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________________ १५२1 अनेकान्त [वर्ष १४ यह एक विधायक स्थिति है, निपेधात्मक नहीं। स्थापित नहीं होंगे, बल्कि इस सृष्टिके सेम्पूर्ण प्राणिजैन विचारकोंने, जैसा पहले संकेत किया जा चुका योंको जीनेका अधिकार मिल जायगा और उनके है, परिग्रहसे ही हिंसाकी उत्पत्ति मानी है । यदि जीवनको उसी प्रकार पवित्र माना जायेगा जैसा व्यक्तिगत जीवनमें अधिक संख्यामें मनुष्य पहले मनुष्यके जीवनको । यही जीवमात्रके अभेदकी वह अपरिग्रहका अभ्यास करें और फिर बादमें सामाज दृष्टि है जिसे जैन शासन हमें देना चाहता है, में उसका प्रसार करें तो निःसन्देह प्राणियों में इसीके साधन या मार्गको वह अहिंसा कहकर समताकी भावना आयेगी, उनमें सोहार्द बढ़ेगा पुकारता है। जिसकी साधना बिना अपरिग्रहके और केवल मानव-मानवमें ही मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध सम्भव नहीं है। विश्व-शान्तिके साधन (श्री पं० राजकुमार जैन, साहित्याचार्य, एम० ए०) एक युग था, जिसे जैन मान्यतामें भोगयुग हुआ और शनैः शनैः वे माया, मद और क्रोध जैसी अथवा शान्तियुग कहा जाता है, इस मान्यताके तामसिक दुर्बलताओंके शिकार होने लगे । हिमा, अनुसार वह अवसर्पिणीकालका प्रारम्भ था, उस झूठ चोरो, कुशील तथा परिग्रह जैमी पापसमय धर्मका अपने नामरूपसे कोई अस्तित्व नहीं वृत्तियोंकी और भी उनका आकर्पग बढ़ने लगा, था, प्रत्येक मानव सुखी था, तथा अपनी दैनिक लोगों में अमीर-गरीब और ऊँच-नीच का भद आवश्यकताओंसे निश्चित था । व्याक्त सर्वत्र बिखरे उत्पन्न हो गया, समताका स्थान विषमताने ले हए प्राकृतिक साधनांसे अपना आवश्यकताओंकी लिया. तथा सरलताका मायाचारने । उस समयके पूति किया करता था, और उस अपनी आवश्यकताके लोक-कल्याण-कामी मनीपियाँको लोगोंकी यह अनुरूप समस्त वस्तुएं उपलब्ध हो जाती थीं। तथाकथित संग्रहवृत्ति अभिशापस्वरूप प्रतीत हुई मानव-जीवन आज-कल जैसा विषम नहीं था. सर्वत्र और उन्होंने इस दुवृत्तिका नियन्त्रित करने के लिए सरलता एवं समताका साम्राज्य था। उस समय क्रमशः हा.मा.धिक, जैसे दंड विधानांकी स्थापना धनी-निर्धन एवं ऊँच-नीचका भेदभाव नहीं था.न करते हुए तथा अहिंसा, सत्य, अचीय, ब्रह्मचर्य एवं कोई राजा था न प्रजा, न कोई शापक थान शोध्या अपरिग्रहका पवित्र सन्देश देते हुए तत्कालीन मानव-जीवन बड़ा ही सरल और सन्तोषी था जनताको इस पापवृत्तिसे विरत करनेका पुण्य प्रयत्न जीविका-निर्वाहके साधनोंके समान रूपसे मल किया, किन्तु इस संग्रहवृत्तिक साथ अन्य रहने के कारण उस समयका मानः क्रोध मान, पापवृत्तियाँ भी अनियन्त्रित होकर उग्रस उग्रतर माया एवं लाभ जैसी तामसिक दुवृत्तियों का ना रूप धारण करती गई और आज इनके उग्रतम नहीं था और हिंमा, अठ, चोरी, कुशील एव परिग्रह रूपने तो युगको ही घोर अशान्तिके युगमें परिवर्तित जैसी पापवृत्तियाँ भी आजकी भांति उसकी आत्माको कर दिया। जड़ नहीं बनाये हुई थीं। तो आजका युग घोर अशान्तिका युग है, परन्तु युगने करवट ली और प्रकृति-प्रदत्त आजका व्यक्ति अशान्त है, समाज अशान्त है, साधनोंका प्रचुरतासे ह्रास होने लगा, यह हास इस राष्ट्र अशान्त है, विश्व अशान्त है। इस अशान्तिसीमा तक पहुँचा कि मानवके जीवन-निवांहम जनित भीषण ज्वालाओंसे विश्वका वातावरण बाधा उपस्थित होने लगी, फलतः लोगोंके मनमें पूर्णतया भयावह हो उठा है । आज व्यक्ति व्यक्तिको जीवन-सम्बन्धी सामग्री संग्रह करनेका लोभ उदित आत्मसात् करने में, समाज समाजको उदरस्थ करने
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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