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________________ - - किरण ५] अहिंसा और अपरिग्रह १४१ सादान समाजके अन्दर रहते हुये भी अकिंचन सच्चाई हो जाता है और फिर साधक द्वन्द्वात्मक और अनादान तपस्वी हो सकते हैं. यह आश्वासन संकल्प-विकल्पोंमें नहीं पड़ता। उसे एक उच्चतर हमें उन अत्यन्त अल्प और बचे खुचे कुछ जैन सुखकी प्राप्ति हो जाती है जिसके सामने सम्पूर्ण साधकों और तपस्वियोंसे मिलता है जिनके जीवन लौकिक सुख जो परिग्रहसे प्राप्त होता है उसे अपरिग्रहकी परीक्षा पर खरे उतरते हैं और जो नीरस और फीका लगने लगता है । यह स्थिति जब परिग्रहसे कलुपित समाजमें भी उसके प्रकाशको तक नहीं आती, साधकको निरन्तर यत्नशील रहना यथासम्भव विकीर्ण कर रहे हैं। पड़ता है और उसके पतनकी सम्भावना बनी ज्ञानकी परीक्षा अपरिग्रह में है, कौन व्यक्ति रहती है। ज्ञान या पवित्रताके मागेमें कितना अग्रसर है, हिंमाको आजकल प्रायः एक सिद्धान्तके रूपमें इसकी जांच हम उसके परिग्रही मात्रा कर रकवा जाता है और व्यक्ति और समाजको उसे सकते हैं। प्राचीन शास्त्रकारीने माना है कि पूर्ण अपनानेकी प्रेरणा दी जाती है, परन्तु अहिंसा अपारग्रहका साधना उम व्याक्तस नहा हा सकता वस्तुतः जीवनकी एक पूरी विधि ही है जो तभी जो घर में निवास कर रहा ह, अयोन जिमके ऊपर प्राप्त की जा सकती है जब उसके लिये आवश्यक गृहस्थीका भार है। फिर भी वह अपरिग्रहकी पूरी प्टिको विकसित कर लिया जाय । जब तक दिशामें काफी प्रगति कर सकता है, अदत्तके ग्रहमासे जीवनके प्रति दृष्टि सम्यक नहीं है, अहिंसाकी बात वह विरत रह मकना है, चोरीके अनेक रूपांसे कहना बेकार है, हाँ राजनीतिज्ञांकी अहिंसाकी बात अपनको सुरक्षित रख सकता है, भोग वामनामें दृसरी है। हमारा परिग्रह भी चलता रहे, व्यापारिक कमी करके वह अपनी आवश्यकताओंको काफी प्रतिद्व द्विता भी चलती रहे, व्यवहार में थोड़ा बहुत कमा कर सकता है, जिम मात्रामें और जितनी दूर शोपण भी करते रहे, सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष चोरीको तक मनुष्य अपरिग्रहकी साधना करता है उसी भी वैध मानते रहें, और साथ ही अहिंसाके पालनमात्रामें और उमी हद तक वह चित्तकी शान्ति के फलको भी प्राप्त कर लें, ऐसा लोभ साधारण प्राप्त करता है और बन्धनोंसे मुक्त होता है। सांसारिक मनुष्यको हो सकता है, परन्तु सत्यका वस्तुओंके परिग्रहके अलावा एक मतका भी परिग्रह कठोर नियम इसके लिये अवकाश नहीं देता । यदि होता है जो हमाग मत या वाद है वही मत्य है, हम परिग्रह करते हैं तो इसके माने यह है कि किसी सर्वोत्तम है, शुद्धतम है, अन्य मव मत-वाद निकृष्ट न किसी प्रकार सूक्ष्म या अप्रत्यक्ष रूपसे किसी-नहै अपवित्र है, और असत्य हैं । इस प्रकारकी दृष्टिका किमी मात्रामें हम हिंमा भी अवश्य करते हैं, या आग्रह रखना दृप्टिका परिग्रह है, बड़े बड़े विद्वान उमके लिये उत्तरदायी बनते हैं। इसलिए यदि पुरुप तक इस परिग्रहसे पीड़ित रहते हैं इमकी भी हिंमा या उमकी सम्भावनाको हटाना है तो परिछोड़ना चाहिये, अनेकान्तवादका सिद्धान्त हमें ग्रहको अवश्य धीरे धीरे कम करना ही होगा। इसके किये प्रेरणा देता है।। परिग्रह अर्थात व्यक्तिगत परिग्रह और राष्ट्रीय ___ साधनाके विकास में अपरिग्रह अहिसाका परिग्रह भी । साम्नाज्यवाद या उपनिवेशवाद राष्ट्रीय सहायक है, पहले अपरिग्रह आता है, बाद में परिग्रहके ही नाम हैं। चूंकि व्यक्तियांसे ही राष्ट्र अहिंसा सधनी है, वाम्नवमें तो अपरिग्रहसे भी बनते हैं और हिमा व्यक्तिक मनमें ही उत्पन्न होती पहले वैराग्य और नित्यानित्यवस्तुविवेक आना है। इसलिये जैनधर्म-साधनाने और सामान्यतः चाहिये, तभी अपरिग्रहके प्रेरणा मिलती है और सम्पूर्ण भारतीय धर्म-साधनाने व्यक्तिकी हिंस्र उसमें मन रमता है, जब चित्त अपरिग्रह में मुग्व भावनामें परिष्कार पर ही अधिक ध्यान दिया है। प्राप्त करने लगता है जो कि बाह्य वस्तुओंकी प्राप्तिमें हिंसा जिन कारणोंसे उत्पन्न होती है उनके दूर कर नहीं मिलता, तभी वह उसके लिये एक अनुभवकी देनेसे ही वास्तविक अहिंसाकी प्राप्ति हो सकती है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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