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________________ अनेकान्त [वर्ण १४ उसमें थोड़ा भी तथ्य नहीं । इसमें कोई सन्देह नहीं और कल्पनाकी वह अक्षयधाराथी जिससे अपभ्रंश कि बाणभट्टके बाद राजनीतिका इतना उग्र आलो- साहित्यका कानन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत चक, कोई दूसरा कवि नहीं हुआ। सचमुच मेल- माली थे और कविका हृदय काव्य-कुसुम । उनके पाटीके उद्यानमें, भरत और पुष्पदंतकी किसी स्नेहके बाल-बालमें सचमुच ही कविका काव्यअज्ञात मुहूर्तमें हुई वह भेंट भारतीय साहित्यके कुसुम खिल उठा। इतिहासकी बहुत बड़ी घटना है । वह भेंट अनुभूति ग्वालियरके तोमर वंशका एक नया उल्लेख (ले०-प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर, नागपुर) मध्ययुगीन जैन इतिहासमें ग्वालियरके तोमर राजवंशका स्थान महत्वपूर्ण है । इस वंशके पांच प्रसिद्ध राजा हुए- .रावारिधिख्यातगुणोऽच्छकीतिः। वीरमदेव, गणपतिसिंह, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह तथा मानसिंह। निर्नाशितानंगमहामयोमा इनके समय अर्थात् विक्रमको ५वीं-१६वीं सदीमें ग्वालियर श्रीमान यशःकीतिरनल्पशिष्यः॥६॥ बहुत ही समृद्ध दुर्ग था और वहां जैनधर्मका पर्याप्त प्रभाव कुथ्वादिजीवामना विमान था । विशेष रूपसे माथुरगच्छके भट्टारकों द्वारा मूर्ति-प्रतिष्ठा, आत्मस्वरूपानुभवाभिलाषः । शास्त्र-लेखन श्रादि धर्मकार्य यहां संपन हुये थे। तेजोनिधिः सुरिगुणाकरोऽस्ति गत वर्ष कारंजाके सेनगण मन्दिरके प्रसिद्ध शास्त्र- पट्ट तदीये मलयादिकीर्तिः ॥जा भंडारमें आचार्य कु दकुदके ग्रन्थोंकी इस्त-लिखित प्रतियों- समततो भद्रगुणानुरक्तः समंतभद्रांघ्रियुगे सुभक्तः । का अवलोकन करते समय हमें तोमर वंशके महाराज इंगर- पट्ट ततोऽस्यारिरनंगसंग-भंगः कलेःश्रीगुणभद्रसूरिः। सिंहके समयकी समयसारकी एक प्रति उपलब्ध हुई। यह आम्नाये वरगर्गगोत्रतिलकं तेषां जनानादकृत (?) प्रति वैशाख शुक्ल तृतीया, संवत् ११० को माथुरगच्छके यो (१) अन्वयमुख्यसाधुहितः श्रीजैनधर्मावृतः। भद्दारक गुणभद्रके आम्नायके भावक गर्गगोत्रीय मोलिक दानादिव्यसनो निरुद्धकुनयः सम्यक्त्वरत्नाम्बुधिद्वारा लिखवाई गई थी। इसकी प्रशस्ति काफी विस्तृत है जज्ञेऽसौ जिनदाससाधुरनघो दासो जिनांघ्रिद्वयोः॥ और सस्कृत भाषाकी दृष्टिसे भी पठनीय है। इससे उस गुणगणरत्नखनिः पतिभक्ता समयके ग्वालियरके वैभवका अच्छा प्राभास मिलता है, जिनवरचरणशरणपरचित्ता। तथा राजा दंगरसिंहके समय पर भी कुछ और प्रकाश परिहतपंककलंकविनीताऽपड़ता है। यह पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है भवदबलास्मिन् शुभगतिडाली ॥१०॥ येषामंघ्रिनतेर्भव्या नम्यते जगता श्रिया । आलिंग्यते नमस्तेभ्यो जिनेभ्यो भवशांतये ॥१॥ उदारचित्तः परदारबन्धुगुणौघसिन्धुः परकार्यसंधः। गगनावानभूतेंदुगण्ये (१५१०) श्रीविक्रमागते अभूद्धवि प्राप्तगुरुत्वमानः खेताहयस्तत्तनुजो जनेष्टः।। अब्दे राधे तृतीयायां शुक्लायां बुधवासरे ॥२॥ चित्त यस्या विरक्तंभवसुखविषयेजन्मभीरुर्विमान्या(१) जिनालयैराव्यगृहैर्विमानसमैर्वरैश्च बितवायमार्गः। सौमानिन (?) पुत्रवल्लभवचनाकर्णने दत्तकर्णा। अदीनलोकोजनमित्रसौख्यप्रदोऽस्ति गोपादिरिहद्धिपर पात्रे दानावधाना धनजननिचये भावितानित्यभावा श्रीतोमरानूकशिखामणित्वं भावादेवी निधाना परिजनहृदयानंददात्री तदीया॥१२ यः प्राप भूपालशतार्चितांघ्रिः। तदात्मजो जननयनामृतप्रदो दिव्य (?) श्रीराजमानो हतशत्रुमानः कृताखिलकुमतिः सुसंगतिः। श्रीदुगरेंद्रोऽत्र नराधिपोऽस्ति ॥४॥ कलावलो गुरुपदपद्मषट्पदोऽस्ति दीक्षापरीक्षानिपुणःप्रभावान् प्रभावयुक्तोद्यमदादिमुक्तः । मोलिको निजकुलपकजायम .मोलिको निजकुलपंकजार्यमा ॥१३॥ श्रीमाथुरानूकललामभूतो भूनाथमान्यो गुणकीर्तिसूरिः५ . वाल्हाही (१) ॥ श्री श्री श्री ॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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