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क्या कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिष्य नहीं हैं ?
(श्रीहीरालाल सिद्धान्त-शास्त्री) यद्यपि प्राचार्य कुन्दकुन्दने बोधपाहडके अन्तमें रची जिसे उन गाथामें 'सहवियारो हो भासासुत्त सुज हुई दो गाथाओंके द्वारा स्पष्ट शब्दों में अपनेको द्वायशा- जिणे कहिया इन शब्दोंके द्वारा सूचित किया गया हैवेत्ता, चतुर्दश पूर्वघर और श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य वह अविच्छिन्न चला पाया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके घोषित किया है, तथापि अन्य कितने ही कारणोंसे कुछ समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्रु सज्ञान ऐतिहासिक विद्वान उन्हें पंचम अतकेवली प्रथम भदवाहका लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था, वह अनेक भाषासाक्षात् शिष्य माननेको तैयार नहीं है और उन्हें विक्रमकी सूत्रों में परिवर्तित हो गया था। इससे ११वीं गाथाके भद्रप्रथम शताब्दीमें होने वाले द्वितीय भद्रबाहका शिष्य सिद्ध बाहु, भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं।" करनेका प्रयास करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ मैं परन्तु श्रीमुख्तार साहबने 'सद्दवियारो हूओ' का ऐतिहासिक विद्वानों द्वारा दी गई, या दी जाने वाली जो अर्थ कल्पित करके कुन्दकुन्दको द्वितीय भद्रबाहुके शिष्य दलीलोंकी उलझनोंमें न पड़कर सबसे पहले उन दोनों बनानेका जो प्रयत्न किया है. वह ठीक नहीं है, क्योंकि गाथानों पर विचार करूंगा, जिनमें कि उन्होंने स्वयं ही गाथाका सीधा-सादा अर्थ मेरी समझके अनुसार इस अपनेको भद्रबाहुका शिष्य और उन्हें अपना गुरु प्रकट प्रकार हैकिया है। बोध पाहुडके अन्त में दी गई वे दोनों गाथाएँ
जो अर्थ जिनेन्द्रदेवने कहा है, वही गणधरोंके द्वारा इस प्रकार है
द्वादशांगरूप भाषात्मक सूत्रोंमें शब्द विकार अर्थात् सहवियारो हुओ भासासुत्त सु जे जिणे कहिय।। सो तह कहियं णायं सीसेण य भहबाहुस्स ॥६॥
शब्दरूपसे अथित या परिणत हुआ है और भद्रबाहुके बारस-अंगवियाणं चउदस-पुव्वंग-विउल-वित्थरणं।
शिष्यने उसी प्रकार जाना, तथा कहा है। सुयणाणि भदबाहू गमयगुरू भयवश्री जयश्रो ॥६॥ अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालासे प्रकाशित अष्टपाहुबकी
इन दोनों गाथाओंमेंसे प्रथम गाथाके पूर्वार्धकार्य भूमिकामे स्व. श्री.पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने भी संस्कृत कुन अस्पष्ट है। शु तसागर सूरिकी संस्कृत टीका और छायाके साथ अन्वय करते हुए इसी प्रकारका अर्थ किया पं० जयचन्द्रजीकी भाषा वचनिकासे भी उसका स्पष्टीकरण ।
है। यथानहीं होता। अतएव माजसे ठीक तीन वर्ष पूर्व मैंने जैन
ज-यत् जिणे-जिनेन कहिय-कथित, सो तात् समाजके गण्य-मान्य ८-१० विद्वानोंको उक्त दोनों गाथाए
भासासुत्त सु-भाषासूत्रेषु ( भाषारूप-परियात-द्वादशाह लिखकर उनका स्पष्ट अर्थ जानना चाहा था। पर उनमेंसे
शास्त्रेषु) सद्दवियारो हो-शब्दविकारो भूनः ( शहरपाचे विद्वानोंने तो जवाबी पत्र तकका भी उत्तर नहीं
विकार म्पपरिणतः ) भद्दबाहुस्स-भगवाहोः सीसेण यदिया। कुछ विद्वानोंने पत्रका उत्तर तो देनेकी कृपा की,
शिवेनापि तह-तथा णाये-ज्ञातं, कहियं कथितम् । परन्तु अर्थका कुछ भी स्पष्टीकरण न करके मात्र यह लिख उक अर्थ बिलकुल प्रकरण-संगत है और भा० कुन्दकरके मेजा कि हम भी इन गाथाओंके अर्थके विषय में कुन्दने उसके द्वारा यह प्रकट किया है कि जो वस्तु-स्वरूप संदिग्ध हैं। दो-एक विद्वानोंने वही अर्थ लिख करके भेजा, अर्थरूपसे जिनेन्द्रदेवने कहा, शब्दरूपसे जिसे गणधर जो कि पं0 जयचन्द्रजोने अपनी भाषा-वचनिकामें किया है। देवोंने भाषात्मक द्वादशांग सूत्रोंमें रचा, वहो भद्रबाहुके
श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने पुरातन जैन- शिष्य इस कुनकुन्द ने तथैव जाना और तथैव कहा । वाक्य सूचीकी प्रस्तावनामें बोधगहुडका परिचय देते हुए इस प्रकार ५१वीं गाथाका अर्थ स्पष्ट है और उसके
उत्तरार्धसे मा० कुन्दकुन्दने बहुत स्पष्ट शब्दों में अपनेको "इस प्रन्थकी ६१वीं गाया कुन्दकुन्दने अपनेको भद्र- भद्रबाहुके शिष्य होनेकी घोषणा की है। यहां यह आशका बाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः द्वितीय भद्रबाहु की जासकती थी कि भले ही तुम भद्रबाहुके शिष्य होमो? जान पड़ते हैं, क्योंकि भद्रबाहु श्रुतवलीके समयमें जिन पर भद्रबाहु नामके तो अनेक प्राचार्य हुए हैं, उनमें तुम कथित श्रु तमें कोई ऐसा विकार उपस्थित नहीं हुआ था किसके शिष्य हो ? सहजमें उठनेवाली इस माशंकाका समा