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________________ किरण ११-१२ जैनधर्म में सम्प्रदायोंका आविर्भाव [३१६ % इस शिलालेखमे यह सिद्ध होता है कि इस युगों को प्रमाणित करनेकी आवश्कता प्रतीत हुई है, वहां उन्होंने भरतक्षेत्रके भीतर सर्वप्रथम कुन्दकुन्दाचार्यने ही श्रतकी प्रायः 'जिणेहि भणियं, केवनि-भणियं, सुयकेवलि-भणिय' प्रतिष्ठा की है। अथवा 'सुत्ते वबहारदो उत्ता, दमिदा सुत्त' प्रादि पदोंका शास्त्रके प्रारम्भमें जो मगलश्लोक पढ़ा जाता है, उससे प्रयोग किया है । इन प्रयोगों में दो बातें स्पष्ट दिग्वाई देती भी इस बातकी पुष्टि होती हैं कि गौतम ग्रथित श्रु तके आद्य हैं-एक तो यह कि उन्होंने उस बातको साक्षान् केवली या प्रतिष्ठापक कुन्दकुन्दाचार्य हुए है। वह मंगल पद्य इस श्रुतकेवलीसे जाना है। श्रु नकेवली भद्रबाहुके वे साक्षात् प्रकार है शिप्य थे, यह तो गत किरणमें प्रकाशित लेखपे प्रमाणित मंगलं भगवान वीरो मंगलं गीतमो गणी। किया जा चुका है। और केवली-भणिय' आदि पद उनके मंगलं कुन्दकुन्दा- जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ विदेह में जाकर सीमंधरस्वामीके मुग्वसे साक्षात् उपदेश सुनने इस मगल-पद्यमें भ. महावीर और गौतम गणधरके की पुष्टि करत है । इसक अतिरिक सूत्रके उल्लेख भी खाम पश्चात् प्रा. कुन्दकुन्दके नामका उच्चारण अकारणक नहीं महत्व रखते हैं। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने सूत्र पदका अर्थ है बल्कि वह एक महत्त्वपूर्ण अर्थका सूचक है । श्वेताम्बर- अरहन्त या तीर्थकर-भापित और गणधर-प्रथित द्वादशांग परम्परामें 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' के स्थान पर 'मगलं स्थूल- श्रुतको ही सूत्र माना है (देग्यो सूत्रपाहुड गा० १ और भद्रार्यो' बोला जाता है, उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है भावपाहुड गाथा १०)। तथा एक स्थल पर तो 'मुत्तमंग. कि जिस प्रकार भद्रबाहुश्रुतकवलीके पश्चात् श्वे. परम्परा पुब्बगयं' (समयमार गा० ४०४) कह कर सरप्ट शब्दों में में स्थूलभद्र माधु-संघक नायक हुए हैं. उसी प्रकार दिगम्बर कहा है कि अंगश्र न और पूर्वश्र त-गत वचन ही सूत्र हैं। परम्परामें कुन्दकुन्द साधु-संघके नायक या संचालक हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है, कि उनके समय तक अन्य सूत्रमूलाचार, दर्शनपाहुड, बोधपाहुड और भावपाहुइमें उन्होंने अन्यों की रचना नहीं हुई थी, किन्तु द्वादशाङ्ग नका पठनजिस नेजके साथ माधुओंको फटकार बतलाते हुए सम्बोधित पाठन उनके सामने चल रहा था। किन्तु दिन पर दन किया है, उनसे उनकी संघ-संचालन-योग्यता और तेज- लोगोंकी ग्रहण-धारण शक्तिको हीन होती हुई देव कर अंगस्विताका सहज ही पता लग जाना है। पूर्व गन श्रनका उपसंहार गाथामें करके उन्होंने सर्व प्रथम प्रा. कुन्दकुन्दको अपने ग्रंथों में जहाँ कहीं अपने कथन- श्रुत-प्रतिष्ठानकं मार्गका श्रीगणेश किया। जैनधर्ममें सम्प्रदायोंका आविर्भाव (श्री पं० कैलाशचन्द्रजी, शास्त्री) जव विश्वका कोई धर्म सम्प्रदाय मत या पन्थ भेदसे वाला सम्प्रदाय श्चताम्बर सम्प्रदाय कहा जता है। दोनों अलना नहीं रहा नब जैनधर्म ही कसे अमृता रहना। सम्प्रदाय भगगन ऋपभदवसे लेकर भगवान महावीर पर्यन्त भगवान महावीरके पश्चात् इसमें भी दो सम्प्रदाय स्थापित चौवीय तीर्थरीको अपना धर्म-प्रवर्तक और पूज्य मानते हए । एक सम्प्रदाय दिगम्बर कहलाया और दूसरा सम्प्रदाय हैं। दोनोंक मन्दिरी में उन्हींकी मूर्तियां स्थापित हैं। किन्तु श्वेताम्बर । दिगम्बर शब्दका अर्थ है-दिशा ही जिसका अम्बर उनमें भी वही भेद पाया जाता है। अर्थात् दिगम्बरोंको (वस्त्र) हे अर्थात् वम्ब-रहित नग्न । और 'श्वेताम्बर' का मूर्तियां दिगम्बर रहती हैं और श्वेताम्बरोंकी मूर्तियां सवस्त्र अर्थ है-मन द बम्ब वाला। दिगम्बर मम्प्रदायक साधु होती हैं। इस नम्ह दोनों सम्प्रदायों में गुरुओंके वस्त्रनग्न रहते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदायके माधु सनद वस्त्र परिधानको लेकर मत-भेद है और मुख्य रूपसे इसी मतधारण करते हैं । अतः दिगम्बर (नग्न) जैन गुरुओंको भेदने सम्प्रदाय-भेदको जन्म दिया है। दोनों सम्प्रदायोंके मानने वाला सम्प्रदाय दिगम्बर जैन सम्प्रदाय कहा जाता अनुयायी अपने अपने सम्प्रदायको प्राचीन और प्रतिपक्षी है और श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्र धारी) जैन गुरुओंको मानने सम्प्रदायको अर्वाचीन बतलाते श्राते हैं। दोनोंके साहित्यमें
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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