रवाहस कर्तरूप यात्रव-मल को वस्तु है। यद्यपि उसमें अान्म-प्रदेशोंका साक्षात्कार नहीं धोनेका कभी यत्न नहीं किया, और न कर्मावबक कारण होता किन्तु अन्तरमें जो विवेकरस शान्त और निश्चलभावों में परद्रव्योंकी चाहको ही रोकनेका प्रयत्न किया है, किन्तु : किन्तु उदित होता है, उसमें अात्म तोपका अमिट आनन्द निमग्न मूळ परिणामकी वृद्धि करने और विविध वस्तुयोंके मंकज है। क्योंकि उस समय मन वचन और शरीरकी क्रिया न करने में ही अमूल्य जीवनको गमा दिया है । यह कितने तीनों ही स्थिर अथवा निर्जीव सी होरही है । केवल ज्ञायक खेद की बात है! अब भाग्योदय से अपने स्वरूपका भान रस धीरे धीर थिरक रहा है । जो वचन अगोचर है। हुआ है, इस कारण अब मुझे यह संसार दुःखदायी और इन्द्रियों का विषय नहीं है, इसलिये उसमें आकुलताका शरीर काराग्रहके समान प्रतिभासित हो रहा है इतना ही भान नहीं होता, किन्तु उसके विघटते ही आत्माकी दशा नहीं किन्तु मुझे अपनी पूर्व अवस्थाका जब जब स्मरण कुछ और ही होजाती है। ज्ञानीकी यह सूक्ष्मदशा ही पाता है तब तब हृदय पश्चात्तापसे भर जाता है। अज्ञान । अवस्थामें होनेवाले पाप मेरे हृदयमें ग्लानि उत्पन्न करते उसकी यात्म जागृति अथवा स्वरूप-सावधानी की ओर संकेत करती है। हैं। ऐसी स्थितिमें स्व-पदका कैसे अनुभव हो सकता है ? इसमें कर्मकी वरजोरी कारण है। कर्मोदयमें मेरा ज्ञानीपन सेवा कार्यकहां चला जाता है, जिससे मैं अपने चिदानन्द स्वभावको ० भागचन्द्र जीने अपने जीवन में जो संवा कार्य किये, भूलकर परमें अपनत्वकी कल्पना करने लगता है। उन्होंने उसकी कोई सूची बनाई हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। किन्तु अब भाग्योदयसे जो स्वरूप में सावधानता प्राप्त हां, साहित्यिक सेवा कार्य भी उन्होंने अपनी धार्मिक भावनाहुई है. अन्तःस्वरूपका जो झलकाब हुआ है, अथवा स्त्र पदकी के अनुसार कियह र के अनुसार किये हैं । यद्यपि सत्तास्वरूपको पं० जीकी कृति पहिचान हुई है, वह स्थिर रहे, और कर्मकलंकसे उन्मुक बतलाया जाता है, परन्तु वह उन्हींकी कृति है, इसका निर्णय बतलाया जाता है, दोनेकी में अपनी hिim भण्डारोंकी पुरातन प्रतियोंको देखे बिना करना सम्भव नहीं है। 'महावीरा अष्टक' उनकी स्वतन्त्र संस्कृत रचना है। 2 देखो, पद संग्रहमें कविका निम्न पद जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वे हिन्दीके समान संस्कृत जे दिन तुम विवेक विन खोये। भाषा में सुन्दर पद्य रचना कर सकते थे। इसके अतिरिक
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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