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________________ किरण ६] राजमाता विजयाका वैराग्य पुष्पोंको लेकर आश्रमको गये। उन सबने राजमाताके पश्चात् माता सुनंदाकी भोर मुखकर महाराज बोले, चरणों पर पुष्प रख कर चरणोंकी पूजा की और इस तुमने मेरा पालन-पोषण किया, इससे यथार्थमें तुम ही मेरी प्रकार कहा माता हो। अब तक तुमने मुझे कभी भी कोई कष्ट नहीं 'पूज्य माताजी ! पहले मुझे आ.के समीप निवास दिया । अब तुमने संसारका तथा मेरा परित्याग कर दिया है। करनेका सौभाग्य नहीं मिला था। अब प्राशा थी कि विजय- यह तुमने मेरे प्रति करता का कार्य किया है। महाराजने के उपरान्त मैं आपके पास महल में रहूंगा। परन्तु मापने माता सुनंदाके समक्ष अपनी व्यथा इस भांति व्यक्त की, जिस संसारके राजकीय वैभवका परित्याग कर दिया । मेरी आपसे प्रकार घायल सिंहका बच्चा अपनी माताके समक्ष अपने एक प्रार्थना है कि आप कृपाकर नगर में निवास करें ताकि दुःखको प्रगट करता है। मैं आपके दर्शनका अनेक वार लाभ ले सकूँ।' यह सुनकर सुनंदा माताने कहा-तुम्हें पुरानी बातोंको ___ इस पर साध्वी राजमाताने कोई भी उत्तर न दिया। भूल जाना चाहिये । अपने पतिको मृत्यु होने पर मैं चुपवे मूर्तिकी तरह मौन रहीं। इस बीचमें साध्विकाओंकी चाप तुम्हारे पास रही आई। इस पर संसारने मुझे दोष अग्रणी पूज्य माता पाने कहा- इस साध्वीने कुछ भी दिया कि अपने मृत पतिके शोकको भूलकर मैं तुम्हारे राजउत्तर न दे जो मौन धारण किया। उसका कारण यह है कि महलमें राजकीय वैभवके साथ रही। अब जब स्वयं राजआप यह जान लें कि अब पुराने कौटुम्बिक संबंध समाप्त माताने राजमहलके वैभव तथा संपत्तिको नगण्य मान कोष हो चुके । आप पुराने संबंधोंको भूल जायं और तत्संबंधी दिया है और तापसाश्रममें प्रवेश किया है, तब मेरा राज्य भावनाओंका त्याग कर दें। महल में रहकर आनंद भोगना लोगोंके लिए विशेष लांछन इन स्पष्ट शब्दोंको सुनकर महाराज जीवंधर अपनी देनेका कारण होगा। क्या तुम यह चाहते हो कि लोग रानियों सहित दुःखसे सिसक-सिसक कर रोने लगे। महा- मेरी निंदा तथा अवहेलना करें। इन शब्दोंको कहकर माता राजने कहा, 'पूजनीया माता जी! मैं पुराने पुत्रभावको सुनंदाने जीवकको शांति दी और अपने महल में वापिस घोषित करते हुये तथा उसे पुनः दृढ़ करते हुये इस जाकर राजकीय कर्तव्य पालन करने को कहा। आश्रममें नहीं पाया हूँ। मेरी मुख्य भावना प्राश्रममें इसके पश्चात् साध्वी राजमाताने सुनंदादेवीके पुत्र आनेकी यह है कि मैं पूज्य जिनेन्द्रभन साध्वियोंका दर्शन नंदाक्ष्यसे इस प्रकार कहा, 'हमने संसारको छोड़कर तापकरूं और उनक साइसको भली प्रकार देखें जो जिनागममें साश्रममें प्रवेश किया है, इससे तुमको दुःख नहीं करना कथित आध्यात्मिक संयमका पालन कर रही हैं।' चाहिए। हम तुमको कभी नहीं भूलेंगी। हम तुम्हारा महाराजके इन शब्दोंको सुनकर सभी साध्वियोंका मन उज्वल भविष्य चाहती है।' सहानुभूतिसे द्रवित हो गया और उनने साध्वी राजमातासे इन शब्दोंको सुनकर वे सय पानंदित हुए। इसके सांत्वनाके कुछ शब्द कहनेका, यह कहते हुये, अनुरोध पश्चात् महाराज जीवंधरने साध्वियोंके आश्रम-निवासके किया कि भनको इस प्रकारका उत्तर देना उनकी श्रद्धा अनुरूप जीवनके प्रति प्रशंमाका भाव व्यक्त किया और पाश्रमसे और संयमके प्रतिकूल नहीं हैं। पाश्रमकी साध्वियोंके हम चलकर अपने राजप्रासादकी ओर गमन किया। रानियोंने प्रकार अनुरोध पर राजमाताने महाराजसे कहा, जो पवित्र भी मानासे आज्ञा लेकर महाराजका अनुगमन किया। धर्मकी आराधना कर रही हैं उनके दर्शन करनेका तुमने इसके अनंतर स्व. महाराज सत्यधरकी गुणवती एवं विश्वअपना भाव दर्शाया है ताकि लोगोंको मुक्रिपथमें लगानेकी विख्यात सौन्दर्य वाली महारानीने सारे जगत्को पानीके प्रेरणा दी जाय । हम भी इसी ध्येयकी प्राप्तिके हेतु संसार- बुलबुले सदृश सोचकर विश्वके समस्त पदार्थोंकी लालसाका का त्याग करके पवित्र पाश्रममें भाई हैं । इस पर महाराजने त्याग कर दिया और दृढ़तापूर्वक धर्मके मार्ग पर चलकर कहा-'पूजनीया माता जी! आपने मुझे अपने पुत्रके समान स्थिरतासे मनको संयममें लगाया, क्योंकि उसने अपने पोषण करनेका कष्ट नहीं उठाया, अतः आपको मेरा और मनमें यह धारणा कर ली थी कि निर्वाण-प्राप्तिका एक जगतका परित्याग करना उचित ही है। यही मार्ग है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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