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________________ ३१८ ] अनेकान्त [वर्ण १४ इसकी पुष्टि होती है । इस मंगल-गाथामें दिया हुआ हितार्थ उसकी व्याख्या की और तदनुसार वृषभनन्दीने 'सुयकेवली-भणियं' पद तो और भी अधिक महत्त्व-पूर्ण है। प्रस्तुत जीतसारसमुच्चयकी रचना की है। ये वृषभनन्दी इस पदके द्वारा प्रा. वृन्दकुन्द इस बातको बहुत अधिक नवीं शताब्दीके उत्तराद्ध में हुए हैं ऐसा श्री मुख्तार सा० ने जोरदार शब्दों में प्रकट कर रहे हैं कि मैं उसी समयपाहुड- उक्र परिचयमें मप्रमाण सिद्ध किया है। को कहूँगा, जिसे कि श्र तकेवलीने कहा है। उनके इस उन कथनसे यह अर्थ निकला कि आजसे ग्यारह सौ उल्लेखपे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रा० कुन्दकुन्द भद्र- वर्षके पूर्व प्रायश्चिन-विषयक एक अति प्राचीन ग्रन्थ मिला बाहु श्रुतकेवलीक सम्पर्क में रहे है। इसी प्रकार इसी समय- था, जो अति जीर्ण-शीर्ण दशामें एक पेटीके भीतर रखा सारकी नवीं और दशवीं गाथामें जो श्र तकेवलीका स्वरूप था और जो श्रा. कुन्दकुन्दका बनाया हुआ था। इससे भी दिया हुआ है वह भी उक्र कथनका ही पोषण करता है। श्रा० कुन्दकुन्दके प्रत्याख्यान पूर्वके वेत्ता होनेकी बात सिद्ध श्रागम-निरूपित उत्पादपूर्वके स्वरूपको देखते हुए होती है। पंचस्तिकायपाहुडको उसके अन्तर्गत माना जा सकता है। ऊपर जो कुन्दकुन्द-रचित अनेक पाहुडोंकी नामावली प्रवचनसारकी रचना यद्यपि अनेक पाहडोंकी आभारी प्रतीत दी है, उससे एक महत्वपूर्ण बात यह भी सिद्ध होती है होती है, तथापि स्याद्वादका प्ररूपण करने वाली, 'अस्थि कि कुन्दकुन्दने किसी भी नवीन नामसे किसी ग्रन्थकी त्ति य ात्थि ति य' आदि गाया 'यस्तिनास्तिप्रवाद रचना नहीं की है, किन्तु जो अंग और पूर्वके रूपमें श्रतनामक चौथे पूर्वकी याद दिलाती हैं। नियमसारके अन्तर्गत ज्ञान प्रवाहित होते हुए भी उत्तरोत्तर क्षीण हो रहा था, जो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, श्रालोचना और प्रायश्चित्त उसीका उन्होंने अपनी रचनायों में उपसंहार किया है। नामक अधिकार रचे गये हैं, उनका अाधार प्रत्याख्यान यही कारण है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ पूर्वगत पाहुडोंनामक नौवां पूर्व है ऐसा प्राभाय उन अधिकारों के अभ्याममे के नाम पर ज्यों की न्यों अकित हैं । और जिन रचनाओंमें मिलता है। अनेक अगों या पूर्वोका मार खींचा गया है, वे नियमसार, इसके अतिरिक्र से भी प्रमाण अब सामने आ रहे हैं, प्रवचनसार, श्रादिके रूपमें सारान्त नाम वाली है, जो यह जिनसे यह पता चलता है कि प्रा. कुन्दकन्दने प्रायश्चित्त प्रकट करती है कि श्रा. कुन्दकुन्द परमागमके बहुत बड़े विपयक कोई स्वतन्त्र अन्य भी रचा था । अनेकान्त वर्ष १४ ज्ञाता थे और उन्होंने ही भ. महावीरके प्रवचनोंका सार किरण १ में 'पुराने साहित्यकी खोज' स्तम्भके अन्तर्गत गाथाओंमें रच कर सर्वप्रथम श्रु नकी प्रतिष्ठा इस युगमें 'जीतमारसमुच्चय' नामक एक नवीन उपलब्ध ग्रन्थका यहाँ पर की है। हमारे इस कथनकी पुष्टि श्रवणबेल्गोलके परिचय दिया जा चुका है। उसके कर्ता उपभनन्दीनं उसक शिलालेम्बमें उत्कीर्ण निम्न श्लोकस भी होती है । यथासम्बन्धमें लिखा है वंद्या विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः मान्याखेटे मंजूपक्षी सैद्वान्तः सिद्धभूपणः । कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीति-विभूपिताशः । सुजीण पुस्तिका जेनी प्रार्थ्याप्य संभरी गतः ।। ३४ ।। यश्चारुचारणकराम्बुजचञ्चरीकश्राकाण्डकुन्दनामाङ्कां जीतोपदेशदीपिकाम । श्चक्र श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥ व्याख्या सा मद्धितार्थेन मयाप्युक्ता यथार्थतः ।।५॥ (श्रवणवेल्गोल, शिलालेख नं०१४) सद्-गुरोः सदुपदेशेन कृता वृपभनन्दिना । जिनकी कुन्द कुमुमकी प्रभाके समान शुभ्र एवं प्रिय जीतादिसारसंक्षेपो नंद्यादाचन्द्रतारकम् ।। ३६ ।। कीर्तिसे दिशाएँ विभूषित हैं-सब दिशाओं में जिनका अर्थात् सिदभूपण नामक एक सैद्धान्तिक मुनिने उज्ज्वल और मनोमोहक यश फैला हुआ है-, जो पशस्त मान्यखेट नगरमें श्री कोण्डकुन्दाचार्यके नामसे अकित चारणोंके-चारण ऋद्धिधारक महामुनियोंके-कर-कमलोंके जोनोपदेश दीपिका' नामकी एक अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण भ्रमर हैं और जिन्होंने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी-प्रागमशास्त्रकपुस्तिकाको एक मंजूपामें रखी हुई देखा उसे उन्होंने उसके प्रतिष्ठा की है, वे पवित्रामा कुम्दकुन्द स्वामी इस पृथ्वी पर स्वामीसे मांग करके प्राप्त किया और उसे लेकर संभरी किनसे वंदनीय नहीं हैं, अर्थात् सभीके द्वारा (सांभर) चले गये। उन्हीं मुनिराजने वृषभनन्दीके वन्दनीय है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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